आज सुबह टेलीविज़न बुलेटिन ने बताया कि एक जज साहब जनता के आक्रोश के शिकार हुए और भीड़ ने उन्हें सड़क पर दौड़ा-दौड़ा कर मारा। मुआमला सिर्फ इतना था कि जज साहब की इगो को इस बात से ठेस पहुंची कि एक ट्रक ड्राईवर ने उनको ओवरटेक करने के लिए साइड नहीं दी। ट्रक ड्राईवर जैसे तुच्छ प्राणी की इस बदतमीज़ी से हिज़ हाइनेस क्रोधित हो गए और उन्होंने उसे सबक सिखाने के लिए कानून की धज्जियाँ उड़ाते हुए अपनी गाडी फ़िल्मी स्टाइल में ट्रक के आगे अड़ा दी। सड़क पर अचानक लगी इस अदालत का ट्रक वाला अंदाज़ा नहीं लगा सका और उसका फुटपाथी ट्रक जज साहब की आलिशान गाड़ी से जा टकराया। टक्कर से उत्पन्न हुए मोमेंटम ने गाड़ी को डिवाइडर की ओर धकेल दिया जहाँ एक बच्चा जज साहब की इगो के नीचे कुचला गया।
यह घटना अनेक प्रश्न खड़े करती है। चूँकि प्रश्न हमारी न्याय प्रणाली को कठघरे में खड़ा करते हैं, इसलिए मैं उनके उठने से पूर्व ही बिना शर्त मुआफ़ी मांग रहा हूँ। हमारे न्याय के मंदिरों में जिन लोगों को न्यायाधीश बनाकर अनेकानेक विशेषाधिकार दिए गए हैं; उनके व्यक्तिगत अहंकार, सर्वोपरि होने की उनकी भावना, अवमानना जैसा अस्त्र क्या वास्तव में आवश्यक हैं?
प्रश्न यह भी है कि उन्हीं गवाहों, उन्हीं सबूतों और उन्हीं कानूनों के तहत निचली अदालत में किसी को दोषी ठहराया जाता है, जिनके आधार पर ऊंची अदालत उसे निर्दोष साबित कर देती है; तब क्या निचली अदालत ने न्यायाधीश के विरुद्ध गलत फैसला देने के अपराध में कोई कार्रवाई होती है?
क्या इस न्याय प्रणाली ने कुछ हम-तुम जैसे सामान्य मानवों को नियामक बनाकर स्वयं को भगवान मान लेने की ग़लतफ़हमी के बीज नहीं बोए हैं? क्या अहम् और आत्ममुग्धता की ज़मीन पर उगने वाली वल्लरियों के पर्णों को संविधान की ऊँगली थाम कर न्याय के कंगूरों तक पहुँचना स्वीकार होता होगा? जो जज साहब ट्रक वाले के साइड न देने पर आपा खो सकते हैं, वे मुजरिम या मुलाजिम द्वारा सलाम न किये जाने पर क्या कुछ नहीं कर सकते!
प्रश्न यह भी है कि एक आम आदमी न्याय प्रक्रिया और अदालती माहौल पर विमर्श करने की सोचे तो इसमें अदालत की अवमानना कैसे हो सकती है? हिंदी फिल्मों ने कई दशकों तक अदालती प्रक्रियाओं को पैसे के कोठे पर मुजरा करते दिखाया है। दामिनी, इंसाफ का तराजू, आखिरी रास्ता, अदालत, जॉली एलएलबी, मेहंदी, मेरा साया और मेरी जंग जैसी तमाम फिल्मों ने वकीलों और जजों की लापरवाही व भ्रष्टाचार के अनगिनत उदाहरण पेश किये हैं। फिर किसी लेखक द्वारा इस प्रक्रिया की समालोचना को अपराध कैसे ठहराया जा सकता है।
पहली बार किसी लेख में पाठकों से जानना चाहता हूँ कि क्या आपको अदालत और अदालती लोगों पर एक स्वतन्त्र विमर्श की आवश्यकता महसूस नहीं होती?
© चिराग़ जैन
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