Friday, August 31, 2018

जीत कर पछता रहे हैं

जब तलक संघर्ष में थे, व्यस्तता के हर्ष में थे
दृश्य कितने ही मनोरम, कल्पना के स्पर्श में थे
स्वप्न जबसे सच हुआ, उकता रहे हैं हम
जीत कर पछता रहे हैं हम

जब हमें हासिल न थी, मंज़िल लुभाती थी निरन्तर
बाँह फैलाए हमें हँसकर बुलाती थी निरन्तर
पर पहुँच कर जान पाए, है निरी रसहीन मंज़िल
राह गति की सहचरी है, हलचलों से हीन मंज़िल
हम सरीखे युग-विजेता हर जगह बिखरे पड़े हैं
हम स्वयं को ही बड़ा समझे, यहाँ कितने बड़े हैं
हर किसी की कीर्ति गाथा से हुई है त्रस्त मंज़िल
हर घड़ी तोरण सजाए, स्वागतों में व्यस्त मंज़िल
राह के जिस मोड़ से गुज़रे वहाँ बाक़ी रहे हम
किन्तु मंज़िल पर पहुँचकर नित्य एकाकी रहे हम
रास्तों को याद अब भी आ रहे हैं हम
जीत कर पछता रहे हैं हम

याद आता है दशानन किस तरह टूटा हुआ था
याद है अभिमान का हर एक प्रण झूठा हुआ था
गूँजता है कान में वह युद्ध का जयघोष भीषण
याद सागर को रहेगा राम का आक्रोश भीषण
क्या ज़माना था हमारे नाम से पत्थर तिरे थे
मौत से टकरा गए सब यार अपने सिरफिरे थे
प्रेम मीठे बेर चखकर रोज़ रखता था, समय था
वाटिका में प्रीत का बूटा महकता था, समय था
हम अगर छू लें, शिलाएँ बोल उठती थीं, समय था
नाम भर से पापियों की श्वास घुटती थी, समय था
जंगलों में भी कभी सत्कार होता था, समय था
हम जिधर भी चल दिये, त्यौहार होता था, समय था
मन पुरानी याद से बहला रहे हैं हम
जीत कर पछता रहे हैं

हम खड़े थे साथ जिसके, जय उसी के द्वार आई
हर प्रखर संकल्प अपना सृष्टि हम पर वार आई
शास्त्र को छूकर न जाना, पर महाभारत लड़ा था
युद्ध के मैदान में भी धर्म का पोथा पढ़ा था
काज जो सम्भव नहीं थे, वो हमीं ने कर दिखाए
पर्वतों की ओट लेकर इंद्र को ललकार आए
कालिया के दाह में हम कूद जाते थे अकेले
खेल में सुलझा दिए थे, विश्व के कितने झमेले
मित्रता की रीत के प्रतिमान हम ही ने गढ़े हैं
और पावन प्रीत के उपमान हम ही ने गढ़े हैं
बाँसुरी की तान पर यौवन थिरकता था हमीं से
जब सुदर्शन धार लें तो पाप कँपता था हमीं से
पदकमल से व्याल को भरमा रहे हैं हम
जीत कर पछता रहे हैं हम

© चिराग़ जैन

सुख का आमंत्रण

पीड़ा की तैयारी कर लो, सुख का आमंत्रण आया है
जब-जब कंचन मृग देखा है, तब-तब इक रावण आया है

ईश्वर का अवतार जना है, माता को अभियोग मिलेगा
कान्हा जैसा लाल मिला है, आगे पुत्रवियोग मिलेगा
नारायण के बालसखा ने निर्धनता के कष्ट सहे हैं
वंशी के रसिया जीवनभर, समरांगण में व्यस्त रहे हैं
राधा के जीवन में दुख से पहले वृंदावन आया है
जब-जब कंचन मृग देखा है, तब-तब इक रावण आया है

वरदानों का सुख पाया तो, सुख का फल अभिशाप हुआ है
तप का पुण्य कुमारी कुंती के जीवन का पाप हुआ है
जो शाखा फैली है उसने कट जाने की पीर सही है
अर्जुन जैसा वर पाया, फिर बँट जाने की पीर सही है
पहले रानी बनने का सुख, पीछे चीरहरण आया है
जब-जब कंचन मृग देखा है, तब-तब इक रावण आया है

सुख के पीछे दुख आएगा, हर क़िस्से का सार यही है
जितनी घाटी, उतनी चोटी, पर्वत का विस्तार यही है
यौवन आने का मतलब है, आगे तन जर्जर होना है
जिस धारा ने निर्झर देखा, अब उसको मंथर होना है
नदियों में ताण्डव उफना है, जब घिरकर सावन आया है
जब-जब कंचन मृग देखा है, तब-तब इक रावण आया है

© चिराग़ जैन

Wednesday, August 29, 2018

उम्मीदों की राह चला हूँ

हर सन्नाटा मुखरित होगा, जब मैं स्वर लेकर पहुँचूँगा
उम्मीदों की राह चला हूँ, मैं ख़ुशियों के घर पहुँचूँगा

थक कर टूट नहीं सकता हूँ, मुझको श्रम का अर्थ पता है
बढ़ने की इच्छा कर देगी, हर मुश्क़िल को व्यर्थ पता है
मेरे हाथों की रेखाओं में इतनी कठिनाई क्यों है
निश्चित मानो, भाग्य विधाता को मेरा सामर्थ पता है
पीड़ा को उत्सव कर लूँगा, आँसू को गाकर पहुँचूँगा
उम्मीदों की राह चला हूँ, मैं ख़ुशियों के घर पहुँचूँगा

मेरे मग में संघर्षों के ठौर न आएँ; नामुम्किन है
अपना बनकर ठगने वाले और न आएँ; नामुम्किन है
फिर भी हर पतझर को पानी देता हूँ, विश्वास मुझे है
फाग उड़े और अमराई पर बौर न आए; नामुम्किन है
हर आँधी से जूझ रहा हूँ, हर सावन जीकर पहुँचूँगा
उम्मीदों की राह चला हूँ, मैं ख़ुशियों के घर पहुँचूँगा

जो औरों पर लद जाता हो, मैं ऐसा क़िरदार नहीं हूँ
अपमानित होकर मुस्काऊँ, इतना भी लाचार नहीं हूँ
जितने डग नापूंगा, उतनी धरती मेरे नाम रहेगी
अपने पैरों पर चलता हूँ, बैसाखी पर भार नहीं हूँ
जितना पहुँचूँगा अपने ही पैरों पर चलकर पहुँचूँगा
उम्मीदों की राह चला हूँ, मैं ख़ुशियों के घर पहुँचूँगा

© चिराग़ जैन

Monday, August 27, 2018

ज्ञान की सजावट

भारत में समाज सुधारकों की भरमार रही है लेकिन समाज सुधर न सका। इसका यह अर्थ नहीं है कि समाज सुधारकों के मन में कोई बेईमानी थी। इसका कारण यह है कि हमारी ग्राह्यता और उनकी सम्प्रेषणीयता में तारतम्य नहीं था। यदि ऐसा न होता तो एक नानक ही पर्याप्त थे समूची मानवता के लिए। एक महावीर ही बहुत थे प्राणिमात्र के चित्त में अहिंसा की प्रतिष्ठापना के लिए। एक तथागत के बाद अन्य किसी की आवश्यकता ही न होती। ये सब निष्ठा और ऊर्जा के चरम पर पहुँचे हुए लोग थे।
किन्तु हमारी ग्राह्यता इतनी क्षमतावान न हो सकी। हम समझने में चूक कर गए। हम वह सुन ही न सके जो इन सुधारकों ने कहा। हम उनके तत्पर्यों से दाएँ-बाएँ होते रहे। हमने अपने-अपने अर्थ गढ़ लिए।
उन्होंने कहा- ‘कन्या भ्रूण हत्या न करो’। हमने सुना- ‘कन्या के अतिरिक्त सबकी भ्रूण हत्या कर दो।’ उन्होंने कहा- ‘स्त्री को कमज़ोर मत समझो।’ हमने सुना- ‘कमज़ोर तो पुरुष है, उसे कुचल दो।’ उन्होंने कहा- ‘मज़हब के नाम पर मत लड़ो।’ हमने सुना- ‘अन्य किसी भी कारण से लड़ते रहो।’ उन्होंने कहा- ‘दहेज के लिए वधू को मत मारो।’ हमने सुना- ‘दहेज के ऐसे क़ानून बना दो कि वर को मारा जा सके।’
हमने वो सुना ही नहीं, जो वे कहना चाहते थे। उन्होंने सती प्रथा की कुरीति का विरोध किया। किसी जीते जागते प्राणी को चिता में झोंक देने की परंपरा का विरोध किया। उन्होंने विधवा स्त्रियों पर किये जाने वाले अत्याचारों के विरोध किया। लेकिन उन्होंने ऐसा कदापि नहीं कहा कि किसी विधवा स्त्री को उच्छृंखल होने दिया जाय। उन्होंने यह कतई नहीं कहा कि वैधव्य सहानुभूति अर्जित करने का ज़रिया बना दिया जाय।
उन्होंने जाति प्रथा का विरोध किया। मनुष्य को मनुष्य समझने की वक़ालत की। किन्तु हमने उनके इस प्रयास को पलट दिया। हमने पूर्व में शोषित होते रहे मनुष्यों के वंशजों को पूर्व के सवर्ण समुदाय की संतानों से बदला लेने के मार्ग खोल दिये। जिन्हें संभ्रांत बनाना था, उन्हें अराजक बनाने पर तुल गए हम।
नारियों को क़ानून के तराजू पर समानांतर रखने को कहा गया तो हमने क़ानून का तराजू ही झुका दिया। हमने नारी को इतनी हिम्मत न दी कि वह उचककर न्याय तंत्र को छू सके बल्कि हमने न्याय का संतुलित वृक्ष ही नारी के क़दमों में झुका डाला। अब अन्याय उलट गया। एक ही ओर झुकी-झुकी न्याय प्रक्रिया कुबड़ी हो गई है। हम समस्याओं का समाधान ढूंढते-ढूंढते समाधान को समस्या बना बैठे।
हम समझ ही न सके कि धरती पर न होने का अर्थ आकाश में होना नहीं है। लेकिन हम युगों-युगों से धरती से अनुपस्थित लोगों को तारों में ढूंढने की प्रक्रिया में व्यस्त हैं। हम मान बैठे हैं कि यदि कोई आस्तिक नहीं है तो वह नास्तिक ही होगा। हमने धारणा बना ली है कि जो इस्लाम को नहीं मानता वह क़ाफ़िर ही होगा। हम आश्वस्त हो गए हैं कि जो सत्य नहीं बोलता वह असत्य अवश्य बोलेगा।
कैसी मूर्खतापूर्ण मान्यता है। किसी ने कहा कि फलां धर्म का सम्मान करो, और हमने सुना कि बाकी सब धर्मों का अपमान करो। किसी ने कहा कि फलां धर्मग्रंथ में सब सच लिखा है और हम मान बैठे कि बाकी सब ग्रंथ झूठे हैं।
चूक सुधारकों से भी हुई है। उन्होंने प्रापक के स्तर को समझे बिना, उसकी समझ की फ्रीक्वेंसी को मापे बिना ही संदेश भेज दिया। यह समझा ही नहीं कि हवाई जहाज से जाने वाली डाक उस स्थान पर नहीं भेजनी चाहिए जहाँ हवाई अड्डा ही न बना है। संदेश का माध्यम क्या है यह कतई महत्वपूर्ण नहीं होना चाहिए, बल्कि संदेश का प्रभाव कितना है इसको मापदंड बनाना चाहिए।
विशेषणों ने बड़े विचारों की हत्या कर दी। सीधे कहना चाहिए था कि भ्रूण हत्या न करो। बस, बात यहीं सम्पन्न हो जाती। इसमें कन्या या कुमार का प्रश्न ही नहीं उठना चाहिए था। आपको स्पष्ट बोलना था कि न्याय निष्पक्ष होना चाहिए। इसमें स्त्री, पुरुष, दलित, सवर्ण, गोरा, काला जैसे शब्द जोड़ने की आवश्यकता ही नहीं थी। साफ-साफ कह देते कि मांसाहार न करो। इसमें गाय, सूअर, बकरा, कुत्ता न जोड़ते तो संदेश समाधान बन जाता।
ज्ञान की सजावट के चक्कर में आपने समाधान को समस्या बना दिया। आज तक हमने इस ढर्रे को बदला नहीं है। हम अभी तक विशेषणों की लुटिया में समाधान का सागर भरने की होड़ कर रहे हैं और यही कारण है कि हर सामाजिक आंदोलन की लुटिया डूबती जा रही है।

© चिराग़ जैन

Saturday, August 25, 2018

आसान नहीं है कविता लिखना

माली ने 
माला बनानी चाही 
झखझोरी गईं डालियाँ .
बेन्धे गए फूल 
लदता रहा धागा। 

शिल्पी ने मूर्ति गढ़नी चाही 
टूटते रहे पत्थर 
घिसती रही छैनी 
चीखती रही हथौड़ी। 

माँ ने रोटी सेंकनी चाही 
पीसा गया गेहूँ 
गूंदा गया आटा 
जलता रहा तवा। 

कवि ने कविता लिखनी चाही 
तो शब्द अपने अर्थों में सिमट गए 
भाषा, व्याकरण की ओट में दुबक गई 
और कवि झेलता रहा 
यादों की चुभन 
भावों का वेग 
संबंधों की टूटन 
अभिव्यक्ति की चीख़ 
पिघलता रहा उसका मन 

आसान नहीं है कविता लिखना 
खौलते तेल में 
जलेबी छोड़ने का अनुभव चाहिए हुज़ूर 
गति और यति 
एकदम सही 

ज़रा सी भी कम ज़्यादा हुई .
तो थप्पा सा तल जाएगा ख़मीर का 
फिर इन बारीक़ नखरीली चकरियों को 
चाशनी में पगाना 
क्या मज़ाल कि एक भी जलेबी टूट जाए! 

कारीगरी है साहब 
तभी तो कानों में 
करारी मिठास सी घोल जाती हैं 
....ग़ालिब की ग़ज़लें 
....तुलसी की चौपाइयां! 

© चिराग़ जैन

Thursday, August 16, 2018

अटल बिहारी वाजपेयी जी के महाप्रयाण पर

भारत का योग्य सपूत गया 
मानवता का अवधूत गया 
नैतिकता का क़िरदार गया 
हिम्मत का लम्बरदार गया 
संसद का उन्नत भाल गया 
भारत माता का लाल गया 
इक अद्भुत इच्छाशक्ति गई 
सद्भावों की अनुरक्ति गई 
जनहित का अथक प्रयत्न गया 
भारत का अनुपम रत्न गया 
दुनिया से बाज़ी मार गया 
युग "अटल सत्य" से हार गया 
धरती रोई, अम्बर रोया 
हर इक आँगन, हर घर रोया 
भीगी हैं करगिल की पलकें 
संस्कृति के भी आँसू छलके 
है मौन पोखरण की धरती 
कविताओं की आँखें झरती 
वक्तव्य कला का ताज गया 
चुटकी का एक रिवाज़ गया 
रसपूरित वाणी मौन हुई 
तर्कों की भाषा गौण हुई 
दिल्ली सूनी, संसद सूनी 
जन-जन की पीर हुई दूनी 
वह अनुशासन का पालक था 
भीतर से निश्छल बालक था 
जय-विजय खूंटियों पर टांगी 
गरिमा की लीक नहीं लांघी 
अन्तस् में नहीं दुभात चला 
वह सबको लेकर साथ चला 
कुछ पक्ष-विपक्ष नहीं जाना 
मानव को बस मानव माना 
वह राजधर्म का साधक था 
भारत भू का आराधक था 
जीवन जीकर भरपूर गया 
वह शून्य क्षितिज पर पूर गया 
लग गया श्वास लय पर विराम 
हे दिव्य तुम्हें शत-शत प्रणाम 

-चिराग़ जैन

Wednesday, August 15, 2018

अंतरिक्ष में क्या मिलेगा

किसी ने मोदी जी से पूछा कि अंतरिक्ष में क्या मिलेगा?
मोदी जी बोले - 'मेरी बातें'!

© चिराग़ जैन

ये संसार रहेगा

प्रीति रहेगी, प्यार रहेगा, जीवन का विस्तार रहेगा
हम सब कुछ दिन बाद न होंगे, लेकिन ये संसार रहेगा

सन्नाटे से शोर उगेगा, शोर पुनः सन्नाटा होगा
मंदी होगी, तेज़ी होगी, लाभ रहेगा, घाटा होगा
सारे सौदागर मर जाएँ, फिर भी ये बाज़ार रहेगा
हम सब कुछ दिन बाद न होंगे, लेकिन ये संसार रहेगा

स्वप्न यही होंगे नयनों में, लेकिन नयन बदल जाएंगे
अर्थ यही होंगे बातों के, लेकिन कथन बदल जाएंगे
आज हमारे मन में है जो, यह ही शेष विचार रहेगा
हम सब कुछ दिन बाद न होंगे, लेकिन ये संसार रहेगा

हम जलकण हैं लहरों में मिल, थोड़ा-बहुत बहल जाएंगे
सागर ऐसे ही गरजेगा, हम बादल में ढल जाएंगे
हर पल कुछ लहरें टूटेंगीं, पर सागर में ज्वार रहेगा
हम सब कुछ दिन बाद न होंगे, लेकिन ये संसार रहेगा

हर त्रेता में कलयुग होगा, हर कलयुग में त्रेता होगा
हर युग में इक श्रवण रहेगा, हर युग में नचिकेता होगा
उत्तर भी बहुतायत होंगे, प्रश्नों का अंबार रहेगा
हम सब कुछ दिन बाद न होंगे, लेकिन ये संसार रहेगा

© चिराग़ जैन

Sunday, August 12, 2018

कौन क़तरा है

ख़र्च ही भेजना रिश्ता नहीं साबित करता
प्यार कितना है, ये पैसा नहीं साबित करता

बस यही बात उसे सबसे बड़ा करती है
वो किसी शख़्स को छोटा नहीं साबित करता

ख़ुद ही दिख जाती है परबत की बुलन्दी सबको
ख़ुद को आकाश भी ऊँचा नहीं साबित करता

सच तो अपनी ही हक़ीक़त बयान करता है
वो किसी और को झूठा नहीं साबित करता

सबको आगोश में भर लेता है आगे बढ़कर
कौन क़तरा है, ये दरिया नहीं साबित करता

रौशनी कितनी है ये बात बताता है ’चिराग़’
कितना गहरा था अंधेरा, नहीं साबित करता।

© चिराग़ जैन

Saturday, August 11, 2018

हाल-ए-हक़ीक़त

गुलों को ख़्वाब चमन के दिखा के छोड़ दिया
सवेरे हाल-ए-हक़ीक़त बता के छोड़ दिया

शिकस्त मुझसे बढ़ा देती दुश्मनी उसकी
उसे शिकस्त के नज़दीक ला के छोड़ दिया

अब अपने सच की गवाही कहाँ-कहाँ दूँ मैं
बस उनके झूठ से पर्दा हटा के छोड़ दिया

ज़माना उसके तरन्नुम में क़ैद है अब तक
जो गीत मैंने कभी गुनगुना के छोड़ दिया

मुझे नसीब भला आज़मा के क्या देखे
उसे ही मैंने अभी आज़मा के छोड़ दिया

वो सुर्ख़ हो गयी मेरी ज़रा-सी ज़ुर्रत से
फिर उसने हाथ मेरा मुस्कुरा के छोड़ दिया

© चिराग़ जैन

Tuesday, August 7, 2018

दिल्ली की व्यवस्था

वैसे दिल्ली दिलवाले मरीजों की राजधानी मानी जाती थी, लेकिन आजकल प्रदूषण ने इसे फेफड़ेवाले मरीजों की फैक्ट्री बना दिया है।
स्मार्टफोन के कैमरे और यूट्यूब से कमाई की ख़बरों ने जिस कौम का सबसे ज़्यादा नुक़सान किया है वह है आशिक़। सफदरजंग मक़बरा, पुराना किला, लोदी गार्डन, कुदसिया पार्क, कालिंदी कुंज, गार्डन ऑफ फाइव सेंसेज़, इंडिया गेट और इंद्रप्रस्थ पार्क जैसे सैंकडों तीर्थस्थल अपने चेहरे पर वीराना लपेटे माहौल सुधरने का इंतज़ार कर रहे हैं। मुहब्बत के रूहानी किस्सों को शरारत की चटपटी कहानियों में तब्दील करने के लिए जिन बगीचों का निर्माण दूरदर्शी राजाओं ने करवाया था वे सवेरे मॉर्निंग वॉक वालों, दोपहर में किन्नरों और शाम को स्मैकियों से भरे रहते हैं। झाड़ियाँ आशिक़ों के इंतज़ार में हरी होती जा रही हैं और आशिक़ मौके की तलाश में मुरझाते जा रहे हैं।
बाज़ार फुटपाथ पर आ गए हैं और लोग बाज़ार में। सरकारी ठेकेदार सड़क बनाते समय दोनों किनारों की चार-छह फुट जगह अनदेखी कर देता है ताकि बरसात का पानी जब भूमिगत होने की चेष्टा करे तो उसे डूब मरने की जगह मिल जाए। बरसात न होने की स्थिति में यही छूटी हुई जगह स्वच्छता के सरकारी दावों पर धूल उड़ाने का काम करती है।
गाड़ियों ने सड़कों पर हमला बोल रखा है और सड़कों ने स्पीड पर। चालीस फुट की सड़क को हमने बहुत बेहतरीन तरीके से विभाजित कर रखा है। दोनों तरफ़ चार-चार फीट उस फुटपाथ के लिए जो किसी को दिखता नहीं, फुटपाथ पर नो पार्किंग के बोर्ड से टो-अवे ज़ोन तक के बोर्ड की दस-दस फीट जगह गाड़ी पार्किंग के लिए, सड़क के बीचोंबीच चार फीट का डिवाइडर, शेष चार-चार फीट जगह वाहनों के लिए बचती है। ऐसी सड़क व्यवस्था देखकर सरकार गर्व कर सकती है कि वाहन चल पाएँ या न चल पाएँ पर हमारी सड़कों पर एलिमेंट सारे मौजूद हैं।
मुहल्लों में लोगों ने पार्किंग की जगह घेरने के लिए पर्यावरण से प्यार करना सीखा। कच्ची कॉलोनियों में घर के बाहर ईंटें भिड़ा-भिड़ाकर किचन गार्डन का शगल किया जाता है जहाँ दिन भर घर की नालियों का पानी सड़ांध मारता है ताकि कोई असामाजिक तत्व उस सुंदर उद्यान को हानि पहुँचाने के लिए खड़ा न हो सके, और रात को वहाँ घर के मालिक का दुपहिया या चौपहिया वाहन स्थापित हो जाता है। फ्लैट्स में रहने वाले लोग पुराने स्कूटर सहेजकर रखते हैं ताकि उन्हें आड़ा खड़ा करके गाड़ी की जगह घेरी जा सके।
सरकार के काग़ज़ों में जो पन्द्रह साल पुराने दुपहिये कंडम हो गए हैं, हमारे शहर में बिना कोई सरकारी नियम तोड़े ही उनका प्रयोग किया जा रहा है। उसे कहते हैं कचरे से बिजली बनाने का हुनर। यह और बात है कि इतनी बढ़िया पार्किंग व्यवस्था के बावजूद हमारे शहर के थानों में गाड़ी पार्किंग से जुड़े मुहल्ले के झगड़ों की कोई कमी नहीं हो सकी है। रात के समय किसी पॉश कॉलोनी में जाकर देखो तो ऐसा लगेगा कि आप किसी बहुत बड़ी पार्किंग ग्राउंड में आ गए हैं, जहाँ बीच-बीच में दस-पाँच घर भी पार्क कर दिए गए हैं।
सरकार ने विदेशों की नक़ल करके एक बीआरटी गलियारा बनवाया। जब यह गलियारा बन रहा था तो मूलचन्द चौक से लेकर चिराग़ दिल्ली वाली पूरी सड़क पर ज़ोरदार जाम लगता था। उस समय हम दिल्लीवाले एक-दूसरे को यह कहकर दिलासा देते थे कि बीआरटी की कंस्ट्रक्शन के कारण जाम लग रहा है। फिर कुछ वर्ष बाद गलियारा बन गया। सड़क के बीच में उगे हुए बँटवारों ने हमें सुख कम, दुःख ज़्यादा दिया। अलग-अलग लेन में चलने की व्यवस्था देखकर हम समझ गए कि सरकार हमें बाँटना चाहती है। सो हमने सरकारी मनसूबों पर ऐसा पानी फेरा कि नयी सरकार को आकर वह कॉरिडोर तुड़वाने का टेंडर निकालना पड़ा। यह है हमारी मिलकर चलने की प्रवृत्ति।
बरसों से काली-पीली टैक्सियों से ऊब कर हमने ऊबर-ओला का हाथ थाम लिया। एयर कंडीशन्ड टैक्सियों में बाइज़्ज़त सवारी करके हम इतने प्रसन्न हो गए कि काली-पीली टैक्सी चालकों के दुर्व्यवहार को सुधारने के सभी प्रयास ध्वस्त कर दिए। जब सबने ऊबर-ओला की एप्लिकेशन डाउनलोड कर ली तो अचानक उतनी ही दूरी के लिए उसी टैक्सी का किराया कम-ज़्यादा होने लगा। ईमानदार कंपनियों ने कहकर हमसे डेढ़ गुना से लेकर तीन गुना तक किराया वसूलना शुरू कर दिया। कैब बुक करने पर ड्राइवर आपका इंटरव्यू लेता है। आपको कहाँ जाना है? पेमेंट कैश है कि नहीं? आपसे पूरी जानकारी लेने के बाद वह बिना कोई जवाब दिए फोन काट देता है। आप इंटरव्यू का रिज़ल्ट आने की प्रतीक्षा करने लगते हैं। सामान्यतया दस-पंद्रह मिनिट में आपका आवेदन निरस्त कर दिया जाता है। और कई बार बीस-बाइस मिनिट प्रतीक्षा करने के बाद आप अपने हाथों से कैंसिलेशन कर देते हैं। कैब कंपनी आपकी इस धृष्टता के लिए आप पर जुर्माना लगा देती है। इन सब स्थितियों की शिकायत करने में आप समय नष्ट न करें इसलिये इन कंपनियों ने अपना कोई फोन नंबर सार्वजनिक नहीं किया है।
परिवहन की एक अन्य शानदार सवारी के रूप में हमारे पास ई-रिक्शा का विकल्प है। जब ई-रिक्शा की शुरुआत हुई थी तब इनका किराया सामान्य रिक्शा से कम था, क्योंकि यह बिजली से चलती है। अब जब सभी सामान्य रिक्शा वाले ई-रिक्शा धारक हो गए तो इनके किराए सामान्य रिक्शा से लगभग ढाई गुना हैं क्योंकि अब जनता के पास कोई विकल्प नहीं है।
हम ओला, ऊबर, ई-रिक्शा की समस्याओं को लेकर सरकार के पास जाते हैं तो सरकार बताती है कि वह अभी प्रदूषण से निबटने में व्यस्त है। कोरोना के कारण मेट्रो और डीटीसी में कम लोगों को भेजा जाएगा ताकि सोशल डिस्टेन्स मेंटेन किया जा सके। पैट्रोल-डीजल की गाड़ियों पर ईवन-ऑड लागू होगा ताकि प्रदूषण कम हो। ओला-ऊबर में दो से अधिक सवारी नहीं बैठेगी ताकि कोरोना न फैले।
हम सरकार से पूछते हैं कि पूरी परिवहन व्यवस्था चरमरा रही है। सरकार बताती है कि यह सरासर आरोप है। परिवहन व्यवस्था चरमरा रही होती तो सरकार कैसे चलती?
हम अपनी शिकायतें और अपना-सा मुँह लिए खड़े रह जाते हैं और मन ही मन धन्यवाद देते हैं उन कंपनियों को जिन्होंने शिक़ायत करने के लिए कोई नम्बर ही जारी नहीं किया है।

© चिराग़ जैन

Sunday, August 5, 2018

हौसला सलामत है

जब तलक़ ज़मीं से ये राब्ता सलामत है
फिर बहार लाने का हौसला सलामत है

घर उजड़ गया उसका, उम्र कट गई सारी
जिसके हक़ में मुंसिफ़ का फ़ैसला सलामत है

इल्म भी नहीं होगा उड़ चुके परिंदों को
एक ठूंठ पर उनका घोंसला सलामत है

काट ली सज़ा जिसकी, हो चुका बरी जिससे
आज भी मेरे दिल में वो ख़ता सलामत है

मुद्दतों से चूल्हे की रोटियाँ नहीं खाईं
पर अभी ज़ुबां पर वो ज़ायक़ा सलामत है

© चिराग़ जैन

हारने का डर

फूल, ख़ुश्बू, रंग तो मौसम चुरा ले जाएगा
कौन लेकिन बाग़बां का हौंसला ले जाएगा

हो गए बर्बाद तो फिर जश्न होना चाहिए
देखते हैं वक़्त हमसे और क्या ले जाएगा

जीतने की चाह छोड़ी, अब निभाकर दुश्मनी
हारने का डर मेरा दुश्मन लिवा ले जाएगा

दस्तख़त बेटे की ज़िद पे कर के बूढ़े ने कहा-
“क्या लुटा सकता था मैं, तू क्या लिखा ले जाएगा“

इल्म वाले बस तकल्लुफ़ में फँसे रह जाएंगे
ज़िन्दगी की मौज कोई सिरफिरा ले जाएगा

© चिराग़ जैन

Friday, August 3, 2018

मरासिम

यार दहशत से समर्पन नहीं जीता जाता
रूप मिल सकता है, यौवन नहीं जीता जाता

क्या मरासिम की रवायत में कोई ख़ामी है
तन लिवा लाते हैं पर मन नहीं जीता जाता

एक झोंके की छुअन से ही बरस जाता है
आंधियो! शोर से सावन नहीं जीता जाता

सामने वाले के एहसास पे हारो ख़ुद को
प्यार का खेल है, जबरन नहीं जीता जाता

हौसला बनके सदा साथ में चलना मेरे
रंग और रूप से साजन नहीं जीता जाता

मार डाला था उसे ख़ुद के अकेलेपन ने
तीर-तलवार से रावन नहीं जीता जाता

© चिराग़ जैन

देशगीत

नाम रहेगा शेष हमारा
सर्वोत्तम परिवेश हमारा
दुनिया का हर रंग यहाँ है
ऐसा अनुपम देश हमारा

आज़ादी के नग़मे गाकर, देशप्रेम की अलख जगाकर
स्वाभिमान हित जी लेते हैं, सिर्फ़ घास की रोटी खाकर
पल भर में तलवार हमारी हो सकती है खूं की प्यासी
पल भर में ही हो सकते हैं, शस्त्र त्यागकर हम सन्यासी
विष पीता अखिलेश हमारा
वज्र बना दरवेश हमारा
दुनिया का हर रंग यहाँ है
ऐसा अनुपम देश हमारा

ओज रुधिर में, रौद्र नयन में, रूप भयानक वैरी के हित
करुणा निर्दोषों के दुःख पर, पीठ बंधा वात्सल्य सुरक्षित
हमने सीखा ढंग से जीना, हमने सीखा ढंग से मरना
सुंदरता पर आँच हुई तो, हमने सीखा जौहर करना
शाश्वत सुख उद्देश हमारा
शांतिपरक निर्देश हमारा
दुनिया का हर रंग यहाँ है
ऐसा अनुपम देश हमारा

हम अनुनय की बोली बोलें, रस्ता मांगें हाथ पसारे
अभिमानी के लिए भरे हैं हमने आँखों में अंगारे
हम अपनी पर आ जाएँ तो सागर से अमृत चखते हैं
हम अपनी पर आ जाएँ तो पर्वत उंगली पर रखते हैं
सागर-सा आवेश हमारा
दास हुआ लंकेश हमारा
दुनिया का हर रंग यहाँ है
ऐसा अनुपम देश हमारा

मस्त फ़क़ीरों की धरती है, शांति-अहिंसा के अभिलाषी
वन्देमातरम गाते-गाते, रण में कूद पड़े संन्यासी
हमने सागर को लांघा है, पर्वत लेकर उड़े गगन में
एक वचन पूरा करने को, चैदह वर्ष बिताए वन में
सीधा-सादा वेश हमारा
प्रेम-त्याग संदेश हमारा
दुनिया का हर रंग यहाँ है
ऐसा अनुपम देश हमारा

आपस में लड़ते हैं तो क्या, दुःख में साथ खड़े होते हैं
हर मुश्किल के आगे हम ही, सीना तान अड़े होते हैं
जब संकट ने पाँव पसारे, जब भी कोई आफत आई
एक साथ मिलकर जूझे हैं, हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई
शौर्य रहेगा शेष हमारा
मिट जाएगा क्लेश हमारा
दुनिया का हर रंग यहाँ है
ऐसा अनुपम देश हमारा

वनवासों को पूजा हमने, राजपाट हमने ठुकराया
जिससे मोह किया वो छूटा, जिसको त्याग दिया वो पाया
हम घर में रहकर वैरागी, हम वन में रहकर शासक हैं
योग-भोग दोनों के साधक, हम प्रियतम के आराधक हैं
मत मानो आदेश हमारा
पर समझो उपदेश हमारा
दुनिया का हर रंग यहाँ है
ऐसा अनुपम देश हमारा

© चिराग़ जैन

Thursday, August 2, 2018

इमरान खान के प्रधानमंत्री बनने पर

पाक की सियासत क़माल की सियासत है 
सबकी बनाती है ये रेल, चले जाओगे
फाँसी, गोली, क़ैद, सज़ा यही मिलता है बस
निकलेगा आपका भी तेल चले जाओगे
खेल-खिलवाड़ नहीं ज़िन्दगी का दांव है ये
कस ली है नाक में नकेल चले जाओगे
कुछ रोज़ महलों का रंग ढंग देख लो जी
बाद में तो आप ख़ुद जेल चले जाओगे

भारत के वीर सैनिकों से सामना है अब
साज़िशें करीं तो नींबू से निचुड़ जाओगे
ज़्यादा फूल कर कोई भूल मत कर देना
इन्हें क्रोध आया तो वहीं सिकुड़ जाओगे
सैनिकों के साथ यदि मैच खेलने लगे तो
एक झटके में सबसे बिछुड़ जाओगे
बॉल छोड़ दी तो पाकिस्तान में धमाका होगा
बल्ले पे जो ली तो ख़ुद आप उड़ जाओगे

भारत से भूल के मुकाबला न कीजियेगा
आपके पीएम को दबोच लेंगे मोदी जी
आप जब तक शुरुआत भी नहीं करोगे
तब तक अंत को भी सोच लेंगे मोदी जी
लच्छेदार बातों के भरोसे मत रहिएगा
ताकते रहोगे ऐसी लोच लेंगे मोदी जी
नए पंछियों को कहिए कि घोंसले में रहें
उड़ने लगे तो पर नोच लेंगे मोदी जी

भारत की संसद की नींव न डिगा सकोगे
जनता को अभी संविधान पे भरोसा है
भूख के सवाल का जवाब खोज लेंगे हम
भारत को अपने किसान पे भरोसा है
आपस का सारा मतभेद भूल जाएंगे जी
राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान पे भरोसा है
दुश्मनों की साज़िशों से डरते नहीं हैं क्योंकि
सीमाओं पे जूझते जवान पे भरोसा है


© चिराग़ जैन

Wednesday, August 1, 2018

अटल विश्वास और अटूट विश्वास

हम भारतीय लोग प्रवृत्ति से विश्वासजीवी हैं। विश्वास दो प्रकार का होता है, एक अटल विश्वास और दूसरा अटूट विश्वास। भाषा के बहुत गहरे विश्लेषण के हाथों मजबूर न हों तो इन दोनों का अर्थ एक ही है किन्तु फिर भी विश्वास दो प्रकार का होता है ऐसा हमारा विश्वास है।
जब हम किसी पर अटूट विश्वास करते हैं तो उसे तब तक अटूट बनाए रखते हैं जब तक वह टूट न जाए। एक बार टूट जाने के बाद हम फिर दोगुनी शक्ति लगाकर अटूट विश्वास करने लगते हैं।
नेता चुनाव में जो वायदे करते हैं, वे झूठे होते हैं -ऐसा हमारा विश्वास है। इसलिए प्रत्येक दल के वायदे सुनने के बाद सबसे बढ़िया झूठ बोलनेवाले नेता को अपना विश्वास मत देकर हम उसे सदन में भेज देते हैं। वह जीतते ही हमारे दुःख-दर्द को भूल चुका होगा- ऐसा हमारा विश्वास है। इसलिए हम उसके विपक्षी पर विश्वास करके उसके खि़लाफ़ नारे लगाने लगते हैं।
जो लोग सरकार के विरोधी हैं वे विपक्ष पर विश्वास करते हैं। जो लोग विपक्ष के विरोधी हैं वे सरकार पर विश्वास करते हैं। जो किसी के विरोधी नहीं हैं वे सब पर विश्वास करते हैं। और जो सबके विरोधी हैं वे ख़ुद पर विश्वास करते हैं।
मुहल्ले के कोई गुंडा भारतीय लोकतंत्र पर टिके हमारे विश्वास की हत्या करे तो हम पुलिस पर विश्वास कर बैठते हैं। जैसे ही हमें हमारी भूल का आभास होता है हम तुरंत अपने विश्वास की आरती का थाल लेकर न्यायालय में घुस जाते हैं। न्यायालय में जब विश्वास की लौ झपकने लगती है तो हम उसे संसद की ओट से बचाने की कोशिश करते हैं। जब संसद में भी विश्वासमत गिरने लगता है तो हम मीडिया के कैमरे के सामने विश्वास की गठरी खोल बैठते हैं। कैमरे के हाथ जब उल्टे हमारी ही गर्दन की ओर बढ़ने लगते हैं तो हम मुहल्ले के किसी गुंडे को लाख-दो लाख रुपये चढ़ाकर अपने विश्वास की रक्षा कर लेते हैं।
कल कुछ विश्वासी नागरिक बोल रहे थे कि सरकार ने सुशासन और सुविधाओं का पार्सल दिल्ली से रवाना किया है। अब समस्या यह है कि जिस ट्रेन से रवाना किया है वह लेट चल रही है। 
हमने तार्किक उत्तर का विश्वास रखकर प्रश्न पूछ लिया- ‘पर भैया, जिस सरकार ने पार्सल भेजा है; ट्रेन भी तो उसी सरकार के आदेश पर चलती है।’
प्रश्न सुनते ही वे भड़क गए। बोले, ”तुम जैसे लोगों के कारण ही इस देश का सत्यानाश हुआ है। जब देखो सरकार को उंगली खोंचते रहते हो। और कुछ काम ही नहीं है। तुम साले पाकिस्तान के एजेंट हो। राष्ट्रद्रोही हो तुम। तुम ही सरकार को बदनाम करने के लिए ट्रेनवा लेट कराए हो। तुम्हें खटक रहा है कि कोई आदमी काम कैसे कर ले। तुम्हारी छाती पर तो साँप लोट रहे हैं।”
उनका यह रौद्र रूप देखकर हमें विश्वास हो गया कि सरकार ने सचमुच दिल्ली से पार्सल भेजा है जो एक न एक दिन गाँव तक ज़रूर पहुँचेगा, लेकिन मिलेगा उसी को जिसे सरकार पर अटूट और अटल दोनों तरह का विश्वास होगा। 

© चिराग़ जैन