Friday, August 31, 2018

जीत कर पछता रहे हैं

जब तलक संघर्ष में थे, व्यस्तता के हर्ष में थे
दृश्य कितने ही मनोरम, कल्पना के स्पर्श में थे
स्वप्न जबसे सच हुआ, उकता रहे हैं हम
जीत कर पछता रहे हैं हम

जब हमें हासिल न थी, मंज़िल लुभाती थी निरन्तर
बाँह फैलाए हमें हँसकर बुलाती थी निरन्तर
पर पहुँच कर जान पाए, है निरी रसहीन मंज़िल
राह गति की सहचरी है, हलचलों से हीन मंज़िल
हम सरीखे युग-विजेता हर जगह बिखरे पड़े हैं
हम स्वयं को ही बड़ा समझे, यहाँ कितने बड़े हैं
हर किसी की कीर्ति गाथा से हुई है त्रस्त मंज़िल
हर घड़ी तोरण सजाए, स्वागतों में व्यस्त मंज़िल
राह के जिस मोड़ से गुज़रे वहाँ बाक़ी रहे हम
किन्तु मंज़िल पर पहुँचकर नित्य एकाकी रहे हम
रास्तों को याद अब भी आ रहे हैं हम
जीत कर पछता रहे हैं हम

याद आता है दशानन किस तरह टूटा हुआ था
याद है अभिमान का हर एक प्रण झूठा हुआ था
गूँजता है कान में वह युद्ध का जयघोष भीषण
याद सागर को रहेगा राम का आक्रोश भीषण
क्या ज़माना था हमारे नाम से पत्थर तिरे थे
मौत से टकरा गए सब यार अपने सिरफिरे थे
प्रेम मीठे बेर चखकर रोज़ रखता था, समय था
वाटिका में प्रीत का बूटा महकता था, समय था
हम अगर छू लें, शिलाएँ बोल उठती थीं, समय था
नाम भर से पापियों की श्वास घुटती थी, समय था
जंगलों में भी कभी सत्कार होता था, समय था
हम जिधर भी चल दिये, त्यौहार होता था, समय था
मन पुरानी याद से बहला रहे हैं हम
जीत कर पछता रहे हैं

हम खड़े थे साथ जिसके, जय उसी के द्वार आई
हर प्रखर संकल्प अपना सृष्टि हम पर वार आई
शास्त्र को छूकर न जाना, पर महाभारत लड़ा था
युद्ध के मैदान में भी धर्म का पोथा पढ़ा था
काज जो सम्भव नहीं थे, वो हमीं ने कर दिखाए
पर्वतों की ओट लेकर इंद्र को ललकार आए
कालिया के दाह में हम कूद जाते थे अकेले
खेल में सुलझा दिए थे, विश्व के कितने झमेले
मित्रता की रीत के प्रतिमान हम ही ने गढ़े हैं
और पावन प्रीत के उपमान हम ही ने गढ़े हैं
बाँसुरी की तान पर यौवन थिरकता था हमीं से
जब सुदर्शन धार लें तो पाप कँपता था हमीं से
पदकमल से व्याल को भरमा रहे हैं हम
जीत कर पछता रहे हैं हम

© चिराग़ जैन

No comments:

Post a Comment