चाहे जैसे रूप निखारें
चाहे कितनी गन्ध उड़ाएं
चाहे गुलशन को महकाएं
लेकिन इतना तय है इक दिन, इस डाली से झर जाने हैं
आख़िर फूल बिखर जाने हैं
सारा नूर हवा होता है, तन भी कुम्हलाने लगता है
जिस सूरज ने प्राण भरे थे, वो ही झुलसाने लगता है
जिन झोंकों के छूने पर हम, ख़ुद पर इतराते फिरते थे
उन झोंकों के छूने से भी, ये मन घबराने लगता है
कुछ पल के मेहमान सभी हैं, फिर सब अपने घर जाने हैं
आख़िर फूल बिखर जाने हैं
इस क्यारी ने जाने कितने फूलों का खिलना देखा है
रस की चाहत में भँवरों के पंखों का छिलना देखा है
इस बगिया को इन फूलों का रूप लुभा पाएगा कैसे
इस बगिया ने सुंदरता का मिट्टी में मिलना देखा है
इसको है मालूम सभी के इक दिन रंग उतर जाने हैं
आख़िर फूल बिखर जाने हैं
इसका नूर दिनों ने देखा, उसके हिस्से रातें आईं
कुछ वनफूलों के हिस्से बस, आँसू की बरसातें आईं
हम सब लोगों का ही जीवन, केवल क़िस्मत का खेला है
कुछ को माली ने दुलराया, कुछ के हिस्से घातें आईं
हम सारे ही लोग यहाँ बस कुछ दिन जीकर मर जाने हैं
आख़िर फूल बिखर जाने हैं
© चिराग़ जैन