Monday, April 22, 2019

जो केजरीवाल कांग्रेस को पानी पी पी कर कोसते थे वे ही दिल्ली में कांग्रेस से गठबंधन के लिए रिरियाते रहे। ताकि किसी भी तरह से सत्ता पाई जा सके। जो भाजपा महबूबा मुफ्ती को गद्दार कहती रही उसी ने सत्ता के लिए महबूबा मुफ्ती से गठबंधन करके सरकार बनाई। जिन नीतीश कुमार ने मोदी के प्रति घृणा के कारण बाढ़ सहायतार्थ भेजा गया गुजरात सरकार का चैक लौटा दिया वही आज भाजपा के साथ हैं। जिस लालू यादव को बिहार का दुर्भाग्य कहते फिरते थे उसी के साथ मिलकर नीतीश बाबू ने बिहार में सरकार चलाई। जो मायावती "तिलक, तराजू और तलवार" का नारा देकर राष्ट्रवादियों को कोसती रही, वे ही राष्ट्रवादियों से गठबंधन कर के मुख्यमंत्री बनीं। जो समाजवादी मायावती के लिए अपशब्दों की वर्षा करते थे वे ही आज मायावती के साथ मिलकर मोदी को हराने निकले हैं। जो शिवसेना मोदी सरकार के चरित्र को छद्म हिंदुत्व की पाठशाला कहते थे, वे ही मोदी सरकार से मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं। जो प्रियंका चतुर्वेदी कांग्रेस के गुण गाती रही वे ही कांग्रेस को गुंडों की पार्टी घोषित करके शिवसेना जैसी शांत प्रवृत्ति की पार्टी में चली गईं। जो सिद्धू मोदी जी नू देवता बताते रहे वे ही आज सोनिया जी की शान में कसीदे पढ़ रहे हैं। इसी वर्चस्व की लड़ाई में शिवपाल-अखिकेश, तेजस्वी-तेजप्रताप जानी दुश्मन हो गए हैं। अमरसिंह, जयप्रदा, सुखराम, शत्रुघ्न सिन्हा, रामविलास पासवान, किरण बेदी और शाजिया इल्मी जैसे लीडरों को देख कर समझ आता है कि विचारधारा, नैतिकता, देशहित, देश सेवा और निष्ठा जैसे शब्द केवल वह आटे की गोली है जिसके दम पर कार्यकर्ता नामक मछली फँसाई जाती है।  राजनीति शुद्ध धंधा बन चुकी है। इसमें कोई स्थायी मित्र नहीं है, कोई स्थायी शत्रु नहीं है। 23 मई को परिणाम घोषित होने के बाद ये सब देशभक्त रेटलिस्ट लगा लगाकर अपनी निष्ठा का सौदा करेंगे और मंत्रीपद, मुख्यमंत्री पद, घोटाले दबाने की मंज़ूरी, कुछ करोड़ रुपये तथा अन्य राजनैतिक लाभों की कीमत फेंककर लोकतंत्र की इज़्ज़त उतार दी जाएगी।  इन बेशर्म धंधेबाज़ों के लिए सामाजिक सद्भाव को होम न कीजिये। देश में राजनीति ही सब कुछ नहीं है। जब ये हमें धर्म, जाति के जुमलों से उकसाएं और हम लड़ने को तैयार न हों तो इनके वैभत्स्य का मनोबल टूटेगा। जो ऊर्जा हम कांग्रेस-भाजपा की बहस में नष्ट कर रहे हैं उसको यदि अपने काम को ईमानदारी से करने में निवेश करें तो सचमुच देश का विकास हो जाएगा।  मतदान के समय अपने विवेक से इन सब दुकानदारों में से किसी एक को वोट दे आएं या नोटा दबाकर राजनैतिक हताशा प्रकट करें... इससे अधिक इस लोकतंत्र में वोटर की कोई भूमिका नहीं है। जिसे जो काम मिला है उसे वह काम बेहतर ढंग से करने का प्रयास करना चाहिए। रिक्शा वाला यदि ट्रैफिक के रूल्स मानते हुए सवारी को ठगे या लूटे बिना मंज़िल तक पहुंचता है तो वह भी अपनी क्षमताओं के अनुरूप देश की सेवा ही कर रहा है। हर आम नागरिक की यह चेतना जागृत रही तो यहीं से देश के विकास का मार्ग खुल जाएगा।  


© चिराग़ जैन

Saturday, April 13, 2019

आख़िर फूल बिखर जाने हैं

चाहे कितनी देह सँवारें 
चाहे जैसे रूप निखारें 
चाहे कितनी गन्ध उड़ाएं 
चाहे गुलशन को महकाएं 
लेकिन इतना तय है इक दिन, इस डाली से झर जाने हैं 
आख़िर फूल बिखर जाने हैं 

सारा नूर हवा होता है, तन भी कुम्हलाने लगता है 
जिस सूरज ने प्राण भरे थे, वो ही झुलसाने लगता है 
जिन झोंकों के छूने पर हम, ख़ुद पर इतराते फिरते थे 
उन झोंकों के छूने से भी, ये मन घबराने लगता है 
कुछ पल के मेहमान सभी हैं, फिर सब अपने घर जाने हैं 
आख़िर फूल बिखर जाने हैं 

इस क्यारी ने जाने कितने फूलों का खिलना देखा है 
रस की चाहत में भँवरों के पंखों का छिलना देखा है 
इस बगिया को इन फूलों का रूप लुभा पाएगा कैसे 
इस बगिया ने सुंदरता का मिट्टी में मिलना देखा है 
इसको है मालूम सभी के इक दिन रंग उतर जाने हैं 
आख़िर फूल बिखर जाने हैं 

इसका नूर दिनों ने देखा, उसके हिस्से रातें आईं 
कुछ वनफूलों के हिस्से बस, आँसू की बरसातें आईं 
हम सब लोगों का ही जीवन, केवल क़िस्मत का खेला है 
कुछ को माली ने दुलराया, कुछ के हिस्से घातें आईं 
हम सारे ही लोग यहाँ बस कुछ दिन जीकर मर जाने हैं 
आख़िर फूल बिखर जाने हैं 

© चिराग़ जैन

Friday, April 12, 2019

याद प्रदीप चौबे की

ज़िन्दगी को सलीक़े से जीना क्या होता है, इस प्रश्न का उत्तर उन सबके पास है जिन्होंने प्रदीप चौबे जी को देखा है। एक ऐसा शख़्स जिसने अपनी शर्तों को किसी भी शर्त पर कभी छोड़ा नहीं। कवि सम्मेलन में गए तो होटल से लेकर मंच तक सब कुछ व्यवस्थित। संयोजन किया तो उनके द्वारा आमंत्रित कवि को क्या क्या ज़रूरत पड़ सकती है, इसका पूरा-पूरा ध्यान; कविता पढ़ी तो एक भी लफ़्ज़ बेमानी नहीं बोला; यात्रा की तो ट्रेन के बिस्तर से लेकर गाड़ी की पिछली सीट के तकिए तक सब कुछ टिप-टॉप। आरंभ के बैनर तले वे ऐसी गोष्ठियाँ करवाते थे जिनमें श्रोता चुन-चुनकर बुलाए जाते थे। 
संवेदना इतनी प्रबल कि करुणा की एक पंक्ति पर बिलख पड़ते थे और आत्मबल इतना दृढ़ कि भयंकर स्थिति में भी अपने चेहरे को मटकाते हुए चुटकी ले लेते थे। दुनिया के सबसे सामान्य वाक्य को भी केवल अपनी अदा से ठहाके में तब्दील कर देने का कौशल था उनके पास। सामान्य सी बात को भी तनी हुई भृकुटियों और शरारत भरी मुस्कान के साथ जब वे आँख मारते हुए बोलते थे तो उनकी अदा आनंद उत्पन्न करती थी। बोलते हुए स्वर का आरोह-अवरोह उनके एक-एक जुमले को लतीफ़ा बना देता था। हाज़िरजवाबी ऐसी कि यदि भरे क्रोध में भी किसी को डाँटा तो उस क्षण के संवाद हास्य के संस्मरण बन गए।
कला और प्रतिभा के वे पारखी थे। संगीत, चित्रकला, कविता, अभिनय तथा नृत्य की इतनी महीन समीक्षा करते थे कि स्वयं कृतिकार आश्चर्य से भर जाता था। एक-एक शेर को इतने मन से सुनते थे, कि कोई बात छूट न जाए और जहाँ कविता होती थी, वहाँ इतनी ईमानदार सराहना करते थे कि सुनानेवाला निहाल हो जाता था।
प्रवृत्तियों को भाँपने में दक्ष थे। सामनेवाला जो नहीं कह रहा होता था, उसे पहले सुनते थे। और एक बार सामनेवाले को पढ़ लें तो प्रतिक्रिया देने में विलम्ब नहीं करते थे। छद्म और शातिर लोगों को कई बार रुलाकर लौटाने का इतिहास रहा है प्रदीप जी का।
शरारती इतने थे, कि यात्रा में दो लोगों की बातचीत में बिना शामिल हुए ही मुस्कुराते हुए भिन्न-भिन्न अर्थ निकालकर रस लेते रहते थे। इसी रस से उत्पन्न शरारती मुस्कान उनकी पहचान थी।
साफ़गोई और निर्लिप्तता ने उन्हें बेहद अंतर्मुखी बना दिया था। परफेक्शनिस्ट थे, इसीलिए अपने कम्फर्ट ज़ोन में किसी का दख़ल बर्दाश्त नहीं करते थे। लेकिन विपरीत परिस्थितियों में भी बहुत देर तक क्रोध उन्होंने कभी नहीं किया। किसी भी अनचाहे विवाद को एक जुमले से ठहाके में बदल देने का हुनर आता था उन्हें।
अपने कम्फर्ट के दायरे में प्रवेश करने का अधिकार उन्होंने कभी भी किसी को नहीं दिया। शब्दों का अपव्यय उन्हें कतई पसंद नहीं था। उनकी एक ख़ासियत यह भी थी कि वे यदि किसी की प्रशंसा कर रहे होते थे तो उसकी वास्तविकता में कोई संशय नहीं हो सकता था, क्योंकि जो कुछ उन्हें नापसन्द होता था उसको अपनी नापसंदगी जताने में वे कभी नहीं हिचकते थे। जीनियस शब्द और जीनियस लोग उन्हें बेहद पसंद थे। चाटुकारों और दिखावटी लोगों से उन्हें परहेज था। वे जीनियस और खरे लोगों की संगत पाकर प्रसन्न होते थे। 
सच बोलते समय वे सामने वाले के मन की चिंता करना बहुत ज़्यादा अनावश्यक समझते थे। झूठी प्रशंसा करनेवालों को बर्दाश्त करने की उनकी क्षमता कुछेक सेकेण्ड में जवाब दे जाती थी। क़िस्सागोई और बतरस के वे मास्टर थे। भयंकर आपात स्थिति की रिपोर्टिंग भी इतने चुटीले अंदाज़ में करते थे कि तनाव छूमंतर हो जाए। भीतर बाहर एक सरीखा जीवन जीनेवाले प्रदीप जी जैसे लोग अब शायद मुश्किल से ही देखने को मिलेंगे, जो अपने ड्राइंग रूम की दीवार पर लिखवा सकें कि- ‘इतना तो चलता है, यहाँ नहीं चलता है।’ 
मुझे याद है, उन दिनों मैं लगभग रोज़ गीत लिखता था। यात्राओं में अन्य कविमित्र इस बात पर परिहास भी करते थे कि इसे अकेला छोड़ दो तो ये नया गीत लिख लाएगा। प्रदीप जी को ग़ज़लों का शौक़ था। मैंने बिराटनगर से बागडोगरा आते हुए रास्ते में उन्हें कुछ अशआर सुना दिए। उन्होंने भरपूर सराहना की। घण्टे भर बाद अपने सुप्रसिद्ध अंदाज़ में वाक्यों को लगभग गाते हुए बोले- ‘चिराग़, तुम बहुत बढ़िया शेर कहते हो... मुझे भेज दिया करो...’ इससे पहले कि मैं कुछ बोलता उन्होंने उसी सुर में आरोह बढ़ाते हुए वाक्य पूरा किया ‘....गीत मत भेजना!’ 
जब वे संवाद करते थे तो उनके ओंठ, उनकी आँखें, उनकी भृकुटि, उनकी गर्दन, उनके हाथ, उनकी उंगलियाँ... सब एक साथ बोलने लगते थे।
इतने जीवन्त कवि ने यकायक इस दुनिया को अलविदा कहा तो महसूस हुआ कि हँसता-हँसाता वह व्यक्तित्व कितने सारे तनाव झेलता था, इसका अनुमान किसी को नहीं था। हँसानेवाले का आँसू सृष्टि की सबसे अनावश्यक वस्तु है... प्रदीप जी इस बात को समझ गए थे, इसलिए उन्होंने अपने आँसुओं को अपने व्यक्तित्व के शोरूम में कभी डिस्प्ले नहीं किया।
उनके पास दिल से लेकर जिस्म तक अनेक घाव रहे लेकिन उन्होंने मंच पर कभी इन घावों की संवेदना नहीं बटोरी। प्रदीप जी एक संपूर्ण कवि थे। कभी वक़्त ने आकलन किया तो पता चलेगा कि 11 अप्रैल 2019 को ग्वालियर में जो काया भस्म हुई थी, उसमें एक प्रदीप्त सूर्य ने सत्तर बरस तक प्रवास किया था।

Thursday, April 11, 2019

कमी

मरने की चाह, ज़िन्दगी जीने से कम रही
लहरों की चाल मेरे सफ़ीने से कम रही

दौलत की चमक सबसे ज़ियादा रही मग़र
मजदूर के माथे के पसीने से कम रही

सेहरा की तेज़ धूप में भी तिश्नगी तो थी
पर हिज्र में सावन के महीने से कम रही

ताउम्र मैं ख़ुशी की शक्ल भूल न पाया
आफ़त भी मेरे पास क़रीने से कम रही

✍️ चिराग़ जैन

Tuesday, April 9, 2019

मैं वो क़िस्सा हूँ, जिसे है चंद लफ़्ज़ों की तलाश

मैं वो क़िस्सा हूँ, जिसे है चंद लफ़्ज़ों की तलाश 

वक़्त आएगा तो मैं पूरा बयाँ हो जाऊंगा  

~चिराग़ जैन

Sunday, April 7, 2019

भारत में संसाधनों की बहुतायत के बाद भी ग़रीबी

सम्मानित भारत का ड्राफ्ट किसी भी देश की समृद्धि संसाधनों के समुचित वितरण पर निर्भर करती है। भारत में संसाधनों की बहुतायत के बाद भी ग़रीबी, अव्यवस्था, अपराध, भुखमरी, बेघरी, बेरोज़गारी, अराजकता और रिश्वतखोरी जैसी समस्याएं कम नहीं हो पा रही हैं। सरकारी योजनाएं केवल कोरा प्रचार बनकर रह जाती हैं और जनता की स्थिति जस की तस रहती है। सड़कें चौड़ी की जाती हैं लेकिन जाम कम नहीं होता, रोज़ नए अस्पताल खोले जा रहे हैं लेकिन मरीजों को अस्पतालों के बरामदों में मरना पड़ता है, खूब रेलगाड़ियां चलती हैं लेकिन आरक्षण नहीं मिलता, स्कूल खुलते जा रहे हैं लेकिन एडमिशन की मारामारी है, खेती ख़ूब होती है लेकिन थालियां रीती हैं। हम इन सब समस्याओं का निदान ढूंढने निकलते हैं और राजनैतिक इच्छाशक्ति, भ्रष्टाचार, जमाखोरी और लालफीताशाही की निंदा में उलझ कर रह जाते हैं। सरकारें आत्मप्रचार के लिए अरबों रुपये के विज्ञापन कर देती है और समस्या वहीं की वहीं रहती है। विपक्ष सरकार के कार्यों की आलोचना करता है पर समस्या वहीं की वहीं रहती है। अफ़सर जैसे तैसे काग़ज़ों का पेट भरते भरते ज़िन्दगी गुज़ार देते हैं पर समस्या वहीं की वहीं रहती है। इतना पैसा, इतनी योजनाएं, इतने अफसर, इतने कर्मचारी, इतनी समाजसेवी संस्थाएं, इतने घोषणापत्र और इतने आंदोलन मिलकर भी देश की किसी समस्या का निदान इसलिए नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि समस्या की जड़ पर कोई चर्चा ही नहीं कर रहा। चमड़ी पर लगे कोढ़ को हटाने के लिए मरहम लेपा जा रहा है पर ख़ून साफ़ करने का उपचार कोई नहीं कर रहा। भारत की किसी भी समस्या को पकड़ कर उसके प्रारंभिक छोर तक कि यात्रा की जाए तो हमें एक ही शब्द दिखाई देगा - "जनसंख्या"। इस एक शब्द के आधार पर भारतीय समस्याओं का मकड़जाल बुना हुआ है। यह एक ऐसी समस्या है जिसको नियंत्रित किये बिना देश के विकास की बातें चुनावी जुमलेबाज़ी से ज़्यादा कुछ नहीं हैं। हमें हिन्दू-मुस्लिम बनाकर ज़्यादा बच्चे पैदा करने के बयान दिए जाते हैं। यदि गंभीरता से विचार किया जाए तो ऐसा हर बयान राष्ट्रद्रोह जैसा अपराध है। भारतीय लोकतंत्र में वोट की संख्या को ही सत्ता का मापदंड बना दिया गया है। इसके स्थान पर यदि वोट की गुणवत्ता को तवज्जोह दी जाती तो स्थिति इतनी भयावह कभी नहीं होती। किसी भी परिवार के पहले बच्चे को ही मतदान का अधिकार हो, पहले बच्चे को ही सरकारी योजनाओं का लाभ मिले, पहले बच्चे की सरकारी नौकरी की गारंटी हो, पहले बच्चे को आयकर में छूट मिले, पहले बच्चे की शिक्षा तथा स्वास्थ्य मुफ्त हो... यह सुनने में थोड़ा कठोर लग सकता है लेकिन सोचने पर ज्ञात होगा कि जानवरों की तरह अस्पतालों, स्टेशनों, फुटपाथों और झुग्गियों में घिसट रहे भारत को सम्मानजनक जीवन देने के लिए इसके सिवाय अन्य कोई उपाय नहीं है। आज ही कि तिथि से ठीक दस माह के बाद की तारीख़ निर्धारित करके सरकार "एक बालक विधेयक" लागू कर दे कि इस तिथि के बाद जो भी बच्चे जन्म लेंगे उन्हें सरकारी योजनाओं का लाभ तभी मिलेगा यदि वे पहली संतान होंगे। यह कानून अब तक जन्म चुके या गर्भस्थ किसी भी मनुष्य के साथ अन्याय किये बिना जनसंख्या नियंत्रण का चमत्कार कर देगा। अभी भी सरकारी नौकरी में मेटरनिटी तथा चाइल्ड केयर लीव के संदर्भ में इस प्रकार के नियम सफलतापूर्वक क्रियान्वित हैं, इसलिए ऐसे नियमों के क्रियान्वयन में कोई विशेष बाधा नहीं आएगी। सरकार के कुल विज्ञापन बजट का तीस प्रतिशत व्यय इस कानून के प्रसार पर ख़र्च हो तो आज से बीस साल बाद हम उस भारत के दर्शन कर पाएंगे जिसके हर नागरिक को सम्मानपूर्ण जीवन का अर्थ पता होगा।  


© चिराग़ जैन

अपने समय से झरे हुए पत्ते

जब पत्ते पुराने हो जाते हैं तो वे स्वतः ही झर जाते हैं। उन्हें तोड़ना नहीं पड़ता। अपने समय से झरे हुए पत्ते पगडंडियों का सिंगार करते हैं। बाग की ख़ूबसूरती बढ़ाते हैं। बाद में यही पत्ते खाद बनकर वृक्ष की जड़ों को आशीष देते हैं। झरे हुए पत्तों की जगह नई कोंपलें ले लेती हैं और वृक्ष सदैव हरियाले सौंदर्य से परिपूर्ण रहता है। लेकिन यदि माली किसी पुराने पत्ते को नोच कर पेड़ से अलग करता है तो उस जगह एक बदनुमा निशान बन जाता है। आंधी किसी डाल को झखझोर कर तोड़ डालती है तो उस जगह से वृक्ष ठूठ बनना शुरू कर देता है। ये टूटी हुई डाल या नोच दिए गए पत्ते कभी वृक्ष को आशीष नहीं दे पाते और वृक्ष आशीषों के अभाव में निष्प्राण हो जाता है।  

नोट : इस पोस्ट का किसी राजनैतिक दल से कोई सम्बन्ध नहीं है।  

© चिराग़ जैन

Friday, April 5, 2019

महंगा क्षण

आज तुम्हारे कारण ही मैं
इक महंगा क्षण जी आया
आज समझ आया चूड़ी बिन
कैसे कंगन जी पाया

जिस पल मथुरा का आकर्षण वृंदावन से ज़्यादा था
कर्तव्यों का मोह किसी को अपनेपन से ज़्यादा था
निर्णय ले बैठा निर्मोही, बिरहन याद नहीं आई
दाँतों ने अधरों को काटा, नयनों में लाली छाई
आज तुम्हारा निर्णय सुनकर
राधा का मन जी आया
आज तुम्हारे कारण ही मैं
इक महंगा क्षण जी आया

राघव स्वयं नहीं सक्षम थे, जो सच्चाई कहने में
वैदेही पर क्या बीती थी, वो सच्चाई सहने में
जब लक्ष्मण वन में ले जाकर, सीता को बतलाते हैं
उस पल सिय के मन में क्या क्या, भाव उमड़कर आते हैं
पाँव जमे, आँखें पथराईं
ख़ुद का तर्पण जी आया
आज तुम्हारे कारण ही मैं
इक महंगा क्षण जी आया

आंधी से मिलकर जब अमुआ, बौर गिराने लगता है
तब सहमी सहमी कोयल का, मन घबराने लगता है
अब समझा जब कोहरे में छुप सूरज को बिसराते हैं
तब इन हरियाले पेड़ों से पत्ते क्यों झड़ जाते हैं
आज अचानक मैं मन ही मन
रूठा सावन जी पाया
आज तुम्हारे कारण ही मैं
इक महंगा क्षण जी पाया

✍️ चिराग़ जैन

महंगा क्षण

आज तुम्हारे कारण ही मैं
इक महंगा क्षण जी आया
आज समझ आया चूड़ी बिन
कैसे कंगन जी पाया

जिस पल मथुरा का आकर्षण वृंदावन से ज़्यादा था
कर्तव्यों का मोह किसी को अपनेपन से ज़्यादा था
निर्णय ले बैठा निर्मोही, बिरहन याद नहीं आई
दाँतों ने अधरों को काटा, नयनों में लाली छाई
आज तुम्हारा निर्णय सुनकर
राधा का मन जी आया
आज तुम्हारे कारण ही मैं
इक महंगा क्षण जी आया

राघव स्वयं नहीं सक्षम थे, जो सच्चाई कहने में
वैदेही पर क्या बीती थी, वो सच्चाई सहने में
जब लक्ष्मण वन में ले जाकर, सीता को बतलाते हैं
उस पल सिय के मन में क्या क्या, भाव उमड़कर आते हैं
पाँव जमे, आँखें पथराईं
ख़ुद का तर्पण जी आया
आज तुम्हारे कारण ही मैं
इक महंगा क्षण जी आया

आंधी से मिलकर जब अमुआ, बौर गिराने लगता है
तब सहमी सहमी कोयल का, मन घबराने लगता है
अब समझा जब कोहरे में छुप सूरज को बिसराते हैं
तब इन हरियाले पेड़ों से पत्ते क्यों झड़ जाते हैं
आज अचानक मैं मन ही मन
रूठा सावन जी पाया
आज तुम्हारे कारण ही मैं
इक महंगा क्षण जी पाया

✍️ चिराग़ जैन

Wednesday, April 3, 2019

वास्तविक यातायात साधनों की स्थिति

गाड़ी वाले गाड़ी धीरे हाँक रे...  बुलेट ट्रेन और अंतरिक्ष यान की चर्चाओं के बीच आज कुछ वास्तविक यातायात साधनों की स्थिति ध्यान आ रही है। भारत में एक अदद रेल विभाग है। सड़ांध मारते स्टेशन और देर से चलने के लिए मशहूर रेलगाड़ियाँ इस विभाग की शान हैं। आज़ादी के सात दशक बाद भी भारतीय रेल ने लेटलतीफी की अपनी गौरवमयी परंपरा को बरक़रार रखा है। स्टेशन पर गठरियों की तरह पड़े लाचार यात्री भारतीय रेल की निष्ठा का शिलालेख है। यदि ट्रेन लेट हो जाए तो रेलवे की उद्घोषिका की रिकार्डेड आवाज़ सुनने को मिलती है कि आपको हुई असुविधा के लिए हमें खेद है। यदि रेल विभाग किसी भी कारण से ट्रेन कैंसिल करता है तो यात्री को कोई मुआवजा देने का कोई प्रावधान नहीं है लेकिन यदि यात्री किसी कारणवश अपना आरक्षण रद्द करवाए तो उससे जुर्माना लेने का प्रावधान है। इससे सिद्ध होता है कि भारत एक लोककल्याणकारी गणराज्य है। निजी सेवाओं की ओर देखें तो भारत में कुछ गिनी-चुनी विमानन सेवाएँ हैं जो नागर विमानन मंत्रालय तथा डीजीसीए की देखरेख में कार्य करती हैं। इनमें एयर इण्डिया सरकारी उपक्रम है और इंडिगो, गो एयरवेज़, जेट एयरवेज़, स्पाइस जेट, एयर विस्तारा तथा एयर एशिया निजी क्षेत्र की विमान सेवाएँ हैं। इन सभी कंपनियों का मुख्य कार्य मुनाफ़ा कमाना है, इसके साथ वे कुछ सवारियाँ भी ढो लेती हैं।  एयर इण्डिया सरकारी विमान सेवा है। जो क्रमशः इण्डियन एयरलाइंस और एलाइंस एयर जैसी कंपनियों को लील लेने के बावजूद घाटे में चलती है। इसके यात्री अनियमितताओं और अव्यावसायिक रवैये से तंग होकर निजी सेवाओं का प्रयोग करने के लिए विवश हैं। इस कारण एयर इंडिया के जहाज सरकारी कर्मचारियों के दौरे के लिए ही उपयुक्त रहते हैं। निजी विमानन सेवाओं में किरायों को नियंत्रित तथा तर्कयुक्त बनाने का कोई प्रावधान नहीं है। भारतीय रेल की तरह फ्लाइट कैंसिल होने की स्थिति में मुआवजे का कोई विकल्प नहीं है किंतु यात्री द्वारा आरक्षण रद्द कराने पर सामान्यतः उसके आरक्षण का लगभग सारा पैसा जब्त कर लेने की सुविधा विमानन सेवाओं के पास है। फ्लाइट विलंबित होने की स्थिति में यात्रियों को होने वाले आर्थिक, व्यावसायिक, सामाजिक तथा व्यक्तिगत नुक़सान के लिए न कोई पूछता है न ही इस संदर्भ में कोई दिशानिर्देश बनाए गए हैं। डीजीसीए और नागर विमानन मंत्रालय इन कम्पनियों के बकाया, उधारी और सुरक्षा मानदंडों के क्रियान्वयन में इतने तल्लीन हैं कि उनके पास यात्रियों के संकटों की ओर देखने का समय ही नहीं है। इससे सिद्ध होता है कि भारत एक लोककल्याणकारी गणराज्य है। सड़क यातायात में हर राज्य का अपना सड़क परिवहन निगम है। इन निगमों की सामान्य बसों से सरकारी तंत्र की सूरत मिलाई जा सकती है। हाँ, अंतरराज्यीय बस सेवाओं में राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश जैसे अनेक राज्यों ने वॉल्वो तथा अन्य लग्जरी बसें मुहैया करवाई हैं जो समुचित किरायों में सुविधाजनक सफ़र की मिसाल हैं। स्थानीय सेवाओं में मुम्बई की बस सेवाओं की व्यवस्था उदाहरणीय है। शेष शहरों में स्थानीय बस परिवहन की दशा बेहद शोचनीय है। दिल्ली में तो ब्ल्यू लाइन, रेड लाइन, ग्रीन लाइन, व्हाइट लाइन जैसे विविध प्रयोग काफ़ी शानदार तरीके से विफल हुए हैं। हाँ डीटीसी की क्लस्टर बसों से आशा बंधी थी लेकिन ब्ल्यू लाइन (जिसे किलर लाइन भी कहा जाता था) के बेरोज़गार ड्राइवरों की कॉन्ट्रेक्ट बेस पर भर्ती होने के बाद से इन बसों का दिल्ली की सड़कों पर आतंक देखते ही बनता है। बीच में "अंडर डीटीसी परमिट' वाली योजना के तहत ऐसी बसें चलीं थीं जिनमें ड्राइवर बस मालिक का होता था और कण्डक्टर डीटीसी का। मेरे विचार में यह योजना सफल तथा निर्विवादित थी। इसको बन्द किये जाने का कारण मुझे ज्ञात नहीं हो पाता। दिल्ली, कोलकाता, मुम्बई, जयपुर, नागपुर और लखनऊ जैसे कुछ शहरों में मेट्रो रेल भी पब्लिक परिवहन का एक विकल्प है। इनमें दिल्ली मेट्रो सर्वाधिक सफल है। कोलकाता मेट्रो पूर्णतः जीर्णोद्धार की मांग करती है। शेष अपने शुरुआती दौर में हैं। टैक्सी सेवाओं की स्थिति भी भाषाओं की तरह तीन कोस पर बदलती रहती है। मुम्बई और कोलकाता में ऑटो रिक्शा तथा टैक्सी सेवाएं सुव्यवस्थित तथा परिपक्व हैं। दिल्ली में टीएसआर सेवाएँ मनमाने किरायों, ड्राइवरों की गुंडागर्दी और पुरानी खटारा गाड़ियों के कारण नगण्य है। हवाई अड्डों, रेलवे स्टेशनों तथा कुछ मुख्य स्थानों पर प्रीपेड बूथ बनाए गए हैं लेकिन आवश्यकता के सामने इनकी संख्या भी नगण्य ही है। टीएसआर की नाकामी और मनमानी के कारण भारत में रेडियो टैक्सी सेवाओं का तेज़ी से प्रचलन बढ़ा। सस्ते दामों के दावों, डोर टू डोर सर्विस, साफ़ सुथरी गाड़ियों और डिस्काउंट कूपन्स के विज्ञापनों ने सबके मोबाइल में ओला और ऊबर की एप्प साइन अप करवा दी। ऑटो रिक्शा चालकों ने अपने ऑटो रिक्शा बेच बेचकर इन कम्पनियों में गाड़ी चलानी शुरू कर दी। सवारियों ने फ्री राइड और सस्ते किरायों के लोभ में इन सेवाओं की आदत डाल ली। और एक बार आदत पड़ जाने के बाद इन कम्पनियों ने एक शब्द से हमारा परिचय करवाया, और वह शब्द था 'सर्ज'। यह सर्ज निरंतर हमारी जेब पर दर्ज होता रहता है। स्थिति यह है कि आठ रुपये प्रति किलोमीटर का विज्ञापन करने वाली ओला/ऊबर अब पन्द्रह से बीस रुपये प्रति किलोमीटर सामान्य स्थितियों में वसूल रही हैं और चालक को  सवा छह से ग्यारह रुपये प्रति किलोमीटर अदा करके शेष गड़प कर रही हैं। सरकार ने इन कम्पनियों के नाम सर्ज न लगाने का फ़रमान जारी किया तो था लेकिन वह फ़रमान अब न तक सरकार को याद है, न ओला/ऊबर को और न ही सवारियों को। निजी कंपनियां धड़ल्ले से सार्वजनिक परिवहन के क्षेत्र में चांदी कूट रही हैं और जनता इस लोककल्याणकारी गणराज्य के फटे जूते से अपना सिर पीट रही है। रोड टैक्स, टोल टैक्स, एमसीडी टैक्स, पार्किंग चार्ज और डीजल-पैट्रोल की क़ीमतें जैसी कीलों ने आम नागरिक के वाहनों में अनगिनत पंक्चर कर दिए हैं और देश के विकास की गाड़ी दौड़ने का शोर करते हुए रेंग रही है।  


© चिराग़ जैन

Monday, April 1, 2019

नए बिरवे

नए बिरवे  ईसर बाबा के एक अनुयायी सेठ ने बड़ी मेहनत और लगन से एक ख़ूबसूरत बगीचा लगवाया। सेठ की बड़ी इच्छा थी कि किसी दिन ईसर बाबा स्वयं उसका बगीचा देखने आएँ। एक दिन उसकी इच्छा पूरी हुई और बाबा उसके साथ बगीचे में पहुँच गए। सेठ बड़े चाव से बगीचे का कोना-कोना बाबा को दिखा रहा था। फलों से लदे वृक्ष और फूलों से लदी लताएँ दिखाते हुए सेठ का उत्साह सातवें आसमान पर था। जिसका सफल परिश्रम देखने उसके आराध्य आए हों, उसका उत्साह स्वाभाविक भी था। अचानक उत्साह के उद्वेग से बाहर आकर सेठ ने ध्यान दिया कि बाबा न तो वृक्षों का सौंदर्य देख रहे हैं, न ही फूलों के गुच्छों से ही आकृष्ट हो रहे हैं। बस चुपचाप उसकी बातों पर हुंकारा भरते हुए नीचे देखते हुए चले जा रहे हैं। बाबा के इस व्यवहार से सेठ किंचित निराश हुआ, किन्तु निरंतर बगीचे की विशेषताओं का वर्णन करता रहा। बाबा पहले की तरह नीची निगाह किये टहलते रहे। थोड़ी देर बाद सेठ का धैर्य डोल गया। वह झल्लाते हुए बोला - "बाबा! मैं आपको वृक्षों का सौंदर्य दिखाना चाह रहा हूँ और आपकी बगीचे में कोई रुचि ही नहीं है।" उसकी बेचैनी देख बाबा रुक गए। उन्होंने मुस्कुराती हुई आँखों से सेठ की ओर देखा और उसके कंधे पर हाथ रखकर बोले- "जो सौंदर्य तुम मुझे दिखाना चाह रहे हो, वह इस बगीचे का वर्तमान मात्र है, मैं नीचे देखकर उन बिरवों को निहार रहा हूँ जिनमें इस बगीचे का भविष्य श्वास ले रहा है।" इतना कहकर बाबा नीचे झुके और मिट्टी के भीतर से फूट रहे एक नन्हें अंकुर को दुलारने लगे। सेठ ईसर बाबा के आशय को समझ गया और उस दिन के बाद उस बगीचे में उगने वाले हर नए बिरवे का अतिरिक्त ध्यान रखा जाने लगा।  

© चिराग़ जैन