Monday, April 1, 2019

नए बिरवे

नए बिरवे  ईसर बाबा के एक अनुयायी सेठ ने बड़ी मेहनत और लगन से एक ख़ूबसूरत बगीचा लगवाया। सेठ की बड़ी इच्छा थी कि किसी दिन ईसर बाबा स्वयं उसका बगीचा देखने आएँ। एक दिन उसकी इच्छा पूरी हुई और बाबा उसके साथ बगीचे में पहुँच गए। सेठ बड़े चाव से बगीचे का कोना-कोना बाबा को दिखा रहा था। फलों से लदे वृक्ष और फूलों से लदी लताएँ दिखाते हुए सेठ का उत्साह सातवें आसमान पर था। जिसका सफल परिश्रम देखने उसके आराध्य आए हों, उसका उत्साह स्वाभाविक भी था। अचानक उत्साह के उद्वेग से बाहर आकर सेठ ने ध्यान दिया कि बाबा न तो वृक्षों का सौंदर्य देख रहे हैं, न ही फूलों के गुच्छों से ही आकृष्ट हो रहे हैं। बस चुपचाप उसकी बातों पर हुंकारा भरते हुए नीचे देखते हुए चले जा रहे हैं। बाबा के इस व्यवहार से सेठ किंचित निराश हुआ, किन्तु निरंतर बगीचे की विशेषताओं का वर्णन करता रहा। बाबा पहले की तरह नीची निगाह किये टहलते रहे। थोड़ी देर बाद सेठ का धैर्य डोल गया। वह झल्लाते हुए बोला - "बाबा! मैं आपको वृक्षों का सौंदर्य दिखाना चाह रहा हूँ और आपकी बगीचे में कोई रुचि ही नहीं है।" उसकी बेचैनी देख बाबा रुक गए। उन्होंने मुस्कुराती हुई आँखों से सेठ की ओर देखा और उसके कंधे पर हाथ रखकर बोले- "जो सौंदर्य तुम मुझे दिखाना चाह रहे हो, वह इस बगीचे का वर्तमान मात्र है, मैं नीचे देखकर उन बिरवों को निहार रहा हूँ जिनमें इस बगीचे का भविष्य श्वास ले रहा है।" इतना कहकर बाबा नीचे झुके और मिट्टी के भीतर से फूट रहे एक नन्हें अंकुर को दुलारने लगे। सेठ ईसर बाबा के आशय को समझ गया और उस दिन के बाद उस बगीचे में उगने वाले हर नए बिरवे का अतिरिक्त ध्यान रखा जाने लगा।  

© चिराग़ जैन

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