सम्मानित भारत का ड्राफ्ट किसी भी देश की समृद्धि संसाधनों के समुचित वितरण पर निर्भर करती है। भारत में संसाधनों की बहुतायत के बाद भी ग़रीबी, अव्यवस्था, अपराध, भुखमरी, बेघरी, बेरोज़गारी, अराजकता और रिश्वतखोरी जैसी समस्याएं कम नहीं हो पा रही हैं। सरकारी योजनाएं केवल कोरा प्रचार बनकर रह जाती हैं और जनता की स्थिति जस की तस रहती है। सड़कें चौड़ी की जाती हैं लेकिन जाम कम नहीं होता, रोज़ नए अस्पताल खोले जा रहे हैं लेकिन मरीजों को अस्पतालों के बरामदों में मरना पड़ता है, खूब रेलगाड़ियां चलती हैं लेकिन आरक्षण नहीं मिलता, स्कूल खुलते जा रहे हैं लेकिन एडमिशन की मारामारी है, खेती ख़ूब होती है लेकिन थालियां रीती हैं। हम इन सब समस्याओं का निदान ढूंढने निकलते हैं और राजनैतिक इच्छाशक्ति, भ्रष्टाचार, जमाखोरी और लालफीताशाही की निंदा में उलझ कर रह जाते हैं। सरकारें आत्मप्रचार के लिए अरबों रुपये के विज्ञापन कर देती है और समस्या वहीं की वहीं रहती है। विपक्ष सरकार के कार्यों की आलोचना करता है पर समस्या वहीं की वहीं रहती है। अफ़सर जैसे तैसे काग़ज़ों का पेट भरते भरते ज़िन्दगी गुज़ार देते हैं पर समस्या वहीं की वहीं रहती है। इतना पैसा, इतनी योजनाएं, इतने अफसर, इतने कर्मचारी, इतनी समाजसेवी संस्थाएं, इतने घोषणापत्र और इतने आंदोलन मिलकर भी देश की किसी समस्या का निदान इसलिए नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि समस्या की जड़ पर कोई चर्चा ही नहीं कर रहा। चमड़ी पर लगे कोढ़ को हटाने के लिए मरहम लेपा जा रहा है पर ख़ून साफ़ करने का उपचार कोई नहीं कर रहा। भारत की किसी भी समस्या को पकड़ कर उसके प्रारंभिक छोर तक कि यात्रा की जाए तो हमें एक ही शब्द दिखाई देगा - "जनसंख्या"। इस एक शब्द के आधार पर भारतीय समस्याओं का मकड़जाल बुना हुआ है। यह एक ऐसी समस्या है जिसको नियंत्रित किये बिना देश के विकास की बातें चुनावी जुमलेबाज़ी से ज़्यादा कुछ नहीं हैं। हमें हिन्दू-मुस्लिम बनाकर ज़्यादा बच्चे पैदा करने के बयान दिए जाते हैं। यदि गंभीरता से विचार किया जाए तो ऐसा हर बयान राष्ट्रद्रोह जैसा अपराध है। भारतीय लोकतंत्र में वोट की संख्या को ही सत्ता का मापदंड बना दिया गया है। इसके स्थान पर यदि वोट की गुणवत्ता को तवज्जोह दी जाती तो स्थिति इतनी भयावह कभी नहीं होती। किसी भी परिवार के पहले बच्चे को ही मतदान का अधिकार हो, पहले बच्चे को ही सरकारी योजनाओं का लाभ मिले, पहले बच्चे की सरकारी नौकरी की गारंटी हो, पहले बच्चे को आयकर में छूट मिले, पहले बच्चे की शिक्षा तथा स्वास्थ्य मुफ्त हो... यह सुनने में थोड़ा कठोर लग सकता है लेकिन सोचने पर ज्ञात होगा कि जानवरों की तरह अस्पतालों, स्टेशनों, फुटपाथों और झुग्गियों में घिसट रहे भारत को सम्मानजनक जीवन देने के लिए इसके सिवाय अन्य कोई उपाय नहीं है। आज ही कि तिथि से ठीक दस माह के बाद की तारीख़ निर्धारित करके सरकार "एक बालक विधेयक" लागू कर दे कि इस तिथि के बाद जो भी बच्चे जन्म लेंगे उन्हें सरकारी योजनाओं का लाभ तभी मिलेगा यदि वे पहली संतान होंगे। यह कानून अब तक जन्म चुके या गर्भस्थ किसी भी मनुष्य के साथ अन्याय किये बिना जनसंख्या नियंत्रण का चमत्कार कर देगा। अभी भी सरकारी नौकरी में मेटरनिटी तथा चाइल्ड केयर लीव के संदर्भ में इस प्रकार के नियम सफलतापूर्वक क्रियान्वित हैं, इसलिए ऐसे नियमों के क्रियान्वयन में कोई विशेष बाधा नहीं आएगी। सरकार के कुल विज्ञापन बजट का तीस प्रतिशत व्यय इस कानून के प्रसार पर ख़र्च हो तो आज से बीस साल बाद हम उस भारत के दर्शन कर पाएंगे जिसके हर नागरिक को सम्मानपूर्ण जीवन का अर्थ पता होगा।
© चिराग़ जैन
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