इक महंगा क्षण जी आया
आज समझ आया चूड़ी बिन
कैसे कंगन जी पाया
जिस पल मथुरा का आकर्षण वृंदावन से ज़्यादा था
कर्तव्यों का मोह किसी को अपनेपन से ज़्यादा था
निर्णय ले बैठा निर्मोही, बिरहन याद नहीं आई
दाँतों ने अधरों को काटा, नयनों में लाली छाई
आज तुम्हारा निर्णय सुनकर
राधा का मन जी आया
आज तुम्हारे कारण ही मैं
इक महंगा क्षण जी आया
राघव स्वयं नहीं सक्षम थे, जो सच्चाई कहने में
वैदेही पर क्या बीती थी, वो सच्चाई सहने में
जब लक्ष्मण वन में ले जाकर, सीता को बतलाते हैं
उस पल सिय के मन में क्या क्या, भाव उमड़कर आते हैं
पाँव जमे, आँखें पथराईं
ख़ुद का तर्पण जी आया
आज तुम्हारे कारण ही मैं
इक महंगा क्षण जी आया
आंधी से मिलकर जब अमुआ, बौर गिराने लगता है
तब सहमी सहमी कोयल का, मन घबराने लगता है
अब समझा जब कोहरे में छुप सूरज को बिसराते हैं
तब इन हरियाले पेड़ों से पत्ते क्यों झड़ जाते हैं
आज अचानक मैं मन ही मन
रूठा सावन जी पाया
आज तुम्हारे कारण ही मैं
इक महंगा क्षण जी पाया
✍️ चिराग़ जैन
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