गाड़ी वाले गाड़ी धीरे हाँक रे... बुलेट ट्रेन और अंतरिक्ष यान की चर्चाओं के बीच आज कुछ वास्तविक यातायात साधनों की स्थिति ध्यान आ रही है। भारत में एक अदद रेल विभाग है। सड़ांध मारते स्टेशन और देर से चलने के लिए मशहूर रेलगाड़ियाँ इस विभाग की शान हैं। आज़ादी के सात दशक बाद भी भारतीय रेल ने लेटलतीफी की अपनी गौरवमयी परंपरा को बरक़रार रखा है। स्टेशन पर गठरियों की तरह पड़े लाचार यात्री भारतीय रेल की निष्ठा का शिलालेख है। यदि ट्रेन लेट हो जाए तो रेलवे की उद्घोषिका की रिकार्डेड आवाज़ सुनने को मिलती है कि आपको हुई असुविधा के लिए हमें खेद है। यदि रेल विभाग किसी भी कारण से ट्रेन कैंसिल करता है तो यात्री को कोई मुआवजा देने का कोई प्रावधान नहीं है लेकिन यदि यात्री किसी कारणवश अपना आरक्षण रद्द करवाए तो उससे जुर्माना लेने का प्रावधान है। इससे सिद्ध होता है कि भारत एक लोककल्याणकारी गणराज्य है। निजी सेवाओं की ओर देखें तो भारत में कुछ गिनी-चुनी विमानन सेवाएँ हैं जो नागर विमानन मंत्रालय तथा डीजीसीए की देखरेख में कार्य करती हैं। इनमें एयर इण्डिया सरकारी उपक्रम है और इंडिगो, गो एयरवेज़, जेट एयरवेज़, स्पाइस जेट, एयर विस्तारा तथा एयर एशिया निजी क्षेत्र की विमान सेवाएँ हैं। इन सभी कंपनियों का मुख्य कार्य मुनाफ़ा कमाना है, इसके साथ वे कुछ सवारियाँ भी ढो लेती हैं। एयर इण्डिया सरकारी विमान सेवा है। जो क्रमशः इण्डियन एयरलाइंस और एलाइंस एयर जैसी कंपनियों को लील लेने के बावजूद घाटे में चलती है। इसके यात्री अनियमितताओं और अव्यावसायिक रवैये से तंग होकर निजी सेवाओं का प्रयोग करने के लिए विवश हैं। इस कारण एयर इंडिया के जहाज सरकारी कर्मचारियों के दौरे के लिए ही उपयुक्त रहते हैं। निजी विमानन सेवाओं में किरायों को नियंत्रित तथा तर्कयुक्त बनाने का कोई प्रावधान नहीं है। भारतीय रेल की तरह फ्लाइट कैंसिल होने की स्थिति में मुआवजे का कोई विकल्प नहीं है किंतु यात्री द्वारा आरक्षण रद्द कराने पर सामान्यतः उसके आरक्षण का लगभग सारा पैसा जब्त कर लेने की सुविधा विमानन सेवाओं के पास है। फ्लाइट विलंबित होने की स्थिति में यात्रियों को होने वाले आर्थिक, व्यावसायिक, सामाजिक तथा व्यक्तिगत नुक़सान के लिए न कोई पूछता है न ही इस संदर्भ में कोई दिशानिर्देश बनाए गए हैं। डीजीसीए और नागर विमानन मंत्रालय इन कम्पनियों के बकाया, उधारी और सुरक्षा मानदंडों के क्रियान्वयन में इतने तल्लीन हैं कि उनके पास यात्रियों के संकटों की ओर देखने का समय ही नहीं है। इससे सिद्ध होता है कि भारत एक लोककल्याणकारी गणराज्य है। सड़क यातायात में हर राज्य का अपना सड़क परिवहन निगम है। इन निगमों की सामान्य बसों से सरकारी तंत्र की सूरत मिलाई जा सकती है। हाँ, अंतरराज्यीय बस सेवाओं में राजस्थान, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश जैसे अनेक राज्यों ने वॉल्वो तथा अन्य लग्जरी बसें मुहैया करवाई हैं जो समुचित किरायों में सुविधाजनक सफ़र की मिसाल हैं। स्थानीय सेवाओं में मुम्बई की बस सेवाओं की व्यवस्था उदाहरणीय है। शेष शहरों में स्थानीय बस परिवहन की दशा बेहद शोचनीय है। दिल्ली में तो ब्ल्यू लाइन, रेड लाइन, ग्रीन लाइन, व्हाइट लाइन जैसे विविध प्रयोग काफ़ी शानदार तरीके से विफल हुए हैं। हाँ डीटीसी की क्लस्टर बसों से आशा बंधी थी लेकिन ब्ल्यू लाइन (जिसे किलर लाइन भी कहा जाता था) के बेरोज़गार ड्राइवरों की कॉन्ट्रेक्ट बेस पर भर्ती होने के बाद से इन बसों का दिल्ली की सड़कों पर आतंक देखते ही बनता है। बीच में "अंडर डीटीसी परमिट' वाली योजना के तहत ऐसी बसें चलीं थीं जिनमें ड्राइवर बस मालिक का होता था और कण्डक्टर डीटीसी का। मेरे विचार में यह योजना सफल तथा निर्विवादित थी। इसको बन्द किये जाने का कारण मुझे ज्ञात नहीं हो पाता। दिल्ली, कोलकाता, मुम्बई, जयपुर, नागपुर और लखनऊ जैसे कुछ शहरों में मेट्रो रेल भी पब्लिक परिवहन का एक विकल्प है। इनमें दिल्ली मेट्रो सर्वाधिक सफल है। कोलकाता मेट्रो पूर्णतः जीर्णोद्धार की मांग करती है। शेष अपने शुरुआती दौर में हैं। टैक्सी सेवाओं की स्थिति भी भाषाओं की तरह तीन कोस पर बदलती रहती है। मुम्बई और कोलकाता में ऑटो रिक्शा तथा टैक्सी सेवाएं सुव्यवस्थित तथा परिपक्व हैं। दिल्ली में टीएसआर सेवाएँ मनमाने किरायों, ड्राइवरों की गुंडागर्दी और पुरानी खटारा गाड़ियों के कारण नगण्य है। हवाई अड्डों, रेलवे स्टेशनों तथा कुछ मुख्य स्थानों पर प्रीपेड बूथ बनाए गए हैं लेकिन आवश्यकता के सामने इनकी संख्या भी नगण्य ही है। टीएसआर की नाकामी और मनमानी के कारण भारत में रेडियो टैक्सी सेवाओं का तेज़ी से प्रचलन बढ़ा। सस्ते दामों के दावों, डोर टू डोर सर्विस, साफ़ सुथरी गाड़ियों और डिस्काउंट कूपन्स के विज्ञापनों ने सबके मोबाइल में ओला और ऊबर की एप्प साइन अप करवा दी। ऑटो रिक्शा चालकों ने अपने ऑटो रिक्शा बेच बेचकर इन कम्पनियों में गाड़ी चलानी शुरू कर दी। सवारियों ने फ्री राइड और सस्ते किरायों के लोभ में इन सेवाओं की आदत डाल ली। और एक बार आदत पड़ जाने के बाद इन कम्पनियों ने एक शब्द से हमारा परिचय करवाया, और वह शब्द था 'सर्ज'। यह सर्ज निरंतर हमारी जेब पर दर्ज होता रहता है। स्थिति यह है कि आठ रुपये प्रति किलोमीटर का विज्ञापन करने वाली ओला/ऊबर अब पन्द्रह से बीस रुपये प्रति किलोमीटर सामान्य स्थितियों में वसूल रही हैं और चालक को सवा छह से ग्यारह रुपये प्रति किलोमीटर अदा करके शेष गड़प कर रही हैं। सरकार ने इन कम्पनियों के नाम सर्ज न लगाने का फ़रमान जारी किया तो था लेकिन वह फ़रमान अब न तक सरकार को याद है, न ओला/ऊबर को और न ही सवारियों को। निजी कंपनियां धड़ल्ले से सार्वजनिक परिवहन के क्षेत्र में चांदी कूट रही हैं और जनता इस लोककल्याणकारी गणराज्य के फटे जूते से अपना सिर पीट रही है। रोड टैक्स, टोल टैक्स, एमसीडी टैक्स, पार्किंग चार्ज और डीजल-पैट्रोल की क़ीमतें जैसी कीलों ने आम नागरिक के वाहनों में अनगिनत पंक्चर कर दिए हैं और देश के विकास की गाड़ी दौड़ने का शोर करते हुए रेंग रही है।
© चिराग़ जैन
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