Friday, April 12, 2019

याद प्रदीप चौबे की

ज़िन्दगी को सलीक़े से जीना क्या होता है, इस प्रश्न का उत्तर उन सबके पास है जिन्होंने प्रदीप चौबे जी को देखा है। एक ऐसा शख़्स जिसने अपनी शर्तों को किसी भी शर्त पर कभी छोड़ा नहीं। कवि सम्मेलन में गए तो होटल से लेकर मंच तक सब कुछ व्यवस्थित। संयोजन किया तो उनके द्वारा आमंत्रित कवि को क्या क्या ज़रूरत पड़ सकती है, इसका पूरा-पूरा ध्यान; कविता पढ़ी तो एक भी लफ़्ज़ बेमानी नहीं बोला; यात्रा की तो ट्रेन के बिस्तर से लेकर गाड़ी की पिछली सीट के तकिए तक सब कुछ टिप-टॉप। आरंभ के बैनर तले वे ऐसी गोष्ठियाँ करवाते थे जिनमें श्रोता चुन-चुनकर बुलाए जाते थे। 
संवेदना इतनी प्रबल कि करुणा की एक पंक्ति पर बिलख पड़ते थे और आत्मबल इतना दृढ़ कि भयंकर स्थिति में भी अपने चेहरे को मटकाते हुए चुटकी ले लेते थे। दुनिया के सबसे सामान्य वाक्य को भी केवल अपनी अदा से ठहाके में तब्दील कर देने का कौशल था उनके पास। सामान्य सी बात को भी तनी हुई भृकुटियों और शरारत भरी मुस्कान के साथ जब वे आँख मारते हुए बोलते थे तो उनकी अदा आनंद उत्पन्न करती थी। बोलते हुए स्वर का आरोह-अवरोह उनके एक-एक जुमले को लतीफ़ा बना देता था। हाज़िरजवाबी ऐसी कि यदि भरे क्रोध में भी किसी को डाँटा तो उस क्षण के संवाद हास्य के संस्मरण बन गए।
कला और प्रतिभा के वे पारखी थे। संगीत, चित्रकला, कविता, अभिनय तथा नृत्य की इतनी महीन समीक्षा करते थे कि स्वयं कृतिकार आश्चर्य से भर जाता था। एक-एक शेर को इतने मन से सुनते थे, कि कोई बात छूट न जाए और जहाँ कविता होती थी, वहाँ इतनी ईमानदार सराहना करते थे कि सुनानेवाला निहाल हो जाता था।
प्रवृत्तियों को भाँपने में दक्ष थे। सामनेवाला जो नहीं कह रहा होता था, उसे पहले सुनते थे। और एक बार सामनेवाले को पढ़ लें तो प्रतिक्रिया देने में विलम्ब नहीं करते थे। छद्म और शातिर लोगों को कई बार रुलाकर लौटाने का इतिहास रहा है प्रदीप जी का।
शरारती इतने थे, कि यात्रा में दो लोगों की बातचीत में बिना शामिल हुए ही मुस्कुराते हुए भिन्न-भिन्न अर्थ निकालकर रस लेते रहते थे। इसी रस से उत्पन्न शरारती मुस्कान उनकी पहचान थी।
साफ़गोई और निर्लिप्तता ने उन्हें बेहद अंतर्मुखी बना दिया था। परफेक्शनिस्ट थे, इसीलिए अपने कम्फर्ट ज़ोन में किसी का दख़ल बर्दाश्त नहीं करते थे। लेकिन विपरीत परिस्थितियों में भी बहुत देर तक क्रोध उन्होंने कभी नहीं किया। किसी भी अनचाहे विवाद को एक जुमले से ठहाके में बदल देने का हुनर आता था उन्हें।
अपने कम्फर्ट के दायरे में प्रवेश करने का अधिकार उन्होंने कभी भी किसी को नहीं दिया। शब्दों का अपव्यय उन्हें कतई पसंद नहीं था। उनकी एक ख़ासियत यह भी थी कि वे यदि किसी की प्रशंसा कर रहे होते थे तो उसकी वास्तविकता में कोई संशय नहीं हो सकता था, क्योंकि जो कुछ उन्हें नापसन्द होता था उसको अपनी नापसंदगी जताने में वे कभी नहीं हिचकते थे। जीनियस शब्द और जीनियस लोग उन्हें बेहद पसंद थे। चाटुकारों और दिखावटी लोगों से उन्हें परहेज था। वे जीनियस और खरे लोगों की संगत पाकर प्रसन्न होते थे। 
सच बोलते समय वे सामने वाले के मन की चिंता करना बहुत ज़्यादा अनावश्यक समझते थे। झूठी प्रशंसा करनेवालों को बर्दाश्त करने की उनकी क्षमता कुछेक सेकेण्ड में जवाब दे जाती थी। क़िस्सागोई और बतरस के वे मास्टर थे। भयंकर आपात स्थिति की रिपोर्टिंग भी इतने चुटीले अंदाज़ में करते थे कि तनाव छूमंतर हो जाए। भीतर बाहर एक सरीखा जीवन जीनेवाले प्रदीप जी जैसे लोग अब शायद मुश्किल से ही देखने को मिलेंगे, जो अपने ड्राइंग रूम की दीवार पर लिखवा सकें कि- ‘इतना तो चलता है, यहाँ नहीं चलता है।’ 
मुझे याद है, उन दिनों मैं लगभग रोज़ गीत लिखता था। यात्राओं में अन्य कविमित्र इस बात पर परिहास भी करते थे कि इसे अकेला छोड़ दो तो ये नया गीत लिख लाएगा। प्रदीप जी को ग़ज़लों का शौक़ था। मैंने बिराटनगर से बागडोगरा आते हुए रास्ते में उन्हें कुछ अशआर सुना दिए। उन्होंने भरपूर सराहना की। घण्टे भर बाद अपने सुप्रसिद्ध अंदाज़ में वाक्यों को लगभग गाते हुए बोले- ‘चिराग़, तुम बहुत बढ़िया शेर कहते हो... मुझे भेज दिया करो...’ इससे पहले कि मैं कुछ बोलता उन्होंने उसी सुर में आरोह बढ़ाते हुए वाक्य पूरा किया ‘....गीत मत भेजना!’ 
जब वे संवाद करते थे तो उनके ओंठ, उनकी आँखें, उनकी भृकुटि, उनकी गर्दन, उनके हाथ, उनकी उंगलियाँ... सब एक साथ बोलने लगते थे।
इतने जीवन्त कवि ने यकायक इस दुनिया को अलविदा कहा तो महसूस हुआ कि हँसता-हँसाता वह व्यक्तित्व कितने सारे तनाव झेलता था, इसका अनुमान किसी को नहीं था। हँसानेवाले का आँसू सृष्टि की सबसे अनावश्यक वस्तु है... प्रदीप जी इस बात को समझ गए थे, इसलिए उन्होंने अपने आँसुओं को अपने व्यक्तित्व के शोरूम में कभी डिस्प्ले नहीं किया।
उनके पास दिल से लेकर जिस्म तक अनेक घाव रहे लेकिन उन्होंने मंच पर कभी इन घावों की संवेदना नहीं बटोरी। प्रदीप जी एक संपूर्ण कवि थे। कभी वक़्त ने आकलन किया तो पता चलेगा कि 11 अप्रैल 2019 को ग्वालियर में जो काया भस्म हुई थी, उसमें एक प्रदीप्त सूर्य ने सत्तर बरस तक प्रवास किया था।

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