Friday, December 31, 2021

परोपकार

अपने दर्द पर इतना ध्यान न देना
कि औरों की कराह सुनाई न दें
अपने पसीने की इतनी परवाह न करना
कि औरों के आँसू दिखाई न दें

© चिराग़ जैन

अलविदा 2021

जब ढलेगा आज का सूरज
तो उसके साथ ही बुझ जाएगी
वो आख़िरी उम्मीद भी
जो साल भर पहले
लगा बैठे थे तुमसे हम सभी।

याद है मुझको
करोड़ों कामनाएं गूंज उठी थीं
सभी मोबाइलों में;
शुभ, मुबारक़ और कितने ही
हसीं अल्फ़ाज़ लिखे थे तुम्हारे साथ

घड़ी के एक-एक सेकेण्ड की आवाज़ पर
उम्मीद का आकार बढ़ता जा रहा था
ठिठुरती रात में
जब रूह तक जमने लगी थी
तुम्हारी पहली आहट को तरसते लोग
सड़कों पर खड़े थे

घड़ी में जिस जगह बारह लिखा था
घड़ी की सबसे छोटी सूई
उस जानिब बहुत धीरे सरकती आ रही थी
बड़ी सूई ज़रा सी तेज़ थी
पर तीसरी दोनों बड़ी-छोटी को मिलवाने की ख़ातिर
कई चक्कर लगाती जा रही थी
मुझे सेकेण्ड की सूई का हर ठुमका
अभी तक याद है अच्छी तरह

बहुत बेचैन थी उस रात ये दुनिया
तुम्हारी इन्तज़ारी में

तुम्हारी राह में जो फूल बिखरे थे
अभी वो ठीक से सूखे नहीं थे
कि तुमने ख़ूबसूरत ख़्वाब सारे तोड़ डाले
तुम्हारे नाम से जो दिन नुमाया थे
उन्हें रोती हुई आँखों का चस्का लग गया था
तुम्हारे कान आहों का नशा करने लगे थे
तुम्हारी एक-एक तारीख़ डाकू की तरह
हर रोज़ दुनिया के कई गौहर चुराती जा रही थी

सुनो, ये जो तुम्हारे कारनामे हैं
उन्हें भूला भी जा सकता नहीं है
और उनकी याद के आगोश में
उम्मीद का दामन पकड़ने से
हमें डर लग रहा है

निगाहें फिर घड़ी पर टिक रही हैं
किसी जादू की गुंजाइश नहीं है
मग़र ये आज पहली बार होगा
कि दुनिया
आने वाले साल की ख़ातिर
भले ख़ुश हो या ना हो
मग़र तुम जा रहे हो
इस ख़ुशी में नाच उठेगा ज़माना।

© चिराग़ जैन

Wednesday, December 29, 2021

मास्टरजी की ऐसी-तैसी

‘मनसुख’ अपने खेत के एक कोने में पक्षियों के लिए चुग्गा डाल रहा था। उसे ऐसा करते देख गाँव के मास्टरजी ने उसे रोकना चाहा। मनसुख ने मास्टरजी को निष्ठुर, निर्दयी और चिड़िया-विरोधी कहकर अपमानित किया और सारे गाँव में कहता फिरा कि ”मास्टर ‘चुग्गा विरोधी गैंग’ का सरगना है। खाली पड़े खेत में चिड़ियों को चुग्गा डालता हूँ, बेचारी चिड़ियों का पेट भर जाता है। इसमें इस मास्टर का क्या जाता है!” 
किसान ने यह बात इतने ज़ोर-शोर से प्रसारित की कि गाँव के कुछ लड़कों ने ‘पंछी करुणा दल’ बनाकर बात को आगे बढ़ाना शुरू कर दिया। 
किसी ने कहा, मास्टर चाहता है कि चुग्गे का अन्न मास्टर को दे दिया जाए। किसी ने कहा कि मास्टर चिड़ियों को समाप्त करके, ख़ुद पूरे आकाश में उड़ना चाहता है। किसी ने कहा कि मास्टर किसान के खेत हड़पने का षड्यंत्र कर रहा है। 
मास्टर को देखते ही ‘पंछी करुणा दल’ के लड़के नारा लगाने लगे- ‘हम चिड़ियों के ख़ास हितैषी, मास्टरजी की ऐसी-तैसी।’
इन सब बातों से आहत होकर मास्टरजी ने चुप्पी ओढ़ ली। किसान और गाँव के लड़के मास्टर को जलाने के लिए जेब से पैसा ख़र्च करके मनसुख के खेत में चुग्गा डालने लगे। पंछियो के झुंड के झुंड खेतों पर मंडराने लगे। 
बुआई का समय आया तो मनसुख ने चुग्गा डालना बन्द कर दिया और खेत में बीज बोए। पंछियों ने बुआई का एक-एक बीज चुग्गा समझकर चुग लिया। मनसुख को दुःख तो हुआ लेकिन उसे इस बात की ख़ुशी ज़्यादा थी कि मास्टर के बच्चे की हेकड़ी निकल गयी और चुग्गा डालने की परंपरा स्थापित हो गयी।
अगले दिन मनसुख ने फिर बीज बोए। लेकिन अब तक उसकी स्थापित की हुई परम्परा जड़ पकड़ चुकी थी। एक सप्ताह तक किसान रोज़ बुआई करता रहा लेकिन पंछियों को खेत से उड़ाने का साहस न जुटा सका, क्योंकि परम्परा उसी की बोई हुई थी। 
अब मनसुख को पंछियों पर क्रोध आने लगा लेकिन ज्यों ही उसने पंछी भगाने के लिए उठने लगा तो देखा कि सामने से ‘पंछी करुणा दल’ के लड़के बोरी भर मक्का लिए चले आ रहे थे। पास आकर बोले, आओ मनसुख भाई, खेत में चुग्गा डालें।
मनसुख निरुत्तर बैठा रहा। लड़के नारा लगाते हुए उसके खेत में चुग्गा डालने लगे। मनसुख का गला रुंध गया, आँखें डबडबा आईं लेकिन कानों में लड़कों की आवाज़ लगातार आ रही थी- ‘...मास्टरजी की ऐसी-तैसी।’ 

© चिराग़ जैन

डिस्क्लेमर : यह कथा पूरी तरह काल्पनिक है। यदि किसी राजनैतिक दल, उसके समर्थकों और बुद्धिजीवियों से जुड़ी घटनाएँ इसमें झलक जाएँ तो उसे केवल इत्तेफ़ाक़ समझा जाए।

Tuesday, December 28, 2021

चाहत

दिल ऊँचाई पर जाना भी चाहता है
और किसी से बतियाना भी चाहता है

दीवाना है, ज़िंदा है जिसकी खातिर
उसकी खातिर मर जाना भी चाहता है

दिल दे बैठा है जिसके भोलेपन को
उस पगली को समझाना भी चाहता है

मुश्किल है, अंधियारे को रौशन करना
जल जाना तो परवाना भी चाहता है

सूरज रब बन जाता है बरसातों में
हाज़िर भी है, छुप जाना भी चाहता है

✍️ चिराग़ जैन

Monday, December 27, 2021

ओमिक्रोन की राजनीति

देश एक बार फिर दोराहे पर खड़ा हैं। एक ओर खुला राजमार्ग है जिसके दोनों ओर रोटी-पानी के स्रोत हैं लेकिन उसके हर मोड़ पर ‘दुर्घटना’ होने की आशंका भी है। दूसरी ओर वह बंद सड़क है, जो दुर्घटनाओं से तो हमें सुरक्षित कर देगी लेकिन रोज़मर्रा की ज़रूरतों का अभाव इस सुरक्षा का न्यूनतम मूल्य है।
इस दोराहे पर नेतृत्व का एक इशारा पूरे देश की नियति बन जाएगा। धर्मसंकट की इस घड़ी में नेतृत्व के कंधों की ज़िम्मेदारी महसूस की जा सकती है। एक ओर ऐसी सुरक्षा है जिसमें सम्पन्नता तो दूर न्यूनतम संसाधनों का भी अभाव हो जाएगा। और दूसरी ओर ऐसा जोखिम है जिसमें न्यूनतम आवश्यकता ही नहीं, वैभव-विलास तक का अभाव नहीं होगा।
सुबह-शाम एक-दूसरे की आँखों में झाँककर ‘लॉकडाउन लगेगा या नहीं’ -का उत्तर खंगालनेवालों को यह जानना होगा कि यह इतना सामान्य प्रश्न नहीं है, जितना हम समझ रहे हैं। सरकार राजमार्ग की ओर देश को ले जाएगी तो दूसरी लहर का हाहाकार स्मृतियों में उभरकर कान के पर्दे फाड़ देगा और बन्द सड़क की ओर देखने का प्रयास करेगी तो भूख और बेरोज़गारी के अजगर साँस लेना दूभर कर देंगे।
सरकार इस स्थिति में क्या निर्णय लेगी, यह उसके विवेक पर छोड़ना चाहिए लेकिन जनता यह अपेक्षा अवश्य करेगी कि जिस भी दिशा में देश को मोड़ा जाए, नेतृत्व उसके साथ उसी दिशा में चलता दिखाई दे। यदि जनता को बन्द गली में क़ैद करके नेतृत्व राजमार्ग के दोनों ओर बनी सुविधाएँ भोगता दिखा तो बन्द गली की घुटन से जनता के भीतर विस्फोट की आशंका उत्पन्न हो जाएगी और यदि जनता को राजमार्ग पर छोड़कर नेतृत्व ने स्वयं को बंद गली में सुरक्षित कर लेना चाहा तो राजमार्ग पर होनेवाली हर दुर्घटना की चीत्कार नेतृत्व के लिए ऐसी चिंघाड़ बन जाएगी, जिसमें जय-जयकार के नारों का शोर कभी सिर नहीं उठा पाएगा।
चुनाव निश्चित रूप से लोकतंत्र के लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं लेकिन इस बार प्रशासन को चुनाव करना है कि राजनीति की दुकान को बचाना है या उन दुकानों के ग्राहकों को...!

@ चिराग़ जैन

Wednesday, December 22, 2021

शोर

चीखने से
शोर बढ़ता है
सम्बन्ध नहीं।

सुकून की खटिया
बुनी जाती है
सहजता की बाण से;
इसमें प्रयास की गाँठें हों
तो मुक्त नहीं हो सकती नींद
चुभन से!

जताना
और बताना
व्यापार में होना चाहिए
व्यवहार में नहीं।

और प्यार में...
...वहाँ तो
आँखें मिलते ही
फिफ्थ गीयर लग जाता है
धड़कनों में!

ओंठ व्यस्त रहते हैं
कँपकँपाने और मुस्कुराने में।

शब्द और आवाज़
केवल शोर हैं
प्यार की बातचीत में।

© चिराग़ जैन

Monday, December 20, 2021

जनकल्याण की भूल-भुलैया

सरकार सदन में चिल्लाती है कि हम जन-कल्याण करेंगे। विपक्ष भी सदन में चिल्लाता है कि हम जन-कल्याण करवाएंगे। दोनों तरफ़ की आवाज़ें ऊँची होती जाती हैं। शोर-शराबा बढ़ता है तो स्पीकर सदन की कार्रवाई स्थगित कर देते हैं। दोनों पक्ष अपनी-अपनी आवाज़ लिए सदन के बाहर निकल आते हैं। उन्हें बाहर आता देखकर मीडिया उनके मुँह पर माइक लगा देता है।
पक्ष के प्रतिनिधि माइक देखते ही चिल्लाने लगते हैं। उनको चिल्लाते देखकर विपक्ष भी मीडिया के एकाध माइक लपककर चिल्लाने लगता है। दोनों एक-दूसरे पर अनुशासनहीनता, संवेदनहीनता और जनविरोधी होने का आरोप लगाते हैं। सरकार बताती है कि विपक्ष सदन नहीं चलने दे रहा। विपक्ष बताता है कि सरकार सदन चलाना नहीं चाहती। ख़ूब शोर-शराबा होता है।
दोनों के जन-कल्याण के दावों को सुनकर स्पीकर महोदय दोनों को सदन में बुला लेते हैं। सदन की कार्यवाही शुरू होती है। फिर दोनों तरफ़ के लोग हंगामा करते हैं। फिर सदन स्थगित होता है। फिर मीडिया बाइट लेता है। फिर सदन शुरू होता है... फिर स्थगन... फिर मीडिया... फिर अंदर... फिर बाहर...!
पूरा सत्र बीत जाता है... पूरा कार्यकाल बीत जाता है... पूरे दशक बीत जाते हैं... पूरे युग बीत जाते हैं... विपक्ष सरकार बन जाता है... सरकार विपक्ष में जा बैठती है... अंदर-बाहर के इस खेल में राजनीति का खेत जुतता रहता है... नयी-नयी पार्टियाँ उग आती हैं... कहीं पीपल की डालियाँ कीकरों की गलबहियाँ कर लेती हैं तो कहीं बरगद की कोई डाल अपनी जड़ें जमाकर ख़ुद को बरगद घोषित कर देती हैं... अंदर-बाहर का कार्यक्रम जारी रहता है!
सरकार कहती रहती है कि हम जनकल्याण करके रहेंगे... विपक्ष कहता रहता है तुम्हें जनकल्याण करना ही होगा। जनकल्याण संसद के खम्भों से टेक लगाकर खड़ा-खड़ा ख़ुद स्तम्भ बन चुका है और जनता जब रायसीना के आसपास से निकलती है तो लाल खंभों पर खड़ी एक इमारत की ओर टकटकी लगाकर देखती रहती है। उस समय उसे यह याद ही नहीं रहता कि जितनी देर वह संसद की ओर निहार रही थी, उतनी देर वह गोल-गोल घूम रही थी।

© चिराग़ जैन

Friday, December 17, 2021

क़िस्से-कहानियों का सताया हुआ लोकतंत्र

हमें बचपन से यह पढ़ाया गया है कि फलाने राजा ने ख़ुश होकर फलाने व्यक्ति को स्वर्ण मुद्राएँ दीं। बस यहीं से हमारे मस्तिष्क को कैप्चर करने का खेल शुरू हो गया। हम कलाकार हैं, तो अपनी कला से राजा को ख़ुश करने में लगे रहे। हम विद्वान हुए, तो अपनी विद्वत्ता से राजा को ख़ुश करते रहे। हम चतुर हुए, तो अपना समस्त चातुर्य राजा को ख़ुश करने में झोंक दिया। बुद्धिमान हुए, तो बुद्धिमत्ता राजा को ख़ुश करने में जुट गयी।
मतलब यह कि कला, विद्वत्ता, चातुर्य और बुद्धिमत्ता; राजा से स्वर्ण मुद्राएँ पाने की होड़ में व्यस्त हो गयीं और राजा इन सबको काम पर लगाकर शासन में अपनी मनमानी करके ख़ुश रहा।
इन्हीं कहानियों ने हमें यह भी बताया कि नगर की समस्त सुंदर कन्याओं का अंतिम उद्देश्य यही है कि राजकुमार उनके सौंदर्य पर मोहित हो जावे। इसलिए आज भी सत्ताधीशों के राजकुँवर सुन्दर कन्याओं पर आकृष्ट होकर उनका जीवन धन्य करते पकड़े जाते हैं।
हमें बचपन से यह पढ़ाया गया है कि फलाने राजा ने ख़ुश होकर फलाने व्यक्ति को स्वर्णमुद्राएँ दीं। बस यहीं से हमारे मस्तिष्क को कैप्चर करने का खेल शुरू हो गया। हम कलाकार हैं, तो अपनी कला से राजा को ख़ुश करने में लगे रहे। हम विद्वान हुए, तो अपनी विद्वत्ता से राजा को ख़ुश करते रहे। हम चतुर हुए, तो अपना समस्त चातुर्य राजा को ख़ुश करने में झोंक दिया। बुद्धिमान हुए, तो बुद्धिमत्ता राजा को ख़ुश करने में जुट गयी।
मतलब यह कि कला, विद्वत्ता, चातुर्य और बुद्धिमत्ता; राजा से स्वर्णमुद्राएँ पाने की होड़ में व्यस्त हो गयीं और राजा इन सबको काम पर लगाकर शासन में अपनी मनमानी करके ख़ुश रहा।
इन्हीं कहानियों ने हमें यह भी बताया कि नगर की समस्त सुंदर कन्याओं का अंतिम उद्देश्य यही है कि राजकुमार उनके सौंदर्य पर मोहित हो जाये। इसलिए आज भी सत्ताधीशों के राजकुँवर सुन्दर कन्याओं पर आकृष्ट होकर, उनका जीवन धन्य करते पकड़े जाते हैं।
इन कहानियों के अनुसार राजा के दो ही काम थे- प्रथम, अपने मंत्रियों से ऊल-जलूल सवाल पूछना और द्वितीय, आखेट करना। इन दोनों से जो समय बचता था, वह रूठी रानी को मनाने में व्यतीत हो जाता था।
मंत्रियों के भी दो ही काम थे। या तो वे सबसे होनहार मंत्री से ईर्ष्या करने में व्यस्त रहते थे या फिर राजा के बेसिरपैर के टास्क पूरे करने में लगे रहते थे। इन दोनों से चिढ़कर ही वे अक्सर राजा को शिकार के समय जंगल में अकेला छोड़कर जानबूझकर भटक जाते थे। लेकिन शिकार में भटकने के बावजूद बिना जीपीएस के ही राजा भटकता हुआ अपने महल पहुँच जाता था।
राजकुमारियाँ सखियों के साथ जलक्रीड़ा और वनभोज (पिकनिक) में व्यस्त रहती थीं। जहाँ कोई भूत-प्रेत या राजकुमार उनके रूप-लावण्य पर मोहित होने पहुँच ही जाता था। (इस सीन में कभी कोई जंगली जानवर नहीं आ सका, क्योंकि जंगली जानवर प्रोटोकॉल के बाहर कभी नहीं जाते।) सो, राजकुमार की एंट्री होते ही राजकुमारी उसके सफेद घोड़े पर सवार होकर दूरदेश चली जाती थी। अक्सर कहानी यहाँ ख़त्म हो जाती थी। राजकुमारी को दूरदेश ले जाकर राजकुमार ने उससे क्या व्यवहार किया; यह हमें किसी कहानी ने नहीं बताया।
जनता इन कहानियों में कभी-कभार ही प्रकट होती थी। उसका उपयोग यही था कि वह कोई ‘समस्या’ लेकर लड़ते-झगड़ते राजदरबार में पहुँचे और राजा के शेष मंत्रियों की ईर्ष्या को धता बताकर सबसे चतुर मंत्री उनके झगड़े का कोई भी ऊल-जलूल समाधान देकर राजा को ख़ुश कर दे।
राजा के ख़ुश होते ही कहानी ख़त्म हो जाती है। फिर जनता की समस्या का समाधान जनता को भाये या न भाये- इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। जनता का कहानी में कोई रोल है भी तो उससे यही पता चलता है कि जनता या तो कोई ठग है, जो अपनी चतुराई से राजदरबार का हिस्सा बन जाता है। या फिर कोई निर्धन ब्राह्मण है जिसकी गुणवती कन्या पर मोहित होकर राजा उसका दारिद्र्य दूर कर देता है। या फिर कोई व्यापारी है, जिसकी मिलावटखोरी को राजा के सिपाही पकड़ ही लेते हैं। राजा की सवारी निकलने पर सड़क के दोनों ओर सिर झुकाकर खड़ी भीड़ जनता है। या फिर राजा के कारनामों पर महल के बाहर इकट्ठी होकर राजा का जयजयकार करनेवाला समूह, जनता है।
इन सब संस्कारों को हम इक्कीसवीं सदी तक घसीट लाए हैं। संविधान ने हमें सिंहासन पर बैठा दिया था, लेकिन हमने अपनी आदत के अनुसार अपने लिए एक राजा चुना और उसके महल के बाहर खड़े होकर उसकी जय-जयकार करने लगे।

© चिराग़ जैन

Wednesday, December 15, 2021

आज बुलेटिन तेरा भाई पढ़ेगा!

एक एंकर स्टूडियो में नशा करके ख़बर पढ़ रहा था तो पूरे देश ने उसका मज़ाक़ बनाकर रख दिया। यह सरासर बदतमीज़ी है। ऐसे किसी का मज़ाक़ बनानेवाले समझ लें कि मज़ाक़ बनाने का अधिकार केवल मीडिया के पास है। वह लोकतंत्र, न्यायपालिका, जनभावना, चुनाव प्रक्रिया, राजनीति और यहाँ तक कि किसी की मुर्दनी तक का मज़ाक़ बनाने के लिए स्वतंत्र है।
रिया चक्रवर्ती की निजता, सुशांत राजपूत की आत्महत्या, आर्यन खान की गिरफ्तारी, शशि थरूर की निजी ज़िन्दगी, अभिषेक बच्चन की शादी, सुनील दत्त की शवयात्रा... सबको बेचकर खाने का अधिकार है मीडिया के पास।
कोसी नदी में कब बाढ़ आएगी और क्या तबाही मचाएगी इसको लेकर तीन-चार दिन तक शोर मचता है और फिर अगली ख़बर चलते ही कोसी का गला सूख जाता है। अब टकराएगा तूफान, ऐसे आएगा तूफान, यमुना की बाढ़ में डूब रही है दिल्ली, देश में केवल दो दिन का कोयला बचा है शेष, इतने बजे टकराएगा धूमकेतु, इस तारीख़ को तबाह हो जाएगी धरती... यह सब मज़ाक़ देश के मनोरंजन के लिए थोड़े ही किये जाते हैं। ये तो कवरिंग फायर की तरह चलने वाली ख़बरें हैं जिनकी आड़ में ‘जाने क्या क्या’ जनता की आँख में धूल झोंककर पार कर दिया जाता है।
यह मज़ाक़ देशहित में किया जाता है ताकि देश अनावश्यक तनाव से बचा रहे। इतने राष्ट्रभक्त पत्रकारों का मज़ाक़ उड़ाने का अधिकार किसी को नहीं दिया जा सकता।
नशा किया तो क्या अपराध हो गया। पहली बात तो यह कि अगले ने दिल्ली या यूपी में शराब पी थी। अगर बिहार या गुजरात में पी होती तब बोलते। तब कह सकते थे कि अपराध हुआ है। आपको भाई का डेडिकेशन ही समझ नहीं आता। इत्ती शराब पीने के बाद भी देश की ऐसी-तैसी करने के इस मौक़े पर भाई लड़खड़ाता हुआ स्टूडियो पहुँचा होगा। फिर सारे स्टाफ के सामने न्यूज़रूम में अपनी छाती ठोककर चिल्लाया होगा- ‘आज बुलेटिन तेरा भाई पढ़ेगा!’
ये होती है अपने काम के प्रति निष्ठा। सारे कांग्रेसी चमचे बेचारे राष्ट्रवादी पत्रकार के पीछे पड़ गए हैं। आर्यन की तरह ड्रग्स तो नहीं ली ना दीपक जी ने। आपने यह तो देख लिया कि वे लड़खड़ाती हुई ज़ुबान से विपिन रावत और वीके सिंह में अंतर नहीं कर पाए... अरे यही तो है सच्चा राष्ट्रवाद। देश का सैनिक हो, केंद्रीय मंत्री हो या फिर सीडीएस ही क्यों न हो... माननीय दीपक जी सबको एक नज़र से देखते हैं। और जो उनके माथा पकड़ने का झूठा प्रचार किया जा रहा है वह दरअस्ल सिर झुकाकर शहीदों को नमन किया जा रहा था। आप कांग्रेसी क्या समझेंगे इस भावना को कि सेल्यूट मारने के लिए दीपक जी ने एक नहीं दोनों हाथ अपने माथे तक उठा लिए और इस प्रक्रिया में उन्हें जैसे ही संस्कृति की याद आई उन्होंने दोनों हाथों से सेल्यूट मारते हुए सिर नीचे झुका लिया था। इसे कहते हैं सैनिकों का सम्मान। तुम क्या जानो इस भावना को।
तुम क्या चाहते हो कि इनकी जगह राहुल गांधी से न्यूज़ पढ़वाई जाए। उसे एक वाक्य तो ठीक से बोलना नहीं आता। उसको न्यूज़ स्टूडियो में बैठा दिया तो वो वहाँ भी कुर्ते की जेब फाड़ लेगा। अरे एहसान फरामोशों। अब से पहले ‘ड्रंक न्यूज़ एंकर’ सर्च करने पर गूगल में एक भी भारतीय चेहरा नहीं दिखता था, अब टॉप पर गूगल सर्च में दीपक जी छाए हुए हैं। राष्ट्र का नाम कितना ऊँचा हुआ है। पता-वता कुछ है नहीं; ...चले आए हैं माननीय दीपक जी का मज़ाक़ बनाने वाले।

© चिराग़ जैन

Tuesday, December 14, 2021

न्यूज़ एंकरिंग की आत्मा

‘आज तक में पेश हैं अभी तक की ख़बरें’ से शुरू हुआ ‘न्यूज़ एंकरिंग’ का सफ़र लड़खड़ाती हुई ज़ुबान में माथा पकड़कर ख़बर पढ़ते न्यूज़ एंकर तक पहुँच गया है।
टीवी पर समाचार पढ़नेवाले समाचार वाचक जब भावना शून्य चेहरे, सपाट स्वर, क्लीन्ड शेव, टाई, कोट जैसे सुनिश्चित गेट-अप में समाचार पढ़ते थे, तब दाढ़ी बढ़ाकर, ख़बर की संवेदना के साथ बदलती भाव भंगिमा और स्वर के उतार-चढ़ाव का कौशल प्रयोग करके सुरेन्द्र प्रताप सिंह ने पत्रकारिता में एक नयी विधा जोड़ दी थी। वे ख़बर को इतनी शिद्दत से महसूस करके पढ़ते थे कि उपहार सिनेमा के अग्निकांड की ख़बर पढ़ते हुए उन्हें हृदयाघात हो गया था। उस रात पत्रकारिता ने संवेदना से हाथ मिलाया था। ये थी ख़बरें आज तक, इंतज़ार कीजिये कल तक...!
...इंतज़ार का वो कल फिर कभी नहीं आया। सुरेन्द्र प्रताप सिंह का यह सूर्यास्त न्यूज़ एंकरिंग की पूरी दुनिया को अंधकार में खड़ा छोड़ गया।
यहाँ से शुरू हुआ वह दौर, जिसने आज न्यूज़ एंकर्स को वीभत्स, अश्लील, असभ्य तथा अमर्यादित बनाकर छोड़ दिया है।
एस पी सिंह की आवाज़ ख़ामोश हुई तो उनके जैसी दाढ़ी बढ़ाकर उन जैसा दिखने का प्रयास करनेवालों ने उनकी तरह बोलने का अभिनय शुरू किया लेकिन मूल संवेदना के अभाव में यह अभिनय बहुत जल्दी ही भौंडा और उबाऊ लगने लगा।
स्वर का जो उतार-चढ़ाव एस पी सिंह के पास था, वह ख़बर की आत्मा से प्राप्त संवेदना से स्वतः उभरता था। लेकिन अंधेरे में खड़े दाढ़ीवान पत्रकारों ने इसे चीख-चिल्लाहट में बदल डाला।
बुलेटिन ‘एक्शन फिल्म’ की तरह रोमांचक बनते गए। टीवी डिबेट में ‘विषय’ के अतिरिक्त सब कुछ दिखने लगा। राजनैतिक दलों ने इन अंधेरे के वासियों को अपनी उंगली थमाई तो ये बेचारे उस उंगली पर झूल गए। अब ये अपने-अपने भाग्य में आई उंगली पर झूलते हुए ख़बर पढ़ने लगे। इस अवस्था में जब ये दल के पक्ष में पींग लेते हैं तो बेहद लिजलिजे दिखने लगते हैं, और जब झूला इनके राजनैतिक आका के विपक्ष में जाता है तो ये असभ्य हो जाते हैं।
पिछले दिनों हमने एक ऐसा भी पत्रकार देखा जिसे उसके राजनैतिक आका ने अपने पक्ष में झूले समेत ज़मीन से आठ-दस फीट ऊपर हवा में टाँक दिया था। और वह वहीं से स्वामिभक्ति का प्रदर्शन करता हुआ दो-ढाई फीट और उछलता हुआ ख़बरें पढ़ता रहा।
हमने ऐसी भी एंकर्स देखी हैं जो तीन सौ ग्राम लिपिस्टिक और एक धड़ी मेकअप पोतकर अपनी आयु से लगभग दोगुनी आयु के राजनेताओं से पूछती हैं कि ‘तुम होते कौन हो इस देश की राजनीति पर बात करनेवाले?’
अपने बुलेटिन को नम्बर वन बनाने की जुगत में किसी की चरित्र हत्या, किसी के सामाजिक अपमान में इन अंधकार-उलूकों को कोई हिचक नहीं होती। अफ़वाह को ‘ख़बर’ कहकर परोसने में इन्हें कोई संकोच नहीं होता। साम्प्रदायिक विद्वेष को हवा देना इनके बाएँ हाथ का खेल है। किसी की निजता में प्रवेश करने में इन्हें लज्जा नहीं आती। और अब तो देश के सर्वाेच्च सैनिक की श्रद्धांजलि की ख़बर पढ़ने की ललक में मद्यपान कर के स्टूडियो पहुँचने के कीर्तिमान भी स्थापित हो गये हैं। टीआरपी का घपला करते हुए ये पहले ही पकड़े जा चुके हैं। कार्यस्थल पर यौन-आचरण के इनके चैट और वीडियो वायरल होते ही रहते हैं। महानायक के घर के निजी उत्सव की कवरेज के समय इन्हें ‘बाक़ायदा’ वाचडॉग से डॉगवाच होते देखा जा चुका है। न जाने किसके इशारे पर ये पूरी प्रजाति एक साथ किसी ख़बर को टिपर से ही ग़ायब करने को तैयार हो जाती है। स्वार्थ और अवसरवाद की सीमा यहाँ तक है कि इनके साथ के ही किसी पत्रकार के साथ अन्याय हो तो भी ये चुपचाप अपने स्वामी की ओर मुँह उठाए पुंछ-ध्वज फहराते रहते हैं।
पत्रकारिता को पत्रकारिता बनाए रखने का दायित्व केवल पत्रकारों के कंधों पर नहीं है, बल्कि जिन दर्शकों की कृपा से इन भौंडे न्यूज़ बुलेटिन्स को नम्बर वन का खि़ताब मिल जाता है, वे भी इस अपराध में बराबर के भागीदार हैं। लेकिन फिर भी यह प्रश्न तो उठता ही है कि जनता की अभिरुचियों के अनुसार बुलेटिन ‘डिज़ाइन’ करते समय क्या कभी पत्रकारिता की आत्मा नहीं जागती।
...तो साहब, यह प्रश्न बेमआनी है। क्योंकि अगर पत्रकारिता के पास आत्मा होती तो राजनैतिक बेताल, विक्रम के सिर पर चढ़कर कहानी न सुना रहे होते।

© चिराग़ जैन

Friday, December 10, 2021

मध्यम वर्ग का शिकार

मध्यम वर्ग इस देश का सर्वाधिक दीन-हीन प्राणी है। उसका जन्म इसीलिए हुआ है कि वह शासन-प्रशासन से लेकर निजी कंपनियों तक के अर्थ-आखेट के काम आ सके।
जंगल में हिरन शिकार के ही काम आते हैं। शेर से बच गये तो लकड़बग्घों, तेंदुओं और सियारों तक की निगाह हिरनों पर रहती है। इन सबसे बच जाएँ तो किसी मनुष्य को अपने बंगले की दीवार पर हिरन का सिर लटकाने का शौक चर्रा जाता है।
हिरन अपने शिकार की कहीं शिकायत नहीं कर सकते। क्योंकि शिकायतनफ़ीस को भी हिरनों का शिकार करना अच्छा लगता है।
वर्तमान में दिल्ली के मध्यम वर्ग का आखेट करने का शौक लगा है निजी कैब कम्पनियों को। उच्च वर्ग को इन कम्पनियों की सेवा की ज़रूरत नहीं पड़ती और निम्न वर्ग इन सेवाओं को प्रयोग करने की ज़रूरत नहीं समझता। बच गया मध्यम वर्ग, वह इन कम्पनियों का टारगेट क्लाइंट है। प्रारम्भ में चूँकि इन कम्पनियों का युद्ध ऑटोचालकों और अन्य ट्रांसपोर्ट सेवाओं से था इसलिए इनकी विनम्रता तथा दरें आश्चर्यजनक रूप से आकर्षक थी। मध्यम वर्ग, जो मीटर से न चलने वाले ऑटोरिक्शा चालकों से प्रताड़ित था, वह इन सेवाओं का उपभोक्ता बन गया। लेकिन सियारों से बचाने जो लकड़बग्घे आए थे, उन्होंने सियारों को भगाकर ख़ुद ही हिरनों का शिकार करना शुरू कर दिया।
मध्यम वर्ग के शिकार के लिए कैब सर्विस के हथकण्डे:
1) सर्ज के नाम पर आधिकारिक रूप से तीन-चार गुना तक किराया वसूला जाता है। सरकारें इन कम्पनियों से यह पूछने की ज़ुर्रत नहीं कर पातीं कि समान दूरी के लिए वही गाड़ी इतनी महंगी क्यों पड़ रही है, जबकि जाम में फँसने की स्थिति में प्रति मिनिट किरायेवाला मीटर चालू रहता है।
2) इतना किराया देने के बावजूद कैब बुक होने पर ड्राइवर आपका इंटरव्यू लेता है। कहाँ जाएंगे, पेटीएम की पेमेंट है तो नहीं जाऊंगा, गुड़गांव नहीं जाऊंगा, नोएडा नहीं जाऊंगा, शाहदरा नहीं जाऊंगा...; एक्स्ट्रा पैसे देने होंगे... इत्यादि। इस साक्षात्कार में अनुत्तीर्ण होने के बाद आप ड्राइवर से कहते हैं कि वह राइड कैंसिल कर दे। यह अनुरोध करने के बाद आप मोबाइल देखते रहते हैं लेकिन वह राइड कैंसिल नहीं करता। आप उसे दोबारा फोन करते हैं तो वह फोन भी नहीं उठाता। थक-हारकर आप मजबूरी में अपनी ओर से राइड कैंसिल करते हैं और कम्पनी आपके नाम चालीस रुपये का बिल फाड़ देती है।
3) चूँकि मध्यम वर्ग के पास ऐसे सीन में कम्प्लेंट करने का पर्याप्त समय होता है, इसलिए कम्पनियों ने अपनी एप्लिकेशन में कोई फोन नम्बर ही उपलब्ध नहीं कराया है। आप अधिक से अधिक लिखित में शिकायत दर्ज करा सकते हैं, जिसमें शिकायत के विकल्प कम्पनी ने स्वयं निर्धारित कर रखे हैं।
4) आजकल इन ड्राइवर्स का नाम हाथापाई और ईव-टीज़िंग तक के मुआमलात में थानों के स्वर्णिम रजिस्टरों में दर्ज होने लगा है, लेकिन थानों की कछुआ शैली का लाभ उठाकर खरगोशों का अपराध का ग्राफ बढ़ता जा रहा है।

हिरन सरकार से अनुरोध करते हैं कि वह इन लकड़बग्घों के गले में कानून की ज़ंजीर डाले। अनुरोध पढ़कर सरकार ज़ंजीर बनवाने का टेंडर पास करती है। ज़ंजीर की खनक सुनकर हिरन उत्साहित होने लगते हैं। सरकार सोशल डिस्टेंसिंग के पालन हेतु बसों और मेट्रो में सख्ती लागू कर देती है। डीजल की गाड़ियों पर बैन लगा देती है। पॉल्यूशन का चालान दस हज़ार का कर देती है। और लकड़बग्घों के लिए तैयार की गयी ज़ंजीर में हिरनों को बांधकर लकड़बग्घों के आगे पटक देती है।
हिरन सरकार की ओर कातर दृष्टि से देखते हैं और लकड़बग्घों की सहृदयता के लिए उन्हें नमन करते हैं कि अब से पहले कम से कम हमें बसों, मेट्रो और निजी वाहनों की स्वतंत्रता तो प्राप्त थी।
दिल्ली के सारे हिरन देखते रहते हैं कि सरकार हाथियों के लिए गन्ने की व्यवस्था कर रही है। हिरनों के नाम से जुटाई गयी घास खरगोशों में बाँटी जा रही है। लकड़बग्घों को हिरन परोस दिए गए हैं। और पूरी दिल्ली को व्यवस्थित करने के बाद अब सरकार पंजाब के हिरनों से वादा कर रही है कि चुनाव जीतने के बाद उन्हें मुलायम सरकारी घास खिलाई जाएगी।
मैं ज़ंजीर में बंधा हुआ 2.3 गुना सर्ज की निजी कैब में बैठा हूँ और बस स्टैंड पर लगा होर्डिंग पढ़ रहा हूँ जिसमें अन्योक्ति अलंकार में यह लिखा है कि- ‘दिल्ली सँवारी, अब पंजाब की बारी।’

© चिराग़ जैन

जनरल विपिन रावत की शहादत

भारतीय शौर्य का शीर्ष लहूलुहान है। एक उड़न-खटोले के ध्वंस ने माँ भारती की गोद को छलनी कर दिया। मृत्यु का यह क्रूर ताण्डव एक क्षण में दर्जन भर शेरों को मिट्टी बना गया।
यह दुर्घटना देश को ठगे जाने के एहसास से भर गयी है। ऐसा लग रहा है कि जिन वृक्षों को सींचकर जेठ की धूप के लिए घना किया जा रहा था, उन्हें यकायक पूस का पाला मार गया। जिन्होंने अपने जीवन का दाँव लगाकर देश को सुरक्षित रखने की शपथ उठाई थी, वे अनमोल जीवन बिना कारण ही ख़र्च हो गये। जिनके कन्धों पर देश की सुरक्षा की पालकी रखकर हम निश्चिंत थे, वे अचानक कन्धों पर सवार हो गए।
देव पर चढ़ने जा रहे मोतियों को मार्ग में ही कोई कौआ चुग गया। यह घटना पुलवामा की याद ताज़ा कर गयी है। जो देश की सुरक्षा के उत्तरदायी हैं, उनकी सुरक्षा का दायित्व किस पर है -यह प्रश्न फिर से मुँह उठाकर खड़ा हो गया है।
रावत साहब! आपका यह सेल्यूट स्वीकार नहीं हो पा रहा है। आप वीरों को लेकर स्वर्ग चले गए हैं और हम जीवित विजेता की तरह ठगे खड़े हैं। समस्याओं की शरशैया पर पड़े भीष्म की बिंधी हुई देह में दर्जन भर तीर और उतर गये हैं। वीरप्रसूता भारती की कोख कभी बांझ तो नहीं होती लेकिन जब भी उसका कोई लाल ‘ऐसे’ काल के गाल में समाता है तो उसका कलेजा ज़रूर फटता है।
यद्यपि यह शोक का समय है, तथापि घर के बुजुर्गों की एक सीख याद आ रही है कि यात्रा के समय धन को अलग-अलग जेबों में बाँटकर रखना चाहिए, ताकि कोई गिरहकट यदि जेब काट ले तो भी किसी न किसी जेब में घर लौटने का किराया बचा रह जाए।
ट्विटर और फेसबुक पर इस महाशोक के लिए सम्वेदनाओं की धारा बह रही है। इस बार कोई उत्तरदायी नहीं है तो सम्वेदना व्यक्त करनेवालों के आचरण में राष्ट्रभक्ति और राष्ट्रद्रोह के चिह्न तलाशे जा रहे हैं। मुझे लगता है कि राष्ट्रप्रेम के नारों के बीच, मौन ओढ़कर सो चुके इन मंत्रों को कुछ देर के लिए यह आश्वस्ति तो दी ही जानी चाहिए कि अपने-अपने वाद में जकड़े उनके देशवासी किसी अवसर को तो अपनी आवाज़ ऊँची करने का अवसर मानने से परहेज कर लेते हैं।
हर किसी की मृत्यु को राजनैतिक कहासुनी का अवसर माननेवालों को कुछ समय के लिए ही सही लेकिन मौन होकर माँ भारती के आँसुओं की आवाज़ सुनने का धैर्य जुटाना सीखना होगा।

Saturday, November 27, 2021

काँटे

मुश्किलो, और बढ़ो, और बिछाओ काँटे
राह में, पाँव में, दामन में सजाओ काँटे
दर्द कम होगा तो आराम की याद आएगी
दूर मन्ज़िल है अभी, ढूंढ के लाओ काँटे

© चिराग़ जैन

Sunday, November 21, 2021

तो क्या हुआ...

तो क्या हुआ, अगर जीवन में थोड़ा-सा संत्रास लिखा है
जिसने जितनी पीड़ा झेली, उतना ही इतिहास लिखा है

जिस काया में गर्भ विराजे उसकी रंगत खो जाती है
अन्न उपजना होता है तो धरती छलनी हो जाती है
जो डाली फलती है उसको बोझा भी ढोना पड़ता है
भोर अगर नम होती है, तो रातों को रोना पड़ता है
पत्ता-पत्ता झरना सीखा, तब जाकर मधुमास लिखा है
जिसने जितनी पीड़ा झेली, उतना ही इतिहास लिखा है

फूल लदी डालों से जो तूफान भिड़े, वो महक उठे हैं
साजिंदे की उंगली से जो साज छिड़े, वो चहक उठे हैं
जिस राघव ने घर छोड़ा था, उसने पूरा युग जीता है
जिस रानी ने सुख मांगा था, उसका अंतर्मन रीता है
कैकेयी ने तो ख़ुद अपने ही जीवन में वनवास लिखा है
जिसने जितनी पीड़ा झेली, उतना ही इतिहास लिखा है

खोने को तो पांचाली के पाँच सुतों ने जीवन खोया
लेकिन जो रण में जूझा था युग उसके ही शव पर रोया
काया वज्र बनानी है तो तय मानो, लोहा पीना है
उत्सव के हर इक कारण को एकाकी जीवन जीना है
शबरी ने जीवन भर आँसू भोगे, तब उल्लास लिखा है
जिसने जितनी पीड़ा झेली, उतना ही इतिहास लिखा है

© चिराग़ जैन

Wednesday, November 17, 2021

लाचारी

उनको जाने क्या-क्या सहना पड़ता है
ख़ुद से आँख चुराकर रहना पड़ता है
हम तो केवल सच से काम चलाते हैं
उनको थोड़ा झूठ भी कहना पड़ता है

© चिराग़ जैन

असल मुद्दा क्या है

एक अभिनेत्री ने कुछ ऐसे बयान दिये हैं, जो तथ्यात्मक रूप से मिथ्या हो सकते हैं, लेकिन इन बयानों का विरोध करनेवालों की भाषा तथा तर्कशक्ति ने अभिनेत्री के मिथ्या भाषण से ध्यान भंग करने में महती भूमिका अदा की है। ‘कम कपड़े पहनकर फिल्मी पर्दे पर आनेवाली नचनिया हमें बताएगी कि आज़ादी क्या होती है!’ -यह वाक्य पढ़कर मुझे लगा कि कुतर्क तथा तर्कहीनता इस देश की किसी भी बहस का अंग बन चुका है। क्यों भाई, यदि किसी अभिनेता/अभिनेत्री ने किसी फिल्म में नकारात्मक भूमिका निर्वाह की है तो क्या इससे उसका चरित्र आंका जाएगा? क्या कम कपड़े पहननेवाले इस देश के नागरिक नहीं हैं?
कोई ‘क्या’ कह रहा है -इस मुद्दे पर बहस को केंद्रित करने की बजाय हम उसके परिधान, उसकी जाति, उसके धर्म, उसके व्यवसाय, उसकी पारिवारिक स्थिति और उसकी निजता को क्यों टटोलने लगते हैं?
आज़ादी भीख में मिलनेवाली बात कोई साड़ी-ब्लाउज़ या सूट-शलवार पहनकर कहे तो क्या यह सत्य हो जाएगी? हमें लम्बे समय से मूल मुद्दे को भटकाने के संस्कार दिए गए हैं। टीवी पर होने वाली बहसें यह ट्रेनिंग देने में सफल हुई हैं।
प्रश्न पूर्व का पूछा जाएगा तो उत्तरदाता उसे उठाकर दक्षिण में पटक देगा और फिर दक्षिणवाले उस प्रश्न को अनर्गल साबित कर देंगे। इतना हो हल्ला होगा कि कुछ घड़ी बाद ख़ुद प्रश्न भी यह भूल चुका होगा कि मेरा जन्म क्यों हुआ था।
कोई वर्तमान का प्रश्न करे, तो उसे इतिहास दिखाने लगो। कोई इतिहास पर तुम्हारी ज़ुबान पकड़ ले तो उसे धर्म-जाति के मेले में ग़ुम कर दो। कोई धर्म-जाति पर प्रश्न लेकर खड़ा हो तो उसे आस्था आहत करने के आरोप में राष्ट्रद्रोही और धर्मद्रोही करार दे दो। और यहाँ से भी वह बच जाए तो उसके निजी जीवन, उसके पहनावे, उसके भाषाई उच्चारण दोष, उसके खानपान जैसे विषयों पर बिना बात की बहस छेड़ दो।
नरेंद्र मोदी चलते-चलते संसद की सीढ़ियों पर लड़खड़ा गये और हम इस घटना से उनको नालायक साबित करने लगे। नरेंद्र मोदी बेध्यानी में राष्ट्रगान की धुन पर सावधान न हुए और हम उस क्लिप को लेकर ठट्ठा करने लगे। नरेंद्र मोदी ने बताया कि उनका सीना छप्पन इंच का है और हम इस आधार पर उन्हें महान मानने लगे। चुनाव रैली में राहुल गांधी ने कुर्ते की फटी जेब दिखाई और हम राहुल गांधी को मूर्ख कहने लगे। किसी बयान में योगी आदित्यनाथ के मुँह से लक्ष्मण की जगह भरत निकल गया और हमने हंगामा उठा लिया।
क्यों भाई? हमें राजनेताओं से देश चलवाना है या भागवत सुननी है? किसी की जेब फटी होगी तो उससे उसके राजनैतिक निर्णय पर क्या फर्क पड़ जाएगा? हमें नरेंद्र मोदी से देश चलवाना है या भारोत्तोलन करवाना है? राष्ट्रगान पर सावधान खड़े रहना चाहिए, यह बात तो प्राथमिक विद्यालयों में पढ़ा दी जाती है। लेकिन अगर कभी किसी से कोई चूक हो जाए तो उसे उसकी राष्ट्रभक्ति से जोड़कर क्यों देखा जाए?
कोई राजनेता अपनी पत्नी से अलग रह रहा है तो यह उसका व्यक्तिगत मुआमला है। इस पर प्रश्न उठाने का अधिकार उसकी पत्नी के अतिरिक्त किसी को भी क्यों हो? कोई राजनेता विवाह नहीं कर रहा तो यह भी उसका निजी निर्णय है? इससे उसके राजनैतिक निर्णयों के आकलन कैसे किया जा सकता है?
कभी विचार करके देखें तो हम पाएंगे कि अपने राजनीतिज्ञों को यह बात हमने ही सिखाई है कि असल राजनीति को छोड़कर इधर-उधर के ड्रामे करते रहो तो जनता ज़्यादा वोट देगी। अन्यथा हर काम वोट के लिए करनेवाले लोग ऐसे कार्यों का प्रोपेगैंडा क्यों करते, जिनका ‘राज्य की नीतियों’ से कोई लेना-देना नहीं हो।
कोई वैष्णोदेवी जाए तो जाने दो। कोई केदारनाथ जाए तो यह उसकी निजी आस्था है। कोई अजमेर में चादर चढ़ाए तो उस उसका पर्सनल मुआमला है। कोई मंदिर में झाड़ू लगाए तो यह उसकी मर्ज़ी है। कोई राममंदिर में दीये जलाए तो यह उसका अपना मत है। हम इन सब कार्यों को उनकी राजनैतिक स्थिति का मापदण्ड क्यों बनाते हैं? हम ऐसा क्यों मान बैठे हैं कि धर्मस्थल पर जानेवाला व्यक्ति भ्रष्टाचारी हो हो नहीं सकता; वह भी तब जब हमारे देश के न्यायालयों में धर्मस्थलों पर हुए कदाचार के सैंकड़ो मुआमले लम्बित हैं।
हम निजी जीवन और सार्वजनिक जीवन को अलग-अलग करके क्यों नहीं देख पाते।
सीता का परित्याग करने वाले राम आदर्श राजा हैं। राधा को बिरह देने वाले कृष्ण सर्वश्रेष्ठ राजनीतिज्ञ हैं। यशोधरा और राहुल को सोता छोड़कर जानेवाले तथागत सर्वाेत्कृष्ट ज्ञानी हैं। क्या इन कथाओं से भी हम यह नहीं सीख सकते कि जब कोई व्यक्ति सार्वजनिक प्रश्नों के सटीक उत्तर दे रहा हो तो उस समय उसे निजता के कठघरे में घसीटकर प्रश्नावली नहीं बदलनी चाहिए।

© चिराग़ जैन

Tuesday, November 16, 2021

रचनाकार

जीवन के तमाम प्रश्नचिन्हों के मध्य भी अपने भीतर के कबीर और तुलसी को बचाए रखनेवाले रचनाकार, वर्तमान के ऐसे विस्मयादिबोधक हैं, जिन्हें युग का सम्बोधनकारक बनने के लिए केवल युग के प्रारम्भ की घोषणा करनी है।

© चिराग़ जैन

Wednesday, November 3, 2021

सृजन और आलोचना

जिनका कोई अर्थ नहीं है, उन पर क़लम चलाना छोड़ें
जो चर्चा को दूषित कर दें, उन सबको समझाना छोड़ें
हमें ओस के कण चुन-चुनकर, अपने सपने सच करने हैं
अपनी ओस बचाना सीखें, उनके पेड़ हिलाना छोड़ें

© चिराग़ जैन

Monday, October 25, 2021

बुजुर्गों का रुआब

अभी घर से निकला। एक बुज़ुर्ग महिला सड़क किनारे एक ट्री-गार्ड को पकड़कर खड़ी थी। उन्हें शायद किसी सोसाइटी में जाना था लेकिन बिना सहारे के चलने की हिम्मत नहीं जुटा पा रही थीं और ट्री-गार्ड को पकड़े हुए आते-जाते लोगों की ओर कातर दृष्टि से निहार रही थीं।
सोसाइटी के बाहर इस समय बहुत तो नहीं, लेकिन थोड़ी चहल-पहल भी थी। पर अपनी-अपनी व्यस्तता लादे वहाँ से गुज़रनेवाला कोई शख़्स रुककर उस वृद्धा की सहायता न कर सका।
मैं फोन पर ऊबर वाले से कॉर्डिनेट कर रहा था। एक बार मैं भी अपनी कैब पकड़ने के चक्कर में उस कातर दृष्टि को अनदेखा करने की हिम्मत जुटा गया, लेकिन दो-तीन क़दम ही बढ़कर मुझे पलटना पड़ा।
मैंने उनकी ओर हाथ बढाते हुए धीरे से पूछा- ‘आंटी, कहीं छोड़ दूँ?’
उन्होंने मेरा वाक्य पूरा होने से पहले ही मेरी हथेली थाम ली और ट्री-गार्ड छोड़कर मेरी ओर बढ़ आईं। सामनेवाली सोसाइटी के गेट पर गार्ड ने उनका हाथ मेरे हाथ से अपने हाथ में लिया और मुझे कहा कि मैं अम्मा को घर छोड़ दूंगा, आप जाइये।
मैंने वृद्धा की ओर देखा तो उनके चेहरे की घबराहट एक आश्वस्ति में तब्दील हो चुकी थी। मैं आकर अपनी कैब में बैठ गया और सोचने लगा कि क्या कभी वह दुनिया वापस आएगी जब बुजुर्गों को सहायता के लिए कातर दृष्टि की नहीं, आवाज़ के रुआब का प्रयोग करना होगा।
मैंने यह घटना इसलिए नहीं लिखी कि मुझे स्वयं को महान सिद्ध करना है, बल्कि मैं अपने उन दो क़दमों के लिए स्वयं से मुख़ातिब हूँ, जो मैं अपनी व्यस्तता का बहाना करके बढ़ा चुका था।
हम सब अपनी व्यस्तताएँ ओढ़े हुए मनुष्यता की कातर दृष्टि से दो क़दम आगे बढ़ चुके हैं। यदि यहाँ से हम नहीं पलटे तो मनुष्यता किसी सड़क किनारे यूँ ही खड़ी रह जाएगी!

© चिराग़ जैन

Thursday, October 21, 2021

कबिरा खड़ा बजार में...

कबिरा खड़ा बजार में, मांगे सबकी ख़ैर... अहा! इस पंक्ति को समझने का प्रयास व्यक्ति को कबीर होने का अर्थ बताता है। कबीर इस दोहे में बाज़ार में ही क्यों खड़े हैं? वे मंदिर-मस्जिद; घाट, चौपाल कहीं भी खड़े होकर सबकी ख़ैर मांग सकते थे। बल्कि मंदिर-मस्जिद में मांगना ज़्यादा सम्मानजनक प्रतीत होता। अक्सर बड़े-बड़े सम्मानितों को मंदिर-मस्जिद में मांगते देखा गया है। इसलिए कबीर को भी कुछ मांगना था, तो मंदिर-मस्जिद अधिक उपयुक्त स्थान रहता।
मंदिर-मस्जिद में मांगने का एक लाभ यह भी है कि वहाँ जिससे मांगने जाते हैं; वह किसी को यह नहीं बताने जाता कि अमुक मुझसे फलां चीज़ मांगने आया था। बाक़ी कहीं भी कुछ मांग के देख लेना। तुम्हें वह चीज़ मिले या न मिले, लेकिन तुम्हारी मंगताई का प्रचार ज़रूर हो जाएगा। ईश्वर-अल्लाह के पास इतनी फ़ुरसत ही नहीं है कि वे प्रचार में संलग्न हो सकें। वे तो भाँति-भाँति के मंगतों की दरख़्वास्त और शिक़ायतें निपटाने में ऐसे घिरे हैं कि शायद युगों-युगों से नज़रें उठाकर देख भी न सके हों, कि हमने उनकी दुनिया की सूरत क्या बना दी है।
लेकिन कबीर ने कुछ मांगने के लिए बाज़ार चुना। बाज़ार में मांगने का प्रावधान ही नहीं है। वहाँ तो छीना जा सकता है, ठगा जा सकता है, हड़पा जा सकता है... मांगने की परम्परा बाज़ार की पर्सनेलिटी को सूट नहीं करती। लेकिन कबीर ने उसी बाज़ार को मांगने के लिए चुना। और मांगा भी तो क्या... ‘सबकी ख़ैर!’ यह भी कोई मांगने की चीज़ है भला? लेकिन कबीर मांगते हैं। सर-ए-आम मांगते हैं।
यही कबीर होने का पहला सोपान है। यही कबीर होने की पहली शर्त है। कुछ ऐसा कर गुज़रना, जो परिपाटी ही नहीं है; कुछ ऐसा कर गुज़रना जिसका चलन ही नहीं है। परंपराओं को धता बताकर चलने का जीवट ही कबीर को कबीर बनाता है।
इसीलिए कबीर पहले ही कह देते हैं कि कबिरा खड़ा बजार में...! अब ‘कबीर’ महत्त्वपूर्ण हैं। कबीर बाज़ार को चेतावनी दे रहे हैं कि जो बाज़ार में खड़ा है वह ‘कबीर’ है। यदि इस पंक्ति में ‘बाज़ार’ को प्रमुख समझ लिया जावे तो कबीर को गौण होना पड़ेगा। इसलिए कबीर स्पष्ट कहते हैं कि अब बाज़ार में ‘कबीर’ खड़ा है। इसलिए बाज़ार को गौण होना होगा। अब बाज़ार में ‘सबकी’ ख़ैर मांगी जाएगी।
‘ना काहू से दोस्ती, ना काहू से बैर’ -इस व्यक्तित्व के साथ ही कोई कबीर हो सकता है। और अपने भीतर के इसी कबीर को जीवित रखने में सफल होना किसी मनुष्य के मनुष्यत्व का द्विगुणित हो जाना सुनिश्चित कर देता है।
बाज़ार में प्रविष्ट होते ही ‘अर्थ’ मुखर हो जाता है। वहाँ पहुँचकर बड़े से बड़े फ़क़ीर भी व्यापारी होते देखे गए हैं। इसीलिए कबीर के पहले और कबीर के बाद किसी साधु-महात्मा-फ़क़ीर ने यह घोषणा नहीं की कि वह बाज़ार में खड़ा है। यह जोख़िम कबीर ही उठा सके। और कबीर भी यह जोख़िम इसीलिए उठा सके कि उन्होंने कभी स्वयं के फ़क़ीर होने की भी कोई घोषणा नहीं की।
यदि कबीर ने अपने आईकार्ड में ओक्यूपेशन ‘फ़क़ीर’ या ‘संत’ लिखवा लिया होता... तो वे भी अपने बाज़ार में खड़े होने का ऐसा ढिंढोरा न पीट पाते।
लेकिन कबीर तो कबीर थे। वे वैरागी होकर बाज़ार में खड़े नहीं हुए, बल्कि बाज़ार में खड़े होकर वैरागी हो गये। ...ना काहू से दोस्ती। कितने अनुभवी थे कबीर। बिल्कुल स्पष्ट शब्दों में बताया कि उनकी किसी से दोस्ती भी नहीं है और वैर भी नहीं है। यदि वे आधी पंक्ति लिखकर छोड़ देते तो उसका इंटरप्रिटेशन ‘यूँ’ किया जा सकता था कि किसी से दोस्ती न होने का अर्थ है कि सबसे दुश्मनी है। जैसे हमसे कोई कहे कि वह झूठ नहीं बोलता... तो हम यह स्वयं अर्थ निकाल लेंगे कि वह सच बोलता है। लेकिन कबीर स्पष्ट करते हैं कि झूठ न बोलने का अर्थ सच बोलना नहीं है। किसी से दोस्ती न होने का अर्थ यह नहीं है कि किसी से वैर है या सबसे वैर है। दो विलोमार्थी शब्दों के मध्य भी एक भाव होता है। श्वास और उच्छ्वास के मध्य भी एक निर्वात होता है।
इस निर्वात पर खड़े होकर आप चाहे बाज़ार में जाएँ, मंदिर में जाएँ, मस्जिद में जाएँ, मसान में जाएँ, चाहे वेश्यालय में ही क्यों न जाएँ... यहाँ खड़े व्यक्ति से उसका व्यक्तित्व कोई नहीं छीन सकता। यहाँ खड़ा व्यक्ति अपने वातावरण को प्रभावित कर तो सकता है, किन्तु अपने वातावरण से प्रभावित हो नहीं सकता। यहीं खड़ा व्यक्ति सबकी ख़ैर मांग सकता है, बिना यह ध्यान किये कि उसके इस साहस से बाज़ार की परंपरा ध्वस्त हो रही है और बाज़ार पर शासन करने वाला ‘अर्थ’ कबिरा के शब्दों का ‘अर्थ’ बूझते हुए मुँह बाये खड़ा रह जाता है।

© चिराग़ जैन

Wednesday, October 20, 2021

कविता बुन लेता हूँ

शोर-शराबे में भी दिल की धड़कन सुन लेता हूँ
यूँ कविता बुन लेता हूँ

इस दुनिया के छोटे-छोटे हिस्से घूम रहे हैं
लोग नहीं हैं, दो पैरों पर किस्से घूम रहे हैं
होंठों पर मुस्कान दिखी, मस्तक ग़मगीन दिखे हैं
हर चेहरे को पढ़कर देखो, कितने सीन लिखे हैं
इस सारी सामग्री में से मोती चुन लेता हूँ
यूँ कविता बुन लेता हूँ, यूँ कविता बुन लेता हूँ

देह भले ठहरी है लेकिन मन में चहल-पहल है
मौन धरा है अधरों पर और भीतर कोलाहल है
जिन आँखों में झाँका, उनमें ही संवाद भरा है
जो जितना चुप, उसमें उतना अनहद नाद भरा है
इस सरगम से मैं अपने गीतों की धुन लेता हूँ
यूँ कविता बुन लेता हूँ, यूँ कविता बुन लेता हूँ

मीठी यादों के तकिये पर सिर रखकर सोती है
मन पिघले तो दो आँखों की कोरों को धोती है
ठिठकी हुई खड़ी मिलती है किसी नदी के तीरे
कभी स्वयं ही चलकर आती, मुझ तक धीरे-धीरे
दो शब्दों के बीच जड़ी चुप्पी को सुन लेता हूँ
यूँ कविता बुन लेता हूँ, यूँ कविता बुन लेता हूँ

© चिराग़ जैन

Saturday, October 16, 2021

अनवरत साधना

कवि-सम्मेलन करते हुए दो दशक बीत गये, इन दो दशकों में जिन लोगों को पूंजी की तरह कमाया, उनमें से एक नाम है श्री अमीरचन्द जी का। यह नाम मेरे जीवन में एक ऐसा अध्याय है, जिससे मैंने समर्पित होकर अनवरत साधनारत रहना सीखा। क्रोध तथा मान-अपमान के चिन्तन से विलग रहते हुए अनवरत सामाजिक जीवन कैसे जिया जाता है, यह मैंने अमीरचन्द जी से सीखा।
उनके साथ बिताये हर पल में मैं किसी पाठशाला से गुज़रने जैसा महसूस करता रहा। आज अचानक मेरे जीवन की यह जीवन्त पाठशाला हमेशा के लिये बन्द हो गयी। उफ़! यह अहसास ही कितना हृदय-विदारक है कि अब अमीरचन्द जी कभी नहीं मिलेंगे। खाने की टेबल से लेकर प्रवास तक, उनके पास सुनाने के लिए हमेशा कोई न कोई क़िस्सा ज़रूर होता था। उस क़िस्से की भूमिका बनाते हुए वे एक ब्लॉग का ज़िक्र करते थे कि मेरा एक ब्लॉग है, ‘मेरा गाँव मेरा देश’.... एक दिन मैंने इंटरनेट पर ख़ूब सर्च किया लेकिन मुझे अमीरचन्द जी का ऐसा कोई ब्लॉग नहीं मिला। बाद में पता चला कि जब कोई बैठक या बातचीत विषय से भटकने लगती थी, तो उसे वापस विषय पर लाने के लिए वे इस काल्पनिक ब्लॉग का सहारा लेते थे। ऐसा कोई ब्लॉग न कभी था, न होगा। और जिन क़िस्सों को वे सुनाते थे, वे वहीं उपजकर वहीं समाप्त भी हो जाते थे।
अनुभवों का एक पूरा ग्रंथ थे अमीरचन्द जी। सुबह, दोपहर, रात... हमेशा कार्यरत। जैसे ज़िन्दगी के एक-एक पल को सदुपयोग कर लेने की शर्त लगा रखी हो। ...अब वे निष्क्रिय हैं।
उन्हें याद करते हुए आज आँखें भीग गयी हैं। अनेक विषयों पर मेरा उनसे मतभेद रहता था, लेकिन फिर भी वे किसी श्रेष्ठ अभिभावक की तरह हमेशा मुझे अपने साथ कर लेते थे। मैं कभी उन्हें बता ही नहीं पाया कि मैं उनसे प्रेम भी करता हूँ और सम्मान भी।
मई-जून के बाद से उनसे मिला नहीं था.... और अब कभी मिल भी नहीं पाऊंगा।
आज डॉ. संध्या गर्ग की एक क्षणिका अमीरचन्द जी सरीखे व्यक्तित्व पर सटीक जान पड़ती है-
किसी ने बताया
कि आज शाम को 
उन्होंने अन्तिम साँस ली
मैंने सोचा- 
‘चलो, 
उन्होंने साँस तो ली।’

Monday, October 11, 2021

हरिया और आमबाग़

किसी गाँव में आम का एक पुराना बाग़ था। बाग़ में आम के सैंकड़ों पेड़ थे। लेकिन बाग़ पर किसी की कोई मिल्कियत नहीं थी। जब आम की ऋतु आती थी तो इन पेड़ों पर ख़ूब आम लगते। गाँव के शरारती लड़के, आम से लदी डालियों को बेरहमी से नोच डालते। 
जिसका एक पिता नहीं होता, उसकी सफलता पर उसके अनेक बाप पैदा जाते हैं। यही इस आमबाग़ की स्थिति थी। फल लगने पर पूरा गाँव इस बाग़ के फल खाता, लेकिन इसकी देखभाल करने कभी कोई नहीं आता।
मुद्दतों से बेचारा बाग़ स्वयं ही अपनी देखरेख कर रहा था। फल के मौसम में जो आम स्वतः धरती पर गिर जाते, वे अपने आप ही बरसात के पानी के भरोसे पनप जाते थे। इस तरह बाग़ में नये वृक्ष उगते रहते थे। हाँ, यदि कभी कोई वृक्ष बीमार हुआ तो वह भी इलाज न मिलने के कारण अपने आप ही ठूठ में तब्दील हो गया।
निराई और सफाई के अभाव में बाग़ में उगी खरपतवार भी स्वयं को वृक्ष समझने लगी थी। एक दिन गाँव के एक युवक, हरिया ने इस बाग़ के प्रति कृतज्ञताज्ञापन करने की सोची। उसने स्वतः सिंचित इस बाग़ में सिंचाई के लिए ट्यूबवेल लगवाया। दिन-रात परिश्रम करके निराई, सफाई और छँटाई शुरू की।
लावारिस आम के पेड़ों को इस तरह सँवारते देखा तो गाँववालों ने हरिया पर यह आरोप लगाना शुरू किया कि यह बाग़ पर कब्ज़ा करना चाहता है। इस आरोप की परवाह न करते हुए कर्मठ हरिया खरपतवार हटाते हुए आम के पेड़ों की दशा सुधारने में रत रहा।
कभी किसी ने सरकारी दफ़्तर में जाकर उसकी शिक़ायत की, तो वह कलेक्टर ऑफिस में जाकर अपनी नीयत का स्पष्टीकरण दे आया। किसी ने गाँव के बुजुर्गों को उसके खि़लाफ़ भड़काने का प्रयास किया तो बुज़ुर्ग बाग़ पर आ पहुँचे, लेकिन उसकी लगन और मेहनत देखकर उसे चेतावनी की बजाय शाबासी देकर लौट गये।
हरिया इतने बड़े बाग़ में अकेला जुटा रहा। ज्यों-ज्यों बाग़ की दशा सुधरने लगी, त्यों-त्यों गाँव का एक तबका हरिया की प्रशंसा भी करने लगा। लेकिन बाग़ की डालियाँ नोचनेवाले शरारती लड़कों का अब बाग़ में मनमाना प्रवेश अवरुद्ध हो गया। उधर जो खरपतवार स्वयं को बाग़ का हिस्सा समझने लगी थी, उसे हरिया ने जड़ से उखाड़कर बाग़ से बाहर फेंकना शुरू कर दिया।
आजकल खरपतवार और शरारती लड़कों ने हरिया के विरुद्ध अभियान छेड़ रखा है। मालिकाना हक़ की अफ़वाह झूठ साबित हो जाने के बाद गाँव के लड़के गाँववालों को यह कहकर भड़का रहे हैं ...कि हरिया ने बाग़ के आम खाने के लिए यह सब काम शुरू किया है। ...कि हरिया बाग़ की देखभाल करने के बहाने धंधा कर रहा है।
उधर, बाहर पड़ी खरपतवार उन पेड़ों के कान भर रही है, जो अभी हरिया की साफ-सफाई के दायरे में नहीं आ सके हैं।
गाँव के बुजुर्ग हरिया के अनवरत श्रम में बाग़ का सुव्यवस्थित भविष्य देख पा रहे हैं, लेकिन ज़मीन का शोषण करनेवाली खरपतवार और डालियों को नोचनेवाले अमानुष, हरिया से नाराज़ हैं। उन्हें यह बात समझ ही नहीं आ रही कि आम खाने के लिए किसी को बाग़ में पसीना बहाने की ज़रूरत नहीं थी। यदि हरिया यह सफाई अभियान न छेड़ता, तब भी वह बाग़ के फल तो खा ही रहा था।
हरिया ने बचपन से सुना है कि भले का अंत भला ही होता है, उपद्रवियों ने सुन रखा है कि बार-बार बोला गया झूठ, एक दिन सच साबित हो जाता है। इन दोनों तथ्यों के बीच, हरिया अनवरत आम के पेड़ों को दुलार रहा है। बाग़ हरिया के प्रति कृतज्ञ तो है, लेकिन उस खरपतवार से निगाह नहीं हटा पा रहा है, जो रह-रहकर जड़ों के रास्ते बाग़ में घुसने की जुगत लगाती रहती है। 

© चिराग़ जैन

Tuesday, October 5, 2021

चौर्य प्रवृत्ति

आज पुनः अनुरोध कर रहा हूँ कि किसी रचनाकार की रचना अथवा उसकी रचना का कोई अंश सोशल मीडिया पर पोस्ट करते समय रचनाकार का नाम अवश्य लिखें।
ऐसा न करने की स्थिति में निम्नलिखित स्थितियां उत्पन्न होती हैं :
1) रचना अनाथ हो जाती है, और लोग उसे सोशल मीडिया की रचना कहने लगते हैं। मूल रचनाकार अपनी ही रचना को सुनाते हुए चोर कहलाने लगता है।
2) कोई अन्य व्यक्ति उस अनाथ रचना को अपने नाम से सुनाने या पोस्ट करने लगे तो मूल रचनाकार उसे अपनी सिद्ध करने में थक जाता है।
फेसबुक पर यह विषय कई बार उठाया है लेकिन लोग ज्ञान देते हैं कि अगर कोई आपकी रचना शेयर कर रहा है तो आपको ख़ुशी होनी चाहिए। उल्टे हमें बताया जाता है कि अपनी रचना को अपनी कहने की जो कोशिश हम कर रहे हैं वह हमारी छोटी सोच की परिचायक है।
सो महान सोच वाले इन लोगों से यही कहना चाहूंगा कि रचनाकार की रचना उसकी सन्तान की तरह होती है। यदि किसी के बालक सुन्दर हैं तो उन्हें प्यार करने का हक़ पूरे गाँव को होता है, लेकिन उनका अपहरण कर लेने का अधिकार किसी को नहीं है।
सोशल मीडिया की इन्हीं प्रवृत्तियों का लाभ उठाकर कुछ चोर कवियों ने ख़ूब प्रसिद्ध पंक्तियों को भी जस का तस या एकाध शब्द बदलकर अपने नाम से पोस्ट करने की सिरीज़ चला रखी है। यदि पुण्य-पाप होते हैं तो इन सब चोरियों का पाप उनके खाते में जाएगा, जो किसी की रचना उद्धृत करते समय रचनाकार का नाम लिखना/बोलना आवश्यक नहीं समझते।
इस स्थिति के सुधार के लिए निम्न दो क़दम उठाए जा सकते हैं
1. कोई भी ऐसा मेसेज फॉरवर्ड न करें, जिसमें रचनाकार का नाम न लिखा हो।
2. यदि कहीं किसी जगह ऐसी प्रवृत्ति दिखे तो उसके कमेंट बॉक्स में मूल रचनाकार का नाम अवश्य लिख कर आएं।
सोशल मीडिया की चौर्य प्रवृत्ति को इतना न बढ़ने दें कि मौलिक रचनाकार अपनी पंक्तियाँ पोस्ट करना बन्द कर दें।

~चिराग़ जैन

Monday, October 4, 2021

भयभीत मोड के जीव

मोबाइल फोन की तरह मन भी अलग-अलग परिस्थिति में अलग-अलग मोड पर सैट हो जाता है। सम्भवतः मनोविज्ञान में इसी को मूड कहा जाता हो।
कभी हम बहुत ख़ुश होते हैं, मतलब हम हैप्पी मोड में हैं। ऐसे ही सैड मोड, कन्फ्यूज़्ड मोड और एंग्री मोड भी हम सबके भीतर ऑन-ऑफ होते रहते हैं। यह सहज मानवीय स्वभाव भी है। लेकिन कुछ लोग पूरा जीवन एक ही मोड में बिता देते हैं। इनके सॉफ्टवेयर में बाक़ी किसी मोड पर जाने की वायरिंग ही नहीं होती। आप किसी भी परिस्थिति का वायर छू दो, वह उनके फिक्स मोड को ही पॉवर सप्लाई करेगा।
ऐसा अक्सर भयभीत मोड और चिड़चिड़ा मोड के लोगों के साथ होता है। चिड़चिड़ा मोड के व्यक्ति हमेशा चिड़चिड़ाहट के अलंकार से अपना चेहरा सजाए रखते हैं। जिनका ऊपर का ओंठ कुछ शूकराकार होता हुआ ऊपर उठा रहता है और नासिका के मध्यभाग को सिकोड़ने की कवायद में दोनों नथुने भैंसे के नथुनों से प्रतियोगिता करते रहते हैं। चूँकि भैंसा कभी-कभी थकता भी है, इसलिए वह वर्ष में तीन-चार बार इनसे हार जाता है। इस विजय से इनकी चिड़चिड़ी शिराओं में प्रसन्नता की जो ऊर्जा प्रवाहित होती है, वह भी अंततः चिड़चिड़ाहट में ही परिणत हो जाती है।
लगभग यही स्थिति भयभीत मोड के मनुष्यों की होती है। वे किसी भी बात से भयभीत हो सकते हैं। बल्कि यूँ कहिये कि वे बिना बात के ही भयभीत रहते हैं। आप उनको सामान्य फोन मिलाकर दीपावली की बधाई दें। वे तुरन्त भयभीत हो जाएंगे कि आपको उनसे क्या लोभ है जो आप उन्हें बधाई देने के लिए फोन कर रहे हैं? आप उनकी प्रशंसा करो तो वे भयभीत होकर आपकी प्रशंसा में षड्यंत्र सूंघने लगेंगे। आप उनकी प्रशंसा न करो तो वे आपके भीतर ईर्ष्या के समंदर देख लेंगे।
इनकी स्थिति उस मुर्गे की तरह होती है जो जन्मते ही यह मान बैठता है कि उसका जन्म केवल कटने के लिए हुआ है। इस महान विचार को स्वीकार करने के बाद वह जीवन भर डॉक्टर और कसाई के बीच भेद कर पाने की क्षमता गँवा बैठता है।
संदेह इनकी धमनियों में अनवरत दौड़ता रहता है। इनकी धड़कनों से अहर्निश ‘सावधान-सावधान’ की प्रतिध्वनि मुखरित होती है। सड़क पर चलते हुए दो व्यक्ति यदि हँसते हुए दिख जाएँ तो ये कल्पनाशीलता का प्रयोग करके उनकी सामान्य हँसी को पहले ठहाका और फिर राक्षसी अट्टहास बना लेते हैं। फिर वे दोनों अनजान मनुष्य इन्हें लुटेरे लगने लगते हैं।
इनकी यह असीम प्रतिभा इन्हें कभी चैन से सोने नहीं देती। ये भी किसी तपस्यारत योगी की तरह पूरा जीवन अपनी भय के कबूतर का अपने हृदय के भीतर ही पोषण करते रहते हैं। यदि कभी कोई प्रसन्नता, मेनका बनकर इनकी साधना भंग करने का प्रयास करे तो ये अपने क्रोध की अग्नि से उस प्रसन्नता को उत्पन्न करनेवाले का सुख-चैन भस्म कर देते हैं।
इस मोड के लोगों में यदि ग़लती से स्वयं को समझदार समझने की पैन ड्राइव और लग गयी तो फिर तो इनका पूरा सिस्टम डिस्को करने लगता है। पैन ड्राइव का प्रभाव इनसे समझदार होने का अभिनय करवाता है और इनकी नैसर्गिक मेधा रह-रहकर इनके पर्यायवाची में लगी ‘ऊ’ की मात्रा को लम्बा करती रहती है। अब इनका भय झुंझलाहट के सिंगार से युक्त हो जाता है। झुंझलाहट इसलिए कि पैनड्राइव लगाने के बावजूद कोई इन्हें समझदार मानने को तैयार नहीं होता और ये स्वयं को समझदार मान चुके होते हैं।
इन विरोधाभासी मान्यताओं के बीच ये बेचारे समझदारी के अभिनय का अनुपात बढ़ाते हुए लोगों से सौहार्दपूर्ण व्यवहार का अतिरिक्त प्रयास करने लगते हैं। अपने भयभीत विवेक से ये जिसे ‘सफल’ मान रहे होते हैं, उसकी तरह बैठने लगते हैं, उसकी तरह बोलने का प्रयास करते हैं; लेकिन ज्यों ही कोई इनके अभिनय को सत्य समझकर इनकी समझदारी की प्रशंसा कर देता है, तो इनकी नैसर्गिक प्रतिभा तुरन्त प्रकट हो जाती है और वह उस प्रशंसा में षड्यंत्र सूंघने लगती है।
काश अपनी असुरक्षा-ग्रंथि को पुष्ट करने की बजाय कभी ये लोग यह स्वीकार कर सकें कि हमारे पास है ही क्या जो कोई हमसे छीन लेगा...! काश ये लोग समझ सकें कि ख़ुश रहना बहुत बड़ी कला है, और इस कला पर हर प्रकार का भय स्वाहा किया जा सकता है।

© चिराग़ जैन

ज़ाकिर हुसैन कष्ट में हैं

25 जनवरी का दिन था। उस दिन अमेरिकी राष्ट्रपति श्री बराक ओबामा को गणतंत्र दिवस परेड के मुख्य अतिथि के तौर पर भारत आना था। सुबह-सुबह हमारी मुंबई से दिल्ली की फ्लाइट थी। वीवीआईपी मूवमेंट के कारण हमारी फ्लाइट को जयपुर उतार दिया गया। हालाँकि मेरे लिए यह सुखद रहा क्योंकि मेरा उस दिन का कार्यक्रम लक्ष्मणगढ़ में था, और जयपुर से वहाँ पहुँचना ज़्यादा आसान था। लेकिन ज़ाकिर हुसैन साहब और हरिहरन साहब का कार्यक्रम दिल्ली में था। फ्लाइट डायवर्ट होने के कारण हुई परेशानी के माहौल में ज़ाकिर साहब हमसे नाराज़ होकर दूर इसलिए खड़े हैं कि एक को अपने शब्द ढोने हैं, एक को अपने सुर ढोने हैं। कष्ट में तो अकेले वे हैं जो तबला लेकर दिल्ली तक जाएंगे।

Saturday, October 2, 2021

निकुंज शर्मा

हिन्दी कवि सम्मेलन जगत् ने यश तथा संतुष्टि के साथ मुझे कुछ अनमोल रिश्ते भी दिए हैं। आज से लगभग आठ-नौ साल पहले रीवा कवि सम्मेलन में जाते हुए अनामिका अम्बर के साथ एक बालक से भेंट हुई थी। उस समय तुकबंदियों को कविता माननेवाला वह युवा, आज मेरे सर्वाधिक प्रिय गीतकारों में से एक है। कई बार तो वह इतना श्रेष्ठ लिखता है कि मेरे लिए अनुकरणीय हो जाता है।
मुझे नहीं पता कि शोर-शराबे के इस दौर में इस युवक को कितनी पहचान मिल सकेगी। लेकिन इतना अवश्य कह सकता हूँ कि यदि नक्कारखाने में तूती की आवाज़ सुननेवाले कुछ एक कान भी शेष रहेंगे तो निकुंज शर्मा के गीतों की गूंज अनहद नाद से एकाकार होने का सामर्थ्य प्राप्त कर सकेगी।
यदि आप अपने व्हाट्सएप और फेसबुक पर चलताऊ शब्दाडंबरों के बीच शुद्ध गीत तलाशते हैं तो एक बार निकुंज के कुंजवन का विचरण अवश्य करना; मेरा वायदा है कि आपकी संवेदनाओं की साँस-साँस महक उठेगी।
वह अधरों से बाँसुरी में भी संगीत भरना जानता है और उंगलियों से गिटार को भी झंकृत कर देता है। अपने भीतर के कबीर को पोषित करने के लिए वह अपने जीवन की समस्याओं को खाद बना लेता है। मैं निकुंज से मिलता हूँ तो लगता है कि एक सम्पूर्ण कलाकार से मिल रहा हूँ।
आज अचानक यह सब इसलिए लिख रहा हूँ कि आज मेरे इस प्रिय गीतकार का जन्मदिन है।
ईश्वर तुम्हारी प्रतिभा को प्रतियोगिता के अभिशाप से बचाए रखे! ईश्वर तुम्हारी सृजनात्मकता को साधना के आभूषण पहनाए!

Friday, October 1, 2021

अराजकता को साधुवाद

‘नो एफआईआर, नो इन्वेस्टिगेशन, नो चार्जशीट, फैसला ऑन द स्पॉट...’ -ऐसे संवाद फिल्मों में तो बहुत अच्छे लगते हैं, लेकिन असल ज़िन्दगी में इस डायलॉग पर काम करनेवाले कार्यपालक निरंकुश हो जाते हैं।
यह सत्य है कि भारतीय न्याय प्रक्रिया की धीमी गति और लचर व्यवस्था का ही दुष्प्रभाव है कि ‘फ़ैसला ऑन द स्पॉट’ जैसे अराजक संवाद इस देश में ‘लोकप्रिय’ हो जाते हैं। पुलिस की वर्दी पहनकर भी क़ानून को ताक पर रखनेवाले पुलिसवालों को हमने ‘दबंग’; ‘सिंघम’; ‘सिमबा’ और ‘पुलिसगिरी’ जैसी फिल्मों में अराजक होते देखा तो हमने यह कहकर स्वयं को संतुष्ट कर लिया कि इस देश में अपराधियों का यही इलाज है।
यदि डॉक्टर अयोग्य होगा तो कंपाउंडर के हाथ में सर्जिकल नाइफ़ सौंप देंगे क्या? डॉक्टर को कर्मठ और सक्षम बनाने की बजाय हम कंपाउंडर के ऑपरेशन करने को तो जस्टिफाई नहीं किया जा सकता ना! निरंतर डॉक्टरों के साथ रहने का कारण, ऑपरेशन थियेटर में आने-जाने के कारण वार्ड बॉय भी शल्य चिकित्सा की शब्दावली सीख जाता है, लेकिन उसे किसी की सर्जरी करने को तो नहीं कहा जा सकता ना!
न्यायालय किसी लोकतंत्र के शल्य चिकित्सक हैं और पुलिसकर्मी इस अस्पताल का नॉन मेडिकल और पैरा मेडिकल स्टाफ। अस्पताल की व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए यह स्टाफ बहुत आवश्यक है, किन्तु सामान्य बुखार में भी कोई टेबलेट लिखने की छूट इस स्टाफ को नहीं दी जा सकती।
हैदराबाद में जब पुलिस ने बलात्कार के आरोपियों का एनकाउंटर किया था तो लोगों को तालियाँ पीटते देखकर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ था। मैं यह नहीं जानता कि वह एनकाउंटर झूठा था या बनावटी। लेकिन उस घटना पर पुलिस की पीठ थपथपाने वाले यह ज़रूर मानते थे कि पुलिस ने एनकाउंटर का नाटक करके आरोपियों की हत्या की है। यदि वह एनकाउंटर सत्य भी रहा हो तो भी इलाज के लिए वार्ड से ऑपरेशन थियेटर में ले जाते समय यदि किसी मरीज़ की मौत हो जाए तो उसका श्रेय अथवा दोष वार्ड बॉय को कैसे दिया जा सकता है?
उस दिन हैदराबाद की घटना पर जो सोशल मीडिया ट्रोलिंग हुई थी वह इस देश की संवैधानिक तथा न्यायिक व्यवस्था पर सबसे बड़ा कुठाराघात था। उसके बाद विकास दुबे प्रकरण, फिर मृतका के घरवालों को घर में बंद करके आधी रात को पेट्रोल डालकर शवदाह करने की घटना या कोई भी अन्य नागरिक... ये सब घटनाएँ उस अराजकता का एक झरोखा है, जो हमारे समाज में मूर्खतापूर्ण महत्वाकांक्षाओं के हाथों बोई जा रही है।
मरनेवाले को हिन्दू अथवा मुस्लिम के स्थान पर इस देश के एक नागरिक के रूप में देखेंगे तो आप स्वीकार कर सकेंगे कि उसे अदालत में अपना पक्ष रखने का अवसर मिलना चाहिए था। जिन फिल्मों में हमने पुलिसिया गुंडागर्दी पर तालियाँ बजाई हैं, उन्हीं फिल्मों से यह भी सीखा जा सकता है कि कई बार परिस्थितियाँ और इत्तेफ़ाक किसी निर्दाेष को संदेह के घेरे में लाकर खड़ा कर देते हैं। अदालतें इसी संदेह की पड़ताल करने का माध्यम हैं।
मैं फिर दोहरा रहा हूँ कि न्याय व्यवस्था को आत्मावलोकन करके अपनी गति तथा कार्यप्रणाली को सुधारने की सख़्त ज़रूरत है। लेकिन जब तक यह काम न हो तब तक भी न्यायालय का विकल्प थाना नहीं हो सकता।
भारतीय लोकतंत्र की एक इकाई होने के नाते प्रत्येक नागरिक का यह कर्त्तव्य है कि वह व्यवस्था का सम्मान करे। अराजकता किसी भी स्थिति में स्वीकार्य नहीं होनी चाहिए। व्यवस्था में कोई ख़ामी आई तो उसे सुधारा जा सकता है किंतु अराजकता का चेहरा समाजसेवा, राष्ट्रहित और समाजहित से हू-ब-हू भी मिलता हो तो भी उसके निरंकुश होने की शत-प्रतिशत गारंटी होती है।
आशा है कि भविष्य में किसी कम्पाउंडर को सर्जरी करते देखेंगे तो कम से कम हम तालियाँ तो नहीं पीटेंगे; क्योंकि अगली बार ऑपरेशन टेबल पर हम भी हो सकते हैं।

© चिराग़ जैन

Wednesday, September 29, 2021

चरित्र निर्माण के विवेकहीन पाठ्यक्रम

बचपन में हमें जो कहानियाँ पढ़ाई गयी हैं; उनके झोलझाल को समझने में पूरी ज़िन्दगी कन्फ्यूज़ हो गयी है। कबूतर और बहेलिये की कहानी ने हमारे दिमाग़ में भरा कि हमें सबकी मदद करनी चाहिए। तो सारस और केकड़े वाली कहानी ने बताया कि जिसकी मदद करोगे, वही तुम्हें मार डालेगा।
बन्दर और मगरमच्छ की कहानी पढ़कर हम समझ गए कि जिसे हम मीठे जामुन खिलाएंगे, वही दोस्त एक दिन हमारा कलेजा खाने के षड्यंत्र में शामिल होगा। यह सोचकर हम दोस्तों को संदेह की दृष्टि से देखने लगे तो अध्यापक ने शेर और चूहे की कहानी पढ़ाकर बताया कि इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि यदि हमें अपने दोस्तों का भला करेंगे तो दोस्त भी हमारा भला करेंगे।
लोमड़ी और सारस की कहानी पढ़कर हमने ‘जैसे को तैसा’ सरीखा महान वाक्य सीख लिया तो ‘साधु और बिच्छू’ की कहानी ने बताया कि यदि बिच्छू अपनी बुराई नहीं छोड़ रहा तो साधु अपनी अच्छाई क्यों छोड़े।
इन विरोधाभासी कहानियों को पढ़कर जो पीढ़ी तैयार हुई उसके सामने यह मुसीबत हमेशा बनी रही कि वह साधु की तरह बिच्छू के डंक को इग्नोर करके उसे बचाए या फिर लोमड़ी की तरह सुराही का बदला लेने के लिए थाली में खीर परोसकर सारस के सामने रख दे।
हम यह बूझते ही रह जाते हैं कि सूई चुभोनेवाले दर्जी पर कीचड़ फेंकने वाला हाथी बनना है या फिर राजा की उंगली कटने पर ‘ईश्वर जो करता है अच्छे के लिए करता है’ कहने वाला मंत्री बनना है।
हमारे पाठ्यक्रम निर्माताओं ने सम्भवतः यह विचार ही नहीं किया कि वे वास्तव में बच्चों को बताना क्या चाहते हैं। उन्हें यह समझ ही नहीं आया कि लकड़हारे की जिस कहानी से बच्चों को ‘संगठन में शक्ति है’ का पाठ पढ़ा रहे थे, उसी कहानी से कुछ बच्चे ‘फूट डालो शासन करो’ का गुर सीख बैठे।
उन्हें यह भान ही न रहा कुल्हाड़ी और जलपरी वाली जिस कहानी से ईमानदारी की शिक्षा देने निकले थे उसी कहानी का अंत होते-होते वे ईमानदारी के साथ लालच का स्वाद चखा बैठे।
यदि इन कहानियों का व्यक्तित्व के निर्माण पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता तो फिर इन भालू, बन्दर, खरगोश और कछुओं की अनावश्यक गल्प को पढ़ाने में बचपन का क़ीमती समय क्यों नष्ट किया गया? और यदि इन्हीं कहानियों के आधार पर बच्चों का चरित्र निर्माण होता है, तो फिर इनमें इतना विरोधाभास क्यों देखने को मिला? इस विषय को इतना ग़ैर-ज़िम्मेदार रवैये से कैसे देखा जा सकता है?
एक ओर ‘हार की जीत’ जैसी कहानी पढ़ाकर हमें यह बताया गया कि यदि बाबा भारती अपने आचरण को संयत कर लें तो खड़गसिंह जैसे डाकू का भी हृदय परिवर्तन हो सकता है। लेकिन दूसरी तरफ़ हमें यह भी बताया गया कि चींटी ने हाथी की सूंड में घुसकर उसके अहंकार को चकनाचूर कर दिया। अब जब भी अपने अहंकार के मद में चूर होकर मेरी सुख-शांति में सेंध लगाता है तो मैं समझ नहीं पाता कि मुझे बाबा भारती जैसा आचरण करना है या फिर उस अहंकारी की सूंड में घुसकर उसे काट लेना है।
इन कहानियों ने हमारी बौद्धिक क्षमताओं को इतना कुंद कर दिया है कि हम सही और ग़लत का विवेक भूलकर कहानी के एक पक्ष को पकड़कर उसके पीछे चल पड़ते हैं।
इन्हीं कहानियों की बदौलत हम एक पूरी पीढ़ी को ऐसे मस्तिष्क की सौगात दे बैठे हैं, जो एक बार जिसे नायक मान ले, फिर उसकी सब बातें उसे सही लगने लगती हैं।
इसी कन्फ्यूज़न की वजह से हमें ‘दीवार’ फ़िल्म में स्मगलर बना अमिताभ जस्टिफाइड लगता है और ‘ज़ंजीर’ फ़िल्म में पुलिसवाला बना अमिताभ जस्टिफाइड लगता है। इसी अविवेक की वजह से हम शहंशाह फ़िल्म में क़ानून अपने हाथ में लेनेवाला अमिताभ भी पसंद है और शोले फ़िल्म में गब्बर की सुपारी लेनेवाला अमिताभ भी पसंद है।
हम दरअस्ल कहानी को समझते ही नहीं हैं। बल्कि हम तो नायक की पूँछ पकड़कर कथानक और अन्य पात्रों का आकलन करते हैं।
बचपन मे अध्यापक ने जिसकी ओर इंगित करके बता दिया कि यह नायक है, हमने उसके दृष्टिकोण से कहानियों को समझने में बचपन बिता दिया।
डायरेक्टर ने इशारे से जिसको नायक के रूप में प्रस्तुत कर दिया, उसकी नशाखोरी और आपराधिक कृत्यों को भी हमने स्टाइल कहकर जस्टिफाई कर लिया।
राजनीति ने जिसे नायक बनाकर प्रस्तुत कर दिया, उसके षड्यंत्र को भी हमने यह कहकर प्रचारित किया कि देखो अपने विरोधियों को क्या मज़ा चखाया है।
इन नायकों को महान मानने में हमारे देश का नुक़सान हुआ तो हमें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा, हमारे समाज का बेड़ा ग़र्क हुआ तो भी हमें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा और हमारे चरित्र में अविवेक की दीमक लग गयी तो भी हमें कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा।

© चिराग़ जैन

Thursday, September 23, 2021

झाँसी की रानी

उन हाथों में बिजली की तेज़ी थी; तलवारों से पूछो
दुर्गा का साक्षात रूप थी; युग के हरकारों से पूछो
आँखों में अंगार, पीठ पर ममता लेकर ऊँचाई से
कैसे कूदी थी इक रानी; जाकर दीवारों से पूछो

हिम्मत की राहों में जब भी आईं तो चुक गयी दीवारें
कैसे कूदेगी अम्बर से रानी; उत्सुक भयी दीवारें
चण्डी स्वयं विराज रही थी उस दिन झाँसी की रानी में
रानी के तेवर देखे तो धरती तक झुक गयी दीवारें

© चिराग़ जैन

Sunday, September 12, 2021

दो साल बाद कवि सम्मेलन

दो साल के घनघोर निठल्लेपन के बाद मुझे कवि-सम्मेलन का आमंत्रण मिला तो मैं फूला नहीं समा रहा था। सोशल डिस्टेंसिंग का ख्याल न होता तो उस दिन मेरा आयतन दो गज की सीमा को पार कर गया होता। जिस मोबाइल की घण्टी से भी रेमडिसिवर की बदबू आने लगी थी, उससे फिर से होटल से उठाए हुए शैम्पू और साबुन की ख़ुशबू आने लगी।
कोविड के भयावह दौर से गुज़र कर जो धड़कन विरक्ति की झपताल में चलने लगे गयी थी उसने यकायक द्रुत गति की कहरवा का रुख़ कर लिया।
पुराने मकान की दीवार पर गड़ी हुई कील में युगों से लटक रहे रस्सी के टुकड़े जैसी बेकार मेरी उंगलियाँ अचानक हाईटेंशन वायर की तरह फड़फड़ाने लगीं। मैनें मोबाइल में पड़ी ट्रेवल एप को इन फड़फड़ाती उंगलियों से छुआ तो उस एप्प ने मुझे उसी दृष्टि से देखा जिस दृष्टि से कभी देवकी माई ने कंस को मारकर आए कन्हैया को देखा होगा।
‘डिपार्चर’; ‘अराइवल’; ‘ट्रेवल डेट’ और ‘पैसेंजर डिटेल’ जैसे शब्दों को पढ़कर मेरी आँखें भर आईं। भीगी पलकों से बुक हुई टिकट को देखा तो उसका एक-एक शब्द अजंता की किसी अप्रतिम पेंटिंग की तरह मन पर छप गया। जिस एयरलाइंस के लोगो को भी कभी नज़र उठाकर नहीं देखा था, उसके लोगो की एक-एक लकीर को आँखों में बसा लिया। पीएनआर ऐसे रट गया, ज्यों साधनारत किसी तपस्वी को मंत्र रट जाता है।
टिकट बुकिंग का अलौकिक आनन्द उठाने के पश्चात मेरी गर्दन ने घूमकर कमरे के उस कोने पर दृष्टिपात किया, जहाँ चार-चार पहियों की स्वामिनी एक अटैची दो वर्ष से जड़वत खड़ी थी। ज्यों ही मैंने उसे छुआ तो ऐसा महसूस हुआ कि बरसों से पाषाण की तरह जी रही किसी अहल्या में प्राण संचरित हो गये हों। मेरे हाथ लगाते ही वह अपने चारों पहियों पर एक साथ नृत्य कर उठी। हैंडल पकड़कर मैंने उस पर नियंत्रण न किया होता तो वह उसी क्षण दौड़कर हवाई अड्डे पहुँच गयी होती।
मैंने बड़े प्यार से अटैची को बिस्तर पर लिटाया। फिर सलीक़े से उसकी ज़िप को टटोल कर रनर को पकड़ा। अटैची की ज़िप खुलने की आवाज़ सुनने को व्याकुल कान उत्साह में आँख के करीब झुक चुके थे। रनर एक निश्चित दिशा में चलने लगा और अटैची की सीत्कार जैसी आवाज़ ने पूरे माहौल को रोमांचित कर दिया। दोनों रनर बौराए हुए तीतरों की भाँति अलग-अलग दिशा में दौड़ गये और मेरे बाएँ हाथ ने आगे बढ़कर लगभग इस अंदाज़ में अटैची के दोनों फलक खोल दिये ज्यों अलीबाबा सिमसिम के भीतर कोई ख़ज़ाने का बक्सा खोल रहा हो। अटैची खुलते ही मेरी आँखें अटैची से होड़ करने लगीं। हालाँकि यह मुझे पहले से पता था कि अटैची ख़ाली होगी लेकिन फिर भी मैं आँख फाड़-फाड़कर उस ख़ालीपन को अपनी आँखों में भर लेना चाहता था।
अटैची में सजाने को जब मैंने कपड़ों की अलमारी खोली तो अलमारी के कब्ज़ों ने चूँ की आवाज़ करके मुझे सूचना दे दी कि कपड़े काफ़ी नाराज़ हैं, ज़्यादा चू-चपड़ मत करना। मैंने शर्मिंदगी से भरकर कलफ़ लगे कपड़ों की ओर देखा तो उन्होंने मुझे उसी हिकारत से देखा जैसे द्रौपदी ने चीरहरण के बाद युधिष्ठिर को देखा था। किंतु ढीठ होकर मैंने भी हैंगर पकड़कर एक जोड़ी पैंट-शर्ट को ठीक वैसे उतार लिया जैसे कीचक की अभद्रता के बाद भी कंक ने सैरन्ध्री को समझाने-बुझाने की हिम्मत जुटा ली थी।
लेकिन इस बार कपड़े मुझसे ज़्यादा ढीठ निकले। हैंगर से उतरने के बाद भी उनके माथे पर एक सिलवट पड़ी रह ही गयी थी। मैं समझ गया कि इस बार नरमी से काम न चलेगा। इतने दिन एक ही आसन में टँके-टँके कपड़ों ने अकड़ना सीख लिया है, सो मैंने भी इस्तरी लेकर उन्हें गर्मी दिखाई तब जाकर मुआमला शान्त हो सका।
एक-एक सामान को समझा-बुझाकर अटैची में जमाने के बाद अटैची के दोनों रनर्स को पुनः क़रीब लाया गया और महीनों से ख़ाली खड़ी बेचारी अटैची को तृप्त करके एक ओर खड़ा कर दिया गया। भीतर से भरे व्यक्तित्व की तरह अटैची का आत्मविश्वास भी देखने लायक था। पहले छूने भर से बौरा जाने वाली अटैची अब हिलाने पर भी ठहरकर पाँव बढ़ा रही थी।
मैं पूरी तैयारी करके मोबाइल में सुबह चार बजे का अलार्म लगाने लगा तो मोबाइल की घड़ी ने टोका - ‘इतने फॉर्मल क्यों हो रहा है बे, दो साल बाद कार्यक्रम का आमंत्रण मिला है। दस तो बज ही गए हैं... चार-छह घण्टे इस आमंत्रण का प्रचार कर... इस क्षण को एन्जॉय कर...!’
मुझे अपने टुच्चेपन पर शर्मिंदगी हुई। भरा हुआ कवि भी भला सोता है! यही तो समय है आत्मविश्वास के साथ बाक़ी कवियों को फोन कर-करके यह कहने का- ‘चलो, अब मैं सोता हूँ, सुबह जल्दी उठना है, छह बजे एयरपोर्ट पहुँचना है ना!’

© चिराग़ जैन

Saturday, September 11, 2021

अनुवाद : परिकल्पना और वस्तुस्थिति

चूँकि उड़ने के लिए पंख फैलाने आवश्यक होते हैं, इसलिए उड़ते हुए पक्षी का आकार, बैठे हुए पक्षी के आकार से बड़ा हो जाता है। भाषा का आकार विस्तृत करके उसे सुदूर यात्रा के योग्य बनाने के लिए ‘अनुवाद’ पंखों की भूमिका निर्वाह करता है। अनुवाद, भाषा के ज्ञानकोष को समृद्ध करता है। अनुवाद के पंख लगाकर ही एक भाषा की रचना अन्यान्य भाषा-भाषियों तक यात्रा करती है।
अनुवाद के महत्त्व को हम यूँ समझ सकते हैं कि रूसी साहित्य के फ्योदोर दोस्तोयेव्स्की की रचना ‘अपराध और दण्ड’ को हिन्दी के पाठकों तक पहुँचाना अनुवाद के बिना सम्भव नहीं था। इसी प्रकार रबीन्द्रनाथ टैगोर, शेक्सपियर, वर्ड्सवर्थ, लियो टॉलस्टॉय, जेन ऑस्टेन, वर्जीनिया वूल्फ, मार्क ट्वेन, व्लादिमीर नामोकोव, जॉर्ज इलियट, होमर, जॉन मिल्टन, मुंशी प्रेमचंद और कुर्रतुल-ऐन-हैदर समेत सैंकड़ों रचनाकार अनुवाद के जादुई कालीन पर बैठकर ही समूचे विश्व में लोकप्रिय हो सके हैं।
एक अनुवादक का दायित्व कई अर्थों में मूल लेखक से अधिक हो जाता है। वह केवल शब्दों का ही अनुवाद नहीं करता बल्कि स्रोत भाषा के सांस्कृतिक परिवेश तथा लक्ष्य भाषा के सांस्कृतिक परिवेश के मध्य भी सामंजस्य स्थापित करने का दायित्व निर्वाह करता है। साहित्यिक अनुवाद में तो यह दायित्व-बोध सामान्य अनुवाद की तुलना में कई गुना अधिक हो जाता है।
उदाहरण के लिए, यदि अंग्रेजी की किसी कहानी का अनुवाद हिन्दी भाषा में किया जाए तो अनुवादक को इंग्लैंड के परिवेश तथा भारत के परिवेश का व्यवहारिक ज्ञान होना आवश्यक है। चूँकि इंग्लैंड में ठण्ड अधिक पड़ती है इसलिए ग्रीष्म ऋतु उनके लिए सुहावनी होती है। लेकिन भारत में यदि यह लिखा जाए कि ‘गर्मी की सुहानी ऋतु थी’ तो पाठक को यह हास्यास्पद जान पड़ेगा। इसी प्रकार हिन्दी में ‘गुलाब’ पुल्लिंग है और अंग्रेजी में ‘रोज़’ स्त्रीलिंग है। कोरा शब्दानुवाद किसी कृति की भावभूमि का मर्म स्पर्श करने की बजाय उसे बेढंग का बनाकर छोड़ देता है।
इसमें भी हिन्दी कविता के अनुवाद के सम्मुख एक कठिनाई इसकी छन्दबद्धता भी है। अनेक हिन्दी कविताएँ ऐसी हैं जिनमें कथ्य से अधिक आनन्द उनके शिल्पपक्ष का है। बुनावट के इस आनन्द को लक्ष्य भाषा तक ले जाना लगभग असंभव है।

हरि गरज्यो, हरि बरस्यो, हरि आयो हरि पास।
पर जब हरि, हरि में गया, तब हरि भयो उदास।।

इस दोहे में रचनाकार ने ‘हरि’ शब्द के विभिन्न अर्थों का प्रयोग करके श्लेष अलंकार का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत किया है, किन्तु इसको यदि किसी अन्य भाषा में अनूदित किया जाएगा तो यह दोहा तीसरी-चौथी कक्षा के पाठ्यक्रम की एक बेहद सामान्य उक्ति से अधिक कोई अर्थ न संजो सकेगा।
रीतिकाल की रचनाओं में ऐसे अनेक उदाहरण मिल जाएंगे जो यदि किसी अन्य भाषा में अनूदित कर दिए जाएँ तो गूगल उन्हें ‘इनएप्रोप्रिएट कन्टेन्ट’ समझकर अमान्य कर देगा। किन्तु हिन्दी में वे ही रचनाएँ श्रेष्ठ सौंदर्य तथा काव्य-शिल्प के लिए रेखांकित की जाती हैं।
ग़ज़ल के रदीफ़-काफ़िये उसके सौंदर्य का आधार बन जाते हैं। उन्हें अनुवाद के माध्यम से किसी अन्य भाषा तक साध लेना लगभग असंभव है।

यूँ उठे आह उस गली से हम
जैसे कोई जहाँ से उठता है

इस शेर में प्रयुक्त लफ़्ज़ ‘आह’ को ठीक इसी भाव के साथ किसी भी अन्य भाषा तक ले जाना सम्भव नहीं है, और इस लफ़्ज़ की इस प्रयोजनीयता के आभाव में इस शेर की प्रभावोत्पादकता भंग हो जाती है।
यही कारण है कि हिन्दी की छंदबद्ध कविताएँ या तो अनुवादकों की वरीयता पर नहीं आ पातीं या फिर अनुवाद के बाद उनकी रस-निष्पत्ति लगभग शून्य हो जाती हैं।
ऐसा माना जाता है कि एक अच्छे अनुवादक को स्रोत भाषा की सामान्य तथा लक्ष्य भाषा की विशेष जानकारी होनी चाहिए। जबकि मेरा मानना है कि एक अच्छे अनुवादक को स्रोत भाषा तथा लक्ष्य भाषा दोनों की विशेष जानकारी के साथ-साथ दोनों भाषाओं के मुहावरे की भी जानकारी होनी चाहिये। एक साहित्यिक अनुवादक को दोनों भाषाओं के सांस्कृतिक, सामाजिक तथा पौराणिक परिवेश की भी अच्छी जानकारी होनी चाहिए। तथा कविता का अनुवाद करनेवाले व्यक्ति को दोनों भाषाओं की सामाजिक संवेदना का भी गहरा ज्ञान होना चाहिए।
इस गुण के अभाव में किसी कविता का अनुवाद तो किया जा सकता है किंतु उस अनूदित कृति को ‘कविता’ नहीं कहा जा सकता।
इधर कुछ समय से हिन्दी के अनुवादकों ने अपना पूरा ध्यान कार्यालयी अनुवाद पर केंद्रित कर लिया है। राजभाषा विभाग में नौकरी प्राप्त कर लेना उनके अनुवाद कर्म का अंतिम लक्ष्य है। मैं यह बात स्पष्ट कर देना चाहता हूँ कि वर्तमान में अधिकतर राजभाषा विभागों में लिप्यन्तरण को अनुवाद समझा जा रहा है। यही कारण है कि सरकारी प्रपत्रों तथा दस्तावेज़ों में या तो अंग्रेजी अथवा अरबी के शब्दों को यथावत देवनागरी में लिख दिया जाता है या फिर उसको इतना क्लिष्ट संस्कृतनिष्ठ रूप दे दिया जाता है कि वह भाषा के उपहास का कारण बन जाते हैं।
मेरा व्यक्तिगत रूप से मानना है कि भाषा को जटिल बनाकर उसकी हँसी उड़वाने से बेहतर है कि उसे सहिष्णु बनाकर उसका सरलीकरण कर दिया जाए। कार्यालयी अनुवाद तथा वैज्ञानिक व तकनीकी अनुवाद में हमें यह बात स्वीकार करनी होगी कि विज्ञान, तकनीक तथा कार्यालयी व्यवस्थाओं का जो स्वरूप हमने वर्तमान में अंगीकार किया है, उसका उद्गम संस्कृत से न होकर अंग्रेजी अथवा अरबी से होता है। इस हेतु कम्प्यूटर को ‘संगणक’ कहने की ज़िद्द ठानने से बेहतर है कि हम उसे देवनागरी में ‘कम्प्यूटर’ लिखकर संतोष कर लें।
शब्द आयात करने में भाषा की कोई हानि नहीं होती, जबकि व्याकरण को अनदेखा कर देने से भाषा अपंग हो जाती है। कार्यालयी कामकाज में कई बार ऐसा फूहड़ अनुवाद किया जाता है कि हिन्दी के दस्तावेज़ में भी अंग्रेजी का व्याकरण शेष रह जाता है। इन काग़ज़ात को पढ़कर ऐसा लगता ही नहीं कि आप हिन्दी भाषा पढ़ रहे हैं। जिन लोगों ने कभी अदालती दस्तावेज़ पढ़े हैं या निविदा आदि की सूचनाएँ पढ़ी हैं, वे मेरी बात से जल्दी सहमत हो सकेंगे।
गूगल ट्रांसलेशन की सुविधा से इस प्रदूषण में दिन दूनी, रात चौगुनी प्रगति हुई है। अंग्रेजी के पत्र को गूगल ट्रांसलेशन से हिंदी में कन्वर्ट करके कार्यालय की दृष्टि में हिंदी को और अधिक अनुपयोगी बनाने में कर्मठ राजभाषा कार्मिकों ने महती भूमिका निभाई है।
राजभाषा विभागों की प्रतिष्ठापना करनेवालों ने स्वप्न यह देखा था कि एक दिन सभी सरकारी दस्तावेज़ मूल रूप से हिंदी में होंगे और विभाषीय क्षेत्रों में पत्राचार करने के लिए उनको अंग्रेजी भाषा में अनूदित करके प्रेषित किया जाएगा। किन्तु अनुवाद की लापरवाही के कारण वस्तुस्थिति यह है कि आज दफ़्तरों में प्रत्येक पत्र मूलतः अंग्रेजी में है और राजभाषा के आँकड़े पूरे करने के लिए उनका अल्लम-गल्लम देवनागरी रूपांतरण करके उन्हें आवश्यक औपचारिकता के रूप में द्विभाषी बनाकर संलग्न कर दिया जाता है। इस अनूदित काग़ज़ की क्षमता तथा उपयोगिता का अनुमान स्वयं कार्यालय को भी होता है, इसी कारण अक्सर द्विभाषी दस्तावेज़ों पर यह डिस्क्लेमर दिया जाता है कि किसी विवाद की स्थिति में अंग्रेजी भाषा में प्रस्तुत नियमावली को प्रमाण माना जाएगा।
अनुवाद को उत्तरदायित्व के स्थान पर औपचारिकता बनाने का ही एक दुष्परिणाम यह है कि गणित, तकनीक तथा विज्ञान जैसे विषयों के हिन्दी अनुवाद केवल ख़ानापूर्ति के लिए प्रकाशित किये जाते हैं। उनकी उपादेयता के विषय में न तो अनुवादक गम्भीर दिखाई देते हैं, न ही प्रकाशक। हाँ, विज्ञान के क्षेत्र में कार्य करनेवाले मंत्रालय तथा विभाग अपने राजभाषा विभाग के आँकड़े पूरे करने के लिए इस प्रकार के फूहड़ अनुवादों को पुरस्कृत करके हिन्दी के प्रति गाम्भीर्य का अभिनय अवश्य कर लेते हैं।
अर्थशास्त्र तथा सांख्यिकी जैसे विषयों के अनुवादकों ने इतना सहयोग अवश्य किया है कि उत्तर प्रदेश तथा बिहार जैसे राज्यों में इन विषयों की उच्च शिक्षा का माध्यम हिन्दी रखना सम्भव हो सका। अभियांत्रिकी तथा चिकित्सा जैसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्र इस सुख से भी या तो वंचित हैं या फिर कोरी औपचारिकता के निर्वहन से धीरज धरे बैठे हैं।
अनुवादक यदि ठान लें तो वे बहुत कम समय में हिंदी की प्रयोजनमूलकता में इतनी वृद्धि कर सकते हैं कि राजभाषा का स्वप्न देखनेवाली आँखों की पथराई पुतलियाँ चमकने लग जाएँ। विश्व साहित्य की श्रेष्ठ कृतियों की सूची में हिंदी की भी कुछ रचनाएँ सम्मिलित हो सकें। यदि अनुवादक थोड़े गम्भीर हो जाएँ, तो हिन्दी क्षेत्र के सरकारी स्कूलों में पढ़कर बड़े हुए बालकों को यह उलाहना नहीं सुनना होगा- ‘अबे, मेडिकल का फॉर्म तो भर रहा है, इंग्लिश मीडियम से पढ़ना पड़ेगा।’

© चिराग़ जैन

Saturday, September 4, 2021

अब उसकी कुछ आस नहीं है

सूखी हुई नदी के तट पर नौका लेकर आने वाले
जिस कलकल को ढूंढ रहा है
अब उसकी कुछ आस नहीं है

चलते-चलते बहा पसीना, ठहर-ठहर कर नदिया सूखी
तू होता जाता था लथपथ, वो होती जाती थी रूखी
लहर-लहर लहरा-लहरा कर तुझको पास बुलाने वाले
जिस आँचल को ढूंढ रहा है
अब उसकी कुछ आस नहीं है

माना तूने इन राहों पर, दर्द सहा है, चुभन सही है
लेकिन तुझको इंतज़ार की घड़ियों का एहसास नहीं है
अपनी उम्मीदों की नौका, मन्ज़िल तक पहुंचाने वाले
जिस समतल को ढूंढ रहा है
अब उसकी कुछ आस नहीं है

हालातों से लड़ते-लड़ते कितनी नौकाएं टूटी हैं
उनका क्या चर्चा करना है, जिनसे धाराएँ रूठी हैं
इस क्षण का सारा सन्नाटा अपने भीतर पाने वाले
जिस हलचल को ढूंढ रहा है
अब उसकी कुछ आस नहीं है

कौन सही है, कौन ग़लत है -अब इसमें कुछ सार नहीं है
यही अंत है इस किस्से का और अधिक विस्तार नहीं है
सही-ग़लत की उलझी-उलझी गुत्थी को सुलझाने वाले
तू जिस हल को ढूंढ रहा है
अब उसकी कुछ आस नहीं है

इस तट पर जाने कितने ही प्राण पड़े हैं पत्थर होकर
तू भी वापिस ले जाएगा जग में अपनी काया ढोकर
जीवित होने के अभिनय से दुनिया को भरमाने वाले
जिस इक पल को ढूंढ रहा है
अब उसकी कुछ आस नहीं है

© चिराग़ जैन

Tuesday, August 24, 2021

सावधान! कहीं आप अपने धर्म का विरोध तो नहीं कर रहे?

आचरण को आवरण से अधिक महत्व देने का नाम है जैनत्व! जैन आगम में प्रथमानुयोग का अध्ययन करें तो ऐसे सैंकड़ों चरित्र मिल जाएंगे, जिन्होंने अपने चारित्रिक बल से अनीति को हतोत्साहित किया है। तीर्थंकर पार्श्वनाथ पर उपसर्ग करनेवाले कमठ से लेकर मुनि मानतुंग को कारागृह में बन्द कर देने की घटना तक संहनन तथा आत्मबल ही नायकत्व का निर्धारण करता रहा है।
यही क्षमा, यही धैर्य, यही संहनन, यही अहिंसा यदि हम वर्तमान में भी बचा ले गए, तो यह अपने जैनत्व के प्रति हमारा सबसे बड़ा योगदान होगा। किन्तु हम उद्वेग के प्रवाह में उलटबांसी करके अपने आधार को ही ध्वस्त करने पर आमादा हुए जा रहे हैं। हम नपुंसक से अहिंसक की तुक मिलाकर बड़े गर्व से कहते हैं कि जैनी अहिंसक हैं, नपुंसक नहीं! मुट्ठी और जबड़े भींचकर जब कोई यह जुमला बोलता है, तो मुझे लगता है कि वह अपनी परम्परा के मस्तक पर मुष्ठी प्रहार करके गौरव मान रहा है। ऐसी अनुभूति होती है कि हिंसा के प्रतिकार में हिंसक हो जाने की बजाय अहिंसा तथा क्षमा का रास्ता अपनाकर सामनेवाले के चरित्र को प्रभावित करनेवालों को नपुंसक कहा जा रहा है।
श्रीमद रायचंद्र और महात्मा गांधी ने जैन धर्म के जिस आत्मबल को आत्मसात करके एक गाल पर थप्पड़ मारने पर दूसरा गाल आगे करने की बात कही, उसकी खिल्ली उड़ती दिखाई देती है।
तीर्थंकर नेमिनाथ को जब ज्ञात हुआ कि उनके विवाहोत्सव में अतिथि सत्कार के लिए पशुओं की बलि दी जानी है तो इस हिंसा का प्रतिकार करने के लिए उन्होंने तलवार नहीं खींची थी। बल्कि अपने आचरण से उस कृत्य में संलग्न लोगों को शर्मिंदा करने का उपक्रम किया था। उन्होंने तो यह नहीं कहा कि हमें आप नपुंसक न समझ लें, इसलिए हम अहिंसा को तिलांजलि दे देकर पशुओं की हत्या करनेवालों की हत्या कर देंगे।
सेठ सुदर्शन, राजा श्रीपाल, मुनि सुखमाल, मुनि समन्तभद्र और न जाने कितने श्रावक-श्रमणों ने धर्म तथा निजी सुखों की रक्षार्थ ‘विरोधी हिंसा’ की ओट लेकर हिंसक बन जाने के स्थान पर अपने आत्मबल तथा साधना के बल पर धर्म की रक्षा की।
धर्म की रक्षा उसके अनुयाइयों को जीवित रखकर नहीं बल्कि उसके आदर्शों को जीवित रखकर की जा सकती है। किसी ने हमारे धर्म का अपमान किया और हम उसकी गर्दन उतारने दौड़ पड़े तो समझ लीजिए कि विरोधी ने तो केवल धर्म की देह को पत्थर मारे थे, लेकिन अनुयाइयों ने उसकी आत्मा खरोंच दी। जिन्होंने सिर पर सिगड़ी रखे जाने के बावजूद उपसर्गी का प्रतिकार न किया, उन्हें क्या हम नपुंसक कहने लगेंगे?
जैनत्व के इतिहास में एक भी उदाहरण ऐसा नहीं मिलेगा कि जहाँ युद्ध करनेवाले अथवा युद्ध जीतनेवाले को उसके दैहिक बल के कारण पूजा गया हो। हमने युद्ध में संलग्न बाहुबली को नहीं पूजा, हमने तो सर्वस्व त्यागनेवाले बाहुबली को पूजा है। हमने चक्रवर्ती भरत को नहीं पूजा, हमने तो मुनि भरत को पूजा है।
धर्म को सीढ़ी बनाकर उद्वेग पर सवारी करनेवाले लोग इस धर्म की आत्मा के लिए सर्वाधिक ख़तरनाक लोग हैं। जिस पर पत्थर फेंका गया, उसे शांत रखना कठिन कार्य है। यह कार्य मुनियों ने किया। यह कार्य पुरखों ने किया। और इसी कठिन कार्य को करते हुए जैनत्व की आत्मा को अक्षुण्ण रखा है हमारे पूर्वजों ने। किन्तु उद्वेग को अराजक बना देना सरल कार्य है। इस सरल कार्य को करके जैन धर्म के पाले में खड़े होकर जिनत्व की मूल भावना को चोट पहुँचा रहे हैं कुछ लोग। उनके बहकावे में आने से बचें। क्योंकि आगम की रक्षा हेतु मुट्ठी भींच लेने की बात से अधिक हास्यास्पद कुछ नहीं हो सकता!

© चिराग़ जैन

Sunday, August 22, 2021

रक्षाबंधन

‘बंधन भी सुख का कारण हो सकता है’ - इस अद्भुत सत्य का अनोखा उदाहरण है रक्षाबंधन! यद्यपि मैं जानता हूँ कि ईश्वर ने सृष्टि के प्रत्येक प्राणी को आत्मरक्षा हेतु आत्मनिर्भर बनाया है तथापि मुझे इस बात का एहसास है कि नाड़ी पर एक धागा बांधकर मन में अपनत्व की जिस अपेक्षा को गतिमान किया जाता है; वह संवेदना के स्नायु तंत्र को आनन्दित कर देती है।
कोई हम पर इतना अधिकार रखे कि हमें अपनी रक्षा का दायित्व सौंप दे... अहा! इस अनुभूति से मन कितना बलिष्ठ हो उठता है।
सम्भवतः हम इस त्यौहार की इस अलौकिक ख़ुशी को सही से समझ ही नहीं सके हैं। इसीलिए हमने इसको किन्हीं अर्थों में परिहास बना डाला है। यदि किसी लड़की को अहसास हो जाए कि अमुक परिचित लड़का उसके प्रति प्रेम का भाव रखता है, अथवा उसे प्रपोज़ करनेवाला है तो वह लड़की उसको राखी बांधने निकल पड़ती है! उधर लड़के को अनुमान हो जाए कि जिससे वह प्रेम करता है, वह उसे राखी बांधने की जुगत में है तो लड़का राखी से बचने का उपाय खोजने लगता है!
इस परिस्थिति के दोनों ही पात्र बचकानी हरकतें कर रहे हैं। जिसकी नीयत में तुम्हें खोट दिखाई दे रहा है, उसको राखी जैसे सम्मान से सम्मानित कैसे किया जा सकता है? और जिसकी तुम राखी से भयभीत हो, उससे तुम कम से कम प्रेम तो कभी नहीं कर सकते!
राखी एक पदक है। राखी एक सम्मान है। यदि कोई स्त्री किसी पुरुष को इस सम्मान के योग्य समझती है तो यह उस पुरुष के लिए गौरव का विषय है। सोशल मीडिया और ओटीटी प्लेटफॉर्म्स के इस युग में जब स्त्री-पुरुष सम्बन्धों को भौंडा करके परोसने के सभी द्वार खुले हैं ऐसे में राखी का एक धागा संवेदनाशून्य होते सम्बन्धों पर संवेदना के काँचुकीय की भूमिका निर्वाह करता है।

© चिराग़ जैन

Saturday, August 21, 2021

जैन आगम की प्रासंगिकता

धर्म आत्मबल में वृद्धि करने का साधन है। साधना संहनन को सुदृढ़ करने का अभ्यास है। विपरीत परिस्थितियों में स्वयं को संयत रखने का उपाय ही व्रत है।
जैन आगम का प्रथमानुयोग, जीव के इसी नैतिक विकास का आधार तैयार करता है। प्रथमानुयोग हमें संकट के समय संयत रहने के अवलम्बन प्रदान करता है। जब हम विपत्ति से घिरे हों तब उस विपत्ति का कोई एक उदाहरण मस्तिष्क में कौंध जाए तो विपत्ति छोटी लगने लगती है। यही प्रेरणा मनुष्य के जीवन में कथाओं को उपयोगी बनाती है। यह प्रेरणा न हो तो तमाम कथाएँ राजा-रानी की कहानी की तरह बालक का मन बहलाने का उपकरण मात्र सिद्ध होंगी।
यदि थोड़ा सा विवेक जागृत कर लिया जावे तो शास्त्रों में पढ़ी गईं अनेक कहानियां हमें हमारे परिवेश में साकार होती दिखाई देंगी। जैन आगम की इन कथाओं को जब कभी अपने या अपनों के जीवन में घटित होते देखता हूँ तब-तब मुझे लगता है कि महावीर की प्रासंगिकता सिद्ध हो गयी।
ऐसा अनेक बार होता है कि जब हमारा कोई अपना लोभवश हमसे छल करके हमारा आर्थिक अहित कर रहा होता है। ऐसी स्थिति को जानने के बाद यदि हम उस सम्पत्ति से निर्मोह होकर चल देते हैं तो उस क्षण हम भरत को राज्य सौंप कर वन को जाते हुए बाहुबली सदृश हो जाते हैं। 
ऐसा अनेक बार हुआ है कि यदि हमें ज्ञात हो जावे कि हमारी उपस्थिति से किसी महफ़िल का माहौल असहज हो जाएगा तो हम उस अवांछित परिस्थिति को टालने के लिए स्वयं को उस उत्सव से विलग कर लेते हैं। जब हम ऐसा करते हैं तब हम अपने अवचेतन में विद्यमान नेमिनाथ से प्रेरणा प्राप्त कर रहे होते हैं जिन्होंने स्वयं को हिंसा का कारण बनते देख उस उत्सव का ही परित्याग कर दिया जो उनके लिए संयोजित किया गया था।
कोई हमें परेशान किये जा रहा है और हम उसके उपद्रव पर ध्यान न देकर अपने कार्य में एकाग्रचित्त रह पाएं तो उस समय हमारा व्यक्तित्व कमठ का उपसर्ग झेलते पार्श्वनाथ से प्रेरणा पा रहा होता है। हमें मिली ख़राब चीज़ को भी यदि हम सँवार कर उपयोगी बना लेने का हौसला रखते हैं तो हम मैनासुन्दरी के किरदार को जीवंत कर देते हैं।
सेठ सुदर्शन, मुनि मानतुंग, मुनि सुखमाल, अंजनबाला, राजुल, अकलंक, निकलंक, सुकौशल मुनि, सनतकुमार मुनि, अकम्पनाचार्य और श्रीपाल जैसे दर्जनों चरित्र हमारे अवचेतन में विद्यमान हैं। जिन परिस्थितियों में ये सब उल्लेखनीय बन गए, उन्हीं परिस्थितियों में ये सब सामान्य भी सिद्ध हो सकते थे। ये सब कथाएँ हमें यह प्रेरणा प्रदान करती हैं कि अनुकूल परिस्थितियों में धर्म पालन करने से कोई विशेष नहीं होता। आपका उल्लेख तब किया जाता है जब आप प्रतिकूल परिस्थितियों में धर्म का पालन कर सकें।
हाल ही में मुझे शल्य चिकित्सा की प्रक्रिया से गुज़रना पड़ा। जब मुझे ऑपरेशन थियेटर में ले जाया जा रहा था उस समय मुझे यह विचार आया कि घर पर हर रोज़ समाधि मरण और बारह भावना की ऑडियो सीडी बजती है। यदि इस क्षण मैंने इन दोनों काव्यकृतियों में वर्णित उदाहरणों का चिंतन नहीं किया, यदि इस क्षण में मैं विकल हो गया तो बरसों से सुनी जा रही इन महनीय रचनाओं की महत्ता खण्डित होगी। फिर इनका श्रवण मधुर संगीत से अधिक उपयोगी सिद्ध न हो सकेगा। ...जब तक एनेस्थीसिया ने मुझे पूर्णतया अवचेत न कर दिया तब तक मैं अनेक उदाहरण देते हुए लगातार स्वयं से यह प्रश्न पूछ रहा था कि - "तुमरे जिये कौन दुःख है?" 
इस एक प्रश्न ने मेरे मन को उस भय से बचाए रखा, जो ऑपरेशन से पूर्व किसी को हो सकता है। यूँ भी देह और विदेह के पृथकत्व के लिए वह क्षण सर्वाधिक उपयुक्त है, जब आप स्वयं उस बिंदु पर खड़े हों। अन्यथा धर्म चर्चा परानुभूति के प्रवचन से अधिक कुछ नहीं है।
मैं पग-पग पर इन चरित्रों से प्रेरणा प्राप्त करता हूँ। सर्दी लगी तो दिगम्बरत्व का ध्यान कर लिया। गर्मी लगी तो सिर पर जलती सिगड़ी को भूलकर साधनारत रहे मुनि का स्मरण हो आया। परिवेश के व्यवधान किसी कार्य में विघ्न बनने लगे तो ध्यानमग्न बाहुबली के हाथ-पैरों पर लिपटी लताएँ ध्यान आ गयीं। अपने भाग्य पर क्रोध आया तो बेड़ियों में बंधी चंदनबाला ने हौसला दिया। 
कुल मिलाकर जीवन की स्लेट पर अनुभव ने जो इबारत लिखी है उसमें उन सब कथाओं का उजाला है, जो बचपन से लेकर अब तक आगम के प्रथम सोपान पर पढ़ी-सुनी हैं। कुल मिलाकर हम सबके जीवन में धर्म बार-बार अवसर लेकर आता है कि हमें उल्लेखनीय बनाया जा सके। कुल मिलाकर आत्मबल और विवेक के अभाव में हम उल्लेखनीय हो जाने के प्रत्येक अवसर पर सामान्य हो जाना सरल समझते हैं। कुल मिलाकर परिस्थितियों से जूझने में आगम को स्मरण रखने वाले लोग, आगम को नियमित रूपेण पूजने वाले लोगों से अधिक सम्यकदृष्टि हैं।

✍️ चिराग़ जैन


Friday, August 20, 2021

घने जंगल की एक शाम

तंज़ानिया की राजधानी दार-एस-सलाम में शानदार कवि-सम्मेलन सम्पन्न हो चुका था। वहाँ बसे भारतीयों का अपनत्व हमें सहज कर चुका था। यद्यपि इस यात्रा में पाठक जी हमारे मुख्य आयोजक थे लेकिन वहाँ बसे शेष भारतीयों ने भी हमें अकेलापन महसूस नहीं होने दिया।
एक सप्ताह में बेहद खूबसूरत पल जीने को मिले। आयोजकों का अपनत्व, हिंदी के प्रति डी एन पाठक जी का समर्पण, जितेंद्र भारद्वाज का कवि प्रेम, अजय गोयल और शिवि पाठक की काव्य प्रतिभा, पारुल जी की आवाज़, तंज़ानिया में भारत के राजदूत श्री संजीव कोहली जी की सहजता और स्वामी विवेकानन्द सांस्कृतिक केंद्र के निदेशक संतोष जी की सरलता।
तंज़ानिया स्थित स्वामी विवेकानन्द सांस्कृतिक केंद्र में सविता मौर्या नामक एक महिला तंज़ानिया के स्थानीय बच्चों को हिंदी सिखाती हैं। सविता जी को यदि तंज़ानिया में हिंदी की मदर टेरेसा कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी। वे अन्य प्रवासी भारतीयों की तरह अपनी आजीविका और घर-गृहस्थी में व्यस्त हैं, किन्तु इस सब व्यस्तता से बचे सप्ताहांत को वे हिंदी की खेती में उपयोग करती हैं। अनेक वर्ष से यह कार्य अनवरत जारी है। इसके परिणामस्वरूप वहाँ हिंदी बोलने, समझने, लिखने और पढ़ने वाले तंज़ानियन बच्चों का एक समूह तैयार हो गया है। इस महती कार्य को करने वाली सविता जी यह सब अवैतनिक रूप से करती हैं। हाँ, बच्चों के आने-जाने के लिए बस के किराये की व्यवस्था वहाँ के प्रवासियों की श्स्वर्णगंगाश् नामक संस्था करती है और कक्षाओं के लिए स्थान की व्यवस्था स्वामी विवेकानन्द सांस्कृतिक केंद्र में निःशुल्क की गई है।
हमने जब इन बच्चों को हिंदी बोलते सुना, हिंदी के गीतों पर भावपूर्ण नृत्य करते देखा, हिंदी सिनेमा के गाने गाते देखा और हिंदी में इनसे बात की तो लगा जैसे कोई स्वप्न साकार हो गया।
कितना कुछ यादों में क़ैद हो गया है। कवि सम्मेलन से पूर्व जब तंज़ानियन बच्चों ने किशोर कुमार के फिल्मी गाने गाए तो मन झंकृत हो गया। कवि सम्मेलन में सैंकड़ों लोगों ने लगभग दो घण्टे तक मुझे और अरुण जैमिनी जी को सुना और सराहा। हम दोनों को विश्व हिंदी दिवस के अवसर पर सम्मानित किया गया।
कार्यक्रम के अगले दिन पाठक जी हम दोनों कवियों को लेकर कुंबु-कुंबु सेल्यूस नामक स्थान के लिए रवाना होनेवाले थे। सेल्यूस तंज़ानिया के उस घने जंगल का नाम है जहाँ सैलानी न केवल जंगल सफ़ारी के लिए जाते हैं बल्कि शिकार के शौकीनों के लिए इस क्षेत्र को स्वर्ग कहा जाता है। यह स्थान दार-ए-सलाम से 220 किलोमीटर दूर था।
रवानगी से ही अरुण जैमिनी जी और मैं रोमांचित थे। शिकार की बात सुनकर मन कुछ खिन्न अवश्य हुआ किन्तु इस बात की प्रसन्नता थी कि जिन वन्यजीवों को भारत में देखना सम्भव नहीं था, उन्हें उन्हीं की भूमि पर स्वच्छंद विचरते देख सकेंगे।

रूफीजी मे नौकायन की तैयारी

रास्ता लम्बा, ख़ूबसूरत, ऊबड़-खाबड़ तथा कहीं-कहीं भयानक भी था। कई घण्टे राजमार्ग पर चलने के बाद गाड़ी एक कच्ची-सी सड़क पर उतर गयी। शहर पीछे छूट रहा था और हम गहरे जंगल में समाए जा रहे थे। कच्ची सड़क के दोनों ओर घने पेड़ों के झुरमुठ थे। दिन का समय था लेकिन गाड़ी से उतरने की मनाही थी। मोबाइल का नेटवर्क साथ छोड़ चुका था। जंगल इतना घना था कि रिज़ॉर्ट का मालिक, जिसका नाम ‘अतीत’ था, वह पानी से लेकर बर्फ़ तक हर ज़रूरत की चीज़ गाड़ी में स्टोर करके चला था। वह स्वयं गाड़ी ड्राइव कर रहा था। उसने हमें बताया कि इस ख़राब सड़क पर दो या तीन टूर करने के बाद गाड़ी के काफ़ी सारे पुर्ज़े बदलवाने पड़ते हैं। उसकी बात सुनकर मैंने अरुण जी से आँखों ही आँखों में कहा कि हमें तो इसी टूर के बाद अपने पुर्ज़ों की जाँच करवानी पड़ेगी।
ख़राब सड़क पर रोड़वेज की पुरानी बस में जो खड़खड़ का पार्श्व संगीत बजता रहता है, वही संगीत इस शानदार एक्सयूवी में हमारा सहगामी बना हुआ था। लेकिन हमारा पथ-प्रदर्शक एक गुजराती युवा था जो हमसे अधिक वाचाल, सभ्य तथा उत्सवधर्मी था इसलिए पूरे रास्ते उसने कभी किशोर कुमार के गीतों से तो कभी उस घने जंगल के किस्सों से मन बहलाए रखा।
पाठक जी थोड़े अंतर्मुखी हैं, वे कम बोलते हैं किंतु चिड़चिड़े अभिभावकों की तरह मनोरंजन में व्यवधान उत्पन्न नहीं करते। उल्टे हर गतिविधि में अपने मौन के साथ उपस्थित रहते हैं।
यूँ तो कुंबु-कुंबु रिज़ॉर्ट पहुँचते-पहुँचते दोपहर हो गयी थी लेकिन अतीत भाई के आतिथ्य ने रास्ते भर इतनी आवभगत की थी कि भूख लगभग नदारद थी। लेकिन रसोई में सामर्थ्य हो तो वह अफारे में भी भूख जगा दे। यही हमारे साथ उस दिन हुआ। उस घने जंगल में जहाँ ध्यान भटकाने के लिए मोबाइल नेटवर्क नहीं था, वहाँ ग्रामीण आभा से सुसज्जित उस प्रांगण में ज्यों ही हम खाट पर पसरे, हमारे सामने छाछ के गिलास अवतरित हो गए। सफ़र की थकान में जी भर-भर छाछ गटकने के बाद हम बहुत दिन बाद मोबाइलहीन होकर मनुष्यों से बात कर पा रहे थे।


सुकून के पल

जंगल की दोपहरी, रिजॉर्ट का खुला आंगन, घने वृक्षों की छाँव में बिछी हुई खाटें, दो पेड़ों के तनों से बंधा हुआ आराम झूला और इस माहौल को भोगते हुए हम। दस मिनिट में ही खाना लगा दिया गया। पेट भरा होने के बावजूद इस निर्जन में ऐसी व्यवस्था करने वाले का अनुरोध टाला न जा सका। अचार से लेकर तरकारी तक, सबमें से थोड़ा-थोड़ा थाली में सजाया तो छप्पन भोग जैसा महसूस होने लगा। ‘जंगल में मंगल’ की अवधारणा का कुछ-कुछ अर्थ हमें समझ आ रहा था।
थकान, माहौल और अन्न ग्रहण के उपरांत पलकों ने झपकने की तैयारी कर ली। लेकिन हमारे होस्ट ने शायद हमारे आलस्य की सुपारी ले रखी थी। ज्यों ही हमने सुस्ताने की बात कही, वह बोल उठा कि एक बार रूफिजी का पानी देख लो, फिर सो लेना।

नदी तट का एक मनोरम दृश्य

रूफिजी एक भव्य नदी है, जिसके किनारे यह रिज़ॉर्ट बना हुआ है। यह नदी सेल्यूस के बीच से बहती है। इसमें घड़ियालों और मगरमच्छों के झुंड आसानी से दिखाई दे जाते हैं। हम खाट से उठकर सौ क़दम ही चले होंगे कि हमें इस विशालकाय नदी के दर्शन हुए। प्रकृति को उसका अपना माहौल मिल जाए तो वह कितनी विराट हो जाती है, इस बात का अनुमान हमें नदी के तट पर खड़े होकर हुआ।

क्षितिज सिमट आया कैमरे में

कुछ देर इस नदी के सौंदर्य को निहारने के बाद हम अंततः रिज़ॉर्ट में बने कमरों में आकर पसर ही गए। एकाध घण्टे की नींद; जिसे बेहोशी कहना अधिक समीचीन है; उससे ऊर्जा एकत्रित करके हमने चाय का एक सत्र चलाया। चाय पीते-पीते हमें बताया गया कि अब हम इससे भी ज़्यादा ख़ूबसूरत अनुभव से गुज़रने वाले हैं। हम शहरी लोगों के लिए यही स्थान कुंजवन सरीखा आनन्द उपलब्ध करा रहा था, अब इससे अधिक क्या होगा... यह हमारी समझ से परे था।
शाम हो रही थी... हम चाय की चुस्कियाँ लेते हुए कल्पना कर रहे थे कि अब आगे क्या होगा। उधर रिज़ॉर्ट के कर्मचारियों ने काफ़ी सारा सामान नदी तट पर रखी नाव में जमाना शुरू कर दिया। चाय समाप्त होते ही हमें भी एक दूसरी नाव में सवार कर दिया गया। यह नाव एक जानदार मोटरबोट थी, एक नाव में ढेर सारा सामान एक निश्चित दिशा में चल रहा था और दूसरी नाव में हमारा होस्ट हमें रूफिजी की लहरों पर रोमांच करा रहा था।
घड़ियालों से भरी नदी में सूर्य अस्त होने जा रहा था। हल्के बादलोंवाले आकाश में प्रदूषण से मुक्त संध्या अनगिनत रंग बिखेरकर जो दृश्य उत्पन्न करती है उसी के लिए ‘वर्णनातीत’ शब्द की सर्जना हुई होगी। रूफिजी का पाट इतना चौड़ा है कि एकबारगी समुद्र का भ्रम होने लगता है। हमारी मोटरबोट पूरी गति से डूबते हुए सूर्य की दिशा में दौड़ रही थी। पीछे नदी की लहरें मोटरबोट के वेग से एक विशेष आकार बनाते हुए नृत्य कर रही थीं। मोटरबोट पूरे उत्साह में भरकर डूबते सूरज को छू लेने को तत्पर थी और नदी उस तुच्छ मशीन का हाथ पकड़कर उसे रोक लेने को आतुर थीं। हम लहरों पर सवार थे, आँखों में प्रकृति का अनुपम सौंदर्य चमक रहा था, आगे का कार्यक्रम पता नहीं था इसलिए कहीं पहुँचने की जल्दी भी नहीं थी। जब तक सूर्य अस्त न हो गया तब तक हम इसी आनन्द में मग्न रहे। हमारा मोबाइल केवल कैमरा हो गया था।
इधर अंधेरा उजाले पर हावी होने लगा, और उधर हमारा केवट हमें रिज़ॉर्ट ले जाने की बजाय नदी के बीच उग आए एक रेतीले टापू पर ले आया। हम पहली बार इस तरह के टापू पर आए थे इसलिए टापू पर चढ़ने में हम दोनों को ख़ासी मशक्कत करनी पड़ी।
रात हो रही थी और हम निर्जन वन के बीच विशाल नदी पर बने एक टापू पर कुर्सी लगाकर बैठे थे। हमारे पैरों के नीचे हाल ही में बने किसी मगरमच्छ के पंजों के निशान थे। नदी में घड़ियालों की आँखें चमक रही थीं। पानी की गति का जो संगीत होता है, उसकी लय पर पूरा वातावरण अस्ताचल से निकलती धीमी रौशनी में नृत्य कर रहा था।
दूसरी नाव में लादकर टापू पर एक लाइव तंदूर (जिसे आजकल बारबिक्युनेशन बोलते हैं) लाया गया था। शाकाहारी स्नेक्स की दर्जनों वैरायटी के साथ सोमरस की भी व्यवस्था की गई थी। हमें बताया गया कि नॉनवेज खानेवालों के लिए नॉनवेज भी बनवाया जाता है। इसलिए हम दोनों के शाकाहारी होने की बात सुनकर हमारा होस्ट काफी निराश था।
बहरहाल, रात का सन्नाटा। और यह सन्नाटा आपकी कल्पना में उतरे किसी भी सन्नाटे से ज़्यादा रोमांचक था। छोटा सा रेत का द्वीप, उसके चारों ओर पूरे वेग से बहती नदी, नदी के चारों ओर अफ्रीका का घना जंगल, नदी के पानी में चमकतीं मगरमच्छ की आँखें, जंगल से आती शेर की आवाज़, चांदनी रात, तारों से भरा आकाश, सामने रखे तंदूरी आलू, हाथ में जाम और बराबर की कुर्सी ओर रखे सारेगामापा कारवां में किशोर दा का गीत- ये शाम मस्तानी...!
अगली सुबह खुली जीप में हम गेम रिज़र्व में दाखि़ल हुए। हमारा राइडर देव एक अफ्रीकी लड़का था, लेकिन उसका स्वभाव बेहद शालीन था। अंग्रेजी उसे समझ आती थी सो संवाद में कोई ख़ास समस्या नहीं हो रही थी। प्रवेश करते ही इम्पाला हिरणों का एक झुंड चौकड़ी भरते हुए हमारे सामने से गुज़रा। उसके बाद जिराफ़, ज़ेब्रा, जंगली सूअर, जंगली भैंसे, साँप, दरियाई घोड़े, सांभर, बंदर, लंगूर और मगरमच्छ देखते हुए तीन घण्टे का समय बीत गया। देव, मुख्य सड़क पर चल ही नहीं रहा था। ऊबड़-खाबड़ धरती पर उसकी लैंड-क्रूज़र शेर की तलाश में झाड़ियों को रौंदती हुई बढ़ रही थी। अचानक देव ने अपनी भाषा में कुछ कहा। उसके चेहरे की रंगत और आँखों की चमक बता रही थी कि हमारी तलाश ख़त्म होने को है। उसने एक छोटे से टीले के ऊपर गाड़ी चढ़ा दी। टीले के ऊपर एक पेड़ था, जिसकी छाया में पाँच शेरनियाँ आराम फरमा रही थीं। देव ने उनसे लगभग तीन फीट दूर गाड़ी रोक दी। अरुण जी और मैं इस खूबसूरत ख़तरे को निहारते रहे। हमने खूब फ़ोटो खींची। शेरनियों के साथ पोज़ बनाकर सेल्फियाँ भी लीं। ऐसा लगा मानो कोई संकल्प पूरा हो गया हो।
शेरनियाँ सुस्ती में सोती रहीं और हम आगे बढ़ गए। थोड़ी दूर पर हमें हाथियों का एक झुंड मिला। यह भी हमसे 10 फीट से ज़्यादा दूर नहीं था। गर्मी से मुक्ति पाने को हाथी अपने ऊपर पानी डालते रहे और हम आराम से उनकी वीडियो बनाते रहे। इसके बाद हमने एक ऐसी जगह पर खाना खाया जहाँ चारों ओर जिराफ़ ही जिराफ़ थे।
सुकून, रोमांच और आंनद जैसे शब्दों के सही मआनी क्या होते हैं; यह बताने में शायद मैं अभी पूरी तरह सफल न होऊँ, लेकिन जब कभी इन शब्दों के बारे में सोचता हूँ तो मेरी कल्पना रूफिजी के बीच बने उस रेतीले टापू पर पहुँचकर घने अंधेरे में गुम हो जाती है।

© चिराग़ जैन

Wednesday, August 18, 2021

मेहंदी

सावन की हरियाली
उतर आई है
हथेलियों पर
...महकने लगा है भाग्य!

© चिराग़ जैन

Tuesday, August 17, 2021

वर्तमान गवाह है...

जिन्होंने यह कहना शुरू किया कि इस्लाम ख़तरे में है, उन्हीं के नुमाइंदों ने अफगानिस्तान पर जबरन कब्ज़ा कर लिया। यूएनओ में स्थायी सदस्यता की डींगें हाँकनेवाले देशों के लिए यह शर्मिंदगी भरी लानत है। सबसे उम्दा हथियार बनानेवाले देशों के लिए यह डूब मरने की बात है। मानवाधिकार के नाम पर अन्य देशों की निजता में हस्तक्षेप करनेवाले चौधरियों के लिए यह निर्वस्त्र होने जैसा अनुभव है।
धार्मिक कट्टरता की ओट में सत्ता की गलियाँ तलाश रही बर्बरता का घिनौना चेहरा तालिबान की हरक़तों में साफ दिखाई दे रहा है। कट्टरता के खोल में छिपे ये लिजलिजे कीड़े अपने खोल की मज़बूती को लेकर इतने आश्वस्त हैं कि अब ये पूरी मनुष्यता को चाटने की तैयारी में जुट गए हैं।
चूँकि वैचारिक स्तर पर विकसित होती मानवता इनके खोल के लिए सर्वाधिक हानिकारक है, इसलिए ज्यों ही कोई व्यक्ति इन्हें सोच के स्तर पर विकास करता दीख पड़ता है, ये तुरन्त बर्बर हो जाते हैं। मुस्कुराहट और ठहाके इनके आतंक पर सबसे बड़ा आघात हैं, इसलिए हँसानेवाले लोगों के विरुद्ध ये धर्म और संस्कृति के अपमान की निराधार दलीलें परोसने लगते हैं। उत्सव मनाते हुए लोग इन्हें अपने दहशती सम्मोहन से छूटते हुए प्रतीत होते हैं इसलिए उत्सवों की हत्या के लिए ये बम फोड़ने लगते हैं। ज्यों ही मनुष्यता को यह एहसास होने लगता है कि वह इक्कीसवीं सदी में खड़ी है, ये तुरन्त उसे घसीटकर सोलहवीं शताब्दी में ले जाने की ज़िद्द करने लगते हैं। मनुष्यता मिल-जुलकर रहना चाहती है और बर्बरता उसे अलग-थलग कबीलों में बाँटने के लिए जी-जान लगाए बैठी है। लकड़ियों के गट्ठड़ को विभाजित करके उसे आसानी से तोड़ सकने की कला में बर्बरता माहिर है।
हमने इतिहास से सबक नहीं लिया तो आज वर्तमान हमें सिखा रहा है कि धार्मिक कट्टरता की ओट में पनपा एक तालिबान पूरी दुनिया के बड़े-बड़े धुरंधरों की नपुंसकता पर से पर्दा हटा चुका है। यदि पूरी दुनिया के सारे देश मिलकर इस एक कबीले की जकड़ से अफगानिस्तान को मुक्त नहीं करा सकते तो कम से कम इतना तो अवश्य करें कि अपने समाज को कट्टरता के दंश से मुक्त कराने के प्रयास तुरन्त प्रारम्भ कर दें ताकि इस तालिबानी फफूंद को अपने पैर पसारने का वातावरण न मिल सके।
और हाँ, गहरी श्वास लेकर सोचोगे तो समझ आएगा कि किसी भी धर्म को सबसे ज़्यादा नुक़सान उन्हीं लोगों से होता है जो उस धर्म के अनुयाइयों में यह बात प्रचारित करते हैं कि तुम्हारा धर्म ख़तरे में है।

© चिराग़ जैन