गत दो दशक से मेरी लेखनी विविध विधाओं में सृजन कर रही है। अपने लिखे को व्यवस्थित रूप से सहेजने की बेचैनी ही इस ब्लाॅग की आधारशिला है। समसामयिक विषयों पर की गई टिप्पणी से लेकर पौराणिक संदर्भों तक की गई समस्त रचनाएँ इस ब्लाॅग पर उपलब्ध हो रही हैं। मैं अनवरत अपनी डायरियाँ खंगालते हुए इस ब्लाॅग पर अपनी प्रत्येक रचना प्रकाशित करने हेतु प्रयासरत हूँ। आपकी प्रतिक्रिया मेरा पाथेय है।
Friday, October 28, 2016
धनतेरस
सब सुख दे, सब हर्ष दे, धनतेरस का पर्व।।
Thursday, October 27, 2016
पटेल
कैसे डली उनमें नकेल ज़रा सोचिए
जोधपुर-जूनागढ़ लालच के मोहरे थे
जिन्ना की बिसात पे था खेल ज़रा सोचिए
जो निज़ाम सुब्ह-शाम डसता था उसका भी
कैसे हुआ भारत में मेल ज़रा सोचिए
ओस के कणों को जोड़ के बना दिया ये राष्ट्र
कितने महान थे पटेल ज़रा सोचिए
✍️ चिराग़ जैन
Monday, October 24, 2016
गड्ड-मड्ड
Thursday, October 20, 2016
बस यही दीवाली होती है
Wednesday, October 19, 2016
उत्सव के करवे
करवाचौथ बीत गई। उत्सव निशा के बाद की भोर बेहद उबाऊ होती है। जीवन की आपाधापी का राहु जब उत्सव के प्रकाश पुंज को ग्रसता है तो एक क्षण को स्मृति हीरे की तरह चमक उठती है लेकिन उसके बाद अंतर्मन पर एक निविड़ वीराना छा जाता है। उत्सव और दिनचर्या के संगम की कथा ऐसी ही है ज्यों अर्घ्य के करवों की कचरे के ढेर में परिवर्तित हो जाने की यात्रा। संसार के सबसे सफलतम लोग वे हुए हैं जिन्होंने एक बार उत्सव का करवा उठा लिया तो फिर अन्य तमाम अनर्गल व्यस्तताओं को कचरे की पेटी में डाल दिया और पूरा जीवन करवे के श्रृंगार में खपा डाला। एक हाथ में करवा और दूसरे हाथ में दिनचर्या साध लेने वालों को विधाता ने जनक की संज्ञा प्रदान की। अर्थात् उनके लिए कुछ भी उत्पन्न करना कठिन नहीं है। जीवन कुल कुछ दशकों का एक जीवंत चलचित्र है। जिसने इसमें अपनी भूमिकाओं के करवे सुसज्जित रखे उन्हें इतिहास की ज्यूरी ने आराध्य और पूज्यनीय बनाकर पुरस्कृत किया है। तथागत और महावीर ने एक करवा अपने भीतर स्थापित कर लिया था। उसके बाद उन्हें किसी बाहरी दिनचर्या से कोई प्रभाव नहीं पड़ा। हम लोग अपने उत्सवों के करवे सहेजने की कला से अनभिज्ञ हैं। यही कारण है कि हमारा विषाद हमें जकड कर आनंद से दूर ले जाने में सफल हो जाता है। यह समय उत्सवों का समय है। हमने इन उत्सवों को औपचारिकताओं और लेन-देन की मारामारी से दूषित कर दिया है। इस मारामारी के बाद हम थककर उत्सवों से ऊबने लगे हैं। हम उत्सवों में झूमना भूल गए हैं। उपहारों की अदला बदली को हमने उत्सव मान लिया है। आह्लाद की जगह उन्माद को हम उत्सव मान बैठे हैं। उत्सव जटिलताओं से मुक्त होकर सहज हो जाने की प्रक्रिया है। किन्तु हम सहज जीवन को कोरे दिखावे के लिए जटिल बना बैठते हैं और फिर उत्सवों को कोसते हैं। कई वर्ष हो गए। दूसरों के हिसाब से परंपराएं निभाते निभाते हमने अपने भीतर के उत्सव का दम घोंट दिया है। इस बार अनर्गल औपचारिकताओं को विस्मृत कर भीतर के आह्लाद को वरीयता देने का संकल्प लें तो संभवतः हमारे उत्सव के करवों को कचरे की पेटी न देखनी पड़े।
© चिराग़ जैन
Tuesday, October 18, 2016
करवा चौथ दाम्पत्य जीवन की कृष्णकथा का मीरा सर्ग
प्रश्न यह है कि पत्नी के भूखे रहने से पति की उम्र कैसे बढ़ सकती है! प्रतिप्रश्न यह है कि बेटे के भूखे होने पर माँ की छाती में दूध कहाँ से आ जाता है? किसी अनहोनी की सूचना मिलने से पूर्व ही मन विह्वल कैसे हो जाता है? धरती पर अगरबत्ती जलाने से परमात्मा तक संदेशा कैसे पहुँच जाता है? प्रेम देह से इतर एक अर्चना है। प्राप्ति की कामना का विदेह रूप प्रेम की ड्योढ़ी तक पहुंचता है। करवा चौथ दाम्पत्य जीवन की कृष्णकथा का मीरा सर्ग है। इस पर्व में प्रेम समर्पण की सीमाओं से पार होकर अपरता के चरम को स्पर्श करता है। चन्द्रमा को अर्घ्य देकर इस विश्वास में वृद्धि की जाती है कि यदि अधोगामी जल को यान बनाकर चन्द्रमा की शीतलता को अनुभूत किया जा सकता है तो दैहिक क्षुधा तपस्या की लेखनी से पारलौकिक संबंधों की पटकथा भी लिखी जा सकती है।
Wednesday, October 12, 2016
साँवरिया सेठ जी का धाम
Wednesday, October 5, 2016
तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला कर
षड्यंत्र जब शौर्य को लज्जित करने का कुचक्र रचता है तो उसकी ऊर्जा के सम्मुख अनर्गल प्रश्न खड़े कर देता है। सामान्यतया ऐसे कुचक्रों में उलझ कर शौर्य की साधना भंग भी हो जाती है किन्तु यदि शौर्य इन प्रश्नों की मंशा को भांप ले तो एक ही वार में लक्ष्य के साथ षड्यंत्र को भी खण्ड-खण्ड कर डालता है। ये प्रश्न ऐसे ही अनर्गल होते हैं जैसे रंगभूमि में कर्ण से उसका परिचय पूछ लिया जाए। ये ऐसे ही अन्यायी होते हैं ज्यों किसी एकलव्य से गुरुदक्षिणा का अंगूठा कटवा लिया जाए। ये इतने ही बेमानी होते हैं ज्यों हनुमान की उड़ान के मध्य कोई सुरसा मुँह फाड़ने लगे या किसी गौतम ऋषि को पारिवारिक क्लेशों में उलझा कर लोकनिंदा का पात्र बना दिया जाए। इन प्रश्नों के रचयिताओं की समाज में उतनी ही भूमिका होती है जो रामकथा के आदि में मंथरा और रामकथा के अंत में धोबी की थी। लेकिन यह सत्य है कि ये मंथरा और धोबी रामकथा की दिशा निर्धारित करने में सक्षम होते हैं। सर्जिकल स्ट्राइक पर सबूत मांगने की घटना भी इन्हीं अनर्गल प्रश्नों की श्रृंखला में समाहित है। किन्तु शौर्य के पक्ष में राष्ट्रकवि दिनकर का यह काव्यांश उद्धरणीय है:-
तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला कर
पाते हैं जग में प्रशस्ति अपना करतब दिखला कर
© चिराग़ जैन
सबूत पेश करो!
Saturday, October 1, 2016
दीवारों की आपबीती
दिन भर घर में मौन समाए
दीवारों पर क्या बीती है
छत को जाकर कौन बताए
माँ से कुछ नाराज़ी होगी
उनको सूझी चिल्लाने की
मुझे देखा तो कोशिश की
उनने थोड़ा मुस्काने की
होंठ हिले, त्यौरी भी पिघली
आँखों में आंसू भर आए
झट से अंतर्धान हुए फिर
गुस्से में हर कष्ट छुपाए
दीवारों पर क्या बीती है
छत को जाकर कौन बताए
कहने-सुनने की जल्दी में
कौन सुने बचपन के मन की
सहम गए सब फूल अचानक
मौसम में ज्वाला-सी भभकी
माँ पहले रूठी फिर रोई
गुस्से में रोटी भी पोई
छोड़ टिफिन को निकले घर से
कुछ भी बिन बोले, बिन खाए
दीवारों पर क्या बीती है
छत को जाकर कौन बताए
धीरे-धीरे ठण्डा होगा
संबंधों का ताप पता है
वरदानों से धुल जाएगा
जीवन का अभिशाप पता है
ऐसा ना हो इस घटना की
बचपन को आदत पड़ जाए
ऐसा ना हो ऐसी घटना
बचपन के मन पर छप जाए
दीवारों पर क्या बीती है
छत को जाकर कौन बताए
© चिराग़ जैन