Friday, October 28, 2016

धनतेरस

स्वास्थ्य बढ़े, वैभव बढ़े, बढ़े सम्पदा सर्व।
सब सुख दे, सब हर्ष दे, धनतेरस का पर्व।।

Thursday, October 27, 2016

पटेल

पाँच सौ छियासठ स्वच्छंद रजवाड़े थे जो
कैसे डली उनमें नकेल ज़रा सोचिए
जोधपुर-जूनागढ़ लालच के मोहरे थे
जिन्ना की बिसात पे था खेल ज़रा सोचिए
जो निज़ाम सुब्ह-शाम डसता था उसका भी
कैसे हुआ भारत में मेल ज़रा सोचिए
ओस के कणों को जोड़ के बना दिया ये राष्ट्र
कितने महान थे पटेल ज़रा सोचिए

✍️ चिराग़ जैन

Monday, October 24, 2016

गड्ड-मड्ड

सारी कहानियाँ आपस में गड्ड-मड्ड हो गई हैं। कुरुक्षेत्र में सेनाएँ घुमड़ आई हैं और अर्जुन, कौरव दल से युद्ध करने की बजाय पांडवों को कुहनी मारकर गिराना चाह रहे हैं। अभिमन्यु द्रोण द्वारा रचे गए चक्रव्यूह में प्रवेश करने को उद्धृत थे तभी भीम और युधिष्ठिर ने उसे अड़ंगी देकर धराशायी कर दिया। मंथरा ने केकैयी के कान भरने की बजाय सीधे दशरथ के कान में घर किया है। धृतराष्ट्र पाण्डु के कंधे पर हाथ रखकर दुर्योधन को धमका रहे हैं कि हम पाण्डु को नहीं छोड़ सकते। कुम्भकर्ण नींद से उठते ही मेघनाद से मिलने गए और रावण के खिलाफ पार्टी बनाने का प्रस्ताव रखा। सीता अशोक वाटिका में बैठी रावण और मेघनाद युद्ध का हाल त्रिजटा से सुन रही है। अश्वत्थामा विदुर के घर पर खाट बिछाए सरसों के साग में पतंजलि का घी डाल कर सुपड़ रहे हैं। कृष्ण अपनी गीता लिए कर्ण के रथ पर बैठे हैं कि अर्जुन, अपने चारों भाइयों से लड़ कर लौटे तो उसे भगवद्गीता की सीडी भेंट कर अपने घर लौटें। द्रौपदी ने उत्तर को पतंजलि केश कांति तेल लाने भेज दिया है क्योंकि उसे पता है कि भीम दुःशासन की छाती का लहू नहीं ला पाएगा।कृपाचार्य मंथरा के गले में हाथ डालकर रामपुर के थियेटर में बैठे संजय से पांडव संग्राम का आँखों देखा हाल सुन रहे हैं। शकुनि आँखों पर काला चश्मा लगाए केकैयी के साथ दशरथ और धृतराष्ट्र पर हँस रहे हैं। गांधारी कृष्ण से पूछ रही हैं कि पाण्डवों के अंत के बाद वे उनके साथ मिलकर इंद्रप्रस्थ को बाँट खाने को राजी हैं या नहीं। और यक्ष युधिष्ठिर के गाल पर चपत लगाकर पूछरहे हैं- "क्यों बे, आपस में ही लड़ना था तो कुरुक्षेत्र का मैदान क्यों बुक कराया था?

© चिराग़ जैन

Thursday, October 20, 2016

बस यही दीवाली होती है

कुछ नन्हे दीपक लड़ते हैं, मावस के गहन अंधेरे से 
कुछ किरणें लोहा लेती हैं, तम के इक अनहद घेरे से 
काले अम्बर पर होती है, आशाओं की आतिशबाज़ी 
उत्सव में परिणत होती है, हर सन्नाटे की लफ़्फ़ाज़ी 
उजियारे के मस्तक पर जब, सिन्दूरी लाली होती है 
उस घड़ी ज़माना कहता है, बस यही दीवाली होती है 

घर की लक्ष्मी इक थाली में, उजियारा लेकर चलती है 
हर कोने, देहरी, चौखट को, इक दीपक देकर चलती है 
दीवारें नए वसन धारें, तोरण पर वंदनवार सजें 
आंगन में रंगोली उभरे, और सरस डाल से द्वार सजें 
कच्ची पाली के जिम्मे आँखो की रखवाली होती है 
उस घड़ी ज़माना कहता है, बस यही दीवाली होती है 

© चिराग़ जैन

Wednesday, October 19, 2016

उत्सव के करवे

करवाचौथ बीत गई। उत्सव निशा के बाद की भोर बेहद उबाऊ होती है। जीवन की आपाधापी का राहु जब उत्सव के प्रकाश पुंज को ग्रसता है तो एक क्षण को स्मृति हीरे की तरह चमक उठती है लेकिन उसके बाद अंतर्मन पर एक निविड़ वीराना छा जाता है। उत्सव और दिनचर्या के संगम की कथा ऐसी ही है ज्यों अर्घ्य के करवों की कचरे के ढेर में परिवर्तित हो जाने की यात्रा।  संसार के सबसे सफलतम लोग वे हुए हैं जिन्होंने एक बार उत्सव का करवा उठा लिया तो फिर अन्य तमाम अनर्गल व्यस्तताओं को कचरे की पेटी में डाल दिया और पूरा जीवन करवे के श्रृंगार में खपा डाला।  एक हाथ में करवा और दूसरे हाथ में दिनचर्या साध लेने वालों को विधाता ने जनक की संज्ञा प्रदान की। अर्थात् उनके लिए कुछ भी उत्पन्न करना कठिन नहीं है। जीवन कुल कुछ दशकों का एक जीवंत चलचित्र है। जिसने इसमें अपनी भूमिकाओं के करवे सुसज्जित रखे उन्हें इतिहास की ज्यूरी ने आराध्य और पूज्यनीय बनाकर पुरस्कृत किया है। तथागत और महावीर ने एक करवा अपने भीतर स्थापित कर लिया था। उसके बाद उन्हें किसी बाहरी दिनचर्या से कोई प्रभाव नहीं पड़ा। हम लोग अपने उत्सवों के करवे सहेजने की कला से अनभिज्ञ हैं। यही कारण है कि हमारा विषाद हमें जकड कर आनंद से दूर ले जाने में सफल हो जाता है। यह समय उत्सवों का समय है। हमने इन उत्सवों को औपचारिकताओं और लेन-देन की मारामारी से दूषित कर दिया है। इस मारामारी के बाद हम थककर उत्सवों से ऊबने लगे हैं। हम उत्सवों में झूमना भूल गए हैं। उपहारों की अदला बदली को हमने उत्सव मान लिया है।  आह्लाद की जगह उन्माद को हम उत्सव मान बैठे हैं। उत्सव जटिलताओं से मुक्त होकर सहज हो जाने की प्रक्रिया है। किन्तु हम सहज जीवन को कोरे दिखावे के लिए जटिल बना बैठते हैं और फिर उत्सवों को कोसते हैं। कई वर्ष हो गए। दूसरों के हिसाब से परंपराएं निभाते निभाते हमने अपने भीतर के उत्सव का दम घोंट दिया है। इस बार अनर्गल औपचारिकताओं को विस्मृत कर भीतर के आह्लाद को वरीयता देने का संकल्प लें तो संभवतः हमारे उत्सव के करवों को कचरे की पेटी न देखनी पड़े।  

© चिराग़ जैन

Tuesday, October 18, 2016

करवा चौथ दाम्पत्य जीवन की कृष्णकथा का मीरा सर्ग

प्रश्न यह है कि पत्नी के भूखे रहने से पति की उम्र कैसे बढ़ सकती है! प्रतिप्रश्न यह है कि बेटे के भूखे होने पर माँ की छाती में दूध कहाँ से आ जाता है? किसी अनहोनी की सूचना मिलने से पूर्व ही मन विह्वल कैसे हो जाता है? धरती पर अगरबत्ती जलाने से परमात्मा तक संदेशा कैसे पहुँच जाता है? प्रेम देह से इतर एक अर्चना है। प्राप्ति की कामना का विदेह रूप प्रेम की ड्योढ़ी तक पहुंचता है। करवा चौथ दाम्पत्य जीवन की कृष्णकथा का मीरा सर्ग है। इस पर्व में प्रेम समर्पण की सीमाओं से पार होकर अपरता के चरम को स्पर्श करता है।  चन्द्रमा को अर्घ्य देकर इस विश्वास में वृद्धि की जाती है कि यदि अधोगामी जल को यान बनाकर चन्द्रमा की शीतलता को अनुभूत किया जा सकता है तो दैहिक क्षुधा तपस्या की लेखनी से पारलौकिक संबंधों की पटकथा भी लिखी जा सकती है। 

Wednesday, October 12, 2016

साँवरिया सेठ जी का धाम

पूजन की थाली में सँवरने की होड़ हो तो 
गुलमोहरों से दूब घास जीत जाती है 
मन की उमंग का हो सामना अभाव से तो 
भीतर संजो के मधुमास, जीत जाती है 
मीरा की दीवानगी पे धन पानी भरता है 
साँवरे के दर्शनों की प्यास जीत जाती है 
साँवरिया सेठ जी का धाम बनने लगे तो 
जमुना के तीर से बनास जीत जाती है 

© चिराग़ जैन

Wednesday, October 5, 2016

तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला कर

षड्यंत्र जब शौर्य को लज्जित करने का कुचक्र रचता है तो उसकी ऊर्जा के सम्मुख अनर्गल प्रश्न खड़े कर देता है। सामान्यतया ऐसे कुचक्रों में उलझ कर शौर्य की साधना भंग भी हो जाती है किन्तु यदि शौर्य इन प्रश्नों की मंशा को भांप ले तो एक ही वार में लक्ष्य के साथ षड्यंत्र को भी खण्ड-खण्ड कर डालता है। ये प्रश्न ऐसे ही अनर्गल होते हैं जैसे रंगभूमि में कर्ण से उसका परिचय पूछ लिया जाए। ये ऐसे ही अन्यायी होते हैं ज्यों किसी एकलव्य से गुरुदक्षिणा का अंगूठा कटवा लिया जाए। ये इतने ही बेमानी होते हैं ज्यों हनुमान की उड़ान के मध्य कोई सुरसा मुँह फाड़ने लगे या किसी गौतम ऋषि को पारिवारिक क्लेशों में उलझा कर लोकनिंदा का पात्र बना दिया जाए। इन प्रश्नों के रचयिताओं की समाज में उतनी ही भूमिका होती है जो रामकथा के आदि में मंथरा और रामकथा के अंत में धोबी की थी। लेकिन यह सत्य है कि ये मंथरा और धोबी रामकथा की दिशा निर्धारित करने में सक्षम होते हैं। सर्जिकल स्ट्राइक पर सबूत मांगने की घटना भी इन्हीं अनर्गल प्रश्नों की श्रृंखला में समाहित है। किन्तु शौर्य के पक्ष में राष्ट्रकवि दिनकर का यह काव्यांश उद्धरणीय है:-  

तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला कर 

पाते हैं जग में प्रशस्ति अपना करतब दिखला कर  

© चिराग़ जैन

सबूत पेश करो!

मुल्ला नसीरुद्दीन ने पूरे कॉमिक जगत का सुकून छीन रखा था। वह जब-तब उनके घर में घुसकर दंगा करता और पूरी दुनिया की नज़र में शरीफ बनकर अपनी कोठरी में जा छुपता। एक रात, अँधेरे में कोई आया और मुल्ला नसीरुद्दीन के कान पर ज़ोरदार झापड़ चिपका गया। मुल्ला सारी रात गाल सहलाता हुआ सोचता रहा कि हमलावर उस तक पहुँचा कैसे!

सुबह लोगों ने मुल्ला से पूछा - "क्यों मुल्ला गाल कैसे सूज गया?"

मुल्ला खिसिया कर बोला - "क क कुछ नहीं, मच्छर काट गया।"

सुनकर पास खड़े चाचा चौधरी की हँसी छूट गई। वे शरारती लहजे में मुल्ला से बोले - "मच्छर को क्यों इल्ज़ाम दे रहे हो, साफ़-साफ़ बताओ शेर ने पंजा मारा है।"

मुल्ला समझ गया कि रात के अँधेरे में जो शेर आया था उसके नाख़ून चाचा चौधरी ने ही तराशे थे। झेंप मिटाते हुए मुल्ला बोला - "ऐसा कक.. कुछ नहीं है। ये चौधरी झूठ बोल रिया है, शेर ने पंजा मारा है तो शेर ये बात साबित करे।"

मुल्ला की खिसियाई हालत पर चाचा चौधरी भीतर ही भीतर हँसते रहे। शेर तो सबूत लेकर नहीं आया लेकिन मुल्ला पूरे गाँव में बताता फिर रहा है कि शेर ने पंजा मारा होता तो सबूत लेकर ज़रूर आता।

उधर बिल्लू, मोटू-पतलू, पिंकी, घसीटाराम ये सोच कर हैरान हैं कि हमारे बिना मतलब के सवालों से चाचा चौधरी को इतना वक़्त कैसे मिल गया कि वे मुल्ला को उसके घर में जाकर धुन आए। हाल ही में घसीटाराम ने चाचा को नीचा दिखाने के लिए मुल्ला के सुर में सुर मिलाया है - "यदि शेर ने पंजा मारा है तो चाचा चौधरी उससे आक्रमण के सबूत पेश करने को क्यों नहीं बोलते!" 

* इस कहानी के सभी पात्र काल्पनिक हैं। इनका किसी भी सर्जीकल स्ट्राइक से कोई सम्बन्ध नहीं है। 

© चिराग़ जैन

Saturday, October 1, 2016

दीवारों की आपबीती

आज पिताजी लड़कर निकले
दिन भर घर में मौन समाए
दीवारों पर क्या बीती है
छत को जाकर कौन बताए

माँ से कुछ नाराज़ी होगी
उनको सूझी चिल्लाने की
मुझे देखा तो कोशिश की
उनने थोड़ा मुस्काने की
होंठ हिले, त्यौरी भी पिघली
आँखों में आंसू भर आए
झट से अंतर्धान हुए फिर
गुस्से में हर कष्ट छुपाए
दीवारों पर क्या बीती है
छत को जाकर कौन बताए

कहने-सुनने की जल्दी में
कौन सुने बचपन के मन की
सहम गए सब फूल अचानक
मौसम में ज्वाला-सी भभकी
माँ पहले रूठी फिर रोई
गुस्से में रोटी भी पोई
छोड़ टिफिन को निकले घर से
कुछ भी बिन बोले, बिन खाए
दीवारों पर क्या बीती है
छत को जाकर कौन बताए

धीरे-धीरे ठण्डा होगा
संबंधों का ताप पता है
वरदानों से धुल जाएगा
जीवन का अभिशाप पता है
ऐसा ना हो इस घटना की
बचपन को आदत पड़ जाए
ऐसा ना हो ऐसी घटना
बचपन के मन पर छप जाए
दीवारों पर क्या बीती है
छत को जाकर कौन बताए

© चिराग़ जैन