करवाचौथ बीत गई। उत्सव निशा के बाद की भोर बेहद उबाऊ होती है। जीवन की आपाधापी का राहु जब उत्सव के प्रकाश पुंज को ग्रसता है तो एक क्षण को स्मृति हीरे की तरह चमक उठती है लेकिन उसके बाद अंतर्मन पर एक निविड़ वीराना छा जाता है। उत्सव और दिनचर्या के संगम की कथा ऐसी ही है ज्यों अर्घ्य के करवों की कचरे के ढेर में परिवर्तित हो जाने की यात्रा। संसार के सबसे सफलतम लोग वे हुए हैं जिन्होंने एक बार उत्सव का करवा उठा लिया तो फिर अन्य तमाम अनर्गल व्यस्तताओं को कचरे की पेटी में डाल दिया और पूरा जीवन करवे के श्रृंगार में खपा डाला। एक हाथ में करवा और दूसरे हाथ में दिनचर्या साध लेने वालों को विधाता ने जनक की संज्ञा प्रदान की। अर्थात् उनके लिए कुछ भी उत्पन्न करना कठिन नहीं है। जीवन कुल कुछ दशकों का एक जीवंत चलचित्र है। जिसने इसमें अपनी भूमिकाओं के करवे सुसज्जित रखे उन्हें इतिहास की ज्यूरी ने आराध्य और पूज्यनीय बनाकर पुरस्कृत किया है। तथागत और महावीर ने एक करवा अपने भीतर स्थापित कर लिया था। उसके बाद उन्हें किसी बाहरी दिनचर्या से कोई प्रभाव नहीं पड़ा। हम लोग अपने उत्सवों के करवे सहेजने की कला से अनभिज्ञ हैं। यही कारण है कि हमारा विषाद हमें जकड कर आनंद से दूर ले जाने में सफल हो जाता है। यह समय उत्सवों का समय है। हमने इन उत्सवों को औपचारिकताओं और लेन-देन की मारामारी से दूषित कर दिया है। इस मारामारी के बाद हम थककर उत्सवों से ऊबने लगे हैं। हम उत्सवों में झूमना भूल गए हैं। उपहारों की अदला बदली को हमने उत्सव मान लिया है। आह्लाद की जगह उन्माद को हम उत्सव मान बैठे हैं। उत्सव जटिलताओं से मुक्त होकर सहज हो जाने की प्रक्रिया है। किन्तु हम सहज जीवन को कोरे दिखावे के लिए जटिल बना बैठते हैं और फिर उत्सवों को कोसते हैं। कई वर्ष हो गए। दूसरों के हिसाब से परंपराएं निभाते निभाते हमने अपने भीतर के उत्सव का दम घोंट दिया है। इस बार अनर्गल औपचारिकताओं को विस्मृत कर भीतर के आह्लाद को वरीयता देने का संकल्प लें तो संभवतः हमारे उत्सव के करवों को कचरे की पेटी न देखनी पड़े।
© चिराग़ जैन
No comments:
Post a Comment