सोशल मीडिया पर एक पार्टी विशेष के नेताजी पर कोई टिप्पणी की जाए अथवा कोई प्रश्न पूछा जाए तो यकायक कमेंट बॉक्स गालियों से भरने लगता है। इन गालीबाज़ों की प्रोफाइल देखें तो अधिकतर ने अपनी प्रोफाइल पर किसी धर्मविशेष अथवा दलविशेष के समर्थन की घोषणा कर रखी होती है।
इस घोषणा के तमगे से सजी प्रोफ़ाइलधारी जब अश्लील, भद्दी और असंसदीय भाषा का प्रयोग करते हैं, तो उससे उस धर्म अथवा दल की छवि पर क्या प्रभाव पड़ेगा -इस विषय पर कोई इसलिए नहीं बोलना चाहता क्योंकि राजनीति को यह बात समझ आ गई है कि इस देश से लोकतंत्र का दौर समाप्त होने जा रहा है और ‘बाहुबल’ के आधार पर वह तानाशाही व्याप्त हो रही ह,ै जिसे सभ्य भाषा में गुंडागर्दी कहा जाता है। और गुंडागर्दी के लिए लोकतांत्रिक मूल्यों का सम्मान करनेवाले सभ्य नागरिकों की नहीं, बल्कि अराजक, असभ्य और बर्बर मवालियों की आवश्यकता होती है।
मुम्बई में व्यंग्य-चित्र फॉरवर्ड करने पर एक दल विशेष के कार्यकर्ताओं द्वारा एक वरिष्ठ नागरिक की पिटाई की घटना उसी विषबेल का पहला फल है जो पूरे देश में एक राष्ट्रीय पार्टी ने अब तक बोई है। भीड़ की आड़ में निजी दुश्मनी निकालने की परंपरा, मॉब लिंचिंग की गलियों से गुज़रते हुए अब सरेआम गुंडागर्दी की शक्ल ले चुकी है।
कंगना रनौत के मुद्दे पर केंद्र सरकार और राज्य सरकार की राजनैतिक तनातनी का विकृततम रूप यह है कि एक राजनैतिक दल अपने मुखपत्र में साफ़-साफ़ लिखता है कि कंगना रनौत ने पानी में रहकर मगरमच्छ से वैर किया है।
उफ़्फ़! क्या यही लोकतंत्र की भाषा है। समाचार पत्र के माध्यम से सरेआम धमकी देने के लिए क्या कोई क़ानूनी कार्रवाई नहीं की जाएगी। हम रिया, कंगना, सुशांत के कंधे पर रखी राजनैतिक बंदूकों के डिजाइन पर मुग्ध होकर यह क्यों नहीं देख पा रहे हैं कि सिस्टम की विफलताओं का लाभ उठाकर इन राजनैतिक बंदूकों से लोकतंत्र की हत्या की जा रही है।
भाजपा, शिवसेना, कांग्रेस, टीएमसी, जद ...ये सब वेदियाँ तभी तक पूज्य हैं जब तक लोकतंत्र का मंदिर सलामत रह सकेगा। हम किसी भी राजनैतिक विचारधारा से प्रभावित हों, लेकिन लोकतंत्र की जड़ों में मट्ठा डालनेवालों का विरोध करते समय उस विचारधारा के परिचय पत्र का बचाव नहीं करना चाहिए।
भारत की मूल प्रवृत्ति लोकतंत्रात्मक है। यदि लोकतंत्र ध्वस्त हुआ तो कुछ न बच सकेगा। सत्ता का विरोध करनेवालों पर अचानक भिन्न-भिन्न धाराएँ लगने लगती हैं। क्यों भई! इस देश के सिस्टम को शर्म से मर नहीं जाना चाहिए कि मुंबई जैसे शहर में कंगना रनौत जैसी प्रसिद्ध हस्ती ने ग़ैरकानूनी निर्माण कर रखा था और उस पर एक्शन तब हुआ जब उसने सत्ता का विरोध किया। क्या हमारी एजेंसियों को अपने नाकारापन पर शर्म नहीं आनी चाहिए कि मुंबई फ़िल्म उद्योग से जुड़े लोग ड्रग्स का सेवन करते हैं और उसकी खुशबू तक एजेंसियों को तब तक नहीं आती जब तक रिया चक्रवर्ती को गिरफ़्तार करने के बाकी सब रास्ते बंद नहीं हो गए।
शर्मनाक स्थिति तक आ चुका है हमारा सिस्टम और वधस्थल में लाकर बांध दिया गया है हमारा लोकतंत्र। अपनी-अपनी राजनैतिक निष्ठाएँ त्यागकर यदि लोकतंत्र के पक्ष में चेतना नहीं आई तो हमारे महान देश के भविष्य पर गहरा अंधकार पसर जाएगा।
© चिराग़ जैन
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