Monday, September 14, 2020

भाषा : सिनेमा से समाज तक

हिन्दी सिनेमा की भाषा भारतीय समाज में हिंदी की यात्रा का सम्पूर्ण चित्र प्रस्तुत करने के लिये पर्याप्त है। ज्यों-ज्यों समाज की भाषा बदली त्यों-त्यों सिनेमा की भाषा भी बदलती गयी।
प्रारंभिक हिंदी फिल्मों में एक ओर उर्दू शब्दावली की भरमार थी तो दूसरी ओर संस्कृतनिष्ठ हिंदी भी सहज स्वीकार्य होती थी। ‘ग़म दिये मुस्तक़िल’ जैसे गीत उन दिनों लोकप्रियता के प्रतिमान बन जाते थे। मजरूह का ही ‘हम हैं मताए-कूचा-ए-बाज़ार की तरह’ जैसी ख़ालिस उर्दू की ग़ज़ल भी न केवल स्वीकार्य थी बल्कि जनता के मुँह पर चढ़कर बोलती थी। उर्दूनिष्ठ हिंदी के ये उदाहरण बाद में शकील बदायूनी, साहिर लुधियानवी, हसरत जयपुरी, क़ैफ़ी आज़मी, जांनिसार अख़्तर और शहरयार से होते हुए गुलज़ार और जावेद अख़्तर के ज़माने तक ख़ूब दिखाई देते हैं। हाल ही में ‘मेरे रश्के-क़मर तूने पहली नज़र इस तरह से मिलाई मज़ा आ गया’ गीत की लोकप्रियता ने उर्दू की स्वीकार्यता पर पुनः मुहर लगाई। यह भी सत्य है कि उर्दू की गाढ़ी शब्दावली के प्रयोग में अब, पहले की अपेक्षा, क़ाफ़ी कमी आ गई है। हाँ, आम बोलचाल की उर्दू पहले भी ख़ूब प्रचलित थी और आज भी उसकी स्थिति में कोई ख़ास बदलाव देखने को नहीं मिलता।
उधर संस्कृतनिष्ठ हिंदी के उदाहरण स्वरूप भरत व्यास के गीतों ने बड़ी लक़ीर खींची। ‘हरी-भरी वसुंधरा पे नीला-नीला ये गगन’; ‘प्रणय, विरह और मिलन की कथा सुनो साथी’; ‘कल्पना के घन बरसते’ और ‘ओ पवनवेग से उड़ने वाले घोड़े’ सरीखे गीत हिंदी सिनेमा के उस दौर की पहचान बने। इंदीवर ने ‘चन्दन सा बदन, चंचल चितवन’ जैसी शब्दावली से पण्डित जी की इस परंपरा को पुष्ट किया। गोपालदास नीरज जी ने ‘मदिर’; ‘पाती’ और ‘जल’ जैसे शब्दों को गीत में पिरोकर प्रचलित कर दिया। क्लिष्ट शब्दावली के प्रयोग के और भी तमाम उदाहरण हिंदी फिल्मी गीतों में आसानी से ढूंढे जा सकते हैं। बालकवि बैरागी जी द्वारा लिखे गये गीत ‘तू चंदा मैं चांदनी’ में ‘तरुवर’ और ‘पाख’ जैसे शब्द बड़ी आसानी से प्रयुक्त हुए हैं। इससे इंगित मिलता है कि उस समय तक हमारे जन की भाषा में प्रचलन से बाहर हुए शब्दों को पुनर्जीवित करने की क्षमता थी।
इससे अलग एक धारा आमफ़हम शब्दों के दायरे से बाहर जाने से परहेज करती रही। शैलेन्द्र के गीतों में हिंदी का सर्वाधिक जनसुलभ स्वरूप प्रदर्शित होता है। वे दर्शन के गीत भी सबसे सादा शब्दावली के परकोटे से बाहर नहीं जाने देते थे। ‘आज फिर जीने की तमन्ना है, आज फिर मरने का इरादा है’; ‘वहाँ कौन है तेरा मुसाफ़िर जाएगा कहाँ’; ‘सजन रे झूठ मत बोलो, ख़ुदा के पास जाना है, न हाथी है न घोड़ा है वहाँ पैदल ही जाना है’ और ‘याद न जाए बीते दिनों की’ जैसे गीत उसी भाषा के उदाहरण हैं जो हम आज भी आम बातचीत में प्रयोग करते हैं। क़ैफ़ भोपाली, राजा मेहदी अली ख़ान, इंद्रजीत सिंह तुलसी, पण्डित नरेंद्र शर्मा, विट्ठलभाई पटेल और राजेंद्र कृष्ण जैसे रचनाकार भी लगभग इसी आम शब्दावली की परंपरा के गीतकार रहे। और यह शब्दावली ही फिल्मों में सर्वाधिक अपेक्षित भी रही, क्योंकि संस्कृतनिष्ठ हिंदी और उर्दूनिष्ठ हिंदी लिखनेवाले रचनाकारों के यहाँ भी इस शब्दावली के उदाहरण ख़ूब दिखाई देते हैं।
समय के साथ हमारी भाषा में पंजाबी के शब्दों की उपस्थिति बढ़ने लगी। ऐसे में आनन्द बख़्शी और संतोष आनन्द ने पंजाबी के शब्दों का सहजता से प्रयोग किया। ‘कुड़ी’; ‘मुंडा’ जैसे एकाध शब्द का प्रयोग बाद में इतना बढ़ा कि आनंद बख्शी ने ‘बिंदिया चमकेगी’ गीत की प्रत्येक तुकांत पंक्ति में बाक़ायदा पंजाबी का व्याकरण प्रयोग किया - ‘छत टुटदीये ते टुट जाये’।
लोकशैली के गीतों और कहीं-कहीं शुद्ध लोकगीतों को फिल्मों में प्रयोग किया गया तो अवधी, बृजभाषा, मराठी और भोजपुरी के हस्ताक्षर फिल्मी गीतों में चलने लगे। ‘चलत मुसाफ़िर मोह लिया रे’, ‘ठाड़े रहियो ओ बाँके यार रे’ और ‘कौन दिसा में ले के चला रे बटोहिया’ जैसे गीत इस धारा की गीतशैली के श्रेष्ठ उदाहरण हैं।
‘गॉड प्रॉमिस हम सच बोला है’ जैसे मुम्बइया हिंदी के भी कुछ गीत फिल्मों का हिस्सा बने। लेकिन यह प्रयोग बहुत अधिक प्रचलित न हो सका। इसी तरह दक्खिनी हिंदी का तड़का लगाकर ‘हमें काले हईं तो क्या हुआ दिलवाले हैं’ जैसे भी एकाध गीत लिखे गए; लेकिन वे भी चरित्र की मांग से अधिक अपनी स्वीकार्यता न बना सके। इसके पीछे एक कारण यह भी हो सकता है कि हिंदी फिल्मों का लक्ष्य दर्शक इस भाषा से बहुत परिचित नहीं रहा।
विशेष प्रयोग के रूप में दूसरी पीढ़ी की फिल्मों में भाषाओं के सम्मिश्रण के कुछ उदाहरण अवश्य मिलते हैं, लेकिन उनको भी परंपरा न बनाया जा सका। साहिर ने ‘न तो करवां की तलाश है’ में पंजाबी, ब्रजभाषा और उर्दू का अद्भुत समागम प्रस्तुत किया। नीरज जी ने भी ‘छुपे रुस्तम हैं ज़माने की ख़बर रखते हैं’ में अवधी का तड़का लगाकर क़व्वाली की खूबसूरती बढ़ाई। लेकिन इनकी सनद लेकर आगे के गीतकार ऐसे बहुत अधिक प्रयोग न कर सके।
फिल्मों की छठी-सातवीं पीढ़ी में अचानक अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग प्रारम्भ हुआ। यहाँ से शब्दों की तोड़-फोड़ प्रारम्भ हुई। भाषा खिचड़ी होने लगी। यह स्पष्ट रूप से कहना कठिन होगा कि यहाँ से जनता की भाषा फिल्मों ने बदली या फिल्मों की भाषा जनता ने! अंग्रेजी के मुहावरे और विशेष रूप से ‘आई लव यू’ वाक्यांश का प्रयोग गीतों में बहुतायत में होने लगा। वीनू महेंद्र ने ‘लवेरिया’ जैसा शब्द गढ़कर भी गीत लिखा, जो अपने समय मे मिसाल बन गया। आनन्द बख्शी ने भी अंग्रेजी के सहज शब्दों का प्रयोग करने के साथ-साथ कहानी की मांग पर अंग्रेजी के व्याकरण को निभाते हुए भी ‘माई नेम इज़ एंथोनी गोंसाल्विस’ जैसा गीत भी लिखा।
इसके बाद गीतों की भाषा कब हिंग्लिश हो गई, पता ही न चला। वे वर्जित शब्द जिन्हें असंसदीय या अश्लील समझा जाता था, वे भी गीतों में सम्मिलित होने लगे। हम गीत-ग़ज़ल से शुरू होकर गाली-गलौज तक को स्वीकारने लगे। यही स्थिति हमारी आम बोलचाल की भी रही। अंग्रेजी शब्दावली के बढ़ते चलन ने इस स्थिति को पुष्ट करने में महती भूमिका अदा की। एक ज़माने में ‘सेक्सी सेक्सी सेक्सी मुझे लोग बोलें’ गीत आया था तो सभ्य परिवारों में इस गीत को गुनगुनाने पर बच्चे पीट दिए जाते थे। बाद में यह सब आम हो गया। बॉलीवुड में ‘सत्यम-शिवम-सुंदरम’ और ‘राम तेरी गंगा मैली’ जैसे चित्रपट कलात्मक दृश्यों के कारण विवादित हो गए, लेकिन उनसे जन साधारण की सोच दूषित न हो सकी। लेकिन गीत और संवाद में अश्लीलता की घुसपैंठ ने आज यह स्थिति उत्पन्न कर दी है कि हमारे समाज की भाषा सभ्यता की मर्यादा लांघ चुकी है।
दृश्य सिनेमाघर के पर्दे पर छूट जाता है और भाषा लोगों की ज़ुबान पर चढ़कर समाज में छूत की तरह फैल जाती है। भाषा में वर्जित शब्दावली का सामान्य प्रयोग बढ़ने की प्रवृत्ति भाषा के लिए तो घातक है ही, समाज और संस्कृति के लिए भी विषबेल सरीखी है।
हिंदी फिल्मों की भाषा से यदि समाज की भाषा बनती है तो फिल्मों को अपनी भाषा के प्रति उत्तरदायित्व-बोध महसूस करना होगा और समाज की भाषा के आधार पर फिल्मों की भाषा तय होती है, तो हमें अपने परिवारों के भाषा-स्तर के प्रति बेहद गम्भीर होने की आवश्यकता है।

© चिराग़ जैन

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