माई लार्ड!
उत्तर प्रदेश में एक आरोपी को पुलिस के सामने जनता ने पीट-पीटकर मार डाला और आप ट्वीट पर एक रुपये का जुर्माना लगाते रह गए।
न्यायालय का सम्मान स्वयं न्यायालय के हाथ में है। न्याय व्यवस्था में जनता के निरंतर घटते विश्वास के कारण तलाशेंगे तो आप पाएंगे कि न्याय के मंदिर में लंबे समय से अपराध को सींचा जा रहा है।
बिल्डरों के हाथों ठगे गए नागरिक; घरेलू हिंसा के मुक़द्दमों में बर्बाद हो चुके परिवार; पुलिस के हाथों लूटे गए लोग; अस्पतालों के लालच तंत्र में अपनों को गँवा चुकी जनता; छेड़छाड़ की शिकायत करने से बचती बेटियाँ; नियोक्ता की ज़्यादती के विरुद्ध न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाने से कतराता मजदूर और गली के गुंडों के विरुद्ध आवाज़ उठाने से घबराता समाज अगर आज न्याय तंत्र को ढकोसला मानने लगा है तो इसके लिए माननीय न्यायालय को आत्मचिंतन करने की ज़रूरत है।
दामिनी के हत्यारों के वक़ील ने विधि की कमज़ोरियों का प्रयोग करके इस देश की न्याय व्यवस्था को स्पष्ट संदेश दिया था कि आरोप सिद्ध हो जाने के बावजूद कई साल तक अपराधी को बचाने की सुविधा न्याय व्यवस्था में उपलब्ध है।
वर्षों से लंबित पड़े भ्रष्टाचार के मुआमलों में अचानक तब आरोपी को निर्दाेष करार दिया जाता है जब वह सत्तारूढ़ पार्टी का सदस्य बनने जा रहा होता है। इस स्थिति पर हँसी नहीं आती मीलॉर्ड, दया आती है। ...न्याय व्यवस्था पर नहीं, बल्कि इस देश के भविष्य पर जिसके भाग्य में न्याय तंत्र की विफलता ने अराजक हो जाना लिख दिया है।
हैदराबाद एनकाउंटर, कानपुर एनकाउंटर और अब यह हत्या के आरोपी की मॉब लिंचिंग पूरी न्याय व्यवस्था के लिए चेतावनी है कि लंबित पड़े मुआमलात में तारीख़ की जगह फैसला देना शुरू कर दो, वरना न्याय व्यवस्था का अधिकतम समय अपने शुभचिंतकों से एक-एक रुपया बटोरने में ही व्यतीत होगा।
© चिराग़ जैन
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