जिस समस्या का कोई समाधान न हो उस समस्या को ही समाधान मान लेना चाहिए। इस महान विचार से प्रेरित होकर हम समाधान को समस्या बना देने में निष्णात हो गए।
देश को स्वतंत्रता मिली तो राजभाषा का प्रश्न उठा। प्रश्न उठते ही हमने वही किया जो हम करते आए हैं। हमने धड़ल्ले से राजभाषा के विभाग खोल दिये। थोक के भाव निदेशालय और संस्थान बनाकर हिंदी को सरकारी तंत्र में ऐसा उलझाया कि प्रश्न उठानेवालों की बोलती बंद हो गई। स्वयं हिंदी को निरीक्षणों और तिमाही रपट के ऐसे थर्ड डिग्री टॉर्चर मिलने लगे कि हिंदी आज तक उस आदमी को कोस रही है जिसने उसके उत्थान का प्रश्न उठाया था।
क्या ज़रूरत थी यह सब करने की। अच्छी-भली लोगों के मुँह पर चढ़ी थी। उसे उठाकर सरकारी दफ़्तरों में ला पटका। जब कभी हिंदी दिवस आता है या राजभाषा समिति का निरीक्षण आता है तब इसे नहला-धुलाकर पेश कर दिया जाता है और निरीक्षण सम्पन्न होते ही पुनः दफ्तर के सबसे बदबूदार कोने में पटक दिया जाता है।
यह निरीक्षण भी क़माल होता है। देश की सबसे बड़ी पंचायत से कुछ पंच दफ़्तरों का निरीक्षण करने निकलते हैं। निरीक्षण की न्यूनतम शर्त यह है कि दफ़्तर किसी रमणीक स्थल पर बना हो। क्योंकि वे जानते हैं कि जब हिंदी की फाइलों में कुछ नहीं मिलेगा तब निहारने को प्राकृतिक सौंदर्य की आवश्यकता पड़ेगी। वैसे भी जो माँ प्रकृति से दूर हो वह माँ हिंदी के क़रीब कैसे हो सकता है।
बहरहाल, निरीक्षण की सूचना मिलते ही दफ़्तर के अधिकारियों से लेकर कर्मचारी तक काम पर लग जाते हैं। मुख्यालय में नियुक्त राजभाषा अधिकारी तुरंत निरीक्षण के निशाने पर आए दफ़्तर में प्रकट हो जाते हैं। रात-दिन जागकर निरीक्षकों के लिए श्रेष्ठतम प्रवास की व्यवस्था की जाती है। मुख्यालय इस पुनीत कार्य हेतु अलग से बजट की व्यवस्था करता है। प्रत्येक निरीक्षक के लिए अलग से गाड़ी तैनात होती है। उनके पर्यटन की योजना बनाई जाती है। उनके भोजन के मेन्यू सेट किये जाते हैं। उन्हें प्रकारांतर से उपहार देने की प्लानिंग होती है। ये सब महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न होने के बाद दफ़्तर की सभी नाम-पट्टिकाएँ गर्म-गर्म देवनागरी में पकाकर परोसने की तैयारी होती है। और निरीक्षण से ठीक पहले कार्यालय में हिंदी के कामकाज की फाइलें चकाचक कर दी जाती हैं।
यद्यपि मंत्रालय के पत्र में यह स्पष्ट लिखा जाता है कि उपरोक्त व्यवस्था सम्बन्धी व्यय नहीं करना है। तथापि राजभाषा के अनुभवी अधिकारी जानते हैं कि निर्देश में लिखा गया ‘नहीं’ पढ़ने के चक्कर में नहीं पड़ना चाहिए।
निरीक्षकों का कर्मठ दल हवाई अड्डे से ही निरीक्षण प्रारम्भ कर देता है। उनके स्वागत में खड़े कर्मचारी से लेकर गाड़ी पर चिपके स्टीकरों तक हिंदी की उपस्थिति जाँची जाती है। चूँकि सब कुछ पहले से ही तय होता है अतएव कहीं कोई चूक नहीं होती। यह देखकर पहले से ही तय कार्यक्रम के अनुरूप आधे निरीक्षक प्रसन्नता प्रदर्शित करते हैं और बाक़ी के आधे थोड़े उखड़े-उखड़े बने रहते हैं। ऐसा करने से निरीक्षण का डेकोरम बना रहता है।
कार्यालय में प्रवेश करते हुए स्वागत की वेला में पूरा कार्यालय हिन्दीमय हो जाता है। सब हिंदी बोल रहे होते हैं। जहाँ न बोलना हो वहाँ भी सभी हिंदी बोल रहे होते हैं। फिनांस के नाम से बदनाम कमरा अचानक वित्त विभाग हो उठता है। परफोर्मा यकायक प्रपत्र बन जाता है। अटेंडेंस रजिस्टर पर नया आवरण चढ़ाकर उसे उपस्थिति पत्रिका बना दिया जाता है।
निरीक्षण दल जानता है कि यह कायाकल्प उनके आगमन से एकाध दिन पूर्व ही हुआ है तथापि वे कार्यालय में हिंदी की स्थिति देखकर संतुष्ट होने की भंगिमा बना लेते हैं। हिन्दीमय वातावरण में चायपान करते समय उन्हें उनके प्रवास, भोजन तथा पर्यटन के कार्यक्रमों से अवगत करा दिया जाता है। इस सूचना के प्रेषित होते ही कार्यालय की कुछ फाइलों का पूर्वनिर्धारित औचक निरीक्षण सम्पन्न कर लिया जाता है। अगली सुबह निरीक्षण की समस्त कार्यवाही समाप्त होने के बाद निरीक्षण दल प्रकृति के वैभव का निरीक्षण करने लगता है और कार्यालय अपनी स्थायी वेशभूषा में लौट आता है। हिंदी बेचारी आचरण से निकलकर पुनः फाइलों के आवरण में सिमट जाती है।
न्यायपालिका से लेकर कार्यपालिका और विधायिका तक हिंदी के लिए प्रवेश निषेध की तख़्ती हर वर्ष और पुख़्ता होती जा रही है। व्यापार में हिंदी को स्थापित करने के लिए नियुक्त लोग हिंदी का व्यापार करने में संलग्न हैं। हिंदी पखवाड़े के दौरान कार्यालय के बाहर नीले रंग का सरकारी बैनर लटक जाता है। उसके बाद पूरे वर्ष हिंदी का चेहरा उस बैनर की तरह लटका रहता है।
राजभाषा विभागों का बजट पूरे कार्यालय के बजट का सबसे तुच्छ भाग होता है। और वह भी सत्र समाप्ति के समय जबरन व्यय किया जाता है। हिंदी को राजभाषा बनाने का यह ढोंग क क्षेत्र से ग क्षेत्र तक समान रूप से चल रहा है। कार्यालयी हिंदी इतनी क्लिष्ट और अव्यवहारिक बना दी गई है कि जब कभी किसी राजभाषा अधिकारी की अंतरात्मा जागती है तो वह स्वयं हिंदी की कृत्रिम सूरत को देखकर अपनी अंतरात्मा को हिंदी की एक लोरी गाकर सुला देता है।
© चिराग़ जैन
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