जिस पत्रकारिता ने आदर्श, सिद्धांत, जनहित, सच और क्रांति जैसे शब्दों को अर्थ प्रदान किये, वही आज अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। सुनते हैं कि देश में जब कभी विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका के स्तम्भ जर्जर हुए हैं, तब-तब अकेले इस एक स्तम्भ ने लोकतंत्र के ढाँचे को बचाए रखा है। ‘जब तोप मुक़ाबिल हो तो अख़बार निकालो’ जैसे जुमलों से सुसज्जित पत्रकारिता आज ‘दलाली’ की गाली झेलने पर विवश है। गणेश शंकर विद्यार्थी और माखनलाल चतुर्वेदी जैसे कलमकारों के वंशज आज जनता से पिट रहे हैं और गालियाँ खा रहे हैं।
ग़ुलामी के दिनों में अंग्रेज सरकार की नाक में दम करनेवाली पत्रकारिता; आपातकाल में इंदिरा सरकार के खि़लाफ़ काले पन्ने पोतने वाली पत्रकारिता आज इतनी लाचार और जर्जर हो गई है कि नैतिकता और आदर्श तो दूर, अपने पेशे के मूलभूत नियमों का निर्वाह करने में भी असमर्थ सिद्ध हो रही है।
कभी पत्रकारों को इस बात का अभिमान होता था कि उनकी स्टोरी पर आज संसद में सवाल पूछा गया। कभी संपादक इस बात पर इतराते थे कि उनका अख़बार आज संसद में लहराया गया। कभी राजनीति को इससे फ़र्क़ पड़ता था कि अख़बार उनके विषय में क्या लिख रहे हैं। लेकिन आज राजनीति ने लोकतंत्र के वाचडॉग को स्ट्रीट डॉग जितना महत्व देना भी बंद कर दिया है। जो जनता पत्रकारों को अपनी आखि़री उम्मीद मानती थी, वह आज पत्रकारों को मारने पर उतारू है।
टीआरपी की अंधी दौड़ ने सुंदरियों को एंकर बनाने की जो मुहिम शुरू की थी वह आज चैनल वॉर तक आ पहुँची है। कभी अख़बार पढ़कर राजनीति की दिशा तय की जाती थी, लेकिन आज राजनीति का मूड देखकर ख़बरें बनाई जा रही हैं। चैनल के एंकर किसी आततायी आक्रमणकारी की तरह अराजकता की हद्द को लांघकर ख़बरें पढ़ रहे हैं। सड़क पर खड़ा पत्रकार हाँफ-हाँफ कर पीटूसी कर रहा है। बहस में माँ-बहन की गालियाँ ऑन एयर जाने लगी हैं।
क्या यही वह न्यूज़ एंकरिंग है जिसकी बुनियाद सुरेन्द्र प्रताप सिंह सरीखे संवेदनशील मनुष्य ने रखी थी। अख़बारों ने बाज़ार का लेप इतना ज़्यादा लगा लिया है कि अख़बार की आत्मा कहा जाने वाला सम्पादकीय पृष्ठ हाशिये पर चला गया है। इलैक्ट्रॉनिक मीडिया में नम्बर वन की ऐसी होड़ है कि बलात्कार और अपराध की ख़बरों को चटपटा बनाने के लिए मनुष्यता को चूल्हे की आँच में झोंकना आम हो गया है।
कभी जनमत की देवी कही जाने वाली पत्रकारिता आज उद्योगपतियों की रखैल और हुक्मरानों की दासी हो चली है। हिंदी फिल्मों में भी जिस पत्रकारिता की बेईमानी के सीन दिखाने में हिचकिचाहट बनी रही है, वह आज बिना सेंसर की ‘सी क्लास’ फिल्मों से भी ज़्यादा नीचे उतर आई है।
ख़बरों से खेलने और स्क्रीन भरने के कौशल से टीआरपी के आँकड़े जुटाते पत्रकार अगर इस वक़्त में ठहरकर अपने अस्तित्व की चिंता न कर सके तो यह स्थिति और भी भयावह हो जाएगी। कुर्सी से उछल-उछलकर टीआरपी बटोरते एंकर यह विचार करें कि जिनका काम जनता को बौद्धिक ख़ुराक़ देना था, वे आज घृणा मिश्रित उपहास के पात्र बनते जा रहे हैं।
धन अर्जित करना कोई अपराध नहीं है, लेकिन धन की इस भूख में जनहित को भेंट चढ़ा देना न तो नैतिकता है, न ही समझदारी। आज राजनैतिक दलों की और अपने अन्नदाता उद्योगपतियों के हस्तक्षेप के कारण यह स्थिति तो आ ही चुकी है कि सत्ताधारी दल की मर्ज़ी के बिना स्टोरी तो क्या टिपर चलाने की भी हैसियत किसी चैनल की नहीं है। इस स्थिति का प्रतिकार न किया गया तो सत्ता के स्वार्थ और जनता की घृणा के मध्य पत्रकारों की हालत यह होगी कि फ़ख़्र से गाड़ी पर ‘प्रेस’ का स्टिकर चिपकानेवाले व्हाइट कॉलर जर्नलिस्ट्स को यह बताते हुए शर्म आएगी कि वे मीडिया से हैं।
© चिराग़ जैन
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