Saturday, September 12, 2020

उलाहना

मैं अंधेरों के नगर में दीप धरने जा रहा हूँ
तुम उजालों की प्रतीक्षा में समय व्यतीत करना
मैं पसीने से नदी का पाट भरने जा रहा हूँ
तुम किसी बरसात की मनुहार का संगीत गढ़ना

कर्मरत अर्जुन हुआ तो कृष्ण उसके सारथी थे
देवता जीवन बदल सकते नहीं केवल भजन से
आ गई चलकर अकेली जो गहन अंधियार में भी
जूझना ही सीख लेते, भोर की पहली किरण से
भाग्य की हर हार को मैं जीत करने जा रहा हूँ
तुम स्वयं को हस्तरेखा बाँच कर भयभीत करना

पाँव चलने के लिए तैयार हैं बस ये बहुत है
क्यों करूँ परवाह इसकी, कौन मेरे साथ आया
मन, भुजाएँ, श्वास, धड़कन, दृष्टि मेरे पास हो बस
और सब कुछ बोझ भर है, जो अभी तक है जुटाया
मैं स्वयं के हाथ से अब ख़ुद सँवरने जा रहा हूँ
तुम समूची सृष्टि से बस आचरण विपरीत करना

सृष्टि का हर तंत्र मेरे ही लिये निर्मित हुआ है
नियति के हर शाप और वरदान का कारण स्वयं हूँ
यक्षप्रश्नों के सभी उत्तर मुझी को खोजने हैं
मैं स्वयं के हर पतन-उत्थान का कारण स्वयं हूँ
मैं जगत् का सौख्य अपने नाम करने जा रहा हूँ
तुम सदा उपलब्ध दुःख-सुख को समर्पित प्रीत करना

© चिराग़ जैन

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