Sunday, October 18, 2020

नवरात्रि और स्त्री सशक्तिकरण

नवरात्रि पर्व इस बात का प्रमाण है कि स्त्री सशक्तिकरण की अवधारणा का उद्गम सनातन जीवनशैली में ही हुआ। देवी के नवरूप की आराधना के साथ-साथ कन्या पूजन की परंपरा स्त्री की महत्ता को रेखांकित करने हेतु प्रतिष्ठित की गयी होगी। स्त्री को शक्तिस्वरूपा मानने के पीछे भी स्त्री के सशक्तिकरण की ही अवधारणा रही होगी।
किन्तु यह स्त्री, सशक्त होने के लिये उच्छृंखल होने के स्थान पर अपने स्त्रैण गुणों को पोषित करती दिखाई देती है। सशक्त होने के लिये वह पुरुष हो जाने को आतुर नहीं होती। पुरुष से समानता की हठ में वह अपनी स्त्री को बिसार देने की वक़ालत नहीं करती। ‘देेेखरेख’ और ‘रोकटोक’ दो अलग-अलग शब्द हैं। पुरुष को देखरेख की आड़ में अनावश्यक रोकटोक करने की परंपरा छोड़नी होगी और स्त्री को रोकटोक का विरोध करते समय देखरेख का विरोध करने से बचना होगा।
अनुचित के विद्रोह में हथियार तक धारण करनेवाली देवी भी आद्योपांत नारीत्व से परिपूर्ण है। सनातन परम्परा की इस अवधारणा का सामाजिक तथा मनोवैज्ञानिक अध्ययन करने पर आभास होता है कि स्त्री-सशक्तिकरण के समर्थन में इससे अधिक उपयुक्त कोई विचार हो ही नहीं सकता कि स्त्री के भीतर की स्त्री को बलवती किया जाये, न कि उसके भीतर की स्त्री पर किसी पुरुष के प्रति, स्पर्धा थोप दी जाये।
यह पर्व इंगित करता है कि स्त्री रहते हुए सशक्त होना ही स्त्री की वास्तविक विजय है। समाज के सम्यक संतुलन के लिये यह अतीव आवश्यक भी है कि स्त्री को भी अपने स्त्रीत्व के विकास का उतना अवसर अवश्य मिले, जितना पुरुष को उसके पौरुष के विकास का मिलता है। स्त्री को भी अनुचित के प्रतिकार की उतनी ही स्वतंत्रता मिले, जितनी किसी पुरुष को मिलती है।
शक्तिरूपेण संस्थिता देवी से यही प्रार्थना है कि होड़ में सशक्तिकरण ढूंढ़ रहे स्त्री समाज के आत्मबल के विकास का मार्ग प्रशस्त हो ताकि प्रत्येक स्त्री, स्वयं के स्त्री होने पर अभिमान कर सके। यही ‘अभिमान’, स्त्री को अबला सिद्ध करके पनपी कुरीतियों के षड्यंत्र के लिये मारकेश सिद्ध होगा।

© चिराग़ जैन

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