जुलाई 2014 की घटना है। कोटेश्वर से कवि-सम्मेलन करके प्रज्ञा विकास और मैं सुबह-सुबह ऋषिकेश के लिये रवाना हुए। सर्दियां ठीक से शुरू नहीं हुई थीं, लेकिन पहाड़ों की अपनी ताज़गी सुबह-सुबह हल्की ठण्ड का अहसास करा रही थी। पहाड़ की घुमावदार सड़क पर हरे पानी की धारा के साथ-साथ बढ़ते हुए हम देवप्रयाग पहुँचे। पतली-पतली गलियों से सीढ़ियाँ उतरते हुए हम घाट की ओर बढ़े। लगभग सत्तर-अस्सी डिग्री के कोण पर खड़ी सड़क थी जिसके दोनों ओर बाज़ार था। पहला पहाड़ पार किया तो हम एक ऐसे पुल पर पहुँच गए जिसके नीचे भागीरथी का अजस्र प्रवाह था। पुल पर से गुज़रते हुए हमने महसूस किया कि किसी के गुज़रने पर पुल हिलता था। पुल को पार करके हम फिर एक पतली सी पहाड़ी गली से गुज़रते हएु घाट तक आ पहुँचे।
जीवन में पहली बार संगम देखा था। मैं एक ऐसे छोर पर खड़ा था, जहाँ धरती समाप्त होती है और आगे जल ही जल दिखायी पड़ता है। यहाँ भागीरथी और अलकनन्दा का मिलन होता है। यहाँ से पानी की यह धारा ‘गंगा’ कहलाने लगती है।
अहा! एक ओर से भागीरथी दौड़ी चली आ रही थी। उसकी चाल किसी उत्साहित षोडशी जैसी उच्छृंखल थी। उसकी आवाज़ को कलकल नहीं, गर्जन ही कहा जा सकता है। सरकारी स्कूल की आधी छुट्टी में बच्चों का जो कलरव होता है वैसा शोर था भागीरथी की चाल में। यह होता तो शोर ही है, लेकिन मन को आनन्दित करता है।
उधर अलकनन्दा ऐसे चली आती थी मानो किसी ने पानी को संन्यास दे दिया हो। नदी में न कोई लहर, न शोर। पूरी नदी मोटे काँच की किसी प्लेट की तरह गहरे हरे रंग की पारदर्शिता लिए ठहरी-सी जान पड़ती थी। एक ओर बचपन की सी ऊर्जा और षोडशी की चुहल थी तो दूसरी ओर गहन संन्यास की सी शांति।
मेरे दाहिने कान में भागीरथी का रोर था और बाएँ कान में अलकनन्दा का मौन। मेरी आँखों में भागीरथी की उच्छृंखल धारा थी और मन में अलकनन्दा का गाम्भीर्य। दाईं ओर देखता था तो ऐसा लगता था, ज्यों किसी को वधस्थल की ओर ले जाया जा रहा हो और दाईं ओर देखता था तो लगता था कि कोई गहरी समाधि में उतरा हुआ ठहर गया हो। एक ओर जीवन का कलरव था और दूसरी ओर मरघट की शांति।
मैं इन दोनों विरोधाभासी धाराओं के मध्य निर्लिप्त-सा खड़ा था। घाट पर बजरंग बली का ग्रामीण सादगी के सौंदर्य से परिपूर्ण मंदिर था। मंदिर की सीढ़ियों पर बैठकर मैं देर तक दो विलग प्रवृत्तियों को एकाकार होकर ‘जाह्नवी’ बनते देखता रहा।
भागीरथी और अलकनन्दा अपने-अपने स्वभाव की उत्कर्ष अवस्था में विद्यमान थीं। एक पत्थरों से टकराती हुई, भीषण शोर करते हुए, हिरन चौकड़ी भरती हुई दौड़ी चली आ रही थी। और एक इतनी शांत कि हवा भी उसके स्तब्ध-आभासी दर्पण को स्पर्श करने से संकोच कर रही थी। पटल पर एक भी सिलवट नहीं, लेकिन गतिमान थी। यूँ लगता था कि सर्वस्व प्राप्ति के बाद कोई योगिनी भंगिमा पर पूर्णता का सिंगार किये चली आ रही है।
उस दिन एहसास हुआ कि पूर्ण होने के लिए शून्य होना अनिवार्य है। जब चेहरे की समस्त भंगिमाएँ गौण हो जाती हैं तब मुखड़े पर पूर्णता की आभा दमकती है। इस आभा में कहीं कोई रंग नहीं होता, लेकिन फिर भी इसका सम्मोहन सबको आकृष्ट कर लेता है। आम्रपाली का समस्त सिंगार तथागत की इस एक झलक के सम्मुख मिथ्या सिद्ध हो जाता है।
नवम्बर की मीठी ठण्ड में मैं वसुधा, अलकनन्दा और भागीरथी के बीच खड़ा था। पाँव वसुधा पर थे, विचार भागीरथी से होड़ कर रहे थे और मन अलकनन्दा हुआ जाता था। श्वास में घुलकर यह दृश्य स्मृति पर अंकित हो रहा था।
कलकल करती नदी की पवित्र धारा को शहरों से गुज़रते हुए देखने का अनुभव स्मृति में कौंधा और फिर इसकी मीठी यात्रा के खारे समापन का विचार मन को बेचैन कर गया। यकायक मन नदी के साथ बहकर सागर तक की यात्रा कर आया। किसी सुन्दर जीवन के खारे अन्त की इस यात्रा ने वहीं एक गीत की देह धारण की। इस क्षण में एक पूरा जीवन जी लिया था मैंने। मैंने कलरव और शांति को एकाकार होते देख लिया था। मैंने देखा कि मौन जब शोर में समर्पित हो जाता है तो शोर का शोर कम हो जाता है। मैंने देखा कि स्वयं को खोकर भी अलकनन्दा में कोई सिलवट नहीं थी। मैंने देख लिया था कि सिलवटें विलीन होते ही यात्रा पूर्ण हो जाती है।
मैं भागीरथी की तरह किलकता हुआ देवप्रयाग पहुँचा था और अलकनन्दा की तरह गहरा मौन लिए लौट रहा था।
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