प्राची से ज्यों दिनकर निकला
यों अग्निमिलन को दुग्ध चला
हे क्षीर न इह विधि व्यर्थ बहो
इस भाँति करो न अनर्थ अहो
मत विकल करो मेरे मन को
नर हूँ, न निराश करो मन को
अब और न अधिक सहूंगा मैं
इस क्षण तव पान करूंगा मैं
अन्यथा देवि उठ जायेगी
मुझ पर कितना चिल्लायेगी
धिक्कारेगी मम जीवन को
न रहो, न निराश करो मन को
रामधारी सिंह दिनकर
कोने-कोने में घूम-घूम
गीले कपड़े से चूम-चूम
सारा घर-आंगन स्वच्छ किया
निज कर से सब प्रत्यच्छ किया
इक मकड़ी जाला लटका था
सीलिंग पर जाकर अटका था
आँखों से ओझल था वह खर
हाथों की सीमा से ऊपर
वह एक चूक मेरे सर थी
उर्वशि की दृष्टि उसी पर थी
जब नाश मनुज पर छाता है
तब इक जाला बच जाता है
भीतर तक टीस रहा हूँ मैं
अब चटनी पीस रहा हूँ मैं
काका हाथरसी
किसी काम ना आ रही, सम्मेलन की ड्रेस
काकाजी ख़ुद लग गये, करने कपड़े प्रेस
करने कपड़े प्रेस, गन्ध महकी घर भर में
'क्या फूंका' का मंत्र गुंजा काकी के स्वर में
जब तक काकी ने कमरे के भीतर झाँका
कपड़े नहीं, इस्तरी फूंक चुके थे काका
गोपालदास नीरज
हींग भी गली न थी कि हाय छौंक जल गया
क्या हुआ जो फ्राइपेन का कलर बदल गया
सब्ज़ियाँ मचल गयीं, मटर-मटर उछल गया
ये हसीन सीन घर की लक्ष्मी को खल गया
सात सुर पिछड़ गये
छन्द सब बिगड़ गये
फिर रसोई की तरफ़
किसी के पाँव बढ़ गये
और हम डरे-डरे, श्लोक सुन खरे-खरे
गैस की मशाल का क़माल देखते रहे
कारवां गुज़र गया, ग़ुबार देखते रहे
ओमप्रकाश आदित्य
काम न करूंगा कोई, हाथ न बँटाऊंगा मैं
मेरे हिस्से कोई काम डाल नहीं सकती
काव्य की अनन्य प्रतिभा से मैं दमकता हूँ
प्रतिभा ये कपड़े खंगाल नहीं सकती
भाव में पगा के शब्द काव्यभोग भोगता हूँ
लेखनी ये दाल तो उबाल नहीं सकती
घर से निकालेगी तो थाने चला जाऊंगा मैं
मुझको तू घर से निकाल नहीं सकती
किशन सरोज
लॉक डाउन के समय में चौंक कर
दाल-सी इक नायिका को छौंक कर
देख क्या पाता किसी के हाथ की मेहंदी
छौंक से झलते नयन, मलता रहा मन
धर दिए अब और बर्तन चार करने साफ
काम कर करके मेरा जलता रहा मन
जगदीश सोलंकी
जिनका सरफ एक बार धुल जाए
उनको फिर से सरफ वाले ढेर में न रखना
पूजा के जो कपड़े हैं, उनको अलग धोना
और उन्हें धो के अपने पैर में न रखना
रंग छोड़ते हैं, नए कॉटन के क्लॉथ; सुनो
उन्हें और कपड़ों के फेर में न रखना
हाथ से रगड़ कर जल्दी-जल्दी रख देना
धीरे-धीरे धो के देर-देर में न रखना
© चिराग़ जैन
No comments:
Post a Comment