दो दिन पहले हिसार की ख़बर थी कि एक व्यापारी को उसकी कार में ज़िन्दा जला दिया। अब करौली की ख़बर है कि मन्दिर के पुजारी को ज़िन्दा जला दिया।
हे ईश्वर! पाशविकता का यह पथ आखि़र किस मन्ज़िल तक ले जायेगा हमारे समाज को। मैंने बचपन में एक महिला को आग की लपटों में घिरे हुए सड़क पर दौड़ते देखा है। (वह एक दुर्घटना थी, जिसमें खाना बनाती महिला की साड़ी ने अंगीठी से आँच पकड़ ली थी) लेकिन उस महिला की चीख़ें आज भी मेरे दिल को दहला देती हैं। मैं महीनों ठीक से सो न सका था।
पीड़ा, भय, निराशा और करुणा से गुँथी वह चीख़ जब भी याद आती है तो मन विह्वल हो उठता है। मैं कल्पना कर रहा हूँ कि उस चीख़ में आक्रोश और घृणा भी मिल जाये, तो उससे तो सारा ब्रह्मांड काँप जाता होगा। फिर ऐसे कौन लोग हैं जिनके ज़मीर इनके प्रभाव से अनछुए रह जाते हैं!
इस घटना पर भी राजनीति और प्रशासन अपनी-अपनी फेस सेविंग से ज़्यादा कुछ न करेंगे, लेकिन इस आग की राख से यह प्रश्न पुनः उठ खड़ा हुआ है कि हम कौन से समाज का निर्माण करने में व्यस्त हैं? हम किस सभ्यता को पोसने में बेसुध हुए जा रहे हैं? हिन्दू-मुस्लिम; सवर्ण-दलित; ब्राह्मण-मीणा ...और कितने विभक्त होंगे हम। कल ब्राह्मणों में भी शैव-वैष्णव होने लगेगा। आखि़र कहाँ जाकर अन्त होगा इस अभिशाप का?
करौली की घटना को ब्राह्मण बनाम मीणा का रंग दिया जा रहा है। हद्द है, हम उस समाज की स्थापना क्यों नहीं करते जिसमें पीड़ित और अपराधी दोनों को ही केवल मनुष्यता की कचहरी में खड़ा किया जाये! एक मीणा के अपराध से पूरा मीणा समाज अपराधी कैसे हो गया?
इस हिसाब से तो देश का प्रत्येक व्यक्ति अपराधी है। सामान्यीकरण की इसी प्रवृत्ति की आँच पर राजनीति अपनी रोटियाँ सेंकती है। ‘मरने वाला आदमी था क्या यही क़ाफ़ी नहीं!’ यही हमने हाथरस में किया और यही करौली में।
जातियों के इस वर्गसंघर्ष से देश को बचाने के लिये समाज में मुरझाती जा रही मानवता के बीजों को संरक्षित करना होगा ताकि अपराध करनेवाले को इस बात का डर रहे कि यदि वह अपराध करके घर लौटेगा तो अपने मुहल्ले में रहनेवाले मनुष्यों से आँखें कैसे मिलायेगा?
© चिराग़ जैन
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