Tuesday, December 16, 2003

दिल में आह बाक़ी है

जब तलक़ दिल में आह बाक़ी है
तब तलक़ वाह-वाह बाक़ी है

अब कहाँ कोई ज़ुल्म ढाता है
ये पुरानी कराह बाक़ी है

ख्वाब सारे फ़ना हुए लेकिन
देखिए ख्वाबगाह बाक़ी है

मैंने सब कुछ लुटा दिया लेकिन
अब भी इक ख़ैरख्वाह बाक़ी है

जिस्म को रूह छोड़ती ही नहीं
हो न हो कोई चाह बाक़ी है

ज़िन्दगानी भटक गई तो क्या
हर जगह एक राह बाक़ी है

कट चुका है शजर कभी का मगर
अब भी धरती पे छाह बाक़ी है

मिरे दिल को कचोटता है बहुत
मुझमें मेरा ग़ुनाह बाक़ी है

मिरी यादों के शामियाने में
एक भीगी निगाह बाक़ी है

© चिराग़ जैन

Friday, November 21, 2003

हादसा थी ज़िन्दगी

हादसा थी ज़िन्दगी, होता रहा जो उम्र भर
दौलते-लमहात थी, खोता रहा जो उम्र भर

कौन समझे उसके अश्क़ों की ढलकती दास्तां
बस दरख़तों से लिपट, रोता रहा जो उम्र भर

अब तो कलियों से भी उसकी पीठ क़तराने लगी
पत्थरों को गुल समझ ढोता रहा जो उम्र भर

इक न इक दिन उसका घर अश्क़ों में डूबेगा ज़रूर
सबके आंगन में हँसी बोता रहा जो उम्र भर

मौत को देखा तो वो भी कसमसा कर रो दिया
ज़िन्दगी को बोझ-सा ढोता रहा जो उम्र भर

मौत ने आकर जगाया तो सुबककर रो पड़ा
ऑंख में सपने लिए सोता रहा जो उम्र भर

मौत जब आई तो मौक़ा देखते ही बेहिचक
उड़ गया पिंजरे में इक तोता रहा जो उम्र भर

© चिराग़ जैन

Wednesday, November 12, 2003

गीत गढ़ने का हुनर

मसख़रों की मसख़री अपनी जगह
शायरों की शायरी अपनी जगह
गीत गढ़ने का हुनर कुछ और है
मंच की बाज़ीगरी अपनी जगह

© चिराग़ जैन

Monday, November 3, 2003

अंदाज़ा न कर

पीर की ज़द का अंदाज़ा न कर
कल की आफ़त का अंदाज़ा न कर

ज़ख़्म गहरा है दर्द होगा ही
अब रियायत का अंदाज़ा न कर

वक़्त पर ख़ुद-ब-ख़ुद पनपती है
यूँ ही हिम्मत का अंदाज़ा न कर

बीज में पेड़ छिपा होता है
क़द से ताक़त का अंदाज़ा न कर

सिर्फ़ दो दिन की मुलाक़ातों से
उनकी आदत का अंदाज़ा न कर

हँस के मिलना तो उसकी आदत है
इससे उल्फ़त का अंदाज़ा न कर

इसमें मुमक़िन है हर कोई मंज़र
इस सियासत का अंदाज़ा न कर

सिर्फ़ जामे को देखकर उसकी
बादशाहत का अंदाज़ा न कर

चाहता हूँ तुझे मीरा होकर
तू इबादत का अंदाज़ा न कर

जिसने मांगा न हो कभी कुछ भी
उसकी चाहत का अंदाज़ा न कर

© चिराग़ जैन

Monday, October 20, 2003

दीपावली

जीवन बाती से जुड़े, पुरुषार्थों की आग
हर आंगन संदीप्त हो, जाय अंधेरा भाग ॥

दिव्य-दिव्य हों कल्पना, दिव्य-दिव्य हों रंग।
दिव्य अल्पनाएँ बनें, हों सब दिव्य प्रसंग ॥

पावन पुष्पों से गुँथें, ऐसे बन्धनवार।
जिन्हें लगाकर सज उठें, सबके तोरणद्वार ॥

भोर समीरों में घुलें, गेंदे के मकरंद।
सांझ ढले कर्पूर की, हर दिसि भरे सुगन्ध ॥

लक्ष्मी का अवतार हो, हाथ लिए संतोष।
जिससे खाली हो सकें, सभी लालसा कोष॥

पथ पर हो दीपावली, मन में हो मकरंद।
वाणी में मिष्ठान्न हो, जीवन में आनंद॥

मन दशरथ, केकैयी कुमति, देह अयोध्या धाम।
तृष्णा इक वनवास है, सुख के क्षण श्रीराम॥

© चिराग़ जैन

Saturday, October 4, 2003

कुछ तो होगी बात

रावण के व्यक्तित्व में, कुछ तो होगी बात
जिसे मारने जन्म लें, तीन लोक के नाथ

© चिराग़ जैन

Monday, September 15, 2003

नज़रिया

मुझे इन्सान चारों ओर नज़र आता है
अक्स अपना ही तो हर ओर नज़र आता है
ये दुनिया शायद आइनों की इक इमारत है
तुझे हर शख्स यहाँ चोर नज़र आता है 

© चिराग़ जैन

Wednesday, August 27, 2003

स्वीकार

बरसों से बरसते हैं अब क्या असर करेंगे
बेबस ये बसेरे हैं कैसे बसर करेंगे
रुकती है नज़र जाकर चूते हुए छप्पर पे
छप्पर को भी गिरा दो खुलकर सबर करेंगे

© चिराग़ जैन

Wednesday, August 13, 2003

हुनर

तनहा-तनहा था सफ़र क्या कहिए
आपका साथ मगर क्या कहिए
मुझको मूरत में कर दिया तब्दील
तेरे हाथों का हुनर क्या कहिए

© चिराग़ जैन

Friday, August 1, 2003

मिरी आँखों का मंज़र देख लेना

मिरी आँखों का मंज़र देख लेना
फिर इक पल को समन्दर देख लेना

सफ़र की मुश्क़िलें रोकेंगी लेकिन
पलटकर इक दफ़ा घर देख लेना

किसी को बेवफ़ा कहने से पहले
ज़रा मेरा मुक़द्दर देख लेना

बहुत तेज़ी से बदलेगा ज़माना
कभी दो पल ठहरकर देख लेना

हमेशा को ज़ुदा होने के पल में
घड़ी भर ऑंख भरकर देख लेना

मिरी बातों में राहें बोलती हैं
मिरी राहों पे चलकर देख लेना

न पूछो मुझसे कैसी है बुलन्दी
मैं जब लौटूँ मिरे पर देख लेना

मुझे बेताब कितना कर गया है
किसी का आह भरकर देख लेना

ज़माने की नज़र में भी हवस थी
तुम्हें भी तो मिरे परदे खले ना

मिरे दुश्मन के हाथों फैसला है
क़लम होगा मिरा सर देख लेना

© चिराग़ जैन

Tuesday, July 8, 2003

सूरज

फिर अंधेरा निगल गया सूरज
फिर चिराग़ों को खल गया सूरज

चंद पहरों की ज़िन्दगानी में
कितने चेह्रे बदल गया सूरज

गर हुआ ऑंख से ज़रा ओझल
लोग कहते हैं ढल गया सूरज

रात गहराई तो समझ आया
सारी दुनिया को छल गया सूरज

आज फिर रोज़ की तरह डूबा
कैसे कह दूँ सँभल गया सूरज

© चिराग़ जैन

Friday, June 6, 2003

बावरा कवि

हँसने के लिए कारणों का मोहताज नहीं
आँसुओं का ख़ूब अनुभवी हो गया हूँ मैं
सारी दुनिया को आज अपना-सा लगता हूँ
अपनों के लिए अजनबी हो गया हूँ मैं
झूठ-अनाचार-बेईमानी की बदलियों में
सच के रवि की कोई छवि हो गया हूँ मैं
बावरेपने में घूमता हूँ दुनिया को भूल
तब लगता है एक कवि हो गया हूँ मैं

© चिराग़ जैन

Thursday, May 22, 2003

लोग आते-जाते हैं

दिल भी है इक ख़ूबसूरत से इदारे की तरह
लोग आते-जाते हैं, पानी के धारे की तरह

जब से ये संसार सारा हो गया है आसमां
तब से है इन्सानियत टूटे सितारे की तरह

चल सको तो तुम किसी के बन के उसके संग चलो
वरना इक दिन छूट जाओगे सहारे की तरह

दिल के रिश्तों को फ़रेबी उंगलियों से मत छुओ
जुड़ नहीं पाते, बिखर जाते हैं पारे की तरह

ज़िन्दगी तुम बिन भी यूँ तो ख़ूबसूरत झील थी
तुम मगर इस झील में उतरे शिकारे की तरह

आपका चेहरा भी मीठी ईद-सा ख़ुशरंग है
खिलखिलाहट चांद-तारे के नज़ारे की तरह

एक अरसा साथ रहकर भी पराए ही रहे
तुम समन्दर की तरह थे, हम किनारे की तरह

© चिराग़ जैन

खोते मंज़र

चाहकर भी
नहीं बचा पा रहे हैं हम
वह सब
जो आनंदित करता है हमें
तनाव के क्षणों में।

क्षमा नहीं करेंगी हमें
हमारी ही सन्तानें
क्योंकि छीन लेते हैं हम
रोज़ाना
आनंद के अनिवार्य तत्व
अगली पीढ़ी से
...आधुनिक बनने की कोशिश में

मिटा देते हैं रोज़ाना
प्रकृति में बिखरे काव्यांश
अपने ही हाथों
आधुनिक बनने के लिए

सोचता हूँ अक्सर
कि कैसे देखेंगी हमारी संतानें
वह सब
जो आनंदित करता है हमें
तनाव के क्षणों में।

वासन्ती रुत के पीले फूल
स्वच्छ नदियों के गीले कूल
नंगे फ़क़ीरों का ऐश्वर्य
धूल भरी आंधियों का वेगवान सौंदर्य
कोहरे की चादर से ढँके हुए खेत
बूढ़े दादाजी की सुंदर सी बेंत
गलियों में दौड़ती बच्चों की रेल
गुड़िया और गुड्डे और कंचों के खेल
छोटी सी गिल्ली और गज भर का डंडा
मिट्टी का चूल्हा और गोबर का कण्डा
आंगन की बारिश का मल्हारी राग
कोयल की बोली और आमों के बाग
साड़ी का पल्लू और धोती की लांग
भोर भए भैरवी सी मुर्गे की बांग
उर्दू की ग़ज़लें और हिंदी के गीत
घोड़े की टापों का सुंदर संगीत

कैसे कोई झूमेगा मधुबन में जाकर
कैसे जताएगा ख़ुशियाँ कोई गाकर
क्या करेगी ये पीढ़ी, दुनिया में आकर।

नफ़रत में जलता अब सारा संसार है
प्यार की, मुहब्बत की बातें बेकार हैं
भ्रांतियों के झूलों में वे भी झूल जाएंगे
लंबी-लंबी लाइनों में जीवन बिताएंगे
जंगल का राज देख रो-रो चिल्लाएंगे
बिस्लेरी पिएंगे और यूरिया चबाएंगे
आओ, पहले अपने वर्तमान को बचाएँ
तब इस भविष्य को दुनिया में लाएँ।

© चिराग़ जैन

Sunday, May 4, 2003

मधुमास

खण्ड-खण्ड कर रहे देश की अखण्डता को
ऐसे दुष्ट लोगों का विनाश होना चाहिए
जातिवादियों के जीवन में हलाहल घुले
साम्प्रदायिकों का सर्वनाश होना चाहिए
ज्वालाएँ प्रचण्ड मेरे भारत में फिर जलें
एक-एक कोने में प्रकाश होना चाहिए
न हो कोई जाति न धरम कोई शेष रहे
पूरे भारत में मधुमास होना चाहिए

© चिराग़ जैन

Tuesday, April 29, 2003

इक पहेली हूँ

धूप में निखरोगे मेरी छाँव में जल जाओगे
इक पहेली हूँ, कहाँ तुम ढूंढने हल जाओगे

बर्फ़-सी ठंडक तो उसकी बात में होगी मगर
छू लिया जिस पल उसे उस पल ही तुम जल जाओगे

विषधरों के दंश का संकट भी झेलोगे ज़रूर
जब कभी लेने किसी जंगल से संदल जाओगे

धूप बनकर तुम दलानों में पसरते हो मगर
जब दरख्तों के तले आओगे तो ढल जाओगे

या तो तुम हमसे कोई रिश्ता रखोगे ही नहीं
या ज़माने की तरह तुम भी हमें छल जाओगे

© चिराग़ जैन

Monday, April 14, 2003

भीमराव अंबेडकर

गुदड़ी के लाल ने दिखाया था कमाल देखो
सारी दुविधाओं का निदान ले के आया था
परेशानी, दुख और ग़रीबी में जो जन्मा था
वही भारती का स्वाभिमान ले के आया था
भारत की खोई आन-बान ले के आया; औ
लोकतन्त्र वाला यश-गान ले के आया था
भारती का एक अलबेला अनमोल पूत
भारत के लिए संविधान ले के आया था

© चिराग़ जैन

Friday, March 7, 2003

छोड़ो वेद-पुरान

ईश्वर, बालक, माँ, कवि, ये सब एक समान
इन्हें प्रेम से जीत लो, छोड़ो वेद-पुरान 

© चिराग़ जैन

Wednesday, February 5, 2003

आकांक्षाएँ

तलवे याद न रख सकें, मिट्टी का अहसास
इतना ऊँचा मत रखो सपनों का आकाश

© चिराग़ जैन

Saturday, February 1, 2003

सरस्वती वंदना

हम सरिता सम बन जाएँ
कविता-सरगम-ताल-राग के सागर में खो जाएँ

सात सुरों के रंगमहल में साधक बनकर घूमंे
नयनों से मलहार बहे माँ, दादर पर मन झूमे
भोर भैरवी संग बिताएँ, सांझहु दीपक गाएँ
हम सरिता सम बन जाएँ

हे वीणा की धरिणी, हमको वीणामयी बना दो
ज्ञानरूपिणी मेरे मन में ज्ञान की ज्योत जगा दो
कण्ठासन पर आन विराजो इतना ही वर चाहें
हम सरिता सम बन जाएँ

© चिराग़ जैन

Thursday, January 23, 2003

सुभाष चंद बोस

जिनकी धमनियों में डोलता था ज्वालामुखी
मात-भारती के क्रांति-कोष कहाँ खो गए
राष्ट्र-स्वाभिमान वाली मदिरा का पान कर
होते थे जो लोग मदहोश; कहाँ खो गए
जिस सिंह-गर्जना से बाजुएँ फड़कतीं थीं
इन्क़लाब वाले जय-घोष कहाँ खो गए
देश को आज़ादी की अमोल सम्पदा थमा के
नेताजी सुभाष चन्द बोस कहाँ खो गए

© चिराग़ जैन

Monday, January 13, 2003

जीवन को कुछ यूँ जियो

बात यहीं से हो शुरू, और यहीं हो बन्द
जीवन को कुछ यूँ जियो, जैसे दोहा छन्द 

© चिराग़ जैन

Friday, January 3, 2003

मज़ा उनको भी आता है

अजब सी बात होती है मुहब्बत के तराने में
क़तल दर क़त्ल होते हैं सनम के मुस्कुराने में
मज़ा हमको भी आता है मज़ा उनको भी आता है
उन्हें नज़रें चुराने में हमें नज़रें मिलाने में

© चिराग़ जैन