Sunday, May 31, 2020

वन्स अपॉन ए टाइम

वन्स अपॉन ए टाइम। जम्बूद्वीपे भरतखण्डे एक ऐसा राजा था, जिसे प्रशंसा सुनने का बहुत चाव था। उसने राजा बनते ही अपने महल में से बहादुर सिपाहियों को हटाकर वहाँ सैनिक के कपड़ों में प्रशंसक खड़े कर दिए।
प्रशंसा और चाटुकारिता की क्षमता देखते हुए राजतंत्र को पद तथा पदोन्नतियाँ दी गईं। जब कोई नागरिक राजा के दरबार में समस्या लेकर जाता तो प्रशासकों के वेश में बैठे चाटुकार, उसकी समस्या सुनने के बजाय उसे राजा की प्रशंसा से भरी पुस्तिका थमा देते। जो कोई राज्य की किसी अव्यवस्था या समस्या की बात करता, उस पर राजद्रोह का अभियोग चलाकर उसे पड़ोसी देश चले जाने का दण्ड सुना दिया जाता।
एक दिन राज्य पर शत्रु ने आक्रमण कर दिया। सारा राज्य तहस-नहस हो गया। जनता मरती रही और राजमहल राजा की महानता की पुस्तिकाएँ जारी करता रहा। राज्य को ध्वस्त करने के बाद शत्रु राजमहल में घुस गया।
राजा अपनी जान बचाने के लिए भागने लगा। उसने महल के द्वार पर खड़े सिपाही से रक्षा करने की गुहार की। गुहार सुनते सैनिक ने अपने शस्त्र नीचे रखे और तालियाँ बजाते हुए गाने लगा- ‘वाह महाराज, क्या भाग रहे हैं! वाह राजन, क्या दौड़ रहे हैं!’
अगले दिन प्रशंसा पुस्तिका में छपा- ‘हमारे राजा ने विश्व में सबसे तेज़ दौड़ने का कीर्तिमान स्थापित किया।’

© चिराग़ जैन

नास जाए कोरोना का

नास जाए कोरोना का
अच्छी भली मुक्तछंद जैसी ज़िन्दगी को हाइकू बनाकर रख दिया।

© चिराग़ जैन

Saturday, May 30, 2020

सुंदरी ऑन फेसबुक लाइव

छोरी बैठी लाइव पर, दीखन कू तैयार
चार छिछोरे आ गए, भली करे करतार
भली करे करतार, कैमरा हिला अचानक
आधे मेकअप का पूरा व्यू मिला अचानक
जल्दी से ऑफलाइन हो गई कह के सोरी
निक्कर पर साड़ी अटकाए बैठी छोरी

© चिराग़ जैन

Ref : Excess of Live sessions on Social Media during Lock Down

Friday, May 29, 2020

भयंकर समय में भी राजनीति

सूरज भी तप रहा है
आसमान भी बरस रहा है
धरती भी डोल रही है
हवा से भी डर लग रहा है

एक ओर टिड्डियों का हमला
दूसरी ओर वायरस की दहशत
तीसरी ओर लूटपाट
चौथी ओर अर्थव्यवस्था चौपट
मेडिकल सिस्टम ध्वस्त

चीन की गुंडागर्दी
पाकिस्तान की बदतमीज़ी
नेपाल तक की बेरुख़ी
अमरीका की महत्वाकांक्षा

इस भयंकर समय में भी राजनीति महाराष्ट्र और दिल्ली की गद्दी की लड़ाई लड़ रही है।
अर्थात जब टाइटेनिक डूब रहा हो तब भी एक मूढ़ अपनी मंगेतर के बॉयफ्रेंड की सुपारी देने से नहीं चूकता।


© चिराग़ जैन


Ref : Politics during Lock down

साहित्य के कुण्ठित प्रेत

मैं एक ऐसे साहित्यकार को जानता हूँ जो हर समय विरोध और प्रतिकार की मुद्रा में ही दृष्टिगोचर होते हैं। वे कहीं भी, कभी भी, किसी भी बात से असहमत हो जाते हैं। यह असहमति उनकी दाढ़ी की तरह घटती-बढ़ती रहती है।
वेदव्यास से लेकर तुलसीदास तक और राजेन्द्र यादव से दुष्यंत कुमार तक कोई साहित्यिक तीसमारखां उनकी असहमति के दायरे से अछूता नहीं रह सका। एक बार तो वे मुझसे इस बात पर असहमत हो गए कि मेरा नाम उर्दू का लफ़्ज़ क्यों है। इस बात पर जब उनकी असहमति मेरे माता-पिता के प्रति असम्मान तक पहुँच गई तब मुझे अपने धैर्य देवता को स्तंभित कर काफी जनसुलभ शब्दावली से उनका रुद्राभिषेक करना पड़ा था। तब कहीं जाकर उनके मूल शांत हुए।
वे स्वयं को हिंदी का सबसे बड़ा पक्षधर और हितैषी मानते हैं। साथ ही वे यह बात भी पूरे ज़ोर-शोर से मानते हैं कि जिसे वे नहीं मानते उसका होना व्यर्थ है। इसी कारण विवेकानंद से लेकर कबीर तक उनके द्वारे अपना-अपना साहित्यिक बोरिया लिए पड़े रहते हैं ताकि किसी दिन उनके भाग्य जागें और उनका निरर्थक जीवन सार्थक हो जावे।
चूँकि समस्त साहित्यकारों को पढ़ने के उपरांत वे उनको मान नहीं पाए इसलिए आजकल अपने वक्तव्यों में वे अपनी बहू के मोबाइल सेट, आपनी पोती की सहेलियों, विदेश में सैटल अपने पोते की ई-मेल, अपने चश्मे का नंबर और अपनी बनाई चाय में अदरक की खुशबू जैसे जाने-माने उद्धरणों से काम चलाते हैं।
नई पीढ़ी और नए फैशन आदि से वे बहुत खिन्न रहते हैं। विकास के नाम पर सुविधाभोगी हो चले युवाओं से उन्हें ख़ास चिढ़ है। यह चिढ़ उनके उन लेखों में अधिक मुखर हो उठती है जो वे डायरेक्ट लेपटॉप पर ही लिखते हैं।
एक बार तो किसी शोकसभा में बोलते हुए वे स्वयं दिवंगत आत्मा से असहमत हो गए थे। उन्होंने फूलमाला के बीच से झाँकते चेहरे को देखकर हिकारत से कहा- ‘ये क्या बात हुई भाई, मरना ही था तो पैदा क्यों हुए थे? मुझे समझ नहीं आता कि आजकल के बूढ़े इतने कामचोर क्यों होते जा रहे हैं कि साँस लेने जितना श्रम भी नहीं कर सकते?’ शोकसभा में अन्य लोग यदि तेरह दिन के मातम से ऊबे हुए न होते तो उस दिन शोकसभा के बाहर ‘टू बी कॉन्टीन्यूड’ का बोर्ड लग जाता।
वे साहित्य में चलताऊ बातों से उकता चुके हैं। इसीलिए अब वे उन घिसी-पिटी लकीरों को तोड़ने में जुट गए हैं। वैचारिक तोड़-फोड़ से उन्हें इतना लगाव है कि उन्होंने अपनी एक ही किताब के शीर्षक में दो बार ‘तोड़ो’ शब्द का प्रयोग किया है। उनकी इस तोड़-फोड़ से प्रभावित होकर राजधानी में कुछ टूटी-फूटी हिंदी के साहित्यकारों ने उन्हें दद्दा कहना शुरू कर दिया है। इस स्नेह से फूल कर पिछले दिनों उन्होंने उन मुट्ठी भर कवियों का प्रतिशत निकालकर बताया कि मुझे दद्दा कहकर सम्मान देने वाले इन दस प्रतिशत के अतिरिक्त और कोई कवि है ही नहीं।
उनके साहित्य तथा भाषा प्रेम से मैं अभिभूत हूँ। वे हिंदी भाषा को सहज होते देख खिन्न हो जाते हैं। वे उसे उल्टे पाली और प्राकृत की ओर जाते देखना चाहते हैं। वे हिंदी की मुस्कुराहट से परेशान रहते हैं। उन्हें हिंदी में रोते-पीटते, माथा फोड़ते और गाली-गलौज करते माहौल रुचते हैं। वे हिंदी को दीमक खाए भोजपत्रों से उठकर मोबाइल स्क्रीन पर चमकता देखते हैं तो उस पर गंगाजल छिड़कने लगते हैं। इस चक्कर में वे अपने कई मोबाइल सेट ख़राब कर चुके हैं।
बहरहाल, वे हिंदी के योग्य पुत्र हैं। उनका कर्तव्य है कि वे हिंदी को कमरे के भीतर वाली कोठड़ी में घोंट कर रखें। क्योंकि उनका मानना है कि यदि उनकी हिंदी माता किसी अन्य भाषा के शब्द को गले लगा लेगी तो वह अस्पृश्य हो जाएगी।

© चिराग़ जैन

Thursday, May 28, 2020

मेरे शुभ के आकांक्षी

प्यार, दुलार, अपनत्व और आदर -ये चार ऐसे तत्व हैं, जिनसे किसी मनुष्य के जीवन की सार्थकता का अनुमान किया जा सकता है। आज मुझे स्वयं को यह बताने में गौरव का अनुभव हो रहा है कि मेरे कुनबे ने इन चारों तत्वों की मेरे जीवन पर उन्मुक्त हृदय से वृष्टि की है।
मेरे जन्मदिन पर हर वर्ष बधाइयों का सिलसिला चलता है। हर वर्ष इनबॉक्स और सोशल मीडिया पर मेरे अपने, मुझे ख़ास होने का एहसास कराते हैं। किन्तु इस बार बात कुछ अलग थी। इस बार मुझे ऐसा सुख मिला है ज्यों एक साथ दर्जनों हाथ मेरे सिर पर छत्र बनकर उपस्थित हो गए हों। एक साथ दर्जनों धड़कनों ने मुझे आलिंगनबद्ध कर लिया हो। एक साथ दर्जनों आँखों में मैंने अपने प्रति विश्वास की चमक देखी हो।
यह सुख की देहरी से एक कदम आगे बढ़कर ‘आनंद’ का अनुभव है। क्योंकि जो हाथ मेरे सिर पर छत्र बने हैं, उनके अनुभव की लकीरें किसी भी पेशानी के पसीने को तिलक में बदलने का सामर्थ्य रखती हैं। जो धड़कनें मुझसे आलिंगनबद्ध हुई हैं, उनकी ताल पर इस देश के लाखों काव्यप्रेमियों के दिल धड़कते हैं। जिन आँखों में अपने प्रति विश्वास देखा है, उनमें सृजन के भविष्य की चमक देखकर स्वयं माँ हिंदी आह्लादित होती है।
वर्तमान युग के अभिशप्त एकाकीपन से गुज़रते हुए आज का दिन ऐसा रहा, ज्यों सन्नाटे के अभ्यस्त कानों को संगीत मिल गया हो।
आदरणीय सुरेन्द्र शर्मा जी, अशोक चक्रधर जी, कुँअर बेचैन जी, विष्णु सक्सेना जी, अरुण जैमिनी जी, आशकरण अटल जी, महेंद्र अजनबी जी, कीर्ति काले जी, रमेश शर्मा जी, सोनरूपा विशाल जी, विनीत चौहान जी, रमेश मुस्कान जी, मनीषा शुक्ला और निकुंज शर्मा के मेरे विषय में बोले गए शब्द सहेजकर प्रिय प्रवीण अग्रहरि ने जो वीडियो तैयार की उसे देखकर ऐसा लगा कि अठारह वर्ष के कवि सम्मेलनीय जीवन में जो भी साधना मैं कर पाया हूँ, उसके अनुपात में कई गुना अधिक मूल्यवान वरदान मिल गया है।
आदरणीय हरिओम पँवार जी से लेकर श्री संतोष आनन्द जी, श्री कृष्णमित्र जी, उदय प्रताप जी और हेमन्त श्रीमाल सरीखे दिनकरों ने हिंदी के एक छोटे से कण को दुलारकर उसे टिमटिमाने का अधिकार दे दिया। प्रवीण शुक्ला जी, कुमार विश्वास जी, सरिता शर्मा जी, आशीष अनल जी, मदन मोहन समर जी, वेद प्रकाश वेद जी, सीता सागर जी, मधुमोहिनी उपाध्याय जी, तेजनारायण शर्मा जी, महेंद्र शर्मा जी, शालिनी सरगम, अर्जुन सिसोदिया जी, अनुज त्यागी जी, जैनेन्द्र कर्दम जी, मनोहर मनोज जी, कमलेश शर्मा जी, उर्वशी प्रभात जी, राकेश सोनी जी, हिमांशु बवंडर, लक्ष्मण नेपाली, राहुल चौधरी, विनय विश्वास जी, सौरभ सुमन, सुनील व्यास जी, शुभि सक्सेना, अनिल अग्रवंशी जी, सूरज राय सूरज जी, दिनेश रघुवंशी जी, हरेश चवुर्वेदी जी, वत्सला जी, मुकुल भाई, संदीप जी, नरेश जी, घनश्याम दा, इकराम भाई, रमन जी, संध्या जी, सोनल, चांदनी जी, अतुल जी, गजेंद्र, अजात भाई, जमुना दद्दा, नंदिनी जी, सुभाष जी, रास भाई, सपना जी, रोहित, विवेक जी, भूषण जी, सिया जी, दीपिका जी, शशि जी, वेद, नोकिल, भूमिका जी, शम्भू, सुदीप, चरण, अजय जी, अर्चना जी, प्रज्ञा जी और सैंकड़ों सितारों से दमकती काव्य की आकाश गंगा ने मेरे जन्मदिन को अजर ज्योति से जगमग कर दिया।
हिंदी कविता से जुड़े हज़ारों अपनों ने इतने प्रेमसिक्त शुभकामना संदेश भेजे कि मन प्रसन्न हो गया। प्रत्येक शुभकामना और आशीष इस दायित्व का बोध कराते हैं कि विश्वास बनाए रखना किसी साधना से कम नहीं है। महेंद्र भैया ने श्रद्धेय राजगोपाल जी का ज़िक्र करके मेरे मन के उस पूजागृह के द्वार खोल दिये जिसमें प्रवेश करने से पूर्व मैं दुनियादारी से सने हाथ धोना कभी नहीं भूलता।
मेरे आत्मबल को पाथेय देने वाले हर शुभकामना संदेश का आभारी हूँ।

~ चिराग़ जैन

Monday, May 25, 2020

क्यों न करें राजनीति?

जब भी कोई घटना घटती है तो हर कोई ऐरा-ग़ैरा मुँह उठाकर राजनेताओं को उपदेश देने लगता है कि इस घटना पर राजनीति न करो। हद्द है, क्यों न करें राजनीति! राजनीति करना उनका काम है। तुम्हारी तरह संवेदना और जनहित जैसी फालतू बातों में उलझना होता तो राजनीति में क्यों आते?
हमारा कंसेप्ट बिल्कुल क्लियर है। घटनाएँ घटती ही रहती हैं। सच्चा नेता वह है जो हर घटना का इस्तेमाल अपने लाभ के लिए कर सके। बुद्धिजीवियों का काम है कि वे सच बोलें। लेकिन हमारा धर्म है कि हम उसे विपक्षी साज़िश सिद्ध कर दें।
अब राजनेता होने का ये तो मतलब है नहीं कि हम मजदूरों को गोदी में उठाकर घर पहुँचाएँ। राजनेता अगर सचमुच जनता की समस्याएँ दूर करने लग जाएंगे, तो ख़ुद सड़क पर आ जाएंगे। हमें तो बस इतना करना है कि जब हो-हल्ला बढ़ने लगे तो इसका ठीकरा फोड़ने के लिए उपयुक्त सिर ढूंढ लें। अगर हम सरकार में हों, तो विपक्ष को दोषी ठहरा दें, अगर विपक्ष में हैं तो सरकार को संवेदनहीन घोषित कर दें। राज्य सरकार में हैं तो केंद्र सरकार को कठघरे में खड़ा कर दें, केंद्र सरकार में हैं तो राज्य सरकारों को लापरवाह घोषित कर दें। हाँ, अगर कभी सरकार से लेकर विपक्ष तक और केंद्र से लेकर सरकार तक हम ही हम हों तो जनता को कामचोर कहना शुरू कर दो, पुलिस को भ्रष्टाचारी कहने लगो, बैंककर्मियों को मुनाफाखोर बता दो, कुल मिलाकर आरोप लगाते रहो।
इन आरोपों का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इससे ख़बरें असली समस्या से भटककर ट्वीट के टाइमिंग, उसकी भाषा, गालियों के स्तर और बातों के दाँव-पेंच में उलझ जाती हैं। उधर मजदूर चलते रहते हैं, इधर ख़बरें चलती रहती हैं। मजदूर सड़क पर चलते-चलते कहीं न कहीं पहुँच ही जाएंगे। इधर हम भी ख़बरों में चलते-चलते किसी न किसी सरकार का हिस्सा बन ही जाएंगे।
संसार तो दुःखों का सागर है ही। यहाँ कष्ट कभी समाप्त हो ही नहीं सकते। यह ईश्वरीय व्यवस्था है। तो फिर कष्ट ख़त्म करने का असफल प्रयास करके हम देश का पैसा बर्बाद क्यों करें। मनुष्य जीवन इन्हीं समस्याओं के मध्य सुख तलाशने के लिए मिलता है। सो, हम अपना सुख तलाश लेते हैं।
कहते हैं, नई समस्या आते ही मनुष्य पुरानी समस्या को भूल जाता है। इसीलिए किसी भी अप्रिय घटना के बाद हम सब राजनेता एकनिष्ठ होकर एक-दूसरे को गालियाँ देने लगते हैं। सिस्टम के जंजाल में फँसाकर उस समस्या के हर समाधान को इतना दुःखी कर देते हैं कि समस्या में घिरे लोगों को अपना दुःख तुच्छ लगने लगता है।
कभी-कभी किसी शुद्ध राजनेता में भी विभीषण की आत्मा जाग जाती है और वह जनहित के अभिनय को सच समझकर सचमुच जनहित करने का प्रयास करता है तो हम उसे ‘भटका हुए नौजवान’ बनने से रोकने के लिए उससे ऐसे-ऐसे काग़ज़ मांगने लगते हैं कि उसके सिर से लोक-कल्याण का भूत उतर जाता है और वह बेबस के लिए बस लेकर निकलने की बजाय ट्वीट करने लगता है। वह जानता है कि इस देश में पैदल चलना आसान है, पर सिस्टम से चलना असम्भव है।
हमने पूरी आस्था और लगन से इस देश के लिए एक ऐसा पुख्ता सिस्टम तैयार किया है कि कोई भी सवाली अपनी समस्या लेकर इसमें घुसने की कोशिश करे तो दो ही स्थितियां होती हैं, या तो वह इसकी भूलभुलैया से ज़िन्दगी भर बाहर निकल ही नहीं पाता, और अगर कोई सूरमा निकल भी आए तो अपनी समस्या का दोष अपने ही सिर मढ़कर निकलता है।
कोरोना ट्रेन और बस में फर्क नहीं करता, तो क्या राजनीति भी न करे। कोरोना सबको एक दृष्टि से देखता है तो क्या राजनीति भी यह मूर्खता करे। कोरोना सबको एक तरीके से मारता है। लेकिन राजनीति ऐसा कभी नहीं करती। वह ट्रेन से आनेवालों के लिए अलग नियम बनाती है और फ्लाइट से आनेवालों के लिए अलग नियम बनाती है। जिन्हें हमने समानता के एहसास के साथ जीने नहीं दिया उन्हें इसी एहसास के साथ मरने की अनुमति कैसे दे सकते हैं।
राजनीति जानती है कि हवाई दौरा करने से बाढ़ का पानी नहीं उतरता, लेकिन इससे यह लाभ होता है कि बाढ़ देख-देखकर बोर होते देश को थोड़ी देर हेलीकॉप्टर देखने का अवसर मिल जाता है। राजनीति जानती है कि क्वारन्टीन सेंटर्स में जाकर मनुष्य का जीवन नरक से भी बदतर हो जाता है। राजनीति यह भी जानती है कि मोबाइल से कोरोना नहीं फैलता। लेकिन फिर भी कुछ सरकारों ने क्वारन्टीन केंद्रों में मोबाइल ले जाने पर रोक लगा दी है, ताकि वहाँ के नरक का दर्शन कर बाकी देश दुःखी न हो।
राजनीति के मन की इन कोमल भावनाओं पर कोई ध्यान देता। सब एक ही बात कहते हैं, राजनीति मत करो। अरे भई, राजनीति न करें तो क्या सड़क पर आ जाएँ!

© चिराग़ जैन

Friday, May 22, 2020

जग में सभी खोवायो

मीराबाई ने फेसबुक पर लिखा - ‘मेरे तो गिरधर गोपाल, दूसरो न कोई’। लोगों ने इस पंक्ति को अपने-अपने स्टेटस पर चिपकाया। कुछ दिन बाद राणा ने मीराबाई के खि़लाफ़ एक पोस्ट लिखी। लोगों ने उस पोस्ट को देखते ही मीराबाई को ट्रोल करना शुरू कर दिया। कुछ क्रिएटिव लोगों ने फोटोशॉप करके मीराबाई की आपत्तिजनक फोटुएँ डालीं, कुछ कलाकारों ने डबिंग करके मीराबाई की अश्लील फोन कॉल का ऑडियो उपलब्ध करा दिया। कुलटा, बदचलन, चरित्रहीन, लूज़ कैरेक्टर, संस्कृति के लिए खतरा और न जाने क्या-क्या कहकर बेचारी के नाम पर अपने-अपने फॉलोवर्स बढ़ाते रहे। मीरा, अपमान का विष पीती रही और अंततः एक दिन अपनी प्रोफाइल डिलीट करके विलीन हो गई।
उसके मरते ही लोगों ने राणा को ट्रोल करना शुरू कर दिया। हत्यारा, प्रेम का दुश्मन, स्त्री विरोधी, नपुंसक, विलासी और न जाने क्या क्या कहकर राणा के बहाने अपने फॉलोवर्स बढ़ाने लगे। एक ने मीरा को देवी बताते हुए पेज बना लिया। एक ने मीराबाई सपोर्टर्स ग्रुप बना लिया। और एक ने तो इवेंट क्रिएट की - ‘कृष्ण भक्ति में डूबेगा फेसबुक, डिजिटल कीर्तन होगा, इवेंट टाइटल - मेरे तो गिरधर गोपाल!’

-चिराग़ जैन

भई संतन की भीड़

गोस्वामी तुलसीदास ने रामायण का अवधी में अनुवाद करके रामचरितमानस लिखी। संस्कृत विद्वानों ने ‘कट्टर संस्कृतभाषी’ नामक व्हाट्सएप ग्रुप में मानस को संस्कृत के लिए संकट घोषित करते हुए फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम पर तुलसी विरोध की फौज तैयार कर ली।
मानस अनपढ़ों का ग्रन्थ है, तुलसी की जाति का पता नहीं है, तुलसी अनपढ़ है, तुलसी भिखमंगा है जैसे मेन्युपुलेटिड तथ्यों से शुरू होकर तुलसी मुग़लो का चमचा है, तुलसी विदेशी फंडिंग से देशविरोधी गतिविधियाँ करता है, तुलसी खानखाना का दोस्त है, तुलसी हिन्दू देवी-देवताओं का अपमान कर रहा है, तुलसी का असली नाम तुफ़ैल खान है, तुलसी मुफ्त का चन्दन घिसता रहता है - जैसे आधारहीन विवादों तक तुलसी का विरोध हुआ। टेक्स्ट, पोस्टर, फ़ोटो, वीडियो और ऑडियो जैसे हर माध्यम से व्यवस्थित रूप से मानस और तुलसी का विरोध किया गया। कई दिन तक हंगामा चलता रहा और कई लोगों ने तुलसी को ब्लॉक कर दिया।
बाद में कट्टर संस्कृतभाषी लोगों ने अपने यूट्यूब चौनल पर व्यूज़ बढ़ाने के लिए थम्बनेल बनाया, जिस पर लिखा था - ‘ऐसी रामकथा आपने पहले नहीं सुनी होगी - हरि अनन्त हरि कथा अनन्ता’!

© चिराग़ जैन

Thursday, May 21, 2020

सरकार का साक्षात्कार

‘हुज़ूर पैदल चलते मजदूरों के लिए सरकारें क्या कर रही हैं?’
‘सरकारें मजदूरों की सहायता के लिए योजना बना रही हैं।’

‘लेकिन जब तक योजना बनेगी तब तक मजदूर कई योजन चल चुके होंगे।’
‘यह सब जनहित में किया जा रहा है। सरकारें जानती हैं कि मजदूरों का स्वस्थ रहना आवश्यक है। स्वस्थ रहने के लिए उचित पोषण की आवश्यकता होती है। मजदूर ड्राईफ्रूट खाएँ, दूध पीयें, फल-फ्रूट खाएँ, देसी घी के पराठें खाएँ ताकि उन्हें पोषण मिले। डॉक्टर कहते हैं कि इतना सब खाने के बाद उसे पचाने के लिए पैदल चलना चाहिए। इसलिए मजदूरों का पैदल चलना उनके हित में है।’

‘लेकिन हुजूर, मजदूरों को तो दो वक़्त की सूखी रोटी भी नसीब नहीं हो रही!’
‘ओफ्फो! यही समस्या है इस देश की। सब कुछ सरकार से चाहते हैं। अरे भाई, भोजन जुटाना जनता का काम है और उसे पचाना सरकारों का। सरकारें सिर्फ पचाना जानती हैं। जिसका जो काम है, उसे वही करने दो।’

‘हुज़ूर, लोग कह रहे हैं कि सरकार ने मजदूरों की सहायतार्थ बसें भेजने की प्रक्रिया में अड़ंगा लगाया है।’
‘यह सरासर ग़लत है। विपक्ष राजनीति करना चाहता है। वह ऑटो को बस बताकर जनता की आँखों में धूल झोंकना चाहता है। जब देश में एक चुनी हुई सरकार है, तो इस काम के लिए विपक्ष को मेहनत करने की क्या ज़रूरत है।’

‘लेकिन इन बसों से पैदल चलते मजदूरों को कुछ सहायता मिल सकती थी।’
‘देखो साहब! हमारा धर्म है कि सौ अपराधी छूट जाएँ लेकिन एक निर्दाेष को सज़ा नहीं मिलनी चाहिए। इसी प्रकार हज़ार बसें खड़ी रह जाएँ तो स्वीकार कर सकते हैं लेकिन बसों के नाम पर ऑटो रिक्शा भेजकर भोले-भाले मजदूरों को छलने के विपक्षी मनसूबों को हम कभी सफल नहीं होने देंगे।’

‘लेकिन हुज़ूर...’
‘अब बस करो यार, सवाल पर सवाल ही पूछे जा रहे हो। सवाल न हुए कोरोना हो गया, रुकने का नाम ही नहीं ले रहा। जिन मजदूरों को कोई नहीं पूछता था, आज वे टीवी पर दिख रहे हैं, यह विकास दिखता ही नहीं आपको। और फिर लोग घर बैठकर बोर हो रहे हैं, ऐसे में इन मजदूरों को खुले आसमान के नीचे साँस लेने का अवसर मिल रहा है... और क्या चाहिए। जाइये, चुपचाप इंटरव्यू छापिए, और हाँ छपवाने से पहले हमें दिखा लेना, कहीं अपनी मर्ज़ी से कुछ सच वगैरा लिखकर जनता को गुमराह न कर दो।’

© चिराग़ जैन

Wednesday, May 20, 2020

कला

कलाएं, समाज की वन्दनवार हैं। ये इस्तेमाल की जाती हैं, समाज के उत्सवों को श्वास देने के लिए। ये काम आती हैं, समाज की उदासी में मुस्कान भरने के लिए। इन्हें निमंत्रित किया जाता है, समाज का सिंगार करने के लिए। लेकिन जब कोई आपदा आती है तब इन वन्दनवारों को कोई नहीं बचाता। 
किसी को ध्यान ही नहीं रहता कि जिन तोरणद्वारों से आते-जाते शुभाशीष लिया है, उनका जीवन भी संकट में है। वन्दनवार भागते-दौड़ते लोगों के माथे चूम-चूम कर अपने अस्तित्व की याद दिलाती हैं, आपदा से लड़ने के लिए भागते हुए समाज को आशीष देने का कर्तव्य निभाती रहती हैं। समाज को, यह मस्तक चूमकर आशीष देना, अखरने लगता है। 
वन्दनवार माथे चूम-चूमकर टूट जाती हैं और समाज इस जर्जर शुभकामना को छोड़कर स्वयं को सुरक्षित करने में व्यस्त हो जाता है। आपातकाल व्यतीत करने के बाद, जब तक समाज लौटता है, तब तक उसके मंगल की कामना करते-करते वन्दनवार प्राण त्याग चुकी होती है। समाज सामान्य होने लगता है और वन्दनवारों की नई पीढियां उनके द्वार-देहरियों को आशीष देने के लिए इस्तेमाल होने लगती हैं। इसी प्रक्रिया में कुछ वन्दनवारों के वंश समाप्त हो गए। कठपुतली, नौटंकी, तमाशा, क़व्वाली, नट और न जाने कितने वंश लुप्तप्रायः हैं। सुना है, "सब कुछ सामान्य होने के बाद" समाज इन वंशों के अवशेषों को महंगे दाम पर बेचता है। सुना है, कला की क़ीमत तब बढ़ती है, जब वह मर जाती है। 

© चिराग़ जैन

कला की क़ीमत

कलाएँ, समाज की वन्दनवार हैं। ये इस्तेमाल की जाती हैं, समाज के उत्सवों को श्वास देने के लिए। ये काम आती हैं, समाज की उदासी में मुस्कान भरने के लिए। इन्हें निमंत्रित किया जाता है, समाज का सिंगार करने के लिए। लेकिन जब कोई आपदा आती है तब इन वन्दनवारों को कोई नहीं बचाता। किसी को ध्यान ही नहीं रहता कि जिन तोरणद्वारों से आते-जाते शुभाशीष लिया है, उनका जीवन भी संकट में है।
वन्दनवार भागते-दौड़ते लोगों के माथे चूम-चूमकर अपने अस्तित्व की याद दिलाती हैं, आपदा से लड़ने के लिए भागते हुए समाज को आशीष देने का कर्तव्य निभाती रहती हैं। समाज को, यह मस्तक चूमकर आशीष देना, अखरने लगता है। वन्दनवार माथे चूम-चूमकर टूट जाती हैं और समाज इस जर्जर शुभकामना को छोड़कर स्वयं को सुरक्षित करने में व्यस्त हो जाता है।
आपातकाल व्यतीत करने के बाद, जब तक समाज लौटता है, तब तक उसके मंगल की कामना करते-करते वन्दनवार प्राण त्याग चुकी होती है।
समाज सामान्य होने लगता है और वन्दनवारों की नई पीढियाँ उनके द्वार-देहरियों को आशीष देने के लिए इस्तेमाल होने लगती हैं। इसी प्रक्रिया में कुछ वन्दनवारों के वंश समाप्त हो गए। कठपुतली, नौटंकी, तमाशा, क़व्वाली, नट और न जाने कितने वंश लुप्तप्रायः हैं।
सुना है, ‘सब कुछ सामान्य होने के बाद’ समाज इन वंशों के अवशेषों को महंगे दाम पर बेचता है। सुना है, कला की क़ीमत तब बढ़ती है, जब वह मर जाती है।

© चिराग़ जैन

Friday, May 15, 2020

मजदूरों का पलायन

हमारी ख़्वाहिश यह है कि हमारा जीवन हमारे हिसाब से चल पाए।
और उनका संघर्ष यह है कि उनका जीवन चल पाए।

© चिराग़ जैन

Sunday, May 10, 2020

लॉकडाउन: एक नई शुरुआत

घर के बाहर झाड़ियों में कुछ लाल-लाल चमक रहा था, ध्यान से देखा तो पके हुए देसी टमाटर थे। आदमी का हस्तक्षेप न हुआ तो ख़ुद-ब-ख़ुद पनप गए। प्रकृति की इस सुंदर भेंट को दुलराया तो टप्प से मेरे हाथ में आ गए। उनके निश्छल सौंदर्य को निहारकर कुछ चित्र खींचे और फिर उनका भोग लगाया तो रसना ताज़गी से सिक्त हो गई और नासिका को टमाटरी महक ने आनन्दित कर दिया।
आज मैंने महसूस किया कि प्रकृति हमारे लिये कितना कुछ लिए बैठी है, जिसे अपनी भागदौड़ में हम रौंद कर आगे बढ़ जाते थे।
दुनिया उस रेखा पर आ खड़ी हुई है, जहाँ से मानव सभ्यता का एक नया अध्याय शुरू होना है। हमारी अब तक की सोच, जीवनशैली, संबंध, सिद्धांत और व्यवहार इस रेखा के पीछे छूट गए हैं और हम अपने अस्तित्व के साथ आगे निकल आए हैं। यहाँ से आगे जाने वाले हर मनुष्य को पुरानी आदतों से स्वयं को अलग करके एक नई शुरुआत करनी होगी। जब-जब पुराने दिन याद आएंगे, तब-तब हम क्षोभ, दुःख और तनाव की जकड़ में आ जाएंगे। यूँ समझ लो कि परिस्थितियों ने लहलहाते खेतों की अभ्यस्त आँखों को परती भूमि पर ला पटका है। अब खेतों को याद करके रोने की बजाय नाखूनों से भूमि की परतें हटाने के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है। इस परिस्थिति से सामना करने के लिए आत्मबल और जिजीविषा की सर्वाधिक आवश्यकता होगी।
महाभारत के युद्ध से पहले अर्जुन का मन इसी आत्मबल से रिक्त हो गया था, जब श्री कृष्ण ने गीता सुनाकर पार्थ को टूटने से बचा लिया था। इस समय भी कविता का युगधर्म यही है कि जहाँ तक संभव हो, मनुष्य को अवसाद की अंधी खोह में जाने से बचा ले।

© चिराग़ जैन

Tuesday, May 5, 2020

कौन पूछे हाल प्यादों का

एक राजा, एक रानी
कुछ वज़ीरों की कहानी
चंद घोड़े, चंद हाथी
बस यही है राजधानी
ऊँट रस्ता तक रहे, चुपचाप भादों का
कौन पूछे हाल प्यादों का

कोई मजबूरी जताकर मार डालोगे हमें तुम
कल बिसातों पर मगर फिर से सजा लोगे हमें तुम
दाँव पहला, हर दफ़ा हम ही चलेंगे खेल में पर
हम घिरे तो खेल से बाहर निकलोगे हमें तुम
जानते हैं रंग हम सबके लबादों का
कौन पूछे हाल प्यादों का

हाँ, ज़माने के लिए तुम हर तरह हम से बड़े हो
पर हक़ीक़त में हमारी ओट में दुबके पड़े हो
जंग के मैदान में दोनों तरफ़ से घिर गए हम
सामने दुश्मन खड़ा है, और पीछे तुम खड़े हो
वार सहना है हमें सबके इरादों का
कौन पूछे हाल प्यादों का

भूलना मत, हम नहीं हैं अब तुम अपने आसरे हो
भूलना मत, जिस जगह हम थे, वहाँ अब तुम धरे हो
भूलना मत ढाल तुमको, बोझ लगने लग गई थी
हम तुम्हारे मोहरे थे, तुम किसी के मोहरे हो
अब दिखेगा नूर सारे शाहज़ादों का
कौन पूछे हाल प्यादों का

© चिराग़ जैन