घर के बाहर झाड़ियों में कुछ लाल-लाल चमक रहा था, ध्यान से देखा तो पके हुए देसी टमाटर थे। आदमी का हस्तक्षेप न हुआ तो ख़ुद-ब-ख़ुद पनप गए। प्रकृति की इस सुंदर भेंट को दुलराया तो टप्प से मेरे हाथ में आ गए। उनके निश्छल सौंदर्य को निहारकर कुछ चित्र खींचे और फिर उनका भोग लगाया तो रसना ताज़गी से सिक्त हो गई और नासिका को टमाटरी महक ने आनन्दित कर दिया।
आज मैंने महसूस किया कि प्रकृति हमारे लिये कितना कुछ लिए बैठी है, जिसे अपनी भागदौड़ में हम रौंद कर आगे बढ़ जाते थे।
दुनिया उस रेखा पर आ खड़ी हुई है, जहाँ से मानव सभ्यता का एक नया अध्याय शुरू होना है। हमारी अब तक की सोच, जीवनशैली, संबंध, सिद्धांत और व्यवहार इस रेखा के पीछे छूट गए हैं और हम अपने अस्तित्व के साथ आगे निकल आए हैं। यहाँ से आगे जाने वाले हर मनुष्य को पुरानी आदतों से स्वयं को अलग करके एक नई शुरुआत करनी होगी। जब-जब पुराने दिन याद आएंगे, तब-तब हम क्षोभ, दुःख और तनाव की जकड़ में आ जाएंगे। यूँ समझ लो कि परिस्थितियों ने लहलहाते खेतों की अभ्यस्त आँखों को परती भूमि पर ला पटका है। अब खेतों को याद करके रोने की बजाय नाखूनों से भूमि की परतें हटाने के अतिरिक्त कोई उपाय नहीं है। इस परिस्थिति से सामना करने के लिए आत्मबल और जिजीविषा की सर्वाधिक आवश्यकता होगी।
महाभारत के युद्ध से पहले अर्जुन का मन इसी आत्मबल से रिक्त हो गया था, जब श्री कृष्ण ने गीता सुनाकर पार्थ को टूटने से बचा लिया था। इस समय भी कविता का युगधर्म यही है कि जहाँ तक संभव हो, मनुष्य को अवसाद की अंधी खोह में जाने से बचा ले।
© चिराग़ जैन
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