जब भी कोई घटना घटती है तो हर कोई ऐरा-ग़ैरा मुँह उठाकर राजनेताओं को उपदेश देने लगता है कि इस घटना पर राजनीति न करो। हद्द है, क्यों न करें राजनीति! राजनीति करना उनका काम है। तुम्हारी तरह संवेदना और जनहित जैसी फालतू बातों में उलझना होता तो राजनीति में क्यों आते?
हमारा कंसेप्ट बिल्कुल क्लियर है। घटनाएँ घटती ही रहती हैं। सच्चा नेता वह है जो हर घटना का इस्तेमाल अपने लाभ के लिए कर सके। बुद्धिजीवियों का काम है कि वे सच बोलें। लेकिन हमारा धर्म है कि हम उसे विपक्षी साज़िश सिद्ध कर दें।
अब राजनेता होने का ये तो मतलब है नहीं कि हम मजदूरों को गोदी में उठाकर घर पहुँचाएँ। राजनेता अगर सचमुच जनता की समस्याएँ दूर करने लग जाएंगे, तो ख़ुद सड़क पर आ जाएंगे। हमें तो बस इतना करना है कि जब हो-हल्ला बढ़ने लगे तो इसका ठीकरा फोड़ने के लिए उपयुक्त सिर ढूंढ लें। अगर हम सरकार में हों, तो विपक्ष को दोषी ठहरा दें, अगर विपक्ष में हैं तो सरकार को संवेदनहीन घोषित कर दें। राज्य सरकार में हैं तो केंद्र सरकार को कठघरे में खड़ा कर दें, केंद्र सरकार में हैं तो राज्य सरकारों को लापरवाह घोषित कर दें। हाँ, अगर कभी सरकार से लेकर विपक्ष तक और केंद्र से लेकर सरकार तक हम ही हम हों तो जनता को कामचोर कहना शुरू कर दो, पुलिस को भ्रष्टाचारी कहने लगो, बैंककर्मियों को मुनाफाखोर बता दो, कुल मिलाकर आरोप लगाते रहो।
इन आरोपों का सबसे बड़ा लाभ यह है कि इससे ख़बरें असली समस्या से भटककर ट्वीट के टाइमिंग, उसकी भाषा, गालियों के स्तर और बातों के दाँव-पेंच में उलझ जाती हैं। उधर मजदूर चलते रहते हैं, इधर ख़बरें चलती रहती हैं। मजदूर सड़क पर चलते-चलते कहीं न कहीं पहुँच ही जाएंगे। इधर हम भी ख़बरों में चलते-चलते किसी न किसी सरकार का हिस्सा बन ही जाएंगे।
संसार तो दुःखों का सागर है ही। यहाँ कष्ट कभी समाप्त हो ही नहीं सकते। यह ईश्वरीय व्यवस्था है। तो फिर कष्ट ख़त्म करने का असफल प्रयास करके हम देश का पैसा बर्बाद क्यों करें। मनुष्य जीवन इन्हीं समस्याओं के मध्य सुख तलाशने के लिए मिलता है। सो, हम अपना सुख तलाश लेते हैं।
कहते हैं, नई समस्या आते ही मनुष्य पुरानी समस्या को भूल जाता है। इसीलिए किसी भी अप्रिय घटना के बाद हम सब राजनेता एकनिष्ठ होकर एक-दूसरे को गालियाँ देने लगते हैं। सिस्टम के जंजाल में फँसाकर उस समस्या के हर समाधान को इतना दुःखी कर देते हैं कि समस्या में घिरे लोगों को अपना दुःख तुच्छ लगने लगता है।
कभी-कभी किसी शुद्ध राजनेता में भी विभीषण की आत्मा जाग जाती है और वह जनहित के अभिनय को सच समझकर सचमुच जनहित करने का प्रयास करता है तो हम उसे ‘भटका हुए नौजवान’ बनने से रोकने के लिए उससे ऐसे-ऐसे काग़ज़ मांगने लगते हैं कि उसके सिर से लोक-कल्याण का भूत उतर जाता है और वह बेबस के लिए बस लेकर निकलने की बजाय ट्वीट करने लगता है। वह जानता है कि इस देश में पैदल चलना आसान है, पर सिस्टम से चलना असम्भव है।
हमने पूरी आस्था और लगन से इस देश के लिए एक ऐसा पुख्ता सिस्टम तैयार किया है कि कोई भी सवाली अपनी समस्या लेकर इसमें घुसने की कोशिश करे तो दो ही स्थितियां होती हैं, या तो वह इसकी भूलभुलैया से ज़िन्दगी भर बाहर निकल ही नहीं पाता, और अगर कोई सूरमा निकल भी आए तो अपनी समस्या का दोष अपने ही सिर मढ़कर निकलता है।
कोरोना ट्रेन और बस में फर्क नहीं करता, तो क्या राजनीति भी न करे। कोरोना सबको एक दृष्टि से देखता है तो क्या राजनीति भी यह मूर्खता करे। कोरोना सबको एक तरीके से मारता है। लेकिन राजनीति ऐसा कभी नहीं करती। वह ट्रेन से आनेवालों के लिए अलग नियम बनाती है और फ्लाइट से आनेवालों के लिए अलग नियम बनाती है। जिन्हें हमने समानता के एहसास के साथ जीने नहीं दिया उन्हें इसी एहसास के साथ मरने की अनुमति कैसे दे सकते हैं।
राजनीति जानती है कि हवाई दौरा करने से बाढ़ का पानी नहीं उतरता, लेकिन इससे यह लाभ होता है कि बाढ़ देख-देखकर बोर होते देश को थोड़ी देर हेलीकॉप्टर देखने का अवसर मिल जाता है। राजनीति जानती है कि क्वारन्टीन सेंटर्स में जाकर मनुष्य का जीवन नरक से भी बदतर हो जाता है। राजनीति यह भी जानती है कि मोबाइल से कोरोना नहीं फैलता। लेकिन फिर भी कुछ सरकारों ने क्वारन्टीन केंद्रों में मोबाइल ले जाने पर रोक लगा दी है, ताकि वहाँ के नरक का दर्शन कर बाकी देश दुःखी न हो।
राजनीति के मन की इन कोमल भावनाओं पर कोई ध्यान देता। सब एक ही बात कहते हैं, राजनीति मत करो। अरे भई, राजनीति न करें तो क्या सड़क पर आ जाएँ!
© चिराग़ जैन
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