मैं एक ऐसे साहित्यकार को जानता हूँ जो हर समय विरोध और प्रतिकार की मुद्रा में ही दृष्टिगोचर होते हैं। वे कहीं भी, कभी भी, किसी भी बात से असहमत हो जाते हैं। यह असहमति उनकी दाढ़ी की तरह घटती-बढ़ती रहती है।
वेदव्यास से लेकर तुलसीदास तक और राजेन्द्र यादव से दुष्यंत कुमार तक कोई साहित्यिक तीसमारखां उनकी असहमति के दायरे से अछूता नहीं रह सका। एक बार तो वे मुझसे इस बात पर असहमत हो गए कि मेरा नाम उर्दू का लफ़्ज़ क्यों है। इस बात पर जब उनकी असहमति मेरे माता-पिता के प्रति असम्मान तक पहुँच गई तब मुझे अपने धैर्य देवता को स्तंभित कर काफी जनसुलभ शब्दावली से उनका रुद्राभिषेक करना पड़ा था। तब कहीं जाकर उनके मूल शांत हुए।
वे स्वयं को हिंदी का सबसे बड़ा पक्षधर और हितैषी मानते हैं। साथ ही वे यह बात भी पूरे ज़ोर-शोर से मानते हैं कि जिसे वे नहीं मानते उसका होना व्यर्थ है। इसी कारण विवेकानंद से लेकर कबीर तक उनके द्वारे अपना-अपना साहित्यिक बोरिया लिए पड़े रहते हैं ताकि किसी दिन उनके भाग्य जागें और उनका निरर्थक जीवन सार्थक हो जावे।
चूँकि समस्त साहित्यकारों को पढ़ने के उपरांत वे उनको मान नहीं पाए इसलिए आजकल अपने वक्तव्यों में वे अपनी बहू के मोबाइल सेट, आपनी पोती की सहेलियों, विदेश में सैटल अपने पोते की ई-मेल, अपने चश्मे का नंबर और अपनी बनाई चाय में अदरक की खुशबू जैसे जाने-माने उद्धरणों से काम चलाते हैं।
नई पीढ़ी और नए फैशन आदि से वे बहुत खिन्न रहते हैं। विकास के नाम पर सुविधाभोगी हो चले युवाओं से उन्हें ख़ास चिढ़ है। यह चिढ़ उनके उन लेखों में अधिक मुखर हो उठती है जो वे डायरेक्ट लेपटॉप पर ही लिखते हैं।
एक बार तो किसी शोकसभा में बोलते हुए वे स्वयं दिवंगत आत्मा से असहमत हो गए थे। उन्होंने फूलमाला के बीच से झाँकते चेहरे को देखकर हिकारत से कहा- ‘ये क्या बात हुई भाई, मरना ही था तो पैदा क्यों हुए थे? मुझे समझ नहीं आता कि आजकल के बूढ़े इतने कामचोर क्यों होते जा रहे हैं कि साँस लेने जितना श्रम भी नहीं कर सकते?’ शोकसभा में अन्य लोग यदि तेरह दिन के मातम से ऊबे हुए न होते तो उस दिन शोकसभा के बाहर ‘टू बी कॉन्टीन्यूड’ का बोर्ड लग जाता।
वे साहित्य में चलताऊ बातों से उकता चुके हैं। इसीलिए अब वे उन घिसी-पिटी लकीरों को तोड़ने में जुट गए हैं। वैचारिक तोड़-फोड़ से उन्हें इतना लगाव है कि उन्होंने अपनी एक ही किताब के शीर्षक में दो बार ‘तोड़ो’ शब्द का प्रयोग किया है। उनकी इस तोड़-फोड़ से प्रभावित होकर राजधानी में कुछ टूटी-फूटी हिंदी के साहित्यकारों ने उन्हें दद्दा कहना शुरू कर दिया है। इस स्नेह से फूल कर पिछले दिनों उन्होंने उन मुट्ठी भर कवियों का प्रतिशत निकालकर बताया कि मुझे दद्दा कहकर सम्मान देने वाले इन दस प्रतिशत के अतिरिक्त और कोई कवि है ही नहीं।
उनके साहित्य तथा भाषा प्रेम से मैं अभिभूत हूँ। वे हिंदी भाषा को सहज होते देख खिन्न हो जाते हैं। वे उसे उल्टे पाली और प्राकृत की ओर जाते देखना चाहते हैं। वे हिंदी की मुस्कुराहट से परेशान रहते हैं। उन्हें हिंदी में रोते-पीटते, माथा फोड़ते और गाली-गलौज करते माहौल रुचते हैं। वे हिंदी को दीमक खाए भोजपत्रों से उठकर मोबाइल स्क्रीन पर चमकता देखते हैं तो उस पर गंगाजल छिड़कने लगते हैं। इस चक्कर में वे अपने कई मोबाइल सेट ख़राब कर चुके हैं।
बहरहाल, वे हिंदी के योग्य पुत्र हैं। उनका कर्तव्य है कि वे हिंदी को कमरे के भीतर वाली कोठड़ी में घोंट कर रखें। क्योंकि उनका मानना है कि यदि उनकी हिंदी माता किसी अन्य भाषा के शब्द को गले लगा लेगी तो वह अस्पृश्य हो जाएगी।
© चिराग़ जैन
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