Wednesday, May 20, 2020

कला

कलाएं, समाज की वन्दनवार हैं। ये इस्तेमाल की जाती हैं, समाज के उत्सवों को श्वास देने के लिए। ये काम आती हैं, समाज की उदासी में मुस्कान भरने के लिए। इन्हें निमंत्रित किया जाता है, समाज का सिंगार करने के लिए। लेकिन जब कोई आपदा आती है तब इन वन्दनवारों को कोई नहीं बचाता। 
किसी को ध्यान ही नहीं रहता कि जिन तोरणद्वारों से आते-जाते शुभाशीष लिया है, उनका जीवन भी संकट में है। वन्दनवार भागते-दौड़ते लोगों के माथे चूम-चूम कर अपने अस्तित्व की याद दिलाती हैं, आपदा से लड़ने के लिए भागते हुए समाज को आशीष देने का कर्तव्य निभाती रहती हैं। समाज को, यह मस्तक चूमकर आशीष देना, अखरने लगता है। 
वन्दनवार माथे चूम-चूमकर टूट जाती हैं और समाज इस जर्जर शुभकामना को छोड़कर स्वयं को सुरक्षित करने में व्यस्त हो जाता है। आपातकाल व्यतीत करने के बाद, जब तक समाज लौटता है, तब तक उसके मंगल की कामना करते-करते वन्दनवार प्राण त्याग चुकी होती है। समाज सामान्य होने लगता है और वन्दनवारों की नई पीढियां उनके द्वार-देहरियों को आशीष देने के लिए इस्तेमाल होने लगती हैं। इसी प्रक्रिया में कुछ वन्दनवारों के वंश समाप्त हो गए। कठपुतली, नौटंकी, तमाशा, क़व्वाली, नट और न जाने कितने वंश लुप्तप्रायः हैं। सुना है, "सब कुछ सामान्य होने के बाद" समाज इन वंशों के अवशेषों को महंगे दाम पर बेचता है। सुना है, कला की क़ीमत तब बढ़ती है, जब वह मर जाती है। 

© चिराग़ जैन

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