Saturday, November 1, 2025

मास्टर स्ट्रोक से सारे प्रदूषण पर लगाम

पुराने समय में किसी नगर में एक यशस्वी राजा राज्य करता था। एक बार सभी राजकीय कर्मचारियों ने राजा की महा आरती का आयोजन किया। राजकाज के सभी कर्मचारी अपने-अपने विभाग के बजट के अनुरूप दीप, धूप, लौबाण, गुग्गल और न जाने कितनी ही सामग्री बटोर लाए।
आयोजन बहुत भव्य था। धूप के धुएं ने आकाश तक जाकर राजा की लोकप्रियता के फरमान पर हस्ताक्षर किए। धीरे-धीरे यह धुआं राजा के विरोधियों की आँखों में चुभने लगा। विरोधियों की आँखें लाल हुई तो प्रजा की भी साँस घुटने लगी। 
विरोधी, जनता की कराह को चीख बनाने पर तुल गये और मंत्रियों ने कराह की आवाज़ को आरती के मंजीरे की आवाज़ घोषित करके राजा की पूजा जारी रखी। 
जब धुएं से ख़ुद राजा की ही साँस उखड़ने लगी तो राजा ने मंत्रियों से पूछा कि इस धुएं का क्या करें? 
मंत्रियों ने राजा को सुझाव दिया कि और तो कुछ नहीं हो सकता लेकिन ये धुआं प्रजा की आँखों में झोंकने के काम आ सकता है।
समाधान सुनकर राजा की आँखें चमक उठीं। उसने अपने काबिल मंत्रियों की ओर प्रशंसा भरी नजरों से देखा।
एक मंत्री बोला, 'हुज़ूर, हम इस धुएं को धोकर राजा की सौगात के रूप में जनता को बांट देंगे।'
'लेकिन धुएं को धोया कैसे जाएगा?' एक चिढ़ोकड़ा मंत्री बोला। 
''पानी से धुलाई होगी जनाब, और कैसे धोयेंगे?' पहला मंत्री गुफी पेंटल के अंदाज़ में खिसियानी हँसी हँसते हुए बोला। 
राजा को सुझाव पसंद आया, पूरे राज्य में मुनादी हो गयी कि "सब अपने-अपने घर के ऊपर छाये धुएं को धो-पोंछकर साफ़ करेंगे। जिसके घर के ऊपर ज़हरीला धुआं मिला, उसको राजा के आदेश से देशनिकाला दे दिया जाएगा।"
मुनादी काम कर गई, देशनिकाले के डर से जनता ने अपने-अपने ऊपर के आसमान को साफ़-सुथरा कहना शुरू कर दिया। समाजसेवी संगठनों ने जगह-जगह कैंप लगाकर हवा में पानी उछाला और धुएं की धुलाई में उल्लेखनीय योगदान दिया। वैद्य-हकीमों ने धुएं में साँस लेने के चिकित्सीय लाभ बताकर प्रजा को जागरूक किया। हरकारों ने घर-घर संदेश पहुँचाया कि राजा की बेहतरीन शासकीय क्षमता से प्रजा की आँखों से ख़ुशी के जो आँसू बहे, उन्हीं आँसुओं से सारा धुआं धुल गया। 
विरोधियों ने जिस आसमान को सिर पर उठा रखा था, उसी आसमान को शीशे की तरह साफ़ बताकर प्रजा ने विरोधियों के सिर पर दे मारा। 
इसे कहते हैं मास्टर स्ट्रोक।राजा ने एक मुनादी से प्रदूषण की चौतरफा सफाई कर दी। 
पानी बहा, इससे जल प्रदूषण समाप्त हो गया। धुआं धुल गया इससे वायु प्रदूषण ख़त्म हुआ। जिनकी आँखों में राजा की ख्याति खटक रही थी, उनकी आँखों का कचरा साफ़ हो गया। 
और विरोधियों की बोलती बंद हुई इससे ध्वनि प्रदूषण पर भी लगाम लग गई।

डिस्क्लेमर: इस कहानी के सभी पात्र काल्पनिक हैं।यदि इसमें दिल्ली के प्रदूषण के दर्शन हों तो यह केवल एक इत्तफाक होगा। 

✍️ चिराग़ जैन

Wednesday, October 29, 2025

मन और गंगा

अपने मन को गंगाजल की तरह निर्मल करने चले थे, गंगाजल को अपने मन की तरह मैला कर आए।

✍️ चिराग़ जैन

Saturday, October 25, 2025

चुनावों से पहले पटाखे डरे हुए हैं

देश भर में दीवाली का माहौल है और बिहार में चुनाव का। हालाँकि राजनीति तो बिहार को ही अयोध्या मानकर अपने राजतिलक की प्रतीक्षा कर रही है।
हर दल स्वयं को भरत माने बैठा है कि सत्ता के रामचंद्र जी आकर उसी से गले लगेंगे। सत्ता के गले पड़ने के लिए हर नेता ने ख़ुद के भरत होने की घोषणा कर रखी है, लेकिन बिहार जानता है कि ये सब भरत, विभीषण बन जाने का सही मौक़ा तलाश रहे हैं।
दरअस्ल चुनाव वह पंचवटी है जिसमें हर रावण, साधु बनकर सीताहरण का अवसर तलाशता फिरता है। मारीच मुद्दों को भटकाने के लिए सीता के सामने कंचनमृग बनकर विचरता है और जो लक्ष्मण, सीता की सुरक्षा के लिए उपस्थित होता है उसे सीता खरी-खोटी सुनाकर ख़ुद अपने से दूर कर देती है।
बहरहाल टिकटों की आतिशबाज़ी हो चुकी है, जिनके पटाखे फुस्स हो गए उन्होंने अपने रॉकेट की बोतल का मुँह पार्टी कार्यालय की ओर मोड़ दिया। जिनको टिकट मिल गई उन्होंने अपने भीतर के बारूद को कपूर बताकर पार्टी की आरती उतारनी शुरू कर दी।
जिन्हें टिकट की सूची में जगह नहीं मिली, उन्होंने अपने-अपने लंकेश को भ्रष्टाचारी घोषित कर दिया है। उधर हर लंकेश मन ही मन सेतुनिर्माण की सूचना से भयभीत है, किंतु अपने चेहरे पर अहंकार का मास्क चिपकाकर अपने विरोधियों को भालू-बंदर सिद्ध करने पर तुला है।
नीतीश कुमार जब भी चुनाव प्रचार पर निकलते हैं तो उन्हें यह स्मरण रहता है कि अपनी सोने जैसी इमेज की लंका में उन्होंने ख़ुद अपनी ही पूँछ से आग लगाई है।
अयोध्या में राम के राजतिलक की तैयारियाँ चल रही हैं और लंका भीषण युद्ध में घिरी हुई है। चुनाव के शोर-शराबे से चैन की नींद सो रहे कुम्भकर्ण भी डिस्टर्ब होकर जाग गए हैं।
कोई अपना मेघनाद दांव पर लगा रहा है तो कोई अपने लक्ष्मण के लिए संजीवनी मंगवा रहा है। कोई पराये वानरों को भी अपना बनाने में जुटा है और कोई अपने भाई को भी लतिया रहा है।
हर पटाखे की बत्ती सुरसुरा रही है, लेकिन हर उम्मीदवार इस आशंका से ग्रस्त है कि कहीं ऐसा न हो कि बत्ती उसके पटाखे की जले और धमाका किसी और के पटाखे में हो जाए।
युद्ध के बाद जिसे सीता मिलेगी उसके घर दीवाली मनेगी और बाकी सब अपने कुनबे के साथ बैठकर अमावस्या मनाएंगे। लेकिन एक बात तय है कि फ़िलहाल देश में दीवाली का माहौल है।

✍️ चिराग़ जैन

Tuesday, October 21, 2025

उजाला

दीपक ने दिखाया-
"मौन रहकर काम करो 
दीर्घायु हो जाएगा 
उजियारा।"

पटाखे ने सिखाया-
"धमाका करो 
शोर मचाओ!
रौशनी से ज़्यादा ज़रूरी है
रौशनी की गूँज।"

मैं समझ गया
कि मानवता 
क्यों रोकना चाहती है युद्ध
क्यों सजाना चाहती है आरती।
✍️ चिराग़ जैन 

Wednesday, October 8, 2025

न्याय के मुँह पर जूता

भारतीय लोकतन्त्र लगभग उस मुकाम पर आ खड़ा हुआ है, जहाँ से ‘लोक’ और ‘तन्त्र’ के मध्य की खाई इतनी चौड़ी हो जाती है कि किसी के लिए भी दोनों ओर पैर रखकर टिके रहना असंभव हो जाए। एक ओर तन्त्र है, जो संविधान की मूल भावना से भटककर अपने-अपने वाद तथा अपने-अपने गुटों के साथ इस हद तक छितरा गया है कि अब इस ताने-बाने का हर ताना अपने बाने पर प्रतिशोध तानकर खड़ा दिखाई देता है।
दूसरी ओर है लोक, जो तन्त्र से नाराज़ रहते हुए भी सदैव तन्त्र की ओर ही आशा भरी निगाहों से देखता है। यह लोक वर्तमान में अपने-अपने ‘सोशल मीडिया समूहों’ द्वारा प्रसारित विचारधाराओं तथा नैतिकताओं का अनुसरण करते-करते इतना अंधा हो गया है कि अराजकता की सीमा-रेखा इसे दिखाई देनी बंद हो गयी है।
एक शिष्ट तथा समृद्ध लोकतन्त्र में तन्त्र, लोक की भावनाओं का सम्मान करते हुए संविधान लागू करवाता है और लोक, तन्त्र की सीमाओं को समझते हुए संविधान लागू करने में सहयोग करता है। किन्तु वर्तमान स्थितियों में कम से कम अपने देश में लोकतन्त्र का यह सौहार्द लगभग धूमिल हो चुका है। न जनता के मन में तन्त्र के लिए कोई सम्मान शेष रह गया है, न ही तन्त्र के मन में जनता के लिए कोई सौहार्द।
विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका नामक तीन शक्तियाँ लोकतन्त्र के ब्रह्मा-विष्णु-महेश के रूप में लोकतन्त्र की समूची सृष्टि को सुचारू रूप से संचालित करती हैं। सृष्टि के संचालनार्थ कभी सुरों को तो कभी असुरों को वरदान दिये जाते रहे हैं। यदि किसी परिस्थितिवश कोई एक शक्ति किसी अयोग्य पात्र को अनुचित वरदान दे भी आई तो शेष दोनों शक्तियों ने अपनी बुद्धिमत्ता से उस वरदान का निदान खोजा और सृष्टि को विनाश से बचा लिया।
चूँकि मूल उद्देश्य सृष्टि का कल्याण ही है, इसलिए यदि किसी वरदान को निष्फल करने का उपाय ढूँढने में किसी शक्ति को विषपान भी करना पड़ा तो वह उससे कभी पीछे नहीं हटा। ऐसी किसी चूक का सुधार करने के लिए किसी शक्ति को अपमान भी झेलना पड़ा तो वह शक्ति उससे पीछे नहीं हटी।मैंेने ‘पुरुषोत्तम’ में दो पंक्तियाँ लिखी हैं-
जब राजसभा पर राजा की निजता हावी हो जाती है
तब राजनीति की चाल अचानक मायावी हो जाती है

किन्तु वर्तमान संदर्भों में लोकतंत्र के इन त्रिदेवों के मध्य ऐसा ईगो-क्लैश जारी है कि देव और दानव अपनी समस्याएँ लेकर इनके पास जाने की बजाय अपने स्तर पर ही लड़-भिड़कर समाधान निकालने में विश्वास रखने लगे हैं।
यह परिस्थिति घातक ही नहीं, विध्वंसक भी है। यह परिस्थिति स्वीकार्य नहीं है। तन्त्र को चाहिए कि वह लोकतन्त्र के अस्तित्व को बचाने के लिए अपने-अपने वर्चस्व की लड़ाई से बाहर निकलें। और लोक को चाहिए कि स्वयं को सर्वशक्तिमान समझने की बजाय तन्त्र की विवशताओं का सम्मान करना सीखे।
हमने विधायिका के चेहरे पर स्याही फेंकी, हमने राजनीति के गाल पर तमाचे मारे, हमने कार्यपालिका के साथ धक्का-मुक्की की, हमने पुलिसवालों का अपमान किया ...यह सब हमेशा से होता रहा है। यद्यपि मैं व्यक्तिगत रूप से इस आचरण को भी अराजकता ही मानता हूँ। किन्तु अब जब हमने न्यायपालिका पर जूता फेंकना सीख लिया है तब मैं अपने ‘लोक’ और ‘तन्त्र’ दोनों के सम्मुख यह निवेदन रखना चाहता हूँ कि अराजकता की आंधी जब आपका घर उजाड़ रही हो तो अपनी जान बचाना स्थिति-सम्मत है, किंतु अराजकता की आंधी के साथ मिलकर अपना घर उजाड़ने में सहयोग करना कोरा पागलपन है।
भारत एक सक्षम देश है। विचारधाराओं की कहासुनी इसके लोकतान्त्रितक स्वरूप को पुष्ट करती है किन्तु खरेपन और बदतमीज़ी के मध्य का अंतर करना यदि हमने अपने युवाओं को नहीं सिखाया तो हमारी यही युवापीढ़ी एक सुंदर देश को गृहयुद्ध की त्रासदी से ग्रस्त होते देखेगी।

✍️ चिराग़ जैन

Sunday, October 5, 2025

सदुपयोग

कमाने में इतने व्यस्त न हो जाना कि ख़र्चने के लिए समय ही न बचे। क्योंकि अपनी ज़िन्दगी के मालिक आप ख़र्चते समय होते हैं; कमाते समय तो श्रमिक होते हैं।

✍️ चिराग़ जैन 

Saturday, October 4, 2025

अहंकार

स्वाभिमान जब दूसरों को नीचा दिखाने का प्रयास करने लगे, तब वह कोरा अभिमान बनकर रह जाता है। 

✍️ चिराग़ जैन 

Thursday, October 2, 2025

दशहरा

भय शत्रु पक्ष का गौण रहे 
अरि की चर्चा जब मौन रहे 
विश्वास स्वयं के शस्त्रों पर 
योद्धा का गहरा होता है 
तब विजय सुनिश्चित होती है 
बस तभी दशहरा होता है 

✍️ चिराग़ जैन 

Tuesday, September 30, 2025

अथाह

'अथाह' होने की आकांक्षा ही जीवन में 'आह' के अध्याय का 'अथ' बन जाती है। 

✍️ चिराग़ जैन 

Monday, September 29, 2025

कोशिश

कोशिश करने का अधिकार केवल उसको है, जिसके पास विफलता को स्वीकार करने की क्षमता हो। 

✍️ चिराग़ जैन 

Tuesday, September 23, 2025

आज़म ख़ान हाज़िर हैं!

चारों ओर हल्ला मचा हुआ है कि आज़म ख़ान आ रहे हैं। शोर-शराबा सुनकर मुझे लगा कि शायद कोई युद्ध-वुद्ध जीतकर आ रहे होंगे। मैंने हो-हल्ले की दिशा में कान लगाकर सुना तो पता चला कि जेल से आ रहे हैं।
मेरा माथा भनभना गया। मैंने अपने एक पत्रकार मित्र को फोन करके पूछा, ”क्यों भाई, ये आज़म ख़ान के जेल से छूटने पर ख़ुशी का माहौल क्यों है?
वे बोले, ”चिराग़ भाई, दरअस्ल अदालत ने उन्हें सभी 72 मामलों में ज़मानत दी है।”
मैंने टोकते हुए पूछा, “मतलब, अभी निर्दोष सिद्ध नहीं हुए हैं। और वो भी 72 मामले... ऐसा उन्होंने क्या किया था भाई?“
पत्रकार मित्र बोले, “अरे भाईसाहब, राजनीति में ये सब सामान्य बात है। राजनीति में सौ-पचास मुक़द्दमे तो हो ही जाते हैं। इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता। इससे किसी को अपराधी नहीं कहा जा सकता।“
भारतीय राजनीति के प्रति पत्रकार मित्र के भाव सुनकर मेरा मन श्रद्धा से भर गया। मैंने जिज्ञासावश पूछा, “अगर ये सब सामान्य है तो उन्हें जेल क्यों भेजा गया?“
वे बोले, ”वो तो सरकार बदल गई इसलिए उन्हें जेल जाना पड़ गया। वरना ये सब मामले तो तब भी थे जब वो ख़ुद सरकार में थे। लेकिन तब किसी की हिम्मत नहीं थी जो उनको हाथ लगा दे।“
“मतलब उन्हें सरकार ने जेल में डाला है, न्यायालय ने नहीं?“ मेरे स्वर में आश्चर्य था।
”अरे भाई आदेश न्यायालय का ही रहा होगा। गिरफ़्तार कार्यपालिका ने ही किया होगा। लेकिन होता सब कुछ सरकार के इशारे पर ही है।“ पत्रकार मित्र ने मेरी जानकारी में इज़ाफ़ा किया।
”सरकार किसी को तेईस महीने जेल में रखने के लिए पूरे सिस्टम को बाध्य कर सकती है?“ मैंने डरते हुए पूछा।
पत्रकार मित्र ठहरकर बोले, “सरकार कुछ भी कर सकती है भाईसाहब।“, पत्रकार मित्र का स्वर गंभीर हो गया।
मैंने फिर पूछा, ”सरकार कुछ भी कर सकती है तो अब ये ज़मानत कैसे मिल गई।“
”ये सब राजनीति के खेल हैं भैया, सरकार जब चाहे उठा ले, जब चाहे छोड़ दे। आज ज़मानत मिल गई, कल ज़रूरत हुई तो फिर उठा लेंगे।“ पत्रकार महोदय बेपरवाह होकर बोले।
मैंने थोड़ा नाराज़ होते हुए कहा, “जिसे आप खेल कह रहे हैं, वह दरअस्ल सिस्टम से खिलवाड़ है।“
सुनकर पत्रकार महोदय की हँसी छूट गई, ”आप जिसे सिस्टम समझते हैं ना चिराग़ भाई, उसी का नाम सरकार है।“
-चिराग़ जैन

Monday, September 22, 2025

ट्रम्प का टुल्लूपम्प

आजकल पूरी दुनिया में चौंकानेवाली राजनीति का ट्रेंड है। मुझे तो लगता है कि दुनिया भर के राजनेता रात को सोने से पहले यह सोचकर सोते होंगे कि कल ऐसा क्या करना है, जिससे लोग भौंचक्के रह जाएँ। जब तक चौंकाने का कोई सॉलिड उपाय मिल न जाए, तब तक नेताजी को नींद नहीं आती होगी।
कल्पना कीजिए, दिन भर के सब काम निपटाने के बाद डोनाल्ड ट्रम्प अपने बिस्तर पर लेटे हैं। उनका एक हाथ उनके तकिये और सिर के बीच में फँसा हुआ है। उनकी नज़रें छत पर टिकी हुई हैं और उनके मस्तिष्क में भारत के खि़लाफ़ कोई नई ख़ुराफ़ात चल रही है। अचानक उनका चेहरा ऐसे खिल उठा, मानो किसी मासूम लड़की को छेड़ने के बाद कोई लपूझन्ना मुस्कुरा रहा हो।
सुबह उठते ही व्हाइट हाउस ने वीज़ा फ़ीस बढ़ाने की घोषणा कर दी। चारों ओर हाहाकार मच गया। इस अफ़रा-तफ़री को देखकर ट्रम्प मन ही मन नागिन डांस कर उठे होंगे। प्रवासी भारतीयों के माथे से जो पसीना बहा, उसे देखकर ट्रम्प के कलेजे को ठण्डक पड़ी होगी। भारत सरकार और भारतीय मीडिया में पूरी तरह छा जाने के बाद ट्रम्प इस खेल से बोर हो गए और उन्होंने स्पष्टीकरण जारी करके सूचना दी कि मैंने भारत की ओर पत्थर तो फेंका है, लेकिन वह उतना बड़ा नहीं है, जितना आपको लग रहा है।
स्पष्टीकरण के बाद मामला लगभग ठण्डा पड़ गया और ट्रम्प फिर से अपने बैडरूम में लेटकर कोई नई खुराफ़ात सोच रहे होंगे। मुझे पूरा विश्वास है ट्रम्प के दिल में ज़रूर ऐसा कोई टुल्लू पम्प फिट है, जिसमें से रोज़ कोई नया पंगा निकलता है।
मोदी जी के पास ऐसा अवसर आया था कि वे इस टुल्लू पम्प का इलाज करवा सकते थे। कुछ वर्ष पहले जब डोनाल्ड ट्रम्प कुछ घंटों के लिए भारत आए थे तो मोदी जी ने उन्हें सीधे आगरा भेजा था। आगरा भेजने के मोदी जी के निर्णय से मुझे यह भ्रम हुआ था कि मोदी जी बहुत दूरदर्शी आदमी हैं। लेकिन जब बिना इलाज कराए उन्होंने ट्रम्प को छोड़ दिया तो लगा कि हमने हाथ आया अवसर छोड़ दिया।
आप कहेंगे कि इंटरनेशनल डिप्लोमेट इम्यूनिटी के तहत ट्रम्प का इलाज नहीं किया जा सकता था लेकिन ह्यूमेनिटी भी कोई चीज़ होती है। और विश्वगुरु बनने जा रहा भारत कम से कम ट्रम्प जैसे मस्तिष्क को ह्यूमेनिटी सिखाकर विश्व कल्याण में सहयोगी तो बन ही सकता था।

-चिराग़ जैन

Sunday, September 21, 2025

धैर्य बनाम कायरता

एकाएक देखने पर धैर्य भी कायरता जैसा ही लगता है। धैर्य की साधना वास्तव में शौर्य के उद्वेग को संयमित करने का पराक्रम ही है।
क्रोध और आवेग का पर्याप्त कारण मिलने पर भी संयत रह पाना किसी पराक्रम से कम नहीं है। किन्तु यह पराक्रम सविवेक है। यह ओज की कुण्डलिनी जागृत करने की तपश्चर्या है। यह शौर्य का सदुपयोग करने का अभ्यास है। और इस तप के फलस्वरुप जो आत्मबल अर्जित होता है, वह शौर्य को दुविधा से अछूता कर देता है। 
इसीलिये अनवरत प्रार्थना के उपरांत सागर के समक्ष अग्निबाण तानते हुए राम के मन में कोई दुविधा नहीं रही। इसीलिए निन्यानबे गालियाँ गिननेवाले कृष्ण, सौवीं गाली पर शिशुपाल का वध करते समय संबंध की किसी संवेदना के असमंजस में नहीं घिरे।
यही कारण है कि लाक्षागृह, चीरहरण, वनवास और अज्ञातवास के दौरान कायर प्रतीत होनेवाले पाण्डव; कुरुक्षेत्र में सौ कुरुपुत्रों के रक्त में स्नान करते समय किसी ग्लानिबोध से पीड़ित न हुए। यही कारण है हस्तिनापुर के प्रति निष्ठा का घूंघट ओढ़कर मौन रहनेवाले पितामह की काया को शरशैया तक ले आनेवाले अर्जुन की डबडबाई आँखों से भी कोई निशाना चूक न पाया।
पत्नी का अपहरण करनेवाले रावण के सम्मुख भी राम ने जब अंगद के माध्यम से संधि प्रस्ताव भेजा तब रावण को राम कायर प्रतीत हुए होंगे। किन्तु उस क्षण राम के धैर्य को कायरता समझने की भूल रावण को कितनी महंगी पड़ी, यह सर्वविदित है। 
अपना दिल बड़ा करके जब कोई बिना क्षमायाचना के भी आपको क्षमा कर दे तो उसके बड़प्पन का सम्मान करना, क्योंकि अपनी पीड़ा को भुलाकर जो आपको क्षमा करने का आत्मबल जुटा ले, उसको अपने शौर्य का प्रमाण देने की आवश्यकता नहीं रह जाती। और जिसके पास अपने क्रोध पर विजय पाने का सामर्थ्य है, उसकी शक्ति को नापने के लिए उसे रणभूमि में घसीटना आत्मघात जैसी मूर्खता है। 

✍️ चिराग़ जैन

Monday, September 15, 2025

किताबें और जीवन

किताबें पहले पाठ पढ़ाती हैं, फिर प्रश्न पूछती हैं।
जीवन केवल प्रश्न पूछता है, पाठ आप स्वयं पढ़ लेते हैं। 

✍️ चिराग़ जैन 

Friday, September 12, 2025

क्रांति

उम्मीद से भरी आँखों में धूल झोंकी जाए तो उन आँखों से लावा फूटने लगता है। कराह को अनसुना किया जाए तो कराह चीख बन जाती है। और चीख बड़े-बड़े राजवंशों की चूल हिलाने का सामर्थ्य रखती है।

चिराग़ जैन

Thursday, September 4, 2025

पुरुषोत्तम: एक मंचन जिसकी पटकथा नहीं लिखी गई

हुई है वही, जो राम रचि राखा
मुझे अक्सर ऐसा अनुभव होता है कि मैं एक ऐसी स्क्रिप्ट जी रहा हूँ, जिसमें मेरे लिए एक शानदार पार्ट लिखा गया है। ऐसा लगता है कि जीवन अलग-अलग किस्सों का एक पोथा है, जो अपनी बेहतरीन बुनावट के कारण एक उपन्यास सरीखा जान पड़ता है।
आइए, इस पोथी के कुछ पृष्ठ पलटता हूँ।
वर्ष 2017 के आसपास यह विचार आया कि ओमप्रकाश आदित्य जी की जयन्ती पर उनके अप्रकाशित साहित्य को प्रकाशित किया जाए। इस शृंखला में उनके द्वारा रचित ‘शूर्पनखा महाकाव्य’ की पाण्डुलिपि पर कार्य प्रारंभ हुआ। यह हास्यरस का एक बेजोड़ महाकाव्य था, लेकिन आकस्मिक निधन के कारण आदित्य जी इसे अधूरा ही छोड़ गये।
मुझे ऐसा आभास था कि इस प्रकार की अधूरी कृतियों को किसी अन्य लेखक द्वारा पूर्ण करके प्रकाशित करने की परम्परा हिन्दी साहित्य में रही है, सो मैंने आदित्य जी द्वारा रचित महाकाव्य को आगे बढ़ाना प्रारम्भ किया। इस प्रयास में मैंने लक्ष्मण के मूर्च्छित होने की घटना से बाद का वृत्तांत लिखकर सम्पन्न किया और उसकी गुणवत्ता की पड़ताल के लिए उसे डॉ विनय विश्वास के पास भेज दिया।
विनय भैया ने वह रचना पढ़कर मुझे फोन किया और कहा- ”तुमने बहुत बढ़िया लिखा है चिराग़, लेकिन इसे आदित्य जी के महाकाव्य में मत छापो!“
सुनकर आश्चर्य हुआ। श्रेष्ठ रचना की प्राप्ति के उपरांत जो उत्साह घटित होता है, वह एकाएक ध्वस्त हो गया।
विनय भैया ने आगे कहा, "पहली बात तो ये कि यह तुम्हारी रचना है, यह आदित्य जी की रचना नहीं है। दूसरे, यदि हमने आदित्य जी के इस महाकाव्य के आगे कुछ भी जोड़ दिया तो इससे उनके पाठकों का यह सोचने का मार्ग अवरुद्ध हो जाएगा कि वे इसे आगे किस दिशा में ले जाते। इसलिए इसे अधूरा ही प्रकाशित किया जाना उचित होगा।"
तर्क पुष्ट था। सो स्वीकार कर लिया गया। ‘शूर्पनखा: एक अधूरा महाकाव्य’ नाम से आदित्य जी की पुस्तक प्रकाशित हो गयी और ‘लक्ष्मण-मूर्च्छा’ मेरे सृजनकोष में जुड़ गयी।
यह वह समय था, जब मैं लगभग प्रतिदिन गीत लिख रहा था और मेरे गीतों में पौराणिक सन्दर्भ सहज ही उतर रहे थे। रामकथा, कृष्णकथा, प्रह्लाद, सागर मंथन और न जाने कितने ही सनातन बिम्ब मेरे गीतों में समाहित हो रहे थे। पाठकों की प्रतिक्रिया से मुझे यह ज्ञात हुआ कि मेरे लेखन को पुराण-चिंतन का सौभाग्य मिल रहा है।

एक दिन मैंने फोन पर अपनी अध्यापिका डॉ संध्या गर्ग को ‘लक्ष्मण-मूर्च्छा’ सुनाई। रचना सुनकर उन्होंने कहा, ”चिराग़, तुम्हारी भाषा दिनकर की शैली को स्पर्श कर रही है। तुम इस रचना को आगे बढ़ाओ और खण्डकाव्य या महाकाव्य की रचना करो।“
उनकी टिप्पणी से मन को अच्छा तो लगा, लेकिन स्वयं को महाकाव्य लिखने योग्य मैं नहीं समझता था, सो अध्यापिका का यह कथन वात्सल्य से उद्भूत प्रशंसा समझकर स्मृति में दर्ज कर लिया और बात आयी-गयी हो गयी। यूँ भी जीवन की व्यस्तताओं ने मुझे कभी इतना अवकाश नहीं दिया कि मैं फुटकर साहित्य की परिधि से आगे कलम बढ़ा सकूँ।

वर्ष 2020 में कोविड फैला। लॉकडाउन ने व्यस्तताओं का चक्का थाम लिया। भागदौड़ से मुक्ति पाकर मैंने भी आधी-अधूरी रचनाओं की फाइल निकाल ली और अनेक मुखड़ों को उनके अंतरों से सज्ज किया। अनेक अशआर ग़ज़ल की शक्ल हासिल कर गए। इसी क्रम में मैंने ‘लक्ष्मण-मूर्च्छा’ के आगे ‘मेघनाद-वध’ भी लिखी। रचना पूर्ण तो हो गयी किन्तु ऐसा लगा कि इसमें केवल कहानी का पद्यानुवाद हुआ है।
मैंने रचनाक्रम को विराम देना उचित समझा। मेरा व्यक्तिगत रूप से मानना है कि साहित्य या तो बात नयी कह पाये या फिर पुरानी बात को नये ढंग से कह पाये। तभी उसका होना सार्थक है। अन्यथा कागज़ काले करने से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। महाकाव्य की राह पुनः अवरुद्ध हो गयी और मैं अपने लेखों तथा गीतों के सृजन से बधाइयाँ बटोरता रहा।

वर्ष 2024 के मई महीने में मैंने गृहक्लेश से उत्पन्न पीड़ाओं पर एक गीत रचा। अपनी प्रवृत्ति के अनुरूप इस गीत का उदाहरण तलाशते हुए मैं माता कैकेयी के कोपभवन तक जा पहुँचा। सृजन के सौभाग्यवश गीत बढ़िया बन पड़ा। मैंने यह गीत अपने प्रिय मित्र निकुंज शर्मा को सुनाया। निकुंज ने गीत सुनकर कहा, ”भैया, आपको रामायण पर आधारित एक महाकाव्य लिखना चाहिये। पुराण के प्रति आपका जो दृष्टिकोण है, वह अभूतपूर्व है। जिस घटना को आप लिखते हो वह अपने जीवन की घटना जान पड़ती है।“
निकुंज की इस टिप्पणी ने एक बार फिर महाकाव्य की याद दिला दी। मैंने गीत में उतरे विचार को पुनः लिखा और ‘दशरथ का अवसान’ शीर्षक से एक और कविता महाकाव्य की शृंखला में जुड़ गयी। निकुंज ने रचना सुनी और उछल पड़ा। यहाँ से जैसे उसने प्रण कर लिया कि वह मुझसे महाकाव्य लिखवाकर ही दम लेगा। उत्साहवश मैंने रचना को फेसबुक पर पोस्ट कर दिया। प्रतिक्रियाएँ पढ़कर मेरा आत्मविश्वास दोगुना हो गया। हज़ारों लोगों ने रचना की संस्तुति की। दर्जनों फोन आये और सबके प्रशंसा-वाक्यों का एक ही तात्पर्य था कि मुझे महाकाव्य लिखना चाहिये।
मैं भी ‘सर्वकार्येषु त्यक्तवा’ भाव से रामकथा के लेखन में जुट गया। उठते-बैठते, सोते-जागते रामकथा के पात्र मेरे आसपास तैरने लगे। दशरथ, भरत, कैकेयी, मंथरा और यहाँ तक कि भरत को लिवा लाने पहुँचा दूत तक मुझसे संवाद करने लगा। नींदें उड़ गयीं। एक अजीब-सी बेचैनी ने मुझे घेर लिया। कवि-सम्मेलन के मंच पर हास्य की प्रस्तुतियाँ जारी थीं और मन रामकथा के खूंटे से बंधकर रह गया था।
लगभग चार दिन की अनवरत बेचैनी से व्यथित मन ने जब लिखना शुरू किया तो ऐसा लगा कि मैं बेचैनी नहीं जी रहा था, बल्कि भरत जी की अनुभूतियों को भोग रहा था। ननिहाल से लौटे भरत एकाएक कविता में उतर आये। दिल्ली से शायद बंगलूरु की यात्रा के दौरान हवाई जहाज में बैठकर ‘भरत का परिताप’ लिखी। कविता लिखते-लिखते मैंने कई बार स्वेदस्नान किया। अरुण जैमिनी जी मेरे बराबरवाली सीट पर थे। उन्होंने मुझे बेचैन देखकर कई बार मुझे टोका, लेकिन वह तो सृजन की घड़ी थी। कवि प्रसव-वेदना से गुज़र रहा था। कविता पूर्ण होते ही मैंने अरुण जी को सुनाई। वे अभिभूत हो गए। उन्होंने बताया कि मेरी रामायण संबंधित सभी कविताओं में यह अब तक की सर्वश्रेष्ठ रचना है।

4 अगस्त को दिल्ली के आईपैक्स भवन में मेरा और मेरी पत्नी मनीषा शुक्ला का युगल काव्यपाठ था। लम्बा काव्यपाठ करना था, सो मैंने निश्चय किया कि रामकथा में से कोई एक कविता आज अवश्य पढ़ूंगा। काव्यपाठ के दौरान पहली बार मंच पर ‘लक्ष्मण-मूर्च्छा’ का पाठ किया। श्रोताओं की प्रतिक्रिया ने मन दोगुना कर दिया। महाकाव्य लिखने के लिए जो पाथेय चाहिए था, वह अब मिल चुका था। राजेश चेतन जी, जो इस कार्यक्रम का मंच-संचालन कर रहे थे, उन्होंने हँसते हुए कहा कि अब चिराग़ भी रामकथा करेगा। उनका यह "भी" मुझे अच्छा नहीं लगा।
मैंने सृजन को सदैव साधना का आश्रम माना है, अतएव आश्रम में स्पर्द्धा मुझे कभी भी नहीं रुची। मुझे लगता है कि रसोईघर में नमक और चीनी दोनों का अपना महत्व है। इन दोनों में तुलना करना समीचीन भी नहीं है और उचित भी नहीं है। प्रतिभा का काम प्रतियोगिता करना नहीं है, इसलिए जब कभी मेरे सृजन के साथ स्पर्द्धा की शब्दावली प्रयुक्त होती है तो मुझे यह कम भाता है। लेकिन चूँकि राजेश जी की भावनाओं में अन्ततः मेरे प्रति सद्भाव ही रहा है, इस हेतु मैंने इसे अनसुना कर दिया।
उधर सृजन अपने उत्कर्ष पर था इधर यात्राओं ने व्यस्तता का बवंडर खड़ा कर रखा था। इस बीच वरिष्ठ कवि श्री मदन साहनी जी ने फोन किया और गुरुग्राम की प्रतिष्ठित संस्था सुरुचि साहित्य परिवार में काव्यपाठ का निमंत्रण दिया। इस कार्यक्रम में मेरे साथ फ़रीदाबाद के लोकप्रिय रचनाकार श्री दिनेश रघुवंशी को भी काव्यपाठ करना था। श्रोता साहित्यिक थे, सो मैंने यहाँ भी अन्य रचनाओं के साथ ‘लक्ष्मण-मूर्च्छा’ का पाठ किया। परिणाम पहले की तरह ही जादू जैसा रहा।

अभी तक साहित्यिक श्रोताओं में ‘लक्ष्मण-मूर्च्छा’ सफल हो रही थी, लेकिन 16 अक्टूबर को दिल्ली के कॉन्स्टिट्यूशन क्लब में वस्त्र मंत्रालय के कार्यक्रम में जब इस रचना का प्रभाव देखा तो यह निश्चित हो गया कि मेरे कवि-सम्मेलनीय जीवन की अगली पारी रामकथा के आसपास ही चलेगी।
इस बीच मैं ‘भरत-मिलाप’ लिख चुका था। रामकथा आधारित कविताओं का प्रवाह अनवरत था। निकुंज शर्मा और मनीषा शुक्ला हर कविता के प्राथमिक श्रोता होते थे। दोनों ही समालोचना की दृष्टि से सटीक और बेलाग हैं, इसलिए इनकी आश्वस्ति मेरे लिए महत्त्वपूर्ण भी रही और सहयोगी भी। इस बीच एक विवाहोत्सव के बाहर इस काव्य की कुछ पंक्तियाँ डॉ. विनय विश्वास को सुनाईं। कविता सुनते हुए वे लगभग ध्यानमग्न हो गए। उनकी आँखें मुंद गईं और उन्होंने आशीर्वाद देने के लिए अपना हाथ मेरे सिर पर रख दिया। लगभग 50-55 सेकेण्ड तक वे इसी मुद्रा में स्थिर हो गये। उनके मुख से बस एक ही शब्द बार-बार निकल रहा था, ‘जियो चिराग़, जियो!’
उस क्षण के ऊर्जानुभव का मैं वर्णन नहीं कर पा रहा हूँ, लेकिन इतना सत्य है कि वह कुछ अलौकिक-सा था। कुछ ऐसा जो पहले मैंने कभी महसूस नहीं किया था। विनय भैया की उस समय क्या मनःस्थिति रही होगी, यह तो मैं नहीं जानता लेकिन अपनी रचना पर उनकी हिचकी की आवाज़ सुनकर मुझे अपने लेखन की सार्थकता का अहसास हुआ।
2 नवम्बर को इन्द्रप्रस्थ विस्तार का दीपावली मिलन समारोह था। इस समारोह में प्रतिवर्ष एक कवि को ‘काव्य-रत्न’ सम्मान से विभूषित किया जाता है। राजेश अग्रवाल जी ने मुझे सूचना दी कि इस वर्ष का यह सम्मान मुझे दिया जा रहा है। मैं कार्यक्रम में पहुँचा और सम्मान ग्रहण करने के बाद जब कावयपाठ के लिए खड़ा हुआ तो सामने से ‘लक्ष्मण-मूर्च्छा’ की फ़रमाइश आयी। मैंने भी वज्र-अंग हनुमान को प्रणाम करते हुए कविता पढ़ दी। इसके बाद 16 नवम्बर को ब्रज कला केन्द्र के कार्यक्रम में इस कविता के पाठ ने पुनः श्रोताओं को प्रसन्न किया। ‘लक्ष्मण-मूर्च्छा’ कंठस्थ भी हो चुकी थी और श्रोताओं के बीच लोकप्रिय भी हो चुकी थी। इसके दो वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल थे, सो कवि-सम्मेलनों मेें इसकी फ़रमाइश आने लगी थी।

इसी बीच दिनाँक 7 दिसम्बर को आलोक लखनपाल जी के निवास पर आयोजित होनेवाले वार्षिक ‘शाम-ए-एहसास’ कार्यक्रम में मैंने पहली बार मोबाइल से देखकर ‘भरत का परिताप’ पढ़ी। सामने श्रोताओं में अधिवक्ता, न्यायाधिकारी और अन्य उल्लेखनीय लोग विद्यमान थे। कविता ने श्रोताओं पर जादू किया। मंच पर मेरे बराबर में अरुण जैमिनी जी कविता के बीच आँसू पोंछते देखे गये। कार्यक्रम सम्पन्न करके मैं घर लौट आया। आलोक जी की धर्मपत्नी श्रीमती रचना लखनपाल जी मुझे उस कविता के श्रोताओं की प्रतिक्रियाएँ प्रेषित करती रहीं।
दो दिन बाद मैं और अरुण जी एक कार्यक्रम में महाराष्ट्र में थे। कार्यक्रम के तुरंत बाद आलोक जी का फोन आया- ”चिराग़ जी, आपकी कविता का जादू सिर से उतर ही नहीं रहा है।“ प्रशंसा से उत्पन्न असहजता को दबाते हुए मैंने कहा, “भाईसाहब, आपके श्रोता शानदार थे, इसलिए वह कविता चल गयी, सामान्य मंच पर इतनी भावुक कविता नहीं चलेगी।“ आलोक जी ने मेरी बात को काटते हुए कहा, ”कैसी बात करते हो चिराग़ जी, यह कविता तो हर जगह चलेगी। आपको यह कविता मंच पर पढ़नी चाहिए। मैं गारंटी लेता हूँ, यह कविता हर हाल में चलेगी।“ उनके विश्वास ने मेरे आत्मविश्वास की उंगल थाम ली। मैंने उन्हें आश्वस्त किया कि कल दिल्ली के प्रतिष्ठित ‘श्रीराम कवि-सम्मेलन’ में काव्यपाठ करना है, वहाँ आपके कहने से इस कविता का पाठ करूंगा और प्रतिक्रिया से आपको अवगत कराऊंगा।
इसके बाद रास्ते भर मैं ‘भरत का परिताप’ को कंठस्थ करता रहा। मुझे पहली बार इस कविता को कवि-सम्मेलन के मंच से पढ़ना था। मंच पर डॉ. अशोक चक्रधर का संचालन, डॉ. उदयप्रताप सिंह जी की अध्यक्षता। कार्यक्रम प्रारंभ से ही श्रेष्ठ से श्रेष्ठतम होता जा रहा था। काव्यपाठ के लिए मुझे पुकारा गया तो मैंने सामान्य कवि-सम्मेलनों की प्रारंभिक बातचीत और बतरस की भी औपचारिकता किए बिना सीधे ‘भरत का परिताप’ पढ़नी प्रारंभ की। आठ-दस पंक्तियाँ ही पढ़ी होंगी कि मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे ऑडिटोरियम की लाइट से ऊर्जा की एक अजस्र धारा मेरे भीतर प्रविष्ट हो रही हो। किसी कविता को पहली बार सार्वजनिक मंच पर पढ़ते हुए, भूल जाने का जो भय होता है, वह भय याद ही नहीं आया। कविता निर्बाध बहती चली जा रही थी, मेरे कंठ में यकायक कोई नाद-सा बजने लगा था। श्रोताओं के चेहरे मेरी भाव-भंगिमा पर त्राटक कर रहे थे। मैंने इस कविता को पढ़ते हुए स्वयं को रोमांचित होते अनूभूत किया। कविता सम्पन्न हुई तो श्रोतादीर्घा का एक-एक व्यक्ति खड़ा हो गया। मंच पर बैठे सभी कविमित्र अभिवादन करने लगा। अशोक जी ने मंच पर आकर इस कविता की प्रशंसा में इतना कुछ कहा कि मैं निहाल हो गया।
दो-तीन दिन में ही इस कविता की वीडियो बेहद वायरल हो गयी। मैं प्रसन्न था। कविता अपना स्थान बना रही थी। आलोक जी को इस प्रतिक्रिया से अवगत कराने की आवश्यकता इसलिए नहीं पड़ी, कि जब कविता पढ़कर मैं श्रीराम सेंटर से बाहर निकला तो आलोक जी सपत्नीक वहाँ उपस्थित थे। कविता का प्रभाव उन्होंने अपनी आँखों से देखा।
इसके बाद तो रामजी की कृपा की अनुभूति करने के लिए मैं रामकथाधारित काव्य का पाठ लगातार करता रहा। मेरे पड़ोस में रहनेवाले वरिष्ठ हास्य कवि श्री वेदप्रकाश वेद ने भी इस कविता की सफलता के लिए मुझे बार-बार आश्वस्त किया। इन सब अपनों के विश्वास को लेकर मैं रामकथा आधारित काव्य रचता रहा और पढ़ता रहा।

22 दिसम्बर को नेपाल स्थित जनकपुर में राजा जनक के महल में ‘रामायण शोध संस्थान’ तथा नेपाल सरकार के संयुक्त आयोजन में मैंने ‘दशरथ का अवसान’ कविता का पाठ किया। जनकपुर के लोग अयोध्यावालों को गरियाते हैं। यह उनकी परंपरा है। भारतीय आयोजक-मंडल इस परंपरा को लेकर किंचित परेशान था। मैंने काव्यपाठ से पूर्व महाराज जनक की न्यायप्रियता का संदर्भ लेते हुए ‘दशरथ का अवसान’ पढ़ी तो जनकपुर की जनता से ‘जयसियाराम’ के नारे सुनाई दिए। मन फिर प्रसन्न हो उठा।
वर्ष 2025 प्रारम्भ हो चुका था। अशोका फाउण्डेशन ने अलवर में कवि-सम्मेलन का आयोजन किया। पिछले वर्ष इसी कार्यक्रम में मैंने हास्य की दमदार पारी खेली थी। ऐसे में इस वर्ष छवि-परिवर्त्तन का निर्णय किंचित कठिन था। श्रोतादीर्घा में तमाम सांस्कृतिक संस्थाओं के प्रतिष्ठित पदाधिकारी उपस्थित थे। मैंने राम जी का नाम लिया और ‘भरत का परिताप’ पढ़कर एक बार फिर अपने आत्मविश्वास को पोषित किया।

इस दौरान राजगीर की कवि-सम्मेलन की यात्रा में लोकप्रिय कवयित्री कविता तिवारी के साथ लंबी संगत हुई। रामकविता मेरे दिल-ओ-दिमाग़ पर छाई हुई थी, सो वापसी में पटना हवाईअड्डे पर कविता को कविता सुना दी। मैं दरअस्ल इस कविता का अलग-अलग वय तथा बौद्धिक स्तर के लोगों पर असर देखना चाहता था। कविता और वैभव ने न केवल उन्मुक्त कंठ से इसकी प्रशंसा की अपितु मैंने श्रवण के दौरान कई बार उन दोनों के चेहरे पर सुखद आश्चर्य के भाव तैरते भी देखे।
इसके बाद जोधपुर के हस्तशिल्प मेले से लेकर लालकिले के कवि-सम्मेलन तक मैंने रामकथाधारित कविताओं का ही पाठ किया। लालकिले के कवि-सम्मेलन में यह मेरी चौथी बार पुनरावृत्ति थी। पिछली तीन बार यह संयोग रहा कि श्रोताओं ने मेरे काव्यपाठ के बाद खड़े होकर मेरा अभिनन्दन किया था। इस बार, कोई कीर्तिमान बनाने की महत्वाकांक्षा तो नहीं थी, लेकिन यह आकांक्षा अवश्य थी कि लालकिले का यह दृश्य पुनर्घटित हो सके। राम जी की कृपा रही और ‘भरत का परिताप’ समाप्त होते-होते भीगी पलकों के साथ पूरा सदन खड़ा हो गया।

इस कार्यक्रम की वीडियो भी वायरल हुई। ‘भरत का परिताप’ कविता को कैकयीवाली कविता के नाम से पहचान मिल रही थी। इस बीच मार्च आ गया और हम हर वर्ष की तरह अपना बोरिया-बिस्तर बांधकर कोलकाता के कवि-सम्मेलनों के लिए निकल लिये। शृंखला का पहला कवि-सम्मेलन कोलकाता प्रेस क्लब में था, जिसका आयोजन युवाशक्ति नामक समाचार समूह ने किया था। यह एक सम्मान समारोह था, जिसमें आयोजक होली मिलन के बहाने अपने सहयोगियों का अभिवादन तथा अभिनंदन करना चाहते थे। सम्मान-समारोह इतना लम्बा चला कि कविता-पाठ की इच्छा समाप्त हो गयी थी। इस आयोजन में मुझे और सहयात्री श्री गोविन्द राठी जी को कवितापाठ करना था। जब हमारे हाथ में मंच आया तो मैंने प्रारंभिक संचालन करते हुए श्री गोविन्द राठी जी को काव्यपाठ के लिए आमंत्रित किया। उन्होंने हास्य-व्यंग्य के माध्यम से बिखरे हुए माहौल को बांधने मे काफी सफलता हासिल कर ली और मुझे माइक सौंप दिया। मैंने भी होली का माहौल और समय की मर्यादा को देखते हुए हास्य की एक पर्याप्त पारी खेलकर समापन की भूमिका बनानी शुरू की। तभी सामने से एक सज्जन खड़े हो गये और टोकते हुए बोले, “अभी समाप्त न कीजिए चिराग़ जी, हम तो कैकेयी वाली कविता सुनने आये हैं।“ -यह मेरे लिए आश्चर्यजनक था। कोलकाता के होली के कार्यक्रम में इस कविता की फ़रमाइश आयेगी, ऐसा सोचना भी संभव नहीं था।
आश्चर्य के सुख को अनुभूत करते हुए मैंने थोड़े ना-नुकुर के बाद उनकी फ़रमाइश मान ली। कविता पाठ सम्पन्न होते-होते उस आयोजन का स्वरूप बदल गया। भावुकता ने श्रोताओं के चेहरे को और सुंदर बना दिया। तीन श्वेतकेशी सज्जन मंच पर आकर मेरे चरण-स्पर्श के लिए उद्धत हुए तो मैं शर्मिंदा हो गया। इसके बाद, होली की इस शृंखला में ‘भरत का परिताप’ की जहाँ-जहाँ फ़रमाइश आयी, मैंने इसका पाठ किया।

11 मार्च को बोकारो में ओएनजीसी का कार्यक्रम था, जिसमें बहुत दिन बाद मेरे सर्वाधिक प्रिय मित्र रमेश मुस्कान से मुलाकात हुई। कविता के संदर्भ में उनकी प्रतिक्रिया मेरे लिए गुणवत्ता का सबसे निष्पक्ष पैमाना है। मैंने उन्हें भरत-कैकेयी संवाद सुनाया तो वे खिल उठे। अपने चिर-परिचित अंदाज़ में बोले, ”यही चाहिये था। यही सुनाओ।“ मैंने और प्रशंसा सुनने के संशय प्रकट किया, “कवि-सम्मेलन में सुनेंगे लोग इसे?“ वो विश्वस्त होकर बोले, “इसे नहीं सुनेंगे तो फिर क्या सुनेंगे! अच्छी कविता हर जगह सुनी जायेगी। इसे कोई नहीं नकार सकता। यही तुम्हारी पहचान बनेगी।“
मुस्कान जी से यह प्रतिपुष्टि ली और उस रात का कार्यक्रम करके हम लोग कोलकाता लौट आये। अगले ही दिन आईपैक्स वाले सुरेश बिंदल जी का फोन आया। उन्होंने कहा, ”चिराग़ जी, 6 अप्रेल को रामनवमी है। हमारे यहाँ रामनवमी के दिन रामकथा का आयोजन किया जाता है। एक बार इसमें नरेन्द्र कोहली जी भी वक्ता रह चुके हैं। हमारा मन है कि इस बार आप उसमें रामकथावाचक के रूप में कथा करें। आपका भव्य सिंहासन लगवाया जाएगा। और आप एक-डेढ़ घण्टा रामकथा करेंगे।“
मैंने उनके प्रस्ताव को सिरे से नकार दिया और कहा, ”भाईसाहब, कथा-वथा मेरे वश का काम नहीं है। मैं कवि हूँ और कवि ही रहना चाहता हूँ।“ उन्होंने अपनत्व के अधिकार का प्रयोग करते हुए कहा, “देखो चिराग़ जी, हम तो कार्ड में आपका नाम छाप रहे हैं। आप आ गये तो आपकी और हमारी इज़्ज़त बच जायेगी, अन्यथा हम रामभजन की कैसेट चलाकर कीर्तन करवा के लोगों को विदा कर देंगे।“
अब मेरे पास मना करने का कोई स्कोप नहीं बचा था। मैंने सोचा कुछ शर्तें रखकर देखता हूँ। शायद नखरे देखकर बिंदल जी अपना विचार बदल लें। मैंने कहा, ”ठीक है भाईसाहब, मैं आपका प्रस्ताव मानने को तैयार हूँ। लेकिन मेरी कुछ शर्तें होंगी।“
बिंदल जी ने एक क्षण भी व्यर्थ किये बिना कहा, “जैसे कहोगे, वैसे होगा।“
मैंने कहा, ”एक तो सिंहासन नहीं लगेगा।“
बिंदल जी ने कहा, “स्वीकार है।“
मैंने आगे कहा, “मेरे साथ कम से कम तीन संगीतज्ञ रहेंगे, कार्यक्रम में ‘कथा’ शब्द का प्रयोग नहीं होगा और कार्यक्रम के क्रिएटिव्स मेरे ऑफिस में डिज़ाइन होंगे।“
बिंदल जी बोले, “कार्यक्रम का शीर्षक वो होगा, जो आप तय करेंगे और इन सब तैयारियों के लिए आपका जो ख़र्च होगा, वो हम वहन करेंगे।“
मेरा कोई दांव नहीं चल रहा था, मैंने और शर्त रखी, “कार्यक्रम प्रारंभ होने के बाद कोई ब्रेक नहीं होगा, किसी का स्वागत-सम्मान-भाषण कुछ नहीं होगा।“
यद्यपि वैश्य समुदाय के कार्यक्रमों में ऐसा करना कठिन है, किंतु बिंदल जी ने मेरी यह शर्त भी मान ली। अब बारी थी आख़िरी शर्त की। इस प्रहार के बाद तो बिंदल जी मना कर ही देंगे, ऐसा सोचकर मैंने आख़िरी शर्त रखी- “मैं इस प्रस्तुति के लिए कोई पैसा नहीं लूंगा।“
अब बिंदल जी उखड़ गये। बोले, ”यह आपका क्षेत्र नहीं है भाईसाहब, यह हम तय करेंगे।“ उनकी वाणी में इतना अधिकार था कि मैं कुछ बोल न सका।
मैं समझ गया था कि यह सब राम जी की इच्छानुसार हो रहा है। सो, समर्पण कर दिया। अपने अब तक के परिचय में अपनी-अपनी फील्ड के कुशल मित्रों से सम्पर्क साधा। बिंदल जी ने मेरे कंधे पर दायित्व रख दिया था। सो अनवरत इस कार्यक्रम की रूपरेखा के विषय में विचार करने लगा। एक माह से भी कम का समय था। एकदम नये तरह की प्रस्तुति देनी थी।

सबसे पहले अपनी अर्द्धांगिनी मनीषा शुक्ला से बातचीत की। मनीषा ने पहला सुझाव यह दिया कि इसमें जितना भी भाग प्रस्तुत करो, वह तुम्हें कंठस्थ होना चाहिए। यह सबसे बड़ी चुनौती थी। याद रखने की क्षमता क्षीण होती जा रही थी। कवि-सम्मेलनों के अभ्यास से बुद्धि तीक्ष्ण हो रही थी, प्रत्युत्पन्नमति विकसित हो रही थी, लेकिन स्मरण-शक्ति का बंटाधार होने लगा था। ‘लपेटे में नेताजी’ कार्यक्रम में मोबाइल देखकर काव्यपाठ करने की ऐसी लत लगी कि मस्तिष्क ने स्मरण रखने वाली ग्रंथियों को शिथिल कर दिया था।
उधर कार्यक्रम की कोई स्पष्ट रूपरेखा सम्मुख नहीं थी और इधर इतनी लम्बी कविता याद करने का काम और बढ़ गया था। मैं दिन भर कार्यक्रम की रूपरेखा बनाने के लिए फोन पर बात करता रहता था और रात भर कविता याद करता था।
एक दिन कार्यक्रम के नाम को लेकर डॉ. सुष्मीत श्रीवास्तव से चर्चा हुई। उस चर्चा में नाम सूझा ‘राम-अभिराम’। शीर्षक अच्छा था, लेकिन मेरी मंशा थी कि इस कार्यक्रम में शीर्षक में राम संज्ञा के रूप में नहीं बल्कि चरित्र के रूप में सम्मिलित हों। दो-तीन दिन बाद प्रिय प्रबुद्ध सौरभ से चर्चा होते समय यकायक मेरे मुख से निकला, इसका नाम ‘पुरुषोत्तम’ होना चाहिए। सुनकर प्रबुद्ध की वाणी में जो हर्ष घुला, उससे स्पष्ट हो गया कि इस कवायद को इसका नाम मिल गया है।
प्रवीण अग्रहरि की डिज़ाइनिंग मुझे हमेशा पसन्द आती है। उन्हें जब इस कार्यक्रम के विषय में पता चला तो उनका अनुजवत प्रेम उमड़ पड़ा। उन्होंने बहुत मन से इस कार्यक्रम के क्रिएटिव्स तैयार किये। अब तक मेरे साथ के सभी लोग जान चुके थे कि इस समय मेरा पूरा फोकस ‘पुरुषोत्तम’ की तैयारी पर है।
मेरे सबसे निकट रहनेवाले अरुण जैमिनी जी को जब इस पूरी योजना का पता चला तो उन्होंने अपनी स्वाभाविक स्वीकृति दी और लगभग चुनौती के स्वर में अपने हरियाणवी अंदाज़ में कहा, ‘कर के आ, तब बात करेंगे।’ उधर श्रद्धेय सुरेन्द्र शर्मा जी का भी मुझ पर पर्याप्त आशीर्वाद है, लेकिन इस बार उनका आशीर्वाद लेने गया तो ‘घर का जोगी’ वाली कहावत चरितार्थ हुई और उन्होंने कहा कि ‘कविता तो तुझसे बेहतर किसी के पास नहीं है, लेकिन खाली कविता से काम नहीं चलेगा। बीच की जो कमेंट्री इसमें चाहिए वो कहाँ से लाओगे?’
सुनकर मन परेशान हुआ लेकिन मुझे यह समझ आ गया कि अनुभवों की पोटली ने मुझे चुनौती के रूप में सफलता का मार्ग दिखा दिया है। मैंने तय कर लिया कि कविता सुनाते समय ठहरकर मैं इसके साथ जुड़ी अनुभूतियों को गद्य में प्रस्तुत करूंगा।
बस, फिर क्या था। निराकार साकार हो गया। धुंधली रूपरेखा स्पष्ट रेखाचित्र बन गई। संगीतज्ञों के साथ रिहर्सल के नाम पर मैंने केवल संगीत की लहरियों के साथ अपनी आवाज़ का तारतम्य बैठाने का प्रयास किया। कुल तीन दिन में दो-दो घण्टे की रिहर्सल हुई, जिसमें 40-45 मिनिट केवल बातचीत और खानपान में निकल गए।

यह मेरे लिए बिल्कुल नया अनुभव था। संगीत से मेरा इतना ही संबंध है कि मुझे बेसुरा सुनना पसन्द नहीं है और मुझे यह भ्रम है कि मैं बेसुरा गाता नहीं हूँ। इसलिए मैंने अपने किसी संगीतकार को निर्दिष्ट करने का दुस्साहस नहीं किया। बस एक ही बात कही कि संगीत मेरी आवाज़ का सहयोगी बनना चाहिए, अवरोधक नहीं।
बहरहाल, इसी तरह थोड़े संकोच और थोड़े उत्साह के साथ 6 अप्रेल का दिन आ गया। जब अलमारी में से कपड़े निकालने लगा तो याद आया कि वरिष्ठ कवयित्री डॉ. मधुमोहिनी उपाध्याय ने मुझे एक सदरी भेंट की थी। मधु जी ध्यान और अध्यात्म के समर्पण की अद्वितीय मिसाल हैं। मुझे लगा कि उनका उपहार मेरे लिए आशीष का काम करेगा, सो बिना अधिक विचार किए मैंने पीले कुर्ते पर पीली सदरी पहनी और दिल्ली के आईपैक्स भवन जा पहुँचा। 23 वर्ष की कवि-सम्मेलनीय यात्रा में पहली बार किसी कार्यक्रम को सुनने के लिए मेरा लगभग पूरा परिवार उपस्थित था। मेरे माता-पिता, मनीषा, बहन-बहनोई और भानजी सामने श्रोतादीर्घा में बैठे थे। मेरे न जाने कितने ही मित्र सभागार में उपस्थित थे। कवि-सम्मेलन जगत् के मेरे अग्रज जैनेन्द्र कर्दम और डॉ. प्रवीण शुक्ल ने भी सामने बैठकर पूरा कार्यक्रम सुनने का निश्चय किया।
मैं आईपैक्स भवन के ऑफिस में बैठा था। मंच पर कार्यक्रम की औपचारिकताएँ प्रारंभ हो चुकी थीं। आईपैक्स भवन खचाखच भरा था। जितने लोग बैठे थे उतने ही लोग कुर्सी खाली होने की संभावना टटोलते हुए खड़े थे। मौसम में थोड़ी उमस थी, सो बाहर खड़े लोगों को गर्मी बर्दाश्त करनी पड़ रही थी। मैं इस सब व्यवस्था को देख ही रहा था कि कार्यकारिणी के पाँच-छह लोग मुझे लिवा लाने आ गए। मैं उनके साथ सभागार में प्रविष्ट हुआ। मंच पर प्रबुद्ध सौरभ कार्यक्रम की पूर्व पीठिका बना रहे थे। पूरे सभागार ने तालियाँ बजाते हुए खड़े होकर मेरा अभिवादन किया।
इस स्वागत से मैं किंचित और सावधान हो गया। मैंने राम जी का नाम लिया और प्रस्तुति के सारे तनाव को छोड़कर मंच की ओर बढ़ गया। मंच पर मेरा स्वागत-सम्मान किया गया और माइक मुे सौंप दिया गया।
मैंने सहज होकर ‘पुरुषोत्तम’ की प्रस्तुति प्रारंभ की। मैं ठहरकर अपनी कविता का पाठ कर रहा था और उसके साथ वह अलिखित भी साझा कर रहा था जो उस रचना की सर्जना के दौरान मेरे मन में चल रहा था। जीवन के सबसे सामान्य उदाहरण कैसे इस वाचन से जुड़ गए, मुझे नहीं पता। कविता पढ़ते-पढ़ते मुझे अभिनय करने की आवश्यकता इसलिए नहीं पढ़ी कि जब मैं गहन अनुभूति में उतरकर काव्यपाठ कर रहा था तो भाव-भंगिमा और देह स्वतः उसके अनुरूप संचालित हो रही थी। स्वर का उतार-चढ़ाव 23 वर्ष के कवि-सम्मेलनीय अनुभव का परिणाम था। वाक्य-विन्यास और भाषा का परिष्करण मेरी प्रवृत्ति में राम जी ने बहुत पहले बो दिया था। आज वही बीज फलित हो रहा था। चूँकि मैंने इस कविता को लिखते समय रामकहानी के एक-एक पात्र से घण्टों संवाद किया था, इसलिए इसके वाचन के दौरान भी वे सभी पात्र मेरे आसपास साक्षात् उपस्थित थे। उनकी मनोदशा मुझे सहज ही झंकृत कर रही थी। उस स्फुरण से मेरे भीतर जो संवेदना छलछला रही थी, वह दर्शकों के चेहरे पर भी यथावत दिखाई देती थी।
एक जादू सा छा गया था। सैंकड़ों पुतलियाँ मेरी देह पर त्राटक कर रही थीं। सहस्रों प्राण मेरी चेतना को स्पर्श कर स्पंदित कर रहे थे। मेरे स्नायु में रह-रहकर स्फुरण हो रहा था। मेरी अलकों का रंग पनीला हो उठा था। मेरे चेहरे पर भाव इतनी द्रुत गति से परिवर्तित हो रहे थे, मानो कोई रिमोट से टीवी का चैनल बदल रहा हो। यह सब कैसे हो रहा था, मैं नहीं जानता। लेकिन मैं इतना जानता हूँ कि उस दिन यह सब हो रहा था, मैं कर नहीं रहा था।
कार्यक्रम सफल ही नहीं, सफलतम रहा। कार्यक्रम के उपरांत लोग चरण-स्पर्श से लेकर सेल्फी खिंचाने तक के लिए मुझे घेरे रहे। चरण-स्पर्श मुझे असहज करता है, सो मैंने किसी को यह न करने दिया। लेकिन रामजी की कृपा का रस भोगने में मुझे आनंद अवश्य आ रहा था।
100 मिनिट तक अनवरत प्रस्तुति से लोग चकित थे। मैंने बाद में लोगों की प्रतिक्रिया के वीडियो देखे तो उनमें कुछ बातें प्रमुख थीं- ‘ऐसी भाषा पहली बार सुनी’; ‘हम अपनी पलक तक नहीं झपक पाए’; ‘कभी हँसा दिया, कभी रुला दिया’; ‘राम जी के विषय में ऐसी-ऐसी बातें पता चलीं, जो हमने इससे पहले कभी सोची भी नहीं थीं।’
पराग चतुर्वेदी जी, जिन्हें मैं हिन्दी का निस्पृह समालोचक मानता हूँ। उन्होंने कार्यक्रम के बाद मुझसे कहा, ‘आज तो आपके चरण-स्पर्श करने का मन है।’ ये सब प्रतिक्रियाएँ मेरे लिए अनापेक्षित थीं।

अगले दिन सुरेन्द्र शर्मा जी ने बिंदल जी को फोन करके कार्यक्रम की रिपोर्ट ली। बिंदल जी ने न जाने उन्हें क्या कहा, लेकिन उनका फोन रखते ही सुरेन्द्र जी ने मुझे फोन करके लगभग चहकते हुए कहा, ‘बधाई हो! तूने कमाल कर दिया।’ सुरेन्द्र जी से यह वाक्य सुनना मेरे लिए किसी प्रमाण-पत्र से कम नहीं था।
‘पुरुषोत्तम’ इतना चर्चित हुआ कि अगले ही दिन अरुण जैमिनी जी ने मेरे घर रुककर रात में पूरी फुटेज देखी। वे इस कविता की सृजन प्रक्रिया के सबसे निकटतम साक्षी हैं, इसलिए इसकी प्रस्तुति देखते हुए उनके चेहरे पर जो भाव उतर रहे थे, वे मेेरे लिए उत्साहवर्द्धक थे।
डॉ. अशोक चक्रधर ने 5 जुलाई को अग्रिम पंक्ति में बैठकर सपत्नीक इस प्रस्तुति को देखा। वे इससे इतने भाव-विभोर हुए कि उन्होंने मंच से मेरी लेखनी को प्रणाम किया। यह मेरे लिए सुखद भी था और संकोचजनक भी। अरुण जैमिनी जी, डॉ. विनय विश्वास, चेतन आनंद और न जाने कितने ही अपनों ने इस कृति को सराहकर मेरी लेखनी को पुष्ट किया है। आलोक गौड़ जी ने तो इसे न केवल सराहा बल्कि अपने परिचितों में इसकी संस्तुति भी की।

अब तक ‘पुरुषोत्तम’ की अनेक प्रस्तुतियाँ हो चुकी हैं। हर बार लोगों की प्रतिक्रिया रोमांचवृद्धि करती है। उधर ‘पुरुषोत्तम’ महाकाव्य भी अनवरत पूर्णता की ओर अग्रसर है। शूर्पणखा, हनुमान- जाम्बवन्त संवाद, लंका प्रवेश, त्रिजटा, सीता-हनुमान संवाद, अशोक वाटिका ध्वंस, लक्ष्मण मूर्च्छा, मेघनाद वध, मेघनाद की अंत्येष्टि और रावण-मंदोदरी संवाद जैसे अनेक प्रसंग लिखे जा चुके हैं।
वर्ष 2021 में जब मेरी ओपन हार्ट सर्जरी हुई थी तब मैं समझ नहीं पा रहा था कि जीवन की यह दूसरी पारी मेरे भाग्य में क्यों लिखी गई होगी। लेकिन पुरुषोत्तम के सृजन में जो रसवृष्टि होती है, उसे भोगकर मैं समझ पाया कि ईश्वर ने मुझे संभवतः इसी सृजन के लिए जीवित रखा है।

यह रचना अपना भाग्य स्वयं लेकर अवतरित हो रही है। मैं बस इतना कर रहा हूँ कि जब कोई पात्र अपना सीना चीरकर मेरे कवि के सामने उपस्थित होता है तो मैं तमाम लौकिक कार्यों को द्वितीयक करते हुए उस पात्र को वरीयता देता हूँ। अपनी अनुभूति क्षमता का समग्र उस पात्र पर केन्द्रित कर देता हूँ। और उसके बाद उस अनुभूति को अभिव्यक्त करने में अपनी अभिव्यक्ति क्षमता को पूरी तरह निचोड़ डालता हूँ।

शेष राम जी की इच्छा!

✍️ चिराग़ जैन

Friday, August 29, 2025

सृजन सुख

इस तपोवन में सृजन की साधनाएँ चल रही हैं 
ध्वंस से कह दो यहाँ उसके लिए अवसर नहीं है 

मन गहन संवेदना अनुभूत करने में जुटा है 
तन अभी स्वर-व्यंजनों में प्राण भरने में जुटा है 
भाव का उत्कर्ष छूकर नयन खारे हो रहे हैं 
इस सृजन सुख में जगत् के डर किनारे हो रहे हैं 
शब्द से सच का सहज चेहरा उकेरा जा रहा है 
झूठ सुन ले, यह किसी षड्यंत्र की चौसर नहीं है 
ध्वंस से कह दो यहाँ उसके लिए अवसर नहीं है 

इस जगह पर कामना के पर कतरने का नियम है
लाभ से दामन छुड़ाकर कर्म करने का नियम है 
कान सबके दूसरों के आँसुओं की आह पर हैं
ध्यान सबका सृष्टि भर के अप्रतिम उत्साह पर है 
इस धरा पर स्वार्थ को पूरा निचोड़ा जा रहा है 
वासनाओं के लिए यह धाम कुछ हितकर नहीं है
ध्वंस से कह दो यहाँ उसके लिए अवसर नहीं है 

इस समय वात्सल्य का उल्लास-उत्सव चल रहा है 
रच रहे हैं आज नटवर रास; उत्सव चल रहा है 
कृष्ण के आनंद में सुख से भरी हैं कुंजगलियाँ
पीर की काया बड़ी है, संकरी हैं कुंजगलियाँ 
द्वेष से मिलने कन्हैया आएंगे मथुरा स्वयं ही
कंस से कह दो यहाँ उसके लिए अवसर नहीं है 
ध्वंस से कह दो यहाँ उसके लिए अवसर नहीं है 
✍️ चिराग़ जैन 

Friday, August 22, 2025

सेना- गार्जियन ऑफ द नेशन

सेना के शौर्य पर बने अन्य चलचित्रों की भाँति 'सेना- गार्जियन ऑफ द नेशन' में भी सैनिकों की चुनौतियों, सैन्य जीवन की कठिन परिस्थितियों तथा उनके परिवारों के भावनात्मक पक्ष को प्रकाशित करने का एक और प्रयास किया गया है। 
कार्तिक शर्मा की मुख्य भूमिका में विक्रम चौहान और दीनदयाल शर्मा की भूमिका में यशपाल शर्मा ने सर्वाधिक प्रभावित किया। आतंकी हमज़ा का पात्र बहुत नया है, जो आतंकवादियों की परंपरागत मूढ़ छवि से कुछ हटकर एक शातिर आदमी की शक़्ल पेश करता है। राहुल तिवारी ने इस भूमिका का निर्वाह भी बेहतरीन किया है। 
नायक की माँ के किरदार में नीलू डोगरा ने भी एक संभ्रांत और समझदार गृहिणी का सच्चा चित्र प्रस्तुत किया है। उनके चेहरे के हाव-भाव हमारे घरों की महिलाओं की तरह सादा और कभी-कभी कटाक्ष-स्मित से अलंकृत हैं। 
मेरा हमेशा से मानना रहा है कि हक़ीक़त और बॉर्डर जैसी फ़िल्मों ने इस विषय को लगभग निचोड़ लिया है लेकिन फिर भी मुझे यह कहने में संकोच नहीं है कि 'सेना' का कहानीकार इस निचुड़े हुए नींबू में से रस की कुछ बूँदों को हासिल करने में कामयाब हुआ है। 
एक पिता के वात्सल्य को संघर्ष के समय की स्थितियों से जोड़ने के लिए नायक के बचपन का फ्लैशबैक जिस खूबसूरती से पटकथा में बुना गया है वह भय की रोमांचक मनोदशा को यकायक भावुक कर देता है। 
यह मेरा पक्षपात हो सकता है किन्तु एक कवि होने के नाते मुझे व्यक्तिगत रूप से रश्मिरथी और पुष्प की अभिलाषा का प्रयोग तो अच्छा लगा ही, साथ ही हिंदी साहित्य में पिता की भावनाओं के दृष्टिकोण से किसी उपन्यास की कमी का जिस सलीके से उल्लेख किया गया है, वह दिल को छू गया। 
एक पिता के वात्सल्य की महीन आवाज़ को कहानी में बेहद शानदार और दमदार ढंग से मुखर किया है। पिता को कंधे पर बैठानेवाले दृश्य में तो आँखें खारी हो गयी थीं।
यद्यपि कहानी की मांग के बहाने से रक्तपात और हिंसा के दृश्यों को न्यायसंगत ठहराया जा सकता है लेकिन मेरा मानना है कि वैभत्स्य को मंच पर प्रतीकात्मक ही रखा जाए तो अधिक नयनप्रिय रहता है। हालाँकि मैं इस बात की प्रशंसा करूंगा कि नायक के भीतर घुमड़ते भावुक क्रोध को पर्दे पर उतारने के लिए जिस उत्तेजना से सैंकड़ों गोलियां एक आतंकवादी के जिस्म में उतारी गईं, वह वास्तव में कहानी की मांग थी। यह गोलियों से भूनने और जिस्म को छलनी करने जैसी मिसालों को मूर्त करने का उत्कृष्ट उदाहरण है। 
हमज़ा के बदले हुए चेहरे को दिखाने के लिए उसका रक्तरंजित घिनौना चेहरा भी मुहावरे को चरितार्थ करता हुआ लाजवाब शॉट है।
सिरीज़ कहीं भी अनावश्यक विस्तार करती नहीं दिखती और न ही ओढ़ी हुई भावुकता से दूषित है। सैनिकों के जीवन पर आधारित दर्जनों फ़िल्मों के बावजूद यह सिरीज़ जनमानस को सैन्य भावनाओं के और निकट से दर्शन कराने में सफल कही जाएगी। 
✍️ चिराग़ जैन

Friday, July 18, 2025

पराश्रित प्रतिभा

द्रुपद से प्रतिशोध की आकांक्षा रखनेवाले द्रोण जब आश्रम की शुचिता में राजनीति का हस्तक्षेप स्वीकार कर लेते हैं तब केवल कुछ कर्ण और एकलव्य ही अन्याय का दंश झेलते हैं।
किन्तु यदि कोई प्रतिभाशाली कर्ण किसी भी परिस्थिति में अपनी निष्ठा के अश्व किसी दुर्योधन के द्वार पर बांध देते हैं तो पूरा युग कुरुक्षेत्र में आ खड़ा होता है।

पराश्रित प्रतिभा, चंदन की लकड़ी से बना कोयला है। 

✍️ चिराग़ जैन

Monday, June 23, 2025

न्यूज़ीलैंड यात्रा : गंगाधर ही शक्तिमान था

प्रशांत महासागर के पश्चिमी छोर पर बसा ख़ूबसूरत देश है न्यूज़ीलैंड। मुस्कराते हुए लोगों का देश। चेहरे पर ज़िन्दगी जैसी ख़ूबसूरत ताज़गी लिए यहाँ के लोग तनाव और उन्माद से अछूते दिखाई देते हैं।
इन दिनों यहाँ पतझड़ का मौसम है। 'मुहब्बतें' फिल्म वाले मेपल के पत्ते सड़कों का शृंगार करने में व्यस्त हैं। पेड़ों से पत्ते झड़ चुके हैं, लेकिन पेड़ों के अस्तित्व में कहीं कोई शिकायत महसूस नहीं होती, उल्टे वे मौसम की इस छटा को संवारते ही दिखाई देते हैं।
आसमान के खुले मैदान में सूरज और बादलों की आँख-मिचौनी लगातार चलती रहती है। सूर्यदेव बहुत सवेरे ड्यूटी पर आ जाते हैं और उतनी ही जल्दी घर भाग जाते हैं। रात में शहर का तापमान 3° सेल्सियस तक गोता लगा लेता है और दिन में कभी 17°-18° से आगे पांव नहीं बढ़ाता। हवाएं मौसम की ठंडक को बढ़ाते हुए इतराती फिरती हैं। ऐसे में धूप की गुनगुनी छुअन देह के रोम-रोम को दुलारती है, तो मन भी खिल उठता है।
ऑकलैंड शहर के बीचोंबीच सुदीमा होटल में हमारा प्रवास है। छठे माले के टू साइड ओपन फॅमिली स्वीट के दोनों ओर बड़ी-बड़ी खिड़कियों से शहर दिखाई देता है। ठीक सामने स्काई टावर है। 328 मीटर ऊँची यह शानदार इमारत ऑकलैंड की पहचान है।
स्थानीय समयानुसार 18 जून की शुरुआत होते-होते हम लोग इमिग्रेशन की औपचारिकता संपन्न करके, लगेज बेल्ट से अपना सामान बरामद करते हुए हवाई अड्डे से बाहर निकल आए थे।
बाहर दस-बारह लोग हमारी प्रतीक्षा में खड़े थे। स्वागत-सत्कार के दौरान मैंने सभी की आँखों में अपने देश से आए अतिथियों के प्रति वही अपनत्व देखा, जो मायके के गांव से आए किसी व्यक्ति के प्रति सासरे में बसी बिटिया की आँखों में होता है।
प्रेम उपाध्याय, जो हमारे मुख्य आयोजक हैं, उनके कंधे पर आयोजन का लगभग सारा ही दायित्व था। हमें लाने-लिवाने से लेकर कार्यक्रम की टिकटें बुक करने तक का 'संपूर्ण दायित्व' प्रेम ने खुद के हाथों में सीमित रखा। उनका वश चलता तो वे शायद हम तीनों कवियों को किसी डब्बे में पैक करके कहीं छुपा देते ताकि कोई हमें देख भी न सके।
प्रेम उपाध्याय काफी मददगार स्वभाव के व्यक्ति हैं। उन्होंने मुझे बताया कि जिन खुशबू जी को उन्होंने वीजा की प्रक्रिया के लिए नियुक्त किया था, वे उनके मित्र की पत्नी हैं और उन्होंने वीज़ा लगवाने का नया काम शुरू किया है, इसलिए केवल उनको प्रोत्साहित करने के लिए प्रेम ने उन्हें यह काम सौंपा। ऐसे बेहतर मनुष्य मुश्किल से मिलते हैं, जो स्वयं किसी काम में पारंगत होते हुए भी अपने दोस्त की पत्नी को मोटिवेशन देने के लिए काम भी दे और फीस भी।
इनकी सहृदयता का एक उदाहरण यह भी था कि वीज़ा की प्रक्रिया के दौरान खुशबू जी ने हमसे कुछ दस्तावेज़ मांगे तो प्रेम ने मुझे भारी-भरकम अंग्रेजी का एक मेसेज लिखकर भेजा और मुझे कहा कि मैं यह खुशबू को इसलिए भेज दूँ ताकि उन्हें प्रोफेशनल व्यवहार सिखाया जा सके। प्रेम उपाध्याय के इस परोपकारी स्वभाव से मैं भावुक हो उठा।
न्यूज़ीलैंड में प्रेम ने दो शो बुक किए थे। एक ऑकलैंड में और दूसरा क्राइस्ट चर्च में। दुर्भाग्य यह रहा कि उन्हीं दिनों न्यूज़ीलैंड में कुछ और सेलिब्रिटी भी कार्यक्रम कर रहे थे। वहां रहनेवाले भारतीय सीमित थे और कार्यक्रम अधिक हो गए तो क्राइस्ट चर्च के आयोजक ने कार्यक्रम रद्द कर दिया। प्रेम ने हमें बताया कि उस कार्यक्रम के लिए लगभग साढ़े तीन हज़ार डॉलर की टिकटें प्रेम ने अपनी जेब से करायी और यह सारा नुकसान उन्होंने अपनी जेब से भुगता। उनकी इस विनम्रता के कारण कवियों ने भी उस रद्द हुए कार्यक्रम का कोई मानदेय प्रेम उपाध्याय से नहीं लिया।
चूँकि सुदीमा होटल एक भारतीय परिवार द्वारा संचालित था, इसलिए हमें आश्वस्ति थी कि इस होटल में हमें भारतीय भोजन आराम से मिल जाएगा। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। प्रेम उन दिनों व्यस्तता के चरम पर थे। वे स्वयं ही एक-एक व्यक्ति को फोन करके टिकट बेच रहे थे, स्वयं ही हमारे ड्राईवर बनकर हमें खाना खिलाने ले जा रहे थे, स्वयं ही कार्यक्रम की व्यवस्था में संलग्न थे और स्वयं ही अपने sponsor लोगों से संपर्क में थे।
एक दिन वे हमें हरपाल जी के घर भोजन पर ले गए। हरपाल जी एक पंजाबी व्यक्ति हैं और उनकी पत्नी किरण जी फीजी से हैं। किरण जी की कलात्मक अभिरुचि ने उनके घर को एक छोटा-मोटा संग्रहालय बना दिया है। रसोई से लेकर आँगन तक, सब कलापूर्ण। किरण जी त्वचा संबंधी समस्याओं का एक क्लिनिक चलाती हैं। उनके क्लिनिक का प्रत्येक कोना इतना कलात्मक है कि आदमी अपनी बीमारी भूल जाए।
किरण जी ने बहुत रुचि से हमें भोजन कराया। स्वाद के साथ अपनत्व भी तैर रहा था उनकी रोटियों पर। मैंने उनकी रसोई की खूब photography की। उनके पति भी सरस तथा मददगार वृत्ति के व्यक्ति हैं। कलाकारों के प्रति उनके व्यवहार में जो आदरभाव दिखा, वह मेरे लिए अविस्मरणीय था।
रात का भोजन हरपाल जी के सौजन्य से संपन्न हुआ और अगली सुबह के नाश्ते के लिए हम होटल के रेस्तरां में जूझते रहे। हम समझ चुके थे कि इस यात्रा में भोजन की चुनौती आनेवाली है, इसलिए सुरेन्द्र जी ने प्रेम उपाध्याय के सामने एक प्रस्ताव रखा कि हम प्रेम के घर से स्वयं भोजन बनाकर ले आया करें, लेकिन प्रेम जी तो स्वयं हमारे साथ होटल में पड़े थे। उन्होंने हमें बताया कि वे यहाँ अकेले रहते हैं और जिस कमरे में वे रहते हैं, उसमें और भी कुछ बैचलर लड़के रहते हैं। इसलिए उस स्थान पर कवियों को ले जाना उन्हें असहज कर देगा। हमने उनकी असमर्थता का सम्मान किया और विपरीत परिस्थितियों में इस यात्रा को आनंद सहित संपन्न करने के लिए कमर कस ली।
अगली दोपहर हमें 'शिवानी' नामक एक रेस्तरां में ले जाया गया। इसकी मालकिन शिवानी जी ने बड़े मन से हमें भोजन कराया। भोजन में भारतीय महक थी और यह स्थान हमारे होटल से अधिक दूर भी नहीं था इसलिए सुरेन्द्र जी ने चाहा कि इसी स्थान से हमारा भोजन का इंतजाम करा दिया जाए। लेकिन न जाने क्यों, प्रेम उपाध्याय ने इस प्रस्ताव को लगभग अनसुना कर दिया।
शिवानी जी के रेस्तरां से वापसी होटल आते समय हमें रास्ते में माउंट ईडन नामक एक स्थान पर छोड़कर हमारा आयोजक फोन पर टिकटें बेचने में जुट गया। सुरेन्द्र जी गाड़ी में बैठे रहे और मैं धीरे-धीरे चलकर पर्वत की चोटी तक पहुँचकर ऑकलैंड शहर का विहंगम दृश्य देखता रहा।
हम अनवरत यह सोचते रहे कि न्यूजीलैंड में रहनेवाले भारतीय काफी नीरस प्रवृत्ति के लोग हैं, इसीलिए इतने लंबे प्रवास में न तो कोई हमसे मिलने आया और न ही किसी ने हमें आमंत्रित करने की कोशिश की। प्रवासी भारतीयों के इस व्यवहार से प्रेम भी काफी खिन्न दिखे।
लेकिन 21 तारीख़ को जब कार्यक्रम आयोजित होना था तब सबका व्यवहार इतना मधुर था कि हमें पिछले 4 दिन की बोरियत और चुनौती का कारण समझना कठिन हो गया। खिलखिलाते हुए लोग, हमसे मिलने को आतुर लोग, हमारे साथ फोटो खिंचवाने की होड़, हमारा सान्निध्य पाने की ललक... यह सब देखकर हमें आश्चर्य भी हुआ, हर्ष भी और कष्ट भी।
ऑकलैंड के वातावरण में परागकण बहुतायत में हैं, जिन्हें पौलन कहा जाता है। इनके कारण साइनस, अस्थमा और एलर्जी के रोगियों को दिक्कत हो जाती है। कार्यक्रम के दिन मुझे इस समस्या ने घेर लिया था। साइनस चरम पर था। मैंने प्रेम से कहा कि कोई नेज़ल स्प्रे मंगवा दे ताकि शाम का कार्यक्रम ठीक हो जाए। प्रेम ने मुझे Peracitamol tablet मंगवा कर दी। शाम को कार्यक्रम से पहले सुमित नामक सज्जन हमें लेने होटल आए। उन्होंने मेरी तबीयत देखी तो उन्होंने ही वातावरण के इस 'हे-फीवर' के विषय में बताया। वे आश्चर्य कर रहे थे कि प्रेम ने उन्हें यह बता दिया होता तो इसका उचित उपचार (नेज़ल स्प्रे और आई drop) मैं ला देता।
सिरदर्द, जुकाम और बुखार से पीड़ित मैं आयोजन स्थल पर पहुँच गया। ग्रीन रूम में मालव जी ने मेरी स्थिति को देखकर मेरे लिए ortivin मंगवाई। उसकी बदौलत मैं कार्यक्रम ठीक से संपन्न कर सका।
उधर कार्यक्रम प्रारंभ होने से पूर्व ही प्रेम ने शो फ्लो क्लियर कर दिया था। हमारी प्रस्तुति 2 घंटे की थी, फिर एक मध्यांतर और उसके बाद बकौल प्रेम उपाध्याय, कुछ सरप्राइज था, जिसके विषय में शो की एंकर को भी नहीं पता था।
कार्यक्रम धमाल हुआ। ठहाकों की बरसात हुई। श्रोताओं ने हँसी का जी भरकर लुत्फ़ उठाया। भारत और भारतीयता से माहौल उत्साहित हो गया। स्टैंडिंग ओवेशन से लोगों ने कवियों को सैल्यूट किया। इसके बाद मध्यांतर की घोषणा हुई। हालाँकि शो जहाँ पहुंच चुका था, इसके बाद मध्यांतर का कोई औचित्य नहीं था। लेकिन आयोजक ने शायद मध्यांतर के लिए किसी रेस्तरां वाले से कुछ sponsorship ले रखी थी। इसलिए वह कार्यक्रम की सफलता की कीमत पर भी मध्यांतर जरूर करना चाहता था।
वही हुआ जिसका डर था। मध्यांतर के बाद हॉल में केवल 20 प्रतिशत लोग लौटे। इनमें से अधिकतर वे sponsor थे, जिनका सम्मान किया जाना था।
कला, जिस कार्यक्रम को चरम पर ले आई थी, बाजार ने उसे काफी नीचे लाकर समाप्त किया। यद्यपि जो लोग कविता और हास्य सुनने आए थे, वे संतुष्ट भी थे और प्रसन्न भी।
अगला पूरा दिन आयोजक के व्यवहार तथा कृतघ्नता के कारण बोरियत और खिन्नता से भरा रहा। रात का भोजन नमस्ते भारत के संचालक दंपति ने इतना स्वादिष्ट भेजा कि दिन भर का कष्ट बौना रह गया। अगली सुबह हमारा किसी के घर नाश्ते का कार्यक्रम था और फिर वहीं से हमें हवाई अड्डे चले जाना था। सुबह-सुबह ज्ञात हुआ कि नाश्ते का कार्यक्रम कैंसिल हो गया है। हमने रात के बचे हुए भोजन से काम चलाया और अंततः वीज़ा लगवाने वाली खुशबू जी के घर से रास्ते का भोजन लेकर हम रवाना हो गए। जिस देश में हमें रिसीव करने आधी रात को दर्जन भर लोग मौजूद थे, उस देश में भरी दोपहर में एक शानदार प्रस्तुति के बाद भी कोई हमें सी-ऑफ करने नहीं आया।
अंतिम दिन तक हम समझ चुके थे कि हमारे साथ पिछले 6 दिन से क्या हो रहा था। न्यूज़ीलैंड के लोगों में 'नेहा कक्कड़' नामक एक कलाकार के प्रति काफ़ी रोष था। हमें बताया गया कि 3 वर्ष पूर्व इसी आयोजक ने नेहा कक्कड़ को किसी शो के लिए बुलाया था और नेहा ने इस आयोजक को काफी परेशान किया था।
हवाई जहाज की खिड़की से न्यूज़ीलैंड की धरती पीछे छूटती दिख रही है। बादलों में नेहा कक्कड़ के प्रति करुणा और इस आयोजक के मददगारों के प्रति दया की तस्वीर उभर रही है।
हँसते और चहचहाते हुए देश में एक मुखौटे की उपस्थिति कैसे पंचवटी के रमणीक माहौल को शोक और निराशा के अंधकूप में धकेल सकती है, इसका अनुभव लेकर भारत की दिशा में उड़ चला हूँ।
✍️ चिराग़ जैन

Sunday, June 15, 2025

योजना

लोग अड़ी-भिड़ी के चक्कर में इतना समान भर लेते हैं कि भिड़े भिड़े रहते हैं।
✍️ चिराग़ जैन 

Tuesday, June 10, 2025

सामान्य दृष्टि

सामान्य दृष्टि से देखने पर 'धैर्य' भी 'कायरता' जैसा दिखता है। 

✍️ चिराग़ जैन 

Monday, June 9, 2025

सामान्यीकरण

एक दवाई अलग-अलग शरीर पर अलग-अलग प्रभाव डालती है। एक ही परिस्थिति में दो अलग-अलग मनुष्य अलग-अलग व्यवहार कर सकते हैं। एक ही मनुष्य किसी एक बिन्दु पर नैतिक और दूसरे बिंदु पर अनैतिक हो सकता है।
इतनी सामान्य सी बात हम समझना क्यों नहीं चाहते? इतनी साधारण सी बात को समझने में हमें कठिनाई क्यों होती है?
एक लड़की ने हनीमून पर अपने पति की हत्या कर दी। यह एक घटना है। इसके झरोखे से प्रत्येक नवविवाहिता का आकलन करना उचित नहीं है। ठीक इसी प्रकार एक परिवार ने दहेज के लोभ में अपनी वधू की हत्या कर दी; इस घटना को साक्ष्य मानकर सभी ससुरालवालों को खलनायक मान लेने का अपराध हम कर चुके हैं।
दहेज हत्या सामाजिक बुराई अवश्य थी, किंतु यह समाज की प्रवृत्ति नहीं थी। ऐसी दुर्घटनाओं की बेतहाशा चर्चा और इन चर्चाओं से समाज में उत्पन्न घृणा ने संबंधों की चूल हिला डाली। सिनेमा ने लगातार 'बेचारी बहुओं' का ऐसा चित्रण किया कि सास, ननद और जेठानी जैसे रिश्ते अपमानित होकर रह गए।
जिस वधू को विश्वास और आश्वस्ति के साथ ससुराल आना था, वह संशय और भय के साथ बाबुल का घर छोड़ने की अभ्यस्त हो गई। इस संशय का परिणाम यह हुआ कि ससुराल की राई जैसी खटपट को भी बहू ने पर्वत जैसा संकट समझ लिया। नकारात्मकता की छोटी सी चिंगारी भी ज्वालामुखी दिखने लगी।
इस स्थिति में जो कलह घटित हुईं, उनके परिणामस्वरूप दहेज विरोधी कानून बना दिए गए। घरेलू हिंसा अधिनियम बन गया। अब बहू के हाथ मजबूत हो गए और ससुरालवालों के मन में संशय बैठ गया। इन कानूनों ने बीमारी का इलाज नहीं किया, बल्कि संशय को स्थानांतरित कर दिया।
तब हमने सभी बहुओं को 'बेचारी' मानकर वैवाहिक संस्था को ध्वस्त किया था और अब हम मेरठ से मेघालय तक कि घटनाओं का हवाला देकर सभी बहुओं को 'क्रूर' मानकर उसी भूल की पुनरावृत्ति कर रहे हैं।
जिसने पति की हत्या कर दी, वह एक महिला अपराधी है। इससे सभी महिलाओं को अपराधी नहीं माना जा सकता। जिसने पति को धोखा दिया, वह एक लड़की चरित्रहीन है। उसका उदाहरण देकर सभी ल़डकियों को चरित्रहीन नहीं माना जा सकता।
सामान्यीकरण की इस बीमारी ने समाज के सौहार्द को आघात पहुँचाया है। सोशल मीडिया के दौर में यह बीमारी अधिक व्यापक हो चली है।
एक भाजपा नेता का वीडियो वायरल हुआ और हम सभी भाजपाइयों को अश्लील मानने लगे। एक कांग्रेसी के चरित्र से पूरी कांग्रेस का चरित्र नहीं परखा जा सकता। एक भारतीय पूरे भारतवर्ष का उदाहरण नहीं हो सकता। एक स्त्री पूरी स्त्री जाति नहीं है।
डॉक्टरों को भगवान बनाकर हमने इसी सामान्यीकरण की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया है। फिर मानव अंगों के व्यापार में शामिल डॉक्टरों को उदाहरण मानकर, सभी डाक्टर्स को दैत्य मानना भी इसी प्रवृत्ति का परिणाम है।
एक आध्यात्मिक व्यक्ति के कदाचार से सभी संतों के चरित्र को घिनौना मानना अपराध है। एक साधु के रावण निकलने पर राम ने सभी साधुओं को रावण नहीं मान लिया था।
सामान्यीकरण समाज के विवेक का हत्यारा है। इससे अपने समाज को, अपनी विधायिका को, अपनी न्यायपालिका को और अपने परिवारों को बचाना हम सबका कर्त्तव्य है।

✍️ चिराग़ जैन

Friday, June 6, 2025

फ़ुरसत

धूप इक रोज़ ढल ही जाती है 
उम्र सूरत बदल ही जाती है 
थोड़ी फ़ुरसत निकालकर देखो 
ज़िन्दगी तो निकल ही जाती है

✍️ चिराग़ जैन

Thursday, May 29, 2025

भूमिका

यदि कोई साहित्यकार, जनता की रुचियों के लिए अपने समाज के नैतिक स्वास्थ्य को अनदेखा कर रहा है तो समझ लीजिए कि वह औषधालय का बोर्ड लगाकर हलवाई की दुकान चला रहा है। 
✍️ चिराग़ जैन 

Tuesday, May 27, 2025

ख़ुदशनास

यूँ न समझो उदास बैठा हूँ 
आज मैं ख़ुदशनास बैठा हूँ 
मुझसे कोई अभी न बात करो 
मैं अभी अपने पास बैठा हूँ 

✍️ चिराग़ जैन 

Sunday, May 25, 2025

फिर भी दिल है हिंदुस्तानी

संपन्नता से वे ऑफ लिविंग बदल सकता है, लेकिन वे ऑफ थिंकिंग पर संपन्नता का कोई असर नहीं होता। झुग्गी बस्ती में पानी का टैंकर आने पर जिस तरह की झड़प होती है ठीक वैसी ही तू-तू-मैं-मैं एयरपोर्ट पर सिक्युरिटी चेक करते समय भी ख़ूब होती है। अन्तर बस इतना है कि फेंकने की सिचुएशन आने पर पानी की बाल्टी, सेमसोनाइट की अटैची से रिप्लेस हो जाती है और माँ-बहन की भद्दी गालियां अपने अंग्रेजी अनुवाद का अवतार ले लेती हैं। 
पढ़ी-लिखी महिलाएं झुग्गी वाली महिलाओं की तरह एक-दूसरे के बाल पकड़कर खींचने की बजाय बात को इतना लंबा खींच देती हैं कि सामने वाला ख़ुद अपने बाल नोच लेता है। 
कस्बाई शामें देसी दारू की महक से प्रारम्भ होकर मारपीट और गाली-गलौज पर संपन्न होती हैं, जबकि होटलों की शामें दिखावटी आलिंगनों से प्रारंभ होकर गाली-गलौज पर संपन्न हो जाती हैं। हाई-क्लास लोग मारपीट और हाथापाई नहीं करते, क्योंकि इस काम को करने के लिए अपना निजी शरीर प्रयोग करना पड़ता है। 
पीवीआर सिनेमा की लाइन में भी लोग उसी सोच से बीच में घुसने का प्रयास करते हैं जिस चतुराई से वे मिट्टी के तेल की लाइन में चुपचाप घुसने की कोशिश करते थे। लाइन तोड़कर बीच में घुसने की जो दक्षता हम भारतीयों में है, उसका विश्व में कोई सानी नहीं है। लेकिन इसका यह बिल्कुल अर्थ नहीं है कि हर कोई ऐरा-गैरा हमारे रहते बीच में घुस जाएगा। इसका सीधा फार्मूला है, जो हमसे ज़्यादा ढीठ होगा, वही हमसे जीत पाएगा। इसीलिए सिविक सेंस, रोड सेंस और यहाँ तक कि कॉमन सेंस को भी कभी अपने बीच में जगह नहीं बनाने दी। 
एयरपोर्ट पर सिक्योरिटी चैक की लाइन हो तो भी हम चेहरे पर फ्लाइट छूटने की चिंता का ऐसा शानदार अभिनय पोत लेते हैं कि क्रूर से क्रूर आदमी को भी पीछे हटना पड़ेगा। ये और बात है कि अंदर वही बेचारा जब विंडो शॉपिंग पर टाइम पास करता दिखता है तो उसकी आँखों में बेशर्मी तैर रही होती है। 
वाहनों का इंश्योरेंस होने के बाद भी दो गाड़ीवाले सड़क पर उसी तरह से नुक़सान की भरपाई के नाम पर पैसे वसूलने की भरसक कोशिश करते हैं, जैसे किसी ऑटोरिक्शा से टच हो जाने पर साइकिलवाला अपने पैर की हड्डी टूटने की घोषणा करके लँगड़ाने लगता है। 
हम दरअस्ल दुनिया को यह बताना चाहते हैं कि हम बदतमीजी करते वक़्त ऊँच-नीच, अमीर-ग़रीब, शहरी-ग्रामीण जैसे भेदभाव नहीं करते। हम अपने मूल संस्कारों को भूलकर कोई वैभव नहीं भोग सकते। इसीलिए हमारे भूखे-नंगे से लेकर करोड़पतियों तक बकी जानेवाली गालियों में रत्तीभर फर्क़ नहीं है। 

✍️ चिराग़ जैन 

Monday, May 5, 2025

बेताल पचीसी

पत्रकारिता, सम्राट विक्रम की तरह राजनीति के बेताल को अपनी पीठ पर लादकर, जनमत की यज्ञशाला तक ले आने में समर्थ थी।
जब भी पत्रकारिता, राजनीति को वश में करके यज्ञशाला की ओर चलती, तो बेताल किसी अनावश्यक कहानी में उसे उलझा देता था। भ्रमित विक्रम, यज्ञशाला का लक्ष्य भूलकर कहानी के समाधान में भटक जाता। ज़रा-सी चूक होते ही बेताल हाथ से निकल जाता था और विक्रम देखता रह जाता था।
एक दिन विक्रम ने साधु के हाथ-पैर बांधकर उसे ही पीठ पर लाद लिया। थोड़ी दूर चलते ही बेताल ने दूर बैठकर एक कहानी शुरू की और फिर कहानी बीच में छोड़कर भाग गया।
विक्रम ने साधु को रास्ते में पटका और कहानी पूरी करने निकल गया। इससे पहले कि कहानी पूरी हो, बेताल फिर से कोई नई कहानी उसके हाथ में थमाकर भाग निकला।
अब, साधु बीच रास्ते में बंधा हुआ कराह रहा है। यज्ञशाला पर बेताल ने कब्ज़ा कर लिया है। और विक्रम बेचारा, रोज़ एक कहानी को अधूरा छोड़कर, नई कहानी को पूरा करने में व्यस्त है।

✍️ चिराग़ जैन

Monday, April 28, 2025

धैर्य

हे अर्जुन,
सूर्यास्त को देखकर 
न धैर्य छोड़ो, न धनुष;
हो सकता है 
सूर्य
जयद्रथ को बुलाने गया हो!
✍️ चिराग़ जैन 


Sunday, March 16, 2025

कुलगीत IIIT Vadodara

उन्नत शिक्षा हेतु समर्पित
इस धरती का अभिनंदन
इस परिसर से ज्ञान प्रसारित 
इसके कण-कण का वंदन

जननी-तनय सरीखे ही हैं, आवश्यकता-आविष्कार 
अनुभव का अवलंबन थामे बढ़ता अधुनातन आचार
भौतिकता के चक्र, कल्पना-अश्व, साधना का स्यंदन
इस परिसर से ज्ञान प्रसारित 
इसके कण-कण का वंदन

ज्ञान वही, जो मानवता हित सज्जन का निर्माण करे
शोध वही, जो जन-जन के हित सुविधा अनुसंधान करे 
शिक्षा वह, जिससे बन पाये, सरल, सुगम, सुंदर जीवन 
इस परिसर से ज्ञान प्रसारित 
इसके कण-कण का वंदन

अर्जित कर, संरक्षित करना और प्रसारित करना ज्ञान 
यही स्वप्न है, यही सोच है, यही हमारा लक्ष्य प्रधान 
ऊर्जा के मस्तक पर चंदन तिलक लगाता अनुशासन 
इस परिसर से ज्ञान प्रसारित 
इसके कण-कण का वंदन

अलख तरंगों को लिखते हैं, अकथ स्वरों को सुनते हैं 
प्राणहीन यंत्रों को समझें, हर स्पन्दन को गुनते हैं 
एक साथ साधे हैं हमने जड़, चेतन और अवचेतन
इस परिसर से ज्ञान प्रसारित 
इसके कण-कण का वंदन

उद्यमस्य सम किमपि न भवति, कर-कर इसी मंत्र का ध्यान
सुकर बनाकर सुगम सूचना, स्वप्न लिए जग का कल्याण
अभिनव शिक्षा, अभिनव जीवन, अभिनव दर्शन, अभिनव मन 
इस परिसर से ज्ञान प्रसारित
इसके कण-कण का वंदन

संस्कृति की समृद्धि हमारी पृष्ठभूमि का तत्व प्रधान
मानव निर्मित बुद्धि, प्राकृतिक भाषा का करते संधान
आगत का स्वागत करते हैं और अतीत का आराधन
इस परिसर से ज्ञान प्रसारित 
इसके कण-कण का वंदन

विश्वामित्री के तट पर वट की नगरी है सुन्दरतम
शिक्षा के नित-नूतन-नय को करती है यह हृदयंगम 
संस्कृति और विज्ञान यहाँ करते दिखते हैं आलिंगन 
इस परिसर से ज्ञान प्रसारित 
इसके कण-कण का वंदन

Monday, March 10, 2025

तोंद गाथा

जब 25वां साल चढ़ा
तब अपना भी पेट बढ़ा
जो खाता, वो लगता था
प्रतिदिन पेट निकलता था
लड़कीवाले आते थे
तोंद देख भग जाते थे

इक दिन इक लड़की के घर
जा पहुँचा रिश्ता लेकर
साँस खींचकर बैठा था
पेट भींचकर बैठा था
बटन काज में अटका था
दिल में हर पल खटका था
तभी अचानक वो आईं
मुझे देखकर मुस्काई
प्रणय भाव में उछल गया
दायित्वों को कुचल गया
पेट ख़ुशी से फूल गया
सारी सीमा भूल गया
बटन बेचारा हार गया
पेट शर्ट के पार गया
सपनों का संसार धुला
कहाँ तीसरा नेत्र खुला
निकला तीर कमान दिखी
भीतर की बनियान दिखी

जैसे-तैसे ब्याह हुआ
फिर मैं बेपरवाह हुआ
टायर का आकार बढ़ा
पूरा गोलाकार बढ़ा
कटि बढ़कर कटिहार हुई
हर इक सीमा पार हुई
पत्नी ने कुछ फील किया
मुझे प्यार से डील किया
तुम तो शोना-बाबू हो
खाने में बेकाबू हो
चाट पकौड़ी भाती है
ज़रा शर्म नहीं आती है
मटके जैसा पेट लिए
ख़ुद को इन्डिया गेट किए
ठुमक-ठुमककर चलते हो
स्मार्टनेस को खलते हो
थोड़ा तो कंट्रोल करो
अब मत टाल-मटोल करो

सेहत का अपमान है तोंद
बीमारी का भान है तोंद
बॉडी से मिसमैच है तोंद
भोंदूपन का बैज है तोंद
कुंभकर्ण की फ्रेंड है तोंद
आलसियों का ट्रेंड है तोंद
कितना बैड रिजल्ट है तोंद
इक सोशल इंसल्ट है तोंद

ये सब सुनकर नाड़ झुकी
नाड़ झुकी तो तोंद दिखी
फटने को था गुब्बारा
मैंने ख़ुद को धिक्कारा
लानत है इस जीवन पर
कुछ कंट्रोल नहीं मन पर
खूब समोसे खाता है
पुचके पर ललचाता है
सीधी रेखा चाप हुई
शेप बिगड़कर शाप हुई
खुद को कुछ इस्ट्राँग किया
मैंने इक संकल्प लिया
तला-भुना सब छोड़ूंगा
मीठे से मुँह मोड़ूंगा
काम अजायब कर दूंगा
चर्बी ग़ायब कर दूंगा
चटखारे बिसरा दूंगा
ये ब्रह्मांड हिला दूंगा

ऐसा भीषण प्रण करके
कुछ संयम धारण करके
मैं घर से बाहर निकला
नुक्कड़ पर ही दिल पिघला
दृष्टि भूल से छली गई
तभी जलेबी तली गई
मुँह में पानी भर आया
बहुत तरस ख़ुद पर आया
तन और मन में ठन आई
ठीक सामने हलवाई
गरम जलेबी तलता था
मन उस ओर मचलता था
रस की भरी करारी थी
छोटी प्यारी-प्यारी थी
क्या बतलाऊं कैसी थी
ठीक मेनका जैसी थी
कठिन तपस्या भंग हुई
भीष्म प्रतिज्ञा तंग हुई
जब कंट्रोल न हो पाया
तब ख़ुद को यूँ समझाया
कल से नियम निभाऊंगा
आज जलेबी खाऊंगा

कई दिनों तक ट्राई किया
एक अर्थ-स्काई किया
कोई मन्तर नहीं चला
रोज़ किसी ने मुझे छला
कभी भठूरे-छोले ने
कभी बर्फ के गोले ने
गर्मागर्म समोसे ने
कभी मसाले डोसे ने
आलू, चाट, पकौड़ी ने
भजिया, पाव, कचौड़ी ने
केसर चढ़ी इमरती ने
भोजन भूषित धरती ने

तप में नित व्यवधान किया
नियमों का अपमान किया
पूरा जग रसवान दिखा
हर पदार्थ पकवान दिखा
झरने कलकल करते थे
शर्बत बनकर झरते थे
पर्वत जी का जाल लगे
वर्क सुसज्जित थाल लगे
किचन सूंघकर आती थी
पुरवा भूख बढ़ाती थी
पेड़ सुना, पेड़ा सूझा
गेंदे को लड्डू बूझा
सुबह-सुबह प्रण लेता था
शाम तलक तज देता था

लेकिन इक दिन मैं जीता
लार गटककर दिन बीता
पूरा दिन रुक पाने में
डाइट चार्ट निभाने में
बस थोड़ी-सी दूरी थी
मगर प्लेट में पूरी थी
पुनः प्रतिज्ञा छली गई
पूर्ण उदर में चली गई

इक दिन मुझको ज्ञान हुआ
भोजन का सम्मान हुआ
बेर राम को भाते हैं
कान्हा माखन खाते हैं
जो ईश्वर को भाता है
वह प्रसाद बन जाता है
फिर विचार कुछ करना क्या
तोंद-वोंद से डरना क्या
वही तोंद से बचता है
जिसको घी नहीं पचता है
लोग भसककर खाते हैं
तोंद उगा नहीं पाते हैं
नींद भूख जब पूर्ण मिलें
सुख के स्वर्णिम पुष्प खिलें
तब कुछ तोंद निकलती है
क्यों दुनिया को खलती है

तोंद बढ़ाना खेल नहीं
भूख-पेट का मेल नहीं
पतला खाना खाता है
मोटों के सिर आता है

तोंद उसी के लगती है
जिसको लक्ष्मी फबती है
गणपति की पहचान है तोंद
ईश्वर का एहसान है तोंद
वैभव का वरदान है तोंद
सेठों का अभिमान है तोंद
सबके ताने सहती है
फिर भी आगे रहती है
कृत्रिम होना ठीक नहीं
तोंद गिफ्ट है, भीख नहीं
नेचर का सत्कार करो
बस ख़ुद को स्वीकार करो

बोल तोंद वाले बाबा की जय

✍️ चिराग़ जैन 

Sunday, February 23, 2025

स्वावलंबी प्रकृति

हम तब तक किसी काम को टालने का प्रयास करते हैं, जब तक उस कार्य को करना अपरिहार्य न हो जाए। यह मनुष्य की सहज प्रवृत्ति है। काम को टालने के हमारे पास अनगिनत उपाय हैं। और उचित अवसर की प्रतीक्षा, कार्य को टालने का सर्वाधिक प्रयुक्त बहाना है।
जिसे कार्य करना होता है, वह कार्य कर देता है। किसी कार्य को करने का एक ही तरीका है, कि उस कार्य को संपन्न करने के लिए प्रारंभ किया जाए।
विश्व का कोई पथप्रदर्शक आपको चलने के लिए बाध्य नहीं कर सकता। वह तर्जनी को किसी दिशा मे बढ़ाकर आपको रास्ता तो दिखा सकता है, किंतु हथेलियों से आपको उस रास्ते पर धकेल नहीं सकता। धकेलने से कोई रास्ता तय होता भी नहीं है। रास्ता तो चलने से तय होता है। इसलिए पथ प्रदर्शन का दायित्व दिशा दिखाने तक सीमित है। चलना तो आपको स्वयं ही होगा।
बुद्ध, महावीर जैसे ऊर्जावान मनुष्यों ने भी आपको मार्ग दिखाया, वे आपका हाथ पकड़कर आपको मोक्ष तक नहीं ले जा सके। यहाँ तक कि कृष्ण, जो अर्जुन के सारथी बनकर उनका रथ हाँक रहे थे, वे भी अर्जुन के लिए युद्ध न कर सके। गांडीव तो अर्जुन को स्वयं ही उठाना पड़ा।
पूरी प्रकृति स्वावलंबन के इसी सिद्धांत से संचालित है।
यही कारण है कि जीवन के लिए आवश्यक किसी भी ज्ञान का अर्जन करने के लिए दुनिया के किसी प्राणी को किसी संस्थान मे जाने की आवश्यकता नहीं होती। सद्यजात शिशु, साँस लेने के लिए किसी पाठ्यक्रम का अध्ययन नहीं करता। पलकें झपकने से लेकर चलने, बोलने और सोने-जागने तक कि शिक्षा के लिए कहीं कोई संस्थान नहीं है। भूख लगने पर कोई प्राणी भोजन का कौर, पेट की ओर नहीं ले जाता। पेट मे उत्पन्न जठराग्नि को शांत करने के लिए नन्हें से नन्हा प्राणी भी मुँह के रास्ते ही भोजन ग्रहण करता है। यह प्रकृति द्वारा प्राप्त स्वावलंबन का सर्वोत्कृष्ट प्रमाण है।
संतानोत्पत्ति, आत्मरक्षा और अभिव्यक्ति सीखने के लिए भी पाठ्यक्रम आवश्यक नहीं है। ये क्रियाएं भी प्रकृति द्वारा प्रदत्त स्वाभाविक गुणों में सम्मिलित हैं।
आवश्यक अभिव्यक्ति के लिए जितनी भाषा जाननी चाहिए, वह प्रकृति ने हर प्राणी को सिखा दी है। और प्रकृति द्वारा सिखाई गई ये भाषा कंठ ही नहीं अपितु आँखों, श्वास, हाथों, चेहरे और नथुनों तक से बोलना जानती है। सम्भवतः यही कारण है कि अभिव्यक्ति जब अपने उत्कर्ष पर पहुँचती है तब शब्द गौण हो जाते हैं। उस समय आँसू न जाने किस स्रोत से निकलकर नयनों से बह निकलते हैं।
विश्व के जितने भी शिक्षण संस्थान हैं, वे प्राणी को प्रकृति के स्वाभाविक संतुलन से दूर ले जाकर, प्रकृति पर विजय प्राप्त करने के लिए अलग-अलग पाठ्यक्रम बताते हैं। यदि हम प्राकृतिक होने का अभ्यास करें तो किसी अन्य ज्ञान की आवश्यकता ही नहीं होगी। बल्कि यों कहें कि हम ज्यों-ज्यों सिखाए गए ज्ञान से मुक्त होते जाएंगे त्यों-त्यों प्राकृतिक होते जाएंगे। कृत्रिमता का लोप ही प्राकृतिक हो जाना है।
प्रकृति की योजना हमारी योजनाओं से अधिक सुचारू तथा दोषरहित है। प्रकृति की योजना और हमारी योजना में ठीक वही अन्तर है जो अन्तर वन तथा उद्यान में होता है। उद्यान एकाएक सुव्यवस्थित लगते हैं, किन्तु वे स्वावलंबी नहीं होते। उन्हें अनवरत संवारना पड़ता है। जबकि जंगल की कोई देखरेख नहीं करनी पड़ती, वह अपने वृक्ष स्वयं लगा लेता है। उद्यान स्वावलंबी हो जाए तो वह जंगल बन जाएगा और जंगल पराश्रित जो जाए तो वह उद्यान जैसा लगने लगेगा।
प्रकृति स्वावलंबन की पक्षधर है, इसलिए प्रकृति की ऊर्जा स्वावलंबी प्राणियों के साथ एकाकार हो जाती है और पराश्रित के भीतर जो आलस्य है, वह प्रकृति द्वारा उत्पन्न विरोध है।

✍️ चिराग़ जैन 

Saturday, February 22, 2025

स्वयंभू सेलिब्रिटी

मेरे एक परिचित हैं, जो पिछले कुछ महीनों से ख़ुद को सेलिब्रिटी मान बैठे हैं। अब वे दिन भर भीतर ही भीतर सेलिब्रिटी होने के भाव से भरकर अपने आसपास के सभी मनुष्यों को तुच्छ समझते हुए विचरते हैं और रात होने पर शेष विश्व को टुच्चा समझते हुए व्यंग्यात्मक मुस्कान के साथ सो जाते हैं।
उनकी सबसे बड़ी चुनौती यह है उनके परिवेश को इस बात की भनक तक नहीं है कि वे सेलिब्रिटी बन चुके हैं। उनके घरवाले, उनके दोस्त, उनके रिश्तेदार तथा उनके पड़ोसी अभी भी उन्हें मनुष्य समझकर उनसे सामान्य व्यवहार करते हैं।
स्वयं को सामान्य समझा जाना उन्हें बिल्कुल अच्छा नहीं लगता। वे इस बदतमीज़ी का बदला लेने के लिए वे तुरंत अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर एक शायराना स्टेटस पोस्ट करते हैं, जिसका भावार्थ लगभग यह होता है कि, ‘ज़ालिम ज़मानेवालो, आज तुम मेरी कद्र मत करो लेकिन एक दिन तुम मुझसे मिलने को तरस जाओगे।’
चूँकि शेष विश्व को वे ख़ुद से बात करने लायक नहीं समझते इसलिए समय बिताने के लिए वे सोशल मीडिया पर सेलिब्रिटी लोगों की प्रोफाइल, रील तथा स्टेटस देखते रहते हैं। उनका दृढ़ विश्वास है कि सचमुच का सेलिब्रिटी बनने के लिए ऐसे स्टेटस डालना ज़रूरी होता है। वे यह बात मानने को तैयार नहीं हैं कि ऐसे स्टेटस डालने से पहले सचमुच का सेलिब्रिटी बनना आवश्यक होता है।
सेलिब्रिटीपना सीखने के चक्कर में वे टीपने में पारंगत हो गए हैं। पिछले दिनों उन्होंने देखा कि एक फिल्मस्टार ने अपनी किचन में मटर छीली। मटर छीलने की उसकी रील पर मिलियन व्यू देखकर हमारे स्वयंभू सेलिब्रिटी ने नहा-धोकर चकाचक पैंट-शर्ट पहनी, बालों को सूतकर बहाया, चेहरे पर थोड़ी लीपा-पोती की और रील बनाने निकल पड़े। शूटिंग की लोकेशन भी सेम थी, बस ज़रा-सा अन्तर ये था कि फिल्मस्टार की रसोई थोड़ी आलीशान किस्म की थी, और हमारे लोकल सेलिब्रिटी की रसोई की दीवार पर चिकनाई के स्वाभाविक निशान थे। फिल्मस्टार की रील किसी ने चुपके से बनाई थी और हमारे सेलिब्रिटी ने बाकायदा कॉलर माईक लगाकर शूटिंग करवाई थी। हमारे सेलिब्रिटी इतने स्वार्थी नहीं हैं कि मटर छीलने की गोपनीय रेसिपी से अपने विराट फैन क्लब को वंचित रखें इसलिए उन्होंने मटर छीलने जैसे वीरोचित कर्म की पूरी रेसिपी भी अपने फैन्स को बताई।
सेलिब्रिटी को अपने फैंस का ध्यान रखना पड़ता है, इसलिए हमारे लोकल ब्रांड सेलिब्रिटी हर राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय विषय पर किसी विद्वान की वीडियो सुनते हैं और फिर उसे अपने मुखारविंद से दोबारा रिकार्ड करके अपने फैंस क्लब के सामने विद्वान बनने का अभिनय करते हैं।
जब कोई उनके स्टेटस पर आकर समर्थन या विरोध नहीं करता, तो वे विनम्रतापूर्वक स्वयं दूसरों के स्टेटस पर अबूझ टाइप के कमेंट्स करके ध्यानाकर्षण का प्रयास करते फिरते हैं।
कई महीनों के अथक प्रयासों के बाबजूद जब उनके फैंस क्लब की संख्या में वृद्धि नहीं हो पाई तो वे सपत्नीक सेलिब्रिटी बनने निकल पड़े। खाना खाने से लेकर आने-जाने तक वे अपनी हर गतिविधि की रील बनाते हैं और हर रील में अपनी पत्नी को गले लगाकर अपने फैंस को अपने खुशनुमा दाम्पत्य की झलक दिखाते रहते हैं।
पिछले दिनों उनके कुनबे में कोई बुजुर्ग दिवंगत हो गए। हमारे सेलिब्रिटी ने इस दुःख की घड़ी में भी अपने फैंस को नहीं भुलाया। अपने बाबाजी की मृत्यु का दुःख मनाने से पहले उन्होंने लाश का चेहरा खोलकर उसकी फोटो खिंची। फिर उसे तुरंत सोशल मीडिया पर पोस्ट किया। ताकि उनका कोई भी फैन अंतिम दर्शन से वंचित न रह जाए। इस पोस्ट के बाद वे दिन भर रील डालकर अपने विराट फैन क्लब को यह बताते रहे कि सेलिब्रिटी रो रहा है।
सबको गाइज, दोस्तों और भाइयों कहकर संबोधित करते हुए वे अथक साधना कर रहे हैं। इतने महीनों में वे अपने परिवार को यह समझाने में सफल हो गए हैं कि एक दिन वे सोशल मीडिया के ज़रिये पूरे संसार में फेमस हो जाएंगे। शायद इसी कारण कल जब वे टूथपेस्ट करते हुए रील बना रहे थे तब उनकी पत्नी कैमरा लेकर वॉशबेसिन के सामने दम साधे खड़ी थी, और बाकी पूरा परिवार मुँह पर टेप लगाए चुपचाप बैठा था, कि कहीं कोई शोर हुआ तो इतनी महत्वपूर्ण रील की ऑडियो क्वालिटी ख़राब न हो जाए।

✍️ चिराग़ जैन

Friday, February 21, 2025

अतीत से सामना

सामने आ गए आज फिर हम
आज फिर से संभलना पड़ेगा 
एक-दूजे से ख़तरा नहीं है 
ख़ुद से बच के निकलना पड़ेगा 

आँख से तुम बरसने न दो बदलियाँ
काँपकर सब बयां कर न दें उंगलियाँ 
चल न आना मेरी ओर सब भूलकर 
बोलने लग न जाएँ कहीं पुतलियाँ 
नेह को कब दिखी कोई सीमा 
देह को ही समझना पड़ेगा 
एक-दूजे से ख़तरा नहीं है 
ख़ुद से बच के निकलना पड़ेगा 

उस घड़ी किस तरह से जिया जाएगा 
तुमको परिचय हमारा दिया जाएगा 
साँस की चाल कैसे रहेगी सहज 
होंठ को किस तरह से सिया जाएगा 
जब संभाले न संभलेंगे आँसू 
उस घड़ी खूब हँसना पड़ेगा 
एक-दूजे से ख़तरा नहीं है 
ख़ुद से बच के निकलना पड़ेगा 

अपनी चाहत से नज़रें चुराते हुए 
जी रहे थे स्वयं को भुलाते हुए 
भाग्य, जिसने हमें तब अलग कर दिया 
आज हिचका न हमको मिलाते हुए
तब बिछड़कर सिसकते थे हम-तुम 
आज मिलकर सिहरना पड़ेगा 

✍️ चिराग़ जैन 

Thursday, February 20, 2025

उर्दू और भारत

अगर भाषाओं से धर्म की पहचान होती तो हिन्दी के पास रसखान और रहीम नहीं होते तथा उर्दू के पास फ़िराक़ और गुलज़ार नहीं होते।
राजनीति को मुर्गे लड़ाने का चस्का हो, तो वह कहीं और जाए, भाषाएँ तो आश्रमों की संतति होती हैं।
रामप्रसाद बिस्मिल और भगतसिंह की भाषा को पराया मानने की प्रवृत्ति हमें संस्कृति ही नहीं, अपितु शहीदों के अपमान की भी आदत डाल देगी।
जिनकी लेखनी पर हिन्दी का साहित्य अभिमान कर सकता है उन मुंशी प्रेमचंद की रचनाओं के 'गबन', 'क़फ़न' तथा 'ईदगाह' जैसे शीर्षक आपकी घृणा से मिटाए नहीं जा सकेंगे।
संस्कृति और लोगों के दिलों से उर्दू को ग़ायब करने का सपना देखने वालों को पहले न्यायपालिका से उर्दू की शब्दावली हटाने का प्रयास करना होगा। और न्यायपालिका भी छोड़िए साहिब, अपनी ख़ुद की बोलचाल से जिस दिन उर्दू को ग़ायब कर दो, उस दिन उर्दू के मुँह पर कालिख पोतने का दुस्साहस करना।
आप घृणा उलीचकर एकाध क्यारी ध्वस्त कर सकते हो लेकिन भाषाई सौहार्द के बगीचे को ध्वंस नहीं कर सकते। क्योंकि उर्दू 'हिन्दी' के नाम में सुरक्षित है। आपकी कड़वाहट उर्दू की मिठास पर कभी हावी नहीं हो सकेगी, क्योंकि उर्दू हमारे थानों में संरक्षित है, उर्दू हमारी अदालतों में सुरक्षित है। आप उर्दू का नाम नहीं मिटा पाएंगे, क्योंकि उर्दू वीर शिरोमणि सिख गुरुओं के नाम में है। आप कभी भी उर्दू को हमारे देश से दूर नहीं कर पाएंगे, क्योंकि उर्दू के बाबा 'शेख फ़रीद' की कविताओं को हमने 'सबद' कहकर गाया है।
उर्दू को पराया कहना ठीक ऐसा ही है ज्यों कोई अपने घर में जन्मी बिटिया को 'पराया' कहकर तिरस्कृत करे। उर्दू को मिटाना है तो नेताजी सुभाषचंद्र बोस से 'जय हिंद' का उद्घोष छीनकर दिखाओ। उर्दू से घृणा करनी है तो 'सरफ़रोशी की तमन्ना' जैसे तरानों से घृणा करो। उर्दू को उखाड़ना है तो क्रांतिकारियों के दिलों में बसे 'इंक़लाब ज़िन्दाबाद' के नारे को उखाड़ने की कोशिश करो। उर्दू को मिटाना है तो चन्द्रशेखर आज़ाद के नाम से 'आज़ाद' उपनाम को मिटाने का जतन करो।
छोड़िए साहिब, राजनीति चंद वोटों के लिए घृणा का तेज़ाब छिड़कने से नहीं रुकेगी और ये देश हमें सिखाता रहेगा कि राम ने रावण की लंका में रहनेवाले विभीषण से भी परहेज नहीं किया। लंका के वैद्य से अपने भाई का इलाज करवाने में भी संदेह नहीं किया। लंका की ओर से लड़नेवाले इन्द्रजीत तक के शव का अपमान नहीं होने दिया। यह राम का देश है साहिब, यहाँ जूठे बेर भी सानन्द ग्रहण किये जाते हैं, यहाँ घृणा का कारवां बहुत दूर तक नहीं चल सकता।
✍️ चिराग़ जैन 

Tuesday, February 18, 2025

भीड़ हैं हम

हमने ऐसी हर कोशिश को नाकाम कर दिया, जिसने हमें ‘भीड़’ से ‘जनता’ बनाना चाहा। हमें भीड़ बने रहना पसंद है। हम भीड़ बनकर जीते हैं और भीड़ बनकर मर भी जाते हैं। इसीलिए हमारे अख़बारों की सुखिऱ्याँ हमारा नाम नहीं जानतीं। कभी यात्री, कभी श्रद्धालु, कभी किसान, कभी तीर्थयात्री, कभी विद्यार्थी, कभी मज़दूर, कभी आदिवासी और कभी पुलिसवाले बनकर हम मर जाते हैं; हमारा कोई नाम नहीं होता। हमें एक ‘भीड़’ के नाम से जाना जाता है। 
अपराधियों के नाम होते हैं, लेकिन निरपराध का कोई नाम नहीं होता। अपराध तो छोड़िए साहब, हम शहर में गाड़ी लेकर निकलते हैं, कहीं किसी कारणवश गाड़ी सड़क के किनारे रोकते हैं तो पुलिसवाला हमें भीड़ की तरह यह कहकर खदेड़ देता है, ‘यहाँ गाड़ी खड़ी करना मना है’। हम पूछते हैं, ‘तो फिर कहाँ खड़ी करें?’ 
इस प्रश्न का उत्तर उसके पास नहीं होता। वह डाँट देता है, ‘यहाँ से आगे ले बे!’ हम आगे ले लेते हैं।
हमारे तंत्र ने जिन देशों की सड़कों के किनारे से ‘नो पार्किंग’ का डिज़ाइन टीपा है, उन देशों से हम व्यवस्थित पार्किंग सिस्टम की कॉपी करना भूल गए।
विश्व समुदाय भी हमें कोई विश्वगुरु नहीं मानता, उनके लिए भी हम केवल एक भीड़ हैं। एक भीड़, जिसे अपना माल बेचा जा सकता है। एक भीड़ जिसे सपने बेचे जा सकते हैं।
शुरुआत में राजनीति भी हमें ‘जनता’ कहकर ही संबोधित करती है लेकिन अंततः वह हमें ‘भीड़’ की तरह इस्तेमाल करती है। जिस मंच से वह हमें जनता कहकर हमसे वोट मांग रहे होते हैं, उसी मंच की रिपोर्टिंग में हमें भीड़ कहा जा रहा होता है और हम तालियाँ पीट रहे होते हैं।
अगर कहीं जनता के लिए राजनीति के हाथों कुछ हितकर्म हो भी जाए, तो हम भीड़ बनकर उस विकास की ऐसी धज्जियाँ उड़ाते हैं कि राजनीति को अपने किए पर क्रोध आने लगता है। फिर वह हमें साम्प्रदायिक भीड़ में बदल देती है, फिर वह हमें जातियों की भीड़ में बदल देती है। हम ख़ुशी-खुशी भीड़ बन जाते हैं और दूसरी भीड़ के विरुद्ध गालियाँ तलाशने लगते हैं। 
हमें भीड़ बनकर लड़ने की आदत हो गई है। हमें जैसे ही कोई साइनबोर्ड मिलता है, हम तुरंत उसके नीचे भीड़ बनकर जुटने लगते हैं। ‘गांधी’; ‘लोहिया’; ‘अम्बेडकर’; ‘हेडगेवार’; ‘कांशीराम’; ‘जयप्रकाश’; ‘मोरारजी’; ‘वीपी सिंह’; ‘मुलायम’; ‘माया’; ‘जयललिता’; ‘करुणानिधि’; ‘ठाकरे’; ‘अन्ना’; ‘केजरीवाल’; ‘मोदी’; ‘राहुल’; ‘ओवैसी’... ये सब हमारे लिए साइनबोर्ड बन गए और हम इनके नीचे भीड़ बनकर जुटते रहे। 
इन सबने हमें मनुष्य बनाना चाहा तो हमने इनको पूरी ताकत से यह एहसास कराया कि हमें इंसान समझने की ग़लती मत करना। हमें भीड़ समझो, वर्ना हम तुम्हारे खिलाफ़ खड़े होकर तुम्हें औंधे मुँह गिरा देंगे।

✍️ चिराग़ जैन

Sunday, February 16, 2025

अपराधी कौन

महाभारत के महाविनाश की दोषी न तो दुर्योधन की हठधर्मिता है, और न ही धृतराष्ट्र की नेत्रहीन महत्वाकांक्षा! महाभारत के युद्ध में जो रक्तपात हुआ उसका गोमुख उस पट्टी से निसृत है जो सनेत्रा गांधारी ने अपने विवेक की आँखों पर बांध ली थी। 
ठीक इसी तरह वर्तमान दुर्घटनाओं के लिए न कुम्भ दोषी है, न धर्म और न ही सरकार। इन सब हादसों की अपराधी है अपना विवेक गंवा चुकी जनता। 
राजनीति तो हमेशा ही विवेक की आंखें फोड़कर सत्ता पर अधिकार करती रही है। राजनीति की तो यह प्रवृत्ति ही है। किन्तु राजनीति के गलियारों से चलनेवाली उन्माद की आँधी में अपनी व्यवस्था की धज्जियाँ देखकर ताली पीटना आश्चर्यजनक है। 
महाभारत इसलिए वीभत्स नहीं था कि उसमें शव गिरे थे, महाभारत इसलिए भयानक था कि उस युद्ध में मृतक के संबंधी शोकाकुल कम और उन्मादी अधिक हो रहे थे।
उन्माद किसी का हित नहीं कर सकता। उन्माद किसी की रक्षा नहीं कर सकता। श्रद्धा की भी एक मर्यादा होती है। नदी में बहता नीर अमृत कहलाता है, किन्तु यही अमृत जब तटबंध तोड़कर जीवन को लीलने लगता है तो इसे माथे नहीं चढ़ाया जाता। मर्यादाहीन नदी भी निंद्य हो जाती है। ऐसे में मर्यादाहीन आस्था कैसे हितकर हो सकती है। 
जो लोग परस्पर कुम्भस्नान की याद दिला रहे हैं, वे ही शासन को व्यवस्थित संसाधनों की याद दिलाते रहेंगे तो कुंभकर्ण की नींद सोने वाले जाग सकते हैं। नई दिल्ली स्टेशन पर मरनेवालों के मन में अंतिम समय कुम्भ के प्रति आस्था अधिक रही होगी या व्यवस्था के प्रति क्रोध अधिक रहा होगा या फिर असभ्य नागरिकता के प्रति निराशा... यह तो कोई नहीं जानता, लेकिन यह सत्य है कि धर्म की ओट में खड़ी नाकारा व्यवस्था ने जिस कपड़े में अपना मुँह चुराया है, उसका रेशा-रेशा जनता के अविवेक से बना है। 
.किसी का कद नहीं ऊँचा हुआ है 
मेरी आवाज़ छोटी हो गई है 

✍️ चिराग़ जैन 

Thursday, February 6, 2025

सरकार क्या-क्या करे?

एक समय वह था, जब भारतीय राजनीति, ट्रेन की जनरल बोगी को कैटल क्लास कहती थी। राजनीति के इस स्टेटमेंट से हम आम भारतीयों को बहुत दुःख हुआ। हमने राजनीति को भरपूर गालियाँ दीं। हमने उन गंदे ट्रेन कोच को और सड़ांध मारते सिस्टम को सुधारने की जगह, उनमें यात्रा करनेवालों को बताया कि देखो तुम्हें मवेशी समझा जा रहा है।
यह जानकर तथाकथित मवेशी बहुत क्रुद्ध हुए। उन्होंने सींग मार-मारकर राजनीति का सिंहासन तोड़ दिया। सत्ता बदल गई। अब आरक्षित बोगी तक ‘ठुँसने’ की सुविधा मिल गई। नई राजनीति ने मवेशियों का धन्यवाद करते हुए उन्हें थ्री टियर एसी तक घुसने की सुविधा दे दी। आरक्षण करवानेवालों के अत्याचारों का बदला लेने के लिए आरक्षण करवाने पर तरह-तरह के कर लगा दिए गए। आरक्षित वरिष्ठ नागरिकों के लिए दी जानेवाली छूट समाप्त कर दी। वेटिंग की टिकट रद्द करवाने पर भी जुर्माना लगा दिया।
आरक्षण करवानेवालों से बदला लेने के लिए उनकी बोगी में नियुक्त अटेंडेंट की भर्ती को निजी कंपनियों को सौंप दिया। अब ये आरक्षित लोग फर्स्ट एसी में सारी रात अलार्म बजाये जाते हैं और ‘नौकरी जाने के भय से मुक्त’ अटेंडेंट कोच की कूलिंग बढ़ाकर सोता रहता है।
अब धीरे-धीरे स्थिति सुधर रही है। अमीर-ग़रीब के बीच की खाई पटने लगी है। व्यवस्था जानती है कि स्लीपर क्लास के शौचालयों को वातानुकूलित जैसा नहीं रखा जा सकता, इसलिए उन्होंने वातानुकूलित कम्पार्टमेंट के शौचालयों को जनरल क्लास जैसा रखना शुरू कर दिया। इसे कहते हैं, ‘समानता का अधिकार’।
निजी ट्रैवल पोर्टल पर रेल की टिकट कन्फर्म न होने पर दोगुने पैसे देने का दावा किया जा रहा है। मैंने एक सरकारी अधिकारी से पूछा, रेल्वे में सेटिंग किए बिना ऐसा दावा कैसे किया जा सकता है। अधिकारी बोले, ‘ऊपरवाला जाने’!
मैं ठहरा मूढ़बुद्धि, ईश्वर को ही ऊपरवाला समझता था, इसलिए सोचा कि उस कोर्पाेरेट कम्पनी के अधिकारी वेटिंग की टिकट को सामने रखकर ईश्वर से प्रार्थना करते होंगे, पाँच वक़्त दुआ मांगते होंगे, मोमबत्ती वगैरा जलाकर प्रेयर करते होंगे और टिकट कन्फर्म हो जाती होगी।
लोग हर समस्या को लेकर सरकार के पास पहुँच जाते हैं। अरे भई, सरकार देश चलाएगी या रेल की टिकटें बेचेगी? सरकार का काम व्यापार करना नहीं है। सरकार तो झंडी दिखाकर ट्रेनें चलाती है, व्यापार तो यार लोग करते हैं। सरकार जिन्हें स्टेशन बेचती है, वे भी कृतघ्न नहीं हैं। वे सरकार से ख़रीदे हुए प्लेटफॉर्म पर विज्ञापन, उद्घोषणा और अन्य तमाम माध्यमों से सत्ताधारी पार्टी के प्रचार करती है। प्लेटफ़ॉर्म पर वेटिंग रूम बंद होने लगे हैं। लेकिन इसमें सरकार क्या करे, सरकार व्यापार नहीं करती, सरकार तो प्रचार करती है। शिकायतों का पूरा तंत्र है, जिसमें शिकायतकर्ता बुरी तरह उलझकर अपना माथा पीटता है, लेकिन सरकार क्या करे, सरकार चुनाव लड़ेगी या गंदे बेडरोल्स और ख़राब खाने की शिकायतें सुनते रहेगी।
कुछ तो शर्म करो, जो अच्छा हुआ है वो नहीं दिखता। रेल्वे स्टेशनों के नाम बदल दिए गए हैं। इसकी तारीफ़ नहीं होती तुमसे! एक आदमी क्या-क्या करे।
जब देखो सरकार पर कीचड़ उछालते रहते हो, जानवर कहीं के! साइड हटो, सरकार को नहाने जाना है!


✍️ चिराग़ जैन

Saturday, January 4, 2025

सौ साल नीरज के

हिंदी की कविता, जहाँ अपने सबसे सहज रूप में शास्त्रीय मर्यादा की लक्ष्मण रेखा के भीतर खड़ी दिखाई देती है, उस पंचवटी का नाम है, 'गोपालदास नीरज'।

कवि-सम्मेलन की लोकप्रियता का कीर्ति स्तम्भ जहाँ तक पाखण्ड के मुलम्मे से अछूता दिखाई देता है, वहाँ तक नीरज की दमक साफ़ दिखाई देती है।
लौकिक लोभ और पारलौकिक कविताई के मध्य हर बार कविताई को वरीयता देने का स्वभाव जहाँ तक बचा रह गया, वहाँ तक नीरज का पता मिलता है।
जनता की रुचि के अनुरूप कविता 'बनाने' की बजाय, अपनी कविता के अनुरूप जनमानस को ढाल लेने का जादू जहाँ आकर ग़ायब होने लगता है, वह नीरज के कारवां का आख़िरी छोर है।
इन्टरनेट और सोशल मीडिया जनित, वैतण्डी स्टारडम के पीछे भागते हुए, कबीराई बेपरवाही की खुशबू से बहुत दूर निकल आई पीढ़ी, जब कभी उस कस्तूरी की तलाश में आत्ममग्न होगी, तब उसे नीरज की देहरी तक लौटना ही होगा।
चित्र से चरित्र तक आमूलचूल कवि होने का एहसास है नीरज। हिंदी कविता के इस सबसे लाडले बेटे का आज सौवां जन्मदिन है। 2018 में उनकी दैहिक रुख़सती के साढ़े पाँच साल बाद, आज एक बार फिर, उनके साथ बीते क़ीमती पल स्मृति पटल पर चलचित्र की भाँति तैर रहे हैं।
मैंने उनकी स्मृति, उनके अध्ययन, उनकी सादगी और उनकी लोकप्रियता का वैराट्य कई बार अपनी आँखों से निहारा है। मैंने उनके युग में साँस ली है। मैंने एकलव्य की भाँति उनके द्रोणाश्रम से 'कवि होने का लुत्फ़' लेना सीखा है। पहली बार बैरागी जी के संचालन में लालकिला कवि सम्मेलन के मंच पर नीरज जी को देखा था। वाइन कलर का, लगभग पठानी कुर्ता-पायजामा पहने, सिर पर टोपी लगाए एक वृद्ध काया जब मंच पर उपस्थित हुई तो हज़ारों लोगों से भरा तालकटोरा स्टेडियम खड़े होकर तालियाँ बजाने लगा। स्वास्थ्य कारणों से अध्यक्ष होने के बावजूद वे अंत तक नहीं बैठ पा रहे थे, सो संचालक महोदय ने बीच में ही नीरज जी को काव्यपाठ के लिए आवाज़ दी।
मसनद पर बैठकर छोटे माइक से जब नीरज जी की आवाज़ गुंजित हुई तो ऐसा लगा जैसे शरारत ने बहुत गंभीर होने का फ़ैसला कर लिया हो।
"इतने बदनाम हुए...." यही तीन शब्द गूंजे थे और श्रोताओं की तालियों से पूरा स्टेडियम उत्सवित हो उठा। शरारती मुस्कराहट के साथ उन्होंने कोई बीस-पच्चीस मिनिट काव्यपाठ किया और फिर जब उठकर चले तो एक बार फिर श्रोताओं ने खड़े होकर उनका अभिवादन किया।
उस दिन नीरज सचमुच किसी देवदूत जैसे लगे। गीत का जीता-जागता कोई गंधर्व जिसके आगमन और प्रस्थान पर देवता पुष्प वृष्टि करते हों।
इसके बाद मैं सैंकड़ों बार उनसे मिला और हर बार उनके सान्निध्य को सौभाग्य मानकर उन पलों को भरपूर जिया। एक बार नैनीताल में उनके आभामंडल से मैं ऐसा सम्मोहित हुआ, कि उनके चरण स्पर्श करते हुए मैं बाकायदा उन्हें छूकर उनके पुद्गल परमाणुओं का वैभिन्नय महसूस कर रहा था।
'नीरज जी मुझे जानते हैं' -यह एहसास मेरे लिए कवि सम्मेलनीय जीवन का पहला सम्मान-पत्र था। अलीगढ़ नुमाइश का कार्यक्रम था। नीरज जी की अध्यक्षता थी। उससे पहले दो बार नीरज जी मेरे संचालन में काव्यपाठ कर चुके थे। अलीगढ़ में शशांक प्रभाकर ने मुझे कहा, "नीरज जी कह रहे हैं चिराग़ से संचालन करवाओ।" उस दिन यह वाक्य मेरे लिए किसी वरदान मिलने जैसी प्रसन्नता का कारण बना।
उसके बाद के अनेक संस्मरण हैं, उस गीतपुरुष के साथ। उन आँखों की जीवन्तता, रह-रहकर याद आती है। सफदरजंग अस्पताल में आख़िरी बार उनकी जिवित काया के चरण छुए थे। उस समय वे बेहोश थे। मैं उनसे मिलकर घर तक पहुँचा भी नहीं था, कि शशांक भाई ने उनके महाप्रयाण की सूचना दी। मैं उल्टे पाँव सफदरजंग अस्पताल पहुँचा। सम्भवतः मैं उनके चरण स्पर्श करने वाला आख़िरी मनुष्य रहा। मुझे आशीर्वाद भी मिला... मैंने अपने लेखन में नीरज जी की खनक सुनी है। मुझे आज भी महसूस होता है कि वह गीत गंधर्व मेरे लेखन का मापदण्ड बनता जा रहा है। मैं कह सकता हूँ कि नीरज का कारवां कभी नहीं गुज़रेगा। उसके गुबार में भी गीत उभर-उभर आएंगे।