Monday, June 23, 2025

न्यूज़ीलैंड यात्रा : गंगाधर ही शक्तिमान था

प्रशांत महासागर के पश्चिमी छोर पर बसा ख़ूबसूरत देश है न्यूज़ीलैंड। मुस्कराते हुए लोगों का देश। चेहरे पर ज़िन्दगी जैसी ख़ूबसूरत ताज़गी लिए यहाँ के लोग तनाव और उन्माद से अछूते दिखाई देते हैं।
इन दिनों यहाँ पतझड़ का मौसम है। 'मुहब्बतें' फिल्म वाले मेपल के पत्ते सड़कों का शृंगार करने में व्यस्त हैं। पेड़ों से पत्ते झड़ चुके हैं, लेकिन पेड़ों के अस्तित्व में कहीं कोई शिकायत महसूस नहीं होती, उल्टे वे मौसम की इस छटा को संवारते ही दिखाई देते हैं।
आसमान के खुले मैदान में सूरज और बादलों की आँख-मिचौनी लगातार चलती रहती है। सूर्यदेव बहुत सवेरे ड्यूटी पर आ जाते हैं और उतनी ही जल्दी घर भाग जाते हैं। रात में शहर का तापमान 3° सेल्सियस तक गोता लगा लेता है और दिन में कभी 17°-18° से आगे पांव नहीं बढ़ाता। हवाएं मौसम की ठंडक को बढ़ाते हुए इतराती फिरती हैं। ऐसे में धूप की गुनगुनी छुअन देह के रोम-रोम को दुलारती है, तो मन भी खिल उठता है।
ऑकलैंड शहर के बीचोंबीच सुदीमा होटल में हमारा प्रवास है। छठे माले के टू साइड ओपन फॅमिली स्वीट के दोनों ओर बड़ी-बड़ी खिड़कियों से शहर दिखाई देता है। ठीक सामने स्काई टावर है। 328 मीटर ऊँची यह शानदार इमारत ऑकलैंड की पहचान है।
स्थानीय समयानुसार 18 जून की शुरुआत होते-होते हम लोग इमिग्रेशन की औपचारिकता संपन्न करके, लगेज बेल्ट से अपना सामान बरामद करते हुए हवाई अड्डे से बाहर निकल आए थे।
बाहर दस-बारह लोग हमारी प्रतीक्षा में खड़े थे। स्वागत-सत्कार के दौरान मैंने सभी की आँखों में अपने देश से आए अतिथियों के प्रति वही अपनत्व देखा, जो मायके के गांव से आए किसी व्यक्ति के प्रति सासरे में बसी बिटिया की आँखों में होता है।
प्रेम उपाध्याय, जो हमारे मुख्य आयोजक हैं, उनके कंधे पर आयोजन का लगभग सारा ही दायित्व था। हमें लाने-लिवाने से लेकर कार्यक्रम की टिकटें बुक करने तक का 'संपूर्ण दायित्व' प्रेम ने खुद के हाथों में सीमित रखा। उनका वश चलता तो वे शायद हम तीनों कवियों को किसी डब्बे में पैक करके कहीं छुपा देते ताकि कोई हमें देख भी न सके।
प्रेम उपाध्याय काफी मददगार स्वभाव के व्यक्ति हैं। उन्होंने मुझे बताया कि जिन खुशबू जी को उन्होंने वीजा की प्रक्रिया के लिए नियुक्त किया था, वे उनके मित्र की पत्नी हैं और उन्होंने वीज़ा लगवाने का नया काम शुरू किया है, इसलिए केवल उनको प्रोत्साहित करने के लिए प्रेम ने उन्हें यह काम सौंपा। ऐसे बेहतर मनुष्य मुश्किल से मिलते हैं, जो स्वयं किसी काम में पारंगत होते हुए भी अपने दोस्त की पत्नी को मोटिवेशन देने के लिए काम भी दे और फीस भी।
इनकी सहृदयता का एक उदाहरण यह भी था कि वीज़ा की प्रक्रिया के दौरान खुशबू जी ने हमसे कुछ दस्तावेज़ मांगे तो प्रेम ने मुझे भारी-भरकम अंग्रेजी का एक मेसेज लिखकर भेजा और मुझे कहा कि मैं यह खुशबू को इसलिए भेज दूँ ताकि उन्हें प्रोफेशनल व्यवहार सिखाया जा सके। प्रेम उपाध्याय के इस परोपकारी स्वभाव से मैं भावुक हो उठा।
न्यूज़ीलैंड में प्रेम ने दो शो बुक किए थे। एक ऑकलैंड में और दूसरा क्राइस्ट चर्च में। दुर्भाग्य यह रहा कि उन्हीं दिनों न्यूज़ीलैंड में कुछ और सेलिब्रिटी भी कार्यक्रम कर रहे थे। वहां रहनेवाले भारतीय सीमित थे और कार्यक्रम अधिक हो गए तो क्राइस्ट चर्च के आयोजक ने कार्यक्रम रद्द कर दिया। प्रेम ने हमें बताया कि उस कार्यक्रम के लिए लगभग साढ़े तीन हज़ार डॉलर की टिकटें प्रेम ने अपनी जेब से करायी और यह सारा नुकसान उन्होंने अपनी जेब से भुगता। उनकी इस विनम्रता के कारण कवियों ने भी उस रद्द हुए कार्यक्रम का कोई मानदेय प्रेम उपाध्याय से नहीं लिया।
चूँकि सुदीमा होटल एक भारतीय परिवार द्वारा संचालित था, इसलिए हमें आश्वस्ति थी कि इस होटल में हमें भारतीय भोजन आराम से मिल जाएगा। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। प्रेम उन दिनों व्यस्तता के चरम पर थे। वे स्वयं ही एक-एक व्यक्ति को फोन करके टिकट बेच रहे थे, स्वयं ही हमारे ड्राईवर बनकर हमें खाना खिलाने ले जा रहे थे, स्वयं ही कार्यक्रम की व्यवस्था में संलग्न थे और स्वयं ही अपने sponsor लोगों से संपर्क में थे।
एक दिन वे हमें हरपाल जी के घर भोजन पर ले गए। हरपाल जी एक पंजाबी व्यक्ति हैं और उनकी पत्नी किरण जी फीजी से हैं। किरण जी की कलात्मक अभिरुचि ने उनके घर को एक छोटा-मोटा संग्रहालय बना दिया है। रसोई से लेकर आँगन तक, सब कलापूर्ण। किरण जी त्वचा संबंधी समस्याओं का एक क्लिनिक चलाती हैं। उनके क्लिनिक का प्रत्येक कोना इतना कलात्मक है कि आदमी अपनी बीमारी भूल जाए।
किरण जी ने बहुत रुचि से हमें भोजन कराया। स्वाद के साथ अपनत्व भी तैर रहा था उनकी रोटियों पर। मैंने उनकी रसोई की खूब photography की। उनके पति भी सरस तथा मददगार वृत्ति के व्यक्ति हैं। कलाकारों के प्रति उनके व्यवहार में जो आदरभाव दिखा, वह मेरे लिए अविस्मरणीय था।
रात का भोजन हरपाल जी के सौजन्य से संपन्न हुआ और अगली सुबह के नाश्ते के लिए हम होटल के रेस्तरां में जूझते रहे। हम समझ चुके थे कि इस यात्रा में भोजन की चुनौती आनेवाली है, इसलिए सुरेन्द्र जी ने प्रेम उपाध्याय के सामने एक प्रस्ताव रखा कि हम प्रेम के घर से स्वयं भोजन बनाकर ले आया करें, लेकिन प्रेम जी तो स्वयं हमारे साथ होटल में पड़े थे। उन्होंने हमें बताया कि वे यहाँ अकेले रहते हैं और जिस कमरे में वे रहते हैं, उसमें और भी कुछ बैचलर लड़के रहते हैं। इसलिए उस स्थान पर कवियों को ले जाना उन्हें असहज कर देगा। हमने उनकी असमर्थता का सम्मान किया और विपरीत परिस्थितियों में इस यात्रा को आनंद सहित संपन्न करने के लिए कमर कस ली।
अगली दोपहर हमें 'शिवानी' नामक एक रेस्तरां में ले जाया गया। इसकी मालकिन शिवानी जी ने बड़े मन से हमें भोजन कराया। भोजन में भारतीय महक थी और यह स्थान हमारे होटल से अधिक दूर भी नहीं था इसलिए सुरेन्द्र जी ने चाहा कि इसी स्थान से हमारा भोजन का इंतजाम करा दिया जाए। लेकिन न जाने क्यों, प्रेम उपाध्याय ने इस प्रस्ताव को लगभग अनसुना कर दिया।
शिवानी जी के रेस्तरां से वापसी होटल आते समय हमें रास्ते में माउंट ईडन नामक एक स्थान पर छोड़कर हमारा आयोजक फोन पर टिकटें बेचने में जुट गया। सुरेन्द्र जी गाड़ी में बैठे रहे और मैं धीरे-धीरे चलकर पर्वत की चोटी तक पहुँचकर ऑकलैंड शहर का विहंगम दृश्य देखता रहा।
हम अनवरत यह सोचते रहे कि न्यूजीलैंड में रहनेवाले भारतीय काफी नीरस प्रवृत्ति के लोग हैं, इसीलिए इतने लंबे प्रवास में न तो कोई हमसे मिलने आया और न ही किसी ने हमें आमंत्रित करने की कोशिश की। प्रवासी भारतीयों के इस व्यवहार से प्रेम भी काफी खिन्न दिखे।
लेकिन 21 तारीख़ को जब कार्यक्रम आयोजित होना था तब सबका व्यवहार इतना मधुर था कि हमें पिछले 4 दिन की बोरियत और चुनौती का कारण समझना कठिन हो गया। खिलखिलाते हुए लोग, हमसे मिलने को आतुर लोग, हमारे साथ फोटो खिंचवाने की होड़, हमारा सान्निध्य पाने की ललक... यह सब देखकर हमें आश्चर्य भी हुआ, हर्ष भी और कष्ट भी।
ऑकलैंड के वातावरण में परागकण बहुतायत में हैं, जिन्हें पौलन कहा जाता है। इनके कारण साइनस, अस्थमा और एलर्जी के रोगियों को दिक्कत हो जाती है। कार्यक्रम के दिन मुझे इस समस्या ने घेर लिया था। साइनस चरम पर था। मैंने प्रेम से कहा कि कोई नेज़ल स्प्रे मंगवा दे ताकि शाम का कार्यक्रम ठीक हो जाए। प्रेम ने मुझे Peracitamol tablet मंगवा कर दी। शाम को कार्यक्रम से पहले सुमित नामक सज्जन हमें लेने होटल आए। उन्होंने मेरी तबीयत देखी तो उन्होंने ही वातावरण के इस 'हे-फीवर' के विषय में बताया। वे आश्चर्य कर रहे थे कि प्रेम ने उन्हें यह बता दिया होता तो इसका उचित उपचार (नेज़ल स्प्रे और आई drop) मैं ला देता।
सिरदर्द, जुकाम और बुखार से पीड़ित मैं आयोजन स्थल पर पहुँच गया। ग्रीन रूम में मालव जी ने मेरी स्थिति को देखकर मेरे लिए ortivin मंगवाई। उसकी बदौलत मैं कार्यक्रम ठीक से संपन्न कर सका।
उधर कार्यक्रम प्रारंभ होने से पूर्व ही प्रेम ने शो फ्लो क्लियर कर दिया था। हमारी प्रस्तुति 2 घंटे की थी, फिर एक मध्यांतर और उसके बाद बकौल प्रेम उपाध्याय, कुछ सरप्राइज था, जिसके विषय में शो की एंकर को भी नहीं पता था।
कार्यक्रम धमाल हुआ। ठहाकों की बरसात हुई। श्रोताओं ने हँसी का जी भरकर लुत्फ़ उठाया। भारत और भारतीयता से माहौल उत्साहित हो गया। स्टैंडिंग ओवेशन से लोगों ने कवियों को सैल्यूट किया। इसके बाद मध्यांतर की घोषणा हुई। हालाँकि शो जहाँ पहुंच चुका था, इसके बाद मध्यांतर का कोई औचित्य नहीं था। लेकिन आयोजक ने शायद मध्यांतर के लिए किसी रेस्तरां वाले से कुछ sponsorship ले रखी थी। इसलिए वह कार्यक्रम की सफलता की कीमत पर भी मध्यांतर जरूर करना चाहता था।
वही हुआ जिसका डर था। मध्यांतर के बाद हॉल में केवल 20 प्रतिशत लोग लौटे। इनमें से अधिकतर वे sponsor थे, जिनका सम्मान किया जाना था।
कला, जिस कार्यक्रम को चरम पर ले आई थी, बाजार ने उसे काफी नीचे लाकर समाप्त किया। यद्यपि जो लोग कविता और हास्य सुनने आए थे, वे संतुष्ट भी थे और प्रसन्न भी।
अगला पूरा दिन आयोजक के व्यवहार तथा कृतघ्नता के कारण बोरियत और खिन्नता से भरा रहा। रात का भोजन नमस्ते भारत के संचालक दंपति ने इतना स्वादिष्ट भेजा कि दिन भर का कष्ट बौना रह गया। अगली सुबह हमारा किसी के घर नाश्ते का कार्यक्रम था और फिर वहीं से हमें हवाई अड्डे चले जाना था। सुबह-सुबह ज्ञात हुआ कि नाश्ते का कार्यक्रम कैंसिल हो गया है। हमने रात के बचे हुए भोजन से काम चलाया और अंततः वीज़ा लगवाने वाली खुशबू जी के घर से रास्ते का भोजन लेकर हम रवाना हो गए। जिस देश में हमें रिसीव करने आधी रात को दर्जन भर लोग मौजूद थे, उस देश में भरी दोपहर में एक शानदार प्रस्तुति के बाद भी कोई हमें सी-ऑफ करने नहीं आया।
अंतिम दिन तक हम समझ चुके थे कि हमारे साथ पिछले 6 दिन से क्या हो रहा था। न्यूज़ीलैंड के लोगों में 'नेहा कक्कड़' नामक एक कलाकार के प्रति काफ़ी रोष था। हमें बताया गया कि 3 वर्ष पूर्व इसी आयोजक ने नेहा कक्कड़ को किसी शो के लिए बुलाया था और नेहा ने इस आयोजक को काफी परेशान किया था।
हवाई जहाज की खिड़की से न्यूज़ीलैंड की धरती पीछे छूटती दिख रही है। बादलों में नेहा कक्कड़ के प्रति करुणा और इस आयोजक के मददगारों के प्रति दया की तस्वीर उभर रही है।
हँसते और चहचहाते हुए देश में एक मुखौटे की उपस्थिति कैसे पंचवटी के रमणीक माहौल को शोक और निराशा के अंधकूप में धकेल सकती है, इसका अनुभव लेकर भारत की दिशा में उड़ चला हूँ।
✍️ चिराग़ जैन

Sunday, June 15, 2025

योजना

लोग अड़ी-भिड़ी के चक्कर में इतना समान भर लेते हैं कि भिड़े भिड़े रहते हैं।
✍️ चिराग़ जैन 

Tuesday, June 10, 2025

सामान्य दृष्टि

सामान्य दृष्टि से देखने पर 'धैर्य' भी 'कायरता' जैसा दिखता है। 

✍️ चिराग़ जैन 

Monday, June 9, 2025

सामान्यीकरण

एक दवाई अलग-अलग शरीर पर अलग-अलग प्रभाव डालती है। एक ही परिस्थिति में दो अलग-अलग मनुष्य अलग-अलग व्यवहार कर सकते हैं। एक ही मनुष्य किसी एक बिन्दु पर नैतिक और दूसरे बिंदु पर अनैतिक हो सकता है।
इतनी सामान्य सी बात हम समझना क्यों नहीं चाहते? इतनी साधारण सी बात को समझने में हमें कठिनाई क्यों होती है?
एक लड़की ने हनीमून पर अपने पति की हत्या कर दी। यह एक घटना है। इसके झरोखे से प्रत्येक नवविवाहिता का आकलन करना उचित नहीं है। ठीक इसी प्रकार एक परिवार ने दहेज के लोभ में अपनी वधू की हत्या कर दी; इस घटना को साक्ष्य मानकर सभी ससुरालवालों को खलनायक मान लेने का अपराध हम कर चुके हैं।
दहेज हत्या सामाजिक बुराई अवश्य थी, किंतु यह समाज की प्रवृत्ति नहीं थी। ऐसी दुर्घटनाओं की बेतहाशा चर्चा और इन चर्चाओं से समाज में उत्पन्न घृणा ने संबंधों की चूल हिला डाली। सिनेमा ने लगातार 'बेचारी बहुओं' का ऐसा चित्रण किया कि सास, ननद और जेठानी जैसे रिश्ते अपमानित होकर रह गए।
जिस वधू को विश्वास और आश्वस्ति के साथ ससुराल आना था, वह संशय और भय के साथ बाबुल का घर छोड़ने की अभ्यस्त हो गई। इस संशय का परिणाम यह हुआ कि ससुराल की राई जैसी खटपट को भी बहू ने पर्वत जैसा संकट समझ लिया। नकारात्मकता की छोटी सी चिंगारी भी ज्वालामुखी दिखने लगी।
इस स्थिति में जो कलह घटित हुईं, उनके परिणामस्वरूप दहेज विरोधी कानून बना दिए गए। घरेलू हिंसा अधिनियम बन गया। अब बहू के हाथ मजबूत हो गए और ससुरालवालों के मन में संशय बैठ गया। इन कानूनों ने बीमारी का इलाज नहीं किया, बल्कि संशय को स्थानांतरित कर दिया।
तब हमने सभी बहुओं को 'बेचारी' मानकर वैवाहिक संस्था को ध्वस्त किया था और अब हम मेरठ से मेघालय तक कि घटनाओं का हवाला देकर सभी बहुओं को 'क्रूर' मानकर उसी भूल की पुनरावृत्ति कर रहे हैं।
जिसने पति की हत्या कर दी, वह एक महिला अपराधी है। इससे सभी महिलाओं को अपराधी नहीं माना जा सकता। जिसने पति को धोखा दिया, वह एक लड़की चरित्रहीन है। उसका उदाहरण देकर सभी ल़डकियों को चरित्रहीन नहीं माना जा सकता।
सामान्यीकरण की इस बीमारी ने समाज के सौहार्द को आघात पहुँचाया है। सोशल मीडिया के दौर में यह बीमारी अधिक व्यापक हो चली है।
एक भाजपा नेता का वीडियो वायरल हुआ और हम सभी भाजपाइयों को अश्लील मानने लगे। एक कांग्रेसी के चरित्र से पूरी कांग्रेस का चरित्र नहीं परखा जा सकता। एक भारतीय पूरे भारतवर्ष का उदाहरण नहीं हो सकता। एक स्त्री पूरी स्त्री जाति नहीं है।
डॉक्टरों को भगवान बनाकर हमने इसी सामान्यीकरण की प्रवृत्ति को बढ़ावा दिया है। फिर मानव अंगों के व्यापार में शामिल डॉक्टरों को उदाहरण मानकर, सभी डाक्टर्स को दैत्य मानना भी इसी प्रवृत्ति का परिणाम है।
एक आध्यात्मिक व्यक्ति के कदाचार से सभी संतों के चरित्र को घिनौना मानना अपराध है। एक साधु के रावण निकलने पर राम ने सभी साधुओं को रावण नहीं मान लिया था।
सामान्यीकरण समाज के विवेक का हत्यारा है। इससे अपने समाज को, अपनी विधायिका को, अपनी न्यायपालिका को और अपने परिवारों को बचाना हम सबका कर्त्तव्य है।

✍️ चिराग़ जैन

Friday, June 6, 2025

फ़ुरसत

धूप इक रोज़ ढल ही जाती है 
उम्र सूरत बदल ही जाती है 
थोड़ी फ़ुरसत निकालकर देखो 
ज़िन्दगी तो निकल ही जाती है

✍️ चिराग़ जैन

Thursday, May 29, 2025

भूमिका

यदि कोई साहित्यकार, जनता की रुचियों के लिए अपने समाज के नैतिक स्वास्थ्य को अनदेखा कर रहा है तो समझ लीजिए कि वह औषधालय का बोर्ड लगाकर हलवाई की दुकान चला रहा है। 
✍️ चिराग़ जैन 

Tuesday, May 27, 2025

ख़ुदशनास

यूँ न समझो उदास बैठा हूँ 
आज मैं ख़ुदशनास बैठा हूँ 
मुझसे कोई अभी न बात करो 
मैं अभी अपने पास बैठा हूँ 

✍️ चिराग़ जैन 

Sunday, May 25, 2025

फिर भी दिल है हिंदुस्तानी

संपन्नता से वे ऑफ लिविंग बदल सकता है, लेकिन वे ऑफ थिंकिंग पर संपन्नता का कोई असर नहीं होता। झुग्गी बस्ती में पानी का टैंकर आने पर जिस तरह की झड़प होती है ठीक वैसी ही तू-तू-मैं-मैं एयरपोर्ट पर सिक्युरिटी चेक करते समय भी ख़ूब होती है। अन्तर बस इतना है कि फेंकने की सिचुएशन आने पर पानी की बाल्टी, सेमसोनाइट की अटैची से रिप्लेस हो जाती है और माँ-बहन की भद्दी गालियां अपने अंग्रेजी अनुवाद का अवतार ले लेती हैं। 
पढ़ी-लिखी महिलाएं झुग्गी वाली महिलाओं की तरह एक-दूसरे के बाल पकड़कर खींचने की बजाय बात को इतना लंबा खींच देती हैं कि सामने वाला ख़ुद अपने बाल नोच लेता है। 
कस्बाई शामें देसी दारू की महक से प्रारम्भ होकर मारपीट और गाली-गलौज पर संपन्न होती हैं, जबकि होटलों की शामें दिखावटी आलिंगनों से प्रारंभ होकर गाली-गलौज पर संपन्न हो जाती हैं। हाई-क्लास लोग मारपीट और हाथापाई नहीं करते, क्योंकि इस काम को करने के लिए अपना निजी शरीर प्रयोग करना पड़ता है। 
पीवीआर सिनेमा की लाइन में भी लोग उसी सोच से बीच में घुसने का प्रयास करते हैं जिस चतुराई से वे मिट्टी के तेल की लाइन में चुपचाप घुसने की कोशिश करते थे। लाइन तोड़कर बीच में घुसने की जो दक्षता हम भारतीयों में है, उसका विश्व में कोई सानी नहीं है। लेकिन इसका यह बिल्कुल अर्थ नहीं है कि हर कोई ऐरा-गैरा हमारे रहते बीच में घुस जाएगा। इसका सीधा फार्मूला है, जो हमसे ज़्यादा ढीठ होगा, वही हमसे जीत पाएगा। इसीलिए सिविक सेंस, रोड सेंस और यहाँ तक कि कॉमन सेंस को भी कभी अपने बीच में जगह नहीं बनाने दी। 
एयरपोर्ट पर सिक्योरिटी चैक की लाइन हो तो भी हम चेहरे पर फ्लाइट छूटने की चिंता का ऐसा शानदार अभिनय पोत लेते हैं कि क्रूर से क्रूर आदमी को भी पीछे हटना पड़ेगा। ये और बात है कि अंदर वही बेचारा जब विंडो शॉपिंग पर टाइम पास करता दिखता है तो उसकी आँखों में बेशर्मी तैर रही होती है। 
वाहनों का इंश्योरेंस होने के बाद भी दो गाड़ीवाले सड़क पर उसी तरह से नुक़सान की भरपाई के नाम पर पैसे वसूलने की भरसक कोशिश करते हैं, जैसे किसी ऑटोरिक्शा से टच हो जाने पर साइकिलवाला अपने पैर की हड्डी टूटने की घोषणा करके लँगड़ाने लगता है। 
हम दरअस्ल दुनिया को यह बताना चाहते हैं कि हम बदतमीजी करते वक़्त ऊँच-नीच, अमीर-ग़रीब, शहरी-ग्रामीण जैसे भेदभाव नहीं करते। हम अपने मूल संस्कारों को भूलकर कोई वैभव नहीं भोग सकते। इसीलिए हमारे भूखे-नंगे से लेकर करोड़पतियों तक बकी जानेवाली गालियों में रत्तीभर फर्क़ नहीं है। 

✍️ चिराग़ जैन 

Monday, May 5, 2025

बेताल पचीसी

पत्रकारिता, सम्राट विक्रम की तरह राजनीति के बेताल को अपनी पीठ पर लादकर, जनमत की यज्ञशाला तक ले आने में समर्थ थी।
जब भी पत्रकारिता, राजनीति को वश में करके यज्ञशाला की ओर चलती, तो बेताल किसी अनावश्यक कहानी में उसे उलझा देता था। भ्रमित विक्रम, यज्ञशाला का लक्ष्य भूलकर कहानी के समाधान में भटक जाता। ज़रा-सी चूक होते ही बेताल हाथ से निकल जाता था और विक्रम देखता रह जाता था।
एक दिन विक्रम ने साधु के हाथ-पैर बांधकर उसे ही पीठ पर लाद लिया। थोड़ी दूर चलते ही बेताल ने दूर बैठकर एक कहानी शुरू की और फिर कहानी बीच में छोड़कर भाग गया।
विक्रम ने साधु को रास्ते में पटका और कहानी पूरी करने निकल गया। इससे पहले कि कहानी पूरी हो, बेताल फिर से कोई नई कहानी उसके हाथ में थमाकर भाग निकला।
अब, साधु बीच रास्ते में बंधा हुआ कराह रहा है। यज्ञशाला पर बेताल ने कब्ज़ा कर लिया है। और विक्रम बेचारा, रोज़ एक कहानी को अधूरा छोड़कर, नई कहानी को पूरा करने में व्यस्त है।

✍️ चिराग़ जैन

Monday, April 28, 2025

धैर्य

हे अर्जुन,
सूर्यास्त को देखकर 
न धैर्य छोड़ो, न धनुष;
हो सकता है 
सूर्य
जयद्रथ को बुलाने गया हो!
✍️ चिराग़ जैन 


Sunday, March 16, 2025

कुलगीत IIIT Vadodara

उन्नत शिक्षा हेतु समर्पित
इस धरती का अभिनंदन
इस परिसर से ज्ञान प्रसारित 
इसके कण-कण का वंदन

जननी-तनय सरीखे ही हैं, आवश्यकता-आविष्कार 
अनुभव का अवलंबन थामे बढ़ता अधुनातन आचार
भौतिकता के चक्र, कल्पना-अश्व, साधना का स्यंदन
इस परिसर से ज्ञान प्रसारित 
इसके कण-कण का वंदन

ज्ञान वही, जो मानवता हित सज्जन का निर्माण करे
शोध वही, जो जन-जन के हित सुविधा अनुसंधान करे 
शिक्षा वह, जिससे बन पाये, सरल, सुगम, सुंदर जीवन 
इस परिसर से ज्ञान प्रसारित 
इसके कण-कण का वंदन

अर्जित कर, संरक्षित करना और प्रसारित करना ज्ञान 
यही स्वप्न है, यही सोच है, यही हमारा लक्ष्य प्रधान 
ऊर्जा के मस्तक पर चंदन तिलक लगाता अनुशासन 
इस परिसर से ज्ञान प्रसारित 
इसके कण-कण का वंदन

अलख तरंगों को लिखते हैं, अकथ स्वरों को सुनते हैं 
प्राणहीन यंत्रों को समझें, हर स्पन्दन को गुनते हैं 
एक साथ साधे हैं हमने जड़, चेतन और अवचेतन
इस परिसर से ज्ञान प्रसारित 
इसके कण-कण का वंदन

उद्यमस्य सम किमपि न भवति, कर-कर इसी मंत्र का ध्यान
सुकर बनाकर सुगम सूचना, स्वप्न लिए जग का कल्याण
अभिनव शिक्षा, अभिनव जीवन, अभिनव दर्शन, अभिनव मन 
इस परिसर से ज्ञान प्रसारित
इसके कण-कण का वंदन

संस्कृति की समृद्धि हमारी पृष्ठभूमि का तत्व प्रधान
मानव निर्मित बुद्धि, प्राकृतिक भाषा का करते संधान
आगत का स्वागत करते हैं और अतीत का आराधन
इस परिसर से ज्ञान प्रसारित 
इसके कण-कण का वंदन

विश्वामित्री के तट पर वट की नगरी है सुन्दरतम
शिक्षा के नित-नूतन-नय को करती है यह हृदयंगम 
संस्कृति और विज्ञान यहाँ करते दिखते हैं आलिंगन 
इस परिसर से ज्ञान प्रसारित 
इसके कण-कण का वंदन

Monday, March 10, 2025

तोंद गाथा

जब 25वां साल चढ़ा
तब अपना भी पेट बढ़ा
जो खाता, वो लगता था
प्रतिदिन पेट निकलता था
लड़कीवाले आते थे
तोंद देख भग जाते थे

इक दिन इक लड़की के घर
जा पहुँचा रिश्ता लेकर
साँस खींचकर बैठा था
पेट भींचकर बैठा था
बटन काज में अटका था
दिल में हर पल खटका था
तभी अचानक वो आईं
मुझे देखकर मुस्काई
प्रणय भाव में उछल गया
दायित्वों को कुचल गया
पेट ख़ुशी से फूल गया
सारी सीमा भूल गया
बटन बेचारा हार गया
पेट शर्ट के पार गया
सपनों का संसार धुला
कहाँ तीसरा नेत्र खुला
निकला तीर कमान दिखी
भीतर की बनियान दिखी

जैसे-तैसे ब्याह हुआ
फिर मैं बेपरवाह हुआ
टायर का आकार बढ़ा
पूरा गोलाकार बढ़ा
कटि बढ़कर कटिहार हुई
हर इक सीमा पार हुई
पत्नी ने कुछ फील किया
मुझे प्यार से डील किया
तुम तो शोना-बाबू हो
खाने में बेकाबू हो
चाट पकौड़ी भाती है
ज़रा शर्म नहीं आती है
मटके जैसा पेट लिए
ख़ुद को इन्डिया गेट किए
ठुमक-ठुमककर चलते हो
स्मार्टनेस को खलते हो
थोड़ा तो कंट्रोल करो
अब मत टाल-मटोल करो

सेहत का अपमान है तोंद
बीमारी का भान है तोंद
बॉडी से मिसमैच है तोंद
भोंदूपन का बैज है तोंद
कुंभकर्ण की फ्रेंड है तोंद
आलसियों का ट्रेंड है तोंद
कितना बैड रिजल्ट है तोंद
इक सोशल इंसल्ट है तोंद

ये सब सुनकर नाड़ झुकी
नाड़ झुकी तो तोंद दिखी
फटने को था गुब्बारा
मैंने ख़ुद को धिक्कारा
लानत है इस जीवन पर
कुछ कंट्रोल नहीं मन पर
खूब समोसे खाता है
पुचके पर ललचाता है
सीधी रेखा चाप हुई
शेप बिगड़कर शाप हुई
खुद को कुछ इस्ट्राँग किया
मैंने इक संकल्प लिया
तला-भुना सब छोड़ूंगा
मीठे से मुँह मोड़ूंगा
काम अजायब कर दूंगा
चर्बी ग़ायब कर दूंगा
चटखारे बिसरा दूंगा
ये ब्रह्मांड हिला दूंगा

ऐसा भीषण प्रण करके
कुछ संयम धारण करके
मैं घर से बाहर निकला
नुक्कड़ पर ही दिल पिघला
दृष्टि भूल से छली गई
तभी जलेबी तली गई
मुँह में पानी भर आया
बहुत तरस ख़ुद पर आया
तन और मन में ठन आई
ठीक सामने हलवाई
गरम जलेबी तलता था
मन उस ओर मचलता था
रस की भरी करारी थी
छोटी प्यारी-प्यारी थी
क्या बतलाऊं कैसी थी
ठीक मेनका जैसी थी
कठिन तपस्या भंग हुई
भीष्म प्रतिज्ञा तंग हुई
जब कंट्रोल न हो पाया
तब ख़ुद को यूँ समझाया
कल से नियम निभाऊंगा
आज जलेबी खाऊंगा

कई दिनों तक ट्राई किया
एक अर्थ-स्काई किया
कोई मन्तर नहीं चला
रोज़ किसी ने मुझे छला
कभी भठूरे-छोले ने
कभी बर्फ के गोले ने
गर्मागर्म समोसे ने
कभी मसाले डोसे ने
आलू, चाट, पकौड़ी ने
भजिया, पाव, कचौड़ी ने
केसर चढ़ी इमरती ने
भोजन भूषित धरती ने

तप में नित व्यवधान किया
नियमों का अपमान किया
पूरा जग रसवान दिखा
हर पदार्थ पकवान दिखा
झरने कलकल करते थे
शर्बत बनकर झरते थे
पर्वत जी का जाल लगे
वर्क सुसज्जित थाल लगे
किचन सूंघकर आती थी
पुरवा भूख बढ़ाती थी
पेड़ सुना, पेड़ा सूझा
गेंदे को लड्डू बूझा
सुबह-सुबह प्रण लेता था
शाम तलक तज देता था

लेकिन इक दिन मैं जीता
लार गटककर दिन बीता
पूरा दिन रुक पाने में
डाइट चार्ट निभाने में
बस थोड़ी-सी दूरी थी
मगर प्लेट में पूरी थी
पुनः प्रतिज्ञा छली गई
पूर्ण उदर में चली गई

इक दिन मुझको ज्ञान हुआ
भोजन का सम्मान हुआ
बेर राम को भाते हैं
कान्हा माखन खाते हैं
जो ईश्वर को भाता है
वह प्रसाद बन जाता है
फिर विचार कुछ करना क्या
तोंद-वोंद से डरना क्या
वही तोंद से बचता है
जिसको घी नहीं पचता है
लोग भसककर खाते हैं
तोंद उगा नहीं पाते हैं
नींद भूख जब पूर्ण मिलें
सुख के स्वर्णिम पुष्प खिलें
तब कुछ तोंद निकलती है
क्यों दुनिया को खलती है

तोंद बढ़ाना खेल नहीं
भूख-पेट का मेल नहीं
पतला खाना खाता है
मोटों के सिर आता है

तोंद उसी के लगती है
जिसको लक्ष्मी फबती है
गणपति की पहचान है तोंद
ईश्वर का एहसान है तोंद
वैभव का वरदान है तोंद
सेठों का अभिमान है तोंद
सबके ताने सहती है
फिर भी आगे रहती है
कृत्रिम होना ठीक नहीं
तोंद गिफ्ट है, भीख नहीं
नेचर का सत्कार करो
बस ख़ुद को स्वीकार करो

बोल तोंद वाले बाबा की जय

✍️ चिराग़ जैन 

Sunday, February 23, 2025

स्वावलंबी प्रकृति

हम तब तक किसी काम को टालने का प्रयास करते हैं, जब तक उस कार्य को करना अपरिहार्य न हो जाए। यह मनुष्य की सहज प्रवृत्ति है। काम को टालने के हमारे पास अनगिनत उपाय हैं। और उचित अवसर की प्रतीक्षा, कार्य को टालने का सर्वाधिक प्रयुक्त बहाना है।
जिसे कार्य करना होता है, वह कार्य कर देता है। किसी कार्य को करने का एक ही तरीका है, कि उस कार्य को संपन्न करने के लिए प्रारंभ किया जाए।
विश्व का कोई पथप्रदर्शक आपको चलने के लिए बाध्य नहीं कर सकता। वह तर्जनी को किसी दिशा मे बढ़ाकर आपको रास्ता तो दिखा सकता है, किंतु हथेलियों से आपको उस रास्ते पर धकेल नहीं सकता। धकेलने से कोई रास्ता तय होता भी नहीं है। रास्ता तो चलने से तय होता है। इसलिए पथ प्रदर्शन का दायित्व दिशा दिखाने तक सीमित है। चलना तो आपको स्वयं ही होगा।
बुद्ध, महावीर जैसे ऊर्जावान मनुष्यों ने भी आपको मार्ग दिखाया, वे आपका हाथ पकड़कर आपको मोक्ष तक नहीं ले जा सके। यहाँ तक कि कृष्ण, जो अर्जुन के सारथी बनकर उनका रथ हाँक रहे थे, वे भी अर्जुन के लिए युद्ध न कर सके। गांडीव तो अर्जुन को स्वयं ही उठाना पड़ा।
पूरी प्रकृति स्वावलंबन के इसी सिद्धांत से संचालित है।
यही कारण है कि जीवन के लिए आवश्यक किसी भी ज्ञान का अर्जन करने के लिए दुनिया के किसी प्राणी को किसी संस्थान मे जाने की आवश्यकता नहीं होती। सद्यजात शिशु, साँस लेने के लिए किसी पाठ्यक्रम का अध्ययन नहीं करता। पलकें झपकने से लेकर चलने, बोलने और सोने-जागने तक कि शिक्षा के लिए कहीं कोई संस्थान नहीं है। भूख लगने पर कोई प्राणी भोजन का कौर, पेट की ओर नहीं ले जाता। पेट मे उत्पन्न जठराग्नि को शांत करने के लिए नन्हें से नन्हा प्राणी भी मुँह के रास्ते ही भोजन ग्रहण करता है। यह प्रकृति द्वारा प्राप्त स्वावलंबन का सर्वोत्कृष्ट प्रमाण है।
संतानोत्पत्ति, आत्मरक्षा और अभिव्यक्ति सीखने के लिए भी पाठ्यक्रम आवश्यक नहीं है। ये क्रियाएं भी प्रकृति द्वारा प्रदत्त स्वाभाविक गुणों में सम्मिलित हैं।
आवश्यक अभिव्यक्ति के लिए जितनी भाषा जाननी चाहिए, वह प्रकृति ने हर प्राणी को सिखा दी है। और प्रकृति द्वारा सिखाई गई ये भाषा कंठ ही नहीं अपितु आँखों, श्वास, हाथों, चेहरे और नथुनों तक से बोलना जानती है। सम्भवतः यही कारण है कि अभिव्यक्ति जब अपने उत्कर्ष पर पहुँचती है तब शब्द गौण हो जाते हैं। उस समय आँसू न जाने किस स्रोत से निकलकर नयनों से बह निकलते हैं।
विश्व के जितने भी शिक्षण संस्थान हैं, वे प्राणी को प्रकृति के स्वाभाविक संतुलन से दूर ले जाकर, प्रकृति पर विजय प्राप्त करने के लिए अलग-अलग पाठ्यक्रम बताते हैं। यदि हम प्राकृतिक होने का अभ्यास करें तो किसी अन्य ज्ञान की आवश्यकता ही नहीं होगी। बल्कि यों कहें कि हम ज्यों-ज्यों सिखाए गए ज्ञान से मुक्त होते जाएंगे त्यों-त्यों प्राकृतिक होते जाएंगे। कृत्रिमता का लोप ही प्राकृतिक हो जाना है।
प्रकृति की योजना हमारी योजनाओं से अधिक सुचारू तथा दोषरहित है। प्रकृति की योजना और हमारी योजना में ठीक वही अन्तर है जो अन्तर वन तथा उद्यान में होता है। उद्यान एकाएक सुव्यवस्थित लगते हैं, किन्तु वे स्वावलंबी नहीं होते। उन्हें अनवरत संवारना पड़ता है। जबकि जंगल की कोई देखरेख नहीं करनी पड़ती, वह अपने वृक्ष स्वयं लगा लेता है। उद्यान स्वावलंबी हो जाए तो वह जंगल बन जाएगा और जंगल पराश्रित जो जाए तो वह उद्यान जैसा लगने लगेगा।
प्रकृति स्वावलंबन की पक्षधर है, इसलिए प्रकृति की ऊर्जा स्वावलंबी प्राणियों के साथ एकाकार हो जाती है और पराश्रित के भीतर जो आलस्य है, वह प्रकृति द्वारा उत्पन्न विरोध है।

✍️ चिराग़ जैन 

Saturday, February 22, 2025

स्वयंभू सेलिब्रिटी

मेरे एक परिचित हैं, जो पिछले कुछ महीनों से ख़ुद को सेलिब्रिटी मान बैठे हैं। अब वे दिन भर भीतर ही भीतर सेलिब्रिटी होने के भाव से भरकर अपने आसपास के सभी मनुष्यों को तुच्छ समझते हुए विचरते हैं और रात होने पर शेष विश्व को टुच्चा समझते हुए व्यंग्यात्मक मुस्कान के साथ सो जाते हैं।
उनकी सबसे बड़ी चुनौती यह है उनके परिवेश को इस बात की भनक तक नहीं है कि वे सेलिब्रिटी बन चुके हैं। उनके घरवाले, उनके दोस्त, उनके रिश्तेदार तथा उनके पड़ोसी अभी भी उन्हें मनुष्य समझकर उनसे सामान्य व्यवहार करते हैं।
स्वयं को सामान्य समझा जाना उन्हें बिल्कुल अच्छा नहीं लगता। वे इस बदतमीज़ी का बदला लेने के लिए वे तुरंत अपने सोशल मीडिया अकाउंट पर एक शायराना स्टेटस पोस्ट करते हैं, जिसका भावार्थ लगभग यह होता है कि, ‘ज़ालिम ज़मानेवालो, आज तुम मेरी कद्र मत करो लेकिन एक दिन तुम मुझसे मिलने को तरस जाओगे।’
चूँकि शेष विश्व को वे ख़ुद से बात करने लायक नहीं समझते इसलिए समय बिताने के लिए वे सोशल मीडिया पर सेलिब्रिटी लोगों की प्रोफाइल, रील तथा स्टेटस देखते रहते हैं। उनका दृढ़ विश्वास है कि सचमुच का सेलिब्रिटी बनने के लिए ऐसे स्टेटस डालना ज़रूरी होता है। वे यह बात मानने को तैयार नहीं हैं कि ऐसे स्टेटस डालने से पहले सचमुच का सेलिब्रिटी बनना आवश्यक होता है।
सेलिब्रिटीपना सीखने के चक्कर में वे टीपने में पारंगत हो गए हैं। पिछले दिनों उन्होंने देखा कि एक फिल्मस्टार ने अपनी किचन में मटर छीली। मटर छीलने की उसकी रील पर मिलियन व्यू देखकर हमारे स्वयंभू सेलिब्रिटी ने नहा-धोकर चकाचक पैंट-शर्ट पहनी, बालों को सूतकर बहाया, चेहरे पर थोड़ी लीपा-पोती की और रील बनाने निकल पड़े। शूटिंग की लोकेशन भी सेम थी, बस ज़रा-सा अन्तर ये था कि फिल्मस्टार की रसोई थोड़ी आलीशान किस्म की थी, और हमारे लोकल सेलिब्रिटी की रसोई की दीवार पर चिकनाई के स्वाभाविक निशान थे। फिल्मस्टार की रील किसी ने चुपके से बनाई थी और हमारे सेलिब्रिटी ने बाकायदा कॉलर माईक लगाकर शूटिंग करवाई थी। हमारे सेलिब्रिटी इतने स्वार्थी नहीं हैं कि मटर छीलने की गोपनीय रेसिपी से अपने विराट फैन क्लब को वंचित रखें इसलिए उन्होंने मटर छीलने जैसे वीरोचित कर्म की पूरी रेसिपी भी अपने फैन्स को बताई।
सेलिब्रिटी को अपने फैंस का ध्यान रखना पड़ता है, इसलिए हमारे लोकल ब्रांड सेलिब्रिटी हर राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय विषय पर किसी विद्वान की वीडियो सुनते हैं और फिर उसे अपने मुखारविंद से दोबारा रिकार्ड करके अपने फैंस क्लब के सामने विद्वान बनने का अभिनय करते हैं।
जब कोई उनके स्टेटस पर आकर समर्थन या विरोध नहीं करता, तो वे विनम्रतापूर्वक स्वयं दूसरों के स्टेटस पर अबूझ टाइप के कमेंट्स करके ध्यानाकर्षण का प्रयास करते फिरते हैं।
कई महीनों के अथक प्रयासों के बाबजूद जब उनके फैंस क्लब की संख्या में वृद्धि नहीं हो पाई तो वे सपत्नीक सेलिब्रिटी बनने निकल पड़े। खाना खाने से लेकर आने-जाने तक वे अपनी हर गतिविधि की रील बनाते हैं और हर रील में अपनी पत्नी को गले लगाकर अपने फैंस को अपने खुशनुमा दाम्पत्य की झलक दिखाते रहते हैं।
पिछले दिनों उनके कुनबे में कोई बुजुर्ग दिवंगत हो गए। हमारे सेलिब्रिटी ने इस दुःख की घड़ी में भी अपने फैंस को नहीं भुलाया। अपने बाबाजी की मृत्यु का दुःख मनाने से पहले उन्होंने लाश का चेहरा खोलकर उसकी फोटो खिंची। फिर उसे तुरंत सोशल मीडिया पर पोस्ट किया। ताकि उनका कोई भी फैन अंतिम दर्शन से वंचित न रह जाए। इस पोस्ट के बाद वे दिन भर रील डालकर अपने विराट फैन क्लब को यह बताते रहे कि सेलिब्रिटी रो रहा है।
सबको गाइज, दोस्तों और भाइयों कहकर संबोधित करते हुए वे अथक साधना कर रहे हैं। इतने महीनों में वे अपने परिवार को यह समझाने में सफल हो गए हैं कि एक दिन वे सोशल मीडिया के ज़रिये पूरे संसार में फेमस हो जाएंगे। शायद इसी कारण कल जब वे टूथपेस्ट करते हुए रील बना रहे थे तब उनकी पत्नी कैमरा लेकर वॉशबेसिन के सामने दम साधे खड़ी थी, और बाकी पूरा परिवार मुँह पर टेप लगाए चुपचाप बैठा था, कि कहीं कोई शोर हुआ तो इतनी महत्वपूर्ण रील की ऑडियो क्वालिटी ख़राब न हो जाए।

✍️ चिराग़ जैन

Friday, February 21, 2025

अतीत से सामना

सामने आ गए आज फिर हम
आज फिर से संभलना पड़ेगा 
एक-दूजे से ख़तरा नहीं है 
ख़ुद से बच के निकलना पड़ेगा 

आँख से तुम बरसने न दो बदलियाँ
काँपकर सब बयां कर न दें उंगलियाँ 
चल न आना मेरी ओर सब भूलकर 
बोलने लग न जाएँ कहीं पुतलियाँ 
नेह को कब दिखी कोई सीमा 
देह को ही समझना पड़ेगा 
एक-दूजे से ख़तरा नहीं है 
ख़ुद से बच के निकलना पड़ेगा 

उस घड़ी किस तरह से जिया जाएगा 
तुमको परिचय हमारा दिया जाएगा 
साँस की चाल कैसे रहेगी सहज 
होंठ को किस तरह से सिया जाएगा 
जब संभाले न संभलेंगे आँसू 
उस घड़ी खूब हँसना पड़ेगा 
एक-दूजे से ख़तरा नहीं है 
ख़ुद से बच के निकलना पड़ेगा 

अपनी चाहत से नज़रें चुराते हुए 
जी रहे थे स्वयं को भुलाते हुए 
भाग्य, जिसने हमें तब अलग कर दिया 
आज हिचका न हमको मिलाते हुए
तब बिछड़कर सिसकते थे हम-तुम 
आज मिलकर सिहरना पड़ेगा 

✍️ चिराग़ जैन 

Thursday, February 20, 2025

उर्दू और भारत

अगर भाषाओं से धर्म की पहचान होती तो हिन्दी के पास रसखान और रहीम नहीं होते तथा उर्दू के पास फ़िराक़ और गुलज़ार नहीं होते।
राजनीति को मुर्गे लड़ाने का चस्का हो, तो वह कहीं और जाए, भाषाएँ तो आश्रमों की संतति होती हैं।
रामप्रसाद बिस्मिल और भगतसिंह की भाषा को पराया मानने की प्रवृत्ति हमें संस्कृति ही नहीं, अपितु शहीदों के अपमान की भी आदत डाल देगी।
जिनकी लेखनी पर हिन्दी का साहित्य अभिमान कर सकता है उन मुंशी प्रेमचंद की रचनाओं के 'गबन', 'क़फ़न' तथा 'ईदगाह' जैसे शीर्षक आपकी घृणा से मिटाए नहीं जा सकेंगे।
संस्कृति और लोगों के दिलों से उर्दू को ग़ायब करने का सपना देखने वालों को पहले न्यायपालिका से उर्दू की शब्दावली हटाने का प्रयास करना होगा। और न्यायपालिका भी छोड़िए साहिब, अपनी ख़ुद की बोलचाल से जिस दिन उर्दू को ग़ायब कर दो, उस दिन उर्दू के मुँह पर कालिख पोतने का दुस्साहस करना।
आप घृणा उलीचकर एकाध क्यारी ध्वस्त कर सकते हो लेकिन भाषाई सौहार्द के बगीचे को ध्वंस नहीं कर सकते। क्योंकि उर्दू 'हिन्दी' के नाम में सुरक्षित है। आपकी कड़वाहट उर्दू की मिठास पर कभी हावी नहीं हो सकेगी, क्योंकि उर्दू हमारे थानों में संरक्षित है, उर्दू हमारी अदालतों में सुरक्षित है। आप उर्दू का नाम नहीं मिटा पाएंगे, क्योंकि उर्दू वीर शिरोमणि सिख गुरुओं के नाम में है। आप कभी भी उर्दू को हमारे देश से दूर नहीं कर पाएंगे, क्योंकि उर्दू के बाबा 'शेख फ़रीद' की कविताओं को हमने 'सबद' कहकर गाया है।
उर्दू को पराया कहना ठीक ऐसा ही है ज्यों कोई अपने घर में जन्मी बिटिया को 'पराया' कहकर तिरस्कृत करे। उर्दू को मिटाना है तो नेताजी सुभाषचंद्र बोस से 'जय हिंद' का उद्घोष छीनकर दिखाओ। उर्दू से घृणा करनी है तो 'सरफ़रोशी की तमन्ना' जैसे तरानों से घृणा करो। उर्दू को उखाड़ना है तो क्रांतिकारियों के दिलों में बसे 'इंक़लाब ज़िन्दाबाद' के नारे को उखाड़ने की कोशिश करो। उर्दू को मिटाना है तो चन्द्रशेखर आज़ाद के नाम से 'आज़ाद' उपनाम को मिटाने का जतन करो।
छोड़िए साहिब, राजनीति चंद वोटों के लिए घृणा का तेज़ाब छिड़कने से नहीं रुकेगी और ये देश हमें सिखाता रहेगा कि राम ने रावण की लंका में रहनेवाले विभीषण से भी परहेज नहीं किया। लंका के वैद्य से अपने भाई का इलाज करवाने में भी संदेह नहीं किया। लंका की ओर से लड़नेवाले इन्द्रजीत तक के शव का अपमान नहीं होने दिया। यह राम का देश है साहिब, यहाँ जूठे बेर भी सानन्द ग्रहण किये जाते हैं, यहाँ घृणा का कारवां बहुत दूर तक नहीं चल सकता।
✍️ चिराग़ जैन 

Tuesday, February 18, 2025

भीड़ हैं हम

हमने ऐसी हर कोशिश को नाकाम कर दिया, जिसने हमें ‘भीड़’ से ‘जनता’ बनाना चाहा। हमें भीड़ बने रहना पसंद है। हम भीड़ बनकर जीते हैं और भीड़ बनकर मर भी जाते हैं। इसीलिए हमारे अख़बारों की सुखिऱ्याँ हमारा नाम नहीं जानतीं। कभी यात्री, कभी श्रद्धालु, कभी किसान, कभी तीर्थयात्री, कभी विद्यार्थी, कभी मज़दूर, कभी आदिवासी और कभी पुलिसवाले बनकर हम मर जाते हैं; हमारा कोई नाम नहीं होता। हमें एक ‘भीड़’ के नाम से जाना जाता है। 
अपराधियों के नाम होते हैं, लेकिन निरपराध का कोई नाम नहीं होता। अपराध तो छोड़िए साहब, हम शहर में गाड़ी लेकर निकलते हैं, कहीं किसी कारणवश गाड़ी सड़क के किनारे रोकते हैं तो पुलिसवाला हमें भीड़ की तरह यह कहकर खदेड़ देता है, ‘यहाँ गाड़ी खड़ी करना मना है’। हम पूछते हैं, ‘तो फिर कहाँ खड़ी करें?’ 
इस प्रश्न का उत्तर उसके पास नहीं होता। वह डाँट देता है, ‘यहाँ से आगे ले बे!’ हम आगे ले लेते हैं।
हमारे तंत्र ने जिन देशों की सड़कों के किनारे से ‘नो पार्किंग’ का डिज़ाइन टीपा है, उन देशों से हम व्यवस्थित पार्किंग सिस्टम की कॉपी करना भूल गए।
विश्व समुदाय भी हमें कोई विश्वगुरु नहीं मानता, उनके लिए भी हम केवल एक भीड़ हैं। एक भीड़, जिसे अपना माल बेचा जा सकता है। एक भीड़ जिसे सपने बेचे जा सकते हैं।
शुरुआत में राजनीति भी हमें ‘जनता’ कहकर ही संबोधित करती है लेकिन अंततः वह हमें ‘भीड़’ की तरह इस्तेमाल करती है। जिस मंच से वह हमें जनता कहकर हमसे वोट मांग रहे होते हैं, उसी मंच की रिपोर्टिंग में हमें भीड़ कहा जा रहा होता है और हम तालियाँ पीट रहे होते हैं।
अगर कहीं जनता के लिए राजनीति के हाथों कुछ हितकर्म हो भी जाए, तो हम भीड़ बनकर उस विकास की ऐसी धज्जियाँ उड़ाते हैं कि राजनीति को अपने किए पर क्रोध आने लगता है। फिर वह हमें साम्प्रदायिक भीड़ में बदल देती है, फिर वह हमें जातियों की भीड़ में बदल देती है। हम ख़ुशी-खुशी भीड़ बन जाते हैं और दूसरी भीड़ के विरुद्ध गालियाँ तलाशने लगते हैं। 
हमें भीड़ बनकर लड़ने की आदत हो गई है। हमें जैसे ही कोई साइनबोर्ड मिलता है, हम तुरंत उसके नीचे भीड़ बनकर जुटने लगते हैं। ‘गांधी’; ‘लोहिया’; ‘अम्बेडकर’; ‘हेडगेवार’; ‘कांशीराम’; ‘जयप्रकाश’; ‘मोरारजी’; ‘वीपी सिंह’; ‘मुलायम’; ‘माया’; ‘जयललिता’; ‘करुणानिधि’; ‘ठाकरे’; ‘अन्ना’; ‘केजरीवाल’; ‘मोदी’; ‘राहुल’; ‘ओवैसी’... ये सब हमारे लिए साइनबोर्ड बन गए और हम इनके नीचे भीड़ बनकर जुटते रहे। 
इन सबने हमें मनुष्य बनाना चाहा तो हमने इनको पूरी ताकत से यह एहसास कराया कि हमें इंसान समझने की ग़लती मत करना। हमें भीड़ समझो, वर्ना हम तुम्हारे खिलाफ़ खड़े होकर तुम्हें औंधे मुँह गिरा देंगे।

✍️ चिराग़ जैन

Sunday, February 16, 2025

अपराधी कौन

महाभारत के महाविनाश की दोषी न तो दुर्योधन की हठधर्मिता है, और न ही धृतराष्ट्र की नेत्रहीन महत्वाकांक्षा! महाभारत के युद्ध में जो रक्तपात हुआ उसका गोमुख उस पट्टी से निसृत है जो सनेत्रा गांधारी ने अपने विवेक की आँखों पर बांध ली थी। 
ठीक इसी तरह वर्तमान दुर्घटनाओं के लिए न कुम्भ दोषी है, न धर्म और न ही सरकार। इन सब हादसों की अपराधी है अपना विवेक गंवा चुकी जनता। 
राजनीति तो हमेशा ही विवेक की आंखें फोड़कर सत्ता पर अधिकार करती रही है। राजनीति की तो यह प्रवृत्ति ही है। किन्तु राजनीति के गलियारों से चलनेवाली उन्माद की आँधी में अपनी व्यवस्था की धज्जियाँ देखकर ताली पीटना आश्चर्यजनक है। 
महाभारत इसलिए वीभत्स नहीं था कि उसमें शव गिरे थे, महाभारत इसलिए भयानक था कि उस युद्ध में मृतक के संबंधी शोकाकुल कम और उन्मादी अधिक हो रहे थे।
उन्माद किसी का हित नहीं कर सकता। उन्माद किसी की रक्षा नहीं कर सकता। श्रद्धा की भी एक मर्यादा होती है। नदी में बहता नीर अमृत कहलाता है, किन्तु यही अमृत जब तटबंध तोड़कर जीवन को लीलने लगता है तो इसे माथे नहीं चढ़ाया जाता। मर्यादाहीन नदी भी निंद्य हो जाती है। ऐसे में मर्यादाहीन आस्था कैसे हितकर हो सकती है। 
जो लोग परस्पर कुम्भस्नान की याद दिला रहे हैं, वे ही शासन को व्यवस्थित संसाधनों की याद दिलाते रहेंगे तो कुंभकर्ण की नींद सोने वाले जाग सकते हैं। नई दिल्ली स्टेशन पर मरनेवालों के मन में अंतिम समय कुम्भ के प्रति आस्था अधिक रही होगी या व्यवस्था के प्रति क्रोध अधिक रहा होगा या फिर असभ्य नागरिकता के प्रति निराशा... यह तो कोई नहीं जानता, लेकिन यह सत्य है कि धर्म की ओट में खड़ी नाकारा व्यवस्था ने जिस कपड़े में अपना मुँह चुराया है, उसका रेशा-रेशा जनता के अविवेक से बना है। 
.किसी का कद नहीं ऊँचा हुआ है 
मेरी आवाज़ छोटी हो गई है 

✍️ चिराग़ जैन 

Thursday, February 6, 2025

सरकार क्या-क्या करे?

एक समय वह था, जब भारतीय राजनीति, ट्रेन की जनरल बोगी को कैटल क्लास कहती थी। राजनीति के इस स्टेटमेंट से हम आम भारतीयों को बहुत दुःख हुआ। हमने राजनीति को भरपूर गालियाँ दीं। हमने उन गंदे ट्रेन कोच को और सड़ांध मारते सिस्टम को सुधारने की जगह, उनमें यात्रा करनेवालों को बताया कि देखो तुम्हें मवेशी समझा जा रहा है।
यह जानकर तथाकथित मवेशी बहुत क्रुद्ध हुए। उन्होंने सींग मार-मारकर राजनीति का सिंहासन तोड़ दिया। सत्ता बदल गई। अब आरक्षित बोगी तक ‘ठुँसने’ की सुविधा मिल गई। नई राजनीति ने मवेशियों का धन्यवाद करते हुए उन्हें थ्री टियर एसी तक घुसने की सुविधा दे दी। आरक्षण करवानेवालों के अत्याचारों का बदला लेने के लिए आरक्षण करवाने पर तरह-तरह के कर लगा दिए गए। आरक्षित वरिष्ठ नागरिकों के लिए दी जानेवाली छूट समाप्त कर दी। वेटिंग की टिकट रद्द करवाने पर भी जुर्माना लगा दिया।
आरक्षण करवानेवालों से बदला लेने के लिए उनकी बोगी में नियुक्त अटेंडेंट की भर्ती को निजी कंपनियों को सौंप दिया। अब ये आरक्षित लोग फर्स्ट एसी में सारी रात अलार्म बजाये जाते हैं और ‘नौकरी जाने के भय से मुक्त’ अटेंडेंट कोच की कूलिंग बढ़ाकर सोता रहता है।
अब धीरे-धीरे स्थिति सुधर रही है। अमीर-ग़रीब के बीच की खाई पटने लगी है। व्यवस्था जानती है कि स्लीपर क्लास के शौचालयों को वातानुकूलित जैसा नहीं रखा जा सकता, इसलिए उन्होंने वातानुकूलित कम्पार्टमेंट के शौचालयों को जनरल क्लास जैसा रखना शुरू कर दिया। इसे कहते हैं, ‘समानता का अधिकार’।
निजी ट्रैवल पोर्टल पर रेल की टिकट कन्फर्म न होने पर दोगुने पैसे देने का दावा किया जा रहा है। मैंने एक सरकारी अधिकारी से पूछा, रेल्वे में सेटिंग किए बिना ऐसा दावा कैसे किया जा सकता है। अधिकारी बोले, ‘ऊपरवाला जाने’!
मैं ठहरा मूढ़बुद्धि, ईश्वर को ही ऊपरवाला समझता था, इसलिए सोचा कि उस कोर्पाेरेट कम्पनी के अधिकारी वेटिंग की टिकट को सामने रखकर ईश्वर से प्रार्थना करते होंगे, पाँच वक़्त दुआ मांगते होंगे, मोमबत्ती वगैरा जलाकर प्रेयर करते होंगे और टिकट कन्फर्म हो जाती होगी।
लोग हर समस्या को लेकर सरकार के पास पहुँच जाते हैं। अरे भई, सरकार देश चलाएगी या रेल की टिकटें बेचेगी? सरकार का काम व्यापार करना नहीं है। सरकार तो झंडी दिखाकर ट्रेनें चलाती है, व्यापार तो यार लोग करते हैं। सरकार जिन्हें स्टेशन बेचती है, वे भी कृतघ्न नहीं हैं। वे सरकार से ख़रीदे हुए प्लेटफॉर्म पर विज्ञापन, उद्घोषणा और अन्य तमाम माध्यमों से सत्ताधारी पार्टी के प्रचार करती है। प्लेटफ़ॉर्म पर वेटिंग रूम बंद होने लगे हैं। लेकिन इसमें सरकार क्या करे, सरकार व्यापार नहीं करती, सरकार तो प्रचार करती है। शिकायतों का पूरा तंत्र है, जिसमें शिकायतकर्ता बुरी तरह उलझकर अपना माथा पीटता है, लेकिन सरकार क्या करे, सरकार चुनाव लड़ेगी या गंदे बेडरोल्स और ख़राब खाने की शिकायतें सुनते रहेगी।
कुछ तो शर्म करो, जो अच्छा हुआ है वो नहीं दिखता। रेल्वे स्टेशनों के नाम बदल दिए गए हैं। इसकी तारीफ़ नहीं होती तुमसे! एक आदमी क्या-क्या करे।
जब देखो सरकार पर कीचड़ उछालते रहते हो, जानवर कहीं के! साइड हटो, सरकार को नहाने जाना है!


✍️ चिराग़ जैन

Saturday, January 4, 2025

सौ साल नीरज के

हिंदी की कविता, जहाँ अपने सबसे सहज रूप में शास्त्रीय मर्यादा की लक्ष्मण रेखा के भीतर खड़ी दिखाई देती है, उस पंचवटी का नाम है, 'गोपालदास नीरज'।

कवि-सम्मेलन की लोकप्रियता का कीर्ति स्तम्भ जहाँ तक पाखण्ड के मुलम्मे से अछूता दिखाई देता है, वहाँ तक नीरज की दमक साफ़ दिखाई देती है।
लौकिक लोभ और पारलौकिक कविताई के मध्य हर बार कविताई को वरीयता देने का स्वभाव जहाँ तक बचा रह गया, वहाँ तक नीरज का पता मिलता है।
जनता की रुचि के अनुरूप कविता 'बनाने' की बजाय, अपनी कविता के अनुरूप जनमानस को ढाल लेने का जादू जहाँ आकर ग़ायब होने लगता है, वह नीरज के कारवां का आख़िरी छोर है।
इन्टरनेट और सोशल मीडिया जनित, वैतण्डी स्टारडम के पीछे भागते हुए, कबीराई बेपरवाही की खुशबू से बहुत दूर निकल आई पीढ़ी, जब कभी उस कस्तूरी की तलाश में आत्ममग्न होगी, तब उसे नीरज की देहरी तक लौटना ही होगा।
चित्र से चरित्र तक आमूलचूल कवि होने का एहसास है नीरज। हिंदी कविता के इस सबसे लाडले बेटे का आज सौवां जन्मदिन है। 2018 में उनकी दैहिक रुख़सती के साढ़े पाँच साल बाद, आज एक बार फिर, उनके साथ बीते क़ीमती पल स्मृति पटल पर चलचित्र की भाँति तैर रहे हैं।
मैंने उनकी स्मृति, उनके अध्ययन, उनकी सादगी और उनकी लोकप्रियता का वैराट्य कई बार अपनी आँखों से निहारा है। मैंने उनके युग में साँस ली है। मैंने एकलव्य की भाँति उनके द्रोणाश्रम से 'कवि होने का लुत्फ़' लेना सीखा है। पहली बार बैरागी जी के संचालन में लालकिला कवि सम्मेलन के मंच पर नीरज जी को देखा था। वाइन कलर का, लगभग पठानी कुर्ता-पायजामा पहने, सिर पर टोपी लगाए एक वृद्ध काया जब मंच पर उपस्थित हुई तो हज़ारों लोगों से भरा तालकटोरा स्टेडियम खड़े होकर तालियाँ बजाने लगा। स्वास्थ्य कारणों से अध्यक्ष होने के बावजूद वे अंत तक नहीं बैठ पा रहे थे, सो संचालक महोदय ने बीच में ही नीरज जी को काव्यपाठ के लिए आवाज़ दी।
मसनद पर बैठकर छोटे माइक से जब नीरज जी की आवाज़ गुंजित हुई तो ऐसा लगा जैसे शरारत ने बहुत गंभीर होने का फ़ैसला कर लिया हो।
"इतने बदनाम हुए...." यही तीन शब्द गूंजे थे और श्रोताओं की तालियों से पूरा स्टेडियम उत्सवित हो उठा। शरारती मुस्कराहट के साथ उन्होंने कोई बीस-पच्चीस मिनिट काव्यपाठ किया और फिर जब उठकर चले तो एक बार फिर श्रोताओं ने खड़े होकर उनका अभिवादन किया।
उस दिन नीरज सचमुच किसी देवदूत जैसे लगे। गीत का जीता-जागता कोई गंधर्व जिसके आगमन और प्रस्थान पर देवता पुष्प वृष्टि करते हों।
इसके बाद मैं सैंकड़ों बार उनसे मिला और हर बार उनके सान्निध्य को सौभाग्य मानकर उन पलों को भरपूर जिया। एक बार नैनीताल में उनके आभामंडल से मैं ऐसा सम्मोहित हुआ, कि उनके चरण स्पर्श करते हुए मैं बाकायदा उन्हें छूकर उनके पुद्गल परमाणुओं का वैभिन्नय महसूस कर रहा था।
'नीरज जी मुझे जानते हैं' -यह एहसास मेरे लिए कवि सम्मेलनीय जीवन का पहला सम्मान-पत्र था। अलीगढ़ नुमाइश का कार्यक्रम था। नीरज जी की अध्यक्षता थी। उससे पहले दो बार नीरज जी मेरे संचालन में काव्यपाठ कर चुके थे। अलीगढ़ में शशांक प्रभाकर ने मुझे कहा, "नीरज जी कह रहे हैं चिराग़ से संचालन करवाओ।" उस दिन यह वाक्य मेरे लिए किसी वरदान मिलने जैसी प्रसन्नता का कारण बना।
उसके बाद के अनेक संस्मरण हैं, उस गीतपुरुष के साथ। उन आँखों की जीवन्तता, रह-रहकर याद आती है। सफदरजंग अस्पताल में आख़िरी बार उनकी जिवित काया के चरण छुए थे। उस समय वे बेहोश थे। मैं उनसे मिलकर घर तक पहुँचा भी नहीं था, कि शशांक भाई ने उनके महाप्रयाण की सूचना दी। मैं उल्टे पाँव सफदरजंग अस्पताल पहुँचा। सम्भवतः मैं उनके चरण स्पर्श करने वाला आख़िरी मनुष्य रहा। मुझे आशीर्वाद भी मिला... मैंने अपने लेखन में नीरज जी की खनक सुनी है। मुझे आज भी महसूस होता है कि वह गीत गंधर्व मेरे लेखन का मापदण्ड बनता जा रहा है। मैं कह सकता हूँ कि नीरज का कारवां कभी नहीं गुज़रेगा। उसके गुबार में भी गीत उभर-उभर आएंगे।