Tuesday, December 13, 2022

दादा लखमी : एक जीवन जो सांग बन गया

'ये नाचणिये-गावणिये बावळे ही होवे सै।' -फिल्म में यह संवाद दो बार प्रयोग किया गया और दोनों बार सिनेमा हॉल में ठहाका गूंज गया। लेकिन फ़िल्मकार ने यह संवाद चुटकुले की तरह नहीं बल्कि फलसफे की तरह प्रयोग किया है। यह फ़िल्मकार का कौशल है कि इससे फूटने वाले ठहाके में भी इसका फलसफा अपना पूरा प्रभाव छोड़ता है।
ये चमत्कार इस एक संवाद में ही नहीं, अपितु पूरी फिल्म में रह-रहकर उभरता है।
किसी के जीवन पर फिल्म बनाते समय पटकथा को स्तुतिगान बनने से बचाए रखना सबसे बड़ी चुनौती होती है, और दादा लखमी का फ़िल्मकार इस चुनौती को साधने में काफ़ी हद तक सफल रहा है।
लगभग सवा सौ साल पहले का हरियाणा परदे पर उतारने के लिए कल्पना, अनुमान तथा शोध के बिल्कुल सही अनुपात के प्रमाण पूरी फिल्म में उपस्थित हैं।
जिन गांवों में दिन भर धूल उड़ती हो वहाँ पीले और सफेद रंग में ज़्यादा फर्क़ नहीं होता -यह बात फिल्म के कॉस्ट्यूम डिजाइनर से लेकर आर्ट डायरेक्टर तक सबको अच्छी तरह याद है। फ़िल्मकार जानता है कि थोड़ी ज़्यादा तपी हुई सुराही भी फेंकने की बजाय मंदिरों में प्रयोग कर ली जाती है। फ़िल्मकार अनुमान लगा सका है कि मसान के लिए अलग से ज़मीन अलॉट नहीं की जाती होगी इसलिए गांव की ओर आने वाली पगडंडी के पास ही एक संटी पर टँकी उल्टी हांडी गांव में उपलब्ध सुविधाओं का पूरा चित्र प्रस्तुत करने में सफल हुई है। सार्वजानिक सभाओं के बैनर सफेद कपड़े पर नील से लिखकर ही तैयार किए गए हैं और चारपाई बाण की ही बुनी हुई है। बायोस्कोप के विषय में उस समय की धारणा; गलियों में बीन बजाते जोगी; पोषमपा, खो-खो और पिट्ठू गरम जैसे खेल, चौपाल पर हुक्का गुड़गुड़ाता बुढ़ापा, गालियों में हुड़दंग करते बच्चे और ऐसी दर्जनों बारीकियों ने परदे पर हरियाणवी संस्कृति को जीवंत कर दिया है। बर्तन से लेकर रपट वाली जूतियों तक, कहीं भी किसी चूक की गुंजाइश नहीं दिखाई देती।
ग्रामीण जीवन का दर्द भी मसखरा होता है -यह तथ्य रात मे पति को खाना खिलाती निर्धन गृहिणी के ठहाके में पूरी ताक़त के साथ गूँजता महसूस हुआ। ग़रीबी ने जिसकी बोली का रस सोख लिया था, वो माँ भी जब अपने पति को अपने मनमौजी बेटे से नरमी से पेश आने को कहती है तो दर्शकों की आह, सिसक कर पूरे हॉल को नम कर देती है। गूंगे बाबा तक की फूली हुई साँसें फिल्म की कहानी में बड़े सलीके से पिरो दी गई हैं। किसी शिष्य का गुरु के प्रति समर्पण दिखाने के लिए 'लाठी' का जो इस्तेमाल किया गया है, वह संवेदना यह स्पष्ट करती है कि पण्डित लखमीचंद जैसे दार्शनिक कवि पर फिल्म बनाने के लिए 'दादा लखमी' फिल्म का फ़िल्मकार पूरी तरह सक्षम है।
फिल्म में सांग का संगीत अपनी पूरी भव्यता के साथ उतरा है। उत्साह में अत्याधुनिक वाद्य प्रयोग करने से एक सच्ची कहानी भी, बनावटी लग सकती थी -शायद यही सोचकर संगीत तैयार करते समय कहानी के काल और स्थान का पूरा ध्यान रखा गया है। और हाँ, ताशे भी बजे हैं तो उनका रूप-रंग वही है, एकदम ओरिजिनल! जिस रागणी का जहाँ प्रयोग किया गया है, वो ठीक उसी जगह के लिए रची गई महसूस होती हैं।
यशपाल शर्मा ने 'मर-मर के हार गए' गीत में जो अभिनय किया है, वह मन को आश्चर्य से और आँखों को आँसुओं से भर गया। मेघना मलिक ने हरियाणवी माँ की भूमिका के साथ शत प्रतिशत न्याय किया है। राजेंद्र गुप्ता ने भी अपने अभिनय के अनुभव को अपने किरदार में सलीके से प्रयोग किया है। किशोर लखमी जब गुरु की आवाज़ से बंधकर खिंचा चला जाता है, उस सीन में गूंगे फकीर का बेलौस नाच मन को घुँघरू कर गया।
थापा, सोहन, बेबे, वैद्य, दीपचंद, राजाराम, फेंकू -हर कलाकार ने अपने किरदार को पूरी शिद्दत से निभाया है। संवेदना, हास्य और करुणा की दीवारों पर फकीरी का छप्पर डालकर उस ढाँचे को जुनून और दिवानगी के रंग में रंगकर यशपाल शर्मा ने उस घरौंदे पर एक तख्ती लटका दी है, जिस पर स्वर्ण अक्षरों में लिखा है- "दादा लखमी"!

✍️ चिराग़ जैन

Wednesday, November 9, 2022

सीता की पाती राम के नाम

मुझको तो वन में रहने का काफी है अभ्यास सुनो 
लेकिन तुमने दे डाला है ख़ुद को कितना त्रास सुनो

तुमने त्याग दिया है मुझको, पर मुझमें बाक़ी हो तुम
मैं तुमको संग ले आई हूँ, कितने एकाकी हो तुम
मुझको बस वनवास दिया है, ख़ुद को कारावास सुनो
मुझको तो वन में रहने का काफी है अभ्यास सुनो

कैसे जनता सिंहासन की हर लाचारी समझेगी
दीवारें और छत भी कैसे बात तुम्हारी समझेंगी
थोड़ा दुःख ही साझा करती, रहती मैं यदि पास सुनो
लेकिन तुमने दे डाला है ख़ुद को कितना त्रास सुनो

पहले उससे रण करना था, जिसने हमको कष्ट दिया
अब उसका पालन करना है, जिसने सब सुख ध्वस्त किया
तब वल्कल में शर साधा, अब महलों में संन्यास सुनो
मुझको तो वन में रहने का काफी है अभ्यास सुनो

राजमुकुट ने कब-कब काटा, मैं समझूँ या तुम समझो
इस सौदे में कितना घाटा, मैं समझूँ या तुम समझो
आदर्शों की क्या क़ीमत है, मुझको है आभास सुनो
मुझको तो वन में रहने का काफी है अभ्यास सुनो

छोड़ चलूँ इस राजमहल को, ख़ुद से कहते तो होंगे
मुस्कानों के पीछे छिपकर, आँसू बहते तो होंगे
पर मर्यादा ही जीतेगी, है मुझको विश्वास सुनो
क्योंकि तुमने दे डाला है ख़ुद को इतना त्रास सुनो 

मेरी पीड़ा ले जाएगी मुझको माँ के आँचल तक
तुम जलता मन ले जाओगे इक दिन सरयू के जल तक
साँसों के उस पार मिलेगी हमको सुख की साँस सुनो 
क्योंकि तुमने दे डाला है ख़ुद को इतना त्रास सुनो 

✍️ चिराग़ जैन

Friday, November 4, 2022

कविता सुनने की तमीज़

शेर कहने का सलीक़ा तो ज़रूरी है मगर 
शेर सुनने के भी आदाब हुआ करते हैं 

कविता सुनने वाले अगर कविता की हर पंक्ति से प्रस्फुटित रश्मियों के पीछे दौड़कर अर्थ के असंख्य बिम्ब देख पाएं तो कविता-पाठ करने वाले को आनंद आ जाता है। कवि की भावभूमि का पर्यटन यदि श्रोता न कर पाए, तो कविता-पाठ नाद बनने की बजाय शोर बनकर रह जाता है। 
लेकिन बीते बुधवार अर्द्ध-चंद्र की संतुलित चांदनी में गुलाबी सर्दी की मीठी बयार के बीच, कविता के लिए सर्वाधिक उपयुक्त बैठक में सुनाने वालों को भी सुनने वालों से कम आनंद नहीं आया होगा। 
यूँ समझ लीजिए कि खेत से निकलकर फसल मंडी में बिकने की बजाय बीज बन रही थी। श्रोता दीर्घा में श्रीमती ममता कालिया, डॉ सरिता शर्मा, गुणवीर राणा,
श्लेष गौतम, सुदीप भोला, राजीव राज, निकुंज शर्मा, रामायण धर द्विवेदी, स्वयं श्रीवास्तव, ज्ञान प्रकाश आकुल, गौरव दुबे, शिखा दीप्ति, शंभू शिखर, रमेश मुस्कान, मध्यम सक्सेना, ओम निश्छल, कुमार संजाॅय सिंह, सुमित अवस्थी, अरुण महेश्वरी, विमल त्यागी, आयुष और अदिति सरीखे सावचेत मन विद्यमान हों। काव्यपाठ के लिए कबीरी तेवर के यश मालवीय जी हों, किशन सरोज सरीखी गीतता से युक्त विनोद श्रीवास्तव जी हों और ऑलपिन पर शहद लगाने का हुनर रखने वाले शायर इक़बाल अशहर हों। संचालन के माइक पर कविता तिवारी हों। व्यवस्था को चाक चौबंद रखने के लिए प्रवीन पाण्डेय जैसे कुशल व्यवस्थापक हों और इस पूरे वृत्त के निर्माण का केन्द्रबिन्दु डॉ कुमार विश्वास का सम्मोहक व्यक्तित्व हो तो ऊर्जा और आनंद के लिए वहाँ घटित होना स्वाभाविक था। 
इस महफ़िल में हर पंक्ति पर प्रतिक्रिया थी। आँसू को भी कविता बना लेने वाले ये श्रोता कभी दर्द में डूबी हुई किसी ग़ज़ल पर ठठाकर हँस पड़ते थे, तो कभी किसी आनंद की अभिव्यक्ति को सुनकर उस आनंद के पार्श्व में विराजित टीस पर त्राटक करने लगते थे। कभी मिसरा-ए-सानी की अदायगी से पहले ही किसी चुटकी से महफ़िल में ठहाका गूँज जाता था तो कभी किसी गीत-सूक्ति पर कोई दो श्रोता आँखों ही आँखों में हज़ारों बातें कर गुज़रते थे। लेकिन श्रोता दीर्घा की यह जीवंतता कविता-पाठ के लिए व्यवधान न होकर संगत बनी जाती थी।
बहुत दिन बाद ऐसे कविता सुनी, जैसे आज से एक दशक पहले मंच पर बैठकर हम और हमारे वरिष्ठ सुनते थे। जीवंतता और आनंद की कोई कमी नहीं होती थी, प्रत्युत्पन्नमति के अस्त्र से कविता पाठ कर रहे कवि के साथ थोड़ी छेड़छाड़ और शरारत भी हो जाती थी लेकिन इस सबसे काव्यपाठ में व्यवधान नहीं होता था। लोगों का मानना है कि उस दिन केवी कुटीर में अच्छा कवि होने की झलकी दिखाई गई, जबकि मुझे लगता है कि इस कार्यक्रम की श्रोतादीर्घा वाले कैमरे को मास्टर बनाकर एडिटिंग की जाए तो दुनिया समझ पाएगी कि- "देखो, ऐसे सुनी जाती है कविता!"

✍️ चिराग़ जैन 

Sunday, October 30, 2022

याद का गीत

याद ने इक रेशमी-सा जाल फिर फैला लिया है 
मन ज़रूरी काम सारे छोड़कर है गुम 
याद फिर से आ रही हो तुम 

त्यौरियां चिन्ताओं का बोझा सम्भाले फिर रही हैं 
चेतना बरसों पुराने हर्ष में उलझी हुई है 
हाथ में तो ढेर सारे काम हैं आधे-अधूरे 
उंगलियाँ केवल तुम्हारे स्पर्श में उलझी हुई हैं 
याद के उस छोर पर बाँहें पसारे तुम खड़ी हो 
सज रही तुम पर वही कुमकुम 
याद फिर से आ रही हो तुम 

फिर तुम्हारी देह का मकरंद मन में घुल रहा है 
आह, मेरे ओंठ आपस में अचानक गुंथ गए हैं 
साँस बढ़-चढ़कर स्वयं सिसकारियाँ बनने लगी हैं 
नैन फिर आनन्द की हद तक पहुँच कर मुंद गए हैं 
कान में एहसास का संगीत गूंजे जा रहा है 
सज उठी फिर याद की अंजुम 
याद फिर से आ रही हो तुम 

✍️ चिराग़ जैन 

Saturday, October 8, 2022

देह और प्राण

देह के कष्ट से जिनको परहेज है
प्राण का सुख उन्हें मिल सकेगा नहीं
संकुचित ही रहेगी अगर पाँखुरी
कोई गुल बाग में खिल सकेगा नहीं

सत्य है, जो खिले वो सभी एक दिन
पत्ती-पत्ती चमन में बिखर जाएंगे
पर बिखरने के डर से जिन्होंने सुमन
बंद करके रखा वो भी मर जाएंगे
प्रेम पिंजरा अगर बन गया तो तुम्हें
प्रेम का साथ भी झिल सकेगा नहीं

देह की पीर के पार आनंद है
भोग में, योग में, जोग में हर जगह
जो भी सुविधा जुटाते रहे काय की
वो घिरे हैं किसी रोग में हर जगह
देह के नेह में प्राण घुट जाएंगे
हो तुम्हें कुछ भी हासिल सकेगा नहीं

✍️ चिराग़ जैन

Monday, September 26, 2022

गिरगिट का कष्ट

नेता से अपनी तुलना का रिवाज 
गिरगिट को बहुत खलता है 
गिरगिट केवल संकट देखकर रंग बदलता है 
नेता तो अवसर देखकर रंग बदलता है। 

✍️ चिराग़ जैन

Saturday, September 24, 2022

राजू श्रीवास्तव की अंत्येष्टि

आर्टिस्ट ग्रीन रूम में तैयार था मगर
इस ज़िन्दगी ने मंच का परदा गिरा दिया

जिजीविषा की लम्बी लड़ाई लड़ने के बाद ठहाके का हिचकी में तब्दील होना यकायक पलकें नम कर गया। ऐसा लगा ज्यों किसी ने अचानक हमारे बिल्कुल आसपास की रौनक को वीराने में बदल दिया हो। मृत्यु को बहुत नज़दीक से देखा है, इसलिए भयभीत तो नहीं हुआ लेकिन विरक्ति का एक आश्चर्यबोध मन में अवश्य भर गया।
इस ख़बर को सुनने के बाद स्वयं से देर तक वाद-विवाद हुआ। क्या हम कलाकारों का संघर्ष कभी यह विश्व समझ पाएगा? क्या सफलता-विफलता के मध्य खड़े एक कोरे मनुष्य के ललाट का लेखा पढ़ने की फ़ुरसत कभी इस जगत् को मिल सकेगी? ट्रेड मिल पर दौड़कर स्वयं को सुदर्शन बनाए रखने की क़वायद हमें क्यों करनी पड़ती है, क्या इस प्रश्न का उत्तर यह दुनिया कभी ख़ुद से मांगेगी?
दिल्ली के निगम बोध घाट पहुँचा तो राजू भाई की अंत्येष्टि में भारी भीड़ थी। इस हुज़ूम में दस प्रतिशत मीडियाकर्मी थे, जो दुनिया को अलविदा कहकर जा रहे कलाकार की अंतिम यात्रा की कुछ फुटेज जुटाने के उद्देश्य से वहाँ उपस्थित थे। दस प्रतिशत कुटुम्बीगण थे, जिनके भीतर का रीतापन माप पाना उस दिन किसी पैमाने के वश में नहीं था। पन्द्रह-बीस प्रतिशत मित्र, सहकर्मी तथा प्रशंसक रहे होंगे, जो किसी साथी के छूट जाने की अंतिम छुअन को अनुभूत करने वहाँ पहुँचे थे।
इसके अतिरिक्त शेष सभी वहाँ एक साथ कई सारे सेलिब्रिटीज़ के साथ सेल्फ़ी खिंचाने का अवसर भुनाने पहुँचे थे। मसान के भयावह सत्य में एक ओर फूलों से सजी गाड़ी में से दिवंगत राजू श्रीवास्तव का पार्थिव शरीर उतारा जा रहा था और दूसरी ओर ‘अबे देख सुरेन्दर शर्मा’; ‘ओए वो देख अशोक चक्रधर’ की उत्सुक प्रसन्नता ज़ाहिर करते हुए लोग अपने स्मार्टफोन में तस्वीरें उतारने में व्यस्त थे।
एक बार तो मुझे लगा कि डिजिटाइज़ेशन ने मृत्यु की भयावहता को घिनौना भी बना दिया है। लेकिन फिर समझ आया कि एक आमजन के जीवन में कलाकार का कुल अस्तित्व मनोरंजन की एक रात या सेल्फी के एक अवसर से अधिक कुछ नहीं है। मैं भीड़ से दूर एक बेंच पर बैठा सब कुछ देख रहा था, कोई मेरे साथ फोटो खिंचाने आया भी तो मैंने अपने विरक्तिसिक्त मन से उसकी इच्छा पूरी कर दी।
एक ओर मंत्र पढ़े जा रहे थे, दूसरी ओर कुछ जोशीले युवा ‘राजू भाई अमर रहें’ के नारे लगा रहे थे। एक तरफ़ कुछ आँखें भीग रही थीं, दूसरी ओर कुछ चेहरों पर इस बात की ख़ुशी थी कि कितने सारे सितारे इतनी आसानी से मिल गए।
इस आसानी की क़ीमत चुकाकर राजू भाई चिता पर लेट चुके थे। शो-बिज़ का भौंडा दिखावा ज़ारी था। छोटे-मोटे कलाकार भरे मन से इस दिखावटी दुनिया में होने का मूल्य अदा कर रहे थे और असली फनकार चिता की लपटों में लिपटा हवा हुए जा रहा था। चिता के धुएं से हवा में कुछ आकृतियाँ उभर रही थीं, मानो ठहाकों का शहंशाह हवा की मिमिक्री करता हुए दूसरे लोक में जा रहा हो...!

✍️ चिराग़ जैन

Thursday, September 1, 2022

नकारात्मकता भी आवश्यक है

नकारात्मक और सकारात्मक दोनों से मिलकर ही सृष्टि संचालित होती है। हमने नकारात्मकता को ‘ग़लत’ का पर्यायवाची समझकर बड़ी भूल की है। नेगेटिव और पॉजिटिव में से कोई भी एक तार हटा दो तो विद्युत अवरुद्ध हो जाएगी। संचरण यकायक रुक जाएगा। इसीलिए महावीर कर्म शून्यता की अवस्था को मोक्ष कहते हैं। वे पुण्य और पाप, दोनों से मुक्ति पर बल देते हैं। बहीखाते में डेबिट बचे या क्रेडिट, दोनों ही अवस्था में खाता शेष रहेगा। इसलिए एट पार जाना है। ज़ीरो बैलेन्स। न लेनी, न देनी।
लेकिन हमने लाभ को शुभ और हानि को अशुभ समझना शुरू कर दिया। यकायक देखने में हानि अशुभ लग भी सकती है। किंतु जो ठहरकर देखेगा वह जान सकेगा कि लाभ भी कम अशुभ नहीं है। यही लाभ तो हानि के भय का जनक है। आपके पास कुछ होगा ही नहीं तो लुटेरा लूट कर क्या ले जाएगा। उसे ख़ाली हाथ लौटना पड़ेगा। इसलिए महावीर ख़ाली हाथ हो जाने पर बल देते हैं। दिगंबर। नाम, गोत्र, जाति, कुल सभी अहंकार से शून्य।
लेकिन हमने प्राप्ति को सकारात्मक मान लिया। नकारात्मकता और सकारात्मकता हमारी क्षुद्र बुद्धि से उपजे विशेषण हैं। अग्नि के प्रज्वलित होने पर एक व्यक्ति ने उसमें विध्वंस की आशंका देख ली और दूसरे ने प्रकाश की संभावना। बस यही है नकारात्मकता और सकारात्मकता। लेकिन ये दोनों ही सत्य हैं। नकारात्मकता का अर्थ असत्य नहीं है। अग्नि भस्म कर सकती है यह भी उतना ही सत्य है जैसे अग्नि के प्रकाश उत्पन्न करने की बात। और अग्नि को ‘केवल’ प्रकाश का स्रोत मानने वाला भी उतना ही अल्पज्ञ है, जितना उसे केवल ध्वंसक मानने वाला है। ब्लकि अग्नि को केवल रौशनी माननेवाला अधिक बड़ा मूढ़ है। यदि वह अग्नि के ताप को न समझा तो स्वयं को झुलसा बैठेगा। फिर कोई सकारात्मकता काम न आ सकेगी। इसलिए समग्र देखना होगा। इसीलिए सर्वज्ञ होना होगा। किसी एक आयाम को नकारात्मक कहकर नकार देना तुम्हारे आत्मघाती होने की सूचना है। इसी को जैन ग्रंथों ने स्याद्वाद कहा है। यही अनेकांत है।
सत्य की खोज में किसी एक तथ्य से मोह लगा लिया तो गए काम से। समष्टि की राह में व्यष्टि पर अटक गए तो फिर कहीं न पहुँच सकोगे। ‘तेन त्यक्तेन भुंजीथा’ इसीलिए आवश्यक है। जीवित रहना है तो साँस तो लेनी ही होगी। लेकिन साँस से मोह कर लिया तो जी न सकोगे। साँस ली है तो उच्छ्वास अपरिहार्य हो जाएगी। आप प्रयास करके भी उसे रोक न सकोगे। थोड़ी देर रोक भी लिया तो दम घुटने लगेगा। फेफड़े चंद सेकेंड में ही थकने लगेंगे। आँखों में प्राण उतर आएंगे। नथुनों में भीतर का सारा संघर्ष इकट्ठा हो जाएगा। फिर कोई चारा न रहेगा। फिर साँस छोड़नी ही पड़ेगी। और जिस क्षण छोड़ दिया, ठीक उसी क्षण जो अनुभूति होगी वह सुख है।
आपने एक अटकाव को छोड़ना स्वीकार किया और आपको एक क्षण का सुख मिल गया। यही कारण है कि जिसके भीतर संन्यास घटित हुआ उसने सारा अटकाव छोड़ दिया। फिर उसके चेहरे पर सुख नहीं आनंद की आभा दमक उठी।
इस दमक में ध्वंस नहीं, केवल रौशनी है। यह अग्नि को सम्पूर्ण जान लेने से सम्भव हुई। यह नकारात्मकता और सकारात्मकता को समभाव से देखने के बाद घटित हुई। इसीलिए उन्होंने जो त्यागा उससे भी घृणा नहीं की। लेकिन हम सोच रहे हैं कि जो त्याग दिया वह घृणित ही होगा। वे तो स्याद्वाद के अन्वेषक थे। घृणा और मोह, दोनों ही की फ़ुरसत नहीं थी उनके पास।
‘बनाकर फकीरों का हम भेस ग़ालिब, तमाशा-ए-अहल-ए-करम देखते हैं’ -जीवन का लुत्फ़ लेना है तो उसे तमाशा समझकर देखना होगा। उसमें कुछ बदल देने की इच्छा जगी और आप बंदर की तरह गुलाटी मारने लगते हो। कर्ता भाव जगा और आप अतिथि से मजदूर हो गए। यह ऐसा ही है ज्यों कोई फिल्म देखने जाए और उसे खलनायक से नफ़रत हो जाए। फिर वह फिल्म नहीं देख सकेगा। फिर वह ख़ुद फिल्म बन जाएगा। सिनेमाघर में बैठे लोग पर्दे से दृष्टि हटाकर उस पर टिका लेंगे। वह होगा भी बहुत मज़ेदार। ज्यों ही पर्दे पर खलनायक आएगा, वह दोनों हाथों से कसकर कुर्सी के हत्थे पकड़ लेगा। उसके जबड़े भिंच जाएंगे। वह आवाज़ लगाकर नायक को खलनायक की चाल बताने की कोशिश भी कर सकता है। वह नायक को ऑर्डर भी दे सकता है कि ‘मार साले को!’ यह व्यक्ति अन्य लोगों को बड़ा हास्यास्पद प्रतीत होगा। क्योंकि यह व्यक्ति पर्दे को सत्य और स्वयं को निर्देशक समझ बैठा है।
ठीक यही भूल हम अपने जीवन में कर रहे हैं। हम ख़ुद को कर्ता मान बैठे हैं और अपने आसपास के लोगों को नायक और खलनायक मानकर उनके प्रति मोह और घृणा से भरे बैठे हैं। जिस क्षण हमने यह समझ लिया कि नकारात्मक और सकारात्मक तो केवल भूमिका हैं। हमें भूमिका की नहीं अभिनय की प्रशंसा करनी सीखनी होगी। निर्देशक ने जिसे जो भूमिका दी, वह उसे कितनी साकार कर पाता है, यह एक अभिनेता के आकलन का आधार है।
शोले फिल्म से गब्बर की भूमिका बदल कर देखिये। पूरी फिल्म फ्लॉप हो जाएगी। गब्बर का क्रूर होना ठाकुर के प्रतिशोध को नायकत्व प्रदान करता है। अन्यथा गब्बर सीधा-सादा काश्तकार हो और ठाकुर दो कुख्यात बदमाशों को उसकी सुपारी देता तो ठाकुर की शक़्ल तक से नफ़रत हो सकती थी। लेकिन गब्बर की बर्बरता ने जय-वीरू के सुपारी किलिंग जैसे अपराध को जस्टीफाई कर दिया।
इसलिए नकारात्मकता और सकारात्मकता, दोनों ही कहानी को चलाने के लिए आवश्यक हैं। इसमें सही-ग़लत तलाशने वाले कुर्सी पर उछलता हुआ वह दर्शक है जिसकी हरकतें देखकर पूरा सिनेमाघर ठहाके लगा रहा है।

✍️ चिराग़ जैन

Wednesday, August 31, 2022

गणपति : एक जीवनशैली

गणेश... बुद्धि के अधिपति।
गणेश... रिद्धि-सिद्धि के स्वामी।
गणेश... शुभ-लाभ के पिता।
गणेश... संतोषी के जनक।
भारतीय पौराणिक साहित्य में गणेश अद्वितीय हैं। गणेश जी को लेकर जो प्रतीक विधान गढ़ा गया है वह लक्षणा नहीं, विलक्षण है।
पाराशर ऋषि के आश्रम को विनष्ट करने वाले मूषक को ‘कुतर्क’ का प्रतीक मानकर ‘बुद्धि’ के देव द्वारा उसको परास्त करने की कथा, चातुर्य तथा हास्यबोध से परिपूर्ण है। पराजित मूषक अपने विजेता गणेश से कहता है कि वर मांगो। उसकी इस धृष्टता पर गणेश क्रुद्ध नहीं होते, अपितु हँस पड़ते हैं। क्रोध आ गया होता तो वध कर दिया होता मूषक का। किंतु बुद्धि के अधिपति हैं, सो क्रुद्ध न हुए... खिलखिला उठे। मूषक की धृष्टता को एक खिलखिलाहट से ओछा बना दिया। मूषक आश्वस्त रहा होगा कि मैं ऐसा अनापेक्षित आचरण करूंगा तो क्रोध आ ही जाएगा। लेकिन गणेश ने उसके अनुमान को असत्य कर दिया। और इतना ही नहीं, उससे वर भी मांग लिया। और वर भी ऐसा जिसका कुतर्की को अनुमान तक नहीं हो सकता। लेकिन गणेश बुद्धिमान हैं। वे कुतर्की को कुतर्क से घेरने में निष्णात हैं। वे मूषक की धृष्टता से क्रुद्ध होकर उस पर वार करने की बजाय उस पर सवार हो जाने का वर मांग लेते हैं। यह कथा हमें यह सिखाना चाहती है कि यदि शत्रु अपनी धूर्त बुद्धि की क्षमता से तुम्हें परास्त करना चाहे तो तुम अपनी बुद्धिमत्ता से उसे उसकी हीनता का बोध करा दो। गणपति ने धूर्त हुए जा रहे मूषक को तुरंत उसकी काया की क्षुद्र अवस्था याद दिला दी और हमेशा के लिए उसके ऊपर सवार हो गए।
गणपति स्वयं में एक प्रेरणा हैं। प्रत्येक असंभव को सम्भव बना देने का उपाय हैं। गणेश से जुड़ी प्रत्येक कथा सतर्क और सविवेक हो जाने का आह्वान है। समान्य नियमों के पार जाकर जीवन की संभावना तलाशने का मार्ग हैं गणेश। परिस्थिति का सम्मान करते हुए स्वयं को ढाल लेने का कौशल हैं गणेश।
गणपति अपने इसी गुण के कारण प्रथम पूज्य हैं। कैसा भी आयोजन हो, कैसा भी विधान हो, कैसी भी आवश्यकता हो... गणेश तो एडजस्ट हो ही जाएंगे। बाकी देवताओं को निमंत्रण देने से पूर्व अवसर का विचार करना पड़ेगा। बाकी सब देवता प्रकृतिस्थ हैं किंतु गणेश प्रकृत्यातीत हैं। वे हेय से सृजित हैं। वे मानव देह पर पशु का सिर सम्भव कर लेते हैं। वे मोदक भी खाते हैं और उन्हें दूर्वा भी प्रिय है। वे अद्भुत हैं। वे अद्वितीय हैं। वे यंत्रवत महाभारत लिखकर एक ऐसे भाव का उदाहरण प्रस्तुत करते हैं, जिसमें लेखक अपनी बुद्धि, अपने विचार, अपनी सोच का हस्तक्षेप किए बिना चिंतक के आशुलिपिक बनना सम्भव हो सके।
गणपति का रूप एक जीवन शैली का दर्शन है। गणपति स्थापना से विसर्जन तक की सम्पूर्णता हैं। गणपति अनन्त हैं, यही कारण है उनका जाना भी उनके आने की आशा जगाता है। इसीलिए हम गणपति को यह कहकर विदा करते हैं कि ‘अगले बरस तू जल्दी आ!’

✍️चिराग़ जैन

Tuesday, August 30, 2022

शैलेन्द्र की याद

नोबेल पुरस्कार विजेता रूसी लेखक एलेक्जेंडर सोल्ज़ेनित्सिन का एक उपन्यास है- ‘द कैंसर वार्ड’। इस उपन्यास में एक स्थान पर कैंसर वार्ड में भर्ती एक रोगी की पीड़ा को देखकर, उसका मन बहलाने के लिए नर्स एक गाना गाती है। गीत के बोल थे- ‘आवारा हूँ, आवारा हूँ, या गर्दिश में हूँ आसमान का तारा हूँ।’
यह उद्धरण आज इसलिए प्रासंगिक है कि इस गीत के रचयिता शंकरदास केसरीवाल ‘शैलेन्द्र’ की आज जयंती है। 43 वर्ष के कुल जीवन में लगभग 800 गीतों से हिंदी सिनेमा को समृद्ध करनेवाले इस कवि का जीवन किसी फिल्मी कहानी से कम नहीं।
बचपन में माँ की मृत्यु हो गयी। स्वास्थ्य कारणों से पिता रावलपिंडी का काम-धंधा छोड़कर मथुरा आ बसे। पिता की बीमारी ने आर्थिक स्थिति ऐसी कर दी कि भूख मारने के लिए शैलेन्द्र और उनके भाइयों को जबरन बीड़ी पिलाई जाती थी। यही ग़रीबी इलाज के अभाव में उनकी इकलौती बहन को लील गई।
रेलवे में नौकरी मिली तो लेखन और नौकरी के बीच संघर्ष छिड़ गया। खुद्दारी ऐसी कि राजकपूर को यह कहकर लौटा दिया कि मैं पैसों के लिए नहीं लिखता।
परिस्थितियाँ जब किसी सिद्धांतवादी को झुकाने कि ठान लेती हैं तो उसके परिजनों को दाँव पर लगाती हैं।
पत्नी गर्भवती थी और परिवार की आर्थिक आवश्यकताएँ बढ़ रही थीं। विपन्नता के अभिशाप से अपनों को खो चुके शैलेन्द्र ने अपने सिद्धांतों की लक्ष्मण रेखा लांघकर फ़िल्मों में गीत लिखना स्वीकार किया। ‘बरसात में हमसे मिले तुम सजन’ से प्रारम्भ हुआ यह सफ़र ‘जीना यहाँ मरना यहाँ’ की आखि़री संवेदना तक जारी रहा।
14 दिसंबर 1966 को जब इस रचनाकार ने दुनिया से मुँह फेरा तब इसके दिल में ‘तीसरी कसम’ की विफलता का विषाद और लिवर में ‘लिवर सिरोसिस’ का रोग तो था ही, साथ ही अपनों के द्वारा छले जाने का क्षोभ भी था। संवेदनशील व्यक्ति किसी पर बहुत आसानी से विश्वास कर लेता है। अपनी निश्छलता की लत के चलते बहुत आसानी से किसी के भी सामने अपना मन खोलकर रख देता है। वह व्यापार में भी संवेदना तलाशने की भूल करता है और शुद्ध व्यावसायिक लोग उसकी संवेदनशीलता का लाभ उठाकर उसके विश्वास की हत्या करते रहते हैं।
जो लोग यह समझते हैं कि शैलेन्द्र की मृत्यु 14 दिसंबर 1966 को हुई, वे केवल स्थूल दृष्टि से शैलेन्द्र को देख पाते हैं। संवेदनशील व्यक्ति जब छला जाता है, तो चला जाता है।
बाद में लोगों ने ‘तीसरी कसम’ को सेल्युलायड पर लिखी कविता कहा। बाद में लोगों ने शैलेन्द्र को सदी का कवि कहा। बाद में आलोचकों ने उन्हें संत रविदास के बाद सबसे महत्वपूर्ण दलित कवि बताया। बाद में भारत सरकार ने शैलेन्द्र के नाम पर पूरे 5 रुपये का डाक-टिकट भी जारी किया। बाद में ‘तीसरी कसम’ मास्को अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में शामिल होकर भारत का गौरव बन गई। लेकिन बाद में हुए इस आकलन से ख़ुश होने के लिए जीवित न थे, शैलेन्द्र। व्यावसायिक छल और अपनत्व की अवसरवादिता से उत्पन्न पीड़ा से व्यथित होकर ‘मारे गए गुलफाम’।

✍️ चिराग़ जैन

Friday, August 12, 2022

मेरी मौत की ख़बर

एक रात
एक न्यूज़ चैनल
स्पीड की सारी हदें पार कर गया
न्यूज एंकर ने
मेरे टीवी पर
मुझे ही बताया कि मैं मर गया

नेशनल चैनल की न्यूज़ थी
इसलिए संदेह भी नहीं कर सकता था
और मीडिया का इतना सम्मान करता हूँ
कि इस ख़बर को सच साबित करने के लिए
मैं सचमुच मर सकता था

मैंने भी एक झटके में
दुनिया के हर तेज़ चैनल को बीट कर दिया
और अपने ट्विटर हैंडल से
अपनी ही आत्मा की शांति का ट्वीट कर दिया

अब क्या था
मेरी अच्छाइयों की चर्चा
हर फेसबुक फ्रेंड करने लगा
डेढ़ घंटे में ही RIP CHIRAG का हैशटैग
सोशल मीडिया पर ट्रेंड करने लगा

मेरे बारे में ऐसी-ऐसी बातें लिखी गईं
जिनके बारे मैं मैं ख़ुद नहीं जानता था
उस दिन मैंने लगभग डेढ़ सौ ट्वीट उन अजनबियों के पढ़े
जिन्हें मैं अपना भाई मानता था

उस दिन मुझे पता चला
कि मैंने
अपनी हर नयी कविता को
किस-किस से ठीक करवाया
ढाई सौ लोग ऐसे मिले
जिन्होंने मदद करके 
मेरा एक कमरे का मकान बनवाया

उस दिन हर इंसान के
बदले हुए किरदार दिख रहे थे
जो मुझसे उधार लिए बैठे हैं
वो भी मुझे कर्ज़दार लिख रहे थे

उस दिन इतनी ऊँची-ऊँची छोड़ी गई
कि छोड़ने वाले ख़ुद ही नहीं पकड़ पाए
तीन सौ लोगों ने मुझे उंगली पकड़ कर मंच पर चढ़ाया
और उनमें से ढाई सौ तो ख़ुद नहीं चढ़ पाए

एक ने तो यहाँ तक लिखा
कि मुझे हिन्दी का व्याकरण ही उससे 'सिखा'

वो बहुत प्रतिभाशाली था
वो बहुत अच्छा था
हमेशा खरा बोलता था
मंच पर जादू करता था
हर ओर मेरे सद्गुणों की चर्चा ख़ूब होने लगी
कॉपी-पेस्ट टाइप की श्रद्धांजलियां पढ़-पढ़कर
मुझे मरने से ऊब होने लगी

जब लोगों ने मेरी बर्दाश्त से ज़्यादा
मेरा महिमामंडन कर दिया
तो मैंने अपने मरने की ख़बर का खण्डन कर दिया

खण्डन की ख़बर से
एक ओकेजनल फ्रेंड सचमुच उदास हो गया
कितनी मेहनत से श्रद्धांजलि की पोस्ट लिखी थी
तेरह सौ लाइक्स भी आ गए थे
सारी माइलेज का सत्यानाश हो गया

एक रिश्तेदार ने गुस्से में फोन किया
ये क्या तरीक़ा है भाईसाहब
पहली बार तो आपकी मौत की न्यूज़ मिली थी
वो भी झूठ हो गयी
आपकी तो शोकसभा तक हूट हो गई
मैंने तो तेरहवीं के लिए
हलवाई भी बुक करवा दिया है
भाईसाहब आपने नहीं मर के
मुझे मरवा दिया है

एक ने तो गुस्से में यहाँ तक कह डाला
फिर बच गया साला।

थोड़ी ही देर में मैं जान चुका था
कि आज की दुनिया में
मौत की ख़बर का भी
मल्टिपल यूज़ है
ऐसी हर ख़बर
किसी के लिए पोस्ट
किसी के लिए ट्वीट
और किसी के लिए ब्रेकिंग न्यूज़ है

हम लोगों को एक-दूसरे के मर जाने का इंतज़ार है
ज़िंदा बच जाने का डर है
संवेदना की लाश पर खड़े लोगों के लिए
अब मौत भी एक अवसर है

✍️ चिराग़ जैन

जैन समाज और भारत

भारत की स्वाधीनता के दो पक्ष हैं- शौर्य तथा अहिंसा। इन दोनों के सर्वश्रेष्ठ उदाहरण जैन समाज में मिलते हैं। क्रांति की मशाल लेकर सीने पर लाठी खानेवाले लाला लाजपत राय से लेकर महात्मा गांधी को अहिंसा की शिक्षा देनेवाले श्रीमत् रायचंद्र तक जैन बंधुओं का योगदान सर्वसिद्ध है।
इतिहास टटोलने लगें तो दीवान टोडरमल द्वारा सरहिंद में ऐसा इतिहास रच दिया गया, जिसकी अन्य कहीं कोई मिसाल नहीं मिलती। उधर भामाशाह ने राष्ट्र हेतु ऐसा दान किया कि वे दान करनेवालों की उपमा नहीं, अपितु उपाधि बन गए। और पीछे जाएं तो राजा भोज, चंद्रगुप्त मौर्य, सम्राट बिम्बिसार और अशोक महान जैसे नक्षत्र आज तक भारतीय इतिहास की आकाशगंगा में अपनी दीप्ति के साथ विद्यमान हैं।
साहित्य की वीथियों में झांकने लगे तो बनारसीदास, जैनेन्द्र कुमार, यशपाल जैन, तारक मेहता और कन्हैयालाल जी सेठिया सरीखे वटवृक्षों की हरीतिमा से मन प्रसन्न हो उठता है।
एक ओर दर्शन में ओशो, अध्यात्म में चन्द्रास्वामी और विज्ञान में विक्रम साराभाई सरीखे उदाहरण उपलब्ध हैं तो दूसरी ओर फिल्म जगत में वी शांताराम, रवीन्द्र जैन, कल्याणजी वीरजी शाह, ताराचंद बड़जात्या और संजय लीला भंसाली जैसे हस्ताक्षर चार चांद लगाते दिखाई देते हैं।
प्रथम विश्व धर्म सम्मेलन में भारत की ओर से भाग लेने वाले वीरचंद गांधी ने भारतीय दर्शन को विश्व के सम्मुख रेखांकित किया। भारतीय समाजसेवी हस्तियों की सूची वीरेन्द्र हेगड़े के नाम के बिना पूरी नहीं हो सकती।
उद्योग जगत् में सेठ हुकुमचंद, साहू शांतिप्रसाद जैन, साहू रमेश चंद जैन और गौतम अडानी, सरीखे उल्लेखनीय व्यक्तित्व जैन समाज से संबद्ध हैं। क्रिकेट की पिच दिलीप दोषी और रवीन्दु शाह, से सुशोभित हुई तो राजनीति के मैदान में सुन्दरलाल पटवा, लक्ष्मी मल्ल सिंघवी, विजय रुपानी और प्रदीप जैन ‘आदित्य’ ने जैन परिवार से मिले संस्कारों को साधते हुए सफलता प्राप्त की।
भारतीय व्यंजनों के आधार पर सर्वाधिक सफल रेसिपी शो बनाने वाली तरला दलाल और यू-ट्यूब के माध्यम से लोकप्रियता के शिखर तक पहुँचने वाली ढिंचक पूजा भी जैन परिवार से आती हैं। फैशन की दुनिया में कल्पना शाह और पायल जैन के नाम अग्रणी हैं।
ऐसे ही और न जाने कितने व्यक्तित्व हैं जो अपने श्रम, ज्ञान तथा प्रतिभा से भारत के ज़र्रे-ज़र्रे की सिंचाई कर रहे हैं।
भारत की स्वतन्त्रता के अमृत महोत्सव के अवसर पर इन सबका योगदान याद करते हुए समस्त जैन समाज की ओर से आपको और अपने आपको भारतीय होने की बधाई प्रेषित करता हूँ।

✍️ चिराग़ जैन

Wednesday, August 10, 2022

दीमक का चारा

जो व्यक्ति घर में फैले कचरे से परेशान है, वह घर से प्यार करता है। उसे यह कहकर ट्रोल नहीं किया जा सकता कि वह हमारे घर को कचरा कहकर हमारी भावनाओं को आहत कर रहा है। 
जो कचरे को देख ही नहीं पा रहा है, वह उसे साफ़ कैसे करेगा? यदि कभी उसे सफाई का अभिनय करना भी पड़ा तो वह अनजाने में घर का ज़रूरी सामान कचरे के दाम बेच देगा। क्योंकि जो लोग उसे सामान और कचरे की पहचान करा सकते थे उनकी आवाज़ को तो उसने घरद्रोही कहकर ख़ामोश कर दिया था। 
जो मेहमान के आने पर कचरे को कोने में दुबकाने में विश्वास करता है, वह घर भर को बदबू से भरने की तैयारी कर रहा है। दीवार के ऊपर चूना पोत देने से भीतर की दीमक ढक जाती है, मरती नहीं है। घर को दीमक मुक्त करने के लिए दीमक की बांबी तक पहुँचना होगा। लेकिन जो भी इस प्रयास में दीवार को खुरचने चला, उसे आपने घरद्रोही कहकर प्रताड़ित किया। उसके हाथ में जो औज़ार थे, उन्हें हथियार सिद्ध करके आपने उसे घर से बहिष्कृत भी करवा दिया। घर के प्रति उसकी सद्भावना को निर्वसन करके निष्कासित कर दिया। 
जिन हाथों में दीमक के उपचार का यंत्र था, वे हाथ अपने चीथड़े सम्भालने में व्यस्त हो गए। उधर दीमक दीवार को खोखला करके बाहर निकलने लगी तो उस शक्तिहीन बहिष्कृत को कोसते हुए आपने दीवार से बाहर निकलते घिनौने बुरादे के आगे कोई शोपीस रख दिया। जब दीमक वह शोपीस भी खाने लगी तो आपने किसी दूसरी दीवार पर घर के किसी पुरखे की तस्वीर टांक दी और घोषित कर दिया कि घर का जो सदस्य इस तस्वीर का सत्कार नहीं करेगा, वह घर द्रोही होगा। 
घरवाले पुरखे की तस्वीर पूजने में व्यस्त हो गए और दीपक पुरखों की विरासत को खोखला करती रही। जब तस्वीर भी दीमक के आगोश में समाने लगी तो सबको अलग अलग तस्वीरें थमा दी गईं।
पुरखों के बनाए घर पर दीमक लगी है और हम अपनी अपनी तस्वीरें लेकर इतरा रहे हैं। जिसने यह दीमक देख ली उसकी आँखें मत फोड़ो। जो रोज़ नया शोपीस रखकर आपको एक कमरे से दूसरे कमरे में टहला रहा है, उसके मन का कपट समझने का प्रयास करो, क्योंकि उसने आपके पूरे घर को दीमक का चारा बना डाला है। 

✍️ चिराग़ जैन 

Sunday, July 24, 2022

पापा का जादू

न कोई ट्रिक है ना तकनीक
पापा जादू से ही सब कुछ कर देते हैं ठीक

दिन भर दुनिया भर के सब आघातों को सहते हैं
रात ढले अपनी दुविधा बस अम्मा से कहते हैं
इतने सीधे-सच्चे हैं हर छल से हिल जाते हैं
जब अपने बच्चों से मिलते हैं तो खिल जाते हैं
झट से ग़ायब हो जाती है चिंताओं की लीक
न कोई ट्रिक है ना तकनीक
पापा जादू से ही सब कुछ कर देते हैं ठीक

छह दिन दफ्तर की चिक-चिक से थककर घर आते हैं
रस्ते से घर की ख़ातिर तरकारी भी लाते हैं
राशन, रिश्ते, आस-पड़ोसी, मंदिर, मेले-ठेले
इतना सब कुछ कर लेते हैं पापा सिर्फ़ अकेले
बिना थके एक्टिव रहते हैं पूरे-पूरे वीक
न कोई ट्रिक है ना तकनीक
पापा जादू से ही सब कुछ कर देते हैं ठीक

गर्मी के मौसम में मैंगो-शेक पिला लाते हैं
सर्दी में मम्मी से गर्म भटूरे बनवाते हैं
मौक़ा मिलते ही हमको पिकनिक पर ले जाते हैं
थोड़े से पैसों में सारी ख़ुशियाँ ले आते हैं
सुख की रोज़ कताई करते रहते हैं बारीक
न कोई ट्रिक है ना तकनीक
पापा जादू से ही सब कुछ कर देते हैं ठीक

नुक्कड़ के हर जमघट से निश्चित दूरी रखते हैं
लेकिन अपने घर की ख़ातिर सबसे लड़ सकते हैं
छुटकी की ट्यूशन के बाहर किस-किसका फेरा है
अख़बारों की हेडिंग के डर ने मन को घेरा है
ख़ुद डरकर भी हम बच्चों को रखते हैं निर्भीक
न कोई ट्रिक है ना तकनीक
पापा जादू से ही सब कुछ कर देते हैं ठीक

हम घबराएं तो हिम्मत का ग्राफ बढ़ा देते हैं
दुनियादारी के आवश्यक पाठ पढ़ा देते हैं
छत पर ले जाकर तारों का लोक दिखा देते हैं
खेल-खेल में जीवन के सब ढंग सिखा देते हैं
कभी कभी बस आँखों से ही दे देते हैं सीख
न कोई ट्रिक है ना तकनीक
पापा जादू से ही सब कुछ कर देते हैं ठीक

हुए रिटायर लेकिन घर के काम बहुत आते हैं
दूर-दूर के रिश्ते-नाते आप निभा आते हैं
ख़ुद जाकर निबटा लेते हैं सब पचड़े सरकारी
भात, सिंदारे, छूछक, मुंडन, श्राद्ध, मनौती सारी
उन्हें पता रहती है अब भी हिंदी की तारीख़
न कोई ट्रिक है ना तकनीक
पापा जादू से ही सब कुछ कर देते हैं ठीक

तेज़ दौड़ती दुनिया से कुछ आगे ही रहते हैं
फुलवारी की चिंता करते जागे ही रहते हैं
तन से बूढ़े हैं पर मन से ख़ूब तने रहते हैं
हब सब बच्चों के सिर पर आशीष बने रहते हैं
पर अब भी रहता है उनका हर अनुमान सटीक
न कोई ट्रिक है ना तकनीक
पापा जादू से ही सब कुछ कर देते हैं ठीक

✍️ चिराग़ जैन 

Saturday, July 23, 2022

मिलियन व्यूज़ का सवाल है रे बाबा!

‘व्यू बढ़ाने के लिए कुछ भी करेंगा‘ -यह वाक्य वर्तमान समाज का मूलमंत्र बन गया है। किसी की औक़ात और हैसियत इस बात से मापी जाने लगी है कि उसे कितने लोग फॉलो करते हैं। दुनिया के तमाम काम लाइक, फॉलो, सब्रक्राइब, शेयर और कमेंट जैसे शब्दों तक सीमित हो गए हैं।
आप कितने भी बड़े योगी हों, अगर आपके सोशल मीडिया फॉलोअर्स नहीं हैं, तो आपका योग किसी काम का नहीं। और अगर आपने किसी तरह से सोशल मीडिया पर स्वयं को योगी सिद्ध कर दिया तो फिर योग की कोई सिद्धि हो या न हो, कोई फर्क़ नहीं पड़ता। इसीलिए सफल योगी बनने के लिए योग करने से अधिक आवश्यक है, ट्वीट करना।
आपकी दुकान चले या न चले, फेसबुक चलती रहनी चाहिए। फेसबुक की एक्टिविटी रुक गयी तो दुकान पर ग्राहकों की भीड़ से कोई लाभ नहीं।
आप वाइल्ड लाइफ सफारी पर जाएँ तो पर्यटक बनकर नहीं, फोटोग्राफर बनकर जाएँ। शेर दिखे तो उसे निहारने की बजाय कैमरा निकालकर जिराफ़ बन जाइए। न जाने कौन-सा क्लिक आपको इंस्टा पर फेमस कर देगा।
रील्स देखो तो समझ आता है कि फेमस होने की इस होड़ में न कोई मर्यादा शेष बची है, न ही कोई हिचक। साठ सेकेंड तक दर्शकों को अपनी रील पर रोके रखने के लिए सारी सीमाएं लांघ दी गईं। कूल्हे मटकाकर दर्शकों का मन नहीं बहला तो नंगी पीठ दिखाकर रोक लिया। इससे भी बात नहीं बनी तो भद्दी गालियाँ देकर फेमस होने निकल पड़ी। आजकल स्कर्ट या फ्राक के नीचे के वस्त्र दिखाने तक को नॉर्मल माना जाने लगा है। 30 सेकेंड की इन वीडियो क्लिप को मिलियन और बिलियन व्यू का आँकड़ा दिलाने के लिए युवतियों ने लज्जा को ब्रेन से ब्लॉक कर दिया है।
पुरुष भी इस अपराध में समान उत्तरदायी है। पूरा-पूरा दिन स्क्रॉल करके रील देखनेवाले अंगूठों की रेखाएँ घिसने लगी हैं। मोबाइल की स्क्रीन में क़ैद हो चुकी आँखों में इतनी रौशनी ही नहीं बची है कि हम अपने समाज पर घिर आए अंधेरे को पहचान सकें। जिस युवा पीढ़ी के हाथों में देश की बागडोर होनी थी उसके हाथ टच स्क्रीन मोबाइल की अदृश्य बेड़ियों से बंधे हुए हैं। अफ़ीम के नशे से तो देश बच गया लेकिन मोबाइल के असीम नशे से बचने का कोई रास्ता नहीं दिखाई दे रहा है।
ट्रेन के आगे लेटने से लेकर अनावश्यक और वीभत्स स्टण्ट करने तक सब कुछ करने की हिम्मत है इस पीढ़ी के पास। फेसबुक लाइव पर आत्महत्या तक देख चुके हम लोग फेमस होने की इस अंतहीन होड़ में अपने वारिसों के स्वर्णिम भविष्य की बलि लिए चले जा रहे हैं। मृत्यु के भयावह वीडियो जब तक गूगल और फेसबुक के आर्टिफिशल इंटेलिजेंस द्वारा अवरुद्ध किए जाते हैं तब तक उन्हें डाउनलोड करके व्हाट्सएप पर वायरल कर दिया जाता है। यूट्यूब का सिस्टम गुप्तांगों की पहचान करने में सक्षम है और ऐसे सभी वीडियो ब्लॉक कर देता है जिनमें स्त्री अथवा पुरुष के गुप्तांगों का स्पष्ट प्रदर्शन हो।
गूगल की इस क्रूरता से लड़ने के लिए हमारे क्रांतिकारी युवाओं ने ऐसे झीने उपाय खोज लिए हैं, जिन्हें गूगल की आँखें न बेंध सकें लेकिन समान्य व्यूअर का मन बहलता रहे। झीना परिधान ख़रीदने की स्थिति न हो तो किसी भी कपड़े पर पानी डालकर अपने फॉलोअर का मन बहलाया जा सकता है।
आप किसी भी धर्म से संबद्ध हों, फेमस होने की भूख ने आपके समाज के युवाओं को अभद्र तथा आपके समाज की युवतियों को अश्लील बनाने की पूरी तैयारी कर ली है। सुहागरात की वीडियो बनाकर वायरल करने तक के क़िस्से सामने आ रहे हैं।
प्रेम, वात्सल्य, संवेदना, करुणा और यहाँ तक कि हास्य भी किसी एक इमोजी का मोहताज होकर रह गया है। प्रतिक्रिया के बहाने आपके सोचने-समझने की क्षमता जीवित न हो जाए इसलिए आपका स्मार्टफोन आपको हर बात का उत्तर देने के लिए प्री-फिक्स वाक्यों का सुझाव दे देता है। हर भाव को व्यक्त करने के लिए इमोजी उपलब्ध है, अब आप अपने चेहरे पर भाव लाए बिना भी अपनी प्रतिक्रिया लिखकर भेज सकते हो।
ज़ुबान कट जाए तो जी सकते हैं लेकिन अंगूठा कट गया तो जीना सम्भव न होगा। दवाई छूट सकती है लेकिन पोस्ट नहीं छूटनी चाहिए। बैंक का ब्याज कम हो जाए पर चैनल का ग्राफ नहीं गिरना चाहिए। चैनल की पॉपुलरिटी कम होने लगे तो किसी को गाली दे दो, किसी की चरित्र-हत्या कर दो, ख़़ुद नंगे हो जाओ या किसी को नंगा कर दो... चैनल चलता रहना चाहिए।
कुछ न कर सकें तो भी ‘केवल फेमस होने की भूख से ओतप्रोत’ अनर्गल, अश्लील, भौंडी, भद्दी, अभद्र वीडियो पोस्ट करनेवालों को ब्लॉक करने की पहल भी कर ली तो इस मरती हुई संस्कृति को कुछ साँसें उधार देनेवालों में आपका नाम भी शामिल होगा।

✍️ चिराग़ जैन

Wednesday, July 13, 2022

शेर का मुँह

पहले शेर ने दूसरे से कहा
यार इतना समृद्ध तो यह देश कभी नहीं रहा
हो न हो, अपने भारतीय
विकास की सबसे ऊँची सीढ़ी चढ़ रहे हैं
ज़रूरत के लिए नहीं
मूरत के लिए लड़ रहे हैं।

दूसरे का उत्तर सुनने से पहले
तीसरा शेर बीच में ही बोल पड़ा
जितना ये लड़ रहे हैं
उतना तो अपना अशोक भी कलिंग में नहीं लड़ा

तभी चौथे शेर ने टोका
तीनों शेरों को बोलने से रोका
चुप हो जाओ भाइयो
ज़रा-सा मुँह खुलने पर ही
विवाद बड़ा हो गया है
अपना बंद मुँह
अपने खुले मुँह के सामने खड़ा हो गया है
हमारे मुँह का मुद्दा ट्रोल आर्मी ने जी भरकर घिसा
हमारे फेस एक्सप्रेशंस का अर्थ समझने में
फेल हो गई मोनालिसा

तभी एक लाईक लोलुप देशभक्त
अपनी डिग्रियों पर पैर रखकर
शेर के सामने खड़ा हो गया
सीन इतना रोचक था
कि हर मुद्दे से बड़ा हो गया
शेर की ऊँचाई नापने के लिए
वो अपनी सीमाएँ भी भूल गया
और जोश-जोश में
महँगाई का ग्राफ पकड़ कर झूल गया।
जैसे-तैसे वो दोपाया
पहले शेर के मुँह तक आया
और मुँह में हाथ डालकर
गिनने लगा शेर के दाँत
देखनेवालों को याद आ गयी
एक और पुरानी बात
इतिहास की इस ऊहापोह में
वर्तमान के सवाल सिसक-सिसक कर मरते रहे
लोग खुले मुँह पर अटके रहे
और आँखों से आँसू झरते रहे।

✍️ चिराग़ जैन

Wednesday, July 6, 2022

आषाढ़ के दो दिन

एक वर्ष पूर्ण हो गया। आज ही के दिन सुबह दस बजे अपने घर को और घर के दरवाज़े पर खड़ी माँ को जी भरकर निहारने के बाद मैं अस्पताल पहुँच गया था। मेदांता के एक बेड पर मेरा नाम लिख दिया गया था। हाथ पर एक पट्टा बांध दिया गया था, जिसके रहते अस्पताल की अनुमति के बिना सशरीर उस परिसर से बाहर निकलना सम्भव नहीं था।
डॉ अनिल भान ने मेरी रिपोर्ट्स देखकर अगले ही दिन ऑपरेशन करने का निर्णय लिया। अगले दिन ऑपरेशन हो जाए इसके लिए अच्छी-ख़ासी रक़म एडवान्स जमा करनी थी। उस पर भी तकनीक का तुर्रा ये कि अस्पताल केवल क्रेडिट कार्ड के माध्यम से ही राशि स्वीकार करता था। लाखों रुपये यकायक क्रेडिट कार्डस से भुगतान करने के लिए मेरा परिवार एक-एक संपर्क को फोन करने में जुट गया।
अस्पताल प्रशासन को अनुभव था कि जिसका मरीज़ जीवन-मृत्यु के बीच जूझ रहा हो वह पैसा जुटा ही लेगा। सो, परिवारवालों को उनके संघर्ष के भरोसे छोड़कर मेरी आवश्यक जाँच कराने की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। व्हीलचेयर पर बैठकर मैं विभाग दर विभाग भटकता रहा। हाथों में इतनी बार सूई चुभ चुकी थी कि अब दर्द होना बंद हो गया था।
परिवार का जो सदस्य मेरे साथ इस परीक्षण-पर्यटन में उपस्थित होता, वह बाहर चल रही आर्थिक कवायद को छुपाने का भरसक प्रयास करता लेकिन भय से भीगी आँखों में उत्पन्न झुंझलाहट में मैं वह सब पढ़ पा रहा था।
मेरी दोनों बहनों और बहनोई ने धरती-अम्बर एक करके रात 2 बजे तक अस्पताल की पेमेंट क्लियर कर दी। इस संघर्ष से पार पाकर जब छोटी बहन मेरे पास आई तो मुझे एंजियोग्राफी के लिए ले जाया जा रहा था। सुबह जिस भाई को स्मार्ट कपड़ों में भर्ती कराया था उसे अस्पताल के ढीले ढाले कपड़ों में नलियों से घिरा देखकर उसके चेहरे का रंग उतर गया। मुझसे नज़रें मिलीं तो अलक तक चढ़ आए आँसू को भीतर धकेलने की हिम्मत दिखाते हुए बोली- ‘सब फिट हो गया, डॉक्टर ने कहा है कल ऑपरेट हो जाएगा। सारे टेस्ट परफेक्ट हैं।’
मैं भी अपने हिस्से का अभिनय करता हुआ हामी भरकर एंजियोग्राफी के लिए चल पड़ा। सुबह से उपवास पर था, और उस पर परीक्षण की भागदौड़ के कारण सामने खड़ी मृत्यु से भयभीत होने की फुर्सत ही नहीं मिली।
जब भी कोई नर्स या डॉक्टर इंजेक्शन लेकर आता तो मैं ‘मंटो’ की ‘खोल दो’ कहानी याद करके हँसते हुए दोनों हाथ आगे कर देता था। अस्पताल के भीतर समय का भान ग़ायब हो गया था।
थकान जब तनाव से लिपट कर सो रही थी, तब मुझे यह सोचने की मोहलत मिली कि शायद अपना सफ़र यहीं तक का था। यह बात सोचकर घबराने ही वाला था कि किसी ने कान में कहा- ‘मूर्ख, विचलित क्यों होता है। यही तो विवेक की परीक्षा है। विपरीत परिस्थिति में सहज रह सके तभी तो पता चलेगा कि स्थितप्रज्ञ क्या होता है।’ नज़र घुमाकर देखा तो कमरे में कोई नहीं था। शायद मैं ख़ुद से बात कर रहा था।
‘समस्या को स्वीकार कर लेना समाधान की ओर पहला क़दम है। जो होगा देखा जाएगा, तू बस इस पूरी प्रक्रिया को साक्षीभाव से देख। अगर जिवित बच गया तो यह अनुभव तेरे सृजन को प्रभावी बना देगा।’
मैंने आँख खोली तो नीले कपड़े पहने एक नर्स अपनी पूरी जान लगाकर मेरे हाथ पर एक पट्टी कस रही थी। कलाई पर जहाँ एंजियोग्राफी का कट लगा था, उस हिस्से पर बिटाडीन जैसी कोई दवाई पुती हुई थी और एक सख़्त-सी चीज़ से कटी हुई नस को दबाकर बहुत टाइट पट्टी बांध दी गई थी। वह सख़्त चीज़ लगातार हाथ को पीड़ा पहुँचा रही थी। पीड़ा का अभ्यास करते हुए जाने कब मुझे नींद आ गई। सुबह आँख खुली तो पूरी कलाई पर नील पड़ गया था। समान्य स्थिति में इतना गहरा नील दिखता तो चिन्ता हो जाती, लेकिन अब एक बड़ी समस्या सामने थी इसलिए इस नील से कोई भय उत्पन्न नहीं हुआ।
कलाई लगातार दुःख रही थी। लेकिन मैं इस प्रक्रिया के अधिकतम कष्ट को स्वीकार कर चुका था, सो यह पीड़ा मेरी भंगिमा को प्रभावित नहीं कर पा रही थी। मुझे समझ आ गया था कि यह जो कुछ हो रहा है इसका न तो कारण मैं हूँ, न ही इसका निवारण मेरे पास है। इसलिए क्षोभ, करुणा, पीड़ा जैसा कोई भाव मुझे स्पर्श नहीं कर पाता था। सृजन का भरपूर सुख भोगा था इसलिए जीवन से कोई शिक़ायत भी नहीं थी। वैभव और सांसारिक कष्ट ख़ूब भोगे थे इसलिए कोई अधूरी इच्छा भी याद नहीं आ रही थी। माता-पिता के बुढ़ापे को सोचकर पलकें भीगी ज़रूर, लेकिन अपनी बहनों के समर्पण और विश्वास का सम्मान रखने के लिए नयन कोर को आँसू के भार से बचाए रखा।
बच्चे याद आए तो भी मन को यह कहकर समझा लिया कि वे अपनी ‘माँ’ के संरक्षण में हैं, इसलिए मेरा अभाव झेल जाएंगे।
मेरी दोनों बहनें और बहनोई मुझे यमराज से छीन लाने की सावित्री साधना कर रहे थे। माँ घर पर रहकर इस संशय से जूझते हुए सबका खाना बनाकर भेजती रही और पिताजी मेरी तरह निःशब्द होकर इस घड़ी के बीत जाने की बाट जोहते रहे।
नर्स ने बताया, पेशेंट को सर्जरी के लिए ले जाना है। जो बहनें इस घड़ी के लिए कल रात तक पैसा जुटा रही थीं, उनका मौन चीख पड़ा। कुछ ही मिनिट बाद मैं सब अपनों से दूर प्री-ओटी में था। यहाँ एक बार फिर ब्लड प्रेशर और स्ट्रेस लेवल की जाँच की गई। रिपोर्ट का हर आँकड़ा परफेक्ट था। मेरी देह और मेरा मानस शल्यक्रिया के लिए तैयार था।
एनेस्थीसिया के डॉक्टर ने मुझे पहचान लिया। वह टीवी पर मुझे देख चुका था। उसने बातचीत करनी शुरू की और मेरी सहजता को और निश्चिंत कर दिया।
मुझे व्हीलचेयर पर बैठकर ऑपरेशन थियेटर तक चलने को कहा गया लेकिन मैंने अनुरोध करके अपने पैरों पर चलकर जाना चाहा। हल्की सी ना-नुकर के बाद डॉक्टर ने मेरा अनुरोध मान लिया। ऐसा मैंने इसलिए किया क्योंकि मैं इस महत्वपूर्ण सफ़र को अपने पैरों से तय करना चाहता था।
मुझे अच्छी तरह याद है, ओटी की ओर जाते समय डॉ भान ने एक दरवाज़े में से झाँककर कहा था- ‘चलो कवि जी, आपसे दिल खोलकर मिलते हैं।’
मुझे उनका हास्यबोध अच्छा लगा। ओटी में स्ट्रेचर पर लेटते ही डॉक्टर्स की एक फौज ने मेरे स्ट्रेचर को घेर लिया। सब तेज़ी से अपने अपने काम में जुट गए। मेरे शरीर पर अलग-अलग नलियाँ लगने लगीं, तरह-तरह की मशीनों से मुझे जोड़ दिया गया। मेरठ के एक डॉक्टर साहब ने मुझसे कविता सुनाने का आग्रह किया। मैं थोड़ा घबराया हुआ था सो उन डॉक्टर साहब की शक्ल देखने लगा। वे मेरी मनोदशा भाँप गए और बोले, चलो मैं सुनाता हूँ। उन्होंने रश्मिरथी का शांतिपर्व पढ़ने की शुरुआत की। ...सह धूप घाम पानी पत्थर ...पाण्डव आए कुछ और निखर ...मेरा भय विलुप्त हो गया। मुझे लगा कि यह शल्यक्रिया मृत्यु की ओर नहीं ब्लकि एक निखरे हुए जीवन की ओर ले जा रही है। मेरी मनोदशा सकारात्मक हो गई।
क्षण भर में मैंने महसूस किया कि देशभर में मेरे अपने मेरे जीवन की दुआ कर रहे हैं। सुरेन्द्र जी, अरुण जी, मनीषा, प्रवीन, देवदत्त, सुष्मीत, पँवार जी... इन सबसे तो मेरी बात हुई थी। सभी की आवाज़ में स्नेहसिक्त चिंता थी। जब इतने सारे लोग चिन्ता करने के लिए उपस्थित हैं तो मैं क्यों चिन्ता करूँ। मैंने रश्मिरथी के पाठ में अपना स्वर मिला दिया। ...मुझमें विलीन झंकार सकल ...मुझमें लय है संसार सकल ...अमरत्व फूलता है मुझमें ...तभी मेरी काया में सूई चुभी और मेरी चेतना लुप्त हो गयी।
इसके बाद किसी ने मेरे गाल थपथपाते हुए मेरा नाम पुकारा। मैंने आँखें खोलीं तो नाक, मुँह और पेट में अलग-अलग तरह की नलियाँ लगी थीं। गाल थपथपाने वाले व्यक्ति ने पूछा- ‘कुछ पिछला याद है?’ मैंने वेंटिलेटर लगे गले से बोलने का प्रयास किया- ‘सब कुछ।’
डॉक्टर- ‘कुछ ऐसा याद करो, जो बचपन में पढ़ा हो।’
मैं- ‘जटाटवीगलज्ज्वल प्रवाहपावितस्थले...’
‘मेमोरी ओके!’ -डॉक्टर ने बीच में ही टोक दिया।

डॉक्टर के चेहरे के एक्सप्रेशन बता रहे थे कि युद्ध जीता जा चुका है, अब ये नलियाँ हटाने की साधना करनी है।
अब तक बाहर खड़े रहकर मेरी मृत्यु से लड़ रहे मेरे अपने आईसीयू के द्वार तक आ पहुँचे थे। मैं उन सबकी हँसती हुई आँखों में वो सारा दर्द देख पा रहा था, जो मेरे दिल की चीर-फाड़ के समय एनेस्थीसिया की ओट में छिप गया था।
एक महीने बाद जब घर लौटा तो घर में घुसते ही मैं बिलखकर रो पड़ा था। मुझे यक़ीन नहीं हो रहा था कि इस घर में मैं सही-सलामत लौट आया हूँ।
अब वही भागदौड़, वही व्यस्तता, वही आपाधापी फिर से जीवन का हिस्सा बन गई है। इस एक वर्ष में मैंने हर उस दुआ का आभार व्यक्त किया है जो उस समय मेरे जीवन यज्ञ की समिधा बनने को तैयार थी।
अब जब कभी कोई संकट मेरे पास आना चाहता है, तो मैं उसे 6-7 जुलाई 2021 की कहानी सुनाकर ठहाका लगाता हूँ कि कहीं और जा बे, मैं तेरे अब्बा से मिल चुका हूँ!


✍️ चिराग़ जैन

Monday, June 27, 2022

इतना सा प्यार

अपनेपन के बाहुपाश में
धड़कन ने ये शब्द सुनाए-
"अलग-अलग कर्त्तव्य रहें; पर
आपस का अधिकार बहुत है।"
बस इतना-सा प्यार बहुत है

सबकी अपनी-अपनी गति है, सबका अपना-अपना पथ है
सूरज के कुनबे में लेकिन, ना कोई इति है ना अथ है
हम-तुम अगर निकट से गुज़रे, इस अनवरत अथक घुर्णन में
तो आपस में टकराने की, इच्छा जन्म नहीं ले मन में
हम इक-दूजे के होने का कर पाएं सत्कार; बहुत है
बस इतना-सा प्यार बहुत है

उद्गम का हर इक कतरा तो साथ नहीं बहता जीवन भर
साथ नहीं होने का मतलब प्रतिद्वंदी होना कब है पर
पल-पल बनती और बिगड़ती लहर अलग हैं नदी एक है,
जिसमें हम सब तैर रहे हैं, इस युग की वह सदी एक है
अब तुम आगे, अब हम आगे, बहती जाए धार; बहुत है
बस इतना-सा प्यार बहुत है

सब नियमित संवाद कर सकें ऐसा कहीं प्रबंध नहीं है
रोज़-रोज़ मिलना सम्भव हो ऐसा भी अनुबंध नहीं है
पर मिलने का योग बने तो, सुख से खिल उठता वह क्षण हो
भावुक करती मुस्कानें हों, साँसें भरता आलिंगन हो
मुड़कर देखो हर रिश्ते में होठों का विस्तार बहुत है
बस इतना सा प्यार बहुत है

~चिराग़ जैन 

Wednesday, June 22, 2022

नसीब करवट बदल रहा है

कोई हमारे नसीब को इक नयी कहानी सुना रहा है
हथेलियों पर कई लकीरें बना रहा है, मिटा रहा है

बहुत दिनों से जिस एक खिड़की के पार किरणें न आ सकी थीं
अब एक उम्मीद का परिंदा उसी के पल्ले हिला रहा है

जिसे बचाने की कोशिशों में हरेक हसरत दबा ली हमने
उसी अना को सलाम करके कहीं कोई मुस्कुरा रहा है

अंधेरा आँखों में यूँ भरा था कि रौशनी की जगह नहीं थी
पर एक तारा हमारी पुतली में आजकल जगमगा रहा है

ग़ज़ब तो ये है कि हम मुक़द्दर की नींद पर हँस रहे थे अब तक
नसीब करवट बदल रहा है तो आज रोना क्यों आ रहा है

~चिराग़ जैन 

Saturday, June 18, 2022

बोया पेड़ बबूल का...

हिंसा किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकती। अराजकता किसी समाज के लिए स्वीकार्य नहीं हो सकती। जिन लोगों ने अपने राजनैतिक हित साधने के लिए आपको गाली देना सिखाया है, वे ही अपनी अन्तरराष्ट्रीय छवि बचाने के लिए आपको असभ्यता के आरोप में पार्टी से बाहर कर देते हैं। जिन लोगों के चित्र अपनी प्रोफाइल फोटो में चेपकर आप किसी व्यक्ति अथवा पार्टी विशेष के समर्थक होने का दंभ भरते हैं वे लोग आपके विवेक को हाइजैक करके आपकी प्रोफाइल को ‘यूज़’ कर रहे हैं, और आपको पता भी नहीं चलता।
नफ़रत के बीज बोते समय यह हमेशा स्मरणीय है कि काँटे आपका झंडा देखकर आपको ज़ख्मी नहीं करते हैं। आप कितनी भी सावधानी से दूसरे की ओर लक्ष्य करके नागफनी बोते रहिए, उसका एक न एक फन आपकी ओर ज़रूर मुड़ेगा।
हैदराबाद एनकाउंटर पर पुलिस को बधाई देने वाले यह नहीं समझ पा रहे थे कि पुलिस प्रशासन को न्याय का अधिकार दे दिया गया तो क्या होगा। अदालतों के सिस्टम में व्याप्त ख़ामियों को सुधारने की बजाय स्वयं को अदालत मान लेना बर्बरता की ओर बढ़ने का संकेत है।
जब मॉब लिंचिंग की ओट लेकर हत्याएँ की जा रही थीं, तब हमारा राजनैतिक नेतृत्व अपने-अपने कार्यकर्ताओं को यह नहीं समझा सका कि जेल में बंद अपराधी को भी मारने का अधिकार किसी व्यक्ति या भीड़ को नहीं दिया जा सकता। ऐसे में केवल ‘आरोप’ अथवा ‘संदेह’ के आधार पर ‘फैसला ऑन द स्पॉट’ करनेवालों से लोकतन्त्र को सर्वाधिक ख़तरा है। लिंचिंग की घटनाएँ हो रही थीं और सभी राजनैतिक दल अपनी-अपनी वोटिंग का बहीखाता खोलकर लाभ-हानि का गणित लगाने में व्यस्त थे।
कांग्रेस ने रामदेव के आंदोलन को कुचलने के लिए जो लाठी चलाई थी, उसी के वार से आज कांग्रेस के एक लीडर की पसली टूट गई है। कांग्रेस ने सीबीआई को तोता बनाकर अपने राजनैतिक विरोधियों पर छोड़ दिया था। इसी परम्परा के फलस्वरुप आज भारतीय जनता पार्टी ने ईडी के कंधे पर बंदूक रखकर विरोधियों को निशाने पर ले लिया है।
किसान आंदोलन के समय आंदोलनकारियों को आतंकवादी और ग़द्दार कहनेवाले यह न भूलें कि सत्ता हमेशा किसी की नहीं रहती। आंदोलन के अस्त्र को इतना बदनाम मत करो कि यदि सत्ता से बाहर होकर कभी आपको आंदोलन के अस्त्र का प्रयोग करना पड़े तो इसमें धार ही न बचे।
बुलडोजर चलाकर स्वयं को विक्रमादित्य समझने वाले यह स्मरण रखें कि यदि सत्ता चली गई तो यही जेसीबी बेताल बनकर उनकी कमर तोड़ देगी। पाटीदार आंदोलन के समय गुजरात की सड़कों पर अग्निवर्षा करनेवाले आज तत्कालीन सत्ताधीश के साथ बैठे हैं। उस समय उस अराजकता को समर्थन देने वाले कांग्रेसी भी लोकतन्त्र के अपराधी थे और आज उस अराजकता से उपजे लीडर को साथ बैठाने वाले भाजपाई भी उसी अपराध में संलग्न हैं।
किसी भी सरकारी योजना का विरोध करना युवाओं का लोकतांत्रिक अधिकार है किन्तु उस अधिकार की ओट में अराजक हो जाना कम से कम गांधी के देश में तो बर्बरता ही कहा जाएगा। जिस गांधी को गाली दे-देकर राष्ट्रवादियों ने सोशल मीडिया पाट दिया है, जिस गांधी को ‘यूज़’ करके कांग्रेस ने सत्ता की शतरंज बिछायी है उसी गांधी की ज़रूरत आज फिर आन पड़ी है।
अग्निवीर योजना के मुआमले में यदि आंदोलन को ही ग़लत ठहरा दिया जाए तो भी अनुचित होगा और यदि उस आंदोलन के बहाने की जा रही आगजनी और हिंसा का समर्थन किया जाए तो भी अनुचित होगा।
ऐसे में गांधी का ‘शांतिपूर्ण विरोध’ का मंत्र सामयिक लगता है। टेलिविज़न डिबेट से लेकर राजनैतिक बयानबाज़ी तक एक तरीके के लोग इन आंदोलनकारियों को अनपढ़, असभ्य, राष्ट्रद्रोही और नालायक सिद्ध करना चाह रहे हैं और दूसरी तरह के लोग इस आगजनी को आंदोलन, विरोध, क्रोध और सत्ता की मनमानी का प्रतिफल बताने पर तुले हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि ये सब लड़के हमारे इसी समाज के वे नौनिहाल हैं, जिनको लोकतन्त्र के अधिकारों का पाठ पढ़ाते समय मास्टर जी ने गांधी की अहिंसा का पन्ना हिकारत से पलट दिया था।

-चिराग़ जैन

Friday, June 17, 2022

डेमोक्रेसी को बचा लो

डेमोक्रेसी को बचा लो तुमको कुर्सी की कसम
इसकी टूटी नाव संभालो तुमको कुर्सी की कसम

जो अपने खेमे में है उसकी फाइल दबवा दो
जो विरोध करता हो उसकी कचहरी लगवा दो
इस आदत पर मिट्टी डालो तुमको कुर्सी की कसम

रामदेव के आंदोलन पर लाठीचार्ज कराया
अब पसली टूटी तो नैतिकता का पाठ पढ़ाया
भैया कुछ तो ठीक लगा लो तुमको कुर्सी की कसम

हरखू की रोटी का मुद्दा फिर फिर टल जाता है
ख़बरों में बाबाजी का बुलडोजर चल जाता है
रोटी के भी प्रश्न उठा लो तुमको कुर्सी की कसम

हम चुनाव पर आँख गड़ाकर बैठे घात लगाए
भूख, ग़रीबी, शिक्षा इनका जो हो वो हो जाए
अब ये साफ़-साफ़ कह डालो तुमको कुर्सी की कसम

नफ़रत, गाली, झूठ, सियासी दांव-पेंच और दंगा
इनका भगवा उनका हरिया, घायल हुआ तिरंगा
इन घावों पर लेप लगा लो तुमको कुर्सी की कसम

~चिराग़ जैन 

ईडी और राहुल गांधी नैशनल हेराल्ड केस

ईडी दफ्तर में पेशी करा दी, घिरे हैं राहुल गांधी
सत्ता का है ये खेल भाइयो
ऐसे प्रश्नों की झड़ियां लगा दी, घिरे हैं राहुल गांधी
है नाक में नकेल भाइयो

समन भेज कर पलट दिया है खेल समूचा ईडी ने
बिन बल्ले के शॉट लगाया कितना ऊँचा ईडी ने
ग्यारह घण्टे तक बैठाकर की है पूजा ईडी ने
जिनको कोई नहीं पूछता उनको पूछा ईडी ने
इनको कुर्सी की ताक़त दिखा दी, ये चकरी सी घुमा दी
बनी हुई है रेल भाइयो
ईडी दफ्तर में पेशी करा दी, घिरे हैं राहुल गांधी
सत्ता का है ये खेल भाइयो

तुम नाराज़ हुए सिस्टम का यूज पर्सनल करने पर
ईडी-सीबीआई सबके अपने पीछे पड़ने पर
उनको ज्ञान सुनाते हो तुम यूँ मनमानी करने पर
तुमने भी तो बैठाए हैं दो-दो सीएम धरने पर
गहलोत जी की ड्यूटी लगा दी, चटाई सी बिछा दी
धरने पर हैं बघेल भाइयो
ईडी दफ्तर में पेशी करा दी, घिरे हैं राहुल गांधी
सत्ता का है ये खेल भाइयो

कांग्रेस को खूब पता है कैसे क्या क्या होता है
किस दफ्तर से हुआ इशारा, किस दफ्तर का न्योता है
कौन भला किसके कहने पर किसके कपड़े धोता है
इनसे ज़्यादा किसे खबर है कौन कहाँ का तोता है
बीजेपी ने तुम्हारी मुनादी, तुम्हीं को सुना दी
पहचानो ये गुलेल भाइयो
ईडी दफ्तर में पेशी करा दी, घिरे हैं राहुल गांधी
सत्ता का है ये खेल भाइयो

जिसके हाथ रहेगी सत्ता वो ही रंग दिखाएगा
जो विपक्ष में है वो नैतिकता की बात बनाएगा
ऑर्डिनेंस फाड़ा था तुमने तुमको याद न आएगा
कोई लाठी, कोई अपना बुलडोजर ले आएगा
सबने सिस्टम की धज्जी उड़ा दी, इमारत गिरा दी
ये ही है रेलम पेल भाइयो
ईडी दफ्तर में पेशी करा दी, घिरे हैं राहुल गांधी
सत्ता का है ये खेल भाइयो

~चिराग़ जैन 

भाजपा ने प्रवक्ताओं को फटकार लगाई

अभी तो लगाई फटकार
जल्दी ही लेना पुचकार

जड़ दिया मुँह पर प्रवक्ता के ताला
नूपुर हुए हैं ख़ामोश
जो हमसे अब अपना दामन बचाय रहे
उनने ही भरा था ये जोश
लुट गया अचानक
लुट गया न जाने कैसे
लुट गया साहिब का प्यार
अभी तो लगाई फटकार

जो भी विरोधी मिला
उसको ही हमने जी भर के कर दिया ट्रोल
कल तक तो साहब को
खूब सुहाते थे अपने ये नफरत के बोल
अब काहे हो रामा
अब काहे ओ स्वामी मोहे
अब काहे रहे दुत्कार
अभी तो लगाई फटकार

फुनवा मिलाय दिया कोई बिदेसिया
मालिक के भर दीन्हे कान
हमको किनारे करके साहिब बचाय लीन्हा
अपनी छबि का नुक़सान
मुख मोड़ा, क्यों ऐसे
मुख मोड़ा क्यों ऐसे भला
मुख मोड़ा परवरदिगार
अभी तो लगाई फटकार

ट्विटर पे ऐसी-ऐसी गरिया सुनाई
किया नहीं किसी का लिहाज
अपनी प्रोफाइल पर लिख नहीं पा रहे
हम एक अक्षर भी आज
छिन गया हमारा
छिन गया सारा रोज़गार
अभी तो लगाई फटकार

~चिराग़ जैन 

Monday, June 6, 2022

विक्रम और बेताल

विक्रम तुम तो वर्तमान हो
बल, विवेक, सामर्थ्य सभी कुछ मिला-जुलाकर
आगत का सिंगार करो तुम
ये क्या अपने कंधे पर तुम भूत लादकर घूम रहे हो

क्या तुमको आभास नहीं है
जब भी तुम उस प्रेतकाय के
उलझे केशों से उलझे हो
तब तब तुम अपने भविष्य को
पीठ दिखाए खड़े रहे हो

और कभी जब उसे लादकर
तुम भविष्य की ओर बढ़े हो
तब उसने तुमको बेमतलब
गल्प-कथा में व्यस्त किया है

ऐसी कितनी दंतकथाएँ
तुम्हें भविष् की ओर
देखने से हरदम रोका करती हैं

तुम उसके प्रश्नों का उत्तर देकर ज्यों ही इतराते हो
वह अतीत फिर उसी डाल की ओर
अचानक उड़ जाता है
और तुम्हारा पांव दुबारा
फिर भविष्य को छोड़
भूत की ओर यकायक मुड़ जाता है

तुम जो इस नंगे अतीत को
अपने कंधे पर ढो-ढोकर
किसी तंत्र तक ले आने पर अड़े हुए हो
केवल इस ज़िद के कारण ही
वर्तमान से बहुत दूर तुम
किसी भयानक भूत-स्थल पर खड़े हुए हो

काश कभी ये जान सको तुम
तुम्हें भूत के पीछे जिसने भेज दिया है
वह तुमसे निष्कंटक होकर
अपनी स्वार्थ साधना में संलग्न हुआ है
उसे पता है
भूत कभी भी उस मसान से बाहर नहीं निकल सकता है
कोई कैसा भी विक्रम हो
अगर भूत से उलझ गया तो
भूत उसे भी उस मसान से बाहर नहीं निकलने देगा!

~चिराग़ जैन

Sunday, May 29, 2022

इधर भी है उधर भी

कुर्सी का घमासान इधर भी है, उधर भी 
दो लोगों का गुणगान इधर भी है, उधर भी 

जो डेडिकेट है वो सिर्फ झंडे उठाए 
दल बदलुओं का मान, इधर भी है उधर भी 

जो हाँ में हाँ मिलाए, वही पद पे रहेगा 
सच कहने में नुक़सान इधर भी है, उधर भी

किस्मत न बदल पाओ तो क्यों दल बदल रहे 
सिद्धू तो परेशान इधर भी है उधर भी 

मुफ्ती, पंवार, ठाकरे, अखिलेश या जयंत 
पंजे के संग कमान इधर भी है, उधर भी 

शाहों की ख्वाहिशों पे ही प्यादे निसार हों 
ये खेल का विधान, इधर भी है उधर भी

जिसकी भी घुड़चढ़ी हो वहीं नाच रहे हैं 
दो-चार पासवान इधर भी हैं, उधर भी 

मैं जिनके साथ हूँ वही ईमानदार हैं 
सिब्बल का ये बयान इधर भी है, उधर भी 

~चिराग़ जैन 

Tuesday, May 17, 2022

घूमर की धुन पर बीहु


दो दिन प्रकृति की गोद में रहकर अब दिल्ली लौट रहा हूँ। ग्रीष्म ऋतु के जिस प्रकोप में दिल्ली से उड़ान भरी थी, उसके परिप्रेक्ष्य में डिब्रूगढ़ उतरते हुए स्वर्ग की अनुभूति हो रही थी। 
पायलट ने लैंडिंग की घोषणा की और हमारा विमान घने बादलों के साम्राज्य में प्रविष्ट हो गया। खिड़की के बाहर बारिश की बूंदों ने अठखेलियाँ शुरू कर दी थी। वैभवशाली मेघों को पार कर ज्यों ही हमें धरती दिखाई दी तो ऐसा लगा ज्यों अचानक किसी ने आँखों में हरा रंग भर दिया हो। रिमझिम बरसात में पुलकता हुआ डिब्रूगढ़ शहर किसी सृजनशील चित्रकार की पेंटिंग जैसा जान पड़ता था। 
जहाज के पहियों ने टच डाउन पॉइन्ट को स्पर्श किया तो गति से उत्पन्न उष्मा ने भीगी हुई धरती में समाकर पानी की फुहारों का एक धुआँ सा उत्पन्न कर दिया। ऐसा लगा ज्यों आसमान का कोई बादल जहाज के किसी पेंच में अटक गया हो, जो अचानक धरती पर गिरने के झटके से छुटकारा पा रहा हो।  
हम भी भौतिक वायुयान से उतर कर मन को उड़न खाटोला बनाने के लिए हवाई अड्डे से बाहर आ गए। बाहर सुमित खेतान जी हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। एयरपोर्ट परिसर से बाहर निकलते ही चाय के बागान सड़क के दोनों ओर बिछने लगे। नहा-धोकर भीगी खड़ी चाय की हरियाली इतनी ख़ूबसूरत हो गयी थी कि बादल रह-रहकर बरखा का वेश बनाकर चाय की पत्तियों को चूमने का बहाना ढूंढता दिखा। प्रेम की इन पसीजी हुई शरारतों में सड़क शर्म से पानी-पानी हुई जाती थी। लहराती हुई सड़क पर हमारी गाड़ी किसी रोमांटिक स्पर्श की तरह दौड़ी चली जाती थी।  
असमिया संस्कृति में साफ़-सफाई और सौंदर्यबोध को खासा स्थान प्राप्त है इसीलिए अनवरत हरे रंग के बीच जहाँ कहीं कोई घर दिखाई देता तो उसका रंग विधान बचपन के खिलौने जैसा आकर्षित करता था। रास्ते की इस ख़ूबसूरती को आँखों में भरते हुए हम तिनसुकिया पहुँच गए। 
आयोजन मंडल के सदस्यों का व्यावहार कंचन में सुगंध का प्रतिमान बन रहा था। उत्तर भारत के शेष क्षेत्र की अपेक्षा इस क्षेत्र में सूर्य काफी पहले उग जाता है इसलिए सूरज की ड्यूटी के घण्टे भी शाम 4-5 बजे तक समाप्त होने लगते हैं। इस स्थिति के कारण कवि-सम्मेलन का समय भी जल्दी का ही था। शहर के एक शानदार हॉल में कवि-सम्मेलन हुआ। हम पाँच कवियों के लिए ढाई घण्टे का कार्यक्रम तय था लेकिन साढ़े तीन घण्टे बाद भी सायास कवि-सम्मेलन समाप्त करना पड़ा। श्रोताओं ने सेल्फियाँ खिंचवाते समय यह सुखद शिकायत की कि मन नहीं भरा!
सफल कार्यक्रम से ऊर्जा द्विगुणित करके भोजन आदि के बाद हम सो गए और अगली सुबह जब आँख खुली तो देखा कि कोई मेरे कमरे की खिड़की पर बूंदों से म्यूरल पैटर्न की चित्रकारी कर गया था। बादलों ने सूर्य की किरणों का रास्ता रोक रखा था लेकिन उजाला, शीशे पर बिखरी बूंदों को यह संदेश सुना रहा था कि दिन निकल आया है। 
बिस्तर पर अलसाया हुआ मैं प्रकृति के इस संचार को भोग ही रहा था कि फोन की घंटी मुझे भौतिक जगत् में लौटा लाई। 
मनोज मोदी जी का फोन था कि होटल से अशोक बाज़ारी 
जी के घर नाश्ता करके, वहीं से घूमने निकलना है। मैं जल्दी से तैयार होकर लॉबी में आया तो दिनेश बावरा पहले से गाड़ी में बैठे थे। वे पर्यटन पर नहीं जा रहे थे ब्लकि नाश्ता करके सीधे एयरपोर्ट की ओर निकलने वाले थे। भुवन मोहिनी जी की फ्लाइट दोपहर में थी इसलिए वे भी थोड़ी देर घूम फिर कर प्रस्थान करने वाली थीं।  
मैं पिछले दो महीने में तीसरी बार इस क्षेत्र में आया था और यहां के मौसम और सौंदर्य से आकृष्ट था इसलिए सोच-समझकर इस बार पर्यटन का प्लान बनाकर आया था। 
अशोक जी के घर बेहतरीन मारवाड़ी नाश्ता करने के बाद मोदी जी मुझे, भुवन को और बाबू जी को अपने घर ले आए। मोदी जी का घर एक अच्छा ख़ासा बंगला है। बाहर गार्डन में सुपारी और आम जैसे वृक्षों के साथ एक मुकम्मल किचन गार्डन था। बरसात लगातार जारी थी सो मौसम और मौके का सम्मान करते हुए मोदी जी ने हमें अपने गार्डन के भुट्टे खिलाए। फिर हमने उनके ख़ूबसूरत बगीचे में खूब फोटोग्राफ़ी की।
यहाँ से हम एक चाय बागान की ओर चले। ढाई फुट के चाय के पौधों की सलीके से लगी हुई क्यारियों के बीच हमने ख़ूब मस्ती की। मैंने चाय की शायरी का प्रयोग करते हुए चाय के महत्व पर एक वीडियो बनाया। अनियोजित वीडियो में सद्य बोला गया वॉयस ओवर चाय पर एक बेहतरीन ललित निबंध जैसा बन गया। 
घड़ी देखी तो भुवन मोहिनी जी को फ्लाइट का टाइम ध्यान आया। बेमन से उन्हें पर्यटन का सुख छोड़कर प्रस्थान करना पड़ा। उनके रवाना होने पर हम मनोज मोदी जी के साथ अरुणाचल प्रदेश के लिए निकल गए। तिनसुकिया से बाहर आते-आते हम एक ऐसी सड़क पकड़ चुके थे जिसके एक और रेल लाइन थी और दूसरी ओर जंगल। जहाँ कहीं बस्ती दिखाई देती वहां जंगल कुछ पीछे चला जाता था लेकिन रेल लाइन ने सड़क का साथ नहीं छोड़ा। 
पचास किलोमीटर के करीब इस अलौकिक सौंदर्य को निहारते हुए हम अरुणाचल प्रदेश की सीमा पर पहुंच गए। अरुणाचल में देश के अन्य भागों की तरह फ्री एंट्री नहीं है। इस राज्य में प्रवेश करने के लिए अनुमति की कुछ औपचारिकताएं पूरी करनी पड़ती हैं। मोदी जी गाड़ी से उतरकर यह प्रक्रिया पूरी करके आए और हम सूर्योदय के प्रदेश में प्रविष्ट हो गए। नाप-तोल कर बनाई गई सड़क के दोनों ओर शालीनता से खड़े पेड़ जब ऊपर ही ऊपर एक दूसरे से गले मिलते थे तो सड़क के ऊपर किसी गुफा जैसा दृश्य बन जाता था।  
इस वर्णनातीत दृश्य से गुज़रते हुए हम गोल्डन पैगोडा पहुँचे। मोदी जी पार्किंग में गाड़ी लगा रहे थे और मैं स्वर्णद्वार के सम्मुख खड़े बौद्ध भिक्षुओं को निहार रहा था। छोटे-छोटे बालकों से लेकर कैशोर्य और यौवन की देहरी को छू रहे ये लामा गहरे लाल और गहरे पीले रंग के चोगे में दिव्य लग रहे थे। संन्यास के तेज और तथागत के पथ की शांति से इनका सौंदर्य दिव्य हो गया था। बुद्ध पूर्णिमा के दिन इस स्थान पर आने का संयोग आनंद में वृद्धि कर रहा था। 
हमने टिकट लेकर तीर्थ परिसर में प्रवेश किया। बहुत करीने से संजोए गए बड़े से बगीचे के बीच चारों ओर से एक जैसा दिखने वाला एक विशाल मंदिर था जिसमें बुद्ध का भव्य स्वर्णबिम्ब विद्यमान था। मंदिर के चारों प्रवेश द्वार चीनी शैली के सिंह बिम्ब से अलंकृत थे। बाहर एक बड़े से तालाब में बुद्ध विराजित थे। बारिश की बूँदें जब तालाब के पानी में गिरती थीं तो एक गोल दायरा बनता जो बुद्ध की मूर्ति तक जाकर विलीन हो जाता था। यह दृश्य 'ध्यान' विधि के साकार कर रहा था। विचारों की तरह अनवरत उपजते दायरे निमीलित नयन युक्त ध्यानस्थ योगी तक पहुँच कर विलीन हो रहे थे। मैं अपलक इस दृश्य से बंधने लगा। क्षण भर के लिए बारिश की बूंदों की अनुभूति विस्मृत हो गई थी। क्षण भर के लिए मन विचारशून्य होकर तथागत के बिम्ब का स्पर्श कर आया था। नयन खुले थे किंतु दृश्य गौण हो रहे थे। कान उपस्थित थे किंतु ध्वनि शून्य हो गई थी। देह जिवित थी किंतु स्पर्श विलीन हो गया था... क्षण भर में असीमित ऊर्जा बटोरकर मेरी तन्द्रा टूट गई। 
अनुभव की जिस वीथि में मैं क्षण भर विचरने लगा था, वह लिखने का समय सम्भवतः इस जीवन में मैं न जुटा सकूँगा। बस इतना कह सकता हूँ कि ध्यान के इस स्वर्णिम सम्मोहन ने क्षण भर में मुझसे मेरा मन ठग लिया था। 
स्वयं को संयत करने के उद्देश्य से मैंने वहाँ से एक फेसबुक लाइव किया और इस परिसर को डिजिटल तकनीक में सहेजकर वापिस गाड़ी में आकर बैठ गया। भौगोलिक स्थिति के कारण दोपहर ढल चुकी थी और रात हुई नहीं थी। इतनी लंबी शाम का यह मेरा पहला अनुभव था। पूरा रास्ता शाम में ही बीता। रास्ते में मोदी जी ने अपनी चाय फैक्ट्री दिखाई। चाय बनने की प्रक्रिया जानकर बहुत अच्छा लगा। हरी पत्तियों के काले दानों में बदल जाने की पूरी प्रक्रिया देखकर विकास की आवश्यकता तथा साधना का अर्थ समझ आया। 
तिनसुकिया पहुँचकर हमने सुमित खेतान जी, अशोक बाज़ारी जी और मनोज मोदी जी के साथ स्वादिष्ट भोजन किया, अपनी-अपनी अटैची की क्षमता के अनुसार चायपत्ती के पैकेट बटोरे और सो गए। 
सुबह-सुबह हवाई अड्डे के लिए निकल लिए हैं। असम की संस्कृति, अरुणाचल का सौंदर्य और राजस्थानी लोगों के मीठे अपनत्व की संगत... ऐसा लग रहा है जैसे मेरा मन कालबेलिया की धुन पर बीहु नृत्य करके लौटा हो। 

✍️ चिराग़ जैन 

Thursday, May 5, 2022

शुभचिंतक

एक राजा के दो बेटे थे। एक नाटे कद का था और दूसरा लंबे कद का। बचपन से ही दोनों में तनाव रहता था। जब वे बड़े हुए तो राजा ने राज्य का बंटवारा कर दिया और पूरे देश के अधिकतम नाटे नागरिक नाटे बेटे के देश में चले गए। मूल राज्य में लंबे नागरिक रह गए। लेकिन कुछ नाटे लोग अपना देश छोड़कर नाटे देश में नहीं गए और लंबे राजा के शासन में रहने लगे। 
लंबे राजा ने अपने राज्य में बचे सभी नाटे लोगों को माली, तांगा, मजदूरी, दर्जी, हजामत और अन्य छोटे कामों में लगाए रखा। वे सोचने-समझने का विवेक न हासिल कर लें इसलिए नगर में जगह जगह उनके लिए नाटे बाबा के नाम पर समुदाय केंद्र बना दिये जहां हर ढाई पहर बाद पूरे नाटे समुदाय को इकट्ठा होना अनिवार्य कर दिया। अपने लोगों से उनके बीच यह बात और फैला दी कि वो जितने ज़्यादा बच्चे पैदा करेंगे उतना ही उनका भला होगा। उन्हें यह भी बता दिया कि उनकी किसी भी परम्परा में यदि बदलाव किया गया तो यह उनकी सामुदायिक भावनाओं का अपमान होगा। 
अब लंबे लोग व्यापार करते रहे और नाटे लोग उनके यहां नौकरी करते रहे और बदबूदार परंपराओं को निबाहते हुए जनसंख्या बढाने में लगे रहे। विकासहीन रूढ़ियों में बंधी यह जनसंख्या अपने संकरे मुहल्लों में सीमित रहकर बीमारियों और अशिक्षा का शिकार बनी रही। 
कुछ समय बाद लंबे समुदाय के कुछ लोग नाटे लोगों की इस दशा से द्रवित हुए और उन्होंने स्वयं को लंबे समुदाय का शुभचिंतक घोषित करके राज्य की सत्ता हथिया ली। सत्ता हाथ में आते ही उन नए राजाओं ने सबसे पहले नाटे समुदाय में व्याप्त कुरीतियों को समाप्त करना शुरू किया। उनके समुदाय केंद्र ध्वस्त करने शुरू कर दिए। और अपने लोगों से लंबे समुदाय में यह बात फैला दी कि लंबे लोगों को भी हर ढाई पहर बाद लंबे बाबा के समुदाय केन्द्र पर इकट्ठा होना चाहिए और ज्यादा बच्चे पैदा करने चाहियें।
अब अपने ऊपर अचानक आए संकट से नाटे लोगों का समुदाय जागरुकता की ओर बढ़ने लगा है और शिक्षा, सभ्यता तथा विकास के पथ पर अग्रसर लंबू समुदाय काम-धंधा, रोज़गार, कला, हास्य और उत्सव भुलाकर कट्टरता, घृणा, प्रतिहिंसा, नारेबाजी और उपद्रवों में रुचि लेने लगा है। 
सत्ता में बैठे लोग मन ही मन खुश हैं कि उन्होंने नाटे लोगों के विकास की बाड़ गिरा भी दी और लंबे समुदाय वाले उन्हें अपना शुभचिन्तक भी मान रहे हैं। 

✍️ चिराग़ जैन 

Tuesday, April 26, 2022

बाड़ और अराजकता

कोई मनुष्य अपने भीतर चल रहे प्रत्येक भाव को अभिव्यक्त कर दे, तो समाज उसे तत्काल ‘पागल’ घोषित कर देगा। इच्छाएँ उस मदमस्त गजराज की तरह होती हैं कि उन पर लोकभय का अंकुश न लगाया जाए तो वे पूरा वनप्रदेश तहस-नहस कर सकती हैं। आजकल कुछ लोग अपने मन के भीतर की इन समस्त उत्कंठाओं को अभिव्यक्त करने को आधुनिकता कहते हैं, जबकि अध्यात्म इन इच्छाओं को नियंत्रित करके शांत करने को संन्यास कहता है। यहाँ यह ध्यातव्य है कि ‘संन्यास’ इच्छाओं को नियंत्रित करने का मार्ग है और ‘मोक्ष’ इच्छाओं से पार पा जाने का बिंदु है, लेकिन इसके बावजूद इच्छाओं से उलझकर जीवन को सुलझाने की उत्कंठा रखनेवाले व्यक्ति के लिए नगर नहीं, वन उपयुक्त बताया गया है।
नगर में रहना है तो नगर के नियमों का पालन करना ही होगा, अन्यथा समाज में अराजकता फैल जाएगी। समाज को अराजकता से बचाने के लिए ही समाज को नियमों की बाड़ से बांधा जाता है। यह बाड़ समाज का विकास अवरुद्ध करने के लिए नहीं, अपितु समाज को सुंदर, सुव्यवस्थित तथा सुगढ़ बनाए रखने के लिए आवश्यक है।
यह बहुत संभव है कि इस बाड़ की कोई कड़ी समाज के सुख को अवरुद्ध करके उसे चोटिल करने लगे तो उसे हटाकर उसका समाधान करने की व्यवस्था भी बाड़ बनानेवाले करते ही हैं। इसीलिए दुनिया के प्रत्येक संविधान में नियमों के बदलाव संबंधी नियम भी सम्मिलित होते हैं। एक सभ्य समाज इन्हीं नियमों का पालन करते हुए किसी सामाजिक नियम के परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त करता है।
बाड़ की कोई डंडी आपको चुभी और आपने अपने समर्थकों की फौज जुटाकर पूरी बाड़ को ही ध्वस्त कर डाला तो आपने अपने नगर में जंगल बोने से अधिक कुछ नहीं किया।
कई बार राजनैतिक महत्वाकांक्षाओं के कारण बाड़ की डंडियों का प्रयोग समाज की प्रताड़ना हेतु होने लगता है। ऐसे में पूरा समाज धीरे-धीरे संगठित होकर पुरानी बाड़ को उखाड़ फेंकता है और नई खपच्चियाँ लगाकर थोड़ी खुली बाड़ लगाने लगता है। बाद में इस नयी बाड़ के खुलेपन में जब गन्दगी सड़ने लगती है तो फिर उस बाड़ को काट-छाँटकर टाइट कर दिया जाता है और समाज व्यवस्थित रूप से मर्यादित हो जाता है।
कमोबेश, यही समाज के संचालन की सामान्य प्रक्रिया है। किंतु सोशल मीडिया के दौर में जब प्रत्येक व्यक्ति के हाथ में अपना मनोभाव अभिव्यक्त करने का साधन आ गया है, ऐसे में ‘केवल ध्यानाकर्षण के उद्देश्य से’ कुछ लोग न केवल असंयत भावनाओं को ढिठाई से अभिव्यक्त करने लगे हैं बल्कि यह भी मान बैठे हैं कि उनसे बाड़ में वे जिस एक संटी को बदलना चाह रहे हैं, उसी से पूरी बाड़ का चरित्र बदलने की क्रांति हो जाएगी। जिसका जो मन होता है, वह बाड़ पर लिख जाता है। जो चाहे, जिस मर्ज़ी लकड़ी को कोसने लगता है। कोई इन खपच्चियों को आपस में रगड़कर आग लगाने पर उतारू है, तो कोई इन्हें अलग-अलग रंगों में रंगकर रंगदारी वसूलने में लगा है। कोई इन डंडियों को हथियार बना लेना चाहता है तो कोई इन डंडियों पर पाँव रखकर अपना क़द ऊँचा करने में व्यस्त है।
सोशल मीडिया के कारण पूरा समाज इस बाड़ पर अपनी-अपनी क्षमतानुसार प्रहार कर रहा है, किन्तु यह प्रहार किसी आवश्यक क्रांति के लिए लोकतांत्रिक प्रयास न होकर कुछ लाइक्स, कुछ कमेंट और कुछ व्यक्तिगत लाभ बटोरने का उद्देश्य से किये जा रहे कुत्सित आघात हैं। इनके परिणामस्वरूप मर्यादा की बाड़ जगह-जगह से जर्जर हो गयी है। और यदि सोशल मीडिया पर बौराए फिर रहे उन्मादियों के इन आघातों को नहीं रोका गया तो इस बाड़ के उस पार खड़ा जंगल, सूनामी के वेग से समाज में घुस आएगा और उस वेग में सबसे पहले वे लोग ध्वंस होंगे जो अनवरत इस सामाजिक बाड़ को जर्जर कर रहे हैं।
...और तब, अराजकता बो रहे इन मूढ़ों के अस्तित्व की लाश पर सैड वाली इमोजी भी पोस्ट करने कोई नहीं आएगा, क्योंकि इनकी पोस्ट लाइक करने वाला समाज तब अराजकता की सुनामी से जूझ रहा होगा।

© चिराग़ जैन

Monday, April 25, 2022

अश्लीलता के मआनी

अधिकारों की ओट में छिपकर उच्छृंखल हो जाना भी उतना ही अश्लील है, जितना संस्कृति की ओट में छिपकर शालीन बनने का ‘दिखावा’ करना। नैतिकता की परिभाषा, काल-पात्र-स्थान के अनुरूप बदल जाती है। शालीनता केवल यौन आचरण तक ही सीमित नहीं है। समय तथा परिस्थिति के अनुरूप आचरण न करते हुए किया गया कोई भी आचरण अश्लील कहलाता है।
लहंगे, जेवर और फूलों से सजी-धजी स्त्री सबको स्वीकार है; किंतु यही स्त्री यदि किसी मातम में ऐसे साज-सिंगार के साथ उपस्थित हो तो असभ्य कही जाएगी। चिड़चिड़ा व्यक्ति कोई यौन दुराचार न भी कर रहा हो तो भी अपने उत्सव-टेलों में उसकी अकारण चढ़ी त्योरियाँ बर्दाश्त नहीं की जा सकेंगी।
कोई बहुत मिलनसार तथा हेल्पफुल मनुष्य भी यदि किसी की सहमति के बिना उसकी देह को स्पर्श करें तो उसे अश्लील कहा जाएगा। उस समय उसके अन्य व्यवहार के कारण उसकी इस अश्लीलता को अनदेखा नहीं किया जा सकेगा। किन्तु चिकित्सक, दर्जी, जिम ट्रेनर या कभी-कभी कोई सहकर्मी भी अनजाने में अथवा विवशता में आपसे स्पर्श हो जावे और आप उसे यौन-शोषण कहकर हंगामा कर दें, तो यह बर्बरता है। आपके बॉस ने आपकी बात नहीं मानी और आपने उसको सेक्सुअल हरासमेंट के पचड़े में घसीट लिया... यह दुराचार है।
हमने दुराचार और अश्लीलता की परिभाषा को सीमित करके बड़ा अपराध किया है। कोकशास्त्र, कामसूत्र तथा खजुराहो के आधार पर जिस समाज की प्रशंसा की जाती है, वहाँ किसी यौन समस्या पर उठे विमर्श को किसी स्त्री के चरित्र का मापदण्ड बना देना भी अश्लीलता है।
हर विमर्श में व्हिसल ब्लोअर ही सही नहीं होता। किन्तु जिसने विमर्श उठाया है, उसकी चरित्र हत्या करनेवाले न तो विमर्श के हित में हैं, न ही समाज के हित में। और तो और, ऐसे लोग जो इस प्रकार का विमर्श उठानेवाली स्त्री को चरित्रहीन कहकर उसकी निजता में प्रवेश कर रहे हैं, ये लोग सभ्यता की ओट में छिपकर अपनी यौन कुंठाओं को तुष्ट करने के लिए प्रयासरत असभ्य बर्बर हैं।
उस समस्या के पक्ष में और विपक्ष में अपना मत सबको देना चाहिए किन्तु ‘आइये हमसे ले लीजिए चरम सुख’; ‘यार बहुत सुंदर है इसको तो मैं ही संतृष्ट कर दूंगा’; ‘बहुत गर्म है यार, इसे मैं ही ठण्डा कर सकूंगा’ -जैसी टिप्पणियाँ करनेवाले अश्लील यौनकुंठितों की मानसिकता इस समाज के लिए किसी भी अश्लीलता से अधिक भयावह है।
सोशल मीडिया पर उपलब्ध स्त्रियों से पूछो तो आपको पता चलेगा कि उनके इनबॉक्स में ऐसे कितने ही संस्कृति और सभ्यता के ठेकेदारों की अश्लील कुंठाएँ नंगा नाच करती हैं।
मैं उन स्त्रियों का कतई पक्षधर नहीं हूँ जो आज़ादी के नाम पर नंगेपन की सीमा तक सड़क पर घूमने की हिमायत करती हैं। शौच तथा संभोग हमारे जीवन का हिस्सा ही नहीं अपितु सृष्टि के संचालन हेतु आवश्यक भी हैं, किन्तु इन क्रियाओं को यदि हम भरे बाज़ार में सड़क पर करने लगें तो हम दोपायों की काया में चौपायों का आचरण कर रहे होंगे।
प्रेम अनुभूति का विषय है जिसकी दैहिक अभिव्यक्ति नितांत निजी होती है। उसे सार्वजनिक करके फेसबुक पर लाइक्स बटोरने की कुत्सित चेष्टा का मैं समर्थक नहीं हूँ। अपनी प्री-वेडिंग शूट पर निर्वसन हो जाने की आधुनिकता मुझे समझ नहीं आती किन्तु ऐसा कर रही लड़की को भी सर्वभोग्या अथवा वेश्या करार देकर, उसके विषय में घृणित बातें लिखने का अधिकार किसी को नहीं दिया जा सकता।
हमें कम से कम इतना विवेक तो जागृत करना ही होगा कि हम किसी प्रश्न का उत्तर देते समय अपनी भाषा तथा शालीनता का उत्तरदायित्व निभा सकें। किसी की गाली का उत्तर गलौज से देने वाला व्यक्ति भी गाली देनेवाले से कम अशिष्ट नहीं है।
हर यौनाचार अश्लीलता नहीं होता और हर अश्लीलता यौनाचार नहीं होती। किन्तु सोशल मीडिया के युग में किसी महिला द्वारा किसी यौन-समस्या पर चर्चा करने भर से पूरे समाज की जो नंगी आवाज़ें कमेंट्स और ट्रोल-प्लेटफार्म्स पर गूंज रही हैं उनसे यह अवश्य कहा जा सकता है कि हम मुँह में घास के तिनके दबाए बैठे रंगे सियारों को देवदूत मान बैठे हैं, जो ज़रा सी हुआँ-हुआँ सुनते ही भूल जाते हैं कि वे देवदूत बनकर भाषण झाड़ने निकले थे।

© चिराग़ जैन

Wednesday, April 20, 2022

साहित्य और समाधान

अपराध करने जा रहे व्यक्ति को सबसे ज़्यादा डर अपने-आपसे लगता है। यही कारण है कि चोर, हत्यारे, जेबकतरे, झूठे, षड्यंत्रकारी, मिलावटखोर, रिश्वतखोर, बलात्कारी और अन्य प्रकार के अपराधी अपराध करने के लिए एकांत तलाशते हैं। यह एकांत अन्य किसी से नहीं, बल्कि स्वयं से चाहिए होता है।
चोरी करते व्यक्ति को यदि कोई हल्की-सी आहट भी सुनाई दे जावे तो वह भयभीत हो जाता है। उसका यह भय लोगों के जाग जाने का भय नहीं होता, अपितु अपनी आत्मा के जाग जाने का भय होता है। वह जानता है, कि यदि ज़मीर जाग गया तो खुली तिजोरी में से भी वह एक तिनका न उठा सकेगा। वह आश्वस्त है कि आत्मा ने करवट ली, तो सब बटोरा हुआ सामान वापस वहीं रखना पड़ेगा। इसलिए हर अपराधी आहट सुनकर पसीना-पसीना हो जाता है।
पूरी दुनिया का साहित्य समाज में व्याप्त विद्रूपताओं के लिए इसी आहट की भूमिका अदा करता है। एक बार इस आहट से चेतना कुलबुला जाए, फिर किसी दण्ड संहिता की आवश्यकता न रह जाएगी। बलात्कार को उन्मत्त व्यक्ति बलात्कृता का मुँह नहीं, अपनी आत्मा के कान भींच रहा होता है। उसे भय रहता है कि कहीं इसकी दर्द भरी आवाज़ ने उसकी आत्मा को छू लिया तो फिर वह कुछ न कर सकेगा। वह जानता है कि उसके भीतर का मनुष्य जाग गया, तो फिर उसके सिर पर सवार पशु मूक हो जाएगा।
यही कारण है कि दुनिया की सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ किसी समस्या का समाधान सौंपने का प्रयास नहीं करतीं, बल्कि समस्या की आत्मा का द्वार झखझोरकर मौन हो जाती हैं। यही कारण है कि श्रेष्ठ फिल्मों में ‘हैप्पी एंडिंग’ या ‘ट्रेजिक एंडिंग’ की आवश्यकता नहीं होती। वे तो समस्या को पूरी ताक़त से दहला कर फेड आउट हो जाती हैं। समस्त व्यंग्य साहित्य समस्या के ज़मीर पर चोट करता है। समस्त हास्यरस समस्या की चेतना को गुदगुदाकर जगाना चाहता है।
उमराव जान फ़िल्म के समापन पर नायिका यह भाषण नहीं देती की अन्यान्य परिस्थितियों के कारण कोठों तक पहुँची लड़कियाँ निरपराध हैं, यदि वे कभी लौट आएँ तो उनके आंगनों को उनका स्वागत करना चाहिए, न कि तिरस्कार..! यह संदेश तो झीनी चिक में से झाँकती नायिका की आँखों पर स्पष्ट लिखा है। फ़िल्म का कुल उद्देश्य यही है कि समाज की आत्मा जागकर इन आँखों का दर्द पढ़ने योग्य बने।
गाय की पूँछ पकड़कर स्वर्ग जानेवाला होरी सामाजिक रूढ़ियों पर चोट करके केवल समाज की आत्मा को जगाना चाहता है। वह गोदान के पक्ष अथवा विरोध में कोई फैसला सुनाता नहीं दिखाई देता।
साहित्यकार से सामाजिक अथवा राजनैतिक समस्याओं समाधान मांगनेवाले लोग न तो साहित्य से परिचित हैं, न ही समाज से। जिस साहित्यिक कृति को गाली देने का उन्हें कोई स्कोप नहीं मिलता, वहाँ वे समाधान का पुछल्ला उठा लाते हैं।
साहित्यकार केवल समस्या को रेखांकित करके समाज के सम्मुख प्रस्तुत करता है। किसी अन्याय के अनदेखा रह जाने की स्थिति से जूझकर उसे सार्वजनिक पटल पर उपस्थित करता है। उसे देखकर कोई अपनी आत्मा को जगाने की बजाय, उल्टे साहित्यकार का ही पंचनामा करने लगे तो यह ऐसे ही है ज्यों किसी दुर्घटनाग्रस्त व्यक्ति को अस्पताल पहुँचानेवाले की थाने में पेशी होना।
साहित्यकार समाधान का मार्ग बता सकता है, उस पर चलना तो समाज को स्वयं ही होगा। निराला इलाहाबाद के पथ पर पत्थर तोड़ती महिला से समाज का साक्षात्कार ही करा सकते हैं। यदि समाज यह कहने लगे कि निराला उसे पत्थर तोड़ते देखकर कविता लिखने क्यों बैठ गए, उसकी सहायता क्यों नहीं की। तो यह उलाहना समष्टि के पथ पर बढ़ चले रचनाकार को व्यष्टि तक सीमित कर देने का कुप्रयास होगा।
बाबा तुलसी ने रामकथा में राम का चरित्र समाज के सामने रखा। उससे अर्थ ग्रहण करके रामराज की स्थापना का कार्य तुलसी का नहीं, समाज का है। वेदव्यास ने द्वापर में घटित महायुद्ध के कारण तथा मानसिकता समाज के सम्मुख प्रकट की। अब उन स्थितियों से अपने समाज को बचाए रखना समाज का काम है।
कबीर की सभी रचनाएँ कर्मकाण्ड और ढोंग पर चोट करती हुई आगे बढ़ जाती हैं। वे किसी मुल्ला या किसी पण्डित को प्रवचन नहीं देते, बल्कि उनकी क्रियाओं पर कटाक्ष करके उनके ज़मीर का द्वार खटखटाते हैं।
साहित्यकार समाज को विवेकी बनाना चाहता है। यदि समाधान भी साहित्यकार ही सौंप देगा तो समाज अपने विवेक का प्रयोग करने की क्षमता खो बैठेगा। फिर समाज की दशा उन मवेशियों की तरह हो जाएगी जो किसी के हाँकने पर किसी दिशा में बढ़ जाते हैं। फिर साहित्यकार और प्रवचनकार में कोई अंतर न रह जाएगा। फिर आत्मा को जगाने की बजाय भीड़ जुटाने को वरीयता दी जाने लगेगी। फिर सभ्यता के विकास की बजाय अपने-अपने दोपाये मवेशियों के क़बीले लेकर प्रत्येक साहित्यकार ‘लीडर’ बना बैठा होगा।

© चिराग़ जैन

Tuesday, April 19, 2022

शांति बनाम उन्माद

जो शांति का उपाय खोजने के लिए अन्तिम प्रयास तक जूझता रहे, उसे शांतिदूत कहा जाता है। जब दोनों ही पक्ष ख़ून-ख़राबे के उन्माद में हों तथा किसी तरह शांति का उपाय न सूझ रहा हो, उस समय भी शांति का उपाय खोजना ऐसा ही है, ज्यों सींग भिड़ाए खड़े दो बिजारों को लड़ने से रोकना हो। इस स्थिति में स्वयं के लहूलुहान होने का संकट रहता है।
हमारे पौराणिक साहित्य में शांति के ऐसे प्रयासों के दो विशिष्ट उदाहरण मिलते हैं। प्रथम, राम की सेना लंका को घेरे खड़ी है और सीता की खोज, लंका दहन तथा सेतुनिर्माण सरीखी अविश्वसनीय घटनाओं से रावण का मनोबल टूटा हुआ है। वानर सेना आत्मविश्वास से भरी हुई है। ऐसे में भी मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने अंगद को शांतिदूत बनाकर लंका की राजसभा में भेजा। अंगद ने जब राघव का प्रस्ताव रावण के सम्मुख रखा तो रक्ष-शक्ति के बलाभिमान से उन्मादी हुए रावण को लगा कि राम युद्ध से डरकर शांति की बात कर रहे हैं। इसी उन्माद में रावण ने शांतिदूत अंगद का अपमान किया किन्तु अंगद ने अपना बल प्रदर्शित कर रावण के अहंकार को चूर कर दिया। ध्यान से देखें तो समझ आता है कि रावण के दरबार में पैर जमाने वाले अंगद कोई करतब नहीं कर रहे थे, अपितु वे उन्मादी अहंकार को यह जताना चाह रहे थे कि जिस रक्षशक्ति के बूते वह युद्ध में विजयी होने का दम्भ भर रहा है, उसके सर्वश्रेष्ठ योद्धाओं को अकेला एक अंगद परास्त करके जा रहा है। अंगद रावण को यह बताना चाह रहे थे कि शांति की बात करनेवाले को कायर नहीं, दूरदर्शी समझना चाहिए। उसका धन्यवाद करना चाहिए कि वह उस महाविनाश को देखकर, उससे एक युग को बचा लेना चाहता है, जिसे उन्मादी आँखें नहीं देख पा रही हैं।
दूसरे, जब यह तय हो गया कि अब कौरव और पाण्डव कुरुक्षेत्र में घात-प्रतिघात से पूरे द्वापर को लहूलुहान कर देंगे, तब स्वयं नारायण श्रीकृष्ण ने यह निर्णय लिया कि इस युद्ध को रोकने का एक प्रयास और किया जाना चाहिए। युगनायक वासुदेव श्रीकृष्ण स्वयं ‘शांतिदूत’ बनकर हस्तिनापुर पहुँचे और पाण्डवों की ओर से संधि का उपाय सुझाया। किन्तु इस क्षण भी अपने बाहुबल के मद से ग्रसित सुयोधन ने न केवल शांतिदूत का अपमान किया अपितु श्रीकृष्ण को बंदी बनाने की भी चेष्टा की। इस स्थिति में भी श्रीकृष्ण ने विराट स्वरूप प्रदर्शित कर उसके उन्माद की गति को विराम देने का ही प्रयास किया था। नारायण सरीखे व्यक्तित्व को आत्मश्लाघा की डींगें हाँकने की कोई आवश्यकता नहीं थी, वे तो युद्धोन्मत्त मूढ़ों को यह बताना चाहते थे कि जिस बाहुबल पर वह बौराये फिर रहे हैं, उससे अधिक शक्तिशाली होकर भी हम शांति की भाषा बोल रहे हैं।
शांति की बात करने के लिए अधिक बल की आवश्यकता होती है। युद्ध की राह पर धकेलने के लिए तो केवल बाहुबल चाहिए, जबकि शांति की राह पर लाने के लिए बाहुबल के साथ-साथ बुद्धिबल तथा आत्मबल भी आवश्यक होता है। इसीलिए शांति की राह सुझाने वाला युद्धोन्मत्त उन्मादी से तीन गुना अधिक बलवान होता है।
यही कारण है कि जिसने शांति की बात करनेवाले को कायर समझकर उसका अपमान किया है, उसे समूल नाश की दुर्दशा झेलनी पड़ी है।
युद्ध से रक्तरंजित हुए समाज पर मातम और वैधव्य का जो सन्नाटा पसरता है, वह किसी शकुनि या मंथरा से यह प्रश्न नहीं करता कि लाशों की उस अतिवृष्टि को जन्म देनेवाले बादल किस कुचक्र के आकाश में निर्मित हुए थे, वह तो हमेशा भीष्म, द्रोण, धृतराष्ट्र, युधिष्ठिर और कृष्ण से ही पूछता है कि जब वे बादल घुमड़ रहे थे तब इनकी छतरियाँ क्या कर रही थीं!
सड़क पर भिड़ने जा रहे दो बिजारों को दूर करनेवाला व्यक्ति करुणा से उत्पन्न साहस से संचालित होता है। उसके शांतिप्रयासों का अपमान करके उसी पर धावा बोलनेवालों को या तो अहंकारी रावण कहा जाएगा, या अशिष्ट सुयोधन या फिर उसे कोरा जानवर कहा जाएगा... ‘जानवर’!

© चिराग़ जैन

Sunday, April 17, 2022

मुबारक हो, मुहब्बत मर रही है

सभी की आँख में
अंगार बोये जा चुके हैं
सभी की बोलियों में ख़ार बोये जा चुके हैं।
सभी की मुट्ठियाँ भिंचने लगी हैं
लकीरें बेसबब खिंचने लगी हैं
सभी के दाँत अब पिसने लगे हैं
पुराने ज़ख़्म फिर रिसने लगे हैं
ये जलवा भी सियासत कर चुकी है
हर इक दिल में शिक़ायत भर चुकी है
सुना है आदमीयत डर रही है
मुबारक हो
मुहब्बत मर रही है 

वो जो हमको बताते फिर रहे हैं
कई नश्तर चुभाते फिर रहे हैं
जो जज़्बातों से खेले जा रहे हैं
लपट में घी उंडेले जा रहे हैं
समझ लोगे तुम उनकी आदतों से
उन्हें हँसना मना है मुद्दतों से
जिन्हें रहबर बताया जा रहा है
उन्हीं को बरगलाया जा रहा है
हमीं से आग लेकर नफ़रतों की
हमारा घर जलाया जा रहा है
जो पत्थर मारने को चल पड़े हैं
उन्हीं की अक्ल पर पत्थर पड़े हैं
मगर सबको बताया जा रहा है
सबक़ ऐसा सिखाया जा रहा है
सुनो, पत्थर नहीं हैं, फूल हैं ये
बुजुर्गों की पुरानी भूल हैं ये
इन्हें लपटें उठाकर भस्म कर दो
अदा तुम भी ज़रा-सी रस्म कर दो
तुम्हें भगवान की सोहबत मिलेगी
इसी रस्ते तुम्हें जन्नत मिलेगी
दया का भूलकर मत नाम लेना
उठे हाथों को मत तुम थाम लेना
क्षमा के दायरे से दूर रहना
उबलते-खौलते भरपूर रहना
अहिंसा की ज़रा मत फ़िक्र करना
न ही इंसानियत का ज़िक्र करना
डगर करुणा की हरगिज़ मत पकड़ना
कोई नारा लगाकर कूद पड़ना
तुम्हारी ही ज़रूरत पड़ रही है
मुबारक हो
मुहब्बत मर रही है


हमारी क़ौम को शैदा किया है
जिन्होंने इश्क़ को पैदा किया है
ज़माने से यही बस कर रहे थे
चमन में खुशबुएँ ही भर रहे थे
पराए आँसुओं से भीगते थे
पराई हर हँसी पर रीझते थे
सभी की पीर में शामिल रहे थे
वो सब विश्वास के क़ाबिल रहे थे
न ऐसा दौर अब आगे रहेगा
चमन कुछ और अब आगे रहेगा
ज़माने को नयी हम सोच देंगे
चमन से खुशबुओं को नोच देंगे
ज़हर के बीज फलने लग गए हैं
सुनो, त्योहार जलने लग गए हैं
सभी साँचे में ढलने लग गए हैं
बिना मतलब उबलने लग गए हैं
हर इक पोखर में कीचड़ भर रही है
मुबारक हो
मुहब्बत मर रही है

© चिराग़ जैन

मुनाफ़े का रन-वे

विमानन सेवाओं ने मुनाफ़े को वरीयता देते हुए यात्रियों के कष्टों को पूरी तरह अनदेखा कर दिया है। आप जब कोई फ्लाइट बुक करते हैं तो उसके हिसाब से आगे का कार्यक्रम तथा बुकिंग भी प्लान करते हैं। जब सब कुछ तय हो जाता है तब अचानक पता चलता है कि एअरलाइंस को सवारी कम मिली, इसलिए उसने आपसे बिना पूछे आपको किसी अन्य फ्लाइट में शिफ्ट कर दिया है। इस बदलाव से आपका यात्रा का उद्देश्य, आपकी आगे की यात्रा तथा आपका सुख-चैन ध्वस्त होता हो तो होता रहे। जब आप एयरलाइंस के ऑफिस में फोन करके इस असुविधा की शिकायत करते हैं तो वहाँ आईवीआर की तरह रटे हुए वाक्य बोलनेवाले मनुष्य आपसे कुल तीन वाक्यों में बात करते हैं:
1. आपको हुई असुविधा के लिए हमें खेद है।
2. आप यदि यात्रा नहीं करना चाहते तो आपको फुल रिफण्ड मिलेगा।
3. सॉरी, सर यह कंपनी पॉलिसी है, इसमें हम आपकी कोई सहायता नहीं कर सकते।
इन तीन वाक्यों के बल पर वे आपका रक्तचाप अपने हवाई जहाज से भी ऊँचा पहुँचाकर फोन काट देते हैं।
फ्लाइट कैंसिलेशन के कारण बताते हुए ‘ऑपरेशनल रीज़न’ लिखकर काग़ज़ की ख़ाना-पूर्ति कर दी जाती है।
आप परेशान होकर अन्य फ्लाइट विकल्प देखते हैं तो अन्य एयरलाइंस की टिकट ‘आपदा में अवसर’ तलाशते हुए दो-तीन गुनी बढ़ चुकी होती है। अब आपको समझ नहीं आता कि फुल रिफण्ड देनेवाली एयरलाइंस का धन्यवाद किन शब्दों में ज्ञापित करें!
मैं ऐसी ही एक एयरलाइंस से फुल रिफंड लेने की ख़़ुशी मनाता हुआ, तीन गुना किराया और चार गुना समय नष्ट करके वाराणसी से चेन्नई जा रहा हूँ। रास्ते में चार घण्टे बंगलोर हवाई अड्डे पर बैठकर इतनी दयावान विमानन सेवाओं के प्रति कृतज्ञ महसूस करूंगा।
न्यायालय में इस प्रकार के मुक़द्दमों के भाग्य में सिवाय धूल के कुछ नहीं है। प्राधिकृत नियामकों को नैतिक-अनैतिक तरीक़े से विमानन सेवाओं से उगाही करने से फ़ुर्सत नहीं मिलती। लोक कल्याणकारी सरकारों ने ये सब सेवाएँ निजी हाथों में बेचकर अपना पल्ला झाड़ ही लिया है।
चूँकि सरकार सर्वज्ञ होने के साथ-साथ स्थितप्रज्ञ भी है, अतः वह यह सारा खेल जानते हुए भी अपनी वेदी पर चढ़नेवाले चढ़ावे से आगे देखने का प्रयास नहीं करती। जनता के दुःख-दर्द में यदि सरकार हस्तक्षेप करेगी तो जनता अपनी लड़ाई स्वयं लड़ने की इम्यूनिटी नहीं जुटा पाएगी, इसलिए सरकार जनता को मुनाफ़ाखोरों के आगे फेंककर अपने हिस्से का चढ़ावा चबाते हुए जनता के संघर्ष का खेल देखती रहती है।
हाल ही में जिस सरकारी एयरलाइंस को निजी हाथों में बेच दिया गया है, उसमें नए मालिक ने आरटीआई और जन-शिकायतों की सारी फाइलें नष्ट करके ये दोनों विभाग बंद कर दिए हैं। जनता के प्रति उत्तरदायित्व का इससे बेहतर उदाहरण नहीं मिल सकता।
आम नागरिक इस बात से ख़ुश है कि विमानन सेवाओं के किरायों से लेकर मनमानी तक, कहीं कोई अवरोधक नहीं है... देश सही दिशा में विकास कर रहा है।

© चिराग़ जैन

Friday, April 15, 2022

पाड़ ले मेरी पूँछ

जन्तर-मन्तर पर एक आन्दोलन उपजता है। युवा, वृद्ध, स्त्री, पुरुष, अमीर, ग़रीब सब एक बूढ़ी काया में तन्त्र के सुधार की उम्मीद देखने लगते हैं। कोई राजनैतिक आधार नहीं, कोई प्रोपेगेंडा नहीं, कोई ग्लैमर नहीं... पीछे बैनर पर महात्मा गांधी का भव्य चित्र, आगे श्वेत वसन धारी अन्ना हजारे, माइक पर जनता को आंदोलन का अर्थ समझाते कुमार विश्वास और अनशनकारी के साथ बैठे अरविंद केजरीवाल तथा मनीष सिसोदिया।
कांग्रेस शासन के अहंकार से त्रस्त मीडिया ने अपने सारे कैमरे जन्तर-मन्तर की ओर घुमा दिए। एक शब्द यकायक पूरे देश में आग की तरह फैल गया - ‘जनलोकपाल’। जिस तरह की तहरीरें हुईं, उनसे जन-समर्थन का आकार बढ़ता गया। जिसे देखो वही ‘मैं भी अन्ना’ की टोपी लगाए जन्तर-मन्तर की ओर बढ़ चला।
उधर दस वर्ष से सत्ता पर क़ाबिज़ कांग्रेस की मनमानियों का विरोध करनेवाले बुद्धिजीवी तथा सामाजिक व्यक्तित्व भी आंदोलन के मंच पर आ पहुँचे। शांतिभूषण, प्रशांत भूषण, योगेन्द्र यादव, आशुतोष, किरण बेदी और न जाने कितने ही लोकप्रिय चेहरे आन्दोलन के मंच पर दिखने लगे। जनता का सैलाब उमड़ रहा था। ‘जनलोकपाल’ बिल गीत, संगीत, नुक्कड़ नाटक, नारेबाज़ी, कविता पर सवार होकर पूरे माहौल पर छा गया था।
कांग्रेस के तत्कालीन विरोधी राजनेताओं ने भी इस मंच पर चढ़ने की कोशिश की, लेकिन आंदोलन की कोर कमेटी ने किसी भी राजनैतिक व्यक्तित्व को मंच पर चढ़ने की अनुमति नहीं दी। इस निर्णय के कारण उमा भारती और ओमप्रकाश चौटाला सरीखे जनप्रतिनिधियों को आंदोलन तक पहुँच कर बैरंग वापस लौटना पड़ा।
इस निर्णय से जनता का विश्वास और बढ़ा। मीडिया ने इस निर्णय को ख़ूब हाइलाइट किया और जन्तर-मन्तर पर जनता की सूनामी आ गयी।
सबको यक़ीन हो गया कि यह ‘जनलोकपाल बिल’ भारतीय तन्त्र में व्याप्त भ्रष्टाचार की इति कर देगा। उन दिनों अचानक से जनता में भी ईमानदारी के अंकुर फूटने लगे थे। मैंने देखा कि जो लोग सौ-पचास रुपये ले-देकर निकल लेने के अभ्यस्त थे, उन्होंने भी चालान होने पर बाक़ायदा चालान भरना शुरू कर दिया था। यह सब देखकर महसूस हुआ कि यदि सिस्टम का करप्शन दूर हो जाए तो जनता स्वतः नियमों का सम्मान करने लगती है।
जो लोग भारत की जनता को भ्रष्टाचारी कहकर ‘इस देश का कुछ नहीं हो सकता’ टाइप के डायलॉग बोलते हैं, उन्हें मैं यह बात पूरे विश्वास के साथ कह सकता हूँ कि राजनीति, ब्यूरोक्रेसी और उद्योगों के आधार पर पनप रहे मध्यस्थों को छोड़ दें तो बाक़ी जनता को किसी भी प्रकार के नियम का उल्लंघन करने में कोई रुचि नहीं है। यदि जनता आश्वस्त हो कि उसके टैक्स का पैसा स्विस बैंकों के आंकड़ों में तब्दील नहीं होगा या राजनैतिक हित साधने के लिए प्रकारांतर से वोट ख़रीदने का अस्त्र न बनेगा तो उसे टैक्स देने में कोई आपत्ति नहीं होगी। इसलिए जो भी व्यक्ति भ्रष्टाचार के लपेटे में जनता को समान रूप से शामिल करता है, वह परिस्थिति को सुलझाने और समझने की बजाय पीड़ित को दोषी सिद्ध करने में अधिक विश्वास रखता है।
अन्ना आंदोलन के समय जनता की उम्मीदें जाग उठी थीं और ‘सिविल सोसाइटी’ नामक अवधारणा पुनः अस्तित्व में आई थी। जेपी आंदोलन के बाद जनता का ऐसा संगठित रूप पहली बार दिखाई दिया था। मुझे अच्छी तरह याद है, उन दिनों अन्ना की हर हरक़त सरकारी तंत्र की नींद उड़ा देती थी।
इसी अवसर का लाभ उठाकर बाबा रामदेव ने भी काले धन के खि़लाफ़ मोर्चा खोल दिया। रामलीला मैदान में पहुँचने का आह्वान हुआ और बाबा रामदेव जब दिल्ली हवाईअड्डे पर उतरे तो पाँच-पाँच कैबिनेट मिनिस्टर उनकी मनुहार के लिए एयरपोर्ट पर हाथ बांधे खड़े थे।
उधर अन्ना आंदोलन जनलोकपाल की हठ पर अड़ा था। रामलीला मैदान में आधी रात को लाठीचार्ज हुआ और बाबा का आंदोलन कुचल दिया गया। इधर कई दौर की बातचीत के बाद भी सरकार और अन्ना आंदोलन के मध्य कोई सहमति नहीं बनी तो एक दिन मीटिंग के बाद तत्कालीन कानून मंत्री श्री कपिल सिब्बल ने मीडिया के सामने झुंझलाकर कहा कि - ‘चुनाव लड़ें ना, बिल बनाना है तो चुनाव लड़कर सरकार में आओ और बनवा लो बिल।’
इससे पूर्व राजनेताओं को मंच न दिए जाने के मुआमले में अरविन्द केजरीवाल अन्ना के मंच से यह घोषणा कर बैठे थे कि न तो हम किसी राजनैतिक दल को अपने मंच पर आने देंगे और न ही राजनीति में पदार्पण करेंगे। लेकिन सिब्बल की चुनौती के बाद कोर कमेटी में यह सुगबुगाहट होने लगी थी कि राजनैतिक पार्टी बनाई जावे या नहीं।
एक धड़ा कहता था कि इतने बड़े जन-समर्थन को व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिए। लोकतंत्र में चुनाव लड़ना सभी का अधिकार है और अच्छे चरित्र के लोगों को राजनीति में सक्रिय होना भी चाहिए। उधर, दूसरे पक्ष का यह मानना था कि यदि हमने राजनीति में पदार्पण किया तो यह आंदोलन भी पिछले आंदोलनों की भाँति अपने सत्व का चुम्बकत्व खो देगा। सिविल सोसाइटी की अवधारणा ध्वस्त हो जाएगी और भविष्य में जनता ऐसे जन-आंदोलनों से जुड़ने से पहले हज़ार बार विचार करेगी।
इस दूसरे पक्ष में स्वयं अन्ना हजारे भी शामिल थे। दिल्ली का चुनाव सामने था और आंदोलनकारियों को बहुत जल्दी कोई बड़ा निर्णय लेना था। इस स्थिति में राजनीति में जाने के समर्थकों ने अन्ना की बात को अनदेखा करके ‘आम आदमी पार्टी’ की घोषणा कर दी।
जिस कोर कमेटी ने राजनेताओं को आंदोलन का मंच नहीं लेने दिया था, वही कोर कमेटी आंदोलन का मंच छोड़कर राजनीति के अखाड़े में दाँव लगाने लगे। अरविन्द केजरीवाल के नेतृत्व में मनीष सिसोदिया, कुमार विश्वास, संजय सिंह, योगेन्द्र यादव और तमाम चेहरे जनसभाएँ करके वोट जुटाने में लग गए।
किरण बेदी सरीखे व्यक्तित्व अन्ना के समर्थन में राजनैतिक पार्टी से दूर रहे और केजरीवाल आदि की राजनैतिक महत्वाकांक्षा की भर-भर निंदा करने लगे।
आंदोलन पार्श्व में चला गया और राजनीति की बिसात बिछ गयी। आम आदमी पार्टी का कुछ लोग मखौल बनाने लगे और कुछ इसे उम्मीद की किरण कहकर समर्थन में आ जुटे।
प्रारम्भिक स्थिति यह थी कि पार्टी के पास चुनाव लड़ने के लिए कुल सत्तर प्रत्याशी नहीं थे। ‘जो मिला उसे टिकट दे दिया’ -की नीति पर प्रत्याशी घोषित किये गए। उधर भारतीय जनता पार्टी ने उन्हीं किरण बेदी को मुख्यमंत्री प्रत्याशी घोषित कर दिया, जो राजनीति में उतरने पर केजरीवाल की निंदा कर रही थीं।
देश का राजनैतिक परिप्रेक्ष्य बदल गया। कांग्रेस का बड़ा किला यकायक ध्वस्त होने लगा। शीला दीक्षित जैसी सफल राजनेत्री कांग्रेस की अहमन्यता की भेंट चढ़ गयी और दिल्ली विधानसभा से कांग्रेस ग़ायब हो गयी। उधर केन्द्र की कांग्रेस सरकार भी लोकनिंद्य हुई और गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी की लोकप्रियता ने उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी पर सुशोभित कर दिया।
राजनीति का चरित्र पूरी तरह बदल गया। इसके बाद राजनैतिक बैनर्स का रंग-रूप बदलने लगा। भारतीय जनता पार्टी के पोस्टर्स से अटल-आडवाणी युग समाप्त हो गया और दिल्ली की गद्दी पर बैठे केजरीवाल ने अपने साथियों से एक-एक करके किनारा कर लिया। जो पार्टी से बाहर जाता, वही केजरीवाल को महत्वाकांक्षी बताकर आलोचना करता।
कुछ जो ज़्यादा आहत हुए उन्होंने भारतीय जनता पार्टी में ठीया बना लिया। कुछ येन-केन-प्रकारेण राजनीति में बने रहने के लिए कुछ-कुछ उछलकूद करते रहते हैं।
जन्तर मन्तर पर जो पौधा बोया गया था, उसके एक-एक पत्ते को झाड़ दिया गया और जिन अन्ना को आगे रखकर आन्दोलन खड़ा किया गया, वे पिछले कुछ वर्षों से अदृश्य हैं। बाबा रामदेव राजनैतिक गतिविधियों से लोकप्रियता बटोरकर पतंजलि के प्रोडक्ट्स के व्यापार को शानदार तरीके से चला रहे हैं। कंपनियों की ख़रीद-फ़रोख़्त करके उन्होंने अपने टर्न ओवर को आश्चर्यजनक रूप से बढ़ा लिया है। उनसे आजकल कोई कालेधन संबंधी उनके दावों पर प्रश्न करता है तो वे उसको कहते हैं कि ‘मेरी पूँछ पाड़ ले!’
इधर आंदोलन के प्रभाव से बनी पार्टी ने पंजाब में भारी सफलता प्राप्त की और नवनिर्वाचित मुख्यमंत्री भगवंत मान ने यह आदेश पारित किया है कि पंजाब के सरकारी दफ्तरों में अब सरदार भगतसिंह और बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर की ही तस्वीर लगाई जाएगी। महाराज रणजीत सिंह, महात्मा गांधी और विवेकानन्द के चित्र सरकारी दफ्तरों से हटा दिए गए हैं। इस निर्णय से यह सिद्ध होता है कि राजनीति में श्रद्धा तथा सम्मान भी गणित की पुस्तकों के अनुसार तय किया जाता है।
महात्मा गांधी की तस्वीर अन्ना आंदोलन की आखि़री याद थी। उसे हटाकर पंजाब सरकार ने यह बता दिया है कि जिसके नाम पर जितने समय तक समर्थन मिलेगा, उसकी तस्वीर उतने समय तक मुस्कुराती रहेगी।
सबके अपने-अपने मार्गदर्शक मंडल हैं... सबके अपने अपने रालेगण सिद्धि हैं और सबके अपने-अपने महात्मा गांधी हैं। सबके अपने आदर्श हैं और सबकी अपनी राजनीति है... जनता कुछ पूछे तो कह दिया जाएगा - ‘जा मेरी पूँछ पाड़ ले।’

© चिराग़ जैन