Friday, April 30, 2021

अंधेरे में रौशनी का अनुमान

यह समय अगर गुज़र भी गया तो इसके बाद दुनिया वैसी ही होगी जैसा नादिरशाह के आक्रमण के बाद दिल्ली का लालकिला था या जैसा महाभारत के युद्ध के बाद हस्तिनापुर था। जिनके होने से सब कुछ अच्छा लगता था, वो अपने इस दौर में हमसे दूर चले जा रहे हैं। हर आँख नम है, हर आंगन में मातम है; हर श्मशान भभक रहा है। इन सबके बिना दुनिया बची भी तो उंगलियों के बिना सितार का करेंगे क्या? अधर ही न रहेंगे तो वंशी से सुर नहीं, कराह निकलेगी।
राजनीति, ब्यूरोक्रेसी, मीडिया, कला, साहित्य, संगीत, अभिनय, अध्यात्म... कौन-सा ऐसा गलियारा है जहाँ से कोई जनाज़ा न निकला हो। अल्लाह के बंदे हों या राम के वंशज; महावीर के अनुयायी हों या नानक के प्यारे; सब अपनी-अपनी आस्था की देहरी पर घुटने टेक रहे हैं; लेकिन किसी आसमान से कोई मदद नहीं उतर रही।
वो रात-रात भर के जलसे; वो संगीत की लहरियाँ; वो ढोल-नगाड़े; वो शहनाइयाँ; वो उत्सव; वो रथयात्राएँ; वो प्रभात फेरियाँ, वो मॉर्निंग वॉक, वो ईवनिंग क्लब्स, वो किटी पार्टियाँ... यह सब कुछ दुनिया में फिर से लौट पाएगा या नहीं इसका सटीक उत्तर कोई नहीं दे पा रहा।
सबके मन में एक अजीब-सा भय घर कर रहा है। सब एक अनचाही आशंका को निश्चित मान चुके हैं; लेकिन विध्वंस के इस खौफ़नाक सन्नाटे में यदि जीवन का संगीत बजाने की कोशिश जारी रही तो एक दिन सन्नाटे को चहल-पहल के आगे आत्मसमर्पण करना ही होगा।
जो लोग छूट रहे हैं उनके अन्तिम क्षणों में हमारी जिजीविषा यह आश्वस्ति दर्ज करेगी कि यह संसार बचा रहेगा। उनकी लिखी कविताएँ, उनके बनाए राग, उनकी सजाई कलाकृतियाँ एक दिन फिर से इस संसार का सौंदर्य बढ़ाने के काम आएंगी।
इस सब सृजन को जीवित रखने के लिए हमें तब तक हिम्मत बनाए रखनी होगी जब तक इस संसार में जीवन की एक भी निशानी शेष है। हमें यह नहीं भूलना होगा कि उन रचनाकारों को श्रद्धांजलि देते हुए हमने बार-बार लिखा है कि दद्दा! आप अपनी रचनाओं में हमेशा जीवित रहोगे।

Thursday, April 29, 2021

हम जड़ हो गए हैं

समय का जो चेहरा इस समय यह विश्व देख रहा है, उसकी मनुष्य ने कल्पना भी नहीं की होगी। लेकिन समय, मनुष्यता का जो आचरण इस समय देख रहा है, उसकी समय ने भी कभी कल्पना नहीं की होगी!
ऐसा लग रहा है कि कोई हाथ से सब कुछ छीने लिए जा रहा है। जिनके साथ रोज़-रोज़ यात्राएँ कीं, जिनके साथ रातें काली कीं, जिनको दद्दा कहा, जिनसे दद्दा सुना... वो यकायक हमसे किसी ने छीन लिये। और हम इतने लाचार की जिनकी अटैची उठाई उनको आखि़री बार कंधा भी न दे सके! हथेली में रेत की चमकीली चुभन भी पसीज कर पिघल चुकी है। देह का रोम-रोम शोकग्रस्त है। मन पथरा गया है। और मैं अपनी संवेदनाओं को मौन की शिला में दुबकाए अहल्या मुद्रा में यह सोच रहा हूँ कि मेरी नियति में यूँ ही लाचार खड़े होकर ख़ुद को ख़ाली होते देखना लिखा है अथवा मेरे भाग्य में इन तस्वीरों में शामिल होकर मुस्कुराना तय है। 3 अप्रेल को छत्तीसगढ़ में एक कवि-सम्मेलन में मुझे राजन जी के साथ जाना था, कोरोना के कारण वह कार्यक्रम कैंसिल हुआ तो राजन जी का फोन आया कि यह तो गया, लेकिन अपन जल्दी ही मिलेंगे। ...दद्दा! झूठ बोल गए आप मुझसे। अब हम कभी नहीं मिलेंगे। उस दिन मैं बहुत देर तक रोता रहा था दद्दा! उस दिन मुझे दिन भी अंधियारा लगता रहा था। कमलेश द्विवेदी जी से बहुत अधिक संवाद नहीं था, लेकिन मेरी फेसबुक पोस्ट पर उनकी समीक्षात्मक टिप्पणी लगभग आती ही थी। यदा-कदा फोन करके भी समालोचना करके आशीर्वाद दे देते थे। आप भी चले गए यूँ ही...! आखि़री बार टोका भी नहीं, सराहा भी नहीं। समीक्षा विशाल जी का गीत ‘कविग्राम’ में छपा तो आपने साधुवाद का फोन किया था। अब न आप हैं, न समीक्षा जी...! और कुँअर दा आप...! अभी तो बता रहे थे कि ठीक हो रहा हूँ। निश्चिंत से हो गए थे हम सब। लेकिन दुनिया भर की चिंताओं पर प्यार के छींटे देकर कैसे चुपचाप चल दिये...! यह भी कोई व्यवहार हुआ! आप तो ऐसे न थे। आप तो सामाजिक व्यवहार में निष्णात थे। आप तो किसी कवि सम्मेलन से भी बिना बताए नहीं जाते थे। आप तो किसी के निःशुल्क निमंत्रण को भी इस संकोच में मना न कर पाते थे कि उसका दिल दुःखेगा...! आज क्या हो गया दद्दा! आज सबको रोता छोड़ गए। इस समय तो आपके इस कुनबे को आपकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी कुँअर दा! छोटे-छोटे फूल से बच्चे इस दिवंगत सूची में छापते हुए कलेजा दो टूक हो गया है। आह! इन सबसे तो अभी काफी व्यवहार करना था। लड़ना था, स्नेह करना था... कभी-कभी डाँटना भी था! कुछ न हो सका। मृत्यु के इस चक्रवात ने नन्हें-नन्हें फूलों को भी नहीं बख्शा! हमें चुप कराने मत आना... क्योंकि हम रो नहीं रहे हैं... हम जड़ हो गए हैं।

कोविड डायरी

नन्हीं गिलहरियों के प्रयास प्रणम्य हैं, लेकिन अगर नल और नील सेतु-निर्माण में क्रेडिट गेम खेलते रहे तो सीता माता की प्रतीक्षा पथरा जाएगी!
जब सारी सेना थक जाये तब भी तलवार न छोड़नेवाला योद्धा ही याद रखा जाता है! पस्ती में ही हस्ती की परीक्षा होती है।
28 अप्रेल 2021

भगवान के यहाँ मिलावटखोरी

ईश्वर का सिस्टम पूरी तरह त्रुटिरहित होता तो मनुष्यों की देह में वीभत्स पशुओं का जन्म सम्भव नहीं था। किसी के मर जाने पर उसके परिजन जो रुदन करते हैं, उसे देखकर भी जिसकी आत्मा न काँपती हो वह कम से कम मनुष्य तो नहीं हो सकता।
एक अदद इन्सान को साँसों के लिए तड़पते देखकर भी जो ऑक्सीजन, दवाई और अस्पताल में जगह दिलवाने के बदले पैसा कमाने की सोच रहा हो उसकी देह में मनुष्यता रखना तो ईश्वर भूल ही गया होगा।
रोते बच्चे, बिलखती औरतें और तड़पते मरीज़ जिसके भीतर करुणा न उपजा सकें, उनके आँसुओं और पीड़ा में भी जो लाभ-हानि का गणित जोड़ने की गुंजाइश निकाल ले वह तो सड़ांध मारते शव पर लिजलिजाते कीड़ों से भी ज़्यादा घिनौना है।
ये सब प्राणी, जिन्हें कम से कम मैं मनुष्य तो नहीं कह सकता; ईश्वर ने मनुष्यों के वेश में धरती पर छोड़े हैं इसका साफ मतलब है कि ईश्वर की फैक्ट्री में भी मिलावटखोरी का धंधा जारी है।
तवायफ़ भी किसी मौके पे घुंघरू तोड़ देती है। लेकिन ये मिलावटी जीव किसी भी अवसर को भुनाने से नहीं चूकते। अस्पतालों के डॉक्टर से लेकर फुटपाथ पर पड़े नशेड़ी तक और राजनीति के गलियारों से लेकर दफ़्तर के बाबू तक; यह मिलावटी जीव हर जगह मौजूद है।
इसको बनाते समय ईश्वर के कर्मचारियों ने कोमल तंतुओं से बना हृदय बेच खाया होगा और इसके सीने में पत्थर का टुकड़ा रखकर ऑर्डर पूरा कर दिया होगा। इसके भीतर आत्मा, ज़मीर तथा दिल ही बदले गए हैं। इसलिए इसका शेष आचरण देखने में मनुष्यों जैसा ही रहता है।
यह अन्य मनुष्यों की भाँति बीमार भी पड़ता है। लेकिन बीमारी को भी अवसर मानकर यह मदद करने वाले को ही नोच खाने की जुगत में लग जाता है।
यह उसी प्रजाति का जीव है जो ‘हार की जीत’ कहानी में लाचार भिखारी बनकर बाबा भारती से उनका घोड़ा छीन लेता है। बस अंतर इतना है कि उस कहानी में बाबा भारती के वचन सुनकर खड़गसिंह का ज़मीर जाग जाता है, लेकिन इस प्राणी के जिस्म में ज़मीर सोया नहीं बल्कि मर चुका है।
इस प्राणी के कारण वास्तविक मनुष्यों को भी अपमान और अभाव सहना पड़ता है। इस प्राणी की पहचान आसान नहीं है, क्योंकि यह मेन्युफेक्चरिंग फ्रॉड है। धरती की कंपनियां तो अपनी साख बचाने के लिए कई बार अपने ख़राब प्रोडक्ट को कॉल बैक कर लेती है, लेकिन ईश्वर के यहाँ शायद क्वालिटी मेंटेनेंस विभाग में भी रेकॉर्ड्स बदल दिए गए हैं।

© चिराग़ जैन

Tuesday, April 27, 2021

दीपकों के लिए तेल बनो, हवा नहीं

परसों रात से ही ऐसे फोन आने लगे थे कि मरीज़ अस्पताल में तो एडमिट है लेकिन ऑक्सीजन न होने के कारण अस्पताल वालों ने बैड ख़ाली करने को कह दिया है। सुनकर दिल दहल गया। जिसे साँस ठीक से नहीं आ रही, वह अस्पताल से भी निकाल दिया गया तो कहाँ जाएगा! ऐसे मरीज़ों की मदद के लिये अस्पतालों में फोन करवाए तो डॉक्टर और अस्पताल प्रशासन के लोग रोते-बिलखते मिले। उनका कहना है कि जब हमारे पास ऑक्सीजन ख़त्म हो रही है तो हम मरीज़ को यहाँ रखकर क्या करें। वेंटिलेटर हैं, लेकिन उन्हें ऑपरेट करने वाले टेक्नीशियन नहीं हैं। जिन छोटे-छोटे नर्सिंग होम में मरीज़ भरे हुए हैं, वे सामान्यतया विज़िटिंग डॉक्टर्स के बेस पर बने हुए हैं और अब उनमें मरीज़ तो हैं लेकिन डॉक्टर्स की कमी है।
मरीज़ों के परिजन जब विकल हो जाते हैं तो उनका ग़ुस्सा डॉक्टर और अस्पताल प्रशासन पर उतरता है। विवशता ने इतना अमानवीय बना दिया है कि अस्पताल के बाहर पड़ा रोगी इंतज़ार कर रहा है कि भीतर किसी की साँसें रुक जाएँ तो मुझे बैड मिले!
इन परिस्थितियों में स्वयं को खड़ा करके सोचा तो डॉक्टर्स पर नाराज़ होते परिजन भी ग़लत नहीं लगे; मरीज़ के आगे लाचार खड़े डॉक्टर भी अपनी जगह किसी हद्द तक सही लगे; और अस्पताल के बाहर किसी के मरने की प्रतीक्षा करता रोगी भी पूरी तरह ग़लत नहीं लगा।
फिर ग़लत है कौन? इस सबका दोषी है कौन? राजनैतिक या कार्यपालिका के स्तर पर किसी से पूछो तो वह हमें ‘पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन’ का पाठ्यक्रम पढ़ाने लगता है। उसका फोकस समस्या का समाधान ढूंढने से ज़्यादा इस बात पर होता है कि इस समस्या का ठीकरा उसके सिर न फूट जाए। इन चारित्रिक दरिद्रों की स्थिति देखकर मेरा साधारण-सा प्रश्न यह है कि जब अभी तक यही स्पष्ट नहीं हो पाया है कि इस सिस्टम में किस काम के लिए उत्तरदायी कौन होगा, तो पिछले सात-आठ दशक से यह सिस्टम का भौंडा नाटक क्यों चल रहा था?
पूरे तंत्र में हर अधिकारी केवल अपनी टेबल से फाइल को किसी अन्य की टेबल पर स्थानांतरित करने का ‘काम’ कर रहा है।
बाढ़ आने के बाद पुल बनाने का ड्रामा सिस्टम के लिए शर्मनाक है। लेकिन जो गाँववाले बाढ़ आने के बाद बेतरतीबी से ही सही, डूबतों को बचाने के लिए दौड़ पड़ते हैं; वे स्तुत्य होते हैं। हमारे समाज में भी इस समय ऐसे लोगों की उपस्थिति है, जो ख़ुद घुटनों-घुटनों पानी में खड़े होकर किसी डूबते को बचाने के लिए हाथ बढ़ा रहे हैं। लेकिन हमारे समाज में ऐसे भी लोग मौजूद हैं जो इन हाथ बढ़ाते लोगों के पाँव डगमगाने के लिए प्रयासरत हैं।
कालाबाज़ारी और मुनाफाखोरी से ग्रसित इस समाज में यदि कोई सहृदय व्यक्ति किसी समस्या और समाधान के मध्य सेतु बनते हुए किसी का लिंक किसी पीड़ित को फॉरवर्ड कर देता है, और दुर्भाग्य से वह फोरवार्डिड लिंक किसी मुनाफाखोर का निकलता है तो इसमें उस व्यक्ति की क्या ग़लती है, जो लिंक फॉरवर्ड कर रहा है। लेकिन इस स्थिति में हमारा सिस्टम बड़ी जल्दी एक्टिव होने लगता है। वह असली मुनाफाखोर को पकड़ने से पहले इस बेचारे संवेदनशील व्यक्ति को ज़रूर धर दबोचेगा। ऐसा मैं नहीं कह रहा, ऐसा वे लोग बता रहे हैं जो सहायता करनेवालों के हौसले पस्त करना चाहते हैं।
सड़ांध मारते इस सिस्टम में अपराध करना आसान है लेकिन किसी की मदद करना बेहद मुश्किल है। ‘तू ज़्यादा समाजसेवी बन रहा है’; ‘दूसरों के फटे में टांग मत फँसा’; ‘फटी के ढोल ख़रीदे हैं तो बजाने तो पड़ेंगे’ और ‘अपने घर में चुपचाप बैठ, घणी नेतागिरी मत कर’ जैसे जुमलों ने सामाजिक परोपकार की भावना को नपुंसक करने का काम अनवरत किया है। हमारे घरों में भी इन जुमलों से प्रभावित अभिभावकों की पूरी पीढ़ी सक्रिय है।
सामाजिक मदद के लिए आगे बढ़नेवाले का उपहास गली-नुक्कड़ों से लेकर बन्द कमरों तक हर जगह स्थान पा लेता है। हमारे थाने और कचहरियाँ तो इन लोगों के जज़्बे को भौंथरा करने के लिए निर्मित ही किये गए हैं। गांधी, बिनोवा और भगतसिंह के देश में यदि जनसेवा की निष्काम भावना के साथ यही व्यवहार होता रहा तो स्वयं को ‘जनसेवक’ कहकर सत्ता हथियानेवालों के हाथ समाज बार-बार ऐसे ही छला जाता रहेगा कि जिन अस्पतालों में ज़िन्दगी को साँस मिलनी चाहिए थी, वे ख़ुद ऑक्सीजन के अभाव में दम तोड़ने लगेंगे और जिन डॉक्टरों की आँखों में तैरता आत्मविश्वास मरीज़ों के परिजनों को हौसला देता था, वे डॉक्टर ख़ुद आँखों में आँसू भरकर अपनी लाचारी का प्रेस्क्रिप्शन लिखते दिखाई देंगे।
एक बात साफ़ समझनी होगी कि जो मरहम लगाने वाले के मरहम को मिर्च कहकर भ्रांति फैला रहा है, उसकी अपनी चुटकी में मरहम तो दूर, मिर्च भी नहीं मिलेगी।


© चिराग़ जैन

Saturday, April 24, 2021

सामान्यीकरण की बीमारी

जो लोग कोविड की आपदा को अवसर समझकर ऑक्सीजन से लेकर दवाइयों तक की कालाबाज़ारी कर रहे हैं; वे भी इसी देश के हिस्से हैं। जो लोग बिना किसी कारण के ऑक्सीजन और ज़रूरी दवाइयाँ अपने घरों में स्टॉक कर रहे हैं, वे भी इसी देश के हिस्से हैं। जो लोग किसी से दुश्मनी निकालने के लिए उसका फोन नम्बर कोविड हेल्प के पोस्टर पर चिपका कर वायरल कर रहे हैं, वे भी इसी देश के हिस्से हैं। और जो लोग तन-मन-धन से जुटकर लोगों की यथासम्भव मदद कर रहे हैं, वे भी इसी देश के हिस्से हैं।
हमारा समाज सामान्यीकरण करने की प्रवृत्ति का शिकार रहा है। दिल्ली में कोई बलात्कार हो गया तो हर दिल्लीवाले को घूर-घूरकर देखने लगे। भाजपा का कोई नेता बेईमान निकल गया तो हर भाजपाई को गरियाने लगे। कांग्रेस का कोई नेता नाकारा निकल गया तो पूरी कांग्रेस का उपहास करने लगे। भगवा वस्त्र पहनकर कोई अपराध करता पकड़ा गया तो पूरे हिन्दू समाज को कठघरे में खड़ा कर दिया। जाली टोपी लगाकर कोई गुनाह करता मिला तो सभी मुसलमानों को गुनहगार मान बैठे। एक महिला दहेज की आँच में जली तो हर दूल्हे को हत्यारा समझ लिया। एक पति का परिवार दहेज कानूनों के कारण बर्बाद हो गया तो हर दुल्हन को षड्यंत्री मान लिया।
यह प्रवृत्ति समाज के लिए घातक है। जिन खेतों में अन्न उपजता है वहाँ धतूरा भी फूट आता है। कैक्टस के झाड़ में भी दुनिया के सबसे ख़ूबसूरत फूल खिल जाते हैं। किसी के प्रति धारणा पालकर उसके पूरे समुदाय के लिए जजमेंटल हो जाना अविवेक का प्रमाण है।
हमने तो अपने धर्मग्रन्थों में देखा है कि सौ कौरवों में भी एक ‘विकर्ण’ हो सकता है। हमने अपनी कथाओं में पढ़ा है कि बाली के घर भी अंगद जन्म ले सकता है। फिर हम इतनी सरलता से किसी एक के कृत्य को देखकर किसी अन्य का आकलन क्यों करने लगते हैं?
एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक की यात्रा तो बड़ी बात है हमने तो एक ही अशोक का चंड रूप भी देखा है और विरक्त रूप भी। हमने एक ही अंगुलिमाल में दो चरित्र देखे हैं। यदि बुद्ध भी अंगुलिमाल के प्रति जजमेंटल हो गए होते तो उसके गले से अंगुलियों की माला उतारकर उसे कांचुकीय पहनाने में कभी सफल न हुए होते।
धारणाएँ बनाकर समाज को देखना बन्द करना होगा। पूरी दुनिया की राजनीति ने ऐसी ही पूर्वग्रह ग्रसित धारणाओं के आधार पर समाज को बाँटा है और पूरी दुनिया के अध्यात्म ने इस बँटवारे को पाटने के लिए मनुष्यता का भराव किया है।
जो बाँट रहा है, वह अपना कोई भी नाम रख ले, लेकिन उसके मूल में सियासत मिलेगी। और जो जोड़ रहा है, वह चाहे अपना कोई भी रूप बना ले, उसके मूल में मनुष्यता मिलेगी।
यह समय व्यक्तियों के प्रति धारणाएँ बनाने का नहीं अपितु मनुष्यता को पोसने का है। विपत्ति का यह कालखण्ड यदि मनुष्य को मनुष्यता का सम्मान करना सिखा गया तो इसके लिए चुकायी गयी क़ीमत की टीस काफ़ी कम हो जाएगी।

-चिराग़ जैन

सावधान मददगारो!

एक महोदय ने अनजान नम्बर से अभी मुझे व्हाट्सएप पर मैसेज किया कि मैं फलानी जगह पर हूँ और यहाँ अस्पताल में एक परिवार मुझे महान सहायक मानकर मुझसे 10000 रुपये की अपेक्षा कर रहा है। मेरे खाते में केवल 3500 रुपये ही हैं। आप कृपया मुझे 10000 रुपये जमा करवा दो ताकि मैं उसकी दृष्टि में ‘महान’ बना रह सकूँ।
जब तक मैं इस संदेश को पढ़कर समझ पाता, तब तक किसी अन्य का फोन आ गया और मैं किसी कार्य में व्यस्त हो गया। काम निबटाकर जैसे ही व्हाट्सएप देखा तो श्रीमान जी अपने पुराने मेसेज डिलीट फ़ॉर आल करके नीचे सभ्य शब्दों में गाली देकर विदा हो गये।
यह घटना केवल इसलिए बता रहा हूँ कि आपकी भावुकता का लाभ उठाकर कहीं कोई आपके साथ छल करे तो सावधान हो जाएँ। धन की सहायता तब तक किसी की न करें, जब तक उससे आपका या आपके किसी अपने का सीधा परिचय न हो।
आशा है आप मेरा आशय समझ सकेंगे।

© चिराग़ जैन

Friday, April 23, 2021

विवेक का दामन न छोड़ें

कोविड के कारण स्थितियाँ निश्चित रूप से विकट हैं, किंतु इस समय में आपको और हमको अधिक उत्तरदायित्व तथा विवेक के साथ आचरण करने की आवश्यकता है। कुछ बातों का सब लोग ध्यान रखें तो स्थिति सामान्य होने में मदद मिलेगी -
1) यदि घर में कोई रुग्ण हो तो उसका ऑक्सीजन लेवल और तापमान मापते रहें, जब तक ऑक्सीजन लेवल 94 से नीचे न होवे तब तक घबराकर अस्पताल भागने से बचें।
2) किसी अप्रिय स्थिति के अंदेशे में दवाइयाँ और ऑक्सीजन सिलेंडर स्टॉक करके न रखें, यह आचरण शेष लोगों के लिए जानलेवा सिद्ध हो रहा है।
3) किसी भी स्थिति में कोविड सम्बन्धी कोई भी जानकारी सार्वजनिक करने से पूर्व उसकी पुष्टि अवश्य करें। एक ग़लत सूचना दर्जनों लोगों का समय नष्ट करके उन्हें मौत के मुँह में पहुँचा सकती है।
4) कोई भी उपयोगी फोन नम्बर सार्वजनिक करने की बजाय वह नम्बर ज़रूरतमंद को इनबॉक्स में दें, अन्यथा अनावश्यक कॉल अटैंड करके लोग परेशान हुए जा रहे हैं।
5) पैनिक न क्रिएट करें, किसी भी चुनौती में धैर्य तथा विवेक से ही समाधान निकल सकेगा। हड़बड़ाहट में काम बनने की बजाय बिगड़ते ही हैं।
6) डॉक्टर्स और अस्पतालों पर भरोसा करें। सामान्यतया कोई डॉक्टर जान-बूझकर अपने किसी मरीज़ को बचाने में कोई कसर नहीं छोड़ता। किन्तु यह भी ध्यान रखें कि डॉक्टर भी अंततः इंसान ही है। इसलिए ग़लती और अपराध के बीच अंतर करने की क्षमता विकसित करें।
आपका विवेक ही इस दौर का पहला उपचार है।

-चिराग़ जैन

Thursday, April 22, 2021

माइंड इट प्लीज़

जहाँ-जहाँ जो जो संपर्क सूत्र थे उन सबको प्रयोग कर चुका हूँ। अब नाशिक से लेकर इंदौर तक और देहरादून से लेकर जोधपुर तक अपने फोन में उपलब्ध प्रभावी तथा सामाजिक रूप से सक्रिय लोगों के नम्बर न जाने कितने लोगों के साथ साझा कर चुका हूँ।
मेरी इस धृष्टता से कई ज़रूरतमंदों को समय पर मदद मिल गयी है। हालाँकि कुछ लोग नाराज़ भी हुए हैं लेकिन मेरे लिए ये नाराज़गी झेलना महंगा सौदा नहीं है। यदि आप भी मेरी फोनबुक में मौजूद हैं तो तैयार रहिएगा, किसी अनजान नम्बर से आपके पास भी मदद का फोन आ सकता है; यदि इर्रिटेट हो जाएँ तो बाद में मुझे फोन करके गालियाँ दे लेना, पर इस वक़्त मुसीबत में फँसे उस व्यक्ति की सहायता कर देना।

-चिराग़ जैन

Wednesday, April 21, 2021

मदद के हाथों को घायल मत करो

कोरोना से जूझते लोगों और उनके परिवारों की मदद में जुटे सभी वालंटियर्स का आभार व्यक्त करते हुए एक विनम्र अनुरोध यह है कि हम सब अपनी-अपनी सीमित क्षमताओं में प्रयास कर रहे हैं। ऐसे में किसी ज़रूरतमंद का संदेश अनदेखा रह जाए तो कृपया उस पर कटाक्ष करने की बजाय, अपने गिरेबान में झाँकने का प्रयास करें।
ये सब लोग जो अपनी सोशल प्रोफ़ाइल, अपना समय और अपने समस्त सम्पर्कों को झोंककर लोगों के लिए सहायता जुटा रहे हैं इन्हें कोई लोभ-लालच नहीं है। ये सब मनुष्यता के नाते मनुष्य के प्रति करुणाभाव लिये दिन-रात जाग रहे हैं। सम्भव है कि इनको हर जगह सफलता न मिले, लेकिन इनकी कोशिश सदैव स्तुत्य रहेगी।
कहीं संपर्क नहीं हो पा रहा तो कहीं कुछ अमानवीय लोगों द्वारा फैलाए हुए श्फेकश् सम्पर्कों के कारण भ्रामक स्थिति बन रही है। इन सब चुनौतियों से जूझते हुए ये सब पावनमना मनुष्य अपने घर-परिवार को ताक पर रखकर जी-जान से इस अभियान में जुटे हुए हैं।
आप इनके सम्बल बनिये। यदि इनकी किसी पोस्ट पर किसी ज़रूरतमंद की कोई गुहार दिखाई दे तो वहीं रिप्लाई में उसे यथासम्भव सहायता पहुँचाने की कोशिश करें। जो जहाँ परेशान है उसे उस जगह का कोई स्थानीय संपर्क सूत्र ही उपलब्ध करा दें। सम्भव है आपका यह कृत्य किसी के लिए जीवनदायी सिद्ध हो।
ये देश आपका भी उतना ही है, जितना इस अभियान में जुटे लोगों का। इसके चरमराते ढांचे को बचाने में हाथ न लगा सकें तो कृपया लात भी न मारें।
अपनी तमाम नकारात्मकता के साथ एक बार सोचें जिनको रात के दो बजे भी सहायता के लिए कोई नम्बर मिल पा रहा हो उसे कैसा लग रहा होगा। एक बार सोचें कि जिसकी टूटती उम्मीद के आखिरी छोर पर सहायता खड़ी मिल रही हो उसे कैसा लग रहा होगा।
हाँ, ये सब आप जितने अनुभवी नहीं हैं कि ग़लती होने के भय से कुछ करें ही नहीं। ये तो बेचारे सारी ग़लतियों का रिस्क लेकर भी आगे बढ़कर सहायता के लिए दौड़ पड़ते हैं। सैंकड़ों लोगों तक इन तीन-चार दिनों में सहायता पहुँचाने में सफल भी हुए हैं।
ये नन्हें-नन्हें हाथ तूफान से जूझकर कश्ती खेने चले हैं। इनको आशीष दो!

-चिराग़ जैन

Tuesday, April 20, 2021

कान्हा की उंगली पर गौवर्द्धन

जिनकी कविताएँ पढ़कर मन प्रसन्न हो जाता है, उन सब युवाओं की पिछले दो-तीन दिन की क़वायद ने बुझती हुई आँखों में नयी रौशनी भर दी है। दिन-रात लगकर ये सब अनजान लोगों की मदद के लिये सबके आगे हाथ फैला रहे हैं।
न खाने का होश है न पीने की चिंता। बस यहाँ ऑक्सीजन, वहाँ इंजेक्शन, वहाँ डोनर, वहाँ प्लाज़्मा और यहाँ तक कि किसी के घर खाना कैसे पहुँचे इसकी भी ज़िम्मेदारी उठा ली है इन मासूम कंधों ने।
इनसे कोई पूछ ही नहीं रहा कि तुम्हारी अपनी तबीयत तो ठीक है ना! जब किसी तक मदद पहुँचाने में सफल हो जाते हैं तो इनके स्टेटस में लिखे शब्द बल्लियों उछलने लगते हैं और जब कहीं निराशा हाथ लग जाती है तो निढाल हो जाते हैं।
कोई छल-कपट नहीं है इनमें। इनके ये प्रयास किसी मन्दिर की आरती और मस्जिद की अज़ान से ज़्यादा पवित्र जान पड़ते हैं। जिसकी मदद की गुहार सुनते हैं, उसका धर्म-जाति, भाषा वगैरा कुछ भी सोचे बिना बस उसके शहर का नाम पढ़ते हैं और धड़ाधड़ सम्पर्क साधने में जुट जाते हैं। ये इस देश का असली जज़्बा है। इन्हें जिसकी सहायता करनी है, मतलब करनी है। उसके लिए डीएम से लेकर सीएम तक जिसका नम्बर मिल जाए, ये धड़ल्ले से उसे फोन खटका देते हैं। ऐसा ही देश सोचा होगा हमारे पुरखों ने।
क़ीमत बहुत बड़ी चुकानी पड़ी है लेकिन इस बीमारी के कारण मेरे देश की फुलवारी ने वटवृक्षों को सहारा देना सीख लिया है। इनके हौसले को बनाए रखने में जो मदद हो सके, ज़रूर कीजिये।
इन्हें ध्यान से देखो, हर बालक में एक कन्हैया दिखाई देगा जिसने अपने गोकुल की रक्षा के लिये अपनी नन्हीं उंगली पर गौवर्द्धन उठा लिया है।
इति शिवहरे, ललित तिवारी, रुचि चतुर्वेदी, प्रिंस जैन, दीपाली जैन, पार्थ नवीन, सृष्टि सिंह, प्रियांशु गजेंद्र, भूमिका जैन, सुनील साहिल, अजय अंजाम, अवनीश त्रिपाठी, स्वयं श्रीवास्तव, सुदीप भोला, रामायण धर द्विवेदी, रश्मि शाक्या, कमलेश शर्मा, अनुज त्यागी, नंदिनी श्रीवास्तव, दीपक पारीक, नीर गोरखपुरी, विनोद पाल, दुर्गेश तिवारी, कुमार सागर, पूजा यक्ष, सरगम अग्रवाल, शालिनी सरगम, गौरव चौहान, संदीप शजर, रूपा राजपूत, भावना राठौर, पल्लवी त्रिपाठी, एकता भारती, गोपाल पाण्डे, हिमांशु भावसार और न जाने कितने सारे ऊर्जावान युवा लगातार लोगों के आँसू पोंछने के लिए अपनी नन्हीं हथेलियाँ लिए उपलब्ध हैं।
इन्हें नाम की कोई चाह नहीं है। जिस तक मदद पहुँच जाए, उसके लिए की गयी मदद की गुहार वाली पोस्ट भी ये अपनी वॉल से डिलीट कर देते हैं। कई ऐसे भी हैं जो व्हाट्सएप समूहों में लगातार जुटकर लोगों की मदद कर रहे हैं लेकिन उनका नम्बर मेरे पास दर्ज नहीं है इसलिए उनका नाम तक मैं नहीं जानता।
सचमुच, ये ऐसे मदद कर रहे हैं जैसे मदद की जानी चाहिये। ईश्वर मेरे जीवन के सारे पुण्य इन सब पर बरसा दे!

-चिराग़ जैन

Monday, April 19, 2021

मौके की नज़ाक़त

टूटने से काम नहीं चलेगा। व्यवस्था में बैठे हुए लोग तुम्हें इग्नोर करेंगे, लेकिन किसी भी स्थिति में किसी की मदद के लिये ‘प्रयास’ करने से मत चूकना। दस जगह फोन करोगे तो नौ जगह से कोई उत्तर नहीं आएगा, लेकिन दसवीं जगह भी कोशिश ज़रूर करना।
बस एक बात ध्यान रखना कि जो आपके पास मदद मांगने आया है वह आप पर विश्वास कर रहा है। आप भगवान नहीं हैं कि उसकी मदद कर ही देंगे, लेकिन आप इंसान ज़रूर बने रहना कि कोशिश में कोई कमी न रहे।
सोशल मीडिया पर अनेक विज्ञापन चल रहे हैं, कहीं ऑक्सीजन की सप्लाई के लिए सम्पर्क करने का विज्ञापन है तो कहीं रेमडेसिवर की उपलब्धता की लंबी-लंबी लिस्टें फॉरवर्ड की जा रही हैं। यदि आपके पास ऐसी कोई सूची हो तो उसे उठाकर पीड़ित के परिजनों को भेजने से पूर्व कम से कम उसकी सत्यता जाँच लें। जो जीवन मृत्यु से जूझ रहा है, उसके परिवार के किसी भी व्यक्ति का एक मिनिट बर्बाद करना कितना बड़ा अपराध है, इसका एहसास इन फेक लिस्टों को फॉरवर्ड करते समय ज़रूर रहना चाहिए।
आप सबने बड़ी मेहनत करके सोशल मीडिया की ताक़त जुटाई है। इस माध्यम का प्रयोग लोगों की जान बचाने के लिए कीजिये। कहीं भी किसी को भी मदद की ज़रूरत हो तो उसकी वास्तविकता की पुष्टि करके उसे अपनी टाइमलाइन से पोस्ट करें, न जाने कौन-सी पोस्ट किसकी जान बचा ले। इस दौर में किसी को यह एहसास भी दे दिया जाए कि वह अकेला नहीं है, तो उसकी हिम्मत बढ़ जाएगी।
सिस्टम और सरकार को कोसनेवाले लोग मेरी प्रोफ़ाइल से फिलहाल दूर रहें। मैं कोविड से त्रस्त लोगों की जानकारी पोस्ट कर रहा हूँ। यदि किसी की कोई सहायता कर सकें, या ऐसी इच्छा हो तो ही मेरी प्रोफ़ाइल पर आएँ, अन्यथा अनर्गल प्रलाप करने के लिए और बहुत प्रोफाइल्स हैं।
कृपया इस समय जीवन बचाने की क़वायद में हमारा सहयोग करें। हम सब बचे रहेंगे तो राजनीति और सिस्टम पर गाल बजाने के बहुत अवसर मिल जाएंगे।

Saturday, April 17, 2021

जीवन छीन लाने का समय

ध्वंस मुँह बाये खड़ा है
मृत्यु का पहरा कड़ा है
घाट धू-धू जल रहे हैं
हर लहर मातम जड़ा है
यह बिखरने का नहीं, हिम्मत जुटाने का समय है
मौत के पंजे से जीवन छीन लाने का समय है 

मृत्यु का विकराल वैभव इस जगत् पर छा चुका है
आँसुओं के अर्घ्य से कब काल का ताण्डव रुका है
अब हमें अड़ना पड़ेगा
अनवरत बढ़ना पड़ेगा
श्वास पर विश्वास रखकर 
यह समर लड़ना पड़ेगा
आत्मबल से भाग्य का रुख मोड़ आने का समय है
मौत के पंजे से जीवन छीन लाने का समय है 

चाह अमृत की रखी पर, विष उलीचा है जलधि ने
सृष्टि भर के प्राण दूभर कर दिये फिर से नियति ने
काल प्रलयंकर बना है
मृत्यु हर कंकर बना है
जब हवा में विष घुला है
तब कोई शंकर बना है
फिर इसी जलधाम से अमृत जुटाने का समय है
मौत के पंजे से जीवन छीन लाने का समय है 

अपशकुन पर ध्यान क्यों दें, हम शकुन के गीत गाएँ
इस अंधेरे से डरें क्यों, क्यों न इक दीपक जलाएँ
हर लहर का क्रोध फूटे
साथ जीवट का न छूटे
सिर्फ़ हिम्मत साथ रखना
टूटती हो नाव टूटे
यह प्रलय पर पाँव रखकर पार जाने का समय है
मौत के पंजे से जीवन छीन लाने का समय है 

© चिराग़ जैन

हिरण्यकश्यप होने का नुक़सान

स्वयं को भगवान मानने की महत्वाकांक्षा में हिरण्यकश्यप ने होलिका के वरदान का दुरुपयोग किया। चिता ने चीख-चीख कर कहा कि, ‘मूर्ख हिरण्यकश्यप, जनता पर इतना अत्याचार न कर कि तेरे ही महल के खंभे तेरे विनाश का उद्गम बन जाएँ!’
मदान्ध राजा ने चिता की बात अनसुनी कर दी। फिर एक दिन पत्थर की भी छाती फट गयी। फिर एक दिन सारे वरदान उसके विरुद्ध खड़े हो गये। फिर एक दिन नियति के नाख़ून, अत्याचारी के पाप से अधिक बड़े हो गये।

आत्मबल का अवलम्बन

जो कुछ इस समय घट रहा है, उसकी भरपाई कभी न हो सकेगी। मृत्यु ने समूची मानवजाति को दहला दिया है। मानव बस्तियों में अजीब-सा अमंगल छा गया है। सब मन ही मन अपने-अपने अपनों की गिनती करके इस संख्या के यथावत बने रहने की दुआ मांग रहे हैं।
सब ऊपर ही ऊपर यह जता रहे हैं कि हमें कुछ नहीं होगा, लेकिन सब भीतर ही भीतर यह जान रहे हैं कि किसी को भी कुछ भी हो सकता है। काल इतना क्रूर हो गया है कि किसी के लिए भी जीवन बचाने से ज़्यादा ज़रूरी कुछ नहीं रह गया है।
हमने ऐसी-ऐसी दुर्भिक्ष के विषय में पढ़ा है कि गाँव के गाँव ख़ाली हो गये थे। मसान छोटे पड़ गये थे। लोगों ने खेत-खलिहान और यहाँ तक कि आंगन में ही चिताएँ जलानी शुरू कर दी थीं। इन स्थितियों के विषय में जब पढ़ते थे तो लगता था कि अब ऐसा नहीं होगा। अब समाज बहुत विकसित हो गया है। अब हम साधन-सम्पन्न हैं। किन्तु कोरोना के इस प्रकोप ने यह सिद्ध कर दिया कि स्थिति जस की तस है।
मनुष्यता का ऐसा ह्रास शायद ही कभी हुआ हो कि लोगों की अन्तिम यात्रा तक में चार कंधे पूरे नहीं हो पा रहे। पूरे माहौल पर मसान का सन्नाटा छा रहा है। इस सूनामी से स्वयं को बचाए रखने के लिये मनोबल बनाए रखना बेहद ज़रूरी हो गया है।
मैं स्वयं को यह कह-कहकर ऊर्जा और सकारात्मकता से सींच रहा हूँ कि ‘समाज पर इतना बड़ा संकट आया है, ऐसे में बीमार पड़ने की फ़ुरसत ही कहाँ है!’ यह टोटका काम कर रहा है। यह विचार डूबते हुए मन को सम्बल प्रदान करता है। जिस किसी के विषय में थोड़ा भी पता चलता है, उसकी कुशल-क्षेम जानने की क़वायद, और जहाँ तक सम्भव हो उस तक सहायता पहुँचाने की इच्छाशक्ति मेरे तन में व्याप्त रोग को सिर उठाने की मोहलत नहीं दे रही है।
समय का यह टुकड़ा एक तूफ़ान जैसा है। इसके गुज़रने से होनेवाली तबाही को रोकना लगभग असंभव है, किंतु इसकी दिशा देखकर, इसकी चपेट में आनेवालों को अपनत्व का मानसिक अवलम्बन थमाकर नुक़सान और पीड़ा को कम तो किया ही जा सकता है।

-चिराग़ जैन

Friday, April 16, 2021

विनाशकाले


जिनकी जाँच नहीं हो पा रही 
उनको ख़ामोश कर देना।
जिनको इलाज नहीं मिल पा रहा
उनकी ज़ुबान सी देना।
जो अस्पतालों के बाहर दम तोड़ रहे हैं
उन पर पर्दा डाल लेना।
जो श्मशान में
अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे हैं
उनसे नज़रें फेर लेना।

...लेकिन एक क़िस्सा
अपने आलीशान बैडरूम में
ठीक अपनी आँखों के सामने लिखवा लेना
कि जब चिताएँ भी
हिरण्यकश्यप की महत्वाकांक्षा का
साधन बन जाती हैं
तब
उसके अपने ही महल के खंभे
उसके विनाश का उद्भव बन जाते हैं।

© चिराग़ जैन

Monday, April 12, 2021

जनता ख़ामोश है।

पूरे देश का मज़ाक़ बनाकर रख दिया है। बेशर्मी से झूठ बोलनेवाले राजनेता, एक साथ मिलकर सब कुछ बर्बाद कर रहे हैं और देश की जनता ख़ामोश होकर तमाशा देख रही है।
प्रश्न समूची राजनीति की उस ढिठाई का है जो जनता के जीवन से खिलवाड़ करने में हिचकती नहीं है। प्रश्न जनता की उस मानसिकता का है जो किसी भी राजनैतिक निर्णय की चर्चा शुरू होने से पूर्व किसी दल या विचारधारा का चश्मा पहनना नहीं भूलते।
अरे भाई, सही हर स्थिति में सही होता है और ग़लत हर हाल में ग़लत? इतनी सी बात हम समझना नहीं चाहते। कांग्रेस के शासन में कम किसानों ने आत्महत्या की थी, भाजपा के शासन में ज़्यादा किसान मर रहे हैं। इस बात को कहकर कांग्रेसी भला कैसे इतरा सकते हैं? राजनीति ने जनता को विवेकशून्य बनाया है या फिर विवेकशून्य जनता ने राजनीति को इतना मक्कार और बेशर्म कर दिया है इस पर ढंग से विचार करना ज़रूरी हो गया है।
उन्हें पता है कि चुनाव के समय उनका कोई एक पैंतरा देखते ही तुम उनकी बदतमीज़ियों के पोथे भूल जाओगे। उन्हें पता है कि पैदल चलकर घर जाती जनता को कीड़े-मकोड़ों की तरह मरने के लिए छोड़ा जा सकता है क्योंकि बिहार में चुनाव आते ही राजनीति इन सब कीड़े-मकोड़ों को वोट में तब्दील कर लेगी। उन्हें पता है कि न्यायपालिका की पेचीदा भूल-भुलैया में फँसा नागरिक कभी इतनी फ़ुरसत ही न पाएगा कि व्यवस्था के सुधार की मांग कर सके।
उन्हें पता है कि लाखों-करोड़ रुपये के पैकेज की घोषणा करने से घबराना नहीं चाहिए क्योंकि इस देश की जनता की इतनी हिम्मत ही नहीं है जो उस पैकेज के अस्तित्व पर प्रश्न पूछ लेवे। और अगर इतने वर्ष की मेहनत के बाद भी कोई विवेकशील व्यक्ति इस जनता के बीच बचा रह गया है तो उसको धराशायी करने के लिए इसी जनता के बीच अपने-अपने लीडर पर अटूट श्रद्धा रखनेवाले लोगों की कोई कमी थोड़े ही है।
राजनीति बीस लाख करोड़ के पैकेज की घोषणा करेगी और हम दो पाटों में बँट जाएंगे। राजनीति मजदूरों के लिए बसों की लिस्ट लेकर आएगी, उसमें बसों के नाम पर बसें न हों तो भी हम भाजपा-कांग्रेस करने में व्यस्त हो जाएंगे।
हमारे लिए सवाल यह है ही नहीं कि तपती दुपहरी में जानवरों की तरह घिसटने को मजबूर इंसान तक सहायता पहुँची या नहीं पहुँची, हम तो इस तमाशे में व्यस्त हैं कि इसमें कांग्रेस ने बीजेपी को धूल चटाई या बीजेपी ने कांग्रेस को। इससे आगे हमारी संवेदनात्मक सोच का इंजन चल ही नहीं पाता।
हम यह समझ ही नहीं पाते कि शिवसेना और कांग्रेस के गठबंधन में भी वही लालचमण्डी है जो अन्य किसी प्रदेश में है। लेकिन हम इससे खुश हो जाते हैं कि अमित शाह की चाल फेल हो गयी।
कोई अमित शाह को फेल करके खुश है, कोई राहुल गांधी को, कोई केजरीवाल को तो कोई मोदी या दीदी को। लोकतंत्र के आखिरी पायदान पर खड़े आदमी पर किसी का ध्यान नहीं है।
राजनीति ने सिद्ध कर दिया है कि इस देश की जनता रिमोट से चलती है। जब तक राजनीति किसानों को अन्नदाता कहती रहती है तब तक कोई खेतों में पड़ रहे जानलेवा कैमिकल्स पर सवाल नहीं कर सकता। जब राजनीति ने किसानों को आतंकवादी कहना शुरू कर दिया तो कोई टीवी चैनल उनके विरोध की आवाज़ प्रसारित नहीं कर सका।
रामदेव के आंदोलन पर रात में लाठीचार्ज करवानेवाली कांग्रेस, भाजपा को आन्दोलन से निपटने की नैतिकता सिखाती है और कुल दो लोगों की तानाशाही पर चल रही भाजपा, कांग्रेस को पार्टी के भीतर लोकतांत्रिक मूल्य स्थापित करने का ज्ञान देती है।
कितनी आदर्श स्थिति है, इस देश के महान राजनेता यकायक चुनाव से ठीक पहले अपनी आत्मा की आवाज़ सुनकर ‘नये दल’ में चले जाते हैं। जो चुनाव से पहले आत्मा की आवाज़ न सुन पाए वो चुनाव जीतने के बाद उस आवाज़ को सुन लेते हैं। सब कुछ खुल्लमखुल्ला चल रहा है लेकिन अपना-अपना चश्मा पहने जनता इस बात पर ख़ुश है कि अमित शाह ने ममता बनर्जी की पार्टी का दिवाला निकाल दिया।
सब अपनी-अपनी कांग्रेस और अपनी-अपनी भाजपा में इतने लिसड़े हुए हैं कि देश की बर्बादी उन्हें दिखाई ही नहीं देती। जिन्हें यह बर्बादी दिख रही है, जिन्होंने अपने चश्मे हटाकर देश को देखने की कोशिश की है उन्हें उनकी नौकरियों से हाथ धोना पड़ा है। उनको गद्दार, राष्ट्रद्रोही, हिन्दू विरोधी और ऐसे ही तमाम अलंकरणों से सँवारने के लिए पूरी टोली सक्रिय है।
लोकतंत्र में सत्ताधारी पक्ष की निरंकुशता पर लगाम लगानेवाला विपक्ष भी इस पूरी स्थिति में बराबर का हिस्सेदार है क्योंकि जिसे इस निरंकुशता के विरुद्ध खुलकर बोलने से डर लगता है समझ लो कि उसने अपने होंठों में अपना ख़ुद का कच्चा चिट्ठा भींच रखा है।
भारत की महानता के ढोल पीटते हुए सदियाँ बीत गईं, लेकिन आज भी दिल्ली से लेकर दार्जिलिंग तक कोई कस्बा, कोई शहर, कोई गाँव, कोई मुहल्ला ऐसा न मिलेगा जहाँ इस महान देश का कोई नागरिक जानवरों से बदतर ज़िन्दगी जीने को मजबूर होगा।
विचारधाराओं के नाम पर देश को टुकड़े-टुकड़े करनेवाले इन सियासतदानों से पूछो कि प्रचण्ड बहुमत की सरकार बनाकर भी ‘अंत्योदय’ की अवधारणा अहल्या की भाँति पत्थरों में ही क्यों सुबक रही है? इतने लम्बे समय तक शासन करने के बावजूद गांधी का ‘रामराज’ कोरी कल्पना ही क्यों बनकर रह गया? न लोहिया का समाजवाद आया, न अंबेडकर का संविधान ही शत प्रतिशत लागू हो सका!
फिर क्यों चल रहा है ये ढोंग? यह प्रश्न न पूछ लिया जावे इसीलिए राजनीति आपको चुटकुलों, जुमलों और सोशल मीडिया के प्रोपेगैंडा में उलझाए रखेगी। इस उलझन से आपको स्वयं बाहर आना होगा अन्यथा ये उलझन एक दिन आपकी आगामी पीढ़ियों के लिए फाँसी बन जाएगी।

© चिराग़ जैन

Saturday, April 10, 2021

एक ज़रा-सा झोंका

एक ज़रा-सा झोंका आया
नैया ने खाये हिचकोले
जिन लहरों पर तैर रही थी
उन लहरों पर डगमग डोले
बस इतने भर से इस पल में हम पूरे मुस्तैद हो गये
अगला-पिछला सब बिसराकर वर्तमान में क़ैद हो गये

बदले-वदले भूल चुके हैं, सपने-वपने याद न आए
जैसे भी हो इन लहरों से नैया पार लगा ली जाए
जिनको हल करना है इस पल
कब वो प्रश्न बहुत गहरे हैं
इक नदिया है, इक नैया है
इक हम हैं और कुछ लहरें हैं
इस क्षण कहीं और देखा तो समझो हम नापैद हो गये
अगला-पिछला सब बिसराकर वर्तमान में क़ैद हो गये

जितनी जटिल समस्या होगी, उतना बड़ा सबक लाएगी
सुख में तो कुछ तिनके डाली पर कोयल भी रख आएगी
लेकिन जब आंधी आएगी
जब डाली से बौर झड़ेगा
तब अपने जीवन की रक्षा
पेड़ आम का स्वयं करेगा
वो क्या सोचे सावन-भादो, जिसके दूभर चैत हो गये
अगला-पिछला सब बिसराकर वर्तमान में क़ैद हो गये

© चिराग़ जैन

चोर का साझेदार

चोर को चोरी करते देख भी जो शोर न मचा पाए, या तो वह अपनी चोरी छुपाने में व्यस्त है या फिर चोर का साझेदार है।

© चिराग़ जैन

Friday, April 9, 2021

चरित्रहीन अभिनेता

एक प्रश्न देश के लगभग प्रत्येक मस्तिष्क को परेशान किये हुए है कि चुनावी रैलियों में कोरोना क्यों नहीं फैल रहा। और जैसा कि हमारे समाज का चलन हो गया है, इस प्रश्न में भी प्रश्न से पहले मोदी विरोधी या मोदी समर्थक की तलाश की जाने लगी है। जबकि हक़ीक़त यह है कि आमूल-चूल राजनीति इस विषय पर एक साथ है। जनता मरती है तो मरे, हमें रैलियों में भीड़ जुटाकर न्यूट्रल वोट डायवर्ट करने में कोई कसर नहीं छोड़नी है।
लोककल्याणकारी गणराज्य के इस भौंडे नाटक में चरित्रहीन अभिनेता की भूमिका निभानेवाला चुनाव आयोग भी चुनावी रैलियों के लिये बनाए गए कोविड नियमों को बिसराकर देश के गृहमंत्री, प्रधानमंत्री और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री तक के हठयोग का लुत्फ़ उठा रहा है।
न्यायपालिका ने अपने लिए कॉमेडियन की भूमिका चयन की है। वह ऐसे-ऐसे नियम बना रही है कि उनमें लॉजिक तलाशने की गरज से निकलो तो अपने सिर के बाल नोचने से पहले हाथ नहीं रुकेंगे।
बहरहाल, राजनीति और व्यवस्था के इस आचरण ने जनता का केवल एक नुकसान किया है कि जनता कोविड की गम्भीरता को लेकर संशय में आ गयी है। लोग समझ नहीं पा रहे हैं कि यदि कोविड इतना ख़तरनाक है तो राजनेता जैसी डरपोक स्पीशीज़ को इससे डर क्यों नहीं लग रहा।
संशय जायज़ है, किन्तु चुनाव एक ऐसा नशा है जिसमें जनहित तो क्या आत्महित की भी बलि चढ़ाने से राजनेता नहीं चूक सकते। इसलिए राजनीति के आचरण को देखकर कोविड के इस काल में अपने आप को ख़तरे में न डाले।
कोरोना वायरस एक बार शरीर को जकड़ ले तो पोर-पोर दुःखता है। जीवन का संघर्ष उत्पन्न हो जाता है। घर-परिवार में अजीब सी दहशत व्याप्त हो जाती है। इसलिए अपनी प्रतिरोधक क्षमता का ध्यान रखिये और अपने आप को कोविड तथा राजनीति दोनों से बचाए रखें।
स्थितियाँ इतनी विकट हैं कि रैलियाँ लिखो तो भी ‘रंगरलियाँ’ टाइप हो रहा है।

~चिराग़ जैन

Wednesday, April 7, 2021

लोकतंत्रात्मक गणराज्य

उनकी अदालतें आपकी ज़िन्दगी घिस देंगी
फिर भी वे सामाजिक न्याय पर इतराएँगे
उनके थाने आपको नोच डालेंगे
फिर भी वे आंतरिक सुरक्षा पर फ़ख़्र करेंगे
देश के कुछ हिस्सों में संविधान लागू नहीं होगा
फिर भी वे प्रभुसत्ता सम्पन्न होने का दम्भ भरेंगे

वे अतिक्रमण करने वालों के हाथ जोड़ेंगे
वे समय पर टैक्स देने वालों की कमर तोड़ेंगे
पर हम यह सब चुपचाप देखते रहेंगे

क्योंकि हमें दिन-रात पिस-पिसकर
वो टैक्स का पैसा जुटाना है
जिसका हिसाब मांगने का अधिकार
हमें नहीं दिया जाएगा

लोकतंत्रात्मक गणराज्य के 
इस फूहड़ नाटक से
पर्दा या प्रश्न उठाने वाले को
राष्ट्रद्रोह, न्यायालय की अवमानना और
संसद के विशेषाधिकार उल्लंघन का
दोषी मान लिया जाएगा।

राष्ट्रवादियों की सरकार हो
और मैंने आवाज़ उठाई
तो मुझे वामपंथी कहकर 
नकार दिया जाएगा।

सेक्युलरों की सरकार हो
और मैंने बोलना चाहा
तो मुझे साम्प्रदायिक कहकर
मेरा तिरस्कार किया जाएगा!

वामपंथी सरकार हो और मैं बोला
तो मुझे पूंजीपति मान लिया जाएगा।

हर दल ने
अपने ऊपर उठने वाले प्रश्नों से
बचने के लिए
कोई न कोई शब्द गढ़ रखा है
ताकि जनता के सवालों से
उलझे बिना
आगे बढ़ा जा सके

ताकि जब कोई 'नागरिक'
सवाल पूछे 'अपनी सरकार से'
तो उसकी ज़ुबान पर
उस एक शब्द का ताला जड़ा जा सके।

© चिराग़ जैन

#ChiragJain 
thechiragjain.blogspot.com

Monday, April 5, 2021

कलकत्ता से कोरोना गिफ्ट

बंगाल चुनाव की हलचल के बीच ‘लपेटे में नेताजी’ की शूटिंग के लिये कोलकाता जाना तय हो गया। कार्यक्रम के प्रोड्यूसर आशीष पाण्डे ने पिछली बार हुगली नदी में स्टीमर पर शो शूट करने का प्रयोग किया था, जिसकी काफी प्रशंसा हुई। उसी से प्रभावित होकर इस बार भी उसी प्रारूप में शो शूट होना था। 1 अप्रेल को कार्यक्रम की रूपरेखा बनी कि 4 अप्रेल को दो एपिसोड सुबह- सुबह शूट किये जाएंगे और एक एपिसोड शाम को। 3 अप्रेल की दोपहर को दिल्ली से फ्लाइट थी, सो हमारे पास तीन एपिसोड्स की तैयारी करने के लिये कुल 48 घण्टे का समय था।
ऐसी स्थिति पहले भी कई बार हुई है, लेकिन इस बार कठिनाई यह रही कि कोलकाता चुनाव पर ही पहले चार एपिसोड शूट किये जा चुके थे इसलिए चुनावी माहौल की काफी सामग्री हम पिछले शूटिंग शेड्यूल में प्रयोग कर चुके थे। उसी विषय और उसी पात्रों के साथ लगभग वैसे ही घटनाक्रम पर तीन एपिसोड्स तैयार करने थे वो भी केवल 48 घण्टे में।
चारों आमंत्रित कवि अपने अनुभव, निष्ठा तथा क्षमता के बल पर इस चुनौती से जूझ ही लेंगे यह प्रोडक्शन को विश्वास था, और अंततः यह विश्वास बना रह सका। लेकिन यह यात्रा बेहद रोमांचक रही। दिल्ली हवाई अड्डे पर पहुँचा तो सुदीप भोला जबलपुर से आकर सुबह से प्रतीक्षारत थे। उन्होंने बताया कि कोरोना की नयी लहर के चलते दिल्ली हवाई अड्डे पर उतरते ही उनका कोविड टेस्ट किया गया है। हवाई अड्डे पर भी लोगों के चेहरे पर कोरोना का भय और व्यवहार में सावधानी देखकर लगा कि जनता इस वायरस के दूसरे आघात से जूझने के लिये तैयार है।
शाम 6 बजकर 30 मिनिट पर कोलकाता में लैंडिंग हुई। हवाई अड्डे की एक दर्जन कन्वेयर बेल्ट्स में से जिस पर हमारा लगेज आना था, वह अचानक चलते-चलते बन्द हो गयी। लगभग 40-45 मिनिट का समय इस अनचाही परिस्थिति ने नष्ट किया, वह भी उस समय जब हम चारों में से कुछ कवियों को होटल पहुँच कर सुबह 5 बजे शूट होनेवाले 2 एपिसोड्स के लिये कविताएँ पूरी करनी थीं। येन-केन प्रकारेण होटल पहुँचे और जल्दी-जल्दी भोजन की औपचारिकता निभाकर सभी सुबह की तैयारी में जुट गये। लिखना भी ज़रूरी था और स्क्रीन पर फ्रेश दिखने के लिये सोना भी ज़रूरी था। मैं लगभग पूरी तैयारी करके ही घर से निकला था, इसलिए तुरन्त सो गया।
रात में अचानक किसी की उबकाइयो की आवाज़ से नींद खुली। तंद्रा की अवस्था से बाहर आया तो ज्ञात हुआ कि सुदीप भोला कई बार उल्टी कर चुके हैं और बुखार जैसा महसूस कर रहे हैं। स्वाभाविक रूप से पहला संदेह कोविड का ही हुआ। सुबह तक सुदीप परेशान रहे और सुबह तक स्थिति यह हो गयी कि उनका चेहरा शिथिल हो गया।
पाँच बजे शूटिंग के लिये जाना था, लेकिन मैं और कार्यक्रम के संपादक अमृत आनंद जी मुँह अंधेरे ही सुदीप को निकटतम नर्सिंग होम में ले गये। आवश्यक जाँच तथा आवश्यक उपचार देकर एक डेढ़ घण्टे में हम सुदीप को वापिस होटल ले आये। कार्यक्रम सुदीप के बिना करने का निर्णय लिया जा चुका था, लेकिन जब तक मैं नहा-धोकर लौटा तब तक सुदीप शूटिंग पर चलने का मन बना चुके थे।
बिजली की सी फुर्ती दिखाते हुए सुदीप दस मिनिट में नहा-धोकर सेट पर जाने के लिये तैयार थे। कोलकाता की उमस ने सेट पर पहुँचते ही ऊर्जा शोषित करना प्रारंभ कर दिया। पहला शूट प्रारम्भ होते-होते सात-सवा सात का समय हो गया था। उमस का प्रकोप हुगली में तैरते स्टीमर पर भी कम न हो सका। निस्पंद वातावरण में क्षण-क्षण और उग्र होते सूर्य के सम्मुख जैसे-तैसे पहला एपिसोड रिकॉर्ड हो गया। इस मौसम ने सुदीप की जुटाई गई ऊर्जा में सेंध लगा दी। मैंने पहली बार सुदीप के चेहरे पर पीड़ा देखी। अभी नीचे आकर साँस भी नहीं ले सके थे कि दूसरे एपिसोड की तैयारी हो गयी। सुदीप इस बार भी हमारे साथ रहे। सूरज और प्रचंड हो गया था। उमस और प्रबल हो गयी थी। लेकिन शो मस्ट गो ऑन का पालन करते हुए हम शूटिंग करते रहे। डेढ़ घंटे की इस शूटिंग ने हम सभी को ऊर्जाहीन कर दिया। स्थिति यह हुई कि होटल पहुँचते-पहुँचते मेरे शरीर ने हिम्मत छोड़ दी और मैं शिकंजी इत्यादि का सेवन करके बिस्तर पर लंबलोट हो गया। जब उठा तो पता चला कि सुदीप दोबारा अस्पताल गए थे, लेकिन डॉक्टर ने उन्हें आराम करने की सलाह देकर कुछ विटामिन इत्यादि की टेबलेट्स दे दीं। जब मैं उठा तब तक सुदीप सो चुके थे। दवाई उनके सिरहाने रखी थी, लेकिन उन्होंने खाई नहीं थी।
मन घबरा रहा था, सुदीप को कई बार उठाने का प्रयास किया, लेकिन वे हुंकारा भरकर ऐसे सो जाते, ज्यों कोई भयंकर नशे में सो रहा हो। उमस से थके हुए शरीर को वातानुकूलित कमरे में सुला दिया जाए तो उस पर ऐसा ही नशा चढ़ता है, इसका अनुभव मैं पहले भी कोलकाता शहर में कर चुका हूँ, इसलिए सुदीप की नींद से मैं चिंतित नहीं था, लेकिन उनके बिना खाये-पिये रहने से परेशान ज़रूर था।
बहरहाल, शाम के शूट का समय हो गया। इस बार सुदीप को शूट पर नहीं जाना था, यह सुनिश्चित कर दिया गया। सुदीप निद्रा से तंद्रा की अवस्था में आ गए थे लेकिन शो तीन ही कवियों के साथ होना था, सो सुदीप के लिये खिचड़ी ऑर्डर करके हम होटल से निकल गए। सेट पर पहुँचे तो सुबह जैसी उमस का स्थान शाम की मोहक हवा ने ले लिया था। पूरा जहाज रौशनी से जगमगा रहा था। टीएमसी, भाजपा और सीपीआई के नेतागण आ चुके थे, श्रोताओं की उपस्थिति हो चुकी थी और कवियों और एंकर ने मेकअप भी ले लिया था। उसी वक़्त अचानक मंद समीर ने झंझावात का रूप ले लिया। हुगली की लहरों में जैसे कोई भूकंप आया गया हो। आसमान को चीरती बिजली कड़कने लगी और हवा ने जहाज पर लगे सेट को तहस-नहस करना शुरू कर दिया। आनन-फानन में कैमरे और लाइट्स छत से उतारकर नीचे लाई गईं। यूनिट के लोगों ने भाग-भागकर कुर्सियाँ इत्यादि उड़ने से बचाई। सारा तामझाम यूनिट एक छोटे से कमरे में समा गए। ऑडिएंस और लीडर, नदी किनारे किसी सुरक्षित स्थान पर तूफान के रुकने की प्रतीक्षा कर रहे थे।
यकायक तेज़ बारिश शुरू हो गयी। स्पष्ट हो गया कि अब शो नहीं हो सकेगा। अब सब बारिश रुकने का इंतज़ार केवल इसलिए कर रहे थे कि अपने-अपने घर जा सकें। सारी मेहनत पर पानी फिर गया था लेकिन यूनिट और हमारे माहौल तनाव या क्षोभ के स्थान पर इस आकस्मिक स्थिति का हंसी-ठट्ठा चल रहा था। बारिश हल्की हो रही थी और मौसम खुशनुमा हो चला था। अचानक आशीष पांडे लाइट्स टेक्नीशियन से बोले- ‘दोबारा सेटअप लगाने में कितना समय लगेगा?’ आशीष जी के इस सवाल ने संकेत दे दिया कि शूटिंग रद्द नहीं होगी। जिस फुर्ती से सेट समेटा गया था, उससे दोगुनी ऊर्जा के साथ सेट दोबारा तैयार किया गया। एक-डेढ़ घंटे में दोबारा रौशनी नाचने लगी। जहाज फिर से जगमगा उठा। देर से ही सही, लेकिन शूटिंग शुरू हुई। शानदार एपिसोड शूट हुआ।
ऐसा लगा कि सुबह प्रकृति ने जो ऊर्जा सोख ली थी, वह दस गुनी करके हम पर बरसा दी। ऊर्जा से भरे हुए होटल लौटे तो देखा सुदीप के चेहरे पर भी कुछ रंगत लौटने लगी थी। रात के भोजन के नाम पर नाममात्र का कुछ खाकर सब सो गए। सुबह 7 बजे एयरपोर्ट के लिए निकलना था।
दिल्ली हवाई अड्डे पर सुदीप का जो कोविड टेस्ट हुआ था, उसकी रिपोर्ट अभी तक भी नहीं आई है। एयरपोर्ट ले जाने के लिए जो टैक्सी आई, उसका टायर पंक्चर हो गया। एयरपोर्ट पहुँचे तो ज्ञात हुआ कि जिस जहाज से जाना है, उसमें तकनीकी ख़राबी आ गयी। 10 बजे उड़नेवाली फ्लाइट ने 1 बजे उड़ान भरी और इस पंक्ति के लिखते-लिखते दिल्ली हवाई अड्डे पर टच-डाउन हो गया है। शानदार लेंडिंग हुई।
सुदीप कल सुबह की फ्लाइट से जबलपुर चले जाएंगे। और मैं अभी घर पहुँचते ही कुंडली बाँचूंगा कि किस मुहूर्त में घर से निकले थे।

© चिराग़ जैन