ईश्वर का सिस्टम पूरी तरह त्रुटिरहित होता तो मनुष्यों की देह में वीभत्स पशुओं का जन्म सम्भव नहीं था। किसी के मर जाने पर उसके परिजन जो रुदन करते हैं, उसे देखकर भी जिसकी आत्मा न काँपती हो वह कम से कम मनुष्य तो नहीं हो सकता।
एक अदद इन्सान को साँसों के लिए तड़पते देखकर भी जो ऑक्सीजन, दवाई और अस्पताल में जगह दिलवाने के बदले पैसा कमाने की सोच रहा हो उसकी देह में मनुष्यता रखना तो ईश्वर भूल ही गया होगा।
रोते बच्चे, बिलखती औरतें और तड़पते मरीज़ जिसके भीतर करुणा न उपजा सकें, उनके आँसुओं और पीड़ा में भी जो लाभ-हानि का गणित जोड़ने की गुंजाइश निकाल ले वह तो सड़ांध मारते शव पर लिजलिजाते कीड़ों से भी ज़्यादा घिनौना है।
ये सब प्राणी, जिन्हें कम से कम मैं मनुष्य तो नहीं कह सकता; ईश्वर ने मनुष्यों के वेश में धरती पर छोड़े हैं इसका साफ मतलब है कि ईश्वर की फैक्ट्री में भी मिलावटखोरी का धंधा जारी है।
तवायफ़ भी किसी मौके पे घुंघरू तोड़ देती है। लेकिन ये मिलावटी जीव किसी भी अवसर को भुनाने से नहीं चूकते। अस्पतालों के डॉक्टर से लेकर फुटपाथ पर पड़े नशेड़ी तक और राजनीति के गलियारों से लेकर दफ़्तर के बाबू तक; यह मिलावटी जीव हर जगह मौजूद है।
इसको बनाते समय ईश्वर के कर्मचारियों ने कोमल तंतुओं से बना हृदय बेच खाया होगा और इसके सीने में पत्थर का टुकड़ा रखकर ऑर्डर पूरा कर दिया होगा। इसके भीतर आत्मा, ज़मीर तथा दिल ही बदले गए हैं। इसलिए इसका शेष आचरण देखने में मनुष्यों जैसा ही रहता है।
यह अन्य मनुष्यों की भाँति बीमार भी पड़ता है। लेकिन बीमारी को भी अवसर मानकर यह मदद करने वाले को ही नोच खाने की जुगत में लग जाता है।
यह उसी प्रजाति का जीव है जो ‘हार की जीत’ कहानी में लाचार भिखारी बनकर बाबा भारती से उनका घोड़ा छीन लेता है। बस अंतर इतना है कि उस कहानी में बाबा भारती के वचन सुनकर खड़गसिंह का ज़मीर जाग जाता है, लेकिन इस प्राणी के जिस्म में ज़मीर सोया नहीं बल्कि मर चुका है।
इस प्राणी के कारण वास्तविक मनुष्यों को भी अपमान और अभाव सहना पड़ता है। इस प्राणी की पहचान आसान नहीं है, क्योंकि यह मेन्युफेक्चरिंग फ्रॉड है। धरती की कंपनियां तो अपनी साख बचाने के लिए कई बार अपने ख़राब प्रोडक्ट को कॉल बैक कर लेती है, लेकिन ईश्वर के यहाँ शायद क्वालिटी मेंटेनेंस विभाग में भी रेकॉर्ड्स बदल दिए गए हैं।
© चिराग़ जैन
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