Tuesday, April 27, 2021

दीपकों के लिए तेल बनो, हवा नहीं

परसों रात से ही ऐसे फोन आने लगे थे कि मरीज़ अस्पताल में तो एडमिट है लेकिन ऑक्सीजन न होने के कारण अस्पताल वालों ने बैड ख़ाली करने को कह दिया है। सुनकर दिल दहल गया। जिसे साँस ठीक से नहीं आ रही, वह अस्पताल से भी निकाल दिया गया तो कहाँ जाएगा! ऐसे मरीज़ों की मदद के लिये अस्पतालों में फोन करवाए तो डॉक्टर और अस्पताल प्रशासन के लोग रोते-बिलखते मिले। उनका कहना है कि जब हमारे पास ऑक्सीजन ख़त्म हो रही है तो हम मरीज़ को यहाँ रखकर क्या करें। वेंटिलेटर हैं, लेकिन उन्हें ऑपरेट करने वाले टेक्नीशियन नहीं हैं। जिन छोटे-छोटे नर्सिंग होम में मरीज़ भरे हुए हैं, वे सामान्यतया विज़िटिंग डॉक्टर्स के बेस पर बने हुए हैं और अब उनमें मरीज़ तो हैं लेकिन डॉक्टर्स की कमी है।
मरीज़ों के परिजन जब विकल हो जाते हैं तो उनका ग़ुस्सा डॉक्टर और अस्पताल प्रशासन पर उतरता है। विवशता ने इतना अमानवीय बना दिया है कि अस्पताल के बाहर पड़ा रोगी इंतज़ार कर रहा है कि भीतर किसी की साँसें रुक जाएँ तो मुझे बैड मिले!
इन परिस्थितियों में स्वयं को खड़ा करके सोचा तो डॉक्टर्स पर नाराज़ होते परिजन भी ग़लत नहीं लगे; मरीज़ के आगे लाचार खड़े डॉक्टर भी अपनी जगह किसी हद्द तक सही लगे; और अस्पताल के बाहर किसी के मरने की प्रतीक्षा करता रोगी भी पूरी तरह ग़लत नहीं लगा।
फिर ग़लत है कौन? इस सबका दोषी है कौन? राजनैतिक या कार्यपालिका के स्तर पर किसी से पूछो तो वह हमें ‘पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन’ का पाठ्यक्रम पढ़ाने लगता है। उसका फोकस समस्या का समाधान ढूंढने से ज़्यादा इस बात पर होता है कि इस समस्या का ठीकरा उसके सिर न फूट जाए। इन चारित्रिक दरिद्रों की स्थिति देखकर मेरा साधारण-सा प्रश्न यह है कि जब अभी तक यही स्पष्ट नहीं हो पाया है कि इस सिस्टम में किस काम के लिए उत्तरदायी कौन होगा, तो पिछले सात-आठ दशक से यह सिस्टम का भौंडा नाटक क्यों चल रहा था?
पूरे तंत्र में हर अधिकारी केवल अपनी टेबल से फाइल को किसी अन्य की टेबल पर स्थानांतरित करने का ‘काम’ कर रहा है।
बाढ़ आने के बाद पुल बनाने का ड्रामा सिस्टम के लिए शर्मनाक है। लेकिन जो गाँववाले बाढ़ आने के बाद बेतरतीबी से ही सही, डूबतों को बचाने के लिए दौड़ पड़ते हैं; वे स्तुत्य होते हैं। हमारे समाज में भी इस समय ऐसे लोगों की उपस्थिति है, जो ख़ुद घुटनों-घुटनों पानी में खड़े होकर किसी डूबते को बचाने के लिए हाथ बढ़ा रहे हैं। लेकिन हमारे समाज में ऐसे भी लोग मौजूद हैं जो इन हाथ बढ़ाते लोगों के पाँव डगमगाने के लिए प्रयासरत हैं।
कालाबाज़ारी और मुनाफाखोरी से ग्रसित इस समाज में यदि कोई सहृदय व्यक्ति किसी समस्या और समाधान के मध्य सेतु बनते हुए किसी का लिंक किसी पीड़ित को फॉरवर्ड कर देता है, और दुर्भाग्य से वह फोरवार्डिड लिंक किसी मुनाफाखोर का निकलता है तो इसमें उस व्यक्ति की क्या ग़लती है, जो लिंक फॉरवर्ड कर रहा है। लेकिन इस स्थिति में हमारा सिस्टम बड़ी जल्दी एक्टिव होने लगता है। वह असली मुनाफाखोर को पकड़ने से पहले इस बेचारे संवेदनशील व्यक्ति को ज़रूर धर दबोचेगा। ऐसा मैं नहीं कह रहा, ऐसा वे लोग बता रहे हैं जो सहायता करनेवालों के हौसले पस्त करना चाहते हैं।
सड़ांध मारते इस सिस्टम में अपराध करना आसान है लेकिन किसी की मदद करना बेहद मुश्किल है। ‘तू ज़्यादा समाजसेवी बन रहा है’; ‘दूसरों के फटे में टांग मत फँसा’; ‘फटी के ढोल ख़रीदे हैं तो बजाने तो पड़ेंगे’ और ‘अपने घर में चुपचाप बैठ, घणी नेतागिरी मत कर’ जैसे जुमलों ने सामाजिक परोपकार की भावना को नपुंसक करने का काम अनवरत किया है। हमारे घरों में भी इन जुमलों से प्रभावित अभिभावकों की पूरी पीढ़ी सक्रिय है।
सामाजिक मदद के लिए आगे बढ़नेवाले का उपहास गली-नुक्कड़ों से लेकर बन्द कमरों तक हर जगह स्थान पा लेता है। हमारे थाने और कचहरियाँ तो इन लोगों के जज़्बे को भौंथरा करने के लिए निर्मित ही किये गए हैं। गांधी, बिनोवा और भगतसिंह के देश में यदि जनसेवा की निष्काम भावना के साथ यही व्यवहार होता रहा तो स्वयं को ‘जनसेवक’ कहकर सत्ता हथियानेवालों के हाथ समाज बार-बार ऐसे ही छला जाता रहेगा कि जिन अस्पतालों में ज़िन्दगी को साँस मिलनी चाहिए थी, वे ख़ुद ऑक्सीजन के अभाव में दम तोड़ने लगेंगे और जिन डॉक्टरों की आँखों में तैरता आत्मविश्वास मरीज़ों के परिजनों को हौसला देता था, वे डॉक्टर ख़ुद आँखों में आँसू भरकर अपनी लाचारी का प्रेस्क्रिप्शन लिखते दिखाई देंगे।
एक बात साफ़ समझनी होगी कि जो मरहम लगाने वाले के मरहम को मिर्च कहकर भ्रांति फैला रहा है, उसकी अपनी चुटकी में मरहम तो दूर, मिर्च भी नहीं मिलेगी।


© चिराग़ जैन

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