जो लोग कोविड की आपदा को अवसर समझकर ऑक्सीजन से लेकर दवाइयों तक की कालाबाज़ारी कर रहे हैं; वे भी इसी देश के हिस्से हैं। जो लोग बिना किसी कारण के ऑक्सीजन और ज़रूरी दवाइयाँ अपने घरों में स्टॉक कर रहे हैं, वे भी इसी देश के हिस्से हैं। जो लोग किसी से दुश्मनी निकालने के लिए उसका फोन नम्बर कोविड हेल्प के पोस्टर पर चिपका कर वायरल कर रहे हैं, वे भी इसी देश के हिस्से हैं। और जो लोग तन-मन-धन से जुटकर लोगों की यथासम्भव मदद कर रहे हैं, वे भी इसी देश के हिस्से हैं।
हमारा समाज सामान्यीकरण करने की प्रवृत्ति का शिकार रहा है। दिल्ली में कोई बलात्कार हो गया तो हर दिल्लीवाले को घूर-घूरकर देखने लगे। भाजपा का कोई नेता बेईमान निकल गया तो हर भाजपाई को गरियाने लगे। कांग्रेस का कोई नेता नाकारा निकल गया तो पूरी कांग्रेस का उपहास करने लगे। भगवा वस्त्र पहनकर कोई अपराध करता पकड़ा गया तो पूरे हिन्दू समाज को कठघरे में खड़ा कर दिया। जाली टोपी लगाकर कोई गुनाह करता मिला तो सभी मुसलमानों को गुनहगार मान बैठे। एक महिला दहेज की आँच में जली तो हर दूल्हे को हत्यारा समझ लिया। एक पति का परिवार दहेज कानूनों के कारण बर्बाद हो गया तो हर दुल्हन को षड्यंत्री मान लिया।
यह प्रवृत्ति समाज के लिए घातक है। जिन खेतों में अन्न उपजता है वहाँ धतूरा भी फूट आता है। कैक्टस के झाड़ में भी दुनिया के सबसे ख़ूबसूरत फूल खिल जाते हैं। किसी के प्रति धारणा पालकर उसके पूरे समुदाय के लिए जजमेंटल हो जाना अविवेक का प्रमाण है।
हमने तो अपने धर्मग्रन्थों में देखा है कि सौ कौरवों में भी एक ‘विकर्ण’ हो सकता है। हमने अपनी कथाओं में पढ़ा है कि बाली के घर भी अंगद जन्म ले सकता है। फिर हम इतनी सरलता से किसी एक के कृत्य को देखकर किसी अन्य का आकलन क्यों करने लगते हैं?
एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक की यात्रा तो बड़ी बात है हमने तो एक ही अशोक का चंड रूप भी देखा है और विरक्त रूप भी। हमने एक ही अंगुलिमाल में दो चरित्र देखे हैं। यदि बुद्ध भी अंगुलिमाल के प्रति जजमेंटल हो गए होते तो उसके गले से अंगुलियों की माला उतारकर उसे कांचुकीय पहनाने में कभी सफल न हुए होते।
धारणाएँ बनाकर समाज को देखना बन्द करना होगा। पूरी दुनिया की राजनीति ने ऐसी ही पूर्वग्रह ग्रसित धारणाओं के आधार पर समाज को बाँटा है और पूरी दुनिया के अध्यात्म ने इस बँटवारे को पाटने के लिए मनुष्यता का भराव किया है।
जो बाँट रहा है, वह अपना कोई भी नाम रख ले, लेकिन उसके मूल में सियासत मिलेगी। और जो जोड़ रहा है, वह चाहे अपना कोई भी रूप बना ले, उसके मूल में मनुष्यता मिलेगी।
यह समय व्यक्तियों के प्रति धारणाएँ बनाने का नहीं अपितु मनुष्यता को पोसने का है। विपत्ति का यह कालखण्ड यदि मनुष्य को मनुष्यता का सम्मान करना सिखा गया तो इसके लिए चुकायी गयी क़ीमत की टीस काफ़ी कम हो जाएगी।
-चिराग़ जैन
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