Thursday, April 29, 2021

हम जड़ हो गए हैं

समय का जो चेहरा इस समय यह विश्व देख रहा है, उसकी मनुष्य ने कल्पना भी नहीं की होगी। लेकिन समय, मनुष्यता का जो आचरण इस समय देख रहा है, उसकी समय ने भी कभी कल्पना नहीं की होगी!
ऐसा लग रहा है कि कोई हाथ से सब कुछ छीने लिए जा रहा है। जिनके साथ रोज़-रोज़ यात्राएँ कीं, जिनके साथ रातें काली कीं, जिनको दद्दा कहा, जिनसे दद्दा सुना... वो यकायक हमसे किसी ने छीन लिये। और हम इतने लाचार की जिनकी अटैची उठाई उनको आखि़री बार कंधा भी न दे सके! हथेली में रेत की चमकीली चुभन भी पसीज कर पिघल चुकी है। देह का रोम-रोम शोकग्रस्त है। मन पथरा गया है। और मैं अपनी संवेदनाओं को मौन की शिला में दुबकाए अहल्या मुद्रा में यह सोच रहा हूँ कि मेरी नियति में यूँ ही लाचार खड़े होकर ख़ुद को ख़ाली होते देखना लिखा है अथवा मेरे भाग्य में इन तस्वीरों में शामिल होकर मुस्कुराना तय है। 3 अप्रेल को छत्तीसगढ़ में एक कवि-सम्मेलन में मुझे राजन जी के साथ जाना था, कोरोना के कारण वह कार्यक्रम कैंसिल हुआ तो राजन जी का फोन आया कि यह तो गया, लेकिन अपन जल्दी ही मिलेंगे। ...दद्दा! झूठ बोल गए आप मुझसे। अब हम कभी नहीं मिलेंगे। उस दिन मैं बहुत देर तक रोता रहा था दद्दा! उस दिन मुझे दिन भी अंधियारा लगता रहा था। कमलेश द्विवेदी जी से बहुत अधिक संवाद नहीं था, लेकिन मेरी फेसबुक पोस्ट पर उनकी समीक्षात्मक टिप्पणी लगभग आती ही थी। यदा-कदा फोन करके भी समालोचना करके आशीर्वाद दे देते थे। आप भी चले गए यूँ ही...! आखि़री बार टोका भी नहीं, सराहा भी नहीं। समीक्षा विशाल जी का गीत ‘कविग्राम’ में छपा तो आपने साधुवाद का फोन किया था। अब न आप हैं, न समीक्षा जी...! और कुँअर दा आप...! अभी तो बता रहे थे कि ठीक हो रहा हूँ। निश्चिंत से हो गए थे हम सब। लेकिन दुनिया भर की चिंताओं पर प्यार के छींटे देकर कैसे चुपचाप चल दिये...! यह भी कोई व्यवहार हुआ! आप तो ऐसे न थे। आप तो सामाजिक व्यवहार में निष्णात थे। आप तो किसी कवि सम्मेलन से भी बिना बताए नहीं जाते थे। आप तो किसी के निःशुल्क निमंत्रण को भी इस संकोच में मना न कर पाते थे कि उसका दिल दुःखेगा...! आज क्या हो गया दद्दा! आज सबको रोता छोड़ गए। इस समय तो आपके इस कुनबे को आपकी सबसे ज़्यादा ज़रूरत थी कुँअर दा! छोटे-छोटे फूल से बच्चे इस दिवंगत सूची में छापते हुए कलेजा दो टूक हो गया है। आह! इन सबसे तो अभी काफी व्यवहार करना था। लड़ना था, स्नेह करना था... कभी-कभी डाँटना भी था! कुछ न हो सका। मृत्यु के इस चक्रवात ने नन्हें-नन्हें फूलों को भी नहीं बख्शा! हमें चुप कराने मत आना... क्योंकि हम रो नहीं रहे हैं... हम जड़ हो गए हैं।

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