नये घटनाक्रम की पोटली
समय के कंधे पर लटकाये
एक और नया साल
आ खड़ा हुआ है
जीवन की पगडंडी पर।
बिछाते हुए शुभकामनाओं के फूल
इस बार भी स्वागत करेंगे
सभी लोग
इस अजनबी का
अपने-अपने घर में।
खोल-खोलकर
पोटली में बन्द घटनाओं को
शुभ-अशुभ
अच्छे-बुरे
सुख-दुःख
तथा ऐच्छिक-अनैच्छिक का
अनजना ख़ज़ाना बिखेरता हुआ
समय के घोडों की लगाम
एक नये सारथी को थमाकर
यह वर्ष भी बस जायेगा
यादों के विराट भवन में
आओ! प्रार्थना करें
कि इस बार रीती हो
इस मुसाफ़िर की पोटली
दुर्भाग्य से
ताकि नम न हों
अगले वर्ष के स्वागत में बिछी आँखें।
✍️ चिराग़ जैन
गत दो दशक से मेरी लेखनी विविध विधाओं में सृजन कर रही है। अपने लिखे को व्यवस्थित रूप से सहेजने की बेचैनी ही इस ब्लाॅग की आधारशिला है। समसामयिक विषयों पर की गई टिप्पणी से लेकर पौराणिक संदर्भों तक की गई समस्त रचनाएँ इस ब्लाॅग पर उपलब्ध हो रही हैं। मैं अनवरत अपनी डायरियाँ खंगालते हुए इस ब्लाॅग पर अपनी प्रत्येक रचना प्रकाशित करने हेतु प्रयासरत हूँ। आपकी प्रतिक्रिया मेरा पाथेय है।
Monday, December 31, 2007
Wednesday, December 5, 2007
नज़र
पलक गिरते ही पल में खेल सारे देख लेता हूँ
मैं इनसे आँख को ढँक कर सितारे देख लेता हूँ
मेरी ये बन्द पलकें दूरबीनों से कहाँ कम हैं
मैं इनमें ज़िन्दगी भर के नज़ारे देख लेता हूँ
© चिराग़ जैन
मैं इनसे आँख को ढँक कर सितारे देख लेता हूँ
मेरी ये बन्द पलकें दूरबीनों से कहाँ कम हैं
मैं इनमें ज़िन्दगी भर के नज़ारे देख लेता हूँ
© चिराग़ जैन
Thursday, November 22, 2007
जनता की लूट
क्रूर काल ने गुरुग्राम की एक दम्पत्ति की गोद सूनी कर दी और अस्पताल ने उनकी जेब काट ली। इस देश में कुछ बुनियादी आवश्यकताएं जनता की लूट का माध्यम बन गई हैं। चिकित्सा में सरकारी तंत्र की नाकामी का लाभ अस्पताल उठाते हैं और कई कई दिन तक शव को वेंटिलेटर पर रख कर बिल बढ़ाते पाए जाते हैं। बीमारी से परेशान रोगी और किसी अपने से बिछड़ जाने के शोक से ग्रस्त परिजन कसाई की तरह निष्ठुर बने अस्पताल प्रशासन के हाथों लुटने को विवश हैं।
यदि चिकित्सा एक सेवाकार्य है तो यह कहाँ तक उचित है कि एक सेवक मानवीय संवेदनाओं को धता बता कर लाश तक सौंपने से पूर्व मोलभाव पर उतर आए? और यदि यह व्यवसाय है तो फिर कोई व्यापारी जिस काम को करने की कीमत ले रहा है, जब वह काम ही न हुआ तो ग्राहक से उसकी कीमत कैसे मांग सकता है। एक डॉक्टर किसी मरीज का डेंगू का इलाज कर रहा है और इस इलाज के एवज में दस लाख का मूल्य मांगता है यदि वह मरीज इलाज के दौरान मर जाए तो इसका अर्थ है कि डॉक्टर इलाज नहीं कर पाया और यदि इलाज नहीं कर पाया तो ग्राहक से पैसे लेने का उसका अधिकार समाप्त हो जाना चाहिए।
पूरा विश्व मानव जीवन की बेहतरी के लिए चिकित्सा जगत पर निर्भर है, विश्व भर में अलग अलग पद्धतियों के शोधकर्ता जटिल रोगों के निदान खोजने में जीवन होम कर रहे हैं। लेकिन इन शोधकार्यों से निकल कर नुस्खे का अमृत कलश पेटेंट के अंधकूप में समा जाता है फिर उस संजीवनी को महंगे दामों पर कोई व्यवसायी ख़रीद लेता है और मूर्छित लक्ष्मण के परिजनों से मुंहमांगी रकम वसूलता है।
व्यवसाय बन चुके चिकित्सा के पेशे में स्वास्थ्य और इलाज वरीयता नहीं रह गए हैं। फाइव स्टार में तब्दील हो चुकी वैद्यशालाएँ अब लाचार परिवारों से पैसा लूटने की जुगत में व्यस्त हैं। दवाई कम्पनियों से मिलने वाली कमीशन के आधार पर डॉक्टर्स की प्रिस्क्रिप्शन निर्धारित होने लगी है। महंगे महंगे टेस्ट (वो भी डॉक्टर साहब द्वारा सुझाई गई लैब से) करवाने में ही डॉक्टर साहब की सबसे ज़्यादा रुचि होती है।
सरकारी अस्पतालों में नम्बर नहीं आता और निजी अस्पताल आपका नम्बर लगा देते हैं। सरकारी अस्पतालों में बदतमीज़ी और बेहूदगी की ज़िल्लत झेलनी पड़ती है तो निजी अस्पताल में सीने पर स्टेथोस्कोप रखकर लूटा जाता है। सरकारी अस्पताल में इलाज के अभाव में मरीज़ मर जाता है तो निजी अस्पताल में इतना इलाज मिलता है कि उसका मोल चुकाने में मरीज़ और उसके परिजन सब मर जाते हैं।
अस्पताल में कोई मरीज़ इस बात को लेकर आश्वस्त नहीं हो पाता कि उसे जो मिल रहा है वह इलाज ही है या उसे कुछ दिन तक अस्पताल में टिकाए रखने का नुस्खा दिया जा रहा है।
अस्पताल प्रशासन ने डॉक्टर्स की नौकरी को बंदी बना रखा है कि यदि अमुक राशि हर महीने अस्पताल के खजाने में नहीं जमा करवाई तो आपकी नौकरी चली जाएगी। अपनी नौकरी की इज़्ज़त बचाने के लिए बेचारा डॉक्टर मरीज़ को एटीएम समझ कर उसमें दहशत का कार्ड डालता है और पैसे निकाल कर अस्पताल को फिरौती देता रहता है।
सरकार को यूरोप की तर्ज़ पर टैक्स लेने की सुध आ गई है लेकिन सरकार को यह याद नहीं आया कि ज़्यादा कर चुकाने वाले यूरोपवासियों को चिकित्सा पर एक भी पैसा ख़र्च नहीं करना पड़ता। वृद्धों के लिए हर सप्ताह डॉक्टर घर आता है और बच्चों के लिए हर महीने। दवाई से लेकर इलाज तक सब कुछ सरकार मुहैया करवाती है।
राजनीति की रोटियाँ सेंकने के लिए सरकारें बेशक देश को विकास के पोस्टरों से पाट दें लेकिन उससे पहले कृपया सही और पूर्ण इलाज के वरदान की सुविधा मुहैया करवा दें।
© चिराग़ जैन
© चिराग़ जैन
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पाप
सिर्फ़ मतलब के लिए हर चाल चलना पाप है
हर दफ़ा दर देखकर मजहब बदलना पाप है
शाइरी, दीवानगी, नेकी, इबादत, मयक़शी
और राहे-इश्क़ में गिर कर संभलना पाप है
काश बच्चों की तरह हालात भी ये जान लें
ख़्वाहिशों की तितलियों के पर मसलना पाप है
दौर इक ऐसा भी था, जब झूठ कहना मौत था
और अब ये हाल, सच की राह चलना पाप है
किस डरौने दौर में हम जी रहे हैं या ख़ुदा
घर में रहना ऐब है, घर से निकलना पाप है
पाप का दिल से निकल हरक़त में आना ज़ुर्म है
ज़ुर्म का भीतर ही भीतर दिल में पलना पाप है
© चिराग़ जैन
हर दफ़ा दर देखकर मजहब बदलना पाप है
शाइरी, दीवानगी, नेकी, इबादत, मयक़शी
और राहे-इश्क़ में गिर कर संभलना पाप है
काश बच्चों की तरह हालात भी ये जान लें
ख़्वाहिशों की तितलियों के पर मसलना पाप है
दौर इक ऐसा भी था, जब झूठ कहना मौत था
और अब ये हाल, सच की राह चलना पाप है
किस डरौने दौर में हम जी रहे हैं या ख़ुदा
घर में रहना ऐब है, घर से निकलना पाप है
पाप का दिल से निकल हरक़त में आना ज़ुर्म है
ज़ुर्म का भीतर ही भीतर दिल में पलना पाप है
© चिराग़ जैन
Wednesday, October 17, 2007
रामसेतु
इन नासमझों का होगा नहीं रे कल्याण
रामधरा पर मांग रहे हैं रामलला के प्रमाण
श्रीराम बसे हैं आंगन में, पावन तुलसी की क्यारी में
श्री राम बसे हैं घर-घर में, आपस की दुनियादारी में
श्रीराम हमारी आँखों में, श्रीराम हमारे सपनों में
श्रीराम हैं सारे संबंधों में, सब रिश्तों में, अपनों में
बोलो कण-कण व्यापी का, कैसे करोगे परिमाण
मांगो प्रमाण रामायण के, इस भारत भू के कण-कण से
सरयू की निर्मल धारा से, और अवधपुरी के आंगन से
पूरब के उस मिथिलांचल से, पश्चिम के उस दंडक वन से
उत्तर के बृहत् हिमालय से, दक्षिण के उस भीषण रण से
देगा गवाही तुम्हें, सागर का थोथा अभिमान
ढूंढो शबरी के बेरों में, जंगल की दुर्गम राहों में
तिनकों की पावन कुटिया में, महलों की सिक्त निगाहों में
कब राम हुए थे ये पूछो, जंगल के हर इक वानर से
जिसने रावण को टक्कर दी, उस पंछी के टूटे पर से
भ्राता भरत से पूछो, पूजे थे जिसने पदत्राण
रामायण इस भारत भू के गौरव की अमर कहानी है
ये कथा हमारे पुरखों के पौरुष की एक निशानी है
रामायण केवल ग्रंथ नहीं, संस्कृति का ताना-बाना है
इस रामायण को झुठलाना, इस संस्कृति को झुठलाना है
इसमें बसा है अपने भारत का स्वर्णिम स्वाभिमान
जिनको पढ़ कर जीना सीखा, उनको मिथ्या बतलाते हैं
ये रावण के गोरे वंशज, राघव पर प्रश्न उठाते हैं
ये मैकाले के दूत भला तुलसी को क्योंकर मानेंगे
जो ख़ुद को जान नहीं पाए, रघुपति को क्या पहचानेंगे
आंखों पे पट्टी बांधे, करने चले हैं पहचान
© चिराग़ जैन
रामधरा पर मांग रहे हैं रामलला के प्रमाण
श्रीराम बसे हैं आंगन में, पावन तुलसी की क्यारी में
श्री राम बसे हैं घर-घर में, आपस की दुनियादारी में
श्रीराम हमारी आँखों में, श्रीराम हमारे सपनों में
श्रीराम हैं सारे संबंधों में, सब रिश्तों में, अपनों में
बोलो कण-कण व्यापी का, कैसे करोगे परिमाण
मांगो प्रमाण रामायण के, इस भारत भू के कण-कण से
सरयू की निर्मल धारा से, और अवधपुरी के आंगन से
पूरब के उस मिथिलांचल से, पश्चिम के उस दंडक वन से
उत्तर के बृहत् हिमालय से, दक्षिण के उस भीषण रण से
देगा गवाही तुम्हें, सागर का थोथा अभिमान
ढूंढो शबरी के बेरों में, जंगल की दुर्गम राहों में
तिनकों की पावन कुटिया में, महलों की सिक्त निगाहों में
कब राम हुए थे ये पूछो, जंगल के हर इक वानर से
जिसने रावण को टक्कर दी, उस पंछी के टूटे पर से
भ्राता भरत से पूछो, पूजे थे जिसने पदत्राण
रामायण इस भारत भू के गौरव की अमर कहानी है
ये कथा हमारे पुरखों के पौरुष की एक निशानी है
रामायण केवल ग्रंथ नहीं, संस्कृति का ताना-बाना है
इस रामायण को झुठलाना, इस संस्कृति को झुठलाना है
इसमें बसा है अपने भारत का स्वर्णिम स्वाभिमान
जिनको पढ़ कर जीना सीखा, उनको मिथ्या बतलाते हैं
ये रावण के गोरे वंशज, राघव पर प्रश्न उठाते हैं
ये मैकाले के दूत भला तुलसी को क्योंकर मानेंगे
जो ख़ुद को जान नहीं पाए, रघुपति को क्या पहचानेंगे
आंखों पे पट्टी बांधे, करने चले हैं पहचान
© चिराग़ जैन
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Tuesday, October 16, 2007
Tuesday, October 9, 2007
रिश्तों को ज़िंदा रखना
कितना आसान है
रिश्तों को फ़ना कर देना
ज़रा-सी बात को दिल से लगा के रख लेना
ग़ैर लोगों को, रक़ीबों को तवज़्ज़्ाो देना
शक़ की तलवार से विश्वास को कर देना हलाल
अपने लहजे को तल्ख़ियों के हवाले करना
अपने मनसूबों में कर लेना सियासत को शुमार
सामने वाले की हर बात ग़लत ठहराना
उस की हर एक तमन्ना को नाजायज़ कहना
उसको बिन बात हर इक बात पे रुसवा करना
उसकी हर बात में खुदगर्ज़ियों की करना तलाश
उस से रख लेना बिना बोले समझने की उम्मीद
उसके आगे सदा हँसने का दिखावा करना
अपने हर दर्द की वजह उसे समझ लेना
प्यार को अनकही रंजिश की शक़्ल दे देना
अपनी झूठी अना की दे के दुहाई हर दम
अपने अहसास के अमृत को ज़हर कर लेना
या कि इक पल में ही अपनों को ग़ैर कर देना.......
कितना मुश्क़िल है मगर
रिश्तों को ज़िंदा रखना!
© चिराग़ जैन
रिश्तों को फ़ना कर देना
ज़रा-सी बात को दिल से लगा के रख लेना
ग़ैर लोगों को, रक़ीबों को तवज़्ज़्ाो देना
शक़ की तलवार से विश्वास को कर देना हलाल
अपने लहजे को तल्ख़ियों के हवाले करना
अपने मनसूबों में कर लेना सियासत को शुमार
सामने वाले की हर बात ग़लत ठहराना
उस की हर एक तमन्ना को नाजायज़ कहना
उसको बिन बात हर इक बात पे रुसवा करना
उसकी हर बात में खुदगर्ज़ियों की करना तलाश
उस से रख लेना बिना बोले समझने की उम्मीद
उसके आगे सदा हँसने का दिखावा करना
अपने हर दर्द की वजह उसे समझ लेना
प्यार को अनकही रंजिश की शक़्ल दे देना
अपनी झूठी अना की दे के दुहाई हर दम
अपने अहसास के अमृत को ज़हर कर लेना
या कि इक पल में ही अपनों को ग़ैर कर देना.......
कितना मुश्क़िल है मगर
रिश्तों को ज़िंदा रखना!
© चिराग़ जैन
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Wednesday, October 3, 2007
ख़ुद से मुख़ातिब
कितना आसान है
दुनिया को ग़लत ठहराना
थोड़ा चालाक रवैया
ज़रा-सी अय्यारी
झूठ को सच बना देने का क़रामाती गुर
थोड़ी कज़बहसी
थोड़ी ज़िद्द
ज़रा-सी लफ़्फ़ाज़ी
तेज़ आवाज़ औ’ मुद्दों को घुमाने का हुनर
चन्द सिक्कों से ख़रीदे हुए दो-चार गवाह
और इक इन्तहा बेअदबी की
ढिठाई की....
....कितना मुश्क़िल है मगर
ख़ुद से मुख़ातिब होना!
© चिराग़ जैन
दुनिया को ग़लत ठहराना
थोड़ा चालाक रवैया
ज़रा-सी अय्यारी
झूठ को सच बना देने का क़रामाती गुर
थोड़ी कज़बहसी
थोड़ी ज़िद्द
ज़रा-सी लफ़्फ़ाज़ी
तेज़ आवाज़ औ’ मुद्दों को घुमाने का हुनर
चन्द सिक्कों से ख़रीदे हुए दो-चार गवाह
और इक इन्तहा बेअदबी की
ढिठाई की....
....कितना मुश्क़िल है मगर
ख़ुद से मुख़ातिब होना!
© चिराग़ जैन
Tuesday, September 18, 2007
अंतर्मुखी
ख़ुशी की लाश उठती है ख़ुशी की चाह के नीचे
बहुत से ज़ख्म होते हैं ज़रा-सी आह के नीचे
हमारे दिल की बातें दिल में ऐसे दब के रहती हैं
कि जैसे पीर सोता हो कोई दरगाह के नीचे
© चिराग़ जैन
बहुत से ज़ख्म होते हैं ज़रा-सी आह के नीचे
हमारे दिल की बातें दिल में ऐसे दब के रहती हैं
कि जैसे पीर सोता हो कोई दरगाह के नीचे
© चिराग़ जैन
Saturday, August 25, 2007
चांदनी से रात बतियाने सहेली आ गयी
चांदनी से रात बतियाने सहेली आ गयी
कुछ मुंडेरों के मुक़द्दर में चमेली आ गयी
पैर भी सुस्ता लिये, आँखों ने भी दम ले लिया
ज़िंदगी की राह में, दिल की हवेली आ गई
झाँकता है हर कोई ऐसे दिल-ए-नाशाद में
जैसे आंगन में कोई दुल्हन नवेली आ गई
बोझ कंधों का उतर कर गिर गया जाने कहाँ
जब मेरे सिर पे बुज़ुर्गों की हथेली आ गई
तीरगी का ख़ौफ़, सन्नाटे की दहशत थी मगर
इक किरण सूरज की धरती पर अकेली आ गयी
© चिराग़ जैन
कुछ मुंडेरों के मुक़द्दर में चमेली आ गयी
पैर भी सुस्ता लिये, आँखों ने भी दम ले लिया
ज़िंदगी की राह में, दिल की हवेली आ गई
झाँकता है हर कोई ऐसे दिल-ए-नाशाद में
जैसे आंगन में कोई दुल्हन नवेली आ गई
बोझ कंधों का उतर कर गिर गया जाने कहाँ
जब मेरे सिर पे बुज़ुर्गों की हथेली आ गई
तीरगी का ख़ौफ़, सन्नाटे की दहशत थी मगर
इक किरण सूरज की धरती पर अकेली आ गयी
© चिराग़ जैन
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Friday, August 24, 2007
बिटिया
शादी का जोड़ा चढ़ा, सजे सोलहों साज
इक छोटी-सी लाडली, बड़ी हुई है आज
इक छोटी-सी लाडली, बड़ी हुई है आज
विदा समय बाबुल कहे, जोड़े दोनों हाथ
मेरी लाज बंधी हुई, बिटिया तेरे साथ
मेरी लाज बंधी हुई, बिटिया तेरे साथ
बिन कारण ताने सहे, बिन मतलब संत्रास
पर उसने तोड़ा नहीं, बाबुल का विश्वास
पर उसने तोड़ा नहीं, बाबुल का विश्वास
बाबुल तेरी देहरी, जब से छूटी हाय।
तब से मन की बात बस, मन ही में रह जाय
तब से मन की बात बस, मन ही में रह जाय
दो नावों में ही रहें, बिटिया के दो पाँव
ना ये अपना घर हुआ, ना वो अपना गाँव
ना ये अपना घर हुआ, ना वो अपना गाँव
सहना, घुलना, सिसकना, सुनना बात तमाम
बिटिया के ससुराल में, कितने सारे काम
बिटिया के ससुराल में, कितने सारे काम
अब तू करना सीख ले, सब के संग निबाह
माँ ऑंखें भर-भर कहे, भरियो नहीं कराह
माँ ऑंखें भर-भर कहे, भरियो नहीं कराह
चिड़िया जब दुलहिन बनी, पेड़ हुआ कंगाल
सूनी-सूनी सी लगे, झूले बिन हर डाल
© चिराग़ जैन
सूनी-सूनी सी लगे, झूले बिन हर डाल
© चिराग़ जैन
Tuesday, August 14, 2007
तिरंगा
अपना तिरंगा एक परचम ही नहीं है
भावनाओं की बहार-सी है तीन रंग में
छोटे-छोटे बालकों के अधरों पे बिखरी जो
वही एक पावन हँसी है तीन रंग में
प्रेम, त्याग, एकता, अखण्डता, समानता से
ओत-प्रोत आत्मा बसी है तीन रंग में
खादी वाले मोटे रेशों का ही ताना-बाना नहीं
भारत की एकता कसी है तीन रंग में
© चिराग़ जैन
भावनाओं की बहार-सी है तीन रंग में
छोटे-छोटे बालकों के अधरों पे बिखरी जो
वही एक पावन हँसी है तीन रंग में
प्रेम, त्याग, एकता, अखण्डता, समानता से
ओत-प्रोत आत्मा बसी है तीन रंग में
खादी वाले मोटे रेशों का ही ताना-बाना नहीं
भारत की एकता कसी है तीन रंग में
© चिराग़ जैन
Thursday, August 9, 2007
सावन
घन, पंछी, बरखा करें, गर्जन, कलरव, सोर
हृदय मयूरा झूमिहै, ज्यों सावन में मोर
जब मेघन का नेह जल, बरसत है चहुँ ओर
इस प्रेमी मन भीगता, उत बिरहन की कोर
© चिराग़ जैन
हृदय मयूरा झूमिहै, ज्यों सावन में मोर
जब मेघन का नेह जल, बरसत है चहुँ ओर
इस प्रेमी मन भीगता, उत बिरहन की कोर
© चिराग़ जैन
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Saturday, July 21, 2007
ज़िन्दगी
दुनिया में आ के सकुचाई पल भर फिर
ममता की छाँव में सँवर गई ज़िन्दगी
पालना, खिलौना, पाठशाला, अनुभव, ज्ञान
प्रेम की छुअन से निखर गई ज़िन्दगी
क़ामयाबी का गुमान ज़िन्दगी पे लदा और
ज़िन्दगी के दाता को अखर गई ज़िन्दगी
मौत की हवा ने श्वास का दीया बुझा दिया तो
हाड़-हाड़ राख में बिखर गई ज़िन्दगी
© चिराग़ जैन
ममता की छाँव में सँवर गई ज़िन्दगी
पालना, खिलौना, पाठशाला, अनुभव, ज्ञान
प्रेम की छुअन से निखर गई ज़िन्दगी
क़ामयाबी का गुमान ज़िन्दगी पे लदा और
ज़िन्दगी के दाता को अखर गई ज़िन्दगी
मौत की हवा ने श्वास का दीया बुझा दिया तो
हाड़-हाड़ राख में बिखर गई ज़िन्दगी
© चिराग़ जैन
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Friday, July 6, 2007
लव इन दिल्ली-यूनिवर्सिटी
मौरिस नगर के नुक्कड़ों को
आज भी याद हैं
हज़ारों निशब्द प्रेम कहानियाँ
जिनका पूरा सफ़र
तय होकर रह गया
आँखों-आँखों में ही।
लेकिन अब
ये प्रेम कहानियाँ
ऐसी ख़ामोशी से नहीं बनतीं।
अब
दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ लिखकर
अपने अधिकार जान गया है प्रेम।
अब लोक-लाज
और पिछड़े हुए समाज से
आगे निकलकर
‘निरुलाज़’ और ‘मॅक-डीज़’ में
बर्गर खाते हुए
घंटों बतिया सकता है प्रेम
...सेफ्ली।
या फिर आट्र्स फैकल्टी के बाहर
भेल-पुड़ी खाते हुए
आलिंगनबद्ध हो सकता है
सारे ज़माने के सामने।
अब फैशनेबल मोटर बाइक पर
बेहिचक-बेझिझक
बिना किसी से डरे
फर्राटे से दौड़ सकता है प्रेम।
पहले की तरह नहीं
कि नाम पूछने में ही
महीनों लग जाएँ।
अब तो झट से पूछ सकता है
कोई भी
कुछ भी
किसी से भी।
आज भी याद हैं
हज़ारों निशब्द प्रेम कहानियाँ
जिनका पूरा सफ़र
तय होकर रह गया
आँखों-आँखों में ही।
लेकिन अब
ये प्रेम कहानियाँ
ऐसी ख़ामोशी से नहीं बनतीं।
अब
दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ लिखकर
अपने अधिकार जान गया है प्रेम।
अब लोक-लाज
और पिछड़े हुए समाज से
आगे निकलकर
‘निरुलाज़’ और ‘मॅक-डीज़’ में
बर्गर खाते हुए
घंटों बतिया सकता है प्रेम
...सेफ्ली।
या फिर आट्र्स फैकल्टी के बाहर
भेल-पुड़ी खाते हुए
आलिंगनबद्ध हो सकता है
सारे ज़माने के सामने।
अब फैशनेबल मोटर बाइक पर
बेहिचक-बेझिझक
बिना किसी से डरे
फर्राटे से दौड़ सकता है प्रेम।
पहले की तरह नहीं
कि नाम पूछने में ही
महीनों लग जाएँ।
अब तो झट से पूछ सकता है
कोई भी
कुछ भी
किसी से भी।
© चिराग़ जैन
ऐब्स्ट्रेक्ट
किसी की याद के
कुछ रंग
यक-ब-यक
बिखर जाते हैं
ज़ेहन के कॅनवास पर।
और
मैं ठहर कर
निहारने लगता हूँ
उस कलाकृति की
ख़ूबसूरती को।
बूझने लगता हूँ
अतीत के स्ट्रोक्स की
जटिल पहेलियाँ।
आज तक
समझ नहीं पाया हूँ
कि ये ऐब्स्ट्रेक्ट
बना
तो बना कैसे?
© चिराग़ जैन
कुछ रंग
यक-ब-यक
बिखर जाते हैं
ज़ेहन के कॅनवास पर।
और
मैं ठहर कर
निहारने लगता हूँ
उस कलाकृति की
ख़ूबसूरती को।
बूझने लगता हूँ
अतीत के स्ट्रोक्स की
जटिल पहेलियाँ।
आज तक
समझ नहीं पाया हूँ
कि ये ऐब्स्ट्रेक्ट
बना
तो बना कैसे?
© चिराग़ जैन
Thursday, July 5, 2007
दिल्ली
वे भी दिन थे
जब पुरानी दिल्ली की तंग गलियाँ
अकारण ही मुस्कुरा देती थीं
नज़र मिलने पर
अजनबियों से भी!
दरियागंज की हवेलियाँ
अक्सर देखा करती थीं
एक कटोरी को
देहरी लांघकर
इतराते हुए
दूसरी देहरी तक जाते
कुछ दशक पहले तक!
शाहदरा के बेतरतीब मकान
चिलचिलाती धूप में अक्सर
दरवाज़ा खोलकर
बिना झल्लाए
तर कर देते थे
अजनबियों का गला
ठण्डे-ठण्डे पानी से!
करोल बाग़ की सड़कें
अनायास ही
जुट जाती थीं
मुसीबत में खड़े किसी मुसाफिर की
मदद करने के लिए।
और मौरिस नगर के नुक्कड़ों को
आज भी याद हैं
हज़ारों नि:शब्द प्रेम कहानियाँ,
जिनका पूरा सफ़र
तय होकर रह गया
आँखों-आँखों में ही!
…लेकिन अब
ये प्रेम कहानियाँ
ऐसी ख़ामोशी में नहीं बनतीं।
अब दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़-लिख कर
अपने अधिकार जान गया है प्रेम!
अब लोक-लाज और
पिछड़े हुए समाज से
कुछ आगे निकल कर
निरूलाज़ और मैक-डीज़ में
बर्गर खाते हुए
घंटों बतिया सकता है प्रेम
‘सेफ़ली’!
…या फिर आर्ट्स फ़ैकल्टी के बाहर
भेल-पूड़ी खाते हुए
बेरोक-टोक
आलिंगनबध्द हो सकता है
सारे ज़माने के सामने!
…या फैशनेबल मोटर-बाइक पर
बेहिचक, बेझिझक
बिना किसी से डरे
‘चाहे जैसे’
फर्राटे से दौड़ सकता है।
…पहले की तरह नहीं
कि नाम पूछने में भी
महीनों लग जाएँ!
अब तो
झट से पूछ सकता है
कोई भी
कुछ भी
किसी से भी!
अब दिल्ली
दो पल ठहर कर
कोई किसी को
रास्ता नहीं बताती है,
अब एक्सिडेंट को देख कर भी
गाड़ियों की क़तारें
(न जाने कहाँ पहुँचने की जल्दी में)
फ़र्राटे से निक्ल जाती हैं।
जब पुरानी दिल्ली की तंग गलियाँ
अकारण ही मुस्कुरा देती थीं
नज़र मिलने पर
अजनबियों से भी!
दरियागंज की हवेलियाँ
अक्सर देखा करती थीं
एक कटोरी को
देहरी लांघकर
इतराते हुए
दूसरी देहरी तक जाते
कुछ दशक पहले तक!
शाहदरा के बेतरतीब मकान
चिलचिलाती धूप में अक्सर
दरवाज़ा खोलकर
बिना झल्लाए
तर कर देते थे
अजनबियों का गला
ठण्डे-ठण्डे पानी से!
करोल बाग़ की सड़कें
अनायास ही
जुट जाती थीं
मुसीबत में खड़े किसी मुसाफिर की
मदद करने के लिए।
और मौरिस नगर के नुक्कड़ों को
आज भी याद हैं
हज़ारों नि:शब्द प्रेम कहानियाँ,
जिनका पूरा सफ़र
तय होकर रह गया
आँखों-आँखों में ही!
…लेकिन अब
ये प्रेम कहानियाँ
ऐसी ख़ामोशी में नहीं बनतीं।
अब दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़-लिख कर
अपने अधिकार जान गया है प्रेम!
अब लोक-लाज और
पिछड़े हुए समाज से
कुछ आगे निकल कर
निरूलाज़ और मैक-डीज़ में
बर्गर खाते हुए
घंटों बतिया सकता है प्रेम
‘सेफ़ली’!
…या फिर आर्ट्स फ़ैकल्टी के बाहर
भेल-पूड़ी खाते हुए
बेरोक-टोक
आलिंगनबध्द हो सकता है
सारे ज़माने के सामने!
…या फैशनेबल मोटर-बाइक पर
बेहिचक, बेझिझक
बिना किसी से डरे
‘चाहे जैसे’
फर्राटे से दौड़ सकता है।
…पहले की तरह नहीं
कि नाम पूछने में भी
महीनों लग जाएँ!
अब तो
झट से पूछ सकता है
कोई भी
कुछ भी
किसी से भी!
अब दिल्ली
दो पल ठहर कर
कोई किसी को
रास्ता नहीं बताती है,
अब एक्सिडेंट को देख कर भी
गाड़ियों की क़तारें
(न जाने कहाँ पहुँचने की जल्दी में)
फ़र्राटे से निक्ल जाती हैं।
अब कोई किसी प्यासे को
पानी नहीं पिलाता,
और तो और
अब तो कोई प्यासा
पानी पीने के लिए
किसी का दरवाज़ा भी नहीं खटखटाता!
शाहदरा, उत्तम नगर
और आदर्श नगर की क़स्बाई गलियाँ
रोज़ सवेरे
धड़धड़ाती मैट्रो में सवार हो
पहुँच जाती हैं
साउथ-एक्स, कनॉट प्लेस
या नेहरू प्लेस
जहाँ गुम हो जाता है क़स्बा
शहरी भीड़ में!
अब इन गलियों के पास
नहीं बचा है वक्त
चाय की चुस्कियों के साथ
जनसत्ता पढ़ने का।
…अब तो ‘फटाफट न्यूज़’ का
दस मिनिट का बुलेटिन ही देख पाते हैं
बमुश्क़िल!
दरियागंज की हवेलियों में
अब गोदाम हैं
किताबों के
काग़ज़ के
और रुपयों के!
पुरानी दिल्ली की तंग गलियाँ
अब तंग आ चुकी हैं
अजनबियों से!
हुक्के की गुड़गुड़ाहट पर
कब्ज़ा कर लिया है
‘आइए भैनजी, सूट देखिए!’
की आवाज़ ने।
मुद्दतों से
ग़ज़ल नहीं इठलाई है
बल्लीमारान की गली क़ासिम में;
अब यहाँ
जूतियों का
इंटरनेशनल बाज़ार है।
© चिराग़ जैन
पानी नहीं पिलाता,
और तो और
अब तो कोई प्यासा
पानी पीने के लिए
किसी का दरवाज़ा भी नहीं खटखटाता!
शाहदरा, उत्तम नगर
और आदर्श नगर की क़स्बाई गलियाँ
रोज़ सवेरे
धड़धड़ाती मैट्रो में सवार हो
पहुँच जाती हैं
साउथ-एक्स, कनॉट प्लेस
या नेहरू प्लेस
जहाँ गुम हो जाता है क़स्बा
शहरी भीड़ में!
अब इन गलियों के पास
नहीं बचा है वक्त
चाय की चुस्कियों के साथ
जनसत्ता पढ़ने का।
…अब तो ‘फटाफट न्यूज़’ का
दस मिनिट का बुलेटिन ही देख पाते हैं
बमुश्क़िल!
दरियागंज की हवेलियों में
अब गोदाम हैं
किताबों के
काग़ज़ के
और रुपयों के!
पुरानी दिल्ली की तंग गलियाँ
अब तंग आ चुकी हैं
अजनबियों से!
हुक्के की गुड़गुड़ाहट पर
कब्ज़ा कर लिया है
‘आइए भैनजी, सूट देखिए!’
की आवाज़ ने।
मुद्दतों से
ग़ज़ल नहीं इठलाई है
बल्लीमारान की गली क़ासिम में;
अब यहाँ
जूतियों का
इंटरनेशनल बाज़ार है।
© चिराग़ जैन
Monday, June 18, 2007
रोटी
पेट को जब भूख लगती है
तो अक्सर पाँव सबके
घर से बाहर आ निकलते हैं
भूख के कारण सभी
प्राणी, परिन्दे, जानवर
सब कीट और इन्सान तक
संघर्ष करते हैं
तितलियाँ लड़ती हैं अक्सर आंधियों से
चींटियाँ चलतीं कतारों में
निकलकर बांबियों से
साँप, बिल को छोड़कर फुफकारते हैं
शेर, तजकर मांद को
भीषण दहाड़ें मारते हैं
भेड़िये, चीते, बघेरे
मृग, मगर और मीन
सब भोजन कमाने को
घरों का त्याग करते हैं
परिन्दे, दानों की ख़ातिर
खोलते हैं पर
फुदककर नीड़ से बाहर निकलते हैं
तो अक्सर पाँव सबके
घर से बाहर आ निकलते हैं
भूख के कारण सभी
प्राणी, परिन्दे, जानवर
सब कीट और इन्सान तक
संघर्ष करते हैं
तितलियाँ लड़ती हैं अक्सर आंधियों से
चींटियाँ चलतीं कतारों में
निकलकर बांबियों से
साँप, बिल को छोड़कर फुफकारते हैं
शेर, तजकर मांद को
भीषण दहाड़ें मारते हैं
भेड़िये, चीते, बघेरे
मृग, मगर और मीन
सब भोजन कमाने को
घरों का त्याग करते हैं
परिन्दे, दानों की ख़ातिर
खोलते हैं पर
फुदककर नीड़ से बाहर निकलते हैं
और इन सबकी तरह
इंसान भी
दो वक़्त की रोटी कमाना चाहता है
हाँ,
कमाने के तरीक़े भी
सभी के एक से हैं।
छीनना, लड़ना, झपटना, मांगना
या सोखना और चाटना
जूठन उठाना
या किसी की हसरतों का क़त्ल करके
पेट की ज्वाला बुझाना
फ़र्क़ है तो सिर्फ़ इतना
और सब
सुब्ह निकलकर
शाम तक घर लौट आते हैं
फिर से सूनी बांबियों में
घोसलों में
प्यार की दुनिया बसाते हैं
आदमी, पर इक दफ़ा
जब रोटियाँ लाने निकलता है
तो फिर घर लौट कर
वापिस नहीं आता!
© चिराग़ जैन
इंसान भी
दो वक़्त की रोटी कमाना चाहता है
हाँ,
कमाने के तरीक़े भी
सभी के एक से हैं।
छीनना, लड़ना, झपटना, मांगना
या सोखना और चाटना
जूठन उठाना
या किसी की हसरतों का क़त्ल करके
पेट की ज्वाला बुझाना
फ़र्क़ है तो सिर्फ़ इतना
और सब
सुब्ह निकलकर
शाम तक घर लौट आते हैं
फिर से सूनी बांबियों में
घोसलों में
प्यार की दुनिया बसाते हैं
आदमी, पर इक दफ़ा
जब रोटियाँ लाने निकलता है
तो फिर घर लौट कर
वापिस नहीं आता!
© चिराग़ जैन
Saturday, June 9, 2007
सच के नाम पे
दुनिया की बदसलूक़ी का तोहफ़ा लिये जिया
फिर भी मैं अपने सच का असासा लिये जिया
कोई महज ईमान का जज्बा लिये जिया
कोई फ़रेब-ओ-झूठ का मलबा लिये जिया
टूटन, घुटन, ग़ुबार, अदावत, सफ़ाइयाँ
इक शख़्स सच के नाम पे क्या-क्या लिये जिया
जब तक मुझे ग़ुनाह का मौक़ा न था नसीब
तब तक मैं बेग़ुनाही का दावा लिये जिया
हर एक शख़्स अपनी नज़र में था बेलिबास
दुनिया के दिखावे को लबादा लिये जिया
रोशन रहे चराग़ उसी की मज़ार पर
ताज़िन्दगी जो दिल में उजाला लिये जिया
इक वो है जिसे दौलतो-शोहरत मिली सदा
इक मैं हूँ ज़मीरी का असासा लिये जिया
तुम पास थे या दूर थे, इसका मलाल क्या
मैं तो लबों पे नाम तुम्हारा लिये जिया
✍️ चिराग़ जैन
फिर भी मैं अपने सच का असासा लिये जिया
कोई महज ईमान का जज्बा लिये जिया
कोई फ़रेब-ओ-झूठ का मलबा लिये जिया
टूटन, घुटन, ग़ुबार, अदावत, सफ़ाइयाँ
इक शख़्स सच के नाम पे क्या-क्या लिये जिया
जब तक मुझे ग़ुनाह का मौक़ा न था नसीब
तब तक मैं बेग़ुनाही का दावा लिये जिया
हर एक शख़्स अपनी नज़र में था बेलिबास
दुनिया के दिखावे को लबादा लिये जिया
रोशन रहे चराग़ उसी की मज़ार पर
ताज़िन्दगी जो दिल में उजाला लिये जिया
इक वो है जिसे दौलतो-शोहरत मिली सदा
इक मैं हूँ ज़मीरी का असासा लिये जिया
तुम पास थे या दूर थे, इसका मलाल क्या
मैं तो लबों पे नाम तुम्हारा लिये जिया
✍️ चिराग़ जैन
Thursday, June 7, 2007
सार्थकता
सच बोलने की भी जो हिम्मत जुटा न सके
ऐसी निरी खोखली जवानी किस काम की
शोषण को देख नहीं लहू में उबाल आए
बोलो ऐसी ख़ून की रवानी किस काम की
लाज, प्रेम, करुणा की नमी यदि सूख जाए
भला फिर आँख बिन पानी किस काम की
जिसके निधन पे न चार नैन नम हुए
ऐसे आदमी की ज़िन्दगानी किस काम की
© चिराग़ जैन
ऐसी निरी खोखली जवानी किस काम की
शोषण को देख नहीं लहू में उबाल आए
बोलो ऐसी ख़ून की रवानी किस काम की
लाज, प्रेम, करुणा की नमी यदि सूख जाए
भला फिर आँख बिन पानी किस काम की
जिसके निधन पे न चार नैन नम हुए
ऐसे आदमी की ज़िन्दगानी किस काम की
© चिराग़ जैन
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Saturday, May 12, 2007
काव्य
जिन शिखरों को हो पिघलने से ऐतराज़
उन्हें कभी नदी-सा बहाव नहीं मिलता
अनुभूति अनकही रहती हैं जब तक
अक्षरों से उनका स्वभाव नहीं मिलता
जोड़-तोड़ करने से कविता तो बनती है
किन्तु ऐसी कविता में भाव नहीं मिलता
काव्य तो है ऐसी पीड़ाओं की प्रतिध्वनि जहाँ
टीस उठती है पर घाव नहीं मिलता
© चिराग़ जैन
उन्हें कभी नदी-सा बहाव नहीं मिलता
अनुभूति अनकही रहती हैं जब तक
अक्षरों से उनका स्वभाव नहीं मिलता
जोड़-तोड़ करने से कविता तो बनती है
किन्तु ऐसी कविता में भाव नहीं मिलता
काव्य तो है ऐसी पीड़ाओं की प्रतिध्वनि जहाँ
टीस उठती है पर घाव नहीं मिलता
© चिराग़ जैन
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Sunday, May 6, 2007
सपना
मुझपे अब मेहरबान हो कोई
मेरे सपनों की जान हो कोई
मेरे मन में उतर-उतर जाए
जैसे बन्सी की तान हो कोई
© चिराग़ जैन
मेरे सपनों की जान हो कोई
मेरे मन में उतर-उतर जाए
जैसे बन्सी की तान हो कोई
© चिराग़ जैन
Tuesday, April 17, 2007
युवा हो गया मीडिया
पिछले दिनों फैशन टीवी पर यह कहकर प्रतिबंध लगाया गया कि उस पर फैशन कार्यक्रमों की आड़ में अश्लीलता परोसी जा रही है। प्रतिबंध लगा और हट भी गया; लेकिन इससे किसी को कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा। क्योंकि अब हमारे देश का दर्शक वर्ग उत्तेजक दृश्यों के लिए कुछ गिने-चुने अंग्रेज़ी चैनल्स पर ही निर्भर नहीं रह गया है। न्यूज़ मीडिया ने अंग्रेज़ी चैनल्स के एकाधिकार को समाप्त कर दिया है। अपराध बुलेटिनों के नाम पर रोज़ रात को सोने से पहले किसी के यौन-शोषण, अश्लील एमएमएस, बलात्कार, अवैध सम्बन्ध, देह व्यापार और बार डांस की घटनाओं का जो परत-दर-परत विश्लेषण दिखाया जाता है वह देश में वीटीवी, एमटीवी, एफटीवी और इस प्रकार के अन्य विदेशी चैनल्स के महत्व को कम करने के लिए पर्याप्त है।
जो कुछ क़सर इस क्षेत्र में बाक़ी थी भी उसको पूरा करने के लिए देश भर के सिने कलाकारों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने राष्ट्रसेवा की भावना से भर कर मीडिया का साथ देने का निश्चय किया है। जिस दिन दुर्भाग्यवश उक्त क़िस्म की कोई घटना प्रकाश में आने को तैयार नहीं होती उस दिन कोई न कोई सेलिब्रिटी किसी न किसी कार्यक्रम में किसी न किसी सेलिब्रिटी को चूम लेती है, और हो जाता है संकट का समाधान। इस प्रकार यौन-विषयों पर शोध कर रहे आधुनिक वात्स्यायनों की भीष्म प्रतिज्ञा खंडित होने से बाल-बाल बच जाती है। यदा यदा हि यौनस्य, ग्लानिर्भवति चैनलः.......
कुल दस सेकेण्ड के चुम्बन कांड को 13-14 घंटे तक कैसे दिखाना है इस कार्य में हमारे मीडिया ने वीरगाथा काल के कवियों से विशेष प्रशिक्षण प्राप्त किया है। पहले डेढ़-दो घंटे तक चुम्बन दृश्य का रीप्ले होता है और पीछे से एंकर की आवाज़ रनिंग कमेंट्री की तर्ज पर निरंतर सुनाई देती है- ”आप देख सकते हैं कि किस प्रकार ‘सरेआम’ शिल्पा शेट्टी को अअअ..... आलिंगन में भरते हुए ‘किस्स्स’ किया रिचर्ड ने। (रीप्ले) ....एक बार फिर हम अपने दर्शकों को दिखा रहे हैं ताज़ा तस्वीरें पूरे घटनाक्रम की..... एड्स अवेअरनेस का कार्यक्रम था जिसमें रिचर्ड ने मंच पर ही ‘सरेआम’ शिल्पा शेट्टी को किस किया। (रीप्ले) .....एक बार फिर से देखिए वो तस्वीरें जिसमें मुस्कुराते हुए रिचर्ड गेरे बिना किसी हिचकिचाहट के ‘सरेआम’ शिल्पा शेट्टी को चूम रहे हैं................. किसी भी तरह की कोई झिझक या तनाव नहीं दिखाई दे रहा है शिल्पा के चेहरे पर।“
इस प्रकार जब उस दृश्य को देखकर बोले जा सकने वाले तमाम वाक्य दर्शकों को कंठस्थ हो जाते हैं तब तक गैस्टगण स्टूडियो में पहुँच चुके होते हैं। फिर इस मुद्दे पर ज़बरदस्त बहस होती है। फिर उन लोगों से सम्पर्क किया जाता है जो बुद्धिजीवी होते हुए भी कुछ विशेष आर्थिक कारणों से स्टूडियो तक नहीं पहुँच सके। उसके बाद सीन पर मौजूद हस्तियों से सम्पर्क साधा जाता है। और ख़बर के सभी पक्षों का मत जानने के लिए घटनास्थल पर मौजूद पत्रकार कार्यक्रम मंे मौजूद दर्शकों से बातचीत करता है-
”आप उस समय कार्यक्रम में मौजूद थे जब रिचर्ड ने शिल्पा को किस किया“
”जी हाँ। मैं उस समय आगे से दूसरी पंक्ति में आठवीं कुर्सी पर पैर ऊपर करके बैठा था। और उस समय मेरी गर्दन.......“
”तो आप यह बताइये कि कैसे हुआ ये सारा घटनाक्रम“
”.....बस शिल्पा शेट्टी ने रिचर्ड गेरे को मंच पर बुलाया और फिर रिचर्ड गेरे ने आकर शिल्पा शेट्टी का हाथ पकड़ लिया और फिर उसको अपनी ओर खींच लिया और गले लगा लिया जी। अजी शिल्पा शेट्टी चाहती तो उस अंग्रेज को थप्पड़ मार सकती थी लेकिन जी उसको तो इस सबकी आदत है जी।“
इसके बाद पत्रकार और एंकर के बीच कुछ अध्यक्षीय स्तर की बातचीत होती है। इस प्रकार 12-13 घंटे के कठोर परिश्रम के बाद पत्रकारों का पूरा दल प्रदत्त विषय पर पूरा शोध ग्रंथ तैयार कर देता है।
ऐसा ही एक अन्य उदाहरण पिछले दिनों एक दक्षिण भारतीय अभिनेत्री के अश्लील एमएमएस का हो सकता है। किसी मसाज पार्लर में बने इस एमएमएस का शालीनीकरण कर सभी न्यूज़ चैनल्स ने प्रसारित किया। इस के साथ ही सनद स्वरूप उक्त अभिनेत्री के किसी पुराने एमएमएस की भी झलक दिखाई गई जिसमें उसको नहाते हुए दिखाया गया था। इन दोनों ही कार्यक्रमों को प्रसारित करते समय स्क्रीन के कुछ हिस्सोें को अर्द्धपारदर्शी पट्टी से ढँक दिया गया था और साथ ही हैडर और फूटर में उन वेबसाईट का नाम दिया गया था जहाँ से न्यूज़ चैनल्स ने उक्त क्लिप्स ‘साभार’ प्राप्त की थी।
यह तो था प्रदर्शित सत्य। लेकिन इन दृश्यों के साथ वेबसाइट्स का नाम देने के पीछे एक मूक संदेश था- ”प्रिय दर्शकों! कुछ अनर्गल कानूनों की वजह से हम आपको ये दृश्य पूरी तरह नहीं दिखा पा रहे हैं। इसके लिए हम क्षमाप्रार्थी हैं। लेकिन आपकी सुविधाओं और रुचियों का ध्यान रखते हुए हमने इस कार्यक्रम का प्रसारण ऐसे समय पर किया है जब सभी सरकारी कार्यालय बन्द हो चुके हैं। सो इससे पहले कि हमारे चैनल पर प्रसारित होने के कारण इस ख़बर पर कोई कार्रवाई हो और सरकार उक्त वेबसाइट को बैन कर दे, आप तुरन्त अपना इन्टरनेट खोलिए और इन क्लिप्स को डाउनलोड कर लीजिए। आपके पास पूरे 12 घंटे का समय है। आपका समय शुरू होता है अब...... काल करै सो आज कर, आज करै सो अब, पल में एक्शन होएगा, लाॅगिन करेगा कब।“
राखी सावंत, मल्लिका शेरावत, नेहा धूपिया, बिपाशा बासु, करीना कपूर, इमरान हाशमी, मिक्का, शाहिद कपूर, शक्ति कपूर, अनारा गुप्ता और अन्य समाज सेवक जब तक मौजूद हैं तब तक मीडिया का यह शोध अनवरत ज़ारी रहेगा।
दरअसल ऐसी की ख़बरों में समाचार चैनल्स की विशेष रुचि का कारण यह है कि इस क़िस्म की एक ही ख़बर मीडिया के तीनों लक्ष्यों (शिक्षा, सूचना और मनोरंजन) को लक्ष्य करती है। समाचार जगत की अन्य किसी विधा में इतना बूता नहीं है।
इस सारी समीक्षा का लब्बोलुआब यह है कि हमारा मीडिया पूरी तरह जागृत है और मैच्योर हो गया है। यही कारण है कि अपने बचपन के दौर में भारतीय पत्रकारिता देशभक्ति के गीत गाती थी, और यौवन आते ही मीडिया काॅलेज लाइफ को एन्ज्वाय करने लगा है सो देशभक्ति की बोर और बचकानी बातों की संकीर्ण मानसिकता से बाहर आकर ग्लोबल वे में उन विषयों पर खुलकर चर्चा करने लगा है जिन्हें छूना बच्चों के लिए निषेध होता है। शरीर विज्ञान की भाषा में कहें तो मीडिया में अब हार्मोनल चेंज आ गए हैं।
© चिराग़ जैन
Tuesday, April 3, 2007
प्यार भर देंगे
तेरे दामन में प्यार भर देंगे
तेरे मन में शृंगार भर देंगे
कब तलक तू हमें न चाहेगा
ख़ुद को तुझ पर निसार कर देंगे
© चिराग़ जैन
तेरे मन में शृंगार भर देंगे
कब तलक तू हमें न चाहेगा
ख़ुद को तुझ पर निसार कर देंगे
© चिराग़ जैन
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Sunday, March 25, 2007
प्रेम से भीगा हृदय
लाख अवगुंठन छिपाएँ प्रीत का मुखड़ा
कुछ झलक तो आएगी ही आवरण के पार
जब हृदय में नेह के बिरवे नए पल्लव संजोएँ
और आकर्षण खिले मन में सुवासित गंध लेकर
तब नयन की कोर पर आकर ठहरता है निवेदन
श्वास जाती है प्रिये के द्वार तक संबंध लेकर
भावनाओं का अनूठा-अनलिखा यह गीत
है हर इक भाषा नियम और व्याकरण के पार
जब किसी के शब्द मन में मंत्र बनकर गूंजते हों
और उसके पार मन का मृग कुलाचें भर न पाए
हर गगन, सागर, क्षितिज, अनहद सिमट आए उसी में
कल्पना उस गात तक पहुँचे तो फिर वापस न आए
प्रेम से भीगा हृदय जी ही नहीं सकता
एक पल भी नेहमय वातावरण के पार
© चिराग़ जैन
कुछ झलक तो आएगी ही आवरण के पार
जब हृदय में नेह के बिरवे नए पल्लव संजोएँ
और आकर्षण खिले मन में सुवासित गंध लेकर
तब नयन की कोर पर आकर ठहरता है निवेदन
श्वास जाती है प्रिये के द्वार तक संबंध लेकर
भावनाओं का अनूठा-अनलिखा यह गीत
है हर इक भाषा नियम और व्याकरण के पार
जब किसी के शब्द मन में मंत्र बनकर गूंजते हों
और उसके पार मन का मृग कुलाचें भर न पाए
हर गगन, सागर, क्षितिज, अनहद सिमट आए उसी में
कल्पना उस गात तक पहुँचे तो फिर वापस न आए
प्रेम से भीगा हृदय जी ही नहीं सकता
एक पल भी नेहमय वातावरण के पार
© चिराग़ जैन
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छूकर निकली है बेचैनी,
पद्य
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Delhi, India
Thursday, March 1, 2007
होली
सबके जीवन में भरें पावनता के रंग
ऐसी रंगत लाए अब, होरी अपने संग
अब ऐसे मनने लगा, होली का त्यौहार
चेहरे स्याह-सफेद हैं, रंगे हुए अख़बार
भूले से भी मत करो, पॉवर का मिस-यूज़
भस्म हो गई होलिका, उड़ा पाप का फ्यूज़
© चिराग़ जैन
ऐसी रंगत लाए अब, होरी अपने संग
अब ऐसे मनने लगा, होली का त्यौहार
चेहरे स्याह-सफेद हैं, रंगे हुए अख़बार
भूले से भी मत करो, पॉवर का मिस-यूज़
भस्म हो गई होलिका, उड़ा पाप का फ्यूज़
© चिराग़ जैन
Sunday, February 25, 2007
लहर
ग़रीबों के बच्चों की
भूखी आँखों में पलते कोरे स्वप्न
अनायास ही मिट जाते हैं
सागर-तट पर फैली रेत पर लिखे
नाम की तरह।
रेतीली चित्रकारी को मिटाने आयी लहर
हर बार दे जाती है
एक नया चित्र
सागर के तट को
ताकि
व्यर्थ न हो
यात्रा
भविष्य में आनेवाली लहर की!
✍️ चिराग़ जैन
भूखी आँखों में पलते कोरे स्वप्न
अनायास ही मिट जाते हैं
सागर-तट पर फैली रेत पर लिखे
नाम की तरह।
रेतीली चित्रकारी को मिटाने आयी लहर
हर बार दे जाती है
एक नया चित्र
सागर के तट को
ताकि
व्यर्थ न हो
यात्रा
भविष्य में आनेवाली लहर की!
✍️ चिराग़ जैन
Wednesday, February 14, 2007
मेहमानों का आना-जाना
वो, जिनके घर मेहमानों का आना-जाना होता है
उनको घर का हर कमरा, हर रोज़ सजाना होता है
जिस देहरी की किस्मत में स्वागत या वंदनवार न हो
उस चौखट के भीतर केवल इक तहख़ाना होता है
© चिराग़ जैन
उनको घर का हर कमरा, हर रोज़ सजाना होता है
जिस देहरी की किस्मत में स्वागत या वंदनवार न हो
उस चौखट के भीतर केवल इक तहख़ाना होता है
© चिराग़ जैन
Monday, February 12, 2007
मूल से कटकर
एक दिन
पीपल के पत्तों को
हवा ने बरगलाया!
फिर शरारत से भरे लहजे में
उनका गात छूकर
कान में यूँ फुसफुसाया-
पीपल के पत्तों को
हवा ने बरगलाया!
फिर शरारत से भरे लहजे में
उनका गात छूकर
कान में यूँ फुसफुसाया-
"तुमको अंदाज़ा नहीं
क्या रूप है तुमको मिला
इस नाकारा पेड़ की
शोभा के तुम आधार
तुम जो चाहो तो हवाएँ ले चलें तुमको
दूर परियों के सुनहरे देस
अम्बर पार!
ये ख़नकती देह धर कर भी
भला क्योंकर
ढो रहे हो बोझ तुम इस ठूठ का बेकार
वृक्ष की तो ज़िन्दगी है
जड़, अचल, लाचार
तुम भला क्यों झेलते हो
ये नियति की मार?
बादलों की पालकी पर बैठकर हम-तुम
छोर नापेंगे धरा के
और गगन के आज
मैं बहूंगी
हाथ मेरा थाम लेना तुम
फिर करेंगे हम जहाँ के हर चमन पर राज।"
कुछ ने सुनकर अनसुनी कर दी
हवा की बात
और कुछ कमज़र्फ़
बह निकले हवा के साथ।
पर बढ़े वे थामने को जब हवा का हाथ
सब हवाई बात निकली कुछ न आया हाथ।
छू तलक पाए नहीं पत्ते
हवा का छोर
और हवा हौले से बह निकली
गगन की ओर।
आ गिरे धरती पे
जो थे फुनगियों के ताज
सरगमों पर छा गई
इक कर्कशी आवाज़।
क्या इसी को बोलते हैं सब ‘समय का फेर’
जो ख़नकते थे, वो हैं अब एक सूखा ढेर
स्वप्न वो देखें गगन के और परिस्तां के
जो न हो पाए सगे अपने गुलिस्तां के
मूल से छूटें तो जीवन को तरसते हैं
और जुड़ कर पेड़ से पत्ते खनकते हैं
अब कोई झोंका हवा का
जब कभी भी छेड़ जाता है
तड़पते हैं सूखे पत्ते
और पीपल खिलखिलाता है।
© चिराग़ जैन
क्या रूप है तुमको मिला
इस नाकारा पेड़ की
शोभा के तुम आधार
तुम जो चाहो तो हवाएँ ले चलें तुमको
दूर परियों के सुनहरे देस
अम्बर पार!
ये ख़नकती देह धर कर भी
भला क्योंकर
ढो रहे हो बोझ तुम इस ठूठ का बेकार
वृक्ष की तो ज़िन्दगी है
जड़, अचल, लाचार
तुम भला क्यों झेलते हो
ये नियति की मार?
बादलों की पालकी पर बैठकर हम-तुम
छोर नापेंगे धरा के
और गगन के आज
मैं बहूंगी
हाथ मेरा थाम लेना तुम
फिर करेंगे हम जहाँ के हर चमन पर राज।"
कुछ ने सुनकर अनसुनी कर दी
हवा की बात
और कुछ कमज़र्फ़
बह निकले हवा के साथ।
पर बढ़े वे थामने को जब हवा का हाथ
सब हवाई बात निकली कुछ न आया हाथ।
छू तलक पाए नहीं पत्ते
हवा का छोर
और हवा हौले से बह निकली
गगन की ओर।
आ गिरे धरती पे
जो थे फुनगियों के ताज
सरगमों पर छा गई
इक कर्कशी आवाज़।
क्या इसी को बोलते हैं सब ‘समय का फेर’
जो ख़नकते थे, वो हैं अब एक सूखा ढेर
स्वप्न वो देखें गगन के और परिस्तां के
जो न हो पाए सगे अपने गुलिस्तां के
मूल से छूटें तो जीवन को तरसते हैं
और जुड़ कर पेड़ से पत्ते खनकते हैं
अब कोई झोंका हवा का
जब कभी भी छेड़ जाता है
तड़पते हैं सूखे पत्ते
और पीपल खिलखिलाता है।
© चिराग़ जैन
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मन तो गोमुख है
Sunday, February 11, 2007
पत्थर को भी तरते देखा
हमने सूरज को यहाँ डूब के मरते देखा
और जुगनू से अंधेरों को सँवरते देखा
तूने जिस बात पे मुस्कान के पर्दे डाले
हमने उसको तेरी आँखों में उतरते देखा
एक लमहे में तेरे साथ कई रुत गुज़रीं
तेरे जाने पे मगर वक़्त ठहरते देखा
लोग कहते हैं बस इक शख़्स मरा है लेकिन
क्या किसी ने वहाँ सपनों को बिखरते देखा
तेरे विश्वास में कोई कमी रही है ‘चिराग़’
वरना पुरखों ने तो पत्थर को भी तरते देखा
© चिराग़ जैन
और जुगनू से अंधेरों को सँवरते देखा
तूने जिस बात पे मुस्कान के पर्दे डाले
हमने उसको तेरी आँखों में उतरते देखा
एक लमहे में तेरे साथ कई रुत गुज़रीं
तेरे जाने पे मगर वक़्त ठहरते देखा
लोग कहते हैं बस इक शख़्स मरा है लेकिन
क्या किसी ने वहाँ सपनों को बिखरते देखा
तेरे विश्वास में कोई कमी रही है ‘चिराग़’
वरना पुरखों ने तो पत्थर को भी तरते देखा
© चिराग़ जैन
Tuesday, January 30, 2007
उस घड़ी
आप संग गुज़रे लम्हे, पीड़ा अजानी हो गये
प्यार के रंगीन पल, क़िस्से-कहानी हो गये
हर किसी के ख़्वाब जब से आसमानी हो गये
पाप के और पुण्य के तब्दील मआनी हो गये
एक दीवाने से झोंके ने उन्हें छू भर लिया
और उनकी चूनरी के रंग धानी हो गये
सर्द था मौसम तो बहती धार भी जम-सी गयी
धूप पड़ते ही मरासिम पानी-पानी हो गये
वक़्त की हल्की-सी करवट का तमाशा देखिये
ये सड़क के लोग कितनी खानदानी हो गये
मुफ़लिसी में जिनकी बातें गालियाँ बनकर चुभीं
दौलतें बरसीं तो उनके और मआनी हो गये
आपसे मिलकर हमारे दिन हुए गुलदाउदी
आपको छूकर तसब्बुर रातरानी हो गये
जब उचककर आपने तोड़ी निम्बोली; उस घड़ी
नीम के पत्ते भी सारे ज़ाफ़रानी हो गये
© चिराग़ जैन
प्यार के रंगीन पल, क़िस्से-कहानी हो गये
हर किसी के ख़्वाब जब से आसमानी हो गये
पाप के और पुण्य के तब्दील मआनी हो गये
एक दीवाने से झोंके ने उन्हें छू भर लिया
और उनकी चूनरी के रंग धानी हो गये
सर्द था मौसम तो बहती धार भी जम-सी गयी
धूप पड़ते ही मरासिम पानी-पानी हो गये
वक़्त की हल्की-सी करवट का तमाशा देखिये
ये सड़क के लोग कितनी खानदानी हो गये
मुफ़लिसी में जिनकी बातें गालियाँ बनकर चुभीं
दौलतें बरसीं तो उनके और मआनी हो गये
आपसे मिलकर हमारे दिन हुए गुलदाउदी
आपको छूकर तसब्बुर रातरानी हो गये
जब उचककर आपने तोड़ी निम्बोली; उस घड़ी
नीम के पत्ते भी सारे ज़ाफ़रानी हो गये
© चिराग़ जैन
Tuesday, January 23, 2007
वसंत (दो चित्र)
परेशानियों में यदि उलझा हो अंतस् तो
कैसा लगता है ये वसंत मत पूछिये
एक-एक दिन एक युग लगता है; और
कैसे होता है युगों का अंत मत पूछिये
प्रेमगीत शोर लगते हैं और लिपियों के
चुभते हैं कितने हलन्त मत पूछिये
जल विच कमल सरीख़ा लगता है मन
काहे बनता है कोई सन्त मत पूछिये
धरती के रोम-रोम से सुगन्ध उठती है
कैसे झूमता है ये वसन्त मत पूछिये
मकरंद ओढ़ कैसे सजता-सँवरता है
जगती का आदि और अंत मत पूछिये
लेखनी में रस घुलता है और घुंघरू से
बजते हैं लिपि के हलन्त मत पूछिये
चंदनी पवित्रता का भोग करते हैं; सारी
दुनिया के सन्त औ महन्त मत पूछिये
© चिराग़ जैन
कैसा लगता है ये वसंत मत पूछिये
एक-एक दिन एक युग लगता है; और
कैसे होता है युगों का अंत मत पूछिये
प्रेमगीत शोर लगते हैं और लिपियों के
चुभते हैं कितने हलन्त मत पूछिये
जल विच कमल सरीख़ा लगता है मन
काहे बनता है कोई सन्त मत पूछिये
धरती के रोम-रोम से सुगन्ध उठती है
कैसे झूमता है ये वसन्त मत पूछिये
मकरंद ओढ़ कैसे सजता-सँवरता है
जगती का आदि और अंत मत पूछिये
लेखनी में रस घुलता है और घुंघरू से
बजते हैं लिपि के हलन्त मत पूछिये
चंदनी पवित्रता का भोग करते हैं; सारी
दुनिया के सन्त औ महन्त मत पूछिये
© चिराग़ जैन
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