Wednesday, December 28, 2011

परदेसी जीवन

1
ये है हासिल विदेश जाने का
ध्यान रखता हूं दाने-दाने का
कौन मुझको दुलारता आकर
फायदा क्या था कुलबुलाने का

2
जाने क्या बन के रह गया हूँ मैं
ध्यान रखता हूँ दाने-दाने का
घर कहीं, मैं कहीं, सुक़ून कहीं
ये है हासिल विदेश जाने का

© चिराग़ जैन

Monday, December 12, 2011

अविश्वास

विलीन नहीं हो पाता है
अविश्वास
कभी भी
किसी भी सम्बन्ध से।

केवल
ढँक लेती हैं उसे
प्रेम, अपनत्व, सौहार्द
और नेह की परतें
...किसी-किसी सम्बन्ध में
...कुछ समय के लिए।

शायद इसीलिए
प्रकट हो जाता है दोबारा
प्रेम का पर्दा गिरते ही!
दृश्य बदलते ही
नेपथ्य से निकल
चला आता है मंच पर

कभी घृणा
तो कभी शत्रुता का
रूप धर कर

....उफ़!
कितने सारे संवाद
याद रहते हैं इसे!!

© चिराग़ जैन

Thursday, December 8, 2011

सीधी सी बात

ग़ज़ब है
हर बार ढूंढ़ लाती है
कोई न कोई बहाना
इनकार के लिए।

वही पुरानी बातें
वही पुराने बहाने
वही पुराने हाव-भाव
वही पुराने तौर
और तो और
झेंप, शर्म
और आँखें चुराना भी
जस का तस।

...ये सब तो मैं
फिल्मों में भी
देख चुका हूँ
सैंकड़ों बार।

इतनी बड़ी हो गई
इत्ती-सी बात समझ नहीं आती!

"अरे यार!
मैं प्यार करता हूँ तुझसे
...प्यार।"

© चिराग़ जैन

Friday, November 25, 2011

कहानी

शब्दशः याद है मुझे
डाकू खड्गसिंह
घोड़ा सुल्तान
बाबा भारती
घोड़ा चुराने की धमकी
बाबा का भय
खड्गसिंह की चाल
ग़रीब का वेष बनाना
घोड़ा छीनना
बाबा का उसे टोकना...

सुनो! इस घटना का ज़िक्र
किसी से मत करना
वरना लोग छोड़ देंगे
मजबूरों की सहायता करना।

यहाँ तक की कहानी
रोज़ देखता हूँ अपने आसपास
कभी खड्गसिंह बनकर
कभी बाबा भारती बनकर।

लेकिन इसके आगे
न तो कभी
कोई खड्गसिंह आया
मेरे अस्तबल में घोड़ा बांधने
न मैं ही जा पाया
किसी बाबा भारती का
सुल्तान लौटाने।

© चिराग़ जैन

Monday, November 21, 2011

नई कविता

अजीब सी
पशोपेश में रहता हूँ आजकल

तुम
और कविता
दोनों ही मांगती हैं वक़्त!

मैं घण्टों बतियाता हूँ
तुमसे
और भीतर ही भीतर
घुटती रहती है कविता।

आज अचानक
पूछ लिया तुमने-
"क्या बात है
बहुत दिनों से
कोई
नई कविता नहीं सुनाई?"

मैंने कहा-
"कल सुनाऊंगा।
आज ही किसी ने
दिल दुखाया है।"

© चिराग़ जैन

Saturday, November 12, 2011

अलसाए झरोखों से

पल-पल भारी होती पलकों के
अलसाए झरोखों से
पढ़ ही लेता हूँ
देर रात
मोबाइल स्क्रीन पर आया
तुम्हारा नाम!

करवट बदलकर
निंदियारी आँखें
पहुँच ही जाती हैं 
उंगलियों के सहारे
इनबाॅक्स तक!

...देर तक पढ़ता हूँ
मैसेज में लिखे
दो छोटे-छोटे शब्द।

भुजपाश में जकड़े
तकिए पर
ठुड्डी टिकाकर
मुस्कुराने लगते हैं मेरे होंठ!

और पलकों के भीतर
इतराने लगती हो तुम!

© चिराग़ जैन

Wednesday, October 26, 2011

फ़र्क

इतना-सा फ़र्क है
अंधियार और उजियारे में...

...कि अंधियारा
हाथों में उठाकर
किसी को
भेंट नहीं किया जा सकता!

...कि अंधियार को
हाथों में समेटने के लिए
मुट्ठी बंद करनी होती है

और उजियारा
अंजुरी बना देता है
हथेलियों को!

...कि अंधियारा
सीमित करता है
और उजियारा
सीमाओं पर छा जाता है
असीम होकर।

© चिराग़ जैन

Friday, October 21, 2011

पटनीटाॅप : मुहब्बत के नशे में लिखी गई कविता

जम्मू आये हुए मुझे छह महीने बीत गये हैं, गर्मी की जनता एक्सप्रेस जा चुकी है और सर्दी की राजधानी एक्सप्रेस आउटर सिग्नल पर खड़ी है। इस खूबसूरत मौसम में अचानक पटनीटॉप जाने का कार्यक्रम बन गया। दोपहर करीब तीन बजे जम्मू से रवाना हुआ। जम्मू शहर पार करते ही वादियों ने सिर उठाना शुरू कर दिया। 
पहली बार कश्मीर को करीब से देखा। लगा कि ऊपरवाले ने मुहब्बत के नशे में कोई कविता लिखी है, और उसका नाम रखा है कश्मीर। निगाह की हद्द से कहीं ज़्यादा बड़ी और ख़यालात की औक़ात से कहीं ज़्यादा ख़ूबसूरत वादियाँ ऐसी लगती हैं जैसे किसी सनकी चित्रकार ने बेतरतीबी से हरा, नीला, लाल, काला रंग आसमान के कॅनवास पर उंडेल दिया हो। इन रंगों ने धीरे-धीरे बहते हुए कॅनवास के निचले हिस्से में कुछ ऐसा आकार ले लिया है, जो पर्वतों के होने का तिलिस्म पैदा करता है। रंग कहीं-कहीं इतना अनोखा हो गया है कि उसको कोई नाम नहीं दिया जा सकता। वृक्षों की हरितिमा कब चिट्टी सफेदी में बदल जायेगी और कहाँ ये सफेदी पीला या गहरा लाल रंग ओढ़ लेगी, इसका कोई पैमाना नहीं बनाया जा सकता। सब कुछ बेतरतीब होता हुआ भी आश्चर्यजनक रूप से लयात्मक है। कहीं किसी पाँचवीं कक्षा के बच्चे की ‘सीनरी’ जैसा नज़ारा उभरा हुआ है, जिसमें स्केल की सहायता से पहाड़ बनाकर उसके पीछे से अर्द्धगोलाकार सूरज उगता दिखाई देता हो! कहीं-कहीं किसी मँझे हुए कलाकार की मॉडर्न आर्ट का कल्पनालोक साकार होता दिखाई देता है। 
दूर किसी पहाड़ी से उठता धुआँ कहाँ बादल में मिल जाता है, अंदाजा लगाना मुश्किल है। देवदारु के वृक्षों की ऊँचाई देखकर एहसास होता है कि व्याकरणविदों ने ‘विराट’ शब्द की सृष्टि किस भाव को अभिव्यक्त करने के लिये की होगी। पहाड़ी रास्तों पर फर्राटे से दौड़ती हुई गाड़ी की खिड़की खोलकर इस भव्यता को कैमरे में कैद करने का प्रयास करता मैं अघाता ही न था। खिड़की के इस पार लग्ज़री गाड़ी की सीट पर मैं बैठा बेग़म अख़्तर की ग़ज़लें सुन रहा हूँ, और खिड़की के उस पार तीन-चार फुट की सड़क और फिर अथाह खाई। न जाने कौन सा आकर्षण था उस खूबसूरती में, कि मृत्यु का भय भी उसको अपलक निहारने की ललक को कम नहीं कर पा रहा। 
खाई के उस पार पहाड़ के बीच से फूटता झरना नीचे लरजती हुई चेनाब के पानी को स्पर्श करता है तो नदी की धार की कशिश कई गुना बढ़ जाती है। प्रकृति के इस अनुपम दृश्य को शाम के सन्नाटे में अपलक निहारता हुआ मैं ऐसा महसूस कर रहा हूँ जैसे अपने कमरे के दरवाजे की चटकनी लगाकर, लाइट ऑफ करके कोई किशोर म्यूट मोड पर कोई अंग्रेजी फिल्म देख रहा हो। 
खिड़की की झिरी से गाड़ी के भीतर आती हवा एहसास करा रही है कि हवा का ये झोंका अभी-अभी किसी बर्फीली पहाड़ी का चुंबन कर के आया है। शाम के धुंधलके में दूर किसी पहाड़ की चोटी पर जमी बर्फ, ढलते सूरज की रोशनी में ऐसे लाल हो गयी है मानो कोई गोरी-चिट्टी लड़की कनखियों से किसी लड़के को देखती हुई पकड़ी गयी हो। 
हमारी गाड़ी, पहाड़ी रास्तों पर गोल-गोल घूमती हुई ऊँचाई पर चढ़ रही है, सूरज निढाल प्रेमी-सा बर्फीली पहाड़ियों के जिस्म पर फिसलता हुआ आँखों से ओझल हो रहा है। रात, सन्नाटा और ठंड लगातार बढ़ रही है। अनुभूति के चैतन्य मन पर धीरे-धीरे भोग का नशा चढ़ रहा है और खूबसूरती नज़र से ओझल होकर अंतर्मन के उस पर्दे पर उतर आई है, जहाँ शब्द मौन हो जाते हैं।

© चिराग़ जैन

Friday, October 7, 2011

थैंक्स गाॅड

बीत गए वो दिन
जब मैं बहाने ढूंढ़ता था
तुमसे मिलने के।
अब तो
साफ़-साफ़ कह देता हूँ-
"मिलना है तुमसे।"

थैंक्स गाॅड
अब पूछती नहीं हो तुम
कि क्या काम है
वरना झूठ बोलना पड़ता था
कुछ भी
अल्लम-गल्लम-

"वो ज़रा
डिस्कस करना था
कल की मीटिंग के बारे में ।"

© चिराग़ जैन

Friday, September 30, 2011

इश्क़ की महफ़िल

दुनिया को भूल जाओ
ये इश्क़ की महफ़िल है
आओ हुज़ूर आओ
ये इश्क़ की महफ़िल है

जो होश में हैं उनको
दुनिया के ग़म मुबारक़
हुमको तो तुम मुबारक़
तुमको तो हम मुबारक़
हाथों में जाम उठाओ
ये इश्क़ की महफ़िल है

दिल की सुनो घड़ी भर
लोगों की फ़िक्र छोड़ो
अपनों की बात सुन लो
औरों का ज़िक्र छोड़ो
ख़ुद के क़रीब आओ
ये इश्क़ की महफ़िल है

© चिराग़ जैन

Thursday, September 22, 2011

चुटकुला

मंच की आलोचना का बोझ भी ढोता रहा
और उसका मंच पर उपयोग भी होता रहा
हास्य कविता की शक़ल में चुटकुला जब भी ढला
तालियाँ तो पिट गईं पर चुटकुला रोता रहा

© चिराग़ जैन

Friday, September 9, 2011

अच्छी कविता

अपनों से मिलने वाला दर्द
जन्म देता है
अच्छी कविता को।

शायद इसी कारण
मैं नहीं लिखना चाहता
कोई अच्छी कविता
तुम्हें ले कर।

© चिराग़ जैन

Thursday, August 25, 2011

पानी ही पानी

दिल्ली में
हर साल आती है बाढ़
हर साल
सिर के ऊपर से
गुज़रने लगता है पानी।

और
हर साल
ढिठाई के साथ
बयानबाज़ी करते हैं
सरकारी गलियारे।

...कमाल है
जहाँ देखो
पानी ही पानी है
सिवाय
सरकारी आँखों के।

© चिराग़ जैन

Tuesday, August 23, 2011

अन्ना आन्दोलन

हम तो हर इक ज़ुल्म की हद से गुज़र भी जाएंगे
शेर के बच्चे हैं, अपनी ज़िद पे मर भी जाएंगे
ताश के पत्तों से बनते हैं सियासत के मकां
ये तुम्हारे घर हवाओं से बिखर भी जाएंगे

कौन रोके, गर फना होने पतंगा आ गया
एक बादल सूर्य से लेने को पंगा आ गया
ये सियासतदां संभल जाएं कि अब इस मुल्क में
नौजवां पीढ़ी के हाथों में तिरंगा आ गया

हमें ज़हमत हुई और आप पर इल्ज़ाम आया है
चलो जो कुछ हुआ जैसा हुआ, सब काम आया है
सफ़र में मुश्क़िलें थीं, दर्द था, डर था, कराहें थीं
मगर हर ज़ख़्म को भरता हुआ अंज़ाम आया है

© चिराग़ जैन

Friday, August 19, 2011

अन्ना आंदोलन

आज मैंने 
एक ग़ज़ब का नज़ारा देखा

मैंने देखा
एक होड़ सी लगी थी
बारिश के जज़्बे से
लोगों के जज़्बे की।

झमाझम बरसात में
दिल्ली की सड़कें
उफ़न आईं थीं लोगों के हुज़ूम से।

किसी को कोई डर ही नहीं था
बीमार पड़ने का
क्योकि
वे सब आए थे
देश की महामारी का
इलाज़ करने।

जहाँ तक निगाह जाती थी
सिर ही सिर नज़र आते थे।
…आज मैंने महसूस किया
कि किसी गांधी की एक आवाज़ पर
कैसे उठ खड़ा होता था
पूरा भारत!

© चिराग़ जैन

Monday, August 15, 2011

संकुचन

हम फैलाना चाहते हैं
बाइबल को
गीता को
क़ुरआन को
जातक को
आगम को।

लेकिन समेट लेना चाहते हैं
अपने ईसा
अपने कृष्ण
अपने पैग़म्बर
अपने बुद्ध 
और अपने महावीर।

हमने शास्त्र बना दिया है
किताबों को
विस्तृत करके।

और पुरखा बना दिया है
भगवान को
संकुचित करके।

© चिराग़ जैन

आज़ादी

शहीदों ने लिखी थी कल हमारे नाम आज़ादी
मगर हमने बना डाली है इक इल्ज़ाम आज़ादी

‘ग़ुलामी की ज़दों में ज़िन्दगी दुश्वार होती है’
हमें चुपके से दे जाती है ये पैग़ाम आज़ादी

कमाई से कहीं मुश्क़िल है दौलत की हिफ़ाज़त भी
संभाले रख नहीं पाए कई सद्दाम आज़ादी

घड़ी भर को नज़र चूकी, अंधेरा हो गया ग़ालिब
छिनी दिन की, ज़रा सी चूक से, हर शाम आज़ादी

भला ऐसा हुआ क्या था कि केवल छह महीने में
कोई तेरे हवाले कर गया हे राम आज़ादी

✍️ चिराग़ जैन

Friday, August 12, 2011

झूठ के दम पे मुहब्बत

सच के कारण मिली नफ़रत क़ुबूल है लेकिन
झूठ के दम पे मुहब्बत नहीं अच्छी लगती

यूँ तो रिश्ते मेरे दिल को सुक़ून देते हैं
पर ये रिश्तों की सियासत नहीं अच्छी लगती

भूख जिस वक़्त कलेजा गलाने लगती है
तब ख़ुदाओं की इबादत नहीं अच्छी लगती

उनको कल तक मेरा क़िरदार बहुत भाता था
अब मेरी एक भी आदत नहीं अच्छी लगती

कैसे इस दौर के बच्चों को दुआ दे कोई
इनको पुरख़ों की नसीहत नहीं अच्छी लगती

काम जिस शख़्स का चलता हो बेइमानी से
उसको दुनिया में शराफ़त नहीं अच्छी लगती

क़ायदा जिसने मुहब्बत का पढ़ लिया हो चिराग़
उनको फिर कोई शरीयत नहीं अच्छी लगती

© चिराग़ जैन

Sunday, August 7, 2011

घुटने

जिनकी पहचान थी ख़ुद्दारी, उन्हीं लोगों के
हाथ तो हाथ मेरे यार, जुड़े हैं घुटने
बात जब अपने पे आती है बदलते हैं उसूल
पेट की ओर ही हर बार मुड़े हैं घुटने

© चिराग़ जैन

Sunday, July 31, 2011

इत्र

इत्र है हँसी
महक उठता है वो
जिस पर छिड़का जाए

लेकिन
जो छिड़कता है
वो तो
चमक ही उठता है।

© चिराग़ जैन

Friday, July 29, 2011

जीवन का ज्ञान

पुरखों से आशीष, बुज़ुर्गों से जीवन का ज्ञान मिला
ऐसे मुझको जीवन भर मुस्काने का वरदान मिला
ईश्वर की अनुकम्पा है या फिर गत कर्मों का फल है
ख़ुशियां मेरी मीत हो गईं, दुख मुझसे अनजान मिला

© चिराग़ जैन

Tuesday, June 7, 2011

काॅन्ट्रेक्ट बेस जाॅब

सरकारी नौकरी में
मिलने वाले
नियत वेतन की तरह
मिलता है
रिश्तों में दर्द।

और वार्षिक बोनस की तरह
मिल जाती है
ख़ुशी भी
यदा-कदा।

लेकिन
काॅन्ट्रेक्ट बेस जाॅब
होते हैं रिश्ते।

बहुत कुछ
सहन करना पड़ता है
इनमें!

...और
कब तक चलेंगे
कुछ कह नहीं सकते।

© चिराग़ जैन

Friday, June 3, 2011

मुख़्बिर

उफ़
ये मुई
सपनों की रोशनी

पलकें बंद हैं
पर
चमक उठा है
चेहरा।

© चिराग़ जैन

Sunday, May 22, 2011

कर्ता का सम्मान

कर्ता का सम्मान कहां है
ऐसा यहां विधान कहां है
राम-कृष्ण हैं, हर मंदिर में
तुलसी या रसखान कहां है

© चिराग़ जैन

निस्पृह

तुम
हर बार तलाश लेती हो
कोई नई वजह
नकारने की।

...और मैं
हर बार
बिना वजह
स्वीकार लेता हूँ
मन ही मन।

हर बार बदल जाता है
तुम्हारा बहाना

...और मैं
हर बार
बिना वजह
कर बैठता हूँ
गुज़ारिश।

मैं हर बार रहता हूँ
वैसा का वैसा
क्योंकि मैंने
कभी तलाशी ही नहीं 
कोई वजह
तुम्हें चाहने के लिए।

© चिराग़ जैन

Saturday, March 12, 2011

एक पल में पिया सौत के हो गए

उम्र भर मौत से भागते जो रहे
मौत आई तो बस मौत के हो गए
मेरे हर रोम में अपना अहसास भर
एक पल में पिया सौत के हो गए

एक ही पल में ये क्या से क्या हो गया
एक पल ज़िन्दगी से बड़ा हो गया
मौत को देखकर तुम पिघल से गए
और रुख़ ज़िन्दगी पर कड़ा हो गया
मौत ने छल किया? अपहरण कर लिया?
या सफल मौत के टोटके हो गए?

मौत ने कौन सा रस पिलाया कि फिर
ज़िन्दगी की तुम्हें याद आई नहीं
हाल तक पूछने की न कोशिश हुई
इतनी भी दुनियादारी निभाई नहीं
पीढ़ियाँ तुमको थाली चढ़ाती रही
और तुम मौत के गोत के हो गए

© चिराग़ जैन

Saturday, March 5, 2011

भावार्थ

इन दिनों
संदर्भ निंदा कर रहे हैं
विषय की भावार्थ से-
शब्द लट्टू हो गए
भाषा पे
या फिर व्याकरण पे
बोलियों के गेसुओं में फँस गया है मर्म
कुछ अलंकारों में सीमित हो गया कवि-कर्म
जटिल सा लगने लगा है
आजकल सरलार्थ
आँख मूंदे, मुस्कुराता
मौन है भावार्थ

© चिराग़ जैन

Wednesday, March 2, 2011

वक़्त बीमार है

वक़्त बीमार है
Short term memory loss का पुराना मरीज़। 

कुछ याद ही नहीं रह पाता इसको
लिख-लिख कर
मुश्क़िल से याद रख पाता है
बड़ी से बड़ी बात

मैंने अक्सर देखा है वक़्त को
अपनी ही लिखी पर्चियों के बीच
उलझे हुए

इतिहास की किताबों में
किसी क़िरदार की
सबसे सही पहचान तलाशते हुए

सुना है
वक़्त को धोखा देने के लिये
किसी ने जला डाली थीं
कुछ पर्चियाँ

…तब से
बौराया-सा फिर रहा है बेचारा!

© चिराग़ जैन

Tuesday, March 1, 2011

बेचारा ईश्वर

मैंने देखा-
मूसलाधार बारिश में
भीग रही थी
ईश्वर की मूर्ति

मैंने सोचा-
थपेड़े भी सहती होगी
गर्म लू के
इसी तरह।

मैंने महसूस किया-
सर्दी-गर्मी-बरसात
नंगे बदन
कैसे खड़ा रहता है परमात्मा।

...और तब मैंने चाहा-
काश, कोई इसकी भी सुध ले!

© चिराग़ जैन

Monday, February 28, 2011

भावना की डगर

भावना की डगर भी सहज तो नहीं
इस डगर पर स्वयं का तिरस्कार है
प्रेम जिससे किया वो परेशान है
और जिसने किया प्रेम, लाचार हैै

मन हुआ मुग्ध जिस पर, उसी शख़्स के
हर कथन को कथानक बनाता रहा
प्रियतमा के नयन की चमक को सदा
कर्म का एक मानक बनाता रहा
स्वार्थ की क्यारियों में समर्पण खिला
अब यहाँ तर्क की बात बेकार है

राह चलते हुए प्रेम का हादसा
कौन जाने, कहाँ, कब घटित हो गया
एक पावन लम्हा ज़िन्दगी से जुड़ा
तन निखरता गया, मन व्यथित हो गया
बस वही इक लम्हा, बस वही हादसा
बस उसी से सुखों का सरोकार है

© चिराग़ जैन

लड़कियाँ

मेरे पिता ने
बचपन में कभी
मुझे गुड़िया से नहीं खेलने दिया
ताकि मैं सीख सकूँ
कि लड़कियाँ
खेलने की चीज़ नहीं हैं।

✍️ चिराग़ जैन

Friday, February 11, 2011

क़ामयाबी की आस्तीनों में

मेरी शोहरत से जल गए दुश्मन
दोस्तों में बदल गए दुश्मन
क़ामयाबी की आस्तीनों में
हाय धोखे से पल गए दुश्मन

© चिराग़ जैन

Tuesday, February 8, 2011

अच्छा लगता है

इतनी सारी व्यस्तताओं के बीच
निकाल ही लेता हूँ
कुछ लम्हे
कविता लिखने के लिए।

बहुत सारी
अधलिखी कविताओं को छोड़
चुरा ही लाता हूँ कुछ पल
तुमसे बतियाने के लिए।

अक्सर पूछ बैठता हूँ ख़ुद से
क्या मिलता है मुझे
कविता लिखने से?
क्या हासिल होता है
तुमसे बतियाने से?

अच्छा लगता है
...यही ना!

© चिराग़ जैन