Tuesday, April 28, 2020

फिर नई शुरुआत

थम गया संसार सारा
हो रहा ओझल किनारा
साँस डर कर ले रहे हैं
विष घुला है हर नज़ारा
किन्तु हम ख़ुद को पुनः सुकरात कर लेंगे
फिर नई शुरुआत कर लेंगे

मानते हैं, आदमी से भूल भारी हो रही थी
एक अंधी दौड़ की सब पर ख़ुमारी हो रही थी
इस हवस का अंत होगा, होड़ का अवसान होगा
फिर नई दुनिया बसेगी, फिर सृजन का गान होगा
खेत, वन सबका सही अनुपात कर लेंगे
फिर नई शुरुआत कर लेंगे

देख लेना इस नए जग की सुरीली तान होगी
श्वास में विश्वास होगा, आँख में मुस्कान होगी
प्रेम का व्यवहार होगा, प्रीत का सत्कार होगा
फिर नए बिरवे उगेंगे, फिर नया संसार होगा
हर तरफ़ उल्लास को तैनात कर लेंगे
फिर नई शुरुआत कर लेंगे

लोभ का प्रतिकार करना जानता हो, वो बचेगा
सत्य को स्वीकार करना जानता हो, वो बचेगा
जो बचेगा, वो मनुजता के लिए वरदान होगा
जो बचेगा, वो नए युग का नवल उत्थान होगा
साथ मिलकर फिर वही हालात कर लेंगे
फिर नई शुरुआत कर लेंगे

धड़कनें इस बात की पहचान है, जीवन अमर है
ज़िन्दगी क्या है, शिराओं में लहू का वेग भर है
श्वास में संगीत होगा
धड़कनों में ताल होगी
तन समूचा स्वस्थ होगा
ज़िन्दगी ख़ुशहाल होगी
देह को उपचार में निष्णात कर लेंगे
फिर नई शुरुआत कर लेंगे

लाॅकडाउन

ससुरे दफ़्तर है गए बन्द
घर पर बैठे मूसरचन्द
घर पर मूसरचन्द
खाली हो गए सबरे फंड

देसी घी के परठाँ में भी कमी बताने वारे
साँझ-सबेरे लूखी रोटी चाब रहे बेचारे
भूल गए रबड़ी श्रीखण्ड
घर पर बैठे मूसरचन्द
घर पर मूसरचन्द
खाली हो गए सबरे फंड

आसपास की ग्वालिन के संग रास रचाना छूटा
कलियाँ सबरी ग़ायब है गई, भँवरे का दिल टूटा
कलियन को बन गौ गुलकंद
घर पर बैठे मूसरचन्द
घर पर मूसरचन्द
खाली हो गए सबरे फंड

बीड़ी भई पराई, दारू हुई पहुँच से दूर
सूख-सूख कर भए छुआरे, रस से भरे खजूर
सबका ठंडा हुआ घमंड
घर पर बैठे मूसरचन्द
घर पर मूसरचन्द
खाली हो गए सबरे फंड

© चिराग़ जैन

बिरहन का सवैया

ऐसी दारी की आई बीमारी अबै, सब देस के आँगन-द्वार बंधे हैं
कौन गली भर्तार बंधे, काऊ खोह में सोलह सिंगार बंधे हैं
इत गाय के मौह पे छीको बंधो, उत खूटे पे दूर बिजार बंधे हैं
जमुना जी के पार फँसी बंसुरी, अरु ओंठ मुए इस पार बंधे हैं

© चिराग़ जैन

Ref : Lockdown

Wednesday, April 22, 2020

जन्मदिन की शुभकामनाएं!

ज़िन्दगी को जिंदादिली से जीने वाले जो मुट्ठी भर इंसान इस दुनिया में हैं, उनमें से एक हैं अरुण जैमिनी जी। दोस्ती कैसे निबाही जाती है, और बिना तनाव लिए-दिए रिश्ते को कैसे सींचा जाता है; यह मैंने अरुण जी से सीखा है।

आयु गणना करने वाले देवता को कई वर्ष से चुटकुला सुनाकर ये उसकी गिनती भुला देते हैं। जब तक वह अपने कम्प्यूटर पर सारा खाता चैक करके वापिस आता है, तब तक अरुण जी कोई नया चुटकुला सोच लेते हैं।

मन से और मूड से हमेशा युवा रहने वाले अरुण जैमिनी जी को जन्मदिन की बहुत सारी शुभकामनाएं!


© चिराग़ जैन

Saturday, April 18, 2020

लॉकडाउन के बाद...

सम्भवतः लॉकडाउन पूर्ण होने वाला है। इस आवश्यक निर्णय के लिए सरकार साधुवाद की पात्र है। आज पहली बार इस लॉकडाउन के दौर में उत्पन्न हुई कुछ ऐसी समस्याओं का ज़िक्र कर रहा हूँ, जिनसे जूझने के लिए सरकारों और नागरिकों को अतिरिक्त श्रम करना होगा। इनमें से अधिकतर समस्याओं का कारण नागरिकों की प्रवृत्ति में सम्मिलित भ्रष्टाचार, लापरवाही और कामचोरी है। 
1. लॉकडाउन का लाभ उठाकर सफाई कर्मचारियों ने कॉलोनियों को रामभरोसे छोड़ दिया है। पेड़ों से झड़ते पत्ते और उन पर बरसात के पानी की नमी... बड़े नालों की सफाई अवरुद्ध.... छोटी नालियाँ और गटर सड़ रहे हैं... महीने भर से सड़कों और आवासीय कॉलोनियों में झाड़ू नहीं लगी... यह सब मच्छरों के लिए स्वर्ग है। दिल्ली के द्वारका क्षेत्र में मच्छरों का जो प्रकोप है उसे देखकर अनुमान लगाया जा सकता है कि हम कितनी बड़ी समस्या की ओर बढ़ रहे हैं। इस कामचोरी के कारण वे सफाई कर्मचारी भी बदनाम होंगे, जो निष्ठापूर्वक अपना काम कर रहे हैं। 
2. बाज़ार और दफ़्तर बन्द होने के कारण चूहों की मौज आ गई है। नगर निगम को यह व्यवस्था करनी होगी कि बाज़ार और दफ्तर खुलने से पहले, नियमित सफाई और कीटनाशक प्रयोग कर इस संकट से जूझने की तैयारी रखे।
3. जिन मरीज़ों को नियमित स्वास्थ्य जाँच की आवश्यकता होती है, लॉकडाउन से उनकी जाँच बाधित हुई है। इसके कारण लॉकडाउन खुलने पर अस्पतालों और लेबोरेटरी पर खासा वर्कलोड बढ़ने की आशंका है। इस स्थिति से जूझने के लिए जनता को धैर्य और सरकार को समुचित तैयारी की आवश्यकता होगी। 
4. बन्द दुकानों में काफी खाद्य सामग्री सड़ रही होगी, जो लॉकडाउन खुलने पर कूडाघरों तक पहुँचेगी। इसके निस्तारण की नीति में कोताही बरती गई तो सड़ांध के कारण जीना मुहाल हो जाएगा।
5. रेल पटरियों, पुलों, सड़कों के स्वास्थ्य की निरंतर जाँच और मरम्मत सरकार करवाती है। लॉकडाउन खुलने से पूर्व इस कार्य को गंभीरतापूर्वक सम्पन्न करना बेहद ज़रूरी है। 

कोरोना से निपटने के लिए राजनैतिक इच्छा शक्ति में कहीं कोई कमी नहीं है। किन्तु कुछ लोगों की कामचोरी और कुछ लोगों की लापरवाही लॉकडाउन के बाद नई चुनौतियों को जन्म दे सकती है। स्वच्छ भारत अभियान के क्रियान्वयन का यह सर्वश्रेष्ठ समय है। सरकार अपनी ज़िम्मेदारी पूरी तरह निबाह रही है। अब हमारा कर्त्तव्य है कि हम अपने आसपास की साफ-सफाई का ध्यान रखें। जिन कॉलोनियों में सफाई कर्मचारी नहीं आ रहे हैं, या ठीक से सफाई नहीं कर रहे हैं, वहाँ के नागरिकों को अपने घर के बाहर, फ्लैट की सीढ़ियों और यथासम्भव आंगन तक झाड़ू बुहारी करते रहें। क्योंकि डेंगू का मच्छर किसी को काटने से पहले उससे उसका फ्लैट नम्बर नहीं पूछता। 

© चिराग़ जैन

Tuesday, April 14, 2020

भूख

सिर 
बर्दाश्त कर रहा है
अपनी क्षमता से अधिक भार।
हथेलियाँ कर चुकी हैं
अपनी खुरदरी छुअन को स्वीकार।
पैर सीख गए हैं
बोझा लेकर चलने की कला।
पीठ जान चुकी है 
कि देह पर बोझ बन जाने से
बोझा ढोना भला।

कानों को 
सुनाई नहीं देता उपहास
नाक को 
गंदगी से नहीं आती है बास

अपनी काया को देखकर
आँख भी 
बिल्कुल नहीं रोती है
क्योंकि पेट को 
भूख
बर्दाश्त नहीं होती है।

✍️ चिराग़ जैन

राजा और प्रजा

जहाँ राजा ने प्रजा की इच्छा को सम्मान दिया, वहाँ प्रजा ने राजा का जीवन सुनसान कर दिया।
जहाँ प्रजा ने राजा की इच्छा को सम्मान दिया, वहाँ राजा ने प्रजा का जीवन श्मशान कर दिया।

© चिराग़ जैन

Ref : Mahabharata and Ramayana

Sunday, April 12, 2020

पुराण साक्षी है

लंका, इसलिए नष्ट हुई क्योंकि वहाँ लंकेश की आलोचना को अपराध माना गया और रामराज्य इसलिए ख्यात हुआ क्योंकि वहाँ आम धोबी को भी राजा के आचरण पर प्रश्न पूछने का अभय था।
पुराण साक्षी है, कि जब भी कोई विभीषण शत्रु का सहयोगी बना है तो इसके मूल में किसी रावण द्वारा किया गया तिरस्कार ही उत्तरदायी रहा है। पुराण साक्षी है, कि जब भी किसी बाली ने सुग्रीव को ऋष्यमूक पर्वत पर छिपने के लिए विवश किया है, तब बाली के भय से थरथराने वाला सुग्रीव ही बाली के विनाश का कारण बना है।
राजनीति को द्रोह और आलोचना के मध्य अंतर करने का विवेक होना चाहिए। आलोचना को सुनना और द्रोह को युक्तिपूर्वक अशक्त कर देना राजा का कर्तव्य है। साकेत में भी मंथरा थी, जिसका द्रोह सिद्ध भी था, तथापि रघुकुलवंशियों ने अपनी मर्यादा में रहते हुए उसको कथा से लुप्त कर दिया।
जब आपका आचरण मर्यादित होता है तो शत्रु का आत्मबल ध्वस्त हो जाता है। नैतिक बल से बड़ा कोई अस्त्र नहीं होता। पाण्डव युद्ध जीतकर भी श्रद्धेय न हो पाए, किन्तु राम को, उनके आचरण ने पूज्य बना दिया।
राम और रावण में मूल अंतर यही था कि रावण के शिविर में चाटुकारिता को साधुवाद मिलता था जबकि राम के शिविर में मन्त्रणा को सम्मान मिलता था। राम ने शत्रु पर विजय प्राप्त करने के लिए शत्रु जैसा आचरण करना स्वीकार नहीं किया।
महाभारत में भी राजनीति की पाठशाला के ऐसे ही सहज अध्याय पढ़ने को मिलते हैं। पाण्डवों के दल में सबसे कटुवक्ता श्रीकृष्ण थे। वे पाण्डवों की नीतियों और योजनाओं की उन्मुक्त आलोचना करते थे, तथापि पाण्डवों के लिए वे सर्वदा स्तुत्य रहे। उधर कुरुसभा में कटुभाषण करनेवाले महात्मा विदुर सदैव हेय दृष्टि से देखे गए।
पुराण साक्षी है, जिस सभा में भीष्म और द्रोण, विदुर का हश्र देखकर मौन रह गए उस सभा का कोई महारथी जीता न रहा, जिस सभा में माल्यवान रावण के स्वर से ऊँची आवाज़ उठाने में चूक गए, उस सभा का कुलनाश हुआ है।
विभीषण के लिए यह कदापि शोभनीय नहीं है कि वह अपने राजा और कुनबे को विपत्ति में छोड़कर शत्रु से जा मिले, किन्तु रावण को भी यह समझना होगा कि विपत्ति के समय विभीषण सरीखे सत्यवक्ताओं के कटुभाषण की सर्वाधिक आवश्यता होती है।
सबसे सफल राजा वही है, जो राज्य को किसी और कि धरोहर मानकर राजकाज करे। यदि धृतराष्ट्र और पाण्डु दोनों ही राम और भरत से प्रेरणा लेकर हस्तिनापुर को किसी की धरोहर मान लेते तो कुरुवंश का नाश न हुआ होता।
पुराण साक्षी है कि जब धृतराष्ट्र नेत्रहीन हो तो उसे विदुर से विमुख नहीं होना चाहिए क्योंकि राजसभा में अपमानित होने की क़ीमत पर भी सत्य बोलनेवाले हितैषी बहुत भाग्य से मिलते हैं। यदि सत्य की परतें खोलकर प्रत्यक्ष की वास्तविकता दिखानेवाले विदुर का सम्मान करने से चूक जाएँ तो भी घटनाओं का यथावत वर्णन करनेवाले संजय का सम्मान करना तो सीख ही लें क्योंकि यदि संजय ने धृतराष्ट्र के मन-मुताबिक़ घटनाओं का वर्णन किया, तो हस्तिनापुर कभी न जान पाएगा कि कब उसकी महारानी नपूती हो गई है, और कैसे उसकी मेधा उसकी राजहठ के कारण शरशैया पर जा लेटी है।
© चिराग़ जैन

पीछे-पीछे आता है सुख

सुख, कुछ ढूंढने में नहीं है। कुछ ढूंढने के लिये तो एषणा का आधार चाहिए, कुछ ढूंढने का अर्थ है कि इच्छाओं की विषबेल पोषित हो रही है। सुख और इच्छा बिल्कुल विपरीत तत्व हैं। इच्छाओं की पगडंडी सुख के आगार तक पहुँच ही नहीं सकती।
सुख तो स्वीकार्यता से जन्मता है। अपने वर्तमान को स्वीकार कर लेना, सुख के शिखर का पहला सोपान है। अपनी परिस्थितियों से एकाकार हो जाना न्यूनतम अर्हता है सुखी होने की।
तथागत के नयन निमीलित इसीलिए हैं कि वे बहुत दूर दिखनेवाली मरीचिका को देखने से निषिद्ध हैं। वे ऊतनी भर पलकें खोले हैं, जिनसे वर्तमान पल को देखा जा सके। वर्तमान के सौंदर्य को निहारा जा सके। भविष्य की तलाश वर्तमान के सौंदर्य को अनदेखा कर देती है।
हम न जाने क्या ढूंढते-ढूंढते कहीं खो गए हैं। हम किसी कल्पना की आस में वास्तविकता का अपमान किये चले जा रहे हैं। इसलिए तलाशो मत, जो हाथ में है उसे जी लो। अगर हाथ ख़ाली हों, तो इस ख़ालीपन को ही जी लो। यह रिक्तता किसी पूर्ति की आशा से कहीं अधिक आनंददायी है।
उपलब्ध को अनदेखा करके अभीष्ट के लिए कसमसाना, अतिक्रमणवादी का चलन है। कोई महावीर इसकी अनुशंसा नहीं करता, कोई बुद्ध इसका समर्थन नहीं करता, किसी जीसस के आचरण से ऐसी प्रेरणा नहीं मिलती। गीता में जिसे स्थितप्रज्ञ कहा गया है, वह इस प्रवृत्ति की विलोम मनोदशा है।
कृष्ण अपने वर्तमान को जीते रहे। उन्होंने जिस पल को जिया उसी में रम गए। वृंदावन में गैया चराते कान्हा को देखकर यह अनुमान कर पाना कठिन था कि यही व्यक्ति एक दिन राजनैतिक महाभारत का केंद्र बिंदु होगा। वृंदावन में रास रचाते कन्हैया को देखकर यह कल्पना नहीं की जा सकती थी कि यही किशोर इंद्रप्रस्थ और द्वारका जैसे नगर बसाएगा। इसलिए वर्तमान को देखकर भविष्य का अनुमान लगाने में ऊर्जा नष्ट न करो। कृष्ण ने वृंदावन में महाभारत नहीं किया। वह पल रास का पल था। वह क्षण बाँसुरी का क्षण था। तब भरपूर रास रचाया गया। तब भरपूर बंसी बजाई गई। और इतना रास रचा लिया कि जब मथुरा-गमन हुआ तो रास की कोई आकांक्षा उनके पैर न पकड़ पाई। जब कुरुक्षेत्र के मौदान में रथ हाँका तब बंसी के स्वरों ने उनकी स्मृतियों में व्यवधान उत्पन्न नहीं किया।
वर्तमान को जीनेवाला भविष्य की चिंताओं से तो मुक्त होता ही है, अतीत की स्मृतियों से भी अछूता रहता है।
जिसने बचपन पूरा जी लिया, उसका यौवन तृप्त होता है, और जिसने यौवन भरपूर जी लिया उसका बुढ़ापा भव्य होता है। भरपूर बचपन जीकर युवा होनेवाला व्यक्ति बचपन के अभावों से दुःखी नहीं रहता।
जब आप भरपेट भोजन करते हो, एक-एक कौर का स्वाद लेकर भोजन करते हो, तो फिर भोजन का वह क्षण आपकी स्मृतियों का स्थान नहीं घेरता। लेकिन जब आपको भरपेट भोजन न मिल सका हो, जब आपकी थाली आपकी क्षुधा को पूर्ण न कर पाई हो, या जब आपने दूसरे की पत्तल में झाँकते हुए भोजन किया हो; तब वह कष्ट आपको ज़रूर याद रह जाता है। इसलिए वर्तमान को भरपूर जीना ही एकमात्र उपाय है। इसमें कुछ सकारात्मक और नकारात्मक है ही नहीं। जो है वह सच है। सत्य केवल सत्य है। उसमें कुछ अच्छा या बुरा नहीं है। उसमें कोई सौभाग्य या दुर्भाग्य नहीं हो सकता।
हर वर्तमान को एक दिन कथा हो जाना है। इस कथा में हम अपने क़िरदार में पूरी तरह पगे हुए दिखने चाहियें। जो अभिनेता अभी के दृश्य में आगेवाले दृश्य के संवाद बोलेगा, उसे मंच से उतार दिया जाएगा।
कोई नायक या खलनायक है ही नहीं। सब केवल अभिनेता हैं। नायक और खलनायक तो किरदार के नाम हैं। जो अपना क़िरदार ईमानदारी से निभाएगा, वह सुखी रहेगा। नायक से खलनायक के चरित्र की तुलना करनेवाले नादान लोग हैं। तुलना अभिनय की हो सकती है, किरदार की नहीं। किरदार तो दोनों ही महत्वपूर्ण हैं।
अपने किरदार के प्रति ईमानदार रहना ज़रूरी है, अन्यथा अपनी भूमिका सही से न निभा पाने की बेचैनी से नींद की खड़ी फ़सल को करवटों का पाला मार जाता है। सुख हमको ढूंढना तब शुरू करता है, जब हम सुख को ढूंढना बन्द कर देते हैं।

© चिराग़ जैन

Thursday, April 9, 2020

आत्मबल

रावण की क़ैद में भी राम का खयाल; माता
जानकी के मन को निहाल कर देता है
पैरों से हुई थी भूल और पेट भोजन में
कई-कई दिन अंतराल कर देता है
वाटिका में रावण प्रवेश करता है; हाय
वैदेही का दुःख विकराल कर देता है
भीतर के पाप से है चंद्रहास व्यर्थ; पर
आत्मबल तिनके को ढाल कर देता है


© चिराग़ जैन

Tuesday, April 7, 2020

कविग्राम की कार्यशाला में

कविग्राम की कार्यशाला में प्रवेश करने के बाद दिन कब बीत जाता है, पता ही नहीं चलता। कवि-सम्मेलन के पुराने वीडियो सुबह से ही मेरी कम्प्यूटर स्क्रीन पर बहार ले आते हैं। एक-एक वीडियो की लॉग शीट बनाना, फिर उसमें पढ़ी गई कविताओं को लिपिबद्ध करना, फिर उन्हें वीडियो एडिटर में संपादित करना, उनके लिए थम्बनेल डिज़ाइन करना, थम्बनेल के लिए फ़ोटो तलाशना, लिप्यन्तरण में कोई शब्द समझ न आए तो किसी वरिष्ठ कवि से पूछना... पूरा दिन मेहनत करके तीन या चार वीडियो ही तैयार कर पाता हूँ।
समय की क़ैद से अभी-अभी बाहर निकली इस सामग्री में कहीं ऑडियो क्वालिटी बहुत ख़राब है तो कहीं वीडियो क्वालिटी... जितनी मुझे तकनीक की जानकारी है, उसके मुताबिक़ उसे हर सीमा तक बेहतर बनाता चल रहा हूँ। मुझे तकनीक की जानकारी कम है, लेकिन अपने वरिष्ठ कवियों के प्रति श्रद्धा भरपूर है।
एक वीडियो में देवराज दिनेश जी कविता पढ़ रहे हैं, वीडियो और साउंड दोनों की ही क्वालिटी बहुत ख़राब है, लेकिन मैंने एक शब्द कविता भी व्यर्थ नहीं होने दी। एक-एक शब्द लिख लिया और अन्य श्रोताओं को समझने में दिक्कत न हो, इसके लिए एक-एक पंक्ति को वीडियो के साथ लिखकर नत्थी कर दिया। इस वीडियो को तैयार करते समय मुझे उस ऑडियो रिकॉर्ड की याद आ गई, जिसमें गुरुदेव रबीन्द्रनाथ टैगोर की आवाज़ में जन-गण-मन गीत सहेजा गया है। उसकी क्वालिटी बहुत अच्छी नहीं है, किंतु वह टैगोर की एकमात्र उपलब्ध ऑडियो क्लिप है। ऐसे ही कुछ दीवाने लोगों ने विवेकानन्द, महात्मा गांधी, सर सैयद अहमद खां, जवाहरलाल नेहरू आदि की ऑडियो भी सहेज लीं थीं; वही क्लिप्स आज तक इन आवाज़ों के दरदरे दुलार की अनुभूति करवा देती हैं।
शुरुआती फिल्मों की क्वालिटी भी बहुत अच्छी नहीं मिलती, लेकिन जिन्हें रस लेना आता है, उनके लिए ये ख़राब तकनीकों की मारी हुई सामग्री अनमोल है।
ताड़पत्रों की जटिल देखरेख आज की प्रकाशन तकनीकों के आगे अनावश्यक जान पड़ती है, किन्तु जिनके पास ताड़पत्रों पर लिखे ये ग्रन्थ सुरक्षित हैं वे जानते हैं कि इन पत्रों की लाख प्रतियाँ ऑफसेट पर छप सकती हैं लेकिन फिर भी वे उन जर्जर ताड़पत्रों से कमतर ही रहेंगी।
कवि सम्मेलन की इस धरोहर को व्यवस्थित करते हुए मुझे लगातार इस बात की संतोषानुभूति हो रही है कि जैसे हम निराला, पंत, महादेवी, प्रसाद, स्नेही, हरिऔध, दिनकर, गुप्त आदि महानुभावों की आवाज़ सुनने से वंचित हैं वैसे हमारी आनेवाली पीढ़ियाँ शंभूनाथ सिंह, बरसानेलाल चतुर्वेदी, गोपालदास नीरज, किशन सरोज, भारत भूषण, रमानाथ अवस्थी, बेकल उत्साही, शिशुपाल सिंह निर्धन, बृजेन्द्र अवस्थी, शैल चतुर्वेदी, उर्मिलेश शंखधर, मधुर शास्त्री, माणिक वर्मा, निर्भय हाथरसी, राधेश्याम प्रगल्भ, वीरेंद्र मिश्र, ओमप्रकाश आदित्य जैसे कवियों की आवाज़ तलाशने चलेंगी, तो निराश नहीं होंगी।
इस कार्य को करते हुए मुझे इस बात की कतई परवाह नहीं है कि इसकी क्वालिटी के कारण ‘यूट्यूब और फेसबुक की लाइक्स और शेयर की अंधी होड़’ में मैं पिछड़ सकता हूँ।
मैं बस इतना जानता हूँ कि इस कार्य को करते हुए मुझे थकान नहीं हो रही, क्योंकि मुझे संतुष्टि है कि आज से दस-बीस साल बाद भी जब कोई काव्य प्रेमी इनमें से किसी कवि को तलाशने चलेगा तो मेरा आज का श्रम उस समय उसकी आँखों में चमक उठेगा!

- चिराग़ जैन

Friday, April 3, 2020

किस्सों को खूंटी पर टाँको

दूर खड़े रहकर मत आँको 
झाँक सको तो मन में झाँको 
घटनाओं की परतें खोलो 
किस्सों को खूंटी पर टाँको 
आँखें क्यों छोटी कर दी हैं, होठों के उल्लास ने 
आँसू की नदियाँ ढक ली हैं मुस्कानों के व्यास ने 

कैकई मैया का राजा के महलों बीच ठिकाना था 
नौकर, चाकर, दास, दासियाँ सबका आना-जाना था 
होने को तो उसके आगे सुविधाओं का मेला था 
लेकिन मन के भीतर केवल मरघट का वीराना था 
पानी तक पहुँची तो बदला रंग पुरानी प्यास ने 
आँसू की नदिया ढक ली है मुस्कानों के व्यास ने 

अपमानित शकुनी इक ज़िद पर पूरा जीवन वार गया 
अपमानित चाणक्य उसी ज़िद पर हर बाज़ी मार गया 
विष्णुगुप्त नायक है युग का और शकुनी खलनायक है 
इसका मोहरा जीत गया है, उसका मोहरा हार गया 
जो भी जीता उसे सिकंदर मान लिया इतिहास ने 
आँसू की नदिया ढक ली है मुस्कानों के व्यास ने 

क़िस्सा क्या है, आधे सच को ढकता एक झरोखा है 
कथा, विजेता की सहमति से होने वाला धोखा है 
आँखों देखी को भी बाँचो, किसकी आँखों से देखी 
सच जो पर्दे के पीछे है, उसका रूप अनोखा है 
वैभव की झोली खाली है, सुख पाया संन्यास ने 
आँसू की नदिया ढक ली है मुस्कानों के व्यास ने 

© चिराग़ जैन

Wednesday, April 1, 2020

आराम हराम है

लॉकडाउन की घोषणा हुई तो कोरोना का नाम पूरे वातावरण में मंत्र की तरह गूंजने लगा। कोरोना के प्रति जिज्ञासा पहले रोमांच बनी, फिर भय, फिर निराशा और अंततः उदासी बनकर मन से माहौल तक बिछ गई।
समाचार चैनल कोरोना का रोना लिए बैठे रहे। सोशल मीडिया अनवरत कोरोना से सम्बद्ध सूचनाएँ, सावधानियाँ, जानकारियाँ और अफ़वाहें उपलब्ध कराकर इस उदासी को और अधिक वीरान करने लगा। मुझ जैसे लोग फेसबुक लाइव और अन्य माध्यमों से इस अचानक आए ठहराव को झुठलाने के विफल प्रयास करते दिखे।
चैनल बदल-बदलकर अँगूठा दुखने लगा, मोबाइल की स्क्रीन उंगली की बार-बार छुअन से खुरदरी लगने लगी, लेकिन मन के बहलाने का कोई मार्ग न सूझा। आँखें बंद करता था, तो कोरोना कानों के माध्यम से भीतर के वीराने को सन्न करता रहा, तभी मुझे अज्ञेय याद आए- ‘किसी इमारत में खड़े होकर उस इमारत का चित्र नहीं बनाया जा सकता’! मैंने कोरोना की चर्चा से स्वयं को विलग करने का निर्णय लिया और अधूरे पड़े कार्यों को लेकर बैठ गया।
पहला प्रोजेक्ट जो सामने आया वह था कवि-सम्मेलनों के पुराने वीडियो जनता तक पहुँचाना! इस कार्य में मैं पिछले चार वर्ष से संलग्न हूँ। कवि-सम्मेलनों से सम्बद्ध पुरानी धरोहर, पुराने कवियों के चित्र, उनकी दुर्लभ कविताएँ, पुराने कवि सम्मेलनों के निमंत्रण पत्र, विज्ञापन, चिट्ठियाँ, ऑडियो, वीडियो, अख़बार की कतरनें और अन्य ढेर सारी सामग्री संकलित करता रहता हूँ।
जब इस अभूतपूर्व निठल्लेपन और बोरियत के संयोग में इस ख़ज़ाने को टटोला तो इसमें तीन-चार दशक पुराने वीडियो बरामद हुए। इन वीडियो क्लिप्स को वीडियो कैसेट्स से कंप्यूटर की हार्ड डिस्क तक लाने की यात्रा बड़ी रोमांचक रही। किसी कैसेट में धूल भर गई थी, तो किसी की रील नमी से चिपक गई थी। जिन कवि सम्मेलनों के भाग्य में कैसेट की जगह सीडी में क़ैद होना लिखा था, उनके संग्रहकर्ताओं ने उनकी सीडी पर सन 1998 में जो रबड़ बैंड लगाया था उसे सन 2018-19 तक उतारकर भी नहीं देखा। थक-हारकर रबड़ बैंड को सीडी से प्यार करना पड़ा और वह उसके लैंस से चिपक गया। प्रेम में संलग्न उस सीडी और रबड़ के युगल को अलग करना ख़तरे से ख़ाली नहीं था। वाल्मीकि का शाप मिलना तो निश्चित था ही, सीडी ख़राब होने का भी भय था। फिर मैंने एक रिस्क लिया। सीडी तो वैसे भी ख़राब ही थी, सो कोशिश करने में कोई ख़ास हानि नहीं थी; और वाल्मीकि जी को यह कहकर समझा लिया कि अगर इन्हें अलग नहीं किया तो इसमें बंद तुलसी के वंशजों को कैसे मुक्त किया जाएगा! बात फिट बैठी। हेयर ड्रायर की ऊष्मा मिली तो सीडी पर चिपका रबड़ बैंड पिघल गया और सीडी का साथ मरते दम तक न छोड़ने की ज़िद छोड़ दी। लेकिन रसरी आवत जात ते सीडी के लैंस पर जो निशान पड़े थे, उनसे सारा डाटा लॉस होने का पूरा योग बन रहा था। फिर भी लैंस को मुलायम कपड़े से यथासंभव साफ करके प्लेयर में डाला, सीडी एक निश्चित स्थान पर जाकर रुकने लगी। फिर तकनीक को धोखा देते हुए, पॉज और प्ले का धैर्यपूर्वक प्रयोग करते हुए मैं वह सामग्री सहेजने में सफल हो गया।
ऐसे तमाम वाक़यात घटित हुए और मैं थोड़ी निराशा और थोड़ी प्रसन्नता के साथ अधिकतम सामग्री सहेजने में सफल रहा। ‘जो मिल गया उसी को मुक़द्दर समझ लिया, जो खो गया मैं उसको भुलाता चला गया’ के सिद्धांत पर ‘काफ़ी’ डाटा जुटा लिया और ‘कुछ’ गँवा भी दिया।
मुड़ी-तुड़ी फोटोग्राफ्स जिन पर इस बात के प्रमाण भी मौजूद थे कि पहले लोगों को फ़ोटो एलबम देखते हुए दाल खाना और चाय पीना बहुत पसंद था; उनको स्कैन करके, उन पर पड़े लापरवाही के पदचिन्हों को फोटोशॉप में यथासंभव साफ करते हुए इस बात का पूरा ध्यान रखा कि एक भी चित्र की मूल भावना और सहजता प्रभावित न होने पाए। जब भी कुछ सहेजा तो ‘हम लाए हैं तूफान से किश्ती निकाल के’ वाला अनुभव हुआ।
जब इस पिटारे को खोला तो माउस के हर क्लिक पर मन एक सौंधी महक से भर गया। ऐसा लगा जैसे रसोईघर में पुराने बासमती का पुलाव बन रहा हो। इसलिए मैंने तुरंत एक वीडियो सीरीज़ प्रसारित करने का निर्णय लिया और उसका शीर्षक रखा ‘पुराने चावल’!
पिछले पाँच दिन से रोज़ सुबह 8 बजे नहा-धोकर कम्प्यूटर के सामने बैठता हूँ और उस धरोहर को व्यवस्थित करने में जुट जाता हूँ। दिन कब बीत जाता है, पता ही नहीं चलता। भारत भूषण जी, रमानाथ अवस्थी जी, किशन सरोज जी, ओमप्रकाश आदित्य जी, गोपालदास नीरज जी, आत्मप्रकाश शुक्ल जी, संतोष आनन्द जी, देवराज दिनेश जी, देवल आशीष जी, सत्यपाल सक्सेना जी, माणिक वर्मा जी, उदयप्रताप जी, राधेश्याम प्रगल्भ जी, निर्भय हाथरसी जी, शैल चतुर्वेदी जी, श्याम ज्वालामुखी जी और न जाने कितने पुरखों की जवानी के काव्यपाठ सुनता रहता हूँ और एडिट करके प्रसारणीय बनाता रहता हूँ।
आज दिन में संतोष आनन्द जी से उनके एक गीत के विषय में पूछा तो पता चला कि उन्हें याद ही नहीं कि उन्होंने ऐसा कोई गीत लिखा है। मैं आश्चर्य में पड़ गया। मैं संतोष जी को मंच से जो गीत पढ़कर जमते हुए देख रहा था, वह उन्हें स्वयं को याद नहीं है। मुझे संतोष हुआ कि इस कार्य में मैं वीडियो ही नहीं अनेक कविताएँ भी सहेज पाऊंगा।
उदयप्रताप जी को मैंने आत्मप्रकाश शुक्ल जी के एक छंद के किसी शब्द की पुष्टि के लिए फोन किया तो उन्होंने बाकायदा समय लेकर उस शब्द को रिकॉल किया और उसके प्रयोजन के साथ मुझे बताया। इस प्रक्रिया में उन्हें लगभग एक घंटा मत्था-पच्ची करनी पड़ी। साथ ही उन्होंने कितने ही कवियों के संस्मरण सुनाए। मैं अभिभूत हो गया कि कविता के एक शब्द के लिये भी इस आयु में उन्होंने पूरी ऊर्जा लगा दी।
इस सीरीज को एडिट करते समय मुझे हर पल काफी कुछ सीखने को मिल रहा है। ऐसा लग रहा है कि पुरखों के मंदिर में तीर्थ करने निकला हूँ। और यह भी पता चल रहा है कि हमारे बड़े कवि इतने बड़े क्यों हैं!
कवि-सम्मेलनीय धरोहर की यह सबसे बड़ी श्रृंखला पिछले पाँच दिन से जारी है। ईश्वर ने चाहा तो अब तक का सारा संकलन व्यवस्थित करके ही दम लूंगा। यह सीरीज़ फेसबुक पेज कविग्राम पर भी प्रसारित हो रही है और कविग्राम के यूट्यूब चैनल पर भी उपलब्ध है।
आपके पास भी यदि ऐसी कोई विरासत हो तो मुझे उपलब्ध कराएँ। मैं और मेरा कुनबा आपका आभारी रहेगा! यदि इस श्रृंखला की प्रत्येक गतिविधि की सूचना प्राप्त करना चाहें तो मुझे इनबॉक्स में अपना व्हाट्सएप नंबर उपलब्ध कराएँ। मैं आश्वस्त करता हूँ कि इस श्रृंखला से जुड़ी प्रत्येक सूचना आपको मिलती रहेगा।

-चिराग़ जैन