Sunday, April 12, 2020

पीछे-पीछे आता है सुख

सुख, कुछ ढूंढने में नहीं है। कुछ ढूंढने के लिये तो एषणा का आधार चाहिए, कुछ ढूंढने का अर्थ है कि इच्छाओं की विषबेल पोषित हो रही है। सुख और इच्छा बिल्कुल विपरीत तत्व हैं। इच्छाओं की पगडंडी सुख के आगार तक पहुँच ही नहीं सकती।
सुख तो स्वीकार्यता से जन्मता है। अपने वर्तमान को स्वीकार कर लेना, सुख के शिखर का पहला सोपान है। अपनी परिस्थितियों से एकाकार हो जाना न्यूनतम अर्हता है सुखी होने की।
तथागत के नयन निमीलित इसीलिए हैं कि वे बहुत दूर दिखनेवाली मरीचिका को देखने से निषिद्ध हैं। वे ऊतनी भर पलकें खोले हैं, जिनसे वर्तमान पल को देखा जा सके। वर्तमान के सौंदर्य को निहारा जा सके। भविष्य की तलाश वर्तमान के सौंदर्य को अनदेखा कर देती है।
हम न जाने क्या ढूंढते-ढूंढते कहीं खो गए हैं। हम किसी कल्पना की आस में वास्तविकता का अपमान किये चले जा रहे हैं। इसलिए तलाशो मत, जो हाथ में है उसे जी लो। अगर हाथ ख़ाली हों, तो इस ख़ालीपन को ही जी लो। यह रिक्तता किसी पूर्ति की आशा से कहीं अधिक आनंददायी है।
उपलब्ध को अनदेखा करके अभीष्ट के लिए कसमसाना, अतिक्रमणवादी का चलन है। कोई महावीर इसकी अनुशंसा नहीं करता, कोई बुद्ध इसका समर्थन नहीं करता, किसी जीसस के आचरण से ऐसी प्रेरणा नहीं मिलती। गीता में जिसे स्थितप्रज्ञ कहा गया है, वह इस प्रवृत्ति की विलोम मनोदशा है।
कृष्ण अपने वर्तमान को जीते रहे। उन्होंने जिस पल को जिया उसी में रम गए। वृंदावन में गैया चराते कान्हा को देखकर यह अनुमान कर पाना कठिन था कि यही व्यक्ति एक दिन राजनैतिक महाभारत का केंद्र बिंदु होगा। वृंदावन में रास रचाते कन्हैया को देखकर यह कल्पना नहीं की जा सकती थी कि यही किशोर इंद्रप्रस्थ और द्वारका जैसे नगर बसाएगा। इसलिए वर्तमान को देखकर भविष्य का अनुमान लगाने में ऊर्जा नष्ट न करो। कृष्ण ने वृंदावन में महाभारत नहीं किया। वह पल रास का पल था। वह क्षण बाँसुरी का क्षण था। तब भरपूर रास रचाया गया। तब भरपूर बंसी बजाई गई। और इतना रास रचा लिया कि जब मथुरा-गमन हुआ तो रास की कोई आकांक्षा उनके पैर न पकड़ पाई। जब कुरुक्षेत्र के मौदान में रथ हाँका तब बंसी के स्वरों ने उनकी स्मृतियों में व्यवधान उत्पन्न नहीं किया।
वर्तमान को जीनेवाला भविष्य की चिंताओं से तो मुक्त होता ही है, अतीत की स्मृतियों से भी अछूता रहता है।
जिसने बचपन पूरा जी लिया, उसका यौवन तृप्त होता है, और जिसने यौवन भरपूर जी लिया उसका बुढ़ापा भव्य होता है। भरपूर बचपन जीकर युवा होनेवाला व्यक्ति बचपन के अभावों से दुःखी नहीं रहता।
जब आप भरपेट भोजन करते हो, एक-एक कौर का स्वाद लेकर भोजन करते हो, तो फिर भोजन का वह क्षण आपकी स्मृतियों का स्थान नहीं घेरता। लेकिन जब आपको भरपेट भोजन न मिल सका हो, जब आपकी थाली आपकी क्षुधा को पूर्ण न कर पाई हो, या जब आपने दूसरे की पत्तल में झाँकते हुए भोजन किया हो; तब वह कष्ट आपको ज़रूर याद रह जाता है। इसलिए वर्तमान को भरपूर जीना ही एकमात्र उपाय है। इसमें कुछ सकारात्मक और नकारात्मक है ही नहीं। जो है वह सच है। सत्य केवल सत्य है। उसमें कुछ अच्छा या बुरा नहीं है। उसमें कोई सौभाग्य या दुर्भाग्य नहीं हो सकता।
हर वर्तमान को एक दिन कथा हो जाना है। इस कथा में हम अपने क़िरदार में पूरी तरह पगे हुए दिखने चाहियें। जो अभिनेता अभी के दृश्य में आगेवाले दृश्य के संवाद बोलेगा, उसे मंच से उतार दिया जाएगा।
कोई नायक या खलनायक है ही नहीं। सब केवल अभिनेता हैं। नायक और खलनायक तो किरदार के नाम हैं। जो अपना क़िरदार ईमानदारी से निभाएगा, वह सुखी रहेगा। नायक से खलनायक के चरित्र की तुलना करनेवाले नादान लोग हैं। तुलना अभिनय की हो सकती है, किरदार की नहीं। किरदार तो दोनों ही महत्वपूर्ण हैं।
अपने किरदार के प्रति ईमानदार रहना ज़रूरी है, अन्यथा अपनी भूमिका सही से न निभा पाने की बेचैनी से नींद की खड़ी फ़सल को करवटों का पाला मार जाता है। सुख हमको ढूंढना तब शुरू करता है, जब हम सुख को ढूंढना बन्द कर देते हैं।

© चिराग़ जैन

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