Tuesday, April 14, 2020

भूख

सिर 
बर्दाश्त कर रहा है
अपनी क्षमता से अधिक भार।
हथेलियाँ कर चुकी हैं
अपनी खुरदरी छुअन को स्वीकार।
पैर सीख गए हैं
बोझा लेकर चलने की कला।
पीठ जान चुकी है 
कि देह पर बोझ बन जाने से
बोझा ढोना भला।

कानों को 
सुनाई नहीं देता उपहास
नाक को 
गंदगी से नहीं आती है बास

अपनी काया को देखकर
आँख भी 
बिल्कुल नहीं रोती है
क्योंकि पेट को 
भूख
बर्दाश्त नहीं होती है।

✍️ चिराग़ जैन

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