बर्दाश्त कर रहा है
अपनी क्षमता से अधिक भार।
हथेलियाँ कर चुकी हैं
अपनी खुरदरी छुअन को स्वीकार।
पैर सीख गए हैं
बोझा लेकर चलने की कला।
पीठ जान चुकी है
कि देह पर बोझ बन जाने से
बोझा ढोना भला।
कानों को
सुनाई नहीं देता उपहास
नाक को
गंदगी से नहीं आती है बास
अपनी काया को देखकर
आँख भी
बिल्कुल नहीं रोती है
क्योंकि पेट को
भूख
बर्दाश्त नहीं होती है।
✍️ चिराग़ जैन
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