लंका, इसलिए नष्ट हुई क्योंकि वहाँ लंकेश की आलोचना को अपराध माना गया और रामराज्य इसलिए ख्यात हुआ क्योंकि वहाँ आम धोबी को भी राजा के आचरण पर प्रश्न पूछने का अभय था।
पुराण साक्षी है, कि जब भी कोई विभीषण शत्रु का सहयोगी बना है तो इसके मूल में किसी रावण द्वारा किया गया तिरस्कार ही उत्तरदायी रहा है। पुराण साक्षी है, कि जब भी किसी बाली ने सुग्रीव को ऋष्यमूक पर्वत पर छिपने के लिए विवश किया है, तब बाली के भय से थरथराने वाला सुग्रीव ही बाली के विनाश का कारण बना है।
राजनीति को द्रोह और आलोचना के मध्य अंतर करने का विवेक होना चाहिए। आलोचना को सुनना और द्रोह को युक्तिपूर्वक अशक्त कर देना राजा का कर्तव्य है। साकेत में भी मंथरा थी, जिसका द्रोह सिद्ध भी था, तथापि रघुकुलवंशियों ने अपनी मर्यादा में रहते हुए उसको कथा से लुप्त कर दिया।
जब आपका आचरण मर्यादित होता है तो शत्रु का आत्मबल ध्वस्त हो जाता है। नैतिक बल से बड़ा कोई अस्त्र नहीं होता। पाण्डव युद्ध जीतकर भी श्रद्धेय न हो पाए, किन्तु राम को, उनके आचरण ने पूज्य बना दिया।
राम और रावण में मूल अंतर यही था कि रावण के शिविर में चाटुकारिता को साधुवाद मिलता था जबकि राम के शिविर में मन्त्रणा को सम्मान मिलता था। राम ने शत्रु पर विजय प्राप्त करने के लिए शत्रु जैसा आचरण करना स्वीकार नहीं किया।
महाभारत में भी राजनीति की पाठशाला के ऐसे ही सहज अध्याय पढ़ने को मिलते हैं। पाण्डवों के दल में सबसे कटुवक्ता श्रीकृष्ण थे। वे पाण्डवों की नीतियों और योजनाओं की उन्मुक्त आलोचना करते थे, तथापि पाण्डवों के लिए वे सर्वदा स्तुत्य रहे। उधर कुरुसभा में कटुभाषण करनेवाले महात्मा विदुर सदैव हेय दृष्टि से देखे गए।
पुराण साक्षी है, जिस सभा में भीष्म और द्रोण, विदुर का हश्र देखकर मौन रह गए उस सभा का कोई महारथी जीता न रहा, जिस सभा में माल्यवान रावण के स्वर से ऊँची आवाज़ उठाने में चूक गए, उस सभा का कुलनाश हुआ है।
विभीषण के लिए यह कदापि शोभनीय नहीं है कि वह अपने राजा और कुनबे को विपत्ति में छोड़कर शत्रु से जा मिले, किन्तु रावण को भी यह समझना होगा कि विपत्ति के समय विभीषण सरीखे सत्यवक्ताओं के कटुभाषण की सर्वाधिक आवश्यता होती है।
सबसे सफल राजा वही है, जो राज्य को किसी और कि धरोहर मानकर राजकाज करे। यदि धृतराष्ट्र और पाण्डु दोनों ही राम और भरत से प्रेरणा लेकर हस्तिनापुर को किसी की धरोहर मान लेते तो कुरुवंश का नाश न हुआ होता।
पुराण साक्षी है कि जब धृतराष्ट्र नेत्रहीन हो तो उसे विदुर से विमुख नहीं होना चाहिए क्योंकि राजसभा में अपमानित होने की क़ीमत पर भी सत्य बोलनेवाले हितैषी बहुत भाग्य से मिलते हैं। यदि सत्य की परतें खोलकर प्रत्यक्ष की वास्तविकता दिखानेवाले विदुर का सम्मान करने से चूक जाएँ तो भी घटनाओं का यथावत वर्णन करनेवाले संजय का सम्मान करना तो सीख ही लें क्योंकि यदि संजय ने धृतराष्ट्र के मन-मुताबिक़ घटनाओं का वर्णन किया, तो हस्तिनापुर कभी न जान पाएगा कि कब उसकी महारानी नपूती हो गई है, और कैसे उसकी मेधा उसकी राजहठ के कारण शरशैया पर जा लेटी है।
© चिराग़ जैन
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