Wednesday, April 1, 2020

आराम हराम है

लॉकडाउन की घोषणा हुई तो कोरोना का नाम पूरे वातावरण में मंत्र की तरह गूंजने लगा। कोरोना के प्रति जिज्ञासा पहले रोमांच बनी, फिर भय, फिर निराशा और अंततः उदासी बनकर मन से माहौल तक बिछ गई।
समाचार चैनल कोरोना का रोना लिए बैठे रहे। सोशल मीडिया अनवरत कोरोना से सम्बद्ध सूचनाएँ, सावधानियाँ, जानकारियाँ और अफ़वाहें उपलब्ध कराकर इस उदासी को और अधिक वीरान करने लगा। मुझ जैसे लोग फेसबुक लाइव और अन्य माध्यमों से इस अचानक आए ठहराव को झुठलाने के विफल प्रयास करते दिखे।
चैनल बदल-बदलकर अँगूठा दुखने लगा, मोबाइल की स्क्रीन उंगली की बार-बार छुअन से खुरदरी लगने लगी, लेकिन मन के बहलाने का कोई मार्ग न सूझा। आँखें बंद करता था, तो कोरोना कानों के माध्यम से भीतर के वीराने को सन्न करता रहा, तभी मुझे अज्ञेय याद आए- ‘किसी इमारत में खड़े होकर उस इमारत का चित्र नहीं बनाया जा सकता’! मैंने कोरोना की चर्चा से स्वयं को विलग करने का निर्णय लिया और अधूरे पड़े कार्यों को लेकर बैठ गया।
पहला प्रोजेक्ट जो सामने आया वह था कवि-सम्मेलनों के पुराने वीडियो जनता तक पहुँचाना! इस कार्य में मैं पिछले चार वर्ष से संलग्न हूँ। कवि-सम्मेलनों से सम्बद्ध पुरानी धरोहर, पुराने कवियों के चित्र, उनकी दुर्लभ कविताएँ, पुराने कवि सम्मेलनों के निमंत्रण पत्र, विज्ञापन, चिट्ठियाँ, ऑडियो, वीडियो, अख़बार की कतरनें और अन्य ढेर सारी सामग्री संकलित करता रहता हूँ।
जब इस अभूतपूर्व निठल्लेपन और बोरियत के संयोग में इस ख़ज़ाने को टटोला तो इसमें तीन-चार दशक पुराने वीडियो बरामद हुए। इन वीडियो क्लिप्स को वीडियो कैसेट्स से कंप्यूटर की हार्ड डिस्क तक लाने की यात्रा बड़ी रोमांचक रही। किसी कैसेट में धूल भर गई थी, तो किसी की रील नमी से चिपक गई थी। जिन कवि सम्मेलनों के भाग्य में कैसेट की जगह सीडी में क़ैद होना लिखा था, उनके संग्रहकर्ताओं ने उनकी सीडी पर सन 1998 में जो रबड़ बैंड लगाया था उसे सन 2018-19 तक उतारकर भी नहीं देखा। थक-हारकर रबड़ बैंड को सीडी से प्यार करना पड़ा और वह उसके लैंस से चिपक गया। प्रेम में संलग्न उस सीडी और रबड़ के युगल को अलग करना ख़तरे से ख़ाली नहीं था। वाल्मीकि का शाप मिलना तो निश्चित था ही, सीडी ख़राब होने का भी भय था। फिर मैंने एक रिस्क लिया। सीडी तो वैसे भी ख़राब ही थी, सो कोशिश करने में कोई ख़ास हानि नहीं थी; और वाल्मीकि जी को यह कहकर समझा लिया कि अगर इन्हें अलग नहीं किया तो इसमें बंद तुलसी के वंशजों को कैसे मुक्त किया जाएगा! बात फिट बैठी। हेयर ड्रायर की ऊष्मा मिली तो सीडी पर चिपका रबड़ बैंड पिघल गया और सीडी का साथ मरते दम तक न छोड़ने की ज़िद छोड़ दी। लेकिन रसरी आवत जात ते सीडी के लैंस पर जो निशान पड़े थे, उनसे सारा डाटा लॉस होने का पूरा योग बन रहा था। फिर भी लैंस को मुलायम कपड़े से यथासंभव साफ करके प्लेयर में डाला, सीडी एक निश्चित स्थान पर जाकर रुकने लगी। फिर तकनीक को धोखा देते हुए, पॉज और प्ले का धैर्यपूर्वक प्रयोग करते हुए मैं वह सामग्री सहेजने में सफल हो गया।
ऐसे तमाम वाक़यात घटित हुए और मैं थोड़ी निराशा और थोड़ी प्रसन्नता के साथ अधिकतम सामग्री सहेजने में सफल रहा। ‘जो मिल गया उसी को मुक़द्दर समझ लिया, जो खो गया मैं उसको भुलाता चला गया’ के सिद्धांत पर ‘काफ़ी’ डाटा जुटा लिया और ‘कुछ’ गँवा भी दिया।
मुड़ी-तुड़ी फोटोग्राफ्स जिन पर इस बात के प्रमाण भी मौजूद थे कि पहले लोगों को फ़ोटो एलबम देखते हुए दाल खाना और चाय पीना बहुत पसंद था; उनको स्कैन करके, उन पर पड़े लापरवाही के पदचिन्हों को फोटोशॉप में यथासंभव साफ करते हुए इस बात का पूरा ध्यान रखा कि एक भी चित्र की मूल भावना और सहजता प्रभावित न होने पाए। जब भी कुछ सहेजा तो ‘हम लाए हैं तूफान से किश्ती निकाल के’ वाला अनुभव हुआ।
जब इस पिटारे को खोला तो माउस के हर क्लिक पर मन एक सौंधी महक से भर गया। ऐसा लगा जैसे रसोईघर में पुराने बासमती का पुलाव बन रहा हो। इसलिए मैंने तुरंत एक वीडियो सीरीज़ प्रसारित करने का निर्णय लिया और उसका शीर्षक रखा ‘पुराने चावल’!
पिछले पाँच दिन से रोज़ सुबह 8 बजे नहा-धोकर कम्प्यूटर के सामने बैठता हूँ और उस धरोहर को व्यवस्थित करने में जुट जाता हूँ। दिन कब बीत जाता है, पता ही नहीं चलता। भारत भूषण जी, रमानाथ अवस्थी जी, किशन सरोज जी, ओमप्रकाश आदित्य जी, गोपालदास नीरज जी, आत्मप्रकाश शुक्ल जी, संतोष आनन्द जी, देवराज दिनेश जी, देवल आशीष जी, सत्यपाल सक्सेना जी, माणिक वर्मा जी, उदयप्रताप जी, राधेश्याम प्रगल्भ जी, निर्भय हाथरसी जी, शैल चतुर्वेदी जी, श्याम ज्वालामुखी जी और न जाने कितने पुरखों की जवानी के काव्यपाठ सुनता रहता हूँ और एडिट करके प्रसारणीय बनाता रहता हूँ।
आज दिन में संतोष आनन्द जी से उनके एक गीत के विषय में पूछा तो पता चला कि उन्हें याद ही नहीं कि उन्होंने ऐसा कोई गीत लिखा है। मैं आश्चर्य में पड़ गया। मैं संतोष जी को मंच से जो गीत पढ़कर जमते हुए देख रहा था, वह उन्हें स्वयं को याद नहीं है। मुझे संतोष हुआ कि इस कार्य में मैं वीडियो ही नहीं अनेक कविताएँ भी सहेज पाऊंगा।
उदयप्रताप जी को मैंने आत्मप्रकाश शुक्ल जी के एक छंद के किसी शब्द की पुष्टि के लिए फोन किया तो उन्होंने बाकायदा समय लेकर उस शब्द को रिकॉल किया और उसके प्रयोजन के साथ मुझे बताया। इस प्रक्रिया में उन्हें लगभग एक घंटा मत्था-पच्ची करनी पड़ी। साथ ही उन्होंने कितने ही कवियों के संस्मरण सुनाए। मैं अभिभूत हो गया कि कविता के एक शब्द के लिये भी इस आयु में उन्होंने पूरी ऊर्जा लगा दी।
इस सीरीज को एडिट करते समय मुझे हर पल काफी कुछ सीखने को मिल रहा है। ऐसा लग रहा है कि पुरखों के मंदिर में तीर्थ करने निकला हूँ। और यह भी पता चल रहा है कि हमारे बड़े कवि इतने बड़े क्यों हैं!
कवि-सम्मेलनीय धरोहर की यह सबसे बड़ी श्रृंखला पिछले पाँच दिन से जारी है। ईश्वर ने चाहा तो अब तक का सारा संकलन व्यवस्थित करके ही दम लूंगा। यह सीरीज़ फेसबुक पेज कविग्राम पर भी प्रसारित हो रही है और कविग्राम के यूट्यूब चैनल पर भी उपलब्ध है।
आपके पास भी यदि ऐसी कोई विरासत हो तो मुझे उपलब्ध कराएँ। मैं और मेरा कुनबा आपका आभारी रहेगा! यदि इस श्रृंखला की प्रत्येक गतिविधि की सूचना प्राप्त करना चाहें तो मुझे इनबॉक्स में अपना व्हाट्सएप नंबर उपलब्ध कराएँ। मैं आश्वस्त करता हूँ कि इस श्रृंखला से जुड़ी प्रत्येक सूचना आपको मिलती रहेगा।

-चिराग़ जैन

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