प्राप्य से इतर अप्राप्य की ओर आकर्षित होना मनुष्य का सहज स्वभाव है। इसी तथ्य के परिप्रेक्ष्य से यह स्पष्ट होता है कि धरती पर चलने के अपने नैसर्गिक गुण में किसी प्रकार का विकास करने से अधिक उर्जा मानव ने तैरना और उड़ना सीखने में व्यय की। महत्वाकांक्षाओं के झरोखों से जब मानव का आदिम स्वरूप मछलियों को तैरते देखता होगा तो उसके मन में भी मछली की तरह पानी की धारा पर तैरने की तीव्र इच्छा जागती होगी। पंछियों को डैने फैलाए उड़ते देख मानव ने भी अपने दोनों हाथ हवा में लहराते हुए उड़ने के स्वप्न बोए होंगे। इन स्वप्नों को पूर्ण करने के लिए भी मानव ने अपने भीतर के उस बालक को जीवंत किया होगा जो आज भी गाँव-कस्बों में दोनों हाथ फैलाकर लगभग गोल-गोल घूमते हुए उड़ने का स्वांग करता दीख पड़ता है।
भारतीय पुराणों तथा मिथकों ने इन्द्र के ऐरावत, विष्णु के गरुड़ तथा कार्तिकेय के मयूर आदि प्रतीकों के माध्यम से आकाशमार्ग से गमन करने की कल्पना को शब्द दिए हैं। रामायण में हनुमान का उड़कर लंका जाना भी इसी कल्पना का शब्दीकरण कहा जा सकता है। लंकेश रावण का पुष्पक विमान तो पूरी तरह हवाई जहाज का आदिम रूप ही था। अलिफ़ लैला के किस्सों में प्रयुक्त तिलिस्मी चटाई भी इसी विचार के आधार स्तंभों का एक हिस्सा है। नयनों में इन्हीं मिथकों की प्रतिच्छाया संजोए वर्तमान युग के कुछ सृजनशील मस्तिष्कों ने धरती पर खड़े मानव के पंख लगा दिए। सन् 1895 में भारत के शिवंकर बापूजी तलपदे द्वारा बनाया गया मानव विहीन विमान ‘मारुतशक्ति’ हो या फिर 17 दिसम्बर 1930 को राइट्स ब्रदर्स द्वारा भरी गई पहली उड़ान- आकाशगामी हो जाने के प्रत्येक प्रयास के पाश्र्व में बच्चों का सा वही दुस्साहस रहा होगा, जिसे एक समय तक तथाकथित समझदार समुदाय असंभव मानता रहा था।
इसी बचपने का यौवन पूरे विश्व में नागर विमानन का विस्तृत व्यवसाय बनकर स्थापित हुआ। आज हवाई यातायात मनुष्य के जीवन का एक अत्यंत महत्वपूर्ण तथा अपरिहार्य अंग बन चुका है। विश्व के लगभग सभी छोटे-बड़े देश हवाई मार्ग के माध्यम से परस्पर जुड़े हुए हैं। भारत जैसे विशाल भूखण्ड वाले देश में, जहाँ विकास की परिभाषाएँ अभी भी पूरी होनी बाकी हैं, हवाई यातायात विकास के पथ का पाथेय बना हुआ है।
जब पूरे विश्व में उड्डयन उद्योग जन्म ले रहा था, उस समय भारत की राजनैतिक परिस्थितियाँ विकास से लगभग मुँह फेरे खड़ी प्रतीत होती थीं। उपनिवेशवाद के दंश से छुटकारा पाने को छटपटाते भारतीय समाज की मूलभूत आवश्यकता स्वतंत्रता थी, और इस आवश्यकता की दीवार इतनी विराट थी कि विश्व भर में हो रही प्रगति के दृश्य भारतीय मानस् के नेत्र पटल तक पहुँचने से पूर्व ही दम तोड़ रहे थे। किन्तु ब्रिटिश राजनयिक, जिनका अंतिम उद्देश्य भारत की धरती से अपने व्यावसायिक तथा राजनैतिक हितों को साधना था, उन्होंने अपने उद्देश्य की पूर्ति के लिए भारत में विकास के बीज बोए। इसे भारत का सौभाग्य कहें या दुर्भाग्य कि भारत में विकास के लगभग सभी पुष्प मूलतः उपनिवेशवादी सोच की क्यारी में ही पनपे। लेकिन उड्डयन व्यवसाय पर यह बात लागू नहीं होती। बीसवीं सदी के पहले दशक में भारतीय चिंतकों तथा राजनीतिज्ञों को इस बात का आभास हो चुका था कि स्वतंत्रता की देवी पश्चिम में हो रहे विकास के रथ पर चढ़कर ही आएगी।
इसी विचार की आधारशिला पर पटियाला के महाराजा ने पश्चिम में पनप रहे उड्डयन की कला तथा विज्ञान को समझने के लिए अपने ब्रिटिश अभियंता सी डब्ल्यू बाॅल्स को यूरोप भेजा तथा ये निर्देश दिए कि वह लौटते समय अपने साथ दो हवाई जहाज लेकर आए। दिसम्बर 1910 में बाॅल्स इंग्लैंड में निर्मित ‘फरमान’ तथा ‘ग्नोम-ब्लेरिआॅट’ नामक दो विमान लेकर भारत लौटे। लेकिन प्रसिद्धि तथा मान्यता भी भाग्य के बिना नहीं मिलती, सो इन दोनों ही विमानों के भाग्य में भारत का पहला वायुयान होने का गौरव नहीं था। दिसम्बर 1910 के प्रारंभ में ही बेल्जियम का एक तथा इंग्लैंड के दो व्यापारी कुछ विमानों के साथ भारत आए। ये व्यापारी भारत में इन विमानों का प्रदर्शन कर यहाँ मौजूद उड्डयन व्यवसाय की संभावनाओं को भुनाना चाहते थे। इन जहाजों को पानी के जहाज द्वारा मुम्बई लाया गया और तुरन्त इलाहाबाद ले जाया गया। उद्योग तथा कृषि प्रदर्शनी में प्रदर्शन के उद्देश्य से विमान का चालक दल तथा अन्य सदस्य 5 दिसम्बर को इलाहाबाद के पोलो ग्राउंड में जा पहुँचे। पाँच दिन की मशक्कत के बाद विमान को सुनियोजित किया जा सका तथा दिनाँक 10 दिसम्बर 1910 को इलाहाबाद शहर ने न केवल भारत अपितु पूरे एशिया महाद्वीप का परिचय विज्ञान के इस अनोखे आविष्कार से कराने का गौरव प्राप्त किया।
इसके अगले दिन 11 दिसम्बर को दूसरे विमान ने उड़ान भरी और बनारस के राजकुमार को भारत का पहला विमान-यात्री बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। 18 फरवरी सन् 1911 को इलाहाबाद से नैनी के बीच उड़े वायुयान ने यमुना, गंगा और संगम की धारा पर परछाई छोड़ते हुए भारत में नागर विमानन के जन्म का प्रथम अध्याय रचा।
मैं कल्पना करता हूँ कि आज जब उड्डयन व्यवसाय पूरी तरह स्थापित हो चुका है, तब भी आकाश से गुज़रता हवाई जहाज बच्चों के लिए कौतूहल का विषय होता है, तो उस समय जब हवाई जहाज केवल कल्पनाओं में तैरता था, तब उसको साकार देखने वालों के चेहरे पर तैरने वाली आश्चर्य की रेखाएँ कितनी अनोखी रही होंगी।
ख़ैर गुडलने चलता उड्डयन व्यवसाय धीरे-धीरे नागरिक उड्डयन का रूप लेने लगा। दिसम्बर 1912 में कराची से दिल्ली के मध्य चालू हुए हवाई मार्ग ने भारत में नागरिक उड्डयन का आग़ाज़ किया। इंग्लैंड के इम्पीरियल एयरवेज़ के सहयोग से इंडियन स्टेट एअर सर्विसेज़ ने यह विमान सेवा प्रारंभ की। इसके तीन वर्ष बाद भारत की पहली एअरलाइन, टाटा संस लिमिटेड ने बिना किसी सरकारी सहायता के एक निरंतर हवाई डाक सेवा कराची और मद्रास (अब चेन्नई) के मध्य प्रारंभ की।
सन् 1919 में कराची, दिल्ली, इलाहाबाद और कलकत्ता के रास्ते इंग्लैंड और आॅस्ट्रेलिया के मध्य उड़ान भरने वाले वायुयान को भारत की पहली अन्तरराष्ट्रीय उड़ान के रूप में अंकित किया गया। 1925-26 में लंदन से रंगून के मध्य पहला एरियल सर्वे किया गया। सन् 1929 में भारत में एरो क्लब की स्थापना हुई और सन् 1930 तक मुम्बई, कराची, जोधपुर, दिल्ली, इलाहाबाद और कलकत्ता जैसे शहर वायुमार्ग से लंदन से जुड़ चुके थे। उधर कराची, जोधपुर, दिल्ली, इलाहाबाद और कलकत्ता को पेरिस से जोड़ने वाला वायुमार्ग भी अस्तित्व में आ चुका था।
सन् 1932 में टाटा एंड संस ने कराची और अहमदाबाद को मुम्बई तथा मद्रास से जोड़ने वाली वायुसेवा प्रारंभ की जिसे बाद में कोलम्बो तक बढ़ा दिया गया। सन् 1933 में घरेलू क्षेत्र की सेवाएँ कराची और कलकत्ता के मध्य प्रारंभ हो गईं। 1934 का वर्ष मद्रास, पुरी और कलकत्ता के मध्य नई वायुसेवा का वर्ष रहा।
इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि उस समय वायुसेवाओं का विकास भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के रास्ते का पल्लू पकड़कर सफ़र तय कर रहा था। इसकी पुष्टि इस तथ्य से होती है कि भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के केन्द्र बिन्दु महात्मा गांधी की जन्मभूमि और कर्मभूमि पोरबंदर से मुम्बई के मध्य सन् 1937 में वायुसेवा प्रारंभ हुई।
उधर वैश्विक स्तर पर व्याप्त राजनैतिक परिवर्तनों की परिस्थितियाँ भी पूरे विश्व में पनप रहे इस नए उद्यम को प्रभावित कर रही थीं। सन् 1939 में जब पूरा विश्व और विशेषकर यूरोप के उपनिवेशवादी देश विश्वयुद्ध का संत्रास झेल रहे थे, तब भारत में कार्यरत ब्रिटिश सरकार ने भारत के सभी विमानपत्तनों तथा वायुसेवाओं की सारी सम्पत्ति को भारत में बने युद्ध कार्यालय के अधीन कर दिया। रक्षा चैकसी के लिए समुद्र तटों पर बने पत्तनों जैसे कराची, मुम्बई, कोचीन, विशाखापट्टनम और कलकत्ता से तटीय उड़ाने प्रारंभ की गईं। सन् 1940 में बंगलूरु, हैदराबाद, विशाखापट्टनम और कोचीन में एअरफील्ड्स की स्थापना की गई। मध्य भारत की गतिविधियों का केन्द्र कानपुर तथा इलाहाबाद वायुक्षेत्रों को बनाया गया।
सन् 1945 का वर्ष भारतीय विमानन जगत् के इतिहास का विशेष वर्ष कहा जा सकता है। इस वर्ष में दो बड़े घटनाक्रम घटित हुए। एक तो एअर डेक्कन ने हैदराबाद विमानपत्तन से प्रचालन प्रारंभ किया, दूसरे इस वर्ष में भारत के नागर विमानन महानिदेशालय का गठन हुआ।
उधर देश की राजनैतिक परिस्थितियाँ और स्वतंत्रता सेनानियों के अनवरत प्रयास देश को स्वाधीनता की देहलीज तक ले आए थे। इस समय भारत में कुल नौ वायु यातायात सेवा प्रदाता कंपनियाँ कार्यरत थीं, जो राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यात्री तथा माल की ढुलाई कर रही थीं। स्वतंत्रता के समय उपहार स्वरूप मिले विभाजन की दुर्घटना ने जो कुछ हमसे छीना, उसमें एक वायु यातायात कंपनी भी थी। ओरिएंट एअरवेज़ पाकिस्तान के हिस्से में चली गई और हम टाटा एअरलाइन्स, इंडियन नेशनल एअरवेज़, एअर सर्विस आॅफ इंडिया, डेक्कन एअरवेज़, अम्बिका एअरवेज़, भारत एअरवेज़ और मिस्ट्री एअरवेज़ जैसी आठ कंपनियों के साथ संतोष कर बैठे।
1948 के प्रारंभ में भारत सरकार तथा एअर इंडिया (जो पहले टाटा एअरलाइन्स के नाम से जानी जाती थी) के संयुक्त प्रयासों से एअर इंडियन इंटरनेशनल लिमिटेड की स्थापना हुई। 8 जून सन् 1948 को इस कम्पनी का पहला वायुयान स्वतंत्र भारत के आत्मनिर्भर उड्डयन व्यवसाय के प्रारम्भ की उद्घोषणा के साथ मुम्बई से लंदन के लिए उड़ चला। सन् 1953 में इस कंपनी के राष्ट्रीयकरण के समय तक इसके द्वारा मुम्बई से लंदन के लिए चार साप्ताहिक उड़ानें तथा नैरोबी के लिए दो साप्ताहिक उड़ानों का प्रचालन किया जा रहा था। इस संयुक्त उपक्रम का सेहरा श्री जे आर डी टाटा के सिर बंधा, जिन्होंने 1932 में पहली भारतीय एअरलाइन्स बनाई तथा उसकी पहली उड़ान को स्वयं उड़ाया। सन् 1953 में चार अन्तरराष्ट्रीय हवाई अड्डों का प्रचालन प्रारंभ हो गया। मुम्बई, दिल्ली, मद्रास तथा कलकत्ता के इन हवाई अड्डों ने देश के लगभग चारों छोरों की घेराबंदी कर दी।
वायु में परिन्दों की तरह उड़ते वायुयान अपने कौतूहल के कारण तथा अपनी गति के कारण बहुत जल्दी सर्वाधिक लोकप्रिय यातायात माध्यम बन गए। ये और बात है कि एकाध दशक पूर्व तक आर्थिक परिस्थितियाँ बहुत से लोगों का वायुयान में उड़ने का स्वप्न पूरा नहीं होने देती थीं। लेकिन आर्थिक उदारीकरण के फलस्वरूप सामान्य आदमी की बढ़ती क्रय शक्ति तथा प्रतियोगिता के फलस्वरूप वायु भाड़े में आई गिरावट ने इस स्थिति में काफी सुधार किया है। आज निम्न मध्यम वर्ग तक का व्यक्ति वायुयान में सफर करने में सक्षम हो गया है।
भारत में नागर विमानन के सफल संचालन हेतु अनेक संस्थाएँ कार्यरत हैं। सर्वप्रथम नागर विमानन मंत्रालय, जो कि एक नोडल प्राधिकरण है, देश में नागर विमानन उद्योग के विकास और विनियमन हेतु राष्ट्रीय नीतियाँ तथा कार्यक्रम बनाने के लिए उत्तरदायी है। यह मंत्रालय विमानपत्तनों पर उपलब्ध सुविधाओं, हवाई यातायात सेवाओं और वायुमार्ग की सवारियों और माल की आवाजाही पर पर्यवेक्षण का कार्य भी करता है। इस मंत्रालय के अधीन दो अलग-अलग संगठन कार्य करते हैं- 1) नागर विमानन महानिदेशालय तथा 2) नागर विमानन सुरक्षा ब्यूरो।
सन् 1945 में अस्तित्व में आया नागर विमानन महानिदेशालय अर्थात् डीजीसीए एक विनियामक निकाय है जो भारत के भीतर आने-जाने की हवाई सेवाओं और सिविल हवाई विमानन के प्रवर्तन, हवाई सुरक्षा और हवाई योग्य मानकों के लिए उत्तरदायी है। यह निदेशालय आज भी भारत के उड्डयन क्षेत्र की देखरेख करता है। सिविल वायुयानों के पंजीकरण से लेकर उनके लिए यथायोग्य मानकों के निर्माण तक और पायलटों, वायुयान इंजीनियरों, उड़ान अभियंताओं और वायुयान नियंत्रकों को लाइसेंस देने तक का कार्य यह निदेशालय करता है। इसके अतिरिक्त फ्लाइट दल की दक्षता की जाँच तथा वायुसेवाओं से जुड़े अन्य व्यक्तियों की गतिविधियों की जाँच का कार्य यह निदेशालय करता है।
दुर्घटनाओं अथवा उड्डयन से सम्बद्ध समस्याओं की जाँच-पड़ताल करना तथा वायु सेवाओं को अधिक सुरक्षित तथा दुर्घटना विहीन बनाने के उपाय करने के लिए नागर विमानन निदेशालय निरंतर प्रयासरत रहता है। संक्षेप में कहा जाए तो वायुसेवाओं से सम्बन्धित सभी प्राधिकरणों, प्रचालकों, एअरलाइन्सों तथा अन्य संस्थाओं की कार्यक्षमताओं में सुधार करने का कार्य यह निदेशालय अनवरत करता है।
उधर नागर विमानन सुरक्षा ब्यूरो (बीसीएएस) देश में नागर विमानन सुरक्षा का विनियामक है। इसका मुख्य उत्तरदायित्व भारत में राष्ट्रीय व अन्तरराष्ट्रीय हवाई अड्डों पर सिविल उड़ानों की सुरक्षा संबंधी मानक और उपाय निर्धारित करना है। इसमें विमानन सुरक्षा से सम्बंधित क्रियाकलापों की योजना बनाना, उनका समन्वयन करना, कार्यात्मक आकस्मिकता और संकट प्रबंधन सम्मिलित हैं। यह भारत के लिए राष्ट्रीय विमानन सुरक्षा कार्यक्रम का विकास, रखरखाव, उन्नयन और क्रियान्वयन करने और इस परिप्रेक्ष्य मेें सभी अन्तरराष्ट्रीय दायित्वों को पूरा करने के लिए उत्तरदायी प्राधिकरण है।
उक्त दोनों प्राधिकरण मूलतः विमानन व्यवसाय के नींव के पत्थर हैं। ये दरअस्ल वे कलाकार हैं जो पर्दे के पीछे कार्य करते हैं। यद्यपि स्क्रीन पर इनकी छवि यदा-कदा ही दिखाई देती है, लेकिन वास्तव में स्क्रीन पर दिखने वाले चरित्रों का अस्तित्व इन पर्दे के पीछे वाले कलाकारों और तकनीशियनों के अभाव में असंभव ही है।
आइए अब बात करते हैं उन भारतीय नागर विमानन उद्योग के उन चरित्रों की जिनका चेहरा अक्सर हमें पर्दे पर नज़र आता है। इनमें पहला नाम है नेशनल एविएशन कंपनी आॅफ इंडिया लिमिटेड का। यह कंपनी अधिनियम 1956 के तहत निगमित एक कंपनी है, जो सुरक्षित, दक्ष, पर्याप्त और किफ़ायती रूप से समन्वित अंतरराष्ट्रीय वायु परिवहन सेवा प्रदान करने का दायित्व निभाती है। एअर इंडिया तथा इंडियन एअरलाइन्स को विलय कर इस कंपनी की स्थापना सन् 2007 में की गई। इस विलय के परिणाम स्वरूप कंपनी का लक्ष्य भारत में सबसे बड़ी एअरलाइन का गठन करना था। इस नई कम्पनी का नाम एअर इंडिया है और इसका लोगो महाराजा है। एनएसीआईएल के अधीन पूर्ण स्वामित्व वाले संगठन भी कार्यरत हैं, जिनके नाम हैं- होटल काॅर्पोरेशन आॅफ इण्डिया (एचसीआई), एअर इण्डिया चार्टर्स लिमिटेड (एआईसीएल), एअर इण्डिया इंजीनियरिंग सर्विसेज़ लिमिटेड (एआईईएसएल), एअर इण्डिया एअर ट्रांस्पोर्ट सर्विसेज़ लिमिटेड (एआईएटीएसएल) तथा एलाइन्स एअर।
इसके अतिरिक्त एक अन्य संस्था भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण के रूप में भारत के नागर विमानन उद्योग के केन्द्र बिन्दु के रूप में कार्य कर रही है। इसका गठन 1 अप्रैल सन् 1995 को भारतीय अन्तरराष्ट्रीय विमानपत्तन प्राधिकरण तथा राष्ट्रीय विमानपत्तन प्राधिकरण के विलय द्वारा देश की धरती तथा आकाश में नागर विमानन की मूल संरचना के सृजन, उन्नयन, रखरखाव और प्रबंधन के उद्देश्य से हुआ। इसका लक्ष्य देश में सक्षम प्रचालनार्थ विश्व स्तरीय विमानपत्तनों की सेवाएँ मुहैया कराना है। वर्तमान में भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण कुल 118 हवाई अड्डों का प्रचालन करता है, जिनमें 25 नागरिक एन्क्लेव शामिल हैं। नागरिक एन्क्लेव से तात्पर्य उन हवाई अड्डों से है, जो रक्षा एअरफील्ड में स्थित हैं। इन नागरिक एन्क्लेवों में टर्मिनल भवन तथा यात्री संबंधी सेवाओं का कार्य भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण का उत्तरदायित्व होता है लेकिन वायु यातायात नियंत्रण व्यवस्था वायुसेना के अधीन होती है।
वर्तमान में भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण अनेक विमानपत्तनों के अनवरत विकास तथा उन पर उपलब्ध सेवाओं के विकास व उन्नयनार्थ प्रयासरत है। वर्तमान में सरकार की विमानन नीति का संकेंद्रण भी मौजूदा हवाई अड्डों के आधुनिकीकरण और नए हवाई अड्डों के निर्माण पर है। इसके उदाहरण स्वरूप दिल्ली और मुम्बई के हवाई अड्डों के आधुनिकीकरण हेतु सरकार ने निजी क्षेत्र के सहयोग से भी गुरेज़ नहीं किया। इसी उदारवादी दृष्टिकोण का परिणाम है कि आज ये दोनों हवाई अड्डे विश्व के आधुनिकतम हवाई अड्डों की सूची में स्थान बना चुके हैं। नागपुर तथा कोचीन हवाई अड्डों के आधुनिकीकरण तथा विकास हेतु भी प्राधिकरण ने निजी क्षेत्र की सेवाएँ ली हैं। निजी क्षेत्रों द्वारा प्रचालित सभी हवाई अड्डों पर सीएनएस तथा एटीएम सुविधाएँ भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण द्वारा ही मुहैया कराई जाती हैं।
सन् 1985 में हेलीकाॅप्टर सहायता सेवाएँ मुहैया कराने के उद्देश्य से देश की राष्ट्रीय हेलीकाॅप्टर कम्पनी के रूप में पवन हंस हेलीकाॅप्टर लिमिटेड (पीएचएचएल) की स्थापना की गई। इसका मुख्य कार्य है- दूरस्थ दुर्गम क्षेत्रों और भूभागों में अनुसूचित अथवा गैर-अनुसूचित हेलिकाॅप्टर सेवाओं का संचालन करना। इसके अतिरिक्त यह कम्पनी यात्रा और पर्यटन के लिए चार्टर भी मुहैया कराती है। यह भारत की एकमात्र विमानन कम्पनी है, जिसे आईएसओ 9001ः2000 प्रमाणपत्र इसके समस्त कार्यों के लिए दिया गया है।
नागर विमानन प्रशिक्षण में निरंतर सुधार लाने के उद्देश्य से सरकार द्वारा इंदिरा गांधी राष्ट्रीय उड़ान अकादमी (आईजीआरयूए) की स्थापना की गई है। उत्तर प्रदेश के रायबरेली जिले में स्थापित यह अकादमी आधुनिक व उन्नत तकनीक वाले प्रशिक्षकों, वायुयानों, उड़ान अनुरूपकों, कम्प्यूटर आधारित प्रशिक्षण प्रणाली, आधुनिक नेविगेशनल और लैंडिंग आधार के साथ रनवे और अपने स्वयं के एअर स्पेस से युक्त है। इसका संचालन उच्च योग्यता प्राप्त उड़ान और भू-अनुदेशकों द्वारा किया जाता है, जिनका विमानन और उड़ान के क्षेत्र में लंबा अनुभव है।
इन सरकारी व अर्द्धसरकारी संस्थाओं के अतिरिक्त अनेक निजी क्षेत्र की कंपनियाँ भी भारतीय विमानन उद्योग की वर्तमान तस्वीर बनाने के लिए अपने-अपने रंग लिए खड़े हैं। किंगफिशर, इंटर ग्लोब एविएशन लिमिटेड (इंडिगो), गोएअर, जेट एअरवेज़, स्पाइसजेट, ग्लोबल वैक्ट्रा और ब्लू डार्ट एविएशन लिमिटेड जैसी अनुसूचित एअरलाइन्स के अतिरिक्त लगभग 86 कंपनियों के पास गैर अनुसूचित वायु परिवहन प्रचालन का अनुमति पत्र है।
अन्तरराष्ट्रीय सयोजकता बढ़ाने तथा यात्रियों के लिए विदेशी यात्रा सहज उपलब्ध कराने के लिए भारत ने लगभग 103 देशांे के साथ वायुसेवा करारनामे (एएसए) पर हस्ताक्षर किए हैं।
वर्तमान परिदृश्य में देखें तो भारत का उड्डयन उद्योग घरेलू यात्रियों, कार्गो आवागमन और अंतरराष्ट्रीय वायुमार्ग के यातायात में असाधारण वृद्धि के कारण काफी उछाल पर है। एअरलाइन व्यापार भारत में 27 प्रतिशत प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रहा है। उधर कोचीन, बंगलूरु और हैदराबाद में हरित पट्टी हवाई अड्डों का निर्माण भारतीय विमानन क्षेत्र में बढ़ती हरितिमा की ओर इंगित कर रहा है।
आज हम इस व्यवसाय के शतायु होने का जश्न मना रहे हैं। इस लम्बी यात्रा में अनेक उतार-चढ़ाव इस उद्यम ने देखे। इस लम्बे सफ़र में अनेक संस्थाएँ जन्मीं और फिर अचानक किसी पगडन्डी पर उतर कर नज़रों से ओझल हो गईं, लेकिन हवाई यात्रा के कौतूहल से भरा हवाई यातायात अपना रनवे निरंतर और विस्तृत करता जा रहा है। यद्यपि इस क्षेत्र में हमने काफी प्रगति की है, तथापि उतार-चढ़ाव भरे इस अनवरत सफ़र को और इसके विकास के मार्ग को इन दो पंक्तियों में बयान करते हुए लेखनी को विराम देता हूँः
मेरी राह में न हों मंज़िलें, कि मैं ख़ुश नहीं हूँ क़याम से
जो कभी तमाम न हो सके, मुझे उस सफ़र की तलाश है
© चिराग़ जैन