Saturday, December 18, 2004

मैं शायर नहीं होता

मुहब्बत के बिना अहसास से दिल तर नहीं होता
अगर अहसास न हो तो सुख़न बेहतर नहीं होता
मेरी पहचान है ये शायरी, ये गीत, ये ग़ज़लें
किसी से प्यार न करता तो मैं शायर नहीं होता 

© चिराग़ जैन

Wednesday, December 15, 2004

ज़रूरत

मेरी बेबस मुहब्बत को सहारों की ज़रूरत है
दीवाने को महज तेरे इशारों की ज़रूरत है
मेरा दिल क़ैद करने को तेरी ज़ुल्फ़ें ही काफी हैं
न तीरों की ज़रूरत है न तारों की ज़रूरत है 

© चिराग़ जैन

Thursday, December 9, 2004

मर्यादा

न हों हदों में तो छाले रिसाव देते हैं
किनारे धार को बाढब बहाव देते हैं
हदों में हैं तो ख़ैर-ख्वाह हैं उंगलियों के
हदों को लांघ के नाखून घाव देते हैं

© चिराग़ जैन

Wednesday, December 8, 2004

किसी के बिन…

भीतर-भीतर मन गलता है बाहर नैन बरसते हैं
बीते पल आँखों के आगे हर पल हलचल करते हैं
टूटन, आह, चुभन, सिसकन में जीवन घुलता जाता है
लोग किसी के बिन जी लेना कितना सहज समझते हैं

© चिराग़ जैन

Wednesday, December 1, 2004

मुश्क़िल है

मैं अपने दिल के अरमानों को बहला लूँ तो मुश्क़िल है
अगर ख़ुद को किसी सूरत मैं समझा लूँ तो मुश्क़िल है
इधर दिल की तमन्ना है, उधर उनकी हिदायत है
नज़र फेरूँ तो मुश्क़िल है, नज़र डालूँ तो मुश्क़िल है 

© चिराग़ जैन

Thursday, November 11, 2004

वनफूल

कुछ ज़र्द से पत्ते थे जो सज कर सँवर गए
कुछ फूल जंगलों में ही खिल कर बिखर गए
कुछ छाछ की छछिया लिए दुनिया पे छा गए
कुछ खीर हाथ में लिए घुट-घुट के मर गए

© चिराग़ जैन

अनर्गल

चाहता था भावनाओं में जकड़ लूँ आपको
आप आगे बढ़ चुके, कैसे पकड़ लूँ आपको
लेकिन निर्णय के पथ पर अनुरोध अनर्गल लगता है
जीवन की नदिया के मग में अवरोध अनर्गल लगता है

मेरे मन की पीड़ा, मन में ही घुट कर रह जाएगी
अरमानों की डोली राहों में लुट कर रह जाएगी
मैं यादों के ताजमहल में शासक बन कर रह लूंगा
स्मृतियाँ दिल में उफ़नीं तो आँसू बन कर बह लूंगा
तुम बिन मुझको जीवन का हर मोद अनर्गल लगता है

तुम भी कभी-कभी यादों की गलियों में खो जाओगे
मन के आंगन में यादों की फुलवारी बो जाओगे
मेरा मन भी बीते कल में लौट-लौट कर आएगा
और आँचल उड़-उड़ कर तुमको मेरी याद दिलाएगा
प्रेममग्न उन्मुक्त हृदय को बोध अनर्गल लगता है

मैं भी हूँ लाचार, तुम्हारी भी अपने मज़बूरी है
क्योंकि इस भौतिक दुनिया में, पूंजी बहुत ज़रूरी है
लेकिन इस दौलत के मद में नेह धनधनी मत खोना
सौम्य सुकोमल अंतस् और हँसने की आदत मत खोना
जीवन नीरस हो तो फिर हर शोध अनर्गल लगता है

© चिराग़ जैन

Saturday, October 23, 2004

दशहरा

दुष्टों का संहार कर, संतों पर कर गर्व
यही सीख सिखला रहा, हमें दशहरा पर्व

© चिराग़ जैन

Saturday, October 9, 2004

गोरी

कारे-कारे कजरारे नैन तोरे प्यारे-प्यारे
गीले-गीले लागत हैं नदिया के कूल से
सौंधी-सौंधी खुसबू महकती है केसन में
मानो अभी नहा के आई हो गोरी धूल से
मस्तानी की दीवानी मुस्कान देख लें तो
रोम-रोम खिले गुलदाऊदी के फूल से
मीठी-मीठी बोली मो से बोले तो मिठाई लागे
औरन से बोले तब चुभते हैं सूल से

© चिराग़ जैन

Wednesday, October 6, 2004

प्यार वाला अहसास

प्यार वाला एक अहसास जब से जगा है
अँखियों से भेद खोलती है मेरी ज़िन्दगी
हर घड़ी हर पल दिन-रैन बिन चैन
उस ही का नाम बोलती है मेरी ज़िन्दगी
अपना तो दिल भूल आई किसी आँचल में
अब बावरी-सी डोलती है मेरी ज़िन्दगी
मथुरा में बन बनवारी बैठ गई और
बृज की हवा टटोलती है मेरी ज़िन्दगी

© चिराग़ जैन

Tuesday, September 14, 2004

अनपढ़ माँ

चूल्हे-चौके में व्यस्त
और पाठशाला से
दूर रही माँ
नहीं बता सकती
कि ”नौ-बाई-चार” की
कितनी ईंटें लगेंगी
दस फीट ऊँची दीवार में
…लेकिन अच्छी तरह जानती है
कि कब, कितना प्यार ज़रूरी है
एक हँसते-खेलते परिवार में।

त्रिभुज का क्षेत्रफल
और घन का घनत्व निकालना
उसके शब्दों में ‘स्यापा’ है
…क्योंकि उसने मेरी छाती को
ऊनी धागे के फन्दों
और सिलाइयों की
मोटाई से नापा है

वह नहीं समझ सकती
कि ‘ए’ को
‘सी’ बनाने के लिए
क्या जोड़ना
या घटाना होता है
…लेकिन
अच्छी तरह समझती है
कि भाजी वाले से
आलू के दाम
कम करवाने के लिए
कौन सा फॉर्मूला
अपनाना होता है।

मुद्दतों से
खाना बनाती आई माँ ने
कभी पदार्थों का तापमान नहीं मापा
तरकारी के लिए
सब्ज़ियाँ नहीं तौलीं
और नाप-तौल कर
ईंधन नहीं झोंका
चूल्हे या सिगड़ी में
…उसने तो
केवल ख़ुश्बू सूंघकर बता दिया है
कि कितनी क़सर बाकी है
बाजरे की खिचड़ी में।

घर की
कुल आमदनी के हिसाब से
उसने हर महीने
राशन की लिस्ट बनाई है
ख़र्च और बचत के
अनुपात निकाले हैं
रसोईघर के डिब्बों
घर की आमदनी
और पन्सारी की
रेट-लिस्ट में
हमेशा सामन्जस्य बैठाया है
…लेकिन
अर्थशास्त्र का
एक भी सिद्धान्त
कभी उसकी समझ में
नहीं आया है।

वह नहीं जानती
सुर-ताल का संगम
कर्कश, मृदु और पंचम
सरगम के सात स्वर
स्थाई और अन्तरे का अन्तर
….स्वर साधना के लिए
वह संगीत का
कोई शास्त्री भी नहीं बुलाती थी
…लेकिन फिर भी मुझे
उसकी लल्ला-लल्ला लोरी सुनकर
बड़ी मीठी नींद आती थी।

नहीं मालूम उसे
कि भारत पर
कब, किसने आक्रमण किया
और कैसे ज़ुल्म ढाए थे
आर्य, मुग़ल और मंगोल कौन थे,
कहाँ से आए थे?
उसने नहीं जाना
कि कौन-सी जाति
भारत में
अपने साथ
क्या लाई थी
लेकिन
हमेशा याद रखती है
कि नागपुर वाली बुआ
हमारे यहाँ
कितना ख़र्चा करके आई थी।

वह कभी नहीं समझ पाई
कि चुनाव में
किस पार्टी के निशान पर
मुहर लगानी है
लेकिन इसका निर्णय
हमेशा वही करती है
कि जोधपुर वाली दीदी के यहाँ
दीपावली पर
कौन-सी साड़ी जानी है।

बेशक़ माँ को नहीं आता
सीधा स्वास्तिक बनाना
पर स्वास्तिक को ख़ूब आता है
माँ के हाथ से बनकर
शुभ हो जाना।

मेरी अनपढ़ माँ
वास्तव में अनपढ़ नहीं है
वह बातचीत के दौरान
पिताजी का
चेहरा पढ़ लेती है

काल-पात्र-स्थान के अनुरूप
बात की दिशा
मोड़ सकती है
झगड़े की सम्भावनाओं को
भाँप कर
कोई भी बात
ख़ूबसूरत मोड़ पर लाकर
छोड़ सकती है

दर्द होने पर
हल्दी के साथ दूध पिला
पूरे देह का पीड़ा को
मार देती है
और नज़र लगने पर
सरसों के तेल में
रूई की बाती भिगो
नज़र भी उतार देती है

अगरबत्ती की ख़ुश्बू से
सुबह-शाम
सारा घर महकाती है
बिना काम किए भी
परिवार तो रात को
थक कर सो जाता है
लेकिन वो
सारा दिन काम करके भी
परिवार की चिन्ता में
रात भर सो नहीं पाती है।

सच!
कोई भी माँ
अनपढ़ नहीं होती
सयानी होती है
क्योंकि
ढेर सारी डिग्रियाँ
बटोरने के बावजूद
बेटियों को
उसी से सीखना पड़ता है
कि गृहस्थी
कैसे चलानी होती है।


© चिराग़ जैन

Sunday, September 12, 2004

प्रार्थना

सब चोरी का माल है, वाणी-भजन-पुराण
प्रेम-पत्र लिखवा रहे, ग़ैरों से नादान

रटी-रटाई प्रार्थना, सुना-सुनाया ज्ञान
बोर किया भगवान को, कैसे हो उत्थान

© चिराग़ जैन

Tuesday, September 7, 2004

आदमी यकसा मिला

हर कोई ख़ुद को यहाँ कुछ ख़ास बतलाता मिला
हर किसी में ढूंढने पर आदमी यकसा मिला

आज के इस दौर में आदाब की क़ीमत कहाँ
वो क़लंदर हो गया जो सबको ठुकराता मिला

हर दफ़ा इक बेक़रारी उनसे मिलने की रही
हर दफ़ा ऐसा लगा, इस बार भी बेज़ा मिला

जिसने उम्मीदें रखीं और क़ोशिशें हरगिज़ न कीं
उसको अन्ज़ामे-सफ़र रुसवाई का तोहफ़ा मिला

रात जब सोया तो हमबिस्तर रहा उनका ख़याल
सुब्ह जब जागा तो होठों पर कोई बोसा मिला

© चिराग़ जैन

Monday, September 6, 2004

आख़िर क्यों माँ?

माँ
दुनिया तुझको अक्सर
ममता की इक मूरत कहती है
मैं भी तेरे त्याग, नेह और वात्सल्य का
क़द्रदान हूँ।

लेकिन माँ
इतना बतला दे
तब वो सारी नेह-दिग्धता
भीतर का सारा वात्सल्य
कहाँ दफ़्न कर दिया था तूने
जब तूने
इक सच्चे दिल से
दोनों हाथ बलैयाँ लेकर
अपने रब से दुआ करी थी
इक बचपन के मर जाने की...

जब तूने चाहा था
तेरा राजा बेटा
जल्दी-जल्दी बड़ा हो जाए

कहाँ मर गई थी
तब
तेरी सारी ममता?

© चिराग़ जैन

Friday, September 3, 2004

इक लड़की

प्यार की बयार में ये दिल झूम नाचता है
जब दिल में उतरती है इक लड़की
नित नए रंग, नित नई मुस्कान लिए
मन में उमंग भरती है इक लड़की
जीवन की सूनी बगिया महकती है जब
पारिजात बन झरती है इक लड़की
दिल ट्रिन-ट्रिन बजता है रोज़-रोज़ जब
सांझ ढले फोन करती है इक लड़की

© चिराग़ जैन

Monday, August 30, 2004

राखी का त्यौहार

महानगर में इस तरह, बदला हर त्यौहार
अब तोरण करते नहीं, खड़िया का शृंगार

रेडिमेड में ढँक गया, सारा हर्ष-किलोल
सोन बनाती बेटियाँ, खड़िया-गेरू घोल

ना मोली की सौम्यता, ना रेशम की डोर
अब राखी पर दिख रहा, प्लास्टिक चारों ओर

कितना डेवलप हो गया, ये पुरख़ों का देस
चॉकलेट ने कर दिया, बरफ़ी को रिप्लेस

© चिराग़ जैन

Tuesday, August 24, 2004

वायरस

जब से डाउनलोड की है
तुम्हारे नाम की फाइल
बार-बार हैंग होता है
दिल का सिस्टम
…शायद फाइल में वायरस था

जिसने सबसे पहले
डी-एक्टिवेट किया
ब्रेन का एंटी-वायरस
और फिर
करप्ट कर दिया
ऑपरेटिंग सिस्टम
..स्लो कर दी
मेमोरी

…शायद
इंस्टॉल करनी पड़ेगी
नई विंडो

© चिराग़ जैन

Wednesday, August 11, 2004

लफ्ज़ों के शोर में

हालात ने जब-जब भी माजरा बढ़ा दिया
जीने की हसरतों ने हौसला बढ़ा दिया

लफ्ज़ों के शोर में ये समन्दर ख़मोश थे
चुप्पी ने शाइरी का दायरा बढ़ा दिया

यूँ ख़त्म हो चुका था रात को ही मसअला
सुब्ह की सुर्ख़ियों ने मामला बढ़ा दिया

कुछ पहले ही लज़ीज़ थीं चूल्हे की रोटियाँ
फिर माँ की उंगलियों ने ज़ायक़ा बढ़ा दिया

मंज़िल थी मिरे रू-ब-रू, रस्ता था दो क़दम
अपनों की क़ोशिशों ने फासला बढ़ा दिया

© चिराग़ जैन

Friday, July 30, 2004

तुम्हारा आगमन

ये हवा कल भी बही थी
ज़िन्दगी कल भी यही थी
कुछ कमी कल भी नहीं थी
पर तुम्हारे आगमन ने बीहड़ों में जान भर दी
संग अधरों के लगाकर बाँसुरी में तान भर दी

बिन तुम्हारे भी अधूरापन नहीं था ज़िन्दगी में
पर ख़ुषी का भी कोई कारण नहीं था ज़िन्दगी में
ये महक, ये बदलियाँ, ये बारिषंे कल भी यहीं थीं
कैसे मैं कह दूँ कोई सावन नहीं था ज़िन्दगी में
तुमने ही इन बारिषों को इक नई झनकार देकर
बदलियों को रंग, दिल को संग, मुझको प्यार देकर
मस्त मौसम में अचानक इक नई पहचान भर दी
संग अधरों के लगाकर बाँसुरी में तान भर दी

शब्द-सा बेकार था, तुम अर्थ बन मुझमें समाईं
आँसुओं का गीत था, तुम दर्द बनकर छलछलाईं
तुम समन्दर के हृदय पर लहर बनकर डोलती हो
आम्र-तरु की डालियों पर कोयलों-सी गुनगुनाईं
आपके आने से पहले मुस्कुराना भी कठिन था
खेलना, हँसना, मनाना, रूठ जाना भी कठिन था
तुमने अपनाकर ये मेरी ज़िन्दगी आसान कर दी
संग अधरों के लगाकर बाँसुरी में तान भर दी

© चिराग़ जैन

कोई कैसे सच बोले

जब तक हमसे भाग्य हमारे खोटे होकर मिलते हैं
बस तब ही तक हम लोगों से छोटे होकर मिलते हैं

कोई कैसे सच बोले सबकी है अपनी लाचारी
अब तो दर्पण से भी लोग मुखोटे होकर मिलते हैं

जिनसे मतलब हो बस उनकी हाँ को हाँ कहते हैं जो
उनका क्या है; बिन पेंदी की लोटे होकर मिलते हैं

जब से ख़ुद्दारी गिरवी रख, हमने बेच दिया ईमान
तब से वही लिफ़ाफ़े हमको मोटे होकर मिलते हैं

हमरे कैसी करी तरक्क़ी, इमली, पीपल, बरगद सब
धरती से कट कर गमलों में छोटे होकर मिलते हैं 

© चिराग़ जैन

Thursday, July 15, 2004

हमारी ज़िंदगानी

अंधेरों की कहानी आफ़ताबों में नही मिलती
हक़ीक़त की निशानी चंद ख़्वाबों में नहीं मिलती
हमारे दर्द को महसूस करने की ज़रूरत है
हमारी ज़िंदगानी इन किताबों में नहीं मिलती 

© चिराग़ जैन

Tuesday, July 13, 2004

कुछ देर मिलन के बाद

दो पल को प्यास मिटाकर तुम घंटों तड़पाया करती हो
कुछ देर मिलन के बाद प्रिये जब वापस जाया करती हो

जब जाड़े की सुबह में तन को धूप सुहाने लगती है
सबकी आँखों में जब अलसाई मस्ती छाने लगती है
जब उस मीठे-मीठे मौसम में  नींद-सी आने लगती है
बस तभी अचानक हवा रंग में भंग मिलाने लगती है
ज्यों छोटी-छोटी सी बदली सूरज पर हावी हो जाएँ
ख़ुशियाँ भी जाते-जाते ज्यों यादों के काँटे बो जाएँ
बस ऐसा ही लगता है जब तुम घड़ी दिखाया करती हो
कुछ देर मिलन के बाद प्रिये जब वापस जाया करती हो

जैसे कटने से पहले ही फ़सलों पर पाला पड़ जाए
जैसे किसान के आंगन में मौसम का मूड बिगड़ जाए
जैसे सुन्दर सपने से जग जाना दिल को दुख देता है
जैसे घर के आंगन का बँट जाना आँखें भर देता है
जैसे मासूम परिंदों को सैयादों से डर लगता है
जैसे सजनी को साजन के बिन सूना-सा घर लगता है
बस ऐसा ही लगता है जब तुम पर्स उठाया करती हो
कुछ देर मिलन के बाद प्रिये जब वापस जाया करती हो

जैसे चकवे के बिन चकवी का जीना दूभर होता है
जैसे सीता का हृदय राम बिन सुबक-सुबक कर रोता है
जैसे रस-रंग-गंध के बिन हर पुष्प वृथा-सा लगता है
जैसे कन्हा का मुख राधा की करुण व्यथा-सा लगता है
जैसे लक्ष्मण की पत्नी के रोने पर भी पाबन्दी हों
जैसे सुग्रीवों की मुस्कानें बाली के घर बन्दी हों
बस ऐसा ही लगता है जब तुम हाथ हिलाया करती हो
कुछ देर मिलन के बाद प्रिये जब वापस जाया करती हो

© चिराग़ जैन

वक़्त का हिण्डोला

घर के मुख्य द्वार की
देहलीज पर बैठकर
दफ़्तर से लौटते पापा की
राह तकतीं
नन्हीं-नन्हीं आँखें
रोज़ शाम
आशावादी दृष्टिकोण से
निहारती थीं
सड़क की ओर
...कि पापा
लेकर आएंगे कुछ न कुछ चिज्जी
हमारे लिए।

लेकिन लुप्त हो रही है
ये स्नेहिल परंपरा
पिछले कुछ वर्षों से
बच नहीं पाती अब
वह चिल्लड़
जिसे ख़नकाकर
चिज्जी ख़रीदते थे पापा
हर शाम
दफ़्तर से लौटते वक़्त
अपने बच्चों के लिए!

ख़र्च हो गई है
सारी रेज़गारी
रोज़गार की तलाश में
और मोटी-मोटी किताबों के बीच
ग़ुम हो गया है
वक़्त का वह हिण्डोला
जिसमें बैठकर
राह तकते थे बच्चे
दफ़्तर से लौटते पापा की।

© चिराग़ जैन

Monday, July 12, 2004

वर्तमान

मुझे बेबस दिलों में पल रहे अरमान लिखने हैं
ग़रीबों के घरों के दर्द और तूफ़ान लिखने हैं
कभी मौक़ा मिलेगा तो चमन की बात कर लूंगा
अभी फुटपाथ के गलते हुए इन्सान लिखने हैं 

© चिराग़ जैन

Wednesday, July 7, 2004

सियासत का ज़हर

सच के मंतर से सियासत का ज़हर काट दिया
हाँ, ज़रा रास्ता मुश्क़िल था, मगर काट दिया

वक्ते-रुख़सत तिरी ऑंखों की तरफ़ देखा था
फिर तो बस तेरे तख़य्युल में सफ़र काट दिया

फिर से कल रात मिरी मुफ़लिसी के ख़ंज़र ने
मिरे बच्चों की तमन्नाओं का पर काट दिया

सिर्फ़ शोपीस से कमरे को सजाने के लिए
हाय ख़ुदगर्ज़ ने खरगोश का सर काट दिया

एक छोटा-सा दिठौना मिरे माथे पे लगा
बद्दुआओं का मिरी माँ ने असर काट दिया

© चिराग़ जैन

Tuesday, June 22, 2004

भाग्यवाद

यहाँ प्रारब्ध का लेखा सिकन्दर तक ने भोगा है
पड़ोसी की ख़ताओं को समन्दर तक ने भोगा है
बहुत चाहा बचाना राम ने रावण को मरने से
मग़र जो लिख गया वो तो कलन्दर तक ने भोगा है

© चिराग़ जैन

Friday, June 18, 2004

जीत की चाहत

चंद सस्ती ख्वाहिशों पर सब लुटाकर मर गईं
नेकियाँ ख़ुदगर्ज़ियों के पास आकर मर गईं

जिनके दम पर ज़िन्दगी जीते रहे हम उम्र भर
अंत में वो ख्वाहिशें भी डबडबाकर मर गईं

बदनसीबी, साज़िशें, दुश्वारियाँ, मातो-शिक़स्त
जीत की चाहत के आगे कसमसाकर मर गईं

मीरो-ग़ालिब रो रहे थे रात उनकी लाश पर
चंद ग़ज़लें चुटकुलों के बीच आकर मर गईं

वो लम्हा जब झूठ की महफ़िल में सच दाखिल हुआ
साज़िशें उस एक पल में हड़बड़ा कर मर गईं

क्या इसी पल के लिए करता था गुलशन इंतज़ार
जब बहार आई तो कलियाँ खिलखिला कर मर गईं

जिन दीयों में तेल कम था, उन दीयों की रोशनी
तेज़ चमकी और पल में डगमगा कर मर गईं

दिल कहे है- प्रेम में उतरी तो मीरा जी उठीं
अक्ल बोले- बावरी थीं, दिल लगाकर मर गईं

ये ज़माने की हक़ीक़त है, बदल सकती नहीं
बिल्लियाँ शेरों को सारे गुर सिखाकर मर गईं

© चिराग़ जैन

Friday, May 28, 2004

कोई गीत नहीं लिखा

तुम रूठी तो मैंने रोकर, कोई गीत नहीं लिखा
इस ग़म में दीवाना होकर, कोई गीत नहीं लिखा
तुम जब तक थीं साथ तभी तक नज़्में-ग़ज़लें ख़ूब कहीं
लेकिन साथ तुम्हारा खोकर कोई गीत नहीं लिखा

प्यार भरे लम्हों की इक पल याद नहीं दिल से जाती
मन भर-भर आता है फिर भी साँस नहीं रुकने पाती
उखड़ा-उखड़ा रहता हूँ पर जीवन चलता रहता है
शायद मैंने खण्डित की है प्रेमनगर की परिपाटी
इस पीड़ा में नयन भिगोकर कोई गीत नहीं लिखा

रोज़ सजानी थी नग़्मों में प्रेम-वफ़ा की परिभाषा
और जतानी थी फिर से मिलने की अंतिम अभिलाषा
प्रश्न उठाने थे तुम पर या ख़ुद को दोषी कहना था
या फिर ईश्वर के आगे रखनी थी कोई जिज्ञासा
मैंने अब तक आख़िर क्योंकर कोई गीत नहीं लिखा

संबंधों की पीड़ा भी है, भीतर का खालीपन भी
मुझसे घण्टों बतियाता रहता है मेरा दरपन भी
हर पल भाव घुमड़ते रहते हैं मेरे मन के भीतर
नम पलकों से हो ही जाता है आँसू का तर्पण भी
इतना सब सामान संजोकर कोई गीत नहीं लिखा

सारी दुनिया को कैसे बतलाऊंगा अपनी बातें
आकर्षण, अपनत्व, समर्पण या पीड़ा की बरसातें
जिन बातों को हम-तुम बस आँखों-आँखों में करते थे
क्या शब्दों में बंध पाएंगी वो भावों की सौगातें
इन प्रश्नों से आहत होकर कोई गीत नहीं लिखा


© चिराग़ जैन

Thursday, May 27, 2004

तू भी सब-सा निकला

जो जितना भी सच्चा निकला
वो उतना ही तनहा निकला

सुख के छोटे-से क़तरे में
ग़म का पूरा दरिया निकला

कुछ के वरक़ ज़रा महंगे थे
माल सभी का हल्का निकला

मैंने तुझको ख़ुद-सा समझा
लेकिन तू भी सब-सा निकला

कौन यहाँ कह पाया सब कुछ
कम ही निकला जितना निकला

© चिराग़ जैन

Sunday, May 2, 2004

हमने देखे हैं कई साथ निभाने वाले

हमने देखे हैं कई साथ निभाने वाले
बरगला लेंगे तुझे भी ये ज़माने वाले

बारिशों में ये नदी कैसा कहर ढाती है
ये बताएंगे तुझे इसके मुहाने वाले

धूप जिस पल मिरे आंगन में उतर आएगी
और जल जाएंगे दीवार उठाने वाले

मौत ने ईसा को शोहरत की बुलंदी बख्शी
ख़ाक़ में मिल गए सूली पे चढ़ाने वाले

रास्ते सच के बहुत तंग, बहुत मुश्क़िल हैं
सोच ले ये भी ज़रा जोश में आने वाले

अपनी ऑंखों को भी सिखला ले हुनर धोखे का
झूठी बातों से हक़ीक़त को छिपाने वाले

© चिराग़ जैन

Thursday, April 22, 2004

नए नग़मे सजा लेना

मैं जहाँ भी रहूँ मुझको ख़ुशी मिल जाएगी
बस मेरे गीत गुनगुना के मुस्कुरा देना
जब मेरे गीत इस जहान के काबिल न रहें
नए नग़मे सजा लेना मुझे भुला देना 

© चिराग़ जैन

Saturday, April 3, 2004

भगवान महावीर

जो क़ामयाब हो जाए ज़रा, वो बदगुमान हो जाता है
जो फूल गया सत्तामद में, मूरख समान हो जाता है
जो लक्ष्मी के पीछे भागे, वो अर्थवान हो जाता है
लक्ष्मी जिसके पीछे भागे वो वर्द्धमान हो जाता है

-चिराग़ जैन

Monday, March 8, 2004

हालात

अब तो अपने ही उसूलों से लड़ना पड़ता है
सच को बाज़ार में नीलाम करना पड़ता है
अब नहीं बहते हैं आँसू किसी जनाज़े पर
हालतन मर्सिया हर रोज़ पढ़ना पड़ता है 

© चिराग़ जैन

Saturday, February 28, 2004

आस अभी बाक़ी है

हूक सीने के आस-पास अभी बाक़ी है
उनके आने की कोई आस अभी बाक़ी है
शामो-शब सहरो-सुबह देख चुका हूँ लेकिन
और कुछ देखने की प्यास अभी बाक़ी है 

© चिराग़ जैन


Friday, January 23, 2004

वतन के नाम

अगर दुश्मन करे आग़ाज़, हम अंजाम लिख देंगे
लहू के रंग से इतिहास में संग्राम लिख देंगे
हमारी ज़िंदगी पर तो वतन का नाम लिखा है
अब अपनी मौत भी अपने वतन के नाम लिख देंगे 

© चिराग़ जैन

Friday, January 16, 2004

यादों के ताजमहल में

मैंने मुस्कानें भोगी हैं अब मैं ग़म भी सह लूँगा
स्मृतियाँ दिल में उफनीं तो आँसू बनकर बह लूँगा
तुम सपनों की बुनियादों पर रँगमहल चिनवा लेना
मैं यादों के ताजमहल में शासक बनकर रह लूँगा

© चिराग़ जैन

Friday, January 9, 2004

वो भी दीपक ही है

ये अंधेरा दिए से डरता है
या फ़क़त एहतराम करता है
वो भी दीपक ही है जो सारा दिन
रात होने की दुआ करता है

© चिराग़ जैन

Tuesday, January 6, 2004

तनहा रोते हैं

जीवन बीता घातों में प्रतिघातों में
दौलत की शतरंजी चाल-बिसातों में
दुनियादारी के ही वाद-विवादों में
अब तनहा रोते हैं काली रातों में

जिस धरती पर सम्बन्धों को उगना था
हम उस पर दौलत की फसल लगा आए
जिन आँखों में सीधे-सादे सपने थे
उनको दौलत का अरमान थमा आए
एक अदद इन्सान कमाना ना आया
यूँ चांदी के सिक्के खूब कमा लाए
अपने ही भीतर से उखड़े-उखड़े हैं
सारे जग पर अपनी धाक् जमा आए
जीवन का सब वक़्त सुनहरा काट दिया
बिन मतलब, बेकार फिजूली बातों में

हमने महलों में भी तनहाई भोगी
उनके चैपालों पर शाही ठाठ रहे
हमने अपनों के भी दर्द नहीं बाँटे
उनको ग़ैरों के भी मरहम याद रहे
हाथ हमारे दौलत खूब रही लेकिन
उनके हाथों में अपनों के हाथ रहे
हम सुख में भी निपट अकेले होते थे
वे दुख में भी सम्बन्धों के साथ रहे
अब समझा है राम तुम्हें क्या स्वाद मिला
शबरी के जूठे फल, कच्चे भातों में

© चिराग़ जैन