कजरी, गारी, फाग, जोगीरे भूल गए
बंसी, तबले, ढोल, मंझीरे भूल गए
इतनी तेज़ी से दुनिया की ओर बढ़े
अपने घर को धीरे-धीरे भूल गए
© चिराग़ जैन
गत दो दशक से मेरी लेखनी विविध विधाओं में सृजन कर रही है। अपने लिखे को व्यवस्थित रूप से सहेजने की बेचैनी ही इस ब्लाॅग की आधारशिला है। समसामयिक विषयों पर की गई टिप्पणी से लेकर पौराणिक संदर्भों तक की गई समस्त रचनाएँ इस ब्लाॅग पर उपलब्ध हो रही हैं। मैं अनवरत अपनी डायरियाँ खंगालते हुए इस ब्लाॅग पर अपनी प्रत्येक रचना प्रकाशित करने हेतु प्रयासरत हूँ। आपकी प्रतिक्रिया मेरा पाथेय है।
Saturday, December 30, 2006
Tuesday, December 12, 2006
आज़माइश
यहाँ चलता नहीं दस्तूर कोई भी ज़माने का
ग़ज़ब है लुत्फ़ इन राहों पे सब कुछ हार जाने का
नज़र मिलते ही दिल काबू से बाहर जान पड़ता है
मुहब्बत में कहाँ मिलता है मौक़ा आज़माने का
© चिराग़ जैन
ग़ज़ब है लुत्फ़ इन राहों पे सब कुछ हार जाने का
नज़र मिलते ही दिल काबू से बाहर जान पड़ता है
मुहब्बत में कहाँ मिलता है मौक़ा आज़माने का
© चिराग़ जैन
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Monday, December 11, 2006
सुरों की आह
ज़माने ने सुरों की आह को झनकार माना है
कहीं संवेदना जीती तो उसको हार माना है
बड़े बईमान मानी तय किए हैं भावनाओं के
जहाँ दो दिल तड़पते हों उसी को प्यार माना है
© चिराग़ जैन
कहीं संवेदना जीती तो उसको हार माना है
बड़े बईमान मानी तय किए हैं भावनाओं के
जहाँ दो दिल तड़पते हों उसी को प्यार माना है
© चिराग़ जैन
Saturday, December 9, 2006
छलना
मटक-मटक लट झटक-झटक; हिया-
पट खटपट खटकाती है गुजरिया
ठक-ठक-ठक खटकात नटखट
मोरे हिवड़ा के पट, बतलाती है गुजरिया
लाग न लपट, तज अंगना का वट
झट जमना के तट, चली आती है गुजरिया
लेवे करवट जब मन का कपट
उस पल झटपट नट जाती है गुजरिया
© चिराग़ जैन
पट खटपट खटकाती है गुजरिया
ठक-ठक-ठक खटकात नटखट
मोरे हिवड़ा के पट, बतलाती है गुजरिया
लाग न लपट, तज अंगना का वट
झट जमना के तट, चली आती है गुजरिया
लेवे करवट जब मन का कपट
उस पल झटपट नट जाती है गुजरिया
© चिराग़ जैन
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Tuesday, November 28, 2006
गर्व से कहो हम भ्रष्ट हैं
ओलंपिक हो या आस्कर, क्रिकेट हो या हाॅकी और विज्ञान हो या तकनीक; हमारा देश हमेशा ‘नम्बर वन’ बनने से चूक जाता है। पिछले दिनों एक उम्मीद तब बंधी जब एक अंतरराष्ट्रीय संस्था ने विश्व के सबसे भ्रष्ट राष्ट्र का चयन करने का निश्चय किया।
भ्रष्टाचार हमारी सांस्कृतिक धरोहर है। न जाने कितने ही मीर ज़ाफरों और जयचंदों ने अपने-अपने समय में ईमानदारी और कर्तव्यपरायणता की सत्ता को ललकारते हुए विपरीत परिस्थितियों में भी इस कला को जीवित रखने के लिए जान की बाज़ी लगाई थी। मंथरा, शकुनि, वीरभद्र और कंस जैसे अनेक भ्रष्ट शिरोमणियों से हमारे देश की धरती सदैव धन्य होती रही है। इसलिए मुझे विश्वास था कि भ्रष्ट राष्ट्रों की फेहरिस्त में तो हमारा देश अव्वल रहेगा ही। लेकिन हाय रे दुर्भाग्य! 158 देशों के इस सर्वेक्षण में भारत सत्तरवें स्थान पर रहा। हालांकि जापान, चीन और दक्षिण कोरिया जैसे बड़े राष्ट्रों को हमने धता बता दिया लेकिन पाकिस्तान, बांग्लादेश, वियतनाम, फिलीपिन और नेपाल जैसे मुट्ठी भर देश हमें पछाड़ कर आगे बढ़ गए।
रिपोर्ट पढ़ कर मेरा सिर शर्म से गड़ गया। एक क्षण में ही हमारे राजनेताओं, म्युनिसिपल कमेटियों, लालफीताशाहों, पुलिस, इंजीनियरों, डाॅक्टरों, सरकारी कर्मचारियांे और अध्यापकों के अथक प्रयासों पर पानी फेर दिया गया। अपने देश की महान विभूतियों का ऐसा अपमान देखकर जिस्म के रोमानी प्रदेशों में भयंकर अग्नि धधकने लगी। यह तो गनीमत है कि हमारे समाचार पत्रों का सर्कुलेशन अभी नर्क तक नहीं पहुंच सका है अन्यथा हमारे पूर्वज इस रिपोर्ट को पढ़कर हमें धिक्कारते। इस घटना ने हमें अपने पूर्वजों को मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ा। एक रिपोर्ट ने हमारे सारे काले कारनामों पर पानी फेरकर हमें धवल तिलक लगा दिया। हमें इस सफेद धब्बे को अपनी काली चादर पर से मिटाना होगा।
मैं अक़्सर कल्पना करता हूँ एक ऐसे भारत की जिसे ट्रांसपेरेंसी इंटरनेशनल की रिपोर्ट में सर्वाधिक भ्रष्ट राष्ट्र होने का गौरव प्राप्त होगा। चारों ओर भ्रष्टतंत्र का बोलबाला होगा। देश में शांति, सत्य, न्याय, सौहार्द, अहिंसा और सद्भाव जैसे बेकार पड़े मूल्यों के स्थान पर छल-कपट, धोखाधड़ी, ठगी, लूट, रिश्वतखोरी, जालसाजी, कालाबाज़ारी और मिलावट जैसे आदर्श तथा समसामयिक मूल्यों की स्थापना होगी।
बातें करने से क्रांति नहीं आती। इसलिए इस सपने को सच करने के लिए हमें मिलजुल कर देश का नक्शा बदलने के प्रयास करने होंगे। बाज़ार, घर, परिवार, शिक्षण संस्थान और मंदिरों से लेकर गांव, शहर, महानगर, प्रशासन, शासन और संसद आदि में कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन करने होंगे ताकि परम आदरणीय, प्रातः स्मरणीय, लोकहितकारी श्री भ्रष्टाचार महोदय देश मंे अपने विराट रूप में अवतार ले सकें।
संसद भवन के भीतरी स्वरूप में कोई विशेष परिवर्तन करने की आवश्यकता नहीं है लेकिन बाह्य परिसर में जो स्वतंत्रता सेनानियों और संविधान निर्माताओं की ‘ऊबसूरत’ मूर्तियाँ ‘अशोभायमान’ हो रही हैं; वहाँ हर्षद मेहता जी, रोमेश शर्मा जी, बंगारू लक्ष्मण जी, दिलेर मेहंदी जी, सलमान खुर्शीद जी, ए राजा जी, सुरेश कलमाड़ी जी, राबर्ट वाड्रा जी, ओमप्रकाश चैटाला जी और सलमान खान जी जैसे महान लोगों की ‘खूबसूरत’ मूर्तियां सुशोभित होंगी। जहाँ अम्बेडकर संविधान लेकर संसद की ओर उंगली किए खड़े हैं वहां तेलगी जी हाथ में अपने हाथ से छापे हुए स्टाॅम्प पेपर के सेम्पल लिए मोबाइल पर बात करते दिखाई देंगे। उच्चतम न्यायालय में न्यायाधीश की कुर्सी के पीछे महात्मा गांधी की जगह नटवर लाल का चित्र होगा जिसके नीचे ‘सत्यमेव जयते’ जैसे अव्यवहारिक वाक्य के स्थान पर लिखा होगा ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’। इस प्रकार की व्यवस्था में लोग आत्मनिर्भर बनेंगे तथा अपने दम पर जीवन जीना सीखेंगे।
स्कूलों में बच्चों को जो किताबें पढ़ाई जाएंगी वे होंगी- ‘चाल भारती’, ‘आओ जुगाड़ सीखें’, ‘केस और उनकी निकासी’ तथा ‘हमारे घोटाले’ इत्यादि। राजनीति, चिकित्सा, अध्यापन, आध्यात्म, सुरक्षा, बीमा, परिवहन और यहाँ तक कि केन्द्रीय जाँच ब्यूरो जैसे नास्तिक सम्प्रदायों के लोेग भी एक मत से विराट भ्रष्ट पुरुष के अपावन चरणों में स्वयं को अर्पित कर ‘धननीय’ हो जाएंगे।
जैसे भला करने वालों को हमेशा बुराई ही मिलती है, ठीक इसी प्रकार हमें विश्व में एक गरिमामय पहचान दिलाने वाले आदरणीय भ्रष्टाचार जी को देश के विकास में सबसे बड़ी बाधा बताया जा रहा है। कितने निकृष्ट हैं हम; अहसान-फरामोश। जब भी कोई हमारे देश की पहचान विश्व में स्थापित करने के लिए आगे बढ़ता है तो हम उसकी टांग खींचने लगते हैं। लेकिन ‘जा को राखे साइयां, मार सके न कोय’। यही कारण है कि सारे विरोध और तिरस्कार के बावजूद महान भ्रष्टाचार जी को कोई उनके पथ से डिगाने में कामयाब न हो सका। तमाम आलोचनाओं को अनदेखा करते हुए एक सच्चे साधक की तरह भ्रष्टाचार महोदय अपने कर्तव्य पथ पर बढ़ते जा रहे हैं। डाॅ.कुंअर बेचैन का एक शेर है- ‘चलने को एक पांव से भी चल रहे हैं लोग, पर दूसरा भी साथ दे तो और बात है।’ यही स्थिति भ्रष्टाचार जी के साथ भी है।
भ्रष्टाचार जी लोकतंत्रात्मक शासन पद्धति के घोर समर्थक हैं। जनमत को अपने पक्ष में करने के लिए हमारे उन्होंने भाषण, जलसे और रैलियों जैसे चालू माध्यमों का सहारा न लेकर एक महान शिक्षक की तरह अपने आचरण से यह सिद्ध किया कि उनके साथ रहकर मानव कैसे महान बन सकता है। उन्होंने राजनीति, प्रशासन, खेल, बाज़ार और मंदिरों में ऐसे उदाहरण पेश किए जो उनके बताए पथ पर चलकर रातों रात धनवान तथा मीडियावान बन गए। कहते हैं कि प्रत्यक्ष को प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। जब जनता जनार्दन ने बंगारू लक्ष्मण जी, तेलगी जी और रोमेश शर्मा जी की कथा मीडिया रूपी व्यास से सुुनी तो अपने घर में भी भ्रष्टाचार भगवान की कथा कराने का निर्णय किया।
धीरे-धीरे मनुष्यों को समझ आने लगा कि कर्तव्य, नैतिकता, भाईचारा, इमानदारी, सच्चाई और मर्यादा जैसे घिसे-पिटे नियमों का पालन तो तुच्छ प्राणी करते हैं, या यूं कहें कि इनका पालन करके मनुष्य तुच्छ हो जाता है। लेकिन जो प्राणी अपना तन-मन-जीवन भ्रष्ट देवता को समर्पित कर देता है उसके गद्दे, कमरे, दीवान, कनस्तर और यहां तक कि सोफे तक भी धन के स्पर्श से पवित्र हो जाते हैं। लक्ष्मी उनकी दासी हो जाती है। घर स्वर्ग बन जाता है, और प्राणी अपने परिवार के साथ अपनी निजि इन्द्रसभा में बैठकर ब्रांडेड सुरा का पान करता है तथा अंतरा, धूपिया, लियोने और बिपाशा जैसी मल्लिकाओं का पावन नृत्य देखता है।
कहते हैं जिस समस्या का कोई समाधान न हो उस समस्या को ही समाधान समझ लेना चाहिए। यूँ तो भ्रष्टाचार स्वयं में कोई समस्या नहीं है लेकिन कुछ असामाजिक तत्वों की बात मान कर यदि एक क्षण के लिए इसे समस्या मान भी लिया जाए तो पिछले छः दशकों से हम अपनी ऊर्जा इस महान कला का विरोध करने में खर्च करते रहे हैं, लेकिन अब समय आ गया है कि इसकी अनुमोदना की जाए तथा इस जुगाड़ यज्ञ में अपने भ्रष्ट कार्यों की आहुति दें।
इससे अनेक लाभ हैं। एक तो देश का नाम पूरे विश्व में रोशन हो सकेगा साथ ही जितना धन जाँच ब्यूरो, न्याय प्रक्रिया, प्राशासनिक कार्यवाहियों तथा आलोचनाओं पर खर्च होता है उसकी बचत होगी। संसद का समय किसी की निजि संपत्ति तथा व्यक्तिगत ज़िंदगी में बर्बाद होने से बच जाएगा और साथ ही साथ उस व्यक्ति विशेष की ज़िंदगी भी बर्बाद होने से बच जाएगी। रिश्वत जैसे हमारी शास्त्रीय परंपरा; जिसे एक प्रोपेगेंडा के तहत बुरा सिद्ध कर दिया गया है; उसका सम्मान बढ़ेगा। लोग एक दूसरे की सहायता के लिए अपने रेट फिक्स कर लेंगे। इससे सरकारी कार्यालयों की कार्यशैली में सुधार होगा तथा कोई भी बेहिचक अपना काम करवाने के लिए वास्तविक तरीके से अवगत हो सकेगा। विश्व बैंक की रिपोर्ट के मुताबिक रिश्वत से हमारी वार्षिक आय केवल 210 अरब रुपये है। इस रकम में बढ़ावा होगा।
जाली नोट बनाना, ड्रग्स बेचना, कालाबाज़ारी, चोरबाज़ारी, लूटपाट, हफ़्ता वसूली आदि मजबूत स्तंभों पर एक नया इन्फ्रास्ट्रक्चर खड़ा होगा और बेरोज़गारी की समस्या से निजात मिलेगा। नकली स्टाॅम्प पेपर और सिक्के गलाने जैसे कुटिर उद्योगों को बढ़ावा मिलेगा।
एक भ्रष्टाचार को स्वीकार करने से कितने सारे लाभ हैं और हमारे समाज के असामाजिक तत्व इस विराट पुरुष को धक्के मार कर बाहर निकालना चाहते हैं। हमारी तरक्की से जलने वाली विदेशी ताकतों के इशारों पर ये लोग जब परम श्रद्धेय भ्रष्टाचार महोदय को गाली देते हैं तो इससे हमारी आत्मा को बहुत ठेस पहुँचती है। ऐसे लोगों ने हमारी भावनाओं को आहत किया है और हमें इस अपराध के लिए उन्हें मुंह तोड़ जवाब देना होगा। आओ देश के होनहार नागरिकों आज यह शपथ लें कि- ‘हम भारत के लोग भारत को एक भ्रष्टसत्ता सम्पन्न, सम्पूर्ण जुगाड़वादी, लूटतंत्रात्मक राज्य बनाने के लिए हर संभव प्रयास करेंगे......’
© चिराग़ जैन
Sunday, November 19, 2006
दिल की ज़मीं
आज उस चेहरे पे मंज़िल की ख़ुशी भी देखी
और उन आँखों में कल तक की नमी भी देखी
लोग बस जिस्म तक आते थे चले जाते थे
इक मगर तूने मेरे दिल की ज़मीं भी देखी
© चिराग़ जैन
और उन आँखों में कल तक की नमी भी देखी
लोग बस जिस्म तक आते थे चले जाते थे
इक मगर तूने मेरे दिल की ज़मीं भी देखी
© चिराग़ जैन
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Thursday, November 9, 2006
प्रभु की वन्दना
नानक, कबीर, महावीर, पीर, गौतम को
पंथ-देश-जातियों का नाम मत दीजिए
जिनने समाज की तमाम बेड़ियाँ मिटाईं
उन्हें किसी बेड़ी का ग़ुलाम मत कीजिए
मन के फ़कीर अलमस्त महामानवों को
रूढ़ियों से जोड़ बदनाम मत कीजिए
प्राणियों के प्रति प्रेम ही प्रभु की वन्दना है
भले किसी ईश को प्रणाम मत कीजिए
© चिराग़ जैन
पंथ-देश-जातियों का नाम मत दीजिए
जिनने समाज की तमाम बेड़ियाँ मिटाईं
उन्हें किसी बेड़ी का ग़ुलाम मत कीजिए
मन के फ़कीर अलमस्त महामानवों को
रूढ़ियों से जोड़ बदनाम मत कीजिए
प्राणियों के प्रति प्रेम ही प्रभु की वन्दना है
भले किसी ईश को प्रणाम मत कीजिए
© चिराग़ जैन
Monday, November 6, 2006
सम्मान नहीं, अपनापन दो!
अभिनन्दन की मालाओं के फूलों की गंध नहीं भाती
अनुशंसा और प्रशंसा से मुख पर मुस्कान नहीं आती
कोई अभिलाषा शेष नहीं, यश-वैभव-कीर्ति प्रसारण की
ये दुनियादारी की बातें मन को न घड़ी भर ललचाती
या पूर्ण समर्पित होने दो, या मुझको पूर्ण समर्पण दो
सम्मान नहीं, अपनापन दो!
झूठे अनुशंसी शब्दों में भावों का तत्व नहीं मिलता
झूठी चिपकी मुस्कानों में अन्तस् का सत्व नहीं मिलता
माना पत्तल के भोजन से उत्तम हैं छप्पन भोग मगर
दुर्योधन के आमंत्रण में, वैसा अपनत्व नहीं मिलता
मेरे भीतर के कान्हा को निश्छल निस्पृह वृंदावन दो
सम्मान नहीं, अपनापन दो!
मेरे भीतर के बालक को मुखरित कर दे; कोई ऐसा हो
अभिभावक बन मेरे सिर पर कर तल धर दे; कोई ऐसा हो
बौद्धिकता के झंझावातों से जीवन शुष्क हुआ सारा
मेरी चंचलता की वंशी में स्वर भर दे; कोई ऐसा हो
मेरी कृत्रिम तस्वीर हटा, मुझको अन्तस् का दर्पण दो
सम्मान नहीं, अपनापन दो!
मालाओं और दुशालों से अब कंधे थककर चूर हुए
फोटो खिंच जाने तक हम सब मुस्काने को मजबूर हुए
हाथों की रग-रग दुखती है, अब अभिवादन की मुद्रा से
तमगों की पाॅलिश उतर गई, सम्मान सभी बेनूर हुए
छोड़ो झूठी व्यवहारिकता, इक नेह भरा आलिंगन दो
सम्मान नहीं, अपनापन दो!
✍️ चिराग़ जैन
अनुशंसा और प्रशंसा से मुख पर मुस्कान नहीं आती
कोई अभिलाषा शेष नहीं, यश-वैभव-कीर्ति प्रसारण की
ये दुनियादारी की बातें मन को न घड़ी भर ललचाती
या पूर्ण समर्पित होने दो, या मुझको पूर्ण समर्पण दो
सम्मान नहीं, अपनापन दो!
झूठे अनुशंसी शब्दों में भावों का तत्व नहीं मिलता
झूठी चिपकी मुस्कानों में अन्तस् का सत्व नहीं मिलता
माना पत्तल के भोजन से उत्तम हैं छप्पन भोग मगर
दुर्योधन के आमंत्रण में, वैसा अपनत्व नहीं मिलता
मेरे भीतर के कान्हा को निश्छल निस्पृह वृंदावन दो
सम्मान नहीं, अपनापन दो!
मेरे भीतर के बालक को मुखरित कर दे; कोई ऐसा हो
अभिभावक बन मेरे सिर पर कर तल धर दे; कोई ऐसा हो
बौद्धिकता के झंझावातों से जीवन शुष्क हुआ सारा
मेरी चंचलता की वंशी में स्वर भर दे; कोई ऐसा हो
मेरी कृत्रिम तस्वीर हटा, मुझको अन्तस् का दर्पण दो
सम्मान नहीं, अपनापन दो!
मालाओं और दुशालों से अब कंधे थककर चूर हुए
फोटो खिंच जाने तक हम सब मुस्काने को मजबूर हुए
हाथों की रग-रग दुखती है, अब अभिवादन की मुद्रा से
तमगों की पाॅलिश उतर गई, सम्मान सभी बेनूर हुए
छोड़ो झूठी व्यवहारिकता, इक नेह भरा आलिंगन दो
सम्मान नहीं, अपनापन दो!
✍️ चिराग़ जैन
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छूकर निकली है बेचैनी,
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Friday, November 3, 2006
कामना
प्रेम, शांति और सौम्यता, सबका हो विस्तार
सबके जीवन में भरे, प्यार, प्यार और प्यार
© चिराग़ जैन
सबके जीवन में भरे, प्यार, प्यार और प्यार
© चिराग़ जैन
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कोई यूँ ही नहीं चुभता,
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Thursday, October 19, 2006
दीपोत्सव
दीपोत्सव केवल पर्व नहीं अंधियारे को झुठलाने का
ये दिव्य अलौकिक अवसर है, अंतस के दीप जलाने का
भीतर के गहन अंधेरे में जब आशा दीप जलायेगी
जीवन में उजियारा होगा, दीवाली शुभ हो जाएगी
© चिराग़ जैन
ये दिव्य अलौकिक अवसर है, अंतस के दीप जलाने का
भीतर के गहन अंधेरे में जब आशा दीप जलायेगी
जीवन में उजियारा होगा, दीवाली शुभ हो जाएगी
© चिराग़ जैन
Monday, October 9, 2006
मेरे गीतों की दिव्य प्रेरणा
मेरे अन्तर्मन की पावन-सी कुटिया में
मेरे गीतों की दिव्य प्रेरणा बसती है
उसकी ऑंखों से बहती हैं ग़ज़लें-नज्में
कविता होती है जब वो खुलकर हँसती है
हर भाषा, संस्कृति, काल, धर्म और धरती की
हर उपमा उस सौंदर्य हेतु बेमानी है
सारे नष्वर लौकिक प्रतिमानों से ऊपर
सुन्दरता की वो शब्तातीत कहानी है
वो पावनता की एक अनोखी उपमा है
ज्यों गंगाजल से सिंचित तुलसी की क्यारी
वो शबरी के बेरों से ज्यादा पावन है
मन झूम उठे उससे मिल, वो इतनी प्यारी
सारे छल-बल से दूर प्रपंचों से ऊपर
उसके लहजे में इक भोली चालाकी है
शब्दों में वेदऋचा सी पावन सच्चाई
और संवादों में मीठी-सी बेबाकी है
वात्सल्य, प्रेम, अपनत्व, समर्पण से भरकर
उसने मेरी जीवन वसुधा महकाई है
मीरा, राधा, रुक्मणि, यषोदा की मिश्रित
जैसे कान्हा ने मूरत एक बनाई है
दुनिया भर के बौने सम्बन्धों से ऊँचा
मेरा उससे इक अलग अनोखा नाता है
ये नाता इतना पावन, इतना निष्छल है
शृंगार इसे छूकर वन्दन हो जाता है
जब कभी नेह आपूरित नयनों से भरकर
वो छठे-चौमासे मुझको अपना कहती है
तो रोम-रोम खिल उठता है और कानों में
इस सम्बोधन की गूंज देर तक रहती है
वो है मेरी प्रेरणा; इसी कारण शायद
मेरी रचनाओं में वैभत्स्य नहीं मिलता
शृंगार, हास्य, वात्सल्य झलकते हैं लेकिन
फूहड़ता का कोई भी दृष्य नहीं मिलता
उसके जीवन से जीवन ऊर्जा हासिल कर
मैं दुनिया भर की पीड़ाएँ सह लेता हूँ
तूफानी संघर्षों की थकन मिटाने को
मैं कुछ पल इस गंगा तट पर रह लेता हूँ
जब सब थोथे ग्रंथों से मन भर जाता है
तो चुपके से उसका चेहरा पढ़ लेता हूँ
सुन्दरता की सब उपमाएँ जब बौनी हों
तो गीतों में उसकी प्रतिमा गढ़ लेता हूँ
© चिराग़ जैन
मेरे गीतों की दिव्य प्रेरणा बसती है
उसकी ऑंखों से बहती हैं ग़ज़लें-नज्में
कविता होती है जब वो खुलकर हँसती है
हर भाषा, संस्कृति, काल, धर्म और धरती की
हर उपमा उस सौंदर्य हेतु बेमानी है
सारे नष्वर लौकिक प्रतिमानों से ऊपर
सुन्दरता की वो शब्तातीत कहानी है
वो पावनता की एक अनोखी उपमा है
ज्यों गंगाजल से सिंचित तुलसी की क्यारी
वो शबरी के बेरों से ज्यादा पावन है
मन झूम उठे उससे मिल, वो इतनी प्यारी
सारे छल-बल से दूर प्रपंचों से ऊपर
उसके लहजे में इक भोली चालाकी है
शब्दों में वेदऋचा सी पावन सच्चाई
और संवादों में मीठी-सी बेबाकी है
वात्सल्य, प्रेम, अपनत्व, समर्पण से भरकर
उसने मेरी जीवन वसुधा महकाई है
मीरा, राधा, रुक्मणि, यषोदा की मिश्रित
जैसे कान्हा ने मूरत एक बनाई है
दुनिया भर के बौने सम्बन्धों से ऊँचा
मेरा उससे इक अलग अनोखा नाता है
ये नाता इतना पावन, इतना निष्छल है
शृंगार इसे छूकर वन्दन हो जाता है
जब कभी नेह आपूरित नयनों से भरकर
वो छठे-चौमासे मुझको अपना कहती है
तो रोम-रोम खिल उठता है और कानों में
इस सम्बोधन की गूंज देर तक रहती है
वो है मेरी प्रेरणा; इसी कारण शायद
मेरी रचनाओं में वैभत्स्य नहीं मिलता
शृंगार, हास्य, वात्सल्य झलकते हैं लेकिन
फूहड़ता का कोई भी दृष्य नहीं मिलता
उसके जीवन से जीवन ऊर्जा हासिल कर
मैं दुनिया भर की पीड़ाएँ सह लेता हूँ
तूफानी संघर्षों की थकन मिटाने को
मैं कुछ पल इस गंगा तट पर रह लेता हूँ
जब सब थोथे ग्रंथों से मन भर जाता है
तो चुपके से उसका चेहरा पढ़ लेता हूँ
सुन्दरता की सब उपमाएँ जब बौनी हों
तो गीतों में उसकी प्रतिमा गढ़ लेता हूँ
© चिराग़ जैन
Monday, September 11, 2006
शायरी
शायरी इक शरारत भरी शाम है
हर सुख़न इक छलकता हुआ जाम है
जब ये प्याले ग़ज़ल के पिए तो लगा
मयक़दा तो बिना बात बदनाम है
© चिराग़ जैन
हर सुख़न इक छलकता हुआ जाम है
जब ये प्याले ग़ज़ल के पिए तो लगा
मयक़दा तो बिना बात बदनाम है
© चिराग़ जैन
Saturday, September 9, 2006
दिल में कोई कराह
बाक़ी नहीं है दिल में कोई कराह शायद
मुद्दत हुई, हुए थे, हम भी तबाह शायद
फिर से जहान वाले बदनाम कर रहे हैं
फिर से हुई है हम पर उनकी निगाह शायद
किस बात पर तू सबसे इतना ख़फ़ा-ख़फ़ा है
तुझको कचोटता है तेरा गुनाह शायद
फिर रेत पर लहू की बूंदें दिखाई दी हैं
कोई ढूंढने चला है सहरा में राह शायद
दुल्हन की आँख में क्यों नफ़रत उतर रही है
काज़ी ने पढ़ दिया है, झूठा निक़ाह शायद
चेहरे पे दर्द है और आँखों में है चमक-सी
तुम मानने लगे हो, दिल की सलाह शायद
© चिराग़ जैन
मुद्दत हुई, हुए थे, हम भी तबाह शायद
फिर से जहान वाले बदनाम कर रहे हैं
फिर से हुई है हम पर उनकी निगाह शायद
किस बात पर तू सबसे इतना ख़फ़ा-ख़फ़ा है
तुझको कचोटता है तेरा गुनाह शायद
फिर रेत पर लहू की बूंदें दिखाई दी हैं
कोई ढूंढने चला है सहरा में राह शायद
दुल्हन की आँख में क्यों नफ़रत उतर रही है
काज़ी ने पढ़ दिया है, झूठा निक़ाह शायद
चेहरे पे दर्द है और आँखों में है चमक-सी
तुम मानने लगे हो, दिल की सलाह शायद
© चिराग़ जैन
Sunday, September 3, 2006
ग़लतफ़हमी
एक लमहे के लिए सारी जवानी काट दी
ठीकरों की चाह में इक फ़स्ल धानी काट दी
इक न इक दिन कोई तो समझेगा हाले-दिल मिरा
इस ग़लतफ़हमी पे सारी ज़िन्दगानी काट दी
© चिराग़ जैन
ठीकरों की चाह में इक फ़स्ल धानी काट दी
इक न इक दिन कोई तो समझेगा हाले-दिल मिरा
इस ग़लतफ़हमी पे सारी ज़िन्दगानी काट दी
© चिराग़ जैन
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Thursday, August 24, 2006
पनिहारी
पानी भरने को पनिहारी पनघट चली
मटकिया मटकती कटि में दबात है
गोरी के बदन की छुअन ऐसी मदभरी
मदहोश गगरिया झूम-झूम गात है
अंग-अंग में सुगन्ध ता पे मतवारी चाल
मोरनी भी नत है हिरनिया भी मात है
चूम-चूम पतली कमरिया गुजरिया की
गगरिया गोरी संग ठुमका लगात है
क्वारी पनिहारी लिए झारि जो मटक चली
झारि वाला वारि झारि विच झूमने लगा
बूंद-बूंद टूट कूद-कूद कर बारी-बारी
गोरी के ललाट को पकड़ घूमने लगा
क़िस्मत एक जलकण की थी उजियारी
भृकुटि से नासा पै लटक लूमने लगा
ज़रा-सा जतन कर होंठ की किनारी छुई
मीठे रस-भरे अधरों को चूमने लगा
मद-भरी बून्द ज़रा नीचे को उतर आई
मतवारी चाल मदहोश-सी ढलक थी
होले-होले तन की सवारी पर चली; तब
नज़रों में तोष की कमाई की चमक थी
साँवरी की गर्दन पर डोल लहराई
चाल में षोडषी की कमर-सी लचक थी
गोरी के बदन में उतर जाऊँ भीतर लौ
ऑंख में सपन और श्वास में महक थी
इत बून्द बढ़ै उत चुनरी की ऑंख कढ़ै
गोरी को कलेजो घेर लयो पल भर में
उजरौ हिया तनि चुनरिया तैं ढँक गयो
पथ पै घनो अंधेर भयो पल भर में
चुनरी तैं ऍंखियाँ बचाय बढ़ चली बून्द
पर चुनरी ने हेर लयो पल भर में
तब बून्द हारी बकी गारी दारी चुनरी को
करनी पै पानी फेर दयो पल भर में
© चिराग़ जैन
मटकिया मटकती कटि में दबात है
गोरी के बदन की छुअन ऐसी मदभरी
मदहोश गगरिया झूम-झूम गात है
अंग-अंग में सुगन्ध ता पे मतवारी चाल
मोरनी भी नत है हिरनिया भी मात है
चूम-चूम पतली कमरिया गुजरिया की
गगरिया गोरी संग ठुमका लगात है
क्वारी पनिहारी लिए झारि जो मटक चली
झारि वाला वारि झारि विच झूमने लगा
बूंद-बूंद टूट कूद-कूद कर बारी-बारी
गोरी के ललाट को पकड़ घूमने लगा
क़िस्मत एक जलकण की थी उजियारी
भृकुटि से नासा पै लटक लूमने लगा
ज़रा-सा जतन कर होंठ की किनारी छुई
मीठे रस-भरे अधरों को चूमने लगा
मद-भरी बून्द ज़रा नीचे को उतर आई
मतवारी चाल मदहोश-सी ढलक थी
होले-होले तन की सवारी पर चली; तब
नज़रों में तोष की कमाई की चमक थी
साँवरी की गर्दन पर डोल लहराई
चाल में षोडषी की कमर-सी लचक थी
गोरी के बदन में उतर जाऊँ भीतर लौ
ऑंख में सपन और श्वास में महक थी
इत बून्द बढ़ै उत चुनरी की ऑंख कढ़ै
गोरी को कलेजो घेर लयो पल भर में
उजरौ हिया तनि चुनरिया तैं ढँक गयो
पथ पै घनो अंधेर भयो पल भर में
चुनरी तैं ऍंखियाँ बचाय बढ़ चली बून्द
पर चुनरी ने हेर लयो पल भर में
तब बून्द हारी बकी गारी दारी चुनरी को
करनी पै पानी फेर दयो पल भर में
© चिराग़ जैन
Thursday, August 17, 2006
मौन
भले ही कभी
बाँहों में भरकर
दुलारा न हो मुझे
आपके नेह ने!
...लेकिन फिर भी
न जाने क्यों
आपका मौन!
© चिराग़ जैन
बाँहों में भरकर
दुलारा न हो मुझे
आपके नेह ने!
...लेकिन फिर भी
न जाने क्यों
आपका मौन!
© चिराग़ जैन
Monday, August 14, 2006
स्वतंत्रता
मन के मलंग मतवाले महानायकों की
कुर्बानियों का परिणाम है स्वतन्त्रता
स्वर की बुलन्दियों ने जो अदालतों में किया
क्रान्ति का वो दिव्य यशगान है स्वतन्त्रता
शहीदों ने भूख-प्यास सह के बचाया जिसे
भारती का वही स्वाभिमान है स्वतन्त्रता
लाल-बाल-पाल औ सुभाष जैसे ऋषियों की
साधना का शुभ्र वरदान है स्वतन्त्रता
© चिराग़ जैन
कुर्बानियों का परिणाम है स्वतन्त्रता
स्वर की बुलन्दियों ने जो अदालतों में किया
क्रान्ति का वो दिव्य यशगान है स्वतन्त्रता
शहीदों ने भूख-प्यास सह के बचाया जिसे
भारती का वही स्वाभिमान है स्वतन्त्रता
लाल-बाल-पाल औ सुभाष जैसे ऋषियों की
साधना का शुभ्र वरदान है स्वतन्त्रता
© चिराग़ जैन
Sunday, August 6, 2006
आदमी मायूस होता है
हवस की राह चलकर आदमी मायूस होता है
सदा आपे से बाहर आदमी मायूस होता है
कभी मायूस होकर आदमी खोता है उम्मीदें
कभी उम्मीद खोकर आदमी मायूस होता है
न हो उम्मीद तो मायूसियाँ छू भी नहीं सकतीं
हमेशा आरज़ू कर आदमी मायूस होता है
हज़ारों ख्वाब बेशक़ बन्द ऑंखों में पलें लेकिन
पलक खुलने पे अक्सर आदमी मायूस होता है
जहाँ दरकार हो दो घूँट मीठे साफ पानी की
वहाँ पाकर समन्दर आदमी मायूस होता है
© चिराग़ जैन
सदा आपे से बाहर आदमी मायूस होता है
कभी मायूस होकर आदमी खोता है उम्मीदें
कभी उम्मीद खोकर आदमी मायूस होता है
न हो उम्मीद तो मायूसियाँ छू भी नहीं सकतीं
हमेशा आरज़ू कर आदमी मायूस होता है
हज़ारों ख्वाब बेशक़ बन्द ऑंखों में पलें लेकिन
पलक खुलने पे अक्सर आदमी मायूस होता है
जहाँ दरकार हो दो घूँट मीठे साफ पानी की
वहाँ पाकर समन्दर आदमी मायूस होता है
© चिराग़ जैन
Saturday, July 29, 2006
पवनपुत्रियों की लंकायात्रा
कहते हैं इतिहास स्वयं को दोहराता है, लेकिन पिछले दिनों विद्वानों की इस चिर-परिचित सूक्ति को ताक पर रखकर, आध्यात्म ने स्वयं को दोहरा दिया। आध्यात्म की इस उद्दण्डता पर सारा साहित्य-जगत सकते में है।
हुआ यूं कि जम्बूद्वीपे भारतखण्डे दिल्लीनाम्निनगरे पीएमहाउसे (वाल्मिकी रामायण से साभार) दो पवनपुत्रियां संध्याकाल के अंतिम क्षणों में प्रधानमंत्री निवास में घुसकर उसी प्रकार ‘बिना कुछ बांका करवाए’ वापस निकल आईं ज्यांे त्रेता युग में पवनपुत्र हनुमान अपनी विलक्षण प्रतिभा के दम पर सुरसा महामाई के मुख में प्रवेश कर ‘बाल बांका करवाए बगैर’ ससम्मान बाहर निकल आए थे।
बजरंग बली के इस करतब से प्रसन्न होकर सुरसा ने न केवल उनकी पीठ थपथपाई बल्कि उन्हें लंका जाने का शाॅर्टकट भी बताया। (स्थानाभाव के कारण मैं इस घटना को एक पंक्ति में निपटा रहा हूँ, लेकिन तुलसीदास जी ने हनुमान जी के सूक्ष्मरूप की विशाल पीठ की इस थपथपाहट को 10-12 चैपाइयों में अभिव्यक्त किया है।)
कलयुग वाली स्टोरी लाइन भी ठीक-ठाक चल रही थी। सौंदर्य के विमान पर सवार हो, आकाशीय चुंबन उछालतीं हुईं, पवनपुत्रियां सुरक्षा एजंसियों के जबड़े में घुसकर बिना किसी दांत या जीभ के स्पर्श हुए रेसकोर्स रोड पर उतर आई थीं। सुरक्षा एजंसियों के सामने धर्मसंकट था कि वे चुंबन संभालें या सुरक्षा। लेकिन ज्यों ही इस दुविधा को त्याग तुलसीदास जी के कथनानुसार सुरसा.... मेरा मतलब है सुरक्षा एजंसियां इस कौतुक से इम्प्रेस होने को तैयार हुईं तभी उनकी नज़र सागर के जल में पड़ रही ‘सत्यानाश खड्ग’ की परछाई पर पड़ी। मुड़कर देखा तो मीडियासुर हाथ में खड्ग थामे ‘कैमरा दृष्टि’ से पूरे घटनाक्रम पर पैनी नज़र गड़ाए खड़ा था।
यह मीडियासुर त्रेता-युग का वही परमवीर असुर कुम्भकर्ण है, जिसने उस युग में सो-सोकर अपनी नींद का कोटा पूरा कर लिया था। अब वह मीडिया के रूप में पैदा हुआ है और सबकी नींदें हराम करने पर तुला है। इसको ब्रह्मा जी ने ‘टी.आर.पी.अस्त्र’ और ‘स्टिंग चक्र’ वरदान में दिए थे, लेकिन इस दुष्ट ने इनको गलाकर इनकी धातु से ‘सत्यानाश खड्ग’ बना ली।
इस दैत्य के भय से बहुत से फिल्म अभिनेताओं-अभिनेत्रियांे, सुरक्षा कर्मियों, घूसप्रेमियों, रघुवंशियों, दुकानदारों, सेल्समैनों, प्रेमियों, सोर्सलैस अफसरों और ऋषि मुनियों को अनिद्रा का महारोग हो गया है। इस रोग से मुक्ति पाने के लिए ये सब दुखी जन ‘सतर्कता’ की टैबलेट खा रहे हैं और ‘भरोसे’ से परहेज कर रहे हैं। राजनीति को इस दैत्य से कोई भय नहीं है। उसने बचपन में ही कानून देवता की तपस्या करके ‘जुगाड़ास्त्र’ प्राप्त कर लिया था।
बहरहाल, इस असुर के आतंक से कलयुग की इस महान रामायण के उक्त एपिसोड की स्टोरी लाइन में काफी परिवर्तन करना पड़ा। इस बार सुरसा स्वयं पवनपुत्रियों को ब्रह्मपाश में बांधकर लाई और लंकेश के सामने पेश किया। उनके इस उपद्रव से कुपित होकर उनके धर्मपिता पवनदेव ने उनकी पवनवेग से उड़ने की शक्तियां छीन लीं। आजकल पवन पुत्रियां ‘बेसहारा’ हैं, लेकिन अपनी प्रतिभा और आधारभूत शक्तियों के दम पर वे लंकेश के चंगुल से निकल कर मीडियासुर के महल में आ पहुंचीं।
मीडियासुर के विनम्र अनुमोदन पर उन्होंने कुछ समय तक वहां रहना स्वीकार कर लिया है। अब वे ग्लैमर-महल की तमाम वाटिकाओं में घूम-फिर रहीं हैं। महाकवि तुलसीदास जी जीवित होते तो इस सिचुएशन पर लिखते-
पीएम के घर कार घुसाई।
निसदिन हर चैनल पर छाई।।
तुम उपकार मीडियाहिं कीन्हा।
कौतुक करके स्टोरी दीन्हा।।
दुर्गम काज ‘लश्कर’ के जेते।
सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते।।
सब सुख लहै तुम्हारी सरना।
तुम धनवान काहू को डर ना।।
पुलिस-वुलिस निकट नहीं आवै।
सोनाटा जब कार दिखावै।।
दाईं आंख से प्रेस रिझाई।
बाईं आंख से पुलिस छकाई।।
जो निसदिन तुम न्यूज़ दिखाई।
सो अच्छी टी.आर.पी.पाई।।
© चिराग़ जैन
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Friday, July 14, 2006
बचपन
हँसी-ख़ुशी के वो लमहे हज़ार बचपन के
कभी तो लौटते दिन एक बार बचपन के
नहीं, दिमाग़ न थे होशियार बचपन के
तभी तो दिन थे बहुत ख़ुशगवार बचपन के
बड़े हुए तो बहुत लोग मिल गए लेकिन
बिछड़ चुके हैं सभी दोस्त-यार बचपन के
जो जिस्म को नहीं दिल को सुक़ून देते थे
बहुत अजीब थे वो रोज़गार बचपन के
लड़े जो सुब्ह तो फिर शाम साथ खेल लिए
कभी रहे नहीं मन में ग़ुबार बचपन के
सभी को चुपके से हर राज़ बता देते थे
सभी तो हो गए थे राज़दार बचपन के
ढले जो शाम तो गलियों में खेलने निकलें
बड़े हसीन थे वो इन्तज़ार बचपन के
बड़ों पे ज़िद रही, छोटों पे इक रुआब रहा
कहाँ बचे हैं वो अब इख़्तियार बचपन के
ज़ेह्न में कौंध के होठों पे बिखर जाते हैं
वो वाक़यात हैं जो बेशुमार बचपन के
© चिराग़ जैन
कभी तो लौटते दिन एक बार बचपन के
नहीं, दिमाग़ न थे होशियार बचपन के
तभी तो दिन थे बहुत ख़ुशगवार बचपन के
बड़े हुए तो बहुत लोग मिल गए लेकिन
बिछड़ चुके हैं सभी दोस्त-यार बचपन के
जो जिस्म को नहीं दिल को सुक़ून देते थे
बहुत अजीब थे वो रोज़गार बचपन के
लड़े जो सुब्ह तो फिर शाम साथ खेल लिए
कभी रहे नहीं मन में ग़ुबार बचपन के
सभी को चुपके से हर राज़ बता देते थे
सभी तो हो गए थे राज़दार बचपन के
ढले जो शाम तो गलियों में खेलने निकलें
बड़े हसीन थे वो इन्तज़ार बचपन के
बड़ों पे ज़िद रही, छोटों पे इक रुआब रहा
कहाँ बचे हैं वो अब इख़्तियार बचपन के
ज़ेह्न में कौंध के होठों पे बिखर जाते हैं
वो वाक़यात हैं जो बेशुमार बचपन के
© चिराग़ जैन
Tuesday, June 13, 2006
निश्छल सौंदर्य
उससे नहीं मिलूँ तो मन में बेचैनी सी रहती है
उसकी आँखों में इक पावन देवनदी-सी बहती है
उसके गोरे-नर्म गुलाबी पाँव बहुत ही सुंदर हैं
उसकी बातें निश्छलता का ठहरा हुआ समुन्दर हैं
उसकी वाणी मुझको सब वेदों से सच्ची लगती है
उसकी मीठी-मीठी बातें कितनी अच्छी लगती हैं
वो न जाने क्यों मुझसे अनजानी बातें करती है
मन की मलिका वो ढेरों मनमानी बातें करती है
वो अक़्सर मेरे कंधे पर सिर रखकर सो जाती है
वो जिससे दो घड़ी बोल ले उसकी ही हो जाती है
मुझको उसके बालों को सहलाने में सुख मिलता है
उसकी कोमल बाँहों में खो जाने में सुख मिलता है
वो मेरी सूनी आँखों में काजल बनकर लेटी है
वो फुलवारी-सी लड़की मेरी छोटी सी बेटी है
© चिराग़ जैन
उसकी आँखों में इक पावन देवनदी-सी बहती है
उसके गोरे-नर्म गुलाबी पाँव बहुत ही सुंदर हैं
उसकी बातें निश्छलता का ठहरा हुआ समुन्दर हैं
उसकी वाणी मुझको सब वेदों से सच्ची लगती है
उसकी मीठी-मीठी बातें कितनी अच्छी लगती हैं
वो न जाने क्यों मुझसे अनजानी बातें करती है
मन की मलिका वो ढेरों मनमानी बातें करती है
वो अक़्सर मेरे कंधे पर सिर रखकर सो जाती है
वो जिससे दो घड़ी बोल ले उसकी ही हो जाती है
मुझको उसके बालों को सहलाने में सुख मिलता है
उसकी कोमल बाँहों में खो जाने में सुख मिलता है
वो मेरी सूनी आँखों में काजल बनकर लेटी है
वो फुलवारी-सी लड़की मेरी छोटी सी बेटी है
© चिराग़ जैन
Tuesday, May 30, 2006
परोक्ष
किसी का क़द ज़रा उठ जाए तो सब देख लेते हैं
किसी का पद ज़रा उठ जाए तो सब देख लेते हैं
कहाँ गहराई है किसकी यही सबको नहीं दिखता
कोई बरगद ज़रा उठ जाए तो सब देख लेते हैं
© चिराग़ जैन
किसी का पद ज़रा उठ जाए तो सब देख लेते हैं
कहाँ गहराई है किसकी यही सबको नहीं दिखता
कोई बरगद ज़रा उठ जाए तो सब देख लेते हैं
© चिराग़ जैन
Tuesday, May 9, 2006
इक अदद इन्सान
मैंने कब चाहा कि सिर पर ताज होना चाहिए
बस मिरे माथे पे माँ का इक दिठोना चाहिए
चंद क़तरे ऑंख में पानी भी होना चाहिए
घर में ख़ुशियों के लिए कालीन या मखमल नहीं
एक छोटा-सा मुहब्बत का बिछोना चाहिए
ऑंसुओं की मूक भाषा को समझने के लिए
हर बशर में इक अदद इन्सान होना चाहिए
प्यार से इनक़ार भी कर दो तो ख़ुश हो जाएगा
कौन कहता है कि बचपन को खिलोना चाहिए
ज़िन्दगी बेशक़ ज़माने को अता कीजे मगर
दो घड़ी ख़ुद के लिए भी वक्त होना चाहिए
ज़िन्दगी को मंच कहते हो तो फिर इस मंच पर
आपका भी तो कोई किरदार होना चाहिए
महफ़िलें केवल ठहाकों के लिए तय हैं यहाँ
ऑंसुओं का जश्न ख़ुद के साथ होना चाहिए
बिन कलम बिन रोशनाई भी ग़ज़ल हो जाएगी
सिर्फ दिल में दर्द का सैलाब होना चाहिए
अश्क़ जब ऑंखों की हद को लांघ जाएँ तो ‘चिराग़’
अपनी बाँहों में सिमट जी भर के रोना चाहिए
© चिराग़ जैन
Friday, April 28, 2006
Monday, April 24, 2006
कोई यूँ ही नहीं चुभता
कोई चीखा है तो उसने बड़ी तड़पन सही होगी
कोई यूँ ही नहीं चुभता कहीं टूटन रही होगी
किसी को सिर्फ़ पत्थर-दिल समझ कर छोड़ने वालो
टटोलो तो सही उस दिल में इक धड़कन रही होगी
© चिराग़ जैन
कोई यूँ ही नहीं चुभता कहीं टूटन रही होगी
किसी को सिर्फ़ पत्थर-दिल समझ कर छोड़ने वालो
टटोलो तो सही उस दिल में इक धड़कन रही होगी
© चिराग़ जैन
Sunday, April 16, 2006
गुनाह
सज़ाओं में मैं रियायत का तलबदार नहीं
क़ुसूरवार हूँ, कोई गुनाहगार नहीं
मैं जानता हूँ कि मेरा क़ुसूर कितना है
मुझे किसी के फ़ैसले का इन्तज़ार नहीं
© चिराग़ जैन
क़ुसूरवार हूँ, कोई गुनाहगार नहीं
मैं जानता हूँ कि मेरा क़ुसूर कितना है
मुझे किसी के फ़ैसले का इन्तज़ार नहीं
© चिराग़ जैन
Saturday, April 1, 2006
बनिये
बुझा दें प्यास औरों की वो मिट्टी के घड़े बनिये
रहे अन्तस् में कोमलता भले बाहर कड़े बनिये
हमारा क़द हमारी भावनाओं से निखरता है
भले संख्या में कम हों हम मगर दिल के बड़े बनिये
नहीं ऐसा नहीं हम लोग केवल दान करते हैं
हक़ीक़त ये है हम प्रतिभाओं का सम्मान करते हैं
हमें भगवान बनने की कोई ख्वाहिश नहीं लेकिन
वो हर सत्कर्म करते हैं जो बस इन्सान करते हैं
जो दुनिया को फतह कर ले, वो बल-उत्साह हममें है
सभी के घर जले चूल्हा, ये इक परवाह हममें है
जो इक हारे हुए राणा को अपनी सम्पदा दे कर
पुनः लड़ने की हिम्मत दे, वो भामाशाह हममें है
© चिराग़ जैन
रहे अन्तस् में कोमलता भले बाहर कड़े बनिये
हमारा क़द हमारी भावनाओं से निखरता है
भले संख्या में कम हों हम मगर दिल के बड़े बनिये
नहीं ऐसा नहीं हम लोग केवल दान करते हैं
हक़ीक़त ये है हम प्रतिभाओं का सम्मान करते हैं
हमें भगवान बनने की कोई ख्वाहिश नहीं लेकिन
वो हर सत्कर्म करते हैं जो बस इन्सान करते हैं
जो दुनिया को फतह कर ले, वो बल-उत्साह हममें है
सभी के घर जले चूल्हा, ये इक परवाह हममें है
जो इक हारे हुए राणा को अपनी सम्पदा दे कर
पुनः लड़ने की हिम्मत दे, वो भामाशाह हममें है
© चिराग़ जैन
Thursday, March 30, 2006
नमक
यूँ चखा हमने बहुत दुनिया के स्वादों का नमक
है ज़माने से अलग माँ की मुरादों का नमक
तू परिन्दा है तिरी परवाज़ ना दम तोड़ दे
लग गया ग़र शाहज़ादों के लबादों का नमक
आँसुओं की शक़्ल ले लेंगी तड़प और सिसकियाँ
दिल के छालों पर जो गिर जाएगा यादों का नमक
दावतें धोखे की हरगिज़ हो न पाएंगीं लज़ीज़
ग़र न होगा उनमें कुछ यारों के वादों का नमक
दिल की धरती पर अमन के फूल महकेंगे नहीं
जम गया मिट्टी पे ग़र क़ातिल इरादों का नमक
© चिराग़ जैन
है ज़माने से अलग माँ की मुरादों का नमक
तू परिन्दा है तिरी परवाज़ ना दम तोड़ दे
लग गया ग़र शाहज़ादों के लबादों का नमक
आँसुओं की शक़्ल ले लेंगी तड़प और सिसकियाँ
दिल के छालों पर जो गिर जाएगा यादों का नमक
दावतें धोखे की हरगिज़ हो न पाएंगीं लज़ीज़
ग़र न होगा उनमें कुछ यारों के वादों का नमक
दिल की धरती पर अमन के फूल महकेंगे नहीं
जम गया मिट्टी पे ग़र क़ातिल इरादों का नमक
© चिराग़ जैन
Thursday, March 16, 2006
विवशता
चुप-चुप देखती थीं राधिका कन्हैया जी को
हौले-हौले उठ रहे शोर से विवश थी
साँवरे के पास खींच लाती थी जो बार-बार
प्रीत की अनोखी उस डोर से विवश थी
इत होरी की उमंग, उत दुनिया से तंग
फागुन में गोरी चहुँ ओर से विवश थी
लोक-लाज तज भगी चली आई गोकुल में
मनवा में उठती हिलोर से विवश थी
© चिराग़ जैन
हौले-हौले उठ रहे शोर से विवश थी
साँवरे के पास खींच लाती थी जो बार-बार
प्रीत की अनोखी उस डोर से विवश थी
इत होरी की उमंग, उत दुनिया से तंग
फागुन में गोरी चहुँ ओर से विवश थी
लोक-लाज तज भगी चली आई गोकुल में
मनवा में उठती हिलोर से विवश थी
© चिराग़ जैन
Tuesday, March 14, 2006
फागुन की शाम
फागुन की शाम कैसी हवा चली हाय राम
जोगियों का दिल धक-धक करने लगा
सारी सोच बूझ घास-फूस सी बिखर गई
मन को खुमार चकमक करने लगा
पीपल का पेड़ सारे पंछियों के संग मिल
झूम-झूम मार बक-बक करने लगा
और चुपचाप मेरा मानस भी हौले-हौले
प्रेम के मृदंग पे धमक करने लगा
© चिराग़ जैन
जोगियों का दिल धक-धक करने लगा
सारी सोच बूझ घास-फूस सी बिखर गई
मन को खुमार चकमक करने लगा
पीपल का पेड़ सारे पंछियों के संग मिल
झूम-झूम मार बक-बक करने लगा
और चुपचाप मेरा मानस भी हौले-हौले
प्रेम के मृदंग पे धमक करने लगा
© चिराग़ जैन
Monday, March 13, 2006
हम हाथ मल रहे हैं
हमको हमारे ऐसे हालात खल रहे हैं
रग-रग में बेक़ली के सागर मचल रहे है
उनकी झिझक ने इतना लाचार कर दिया है
सब हाथ में है फिर भी, हम हाथ मल रहे हैं
© चिराग़ जैन
रग-रग में बेक़ली के सागर मचल रहे है
उनकी झिझक ने इतना लाचार कर दिया है
सब हाथ में है फिर भी, हम हाथ मल रहे हैं
© चिराग़ जैन
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Tuesday, February 14, 2006
बेचैनियाँ
वक्त क़े हाथों मिलीं मायूसियाँ हैं किस क़दर
रुत बिछड़ने की है और नज़दीकियाँ हैं किस क़दर
एक ही पल में ख़ुशी भी है, तड़प भी, दर्द भी
क्या बताएँ इस घड़ी बेचैनियाँ हैं किस क़दर
© चिराग़ जैन
रुत बिछड़ने की है और नज़दीकियाँ हैं किस क़दर
एक ही पल में ख़ुशी भी है, तड़प भी, दर्द भी
क्या बताएँ इस घड़ी बेचैनियाँ हैं किस क़दर
© चिराग़ जैन
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Saturday, February 11, 2006
मुहब्बत हार जाती है
दिलों में पल रही चाहत सदा बेकार जाती है
भला सोहनी कहाँ कच्चे घड़े पर पार जाती है
वो लैला का फ़साना हो या फिर मेरी कहानी हो
मुक़द्दर जीत जाता है, मुहब्बत हार जाती है
© चिराग़ जैन
भला सोहनी कहाँ कच्चे घड़े पर पार जाती है
वो लैला का फ़साना हो या फिर मेरी कहानी हो
मुक़द्दर जीत जाता है, मुहब्बत हार जाती है
© चिराग़ जैन
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काव्य के गहन सिध्दांत
साहित्य संस्कृति का दर्पण है। इसी सूक्ति को ध्यान में रखते हुए हिन्दी कविता हमेशा से ही हमारे सांस्कृतिक मूल्यों का अनुपालन करती रही है। यह और बात है कि इन सिध्दांतों की आड़ में काव्य के मूल सिध्दांत और स्वयं कविता भी बैकुण्ठवासी हो चली है।
हमारी संस्कृति हमेशा से ही अतिथियों को भगवान मानती रही है। यह दीगर बात है कि इसी सिध्दांत का लाभ उठाकर रावण सीता को उठाकर ले गया था और हरिश्चंद्र को राजा के पद से च्युत होकर श्मशान का पंडित बनना पड़ा और न जाने क्या-क्या अपमान भोगना पड़ा। ख़ैर ‘अतिथिदेवोभवः’ के सिध्दांत की परमकृपा के चलते बाबा तुलसी अपना गृहनगर छोड़ते ही परमात्मा स्वरूप पूजे जाने लगे। यदि उस ज़माने में हवाई जहाजों का चलन होता तो रामचरितमानस् की पहली प्रति यूएसए अथवा यूरोप के किसी ‘बड़े’ प्रकाशक बंधु ने आर्टपेपर पर फोरकलर में छापी होती। ...लेकिन लाल रंग तिसको लगा, जिसके बड़ भागा (इसी कारण हतभागियों की किताब काले रंग से छपती है)।
इस सिध्दांत में भारतीय जुगाड़ संहिता की धारा 420 के अनुच्छेद 1 में एक छूट मिलती है- ‘यह कि यदि कोई धनिक जो कि भारत का नागरिक है, किसी विशेष अथवा सामान्य कारण से भारतीय भौगोलिक क्षेत्र से बाहर अपना निवास निर्माण नहीं कर पाया है तो भी उसकी खाता विवरणिका (बैंक स्टेटमेंट) में उपलब्ध शेष राशि के न्यूनतम नव अंकीय होने को आधार मानकर उसके काव्य को श्रेष्ठ काव्य की श्रेणी में गणित किया जा सकता है।’ जाकी कृपा पंगु गिरि लंघै, अंधे को सब कुछ दरसाई! बहिरो सुरै मूक पुनि बोलै, रंक चले सिर छत्र धराई! (यहाँ पर जाकी से सूरदास जी का तात्पर्य बैंक बैलेंस से है)।
इसी धारा के अनुच्छेद 2 के अनुसार- ‘यदि कोई भारतीय नागरिक राजकीय सेवा में किसी ऐसे पद पर विराजमान है, जहाँ से वह साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादकों अथवा अकादमियों के सचिवों को विदेश यात्रा अथवा पुरस्कारों का वरदान देने में सक्षम हो तथा इस योग्यता के साथ-साथ स्वयं को कवि भी मानता हो तो उसके काव्यकर्म का सम्मान करना संपादकों तथा अकादमियों का परम कर्त्तव्य बन जाता है।’ जा पर कृपा राम की होई, ता पर कृपा करें सब कोई (इस चौपाई के रचनाकाल में घट-घटवासी राम सरकारी कुर्सी में जा बसे थे)।
बाद में कुछ विशेष प्रयोजनों के चलते इस धारा में एक अनुच्छेद और जोड़ा गया जिसके अनुसार- ‘यह कि कोई धनाढ्य मनुज जो कि एक पंक्ति भी शुध्द नहीं लिख सकता, ऐसे नागरिक को यदि कवि बनने की उत्कंठा जागे तो उसकी भावनाओं को ध्यान में रखते हुए प्रकाशकों का दायित्व बन जाता है कि भारतीय संविधान के समानता के अधिकार का प्रयोग करते हुए उन्हें पाण्डुलिपि तैयार करके देवें। इसके लिए समय-समय पर कुछ ‘वास्तविक’ निर्धन कवियों की पाण्डुलिपि को यह कहकर निरस्त किया जाना आवश्यक है कि उनकी कविताएँ तो कूड़ा हैं। ऐसा कहकर निर्धन कवियों की रचनाओं को गुदड़ी में फेंक देना अपरिहार्य है ताकि समय पड़ने पर ‘गुदड़ी के लाल’ ढूंढे जा सकें और एक उत्तम पुरस्कारणीय पाण्डुलिपि तैयार की जा सके। विदेशी होगा पहला कवि, प्लेन से आया होगा गान, निकलकर रिजेक्टिड से चुपचाप, छपी होगी कविता अनजान।
इस प्रकार सभी भारतीय कवियों, साहित्यकारों, अप्रवासियों, धनिकों, प्रकाशकों, अधिकारियों तथा अन्य प्रत्येक नागरिक का धन्यवाद करते हुए अपनी आदत के अनुसार एक श्लोक को उध्दृत करना चाहूंगा। यह श्लोक प्रूफ की अशुध्दियों के चलते लम्बे समय से ग़लत छपता रहा है। आज मैं यहाँ पर उसका असली रूप प्रकाशित कर रहा हूँ-
मा लेखक प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत् धनाढ्यजुगाड़ादेकमवधी काव्यमोहितम्।।
अर्थात् हे लेखक! तुझे प्रतिष्ठा, आदर-सत्कार, मान-मर्यादा, गौरव, प्रसिध्दि, ख्याति, यश, कीर्ति, स्थिति, स्थान, स्थापना, ठौर, ठिकाना, ठहराव, आश्रय इत्यादि नित्य-निरंतर कभी भी न मिले, क्योंकि तूने इस जुगाड़तंत्र में निमग्न धनिकों, राजनायिकों, अप्रवासियों (जिनसे प्रकाशकों व अकादमिकों को कुछ लाभ हो सकता था) की, बिना किसी पत्रिका में प्रकाशित हुए ही आलोचना की है।
© चिराग़ जैन
Saturday, January 28, 2006
तुझको कुछ भी याद नहीं?
तेरी पलकों में सपनों की दुनिया अब आबाद नहीं
मेरी यादें तेरे दिल तक पहुँचाती आवाज़ नहीं
तुझको कुछ भी याद नहीं?
तू मुझको रजनीबाला का मूर्तरूप सी लगती थी
बातें तेरी, मुझे पौह की मधुर धूप सी लगती थी
तेरा यौवन मुझे पंत की सोनजुही में दीखा था
तूने मेरी यादों में रातों को जगना सीखा था
वो सारी बातें अब तेरे जीवन की सौगात नहीं
तुझको कुछ भी याद नहीं?
फिल्मी गाने हम दोनों को आत्मकथा-से लगते थे
मेरे आँसू तुझको अपनी मौन व्यथा से लगते थे
इक-दूजे से आँख मिला हम बिन कारण मुस्काते थे
मिलने की उत्सुकता में जल्दी सोकर उठ जाते थे
अब बेचैनी से मन में उठते वो झंझावात नहीं
तुझको कुछ भी याद नहीं?
बस की पिछली सीट पे बैठे हम घण्टों बतियाते थे
इक-दूजे के कंधे पर सिर रखकर हम सो जाते थे
मेरे मन की बातें तू बिन बोले ही सुन लेती थी
मेरी मुस्कानों के मतलब मन ही मन गुन लेती थी
क्या अब तेरे अंतस में वो मधुर प्रेम का राग नहीं
तुझको कुछ भी याद नहीं?
घर वालों के लिए रोज़ हम नए बहाने गढ़ते थे
इक-दूजे के पत्र किताबों में रख-रखकर पढ़ते थे
हम दोनों को साथ देखकर दुनिया ताने कसती थी
लोगों की बातें सुनकर तू हौले-हौले हँसती थी
सोचा करते थे, छोड़ेंगे इक-दूजे का साथ नहीं
तुझको कुछ भी याद नहीं?
© चिराग़ जैन
मेरी यादें तेरे दिल तक पहुँचाती आवाज़ नहीं
तुझको कुछ भी याद नहीं?
तू मुझको रजनीबाला का मूर्तरूप सी लगती थी
बातें तेरी, मुझे पौह की मधुर धूप सी लगती थी
तेरा यौवन मुझे पंत की सोनजुही में दीखा था
तूने मेरी यादों में रातों को जगना सीखा था
वो सारी बातें अब तेरे जीवन की सौगात नहीं
तुझको कुछ भी याद नहीं?
फिल्मी गाने हम दोनों को आत्मकथा-से लगते थे
मेरे आँसू तुझको अपनी मौन व्यथा से लगते थे
इक-दूजे से आँख मिला हम बिन कारण मुस्काते थे
मिलने की उत्सुकता में जल्दी सोकर उठ जाते थे
अब बेचैनी से मन में उठते वो झंझावात नहीं
तुझको कुछ भी याद नहीं?
बस की पिछली सीट पे बैठे हम घण्टों बतियाते थे
इक-दूजे के कंधे पर सिर रखकर हम सो जाते थे
मेरे मन की बातें तू बिन बोले ही सुन लेती थी
मेरी मुस्कानों के मतलब मन ही मन गुन लेती थी
क्या अब तेरे अंतस में वो मधुर प्रेम का राग नहीं
तुझको कुछ भी याद नहीं?
घर वालों के लिए रोज़ हम नए बहाने गढ़ते थे
इक-दूजे के पत्र किताबों में रख-रखकर पढ़ते थे
हम दोनों को साथ देखकर दुनिया ताने कसती थी
लोगों की बातें सुनकर तू हौले-हौले हँसती थी
सोचा करते थे, छोड़ेंगे इक-दूजे का साथ नहीं
तुझको कुछ भी याद नहीं?
© चिराग़ जैन
Thursday, January 19, 2006
ख़ूब रोता हूँ
मैं अब जिन दोगलों के बीच रह कर ख़ूब रोता हूँ
मैं उनसे देर तक लम्बी ज़िरह कर ख़ूब रोता हूँ
मेरी मासूमियत तो बहुत पहले मर चुकी लेकिन
मैं सच बतलाऊँ अब भी झूठ कह कर ख़ूब रोता हूँ
मैं उनसे देर तक लम्बी ज़िरह कर ख़ूब रोता हूँ
मेरी मासूमियत तो बहुत पहले मर चुकी लेकिन
मैं सच बतलाऊँ अब भी झूठ कह कर ख़ूब रोता हूँ
© चिराग़ जैन
Monday, January 16, 2006
गुलशन
मैंने गुलशन को कई बार सँवरते देखा
हर तरफ़ रंग का ख़ुश्बू का समा होता है
पंछियों की चहक सरगम का मज़ा देती है
चांदनी टूट के गुलशन में उतर आती है
धूप पत्तों को उजालों से सजा देती है
कोई अल्हड़, कोई मदमस्त हवा का झोंका
शोख़ कलियों का बदन छू के निकल जाता है
इस शरारत से भी कलियों को मज़ा आता है
सबसे नज़रें बचा के कलियाँ चटक जाती हैं
फूल खिलते हैं तो गुलशन में बहार आती है
हर तरफ़ रंग का ख़ुश्बू का समा होता है
पंछियों की चहक सरगम का मज़ा देती है
चांदनी टूट के गुलशन में उतर आती है
धूप पत्तों को उजालों से सजा देती है
कोई अल्हड़, कोई मदमस्त हवा का झोंका
शोख़ कलियों का बदन छू के निकल जाता है
इस शरारत से भी कलियों को मज़ा आता है
सबसे नज़रें बचा के कलियाँ चटक जाती हैं
फूल खिलते हैं तो गुलशन में बहार आती है
पर ये रंगीन फ़ज़ा और ये गुलशन की बहार
वक़्त के साथ वीराने में बदल जाती है
धूप की तल्ख़ी उड़ाती है रंग फूलों का
आंधियाँ नूर की महफ़िल को फ़ना करती हैं
पत्तियाँ सूख के तिनकों की शक़्ल लेती हैं
तिनके गुलशन में बेतरतीब बिखर जाते हैं
चांदनी टूट के रोती है इस तबाही को
अब इसे देखने कोई यहाँ नहीं आता
कोई हलचल यहाँ दिखाई ही नहीं देती
अब ये गुलशन यूँ ही वीरान पड़ा रहता है
एक कोने में कहीं ज़र्द से पत्तों में छिपा
एक बिरवा किसी का इंतज़ार करता है
उसको मालूम है कल फिर से बहार आएगी
फिर से सूरत इसी गुलशन की सँवर जाएगी
यही गुलशन, यही पत्ते, यही गुंचे मिलकर
पूरे आलम को बहारों से फिर सजा देंगे
ज़र्द पत्तों में ये वीराना दुबक जाएगा
हर तरफ़ रंग का, ख़ुश्बू का नशा छाएगा
सूखे तिनके किसी का घोसला बन जाएंगे
फिर से सब लोग इस गुलशन में चले आएंगे
© चिराग़ जैन
वक़्त के साथ वीराने में बदल जाती है
धूप की तल्ख़ी उड़ाती है रंग फूलों का
आंधियाँ नूर की महफ़िल को फ़ना करती हैं
पत्तियाँ सूख के तिनकों की शक़्ल लेती हैं
तिनके गुलशन में बेतरतीब बिखर जाते हैं
चांदनी टूट के रोती है इस तबाही को
अब इसे देखने कोई यहाँ नहीं आता
कोई हलचल यहाँ दिखाई ही नहीं देती
अब ये गुलशन यूँ ही वीरान पड़ा रहता है
एक कोने में कहीं ज़र्द से पत्तों में छिपा
एक बिरवा किसी का इंतज़ार करता है
उसको मालूम है कल फिर से बहार आएगी
फिर से सूरत इसी गुलशन की सँवर जाएगी
यही गुलशन, यही पत्ते, यही गुंचे मिलकर
पूरे आलम को बहारों से फिर सजा देंगे
ज़र्द पत्तों में ये वीराना दुबक जाएगा
हर तरफ़ रंग का, ख़ुश्बू का नशा छाएगा
सूखे तिनके किसी का घोसला बन जाएंगे
फिर से सब लोग इस गुलशन में चले आएंगे
© चिराग़ जैन
Friday, January 13, 2006
दिखावा
मुहब्बत में सनम के बिन कोई मंज़र नहीं दिखता
सिवा दिलबर कोई भीतर कोई बाहर नहीं दिखता
किसी को हर तरफ़ महबूब ही महसूस होता है
किसी को दूर जाकर भी ख़ुदा का घर नहीं दिखता
सिवा दिलबर कोई भीतर कोई बाहर नहीं दिखता
किसी को हर तरफ़ महबूब ही महसूस होता है
किसी को दूर जाकर भी ख़ुदा का घर नहीं दिखता
© चिराग़ जैन
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