गत दो दशक से मेरी लेखनी विविध विधाओं में सृजन कर रही है। अपने लिखे को व्यवस्थित रूप से सहेजने की बेचैनी ही इस ब्लाॅग की आधारशिला है। समसामयिक विषयों पर की गई टिप्पणी से लेकर पौराणिक संदर्भों तक की गई समस्त रचनाएँ इस ब्लाॅग पर उपलब्ध हो रही हैं। मैं अनवरत अपनी डायरियाँ खंगालते हुए इस ब्लाॅग पर अपनी प्रत्येक रचना प्रकाशित करने हेतु प्रयासरत हूँ। आपकी प्रतिक्रिया मेरा पाथेय है।
Thursday, December 31, 2015
अलविदा 2015
पाँच मिनिट में दिखलाता हूँ आओ तुमको पूरा साल
शुरू हुआ जब साल तो बीजेपी के दिल पर था कुछ भार
भूल नहीं पाए थे मोदी काश्मीर की आधी हार
लेकिन तभी पढ़ा मोदी ने ऐसा इक अमरीकी मंत्र
अतिथि बनकर आए ओबामा झूम उठा अपना गणतंत्र
गली-गली घूमे मोदी जी, ओबामा का थामे हाथ
करी रेडियो स्टेशन पर नए यार से मन की बात
विदा हुए ओबामा जिस पल उस पल आ पहुँचा चुनाव
अमित शाह ने झोंक दिया सब बीजेपी का लश्कर लाव
गली-गली में रैली करके मोदी जी ने मांगे वोट
लेकिन दिल्ली की जनता ने किया गज़ब का ही विस्फोट
कजरी की खांसी सुन ली पर नहीं सुनी मोदी की बीन
झाडू वाले सड़सठ आए बीजेपी के केवल तीन
पहली बार हुई भारत में राजनीति की ऐसी रेस
खाता तक भी खोल नहीं पाई राहुल जी की कांग्रेस
अच्छे दिन बीते तो आया ऐसा इक चैतरफ़ा खोट
जख़्मों में मिर्ची-सा लागा मोदी का लखटकिया कोट
अभी ठीक से थमा नहीं था दिल्ली वाला ये हड़कंप
उधर आ गया काठमांडु में दर्दनाक भीषण भूकंप
पशुपति की नगरी में ऐसा तांडव करती नाची मौत
धरती की इक करवट बन गई मानव की ख़ुशियों की सौत
हार गई पर मौत, देखकर मानवता का साथी भाव
सारी दुनिया मरहम लेकर भरने पहुँच गई जब घाव
इधर रंग लाया दिल्ली में रामदेव का बिज़निस जोग
पीएम ने जब किया राजपथ पर जाकर बाबा का योग
योग दिवस की धूम मच गई गूंज उठा दुनिया का व्योम
अमरीका अनुलोम कर रहा, रूसी उसका ठीक विलोम
नाॅर्थ-ईस्ट में इक दिन आई, इक ऐसी दुखियारी शाम
खड़े-खड़े अशरीर हो गए, डाॅक्टर एपीजे कलाम
इसी बीच हम सबने देखा न्याय नीति का अद्भुत मेल
दो घंटे में हाईकोर्ट से सलमानों को मिल गई बेल
मुम्बई हमलों के दोषी की दया याचिका हो गई फेल
शुरू हुआ फिर भारत भर में धर्म-सम्प्रदायों का खेल
शर्म आ रही है कहने में ऐसी घटिया ओछी बात
हत्यारे की रक्षा करने लगी अदालत आधी रात
उधर दादरी में छोरों ने गौरक्षा का चोला ओढ़
लगा दिया पूरे भारत को हिन्दू-मुस्लिम वाला कोढ़
हिन्दू-मुस्लिम, सपा-भाजपा से पाई भी ना थी पार
तभी सड़क पर आरक्षण का ढोल पीट गए पाटीदार
आसमान में जाकर बैठी, ऐसी तनकर तूअर दाल
आम आदमी सन्न रह गया, चांदी काटे फिरे दलाल
सहनशीलता के मुद्दे पर यकदम ऐसा उठा बवाल
सम्मानों को वापिस करने दौड़ पड़े वाणी के लाल
सहिष्णुता का डंका पिटते.पिटते हो गई काफी देर
दिल्ली में रैली करने आए ख़ुद चलकर अनुपम खेर
दुश्मन को कमज़ोर मानने की फिर से कर ली मिस्टेक
छोटे-मोटे, टेढ़े-मेढ़े सभी विरोधी हो गए एक
मोदी देख तलक़ ना पाए, इन सब बातों का रेफरेंस
पटना में रपटा औंधे मुँह अमित शाह का काॅन्फिडेंस
लालू ने मोदी को पटका, धरे रह गए सारे ठाठ
सांठगांठ ने उम्मीदों को दी चैड़े में धोबीपाट
टूट गए सब टिके हुए थे न्यायालय पर जो अरमान
हत्याओं के इल्ज़ामों से पूरे छूट गए सलमान
दिल्ली के सचिवालय में अब रहे केजरी खुलकर खाँस
लोकपाल फिर लटक गया पर वेतन का बिल हो गया पास
समझ लिया है स्वयं केजरी ने ख़ुद को ही सैमी गाॅड
पाॅल्यूशन पर रोक लगाने को ले आए ईवन-आॅड
लेकिन विचलित नहीं कर सका है पीएम को कोई कलेश
मोदी जी ने घूम लिए हैं छप्पन दिन में बाईस देश
मेमन, दाउद, काला धन और डाॅलर, सोना, कच्चा तेल
संथारा, पर्यूषण, अरहर, हिन्दू, मुस्लिम, जाट, पटेल
सिंगापुर, बैंकाॅक, बनारस, फ्रांस, जर्मनी, गांधीधाम
सारे मुद्दे फीके पड़ गए, साल रहा मोदी के नाम
© चिराग़ जैन
Wednesday, December 30, 2015
सब कुछ सामान्य है
Sunday, December 27, 2015
दूसरों के जूते में
दूसरों के जूते में
पैर रखकर सोचने की
तब मुझे एहसास हुआ
कि जूते घिसना बेहतर है
पैर छिलने से।
© चिराग़ जैन
Thursday, December 24, 2015
बाजीराव मस्तानी
Wednesday, December 23, 2015
नया पड़ोसी
नया पड़ोसी आया है।
दुश्मन लगता है
पिछले जन्म का।
कमबख्त
पुराने गानों का शौक़ीन है।
रोज़ रात
दुनिया भर के सोने के बाद
युद्ध शुरू करता है।
कभी रफ़ी, कभी हेमंत, कभी लता।
ख़ुद तो सो जाता है
आध-पौन घंटे में
लेकिन उसे क्या पता
क्या क्या गँवा बैठता हूँ मैं
रोज़ रात।
बदला भी लूँ तो कैसे
उसके लिए तो ये सब
सिर्फ़ लोरी के काम आता है
उसे क्या पता
क्या होता है
जब रेकॉर्ड पर बजता है-
"मेरा कुछ सामान तुम्हारे पास पड़ा है"
-चिराग़ जैन
Monday, December 21, 2015
बेवफ़ा को इश्क़ हो जाए
वफ़ा ऐसी ग़ज़ब हो, बेवफ़ा को इश्क़ हो जाए
इबादत वो कि रब बंदे का दीवाना बना भटके
मुहब्बत वो कि आशिक़ से ख़ुदा को इश्क़ हो जाए
© चिराग़ जैन
Friday, December 18, 2015
या के कीड़े पड़ें.
Wednesday, December 16, 2015
उम्र मंदिर जाने की नहीं
© चिराग़ जैन
Saturday, December 12, 2015
शिंजो आबे की भारत यात्रा और बुलेट ट्रेन
Monday, December 7, 2015
पतंजलि
मार्केट में जो सबसे बढ़िया मंजन है वो भी बाबा ने बनाया है और पतंजलि का है।
मार्केट में जो सबसे बढ़िया मैगी है, वो भी बाबा ने ही बनाई है और वो भी पतंजलि की है।
और अब तो हद्द हो गई। बाबा ने एबीपी न्यूज़ में बताया है कि मार्केट में जो सबसे बढ़िया प्रधानमंत्री है वो भी बाबा ने ही बनाया है।
मतलब पतंजलि मैगी की भारी क़ामयाबी के बाद अब पतंजलि मोदी का भी विज्ञापन आएगा।
© चिराग़ जैन
Wednesday, November 25, 2015
इनक्रेडिबल इण्डिया
Saturday, November 21, 2015
हल्ला : विकास का एक पर्याय
Thursday, November 19, 2015
संतृप्ति
फिर किसी मीत की आरज़ू ना रही
प्यार में हार कर जो मिला है मुझे
अब किसी जीत की आरज़ू ना रही
साँवरे के लिए गीत गाती फिरी
एक मीरा दीवानी कहाती फिरी
क्षण समर्पण का जब तक न हासिल हुआ
तब तलक हर नदी गुनगुनाती रही
राधिका कुंजवन में मिली श्याम से
फिर उसे गीत की आरज़ू ना रही
शब्द आँखों में आकर ठहरने लगे
भाव चेहरे की लाली में ढलने लगे
कण्ठ में जम गए ज्ञान के व्याकरण
अर्थ अधरों पे आकर पिघलने लगे
श्वास का राग धड़कन से ऐसा मिला
मुझको संगीत की आरज़ू ना रही
अबकी सावन मिलेगा तो पूछूंगी मैं
मेघ पहले क्यों ऐसे न लाया कभी
बिजलियों ने न इतना प्रफुल्लित किया
कोयलों ने न यूँ मन लुभाया कभी
मन के चातक ने कैसा अमिय चख लिया
अब उसे छींट की आरज़ू ना रही
© चिराग़ जैन
Saturday, November 14, 2015
पेरिस में आतंकी हमला
Thursday, November 12, 2015
मोदी ...मोदी
Monday, November 9, 2015
उजियारे के अवशेष
पुराना मकान
कच्चा-पक्का फ़र्श
दीमक लगी जर्जर चौखट
और
देहरी के दोनों ओर
चिकनाई के
दो गोल निशान!
मुद्दत हुई
हर साल
दीपावली पर
दीपक जलाते थे दो हाथ।
फिर
अपने पल्लू की ओट में छिपाकर
हवा के झोंके से बचाते हुए
दीवार की आड़ में
हौले से
देहरी पर
दो दीपक
धर आते थे दो हाथ।
न जाने क्यों
आज फिर से
जीवंत हो उठी है माँ!
© चिराग़ जैन
Saturday, November 7, 2015
विज्ञापन से पता चला
मार्च फॉर इण्डिया
इसे कहते हैं बाज़ी
धनतेरस का दीया
धनतेरस का दीया
जोड़ रही हूँ।
ध्यान रखियो
बाहर मत आइयो।’
-कहते हुए
हर साल
धनतेरस पर
दीपक बालती थी माँ।
अगली सुबह
चुरा लेता था मैं
उस दीये के
तेल में भीगा रुपैया।
‘क्यों रे
ये दीये में से
सवाया किसने उठाया’
‘मुझे नहीं पता मम्मी
मैंने तो
दीया ही नहीं देखा
आपने ही तो कहा था
अंदर रहने को।’
मेरा धनतेरस तो
शुभ ही रहता था
लेकिन
माथे में त्यौरियाँ डाले
देर तक
बड़बड़ाती थी माँ!
आज दीवाली के लिए
फूल लेने बाहर निकला
किसी की चैखट पर
दीया रखा था
धनतेरस का
पाँच रुपैये भी थे उसमें
तेल में भीगे हुए।
...किसी ने
चुराए ही नहीं अब तक।
जी तो बहुत किया
चुराने का
लेकिन छोड़ आया
...उस बड़बड़ को मिस करूंगा!
© चिराग़ जैन
Thursday, October 29, 2015
इच्छा
मेरे ख़ुदा तू मुझे शोहरतें अता करना
मैं रोज़ रात इक हुजूम से मुख़ातिब हूँ
ख़ुद से मिल पाऊं इतनी मोहलतें अता करना
© चिराग़ जैन
Tuesday, October 20, 2015
गौरक्षा की दुहाई
Sunday, October 18, 2015
जोकर का तमाशा कभी नहीं रुकता
लड़ाई क़ायम रहनी चाहिये। जंग चलती रहनी चाहिये। जोकर का तमाशा कभी नहीं रुकता। हिन्दू-मुस्लिम के खेल से ऊब जाओ तो विचारधाराओं का खेल खेलो। उनसे मन भर जाए तो जातियों का पंगा डाल दो। जाति हटे तो भाषा, भाषा हटे तो उत्तर-दक्षिण, ये नहीं तो कुछ और, कुछ और नहीं तो कुछ भी और। लेकिन मनोरंजन होता रहना चाहिये।
कई बार तो फ़ख़्र होता है। कोई ज़र्रा नहीं छोड़ा जहाँ कलेस न हो। जम्मू वालों को घाटी वालों का दुश्मन बना दिया। यदि किसी बेवक़ूफ़ ने जम्मू-कश्मीर के बीच सौहार्द क़ायम करने में सफ़लता पा ली तो जम्मू-कश्मीर को पूरे भारत का दुश्मन बना दिया। पंजाब वाले भाषा पर नहीं लड़ते तो उनको ख़ालिस्तान की सौगात दे दी। राजस्थान वाले भाषा-धर्म पर नहीं लड़ते तो उनको आरक्षण पर लपेटे में ले लिया। गुजराती शांतिप्रिय होने का दावा कर बैठे तो उनको पटेल आरक्षण में बिज़ी कर दिया। हरियाणा को खाप देकर हिल्ले से लगा रखा है तो बिहार को ऊँच-नीच के चक्रव्यूह में गोल-गोल घुमा रखा है। उत्तर प्रदेश इस मामले में काफ़ी समृद्ध है। वहाँ मुज़फ़्फ़रनगर, दादरी, दनकौर वगैरा कई ऐसे उत्पादक प्रदेश हैं जहाँ कुछ न कुछ चलता ही रहता है। ये सब दबेगा तो देवबंद उछल जाएगा। वो दबेगा तो मथुरा या काशी बोल पड़ेगी। और सब कुछ दब गया तो राम जी के भरोसे लड़ाई जारी रहेगी। कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश को लेकर कोई चिंता नहीं है। उत्तराखंड पलायन से जूझ रहा है। उधर बंगाल भी जैसे तैसे अपना काम चला ही लेता है। वहाँ भाषा को लेकर इतनी निष्ठा है कि उनको भेदभाव करने के लिये प्रवासी मिल जाते हैं। पूर्वोत्तर के पास लड़ने के लिये अन्तरराष्ट्रीय सपोर्ट है। उड़ीसा ने अमीर ग़रीब वाली पुरातन पद्धति को ज़िंदा रखने का महती कार्य किया है। झारखंड के पास लड़ने के लिये बिहार वाली ऊँच नीच की परंपरा भी है और उड़ीसा वाली आर्थिक असमानता की भी। छत्तीसगढ़ जंगल और शहर की लड़ाई में मशगूल है। मध्य प्रदेश हिन्दू और नॉन-हिन्दू से पेट पाल रहा है। महाराष्ट्र उत्तर भारतीयों और किसानों के दम पर ख़बरों में बना रहता है। तेलांगाना का मुद्दा निपटा तो एक बार लगा था कि आंध्रवासी निठल्ले हो जाएंगे लेकिन भाषा ने उनको भी बेरोज़गारी से बचा लिया। तमिलों को भाषा के रहते कोई दूसरा कुँआ खोदने की ज़रूरत ही क्या है। कर्नाटक में भी कोई न कोई राजनैतिक नाटक चलता ही रहता है। हाँ केरल ने एक अदद शाश्वत कलेस के अभाव में थोड़ा निराश किया है लेकिन वहाँ के लिये भी कोई न कोई कलेसी पैदा हो ही जाएगा। भगवान के घर देर है, अंधेर नहीं…!
महापुरुषों को पहले ही भाजपाई, कांग्रेसी, बसपाई, सपाई कर के निपटाया जा चुका है। इस बीच कुछ नया करने की छटपटाहट होने लगी थी। तभी कुछ लोगों का ध्यान इस बात पर गया कि कई दिनों से ये बुद्धिजीवी नहीं लड़े। इन कलाकारों में कोई कलेस नहीं हुआ। फिर क्या था, एक बार ठान ली तो क्या नहीं हो सकता। साहित्यकार विचारधारा के नाम पर अपने-अपने पुरस्कार लेकर पिल पड़े। कलाकार हिन्दू-मुस्लिम बनकर अपने-अपने अलग राग अलापने लगे।
रसख़ान ने जब "लाम के मानिंद हैं गेसू मेरे घनश्याम के…" कहकर सोच को व्यापक किया था तब उनको नहीं पता था कि आख़िरकार लड़ना पड़ेगा। तब उनका क्या हश्र होगा। उनसे हिन्दू नफ़रत करेंगे क्योंकि उनके नाम में ख़ान है, और मुस्लिम उनको क़ाफ़िर कहकर लानत भेजेंगे क्योंकि उन्होंने बुतपरस्ती का गुनाहे-अज़ीम पेश फ़रमाया। ऐसी ही भूलें अब्दुर्रहीम ख़ाने-ख़ाना और अमीर ख़ुसरो से भी हो गई। क़बीर तो ख़ैर जन्म के कलेसी थे ही। दूरदर्शिता का सर्वथा अभाव था इन सबमें। समझ ही नहीं आ पा रहा कि इनके नाम पर कौन पक्ष में लड़े कौन विपक्ष में। इधर हाल के दशकों में भी कुछ ऐसे हो गए जिनको सौहार्द का शौक़ चर्राया। क्या ज़रूरत थी शक़ील को ये कहने की कि "मन तरपत हरि दर्सन को आज…! तुम तो लिख कर चलते बने। उस पर नौशाद ने इसको सुरों में पिरो दिया। फिर मुहम्मद रफ़ी… तुम तो कम से कम रौ में न बहते। पूरे कुएँ में ही भांग पड़ गई थी क्या। चंद रुपैयों के लिये कितने नीचे गिर गए। क़ाफ़िर हो गए।
ऐसे ही पापी रहे रघुपति सहाय। फ़िराक़ गोरखपुरी बनकर कैसे इतराते फिरे। अरे भई, हिन्दी में रहकर क्या प्रतिष्ठा नहीं मिलती थी। जा पड़े मुसलमानों की भाषा में। शर्म आनी चाहिये। हमें देखो। लिखा चाहे एक अक्षर न हो, लेकिन किसी को इतना मौक़ा न दिया कि हमें हमारे धर्म से अलग कर सके। हमने किसी के आगे सिर नहीं झुकाया। आग लगे ऐसी प्रसिद्धि में। अरे तुमसे बढ़िया तो वो छोकरे हैं जो ज़रा सा इशारा पाते ही दूसरे धर्म वालों के लिये मौत बन जाते हैं। इसे कहते हैं समर्पण। ये नहीं कि सारी ज़िंदगी दूसरे धर्म के लोगों की चमचागिरी में गुज़ार दो।
उधर ये बोलते हैं कि ग़ुलाम अली को सुन लो। क्यों सुन लें भई। हमारे पास जगजीत सिंह नहीं हैं क्या। जो आदमी पाकिस्तानी होगा उसके लिये यहाँ कोई जगह नहीं है। हम हम हैं। अपनी गायकी पाकिस्तानियों को सुनाओ। हम जगजीत सिंह से संतुष्ट हैं। हमारी मजबूरी न होती तो भगत सिंह को भी पाकिस्तान में पैदा होने के जुर्म में देश निकाला दे देते। लेकिन बस हमारी चल नहीं पा रही।
हमने बहुत दिन सहिष्णु होने का ढोंग कर लिया। अब हमसे न होगा ये सब। भाग जाओ यहाँ से। कोई गजल-वजल नहीं सुनी जाएगी। हमारे पास यही काम रह गया क्या। बड़े आए गजल सुनाने वाले। हम तुम्हारी गजल सुनेंगे या साहित्यकारों के पुरस्कार लौटाने के मुद्दे पर ध्यान देंगे।
इनको अपनी पड़ी है। क्या आफ़त आ गई। किसने चिकौटी काट ली। नहीं चाहिये पुरस्कार तो मत लो। हम किसी और को दे देंगे। अपनी विचारधारा वाले को दे देंगे। दस-पाँच साल बाद कोई और सरकार आएगी तो हमारे वाले भी लौटा देंगे। फिर तुम ले लेना। अब एक पुरस्कार एक ही जगह धरा-धरा धूल खाए… ये कोई अच्छी बात है क्या।
वामपंथी और राष्ट्रवादी, दोनों की ही एक-दूसरे के बारे में एक जैसी राय है। 'तुमने लिखा भी क्या है। सब अल्लम-गल्लम। कोई सार नहीं है तुम्हारे साहित्य में। साहित्य तो हमारे वालों ने रचा है।'
एक बताएगा, "गांधी वध और मैं" ...अहा! क्या पुस्तक है। बखिया उधेड़ कर रख दी। और साहित्य पढ़ना है तो गीताप्रेस गोरखपुर जाओ। जा में नहीं राम को नाम, वा कविता किस काम की। देश को समझना है तो झण्डेवालान जाओ। सुरुचि प्रकाशन की पुस्तकें पढ़ो। वीर सावरकर की क़ुर्बानी के आगे क्या किसी की क़ुर्बानी टिकेगी। माननीय हेडगेवार जी, गुरुजी, मुखर्जी जी, दीनदयाल उपाध्याय जी… अरे इनकी जीवनीयाँ पढ़ो। तो कुछ संस्कार आवें। इनके सिवाय देश में न तो कोई महापुरुष है न ही कोई साहित्य। कम से कम जब तक हमारी चलेगी तब तक तो नहीं ही होने देंगे। जब तुम्हारी चले तो तुम हमारे वालों को मत मानना।
दूसरा कहेगा, पेरियार! क्या लिखा है, सच की परतें खोल दीं। रशियन लिटरेचर नहीं पढ़ा तो क्या ख़ाक़ पढ़ा! लेनिन, मार्क्स... हीरे हैं साहित्य के। 'बम का दर्शन' पढ़ो। जनचेतना प्रकाशन की किताबें ख़रीदो! ग़रीब के दर्द की बात न हुई तो काहे का साहित्य। सत्ता को गाली देने की हिम्मत न हो तो चाट का ठेला लगा लो, ज़रूरी थोड़े ही है साहित्य रचना।
…
…
…ये सब देख कर मदारी अट्टहास करते हैं। उन्हें इस बात की संतुष्टि है कि सब जमूरे बढ़िया से काम में लगे हैं। सबने सबको व्यस्त कर रखा है। ये सब इन बातों से ऊपर उठने नहीं चाहियें। क्योंकि अगर इन कलेसों से बाहर आए तो ये सब विकास मांगेंगे। फिर ठहाके लगाने तो दूर साँस लेने की भी फ़ुर्सत नहीं मिलेगी। इसलिये जंग जारी रहनी चाहिये। डुगडुगी बजती रहनी चाहिये। तमाशा होता रहना चाहिये।
© चिराग़ जैन
Wednesday, October 14, 2015
दंगे
Monday, October 12, 2015
अनदेखी
सबसे पहले जब मेरे
संदेशों की अनदेखी की थी
जब सम्बन्ध प्रगाढ़ रहा था
सहज मिला करते थे हम-तुम
पहरों जाने कितनी बातें
रोज़ किया करते थे हम-तुम
तब भी मुझको डर लगता था
तब भी मैं सोचा करता था
आपस में दूरी आई तो
तुम उत्तर ना दे पाई तो
तब कैसे रातें काटेंगे
किससे अपना मन बाँटेंगे
तब भी तुमने बेफ़िक्री से
मेरे मन के ऐसे सब
अंदेशों की अनदेखी की थी
पहले सोचा व्यस्त हुई हो
दुनियादारी की बातों में
फिर जाना अभ्यस्त हुई हो
कोमलता पर आघातों में
जब संदेशा पहुँचा होगा
तुमने ये तो सोचा होगा
उत्तर बिना उदास रहेंगे
वो मुझसे नाराज़ रहेंगे
मैं उनको समझा ही लूँगी
कारण एक बना ही लूँगी
ख़ुद को लापरवाह बनाकर
तुमने उन अपनत्व भरे
आदेशों की अनदेखी की थी
जब मेरा सन्देश तुम्हारी
दिनचर्या में खो जाता हो
कुछ पल मेरी याद जगाकर
आख़िर धूमिल हो जाता हो
तब उत्तर की प्यास जगाए
हर आहट से आस लगाए
मन व्याकुल होता जाता था
सब धीरज खोता जाता था
खीझ, तड़प, चिंता, आकुलता
क्रोध, प्रलय, संशय, आतुरता
मत पूछो क्या क्या होता था
जब तुमने अधिकार भरे
परिवेशों की अनदेखी की थी
© चिराग़ जैन
Sunday, September 20, 2015
व्यक्तित्व
हवा में कुछ लकीरें बनायीं
कुछ खड़ी रेखाएँ
जैसे भृकुटि के मध्य त्यौरियाँ पड़ती हैं
कुछ आड़ी रेखाएँ
जैसे ललाट पर बौद्धिकता उभरती है।
कुछ अर्द्धवृत्ताकार
जैसे नयनों के नीचे की चिन्ताएँ
कुछ हल्की पनियाई
जैसे आँखों की कोरों पर तैरती इच्छाएँ
सुखद यादों जैसी
और कुछ कसमसाते हुए
पूरे न हो सके वादों जैसी।
कुछ ख़ुशियों की
कुछ ग़म की
कुछ आशाओं के उजियारे की
कुछ निराशाओं के तम की
कुछ अप्राप्य के प्रति रोष की
और कुछ असीम संतोष की
...इन आड़ी-तिरछी रेखाओं में
जाने कब एक व्यक्तित्व उभर आया
मैं रेखाएँ देखता रह गया
और हवा में मेरा चेहरा उकर आया!
© चिराग़ जैन
Thursday, September 10, 2015
संवाद कविता
Tuesday, August 25, 2015
दशरथ मांझी
नाम ही दशरथ था
काम तो
शतरथ वाला किया।
जुनून; लगन; मेहनत; सनक; दीवानगी
...इन सबसे आगे का शब्द खोज
बे शब्दकोश!
हुए होंगे कहीं पत्थर
जिनको तराशता था आदमी
मैंने तो आज
पत्थरों को
इक आदमी तराशते देखा।
सचमुच यार
सितार की झंकार
और बंसी की तान पर
थिरकती मुहब्बत से
ज़्यादा महँगी लगी
छैनी-हथौड़े की टंकार पर
उकरती मुहब्बत!
-चिराग़ जैन
Saturday, August 22, 2015
संथारा
क्या हैं व्रत उपवास और क्या नियम त्याग संथारा है
हमें फर्क पड़ता है छोटी चींटी तक की पीर से
हमें अहिंसा मिली विरासत में भगवन् महावीर से
वृक्षों में जीवन होता है; अब ढूंढा विज्ञान ने
हमें बताया युगों पूर्व ये ऋषभदेव भगवान् ने
हमें लैंस की नहीं ज़रूरत जल के जीव बांचने को
हमें मिले हैं गुणस्थान अन्तस् का ताप जांचने को
शाकाहारी जीवन शैली, परहित का उपदेश मिला
हमें हमारे पुरखों से मानवता का सन्देश मिला
श्रावक श्रमण व्यवस्था वाला इक समाज विज्ञान मिला
जियो और जीने दो जैसा अद्भुत अविरल ज्ञान मिला
परिग्रह को जब पाप कहा तो साम्यवाद को नींव मिली
क्षमाभाव सर्वोपरि रक्खा; प्रेम-प्यार को जीभ मिली
हमने राणा के प्रताप को दानी भामाशाह दिए
जो अणुव्रत की नाव चलाएं तुलसी से मल्लाह दिए
हमने भारत के गौरव को चन्द्रगुप्त का मान दिया
बिम्बिसार, संप्राति, भोज और वीर अशोक महान दिया
हमने दिव्य प्रकाश पुंज; जब जब अंधियारी छाई; दिए
हमने अंतरिक्ष को भेदा विक्रम साराभाई दिए
जो हिंसा के घोर विरोधी, जन-गण के उन्नायक थे
वो बाबा गांधी भी तो इस जैन धर्म के गायक थे
अर्थमार्ग और मोक्षमार्ग का इक समतल आभास दिया
हमने अपनी भारत माँ को गौरवमयी इतिहास दिया
किसी जीव को नहीं सताएँ ये पावन संकल्प लिया
तर्कहीन धर्मांध न होवें ऐसा शास्त्र प्रकल्प लिया
जो मानवता की द्योतक है, मानव मन तक फैली है
वही अहिंसा जैनधर्म की मौलिक जीवन शैली है
लखनऊ में महावीर की प्रतिमा टूटी तब क्यों मौन रहे
वोटों की मंडी में सत्तर लाख की पीड़ा कौन कहे
भीतर माल ठूंस कर बाहर दाँत दिखाने बंद करो
मानवता की चिंता है तो बूचड़खाने बंद करो
हमने सदा पैरवी की है; पुरखों के सन्देश की
हमें ज़रूरत नहीं किसी न्यायालय के आदेश की
हम मानवता की रक्षा हित नियमों के मोहताज नहीं
हम तन-मन-धन से मानव हैं, कोरे ड्रामेबाज़ नहीं
हमने कभी नहीं पोसा है कर्मकांड के दूषण को
हमने शीश चढ़ाया केवल तर्कयुक्त आभूषण को
लो महत्व समझो सागर में मिलती जीवन धारा का
लो वैज्ञानिक मतलब समझो जैनों की संथारा का
जब शरीर अक्षम हो जाए बचने का कुछ ठौर न हो
जब मृत्यु प्रत्यक्ष खड़ी हो, राह कहीं पर और न हो
तब बेचैनी त्याग आत्मचिंतन दायित्व हमारा है
जीवन के अंतिम क्षण में निज का चिंत्वन संथारा है
जीवन के अंतिम अवसर का मधुर गान है संथारा
स्वास्थ्य शोथ कर देह समर्पण का विधान है संथारा
यह ऐसी तकनीक है जिससे जीवन का सुख नष्ट न हो
देह और अशरीर छूटने लगें तो किंचित कष्ट न हो
आत्मघात और संथारा के चिंतन में है इतना भेद
आत्मघात में मृत्यु प्रमुख है संथारा में मृत्यु निषेध
आत्मघात जैसी कायरता वीरों का तो तौर नहीं
हम वंशज हैं महावीर के कायर या कमज़ोर नहीं
-चिराग़ जैन
Sunday, August 16, 2015
भारत-पाक विभाजन
हमीं इक दूसरे को जान का दुश्मन बना बैठे
जहाँ के खेत में बंदूक बोते थे भगत बाबा
जहाँ की जेल में जगते थे, सोते थे भगत बाबा
जहाँ हमको मिला दुश्मन की दहशत का नमूना था
जहाँ फाँसी के फंदे को भगतबाबा ने चूमा था
उसी लाहौर को अब जुर्म का घर दिया तुमने
जहाँ पुरखों की यादें थीं वहाँ डर भर दिया तुमने
हमारे तीरथों को ख़ून से तर कर दिया तुमने
न जाने किसके बहकावे में ये अनबन बना बैठे
हमीं इक दूसरे को जान का दुश्मन बना बैठे
नहीं भूले अभी तुम चावड़ी बाज़ार की गलियाँ
कराची की हमें भी याद हैं दिन रात रंगरलियाँ
हुई तक़सीम तो जैसे ज़फ़र का ख़्वाब टूटा था
बिलख उट्ठे थे लाला लाजपत, पंजाब टूटा था
पुराने दिन करोगे याद तो ये पीर समझोगे
छिनी है प्यार की कितनी बड़ी जागीर समझोगे
तुम्हें क्योंकर नहीं देते हैं हम कश्मीर समझोगे
जहाँ ख़ुशियाँ मनानी थी वहीं मातम मना बैठे
हमीं इक दूसरे को जान का दुश्मन बना बैठे
ज़रा सी जि़द बड़ी कर ली, वतन छोटा बना डाला
खरी आज़ादी की ख़ुशियों को भी खोटा बना डाला
ख़ज़ाना छोड़ कर अब ठीकरों की मांग करते हो
ज़ेह्न में नफ़रतें रख दोस्ती का स्वांग करते हो
सभी गर सब्ज़ हैं तो फिर बताओ ज़र्द कितने हैं
करोड़ों प्यार वाले हैं तो दहशतगर्द कितने हैं
ये दहशतगर्द अपनी क़ौम के हमदर्द कितने हैं
अमां तुम पीतलों को सोच में कुन्दन बना बैठे
हमीं इक दूसरे को जान का दुश्मन बना बैठे
चलो छोड़ो ये बातें क्या हुआ होगा आज़ादी पर
किसे किस बात ने गहरे छुआ होगा आज़ादी पर
कहीं जिन्ना अड़े होंगे, कहीं नेहरू अड़े होंगे
मगर इक़बाल, गांधी और आगा रो पड़े होंगे
खुले आँगन में इक परिवार जब हारा सही था क्या
यहाँ जब भाई ने ही भाई को मारा सही था क्या
ज़रा सोचो हुआ था जो वो बँटवारा सही था क्या
अरे, ताउम्र ना मिलने का कैसे मन बना बैठे
हमीं इक दूसरे को जान का दुश्मन बना बैठे
© चिराग़ जैन
Wednesday, August 12, 2015
स्वराज पर्व
Sunday, August 9, 2015
हिन्दुस्तान हमारा है
आँखों के आगे जुल्म बढ़े तो हम करते प्रतिकार नहीं
अब हमको फर्क नहीं पड़ता चालीस मरे या चार मरे
पानी बन गया लहू वह जो बढ़कर भीषण हुंकार भरे
जब भूखी उम्मीदें टूटीं खलिहान जले हम मौन रहे
जब धनिया की अस्मत लूटी पत्थर पिघले हम मौन रहे
लालच ने जब नैतिकता का दर्पण तोड़ा हम मौन रहे
लाचारी को ताक़त ने जब बेघर छोड़ा हम मौन रहे
निर्बल की आह-कराह सुनी, दिल दहल गया, हम मौन रहे
टीवी पर चर्चाएँ सुन ली, मन बहल गया, हम मौन रहे
अपराध घटित होता है तो देखा करते हैं मौन खड़े
फिर ये कहकर बढ़ जाते हैं, छोड़ो पचड़े में कौन पड़े
शोषित पर अत्याचार हुआ, शोषक ने अट्टाहास किया
नुक्कड़ पर खड़े बतोलों ने, उपहास किया, परिहास किया
अख़बारों को हेडलाइन मिली, टीवी ने ख़ूब विलास किया
हम भी संवेदनहीन हुए, हमने भी टाइमपास किया
उम्मीद कभी चलकर अपने द्वारे तक आई तो होगी
रातों में किसी बिचारी ने साँकल खटकाई तो होगी
हमने ख़ुद बंद किया बढ़कर सब खिड़की रौशनदानों को
गुलदस्ते लेकर पहुँच गए जब बेल मिली सलमानों को
छोड़ो ये चर्चा कब कितना नुकसान हुआ घोटालों से
पहले ये सोचो औलादें क्यों सस्ती हुई निवालों से
छोड़ो इन बातों की चर्चा सरकार हमें क्या दे पाई
पहले ख़ुद से ये तो पूछो क्यों भूखा मरा सगा भाई
कुछ रंग-बिरंगे चोलों ने भड़काया तो हम भड़क गए
पत्थर की गिरी इमारत तो हम सबके बाजू फड़क गए
लेकिन तब ख़ून नहीं उबला, ना गुस्से को सुर-साज मिला
जब पन्द्रह दिन की बच्ची को दिल्ली में नहीं इलाज मिला
हमने कब किसकी रक्षा की, अपराधों से, आघातों से
निष्क्रियता पर पर्दे डाले कुछ रटी रटाई बातों से
शासन पर प्रश्न उठाएंगे, सत्ता को जी भर कोसेंगे
सिस्टम से आस लगाएंगे, अपने आलस को पोसेंगे
क्या ये सचमुच आवश्यक है हम सच से पीठ किए बैठें
क्या से सचमुच आवश्यक है अवसर पर होंठ सिए बैठें
ये क्या हो गया हमें आख़िर, धमनी में ख़ून नहीं है क्या
निष्क्रियता को बंदी कर ले, ऐसा क़ानून नहीं है क्या
खादी, खाकी, व्हाइट कालर, ये सब हममें से ही तो हैं
इक्के, बेग़म, राजा, जोकर, ये सब हममें से ही तो हैं
केवल इतना भर अंतर है, केवल इसके ही हैं झगड़े
कुछ खिड़की के इस पार खड़े, कुछ खिड़की के उस पार खड़े
यूँ तो हममें से हर कोई बढ़-चढ़कर बात बनाता है
जिसका जिस पर वश चलता है, वो उससे स्वार्थ सधाता है
हम किस दिन ये सच समझेंगे सारा नुक्सान हमारा है
जिसको दिन-रात कोसते हैं, वो हिन्दुस्तान हमारा है
© चिराग़ जैन
Thursday, July 30, 2015
क़लाम साहब नहीं बिके
मेरा ही नहीं… सबका
आज सिर्फ़ क़लाम साहब ही
उनके साथ ही दफ़्न हो गई
ये उम्मीद भी
कि इस देश का मीडिया
कभी ज़िम्मेदार होगा
इस देश का मीडिया
कभी संवेदनशील होगा
इस देश का मीडिया
कभी इस देश का होगा।
मीडिया ने बोला नहीं
पर साफ़-साफ़ बता दिया
याक़ूब ज़्यादा बिकाऊ था…
अच्छा ही हुआ
हमारे क़लाम साहब
नहीं बिके
आख़िरी दिन भी।
© चिराग़ जैन
Monday, July 27, 2015
कलाम साहब नहीं रहे!
कलाम साहब नहीं रहे!
जीवन की अंतिम श्वास तक
सक्रिय और सकारात्मक रहकर
आप नहीं रहे!!
देह ही हारी होगी
मन तो जीवित ही था आपका
चिकित्सकों ने काश मन टटोला होता
तो कह न पाते कि "ही इज़ नो मोर…"
सुना है "लिवेबल प्लेनेट अर्थ" पर बोल रहे थे आप
महसूस हुआ होगा इस दौरान
कि ये प्लेनेट अब लिवेबल रहा नहीं।
आपने कभी जुड़ने ही नहीं दिया अपने साथ
कोई वाद, कोई धर्म, कोई विशेषण।
आप मानव थे
सिर्फ़ मानव…
भरपूर मानव।
आपने कभी कुछ नहीं लिया इस देश से
आपने कभी कुछ नहीं मांगा इस देश से
यहाँ तक कि
अंतिम समय इतना भी समय नहीं दिया
कि कोई कुछ दे सके आपको।
आपने कभी प्रवचन नहीं दिया
आपका हर आचरण एक संदेश देता था।
एक लम्बे समय बाद बच्चों को कोई ऐसा मिला था
जिसके जैसा बनने के सपने देखे गये।
बच्चों जैसी जो निश्छल खिलखिलाहट आपकी सखी थी
वह आपके अन्तर्मन की जीवंत एक्स-रे थी।
आप राष्ट्रपति ही नहीं थे कलाम साहब
आप तो हृदयाधिपति थे इस देश के
आप धड़कते रहोगे यौवन के सीने में
आप खिलते रहोगे बच्चों की मुस्कान में
आप पुलकते रहोगे उत्सवों में
आप दौड़ते रहोगे धमनियों में
बन्द गले का सूट पहने
जब कोई लम्बे सफ़ेद बालों वाला
खिलखिलायेगा हाथ हिलाकर
तब सब कहेंगे
ये तो कलाम साहब जैसा है यार!
© चिराग़ जैन
Sunday, July 26, 2015
सलमान ख़ान का ट्वीट
Tuesday, July 21, 2015
सांस्कृतिक ह्रास
Saturday, July 18, 2015
जंग की वजह
हँसी को टीस में और जश्न को चीखों में बदला है
जिन्हें पुरखों ने ख़ुश होने की खातिर हमको सौंपा था
उन्हीं मौक़ों को हमने जंग की वजहों में बदला है
जश्न को चीखों में बदला है
हँसी को टीस में और जश्न को चीखों में बदला है
जिन्हें पुरखों ने ख़ुश होने की ख़ातिर हमको सौंपा था
उन्हीं मौकों को हमने जंग की वजहों में बदला है
Friday, July 17, 2015
त्योहार
अब तो मीठा कीजिये, आपस का व्यवहार॥
रथ पर शोभित हो गए, जगन्नाथ महाराज।
उनका रूप निहारने, ईद आई है आज॥
© चिराग़ जैन
Friday, July 10, 2015
ज़िन्दगी का अर्थ
ख़ुशियों के गाँव आए तो छूकर निकल गये
कुछ लोग ज़िन्दगी का अर्थ बूझते फिरे
कुछ लोग इसे शान से जीकर निकल गये
© चिराग़ जैन
Sunday, June 28, 2015
लकीरें ग़ायब हैं
हाथ बंधे हैं और ज़जीरें ग़ायब हैं
जिसने सख़्त ज़मीं पर चलकर देख लिया
उसकी बातों से तहरीरें ग़ायब हैं
जाने कैसे तुमने हाथ मिलाया है
हाथों की कुछ ख़ास लकीरें ग़ायब हैं
बस आईने लटके हैं दीवारों पर
और आईनों से तस्वीरें ग़ायब हैं
Sunday, June 21, 2015
भ्रष्टतंत्र का योग दिवस
Sunday, June 14, 2015
छल
भीगी फुलवारी से पूछा-
"कोई आया था क्या?"
"एक बादल आया था
...बरखा बनकर!"
© चिराग़ जैन
Thursday, May 28, 2015
पीर के गाँव
प्रेम फिर भी हमेशा लुभावन हुआ
एक सावन बिना प्रेम पतझर बना
पतझरों ने छुआ प्रेम; सावन हुआ
जब नदी ने समुन्दर छुआ झूम कर
तब नदी की सुधा को निचोड़ा गया
अपहरण कर लिया सूर्य ने देह का
और बादल उसे ओढ़ बौरा गया
हिमशिखर में ढली, आँसुओं-सी गली
छू सकूँ फिर समुन्दर -यही मन हुआ
एक अनमोल पल की पिपासा लिए
मौन साधक जगत् में विचरता रहा
घोर तप में तपी देह जर्जर हुई
श्वास से आस का स्रोत झरता रहा
चल पड़े प्राण आनन्द के मार्ग पर
जग कहे- ‘साधना का समापन हुआ’
एक राधा कथा से नदारद हुई
एक मीरा अचानक हवा हो गई
सिसकियाँ उर्मिला की घुटीं मन ही मन
मंथरा इक अमर बद्दुआ हो गई
बस कथा ने सभी को अमर कर दिया
फिर न राघव हुए ना दशानन हुआ
Sunday, May 17, 2015
पुत्री के जन्म पर
वैसे ही आई है बिटिया मेरे मुस्काते जीवन में
उसके आ जाने से मेरी मुस्कानों ने मआनी पाए
उसको गोदी में ले चूमा तो अन्तस् ने उत्सव गाए
शब्दों को ख़ूब निचोड़ लिया फिर भी यह गान अधूरा है
बिटिया के जन्मोत्सव के इस सुख का अनुमान अधूरा है
सारी ख़ुशियों से बढ़कर है उल्लास पिता बन जाने का
मन को बालक कर देता है अहसास पिता बन जाने का
तुलना करना नामुमक़िन है, जग के सब रिश्ते-नातों से
क्या मिलता है जब छूती है मुझको वो कोमल हाथोे से
उसकी किलकारी से बेहतर कोई मधुरिम संगीत नहीं
उसकी सुविधा से आवश्यक दुनिया की कोई रीत नहीं
जब वो अपना छोटा सा सिर सीने पर रखकर सोती है
उस क्षण धरती का राजा होने की अनुभूति होती है
दुनिया का सब ऐश्वर्य व्यर्थ सारा सुख-वैभव झूठा है
अपनी संतति की धड़कन सुनने का आनंद अनूठा है
© चिराग़ जैन
Saturday, May 9, 2015
ज़रा से तार में ख़ुशियाँ पिरोना
बिना आवाज़ के छुप-छुप के रोना सीख लेती थीं
कहाँ ग़ुम हो गईं वो पीढ़ियाँ जब बेटियाँ माँ से
ज़रा से तार में ख़ुशियाँ पिरोना सीख लेती थीं
© चिराग़ जैन
Friday, May 8, 2015
क़ानून इतना भी अंधा नहीं है जितना लगता है
Thursday, May 7, 2015
मीडिया की महानता
Tuesday, May 5, 2015
बदचलन लड़की बनाम मीडिया
Monday, May 4, 2015
चरित्र-हत्या का परमानेन्ट फण्डा
Friday, April 24, 2015
सोशल मीडिया
लिखते हैं दनादन
हर किसी मुद्दे पे इनकी राय है तैयार
बहुत बेख़ौफ़ लिखते हैं
इन्हें लिखे हुए शब्दों की ताक़त का
कोई आभास तो हो
इन्हें मालूम हो
इनकी बिना सोची हुई हर बात
पल भर में
किसी की साख पर बट्टा लगाती है
हवस-सी हो गई है
सबसे पहले
अपनी एफबी वॉल पर
सबसे ज़ियादा लाइक पाने की
इन्हें मालूम है सब कुछ
विदेशी ताक़तों ने
किस तरह बाज़ार को शैदा किया है
और ये भी इल्म है
कौन किसने कब कहाँ
किस गाँव में पैदा किया है
कौन कब मर जाएगा
कैसे मरेगा
कौन से ट्रक में लदेंगी गाय
कब हिन्दू डरेगा
कोई तो हो, जो इन्हें ये सब
बयां करने से पहले
दो घड़ी को ही
मगर कुछ सोच लेने की
हिदायत दे
ये नहीं कर पाए तो
ये काम कर दे
जब नए युग के ये सारे वर्चुअल भगवान
अपनी वॉल पर
ज़िंदा यूसुफ़ खानों के मरने की
नई तहरीर लिख दें
तो उसे पढ़ कर
युसुफ जी
ख़ुद-ब-ख़ुद उस बात को
सच में बदल डालें
ये नहीं समझेंगे
जब ये लोग
लोहू से रची ग़ज़लेँ चुराकर
पोस्ट करते हैं
तो उन ग़ज़लों पे मिलने वाली हर तारीफ़
उस शाइर के हक़ को
छीन लेती हैं
किसी कविता को
उसके रचयिता के नाम से
महरुम करना
किसी बच्चे को बिन कारण
यतीमी के जहन्नुम में
पटक देने के जैसा है।
इन्हें कोई ज़रा समझाए
चाकू सिर्फ़ इक औजार है
बस सृजन जिसका काम है
इसे हथियार में तब्दील कर देना
गुनाह से भी कहीं ज़्यादा बुरा है
बड़ा इलज़ाम है।
-चिराग़ जैन
Monday, April 20, 2015
ज़िंदगी
चहकी है, खेली है
हाव-भाव बदले तो
ज़िंदगी अकेली है
ओढ़ी हुई बातों से
कष्ट में धकेली है
सहजता सफलता की
पक्की सहेली है
एक तरफ़ जकड़न है
क़ातिल शिकंजा है
नाख़ूनी रंजिश है
नफ़रत है, पंजा है
उसी के ज़रा पीछे
प्यार की हवेली है
सहजता से खुली हुई
गुदगुदी हथेली है
बचपन से सीखा है
उत्तर उन्हीं में है
जिन शब्दों से मिलकर
बनती पहेली है
© चिराग़ जैन
Monday, April 13, 2015
सवेरों का निरादर
जो जिए हमने वो सारे दिन अलंकृत हो गए
किन्तु जब युग की टहनियों पर नई कोंपल उगी
तो हरे पत्ते हवाओं से सशंकित हो गए
जब हमारी श्वास में सरगम सजी आनन्द था
हम उठे, जग ने गई रस्में तजीं आनन्द था
जब हमारी गुनगुनाहट राग बनकर पुज गई
थपकियों से बन गई तालें, अजी आनन्द था
किन्तु जब युग में नई बन्सी बजी तो क्या हुआ
क्यों हमारे पीर वाले तार झंकृत हो गए
कुल मिलाकर ज़िन्दगी है चार पहरों की तरह
हर किसी का वक़्त चढ़ता है दुपहरों की तरह
सांझ को दुल्हन सी सजती है सभी की ज़िन्दगी
और फिर सूरज ढलक जाता है चेहरों की तरह
ब्रह्म की संज्ञा भी दे सकते थे अंतिम प्रहर को
क्यों सवेरों का निरादर कर कलंकित हो गए
© चिराग़ जैन
Saturday, March 28, 2015
पिक्चर अभी बाक़ी है मेरे दोस्त
Thursday, March 5, 2015
होली की शुभ कामनाएं
अधरों पर मुस्कान हो, अन्तस में मधुमास।।
© चिराग़ जैन
Wednesday, February 25, 2015
केजरीवाल भव
Sunday, February 22, 2015
विकास
Tuesday, February 10, 2015
दिल्ली का चुनाव
चुनाव नहीं
बबाल था
एक तरफ़ पूरी बीजेपी थी
एक तरफ़ केजरीवाल था।
बीजेपी ने अपने रास्ते में
पहली खाई तब खोदी
जब दिल्ली जैसे छोटे चुनाव के लिये
रामलीला मैदान से दहाड़े थे पीएम मोदी।
विरोधियों के हाथ में तब देदी
जब सबके मना करने के बावज़ूद
छाँट कर लाए अपनी बुआ, बेदी।
दिल्ली के सारे लीडर
विभीषण हो गये
और सफ़लता के रास्ते
जो सुगम थे, अब भीषण हो गये।
साध्वियों और महाराजों के बयान
ऊपर से बेलगाम
किरण बेदी जी की ज़ुबान।
एनडीटीवी के रवीश
जो कसर रह गई थी
वो भी पूरी कर दी
मैडम बेदी की हक़लाहटों के गले में
कुटी हुई मुलहठी भर दी।
अमित शाह की जुमलेबाज़ी
जीत के नशे से चढ़ा गुमान
नये मेहमानों के लिये पुराने साथियों का अपमान
दिल्ली के सांसदों की कार्यकर्ताओं पर पकड़
और विजय रथ पर सवार चेहरों की अकड़
इन सब प्रहारों से प्रतिष्ठा का क़िला ढह गया
और कार्यकर्ताओं की अनदेखी करता नेतृत्व
एक-एक वोट के लिये तरसता रह गया
© चिराग़ जैन
Friday, February 6, 2015
वियोग
कुछ भी काफ़ी नहीं इस दिल के संभलने के लिए
ज़िन्दगी एक सफ़र है जहां का सच ये है
लोग मिलते ही हैं इक रोज़ बिछड़ने के लिए
© चिराग़ जैन
Sunday, February 1, 2015
मतदान
लो मान लिया इस महफ़िल की हर सूरत बहुत घमंडी है
लेकिन हमने भी कब पुरख़ों के सपनों का सम्मान किया
70 वर्षों में कहीं कभी क्या 100 प्रतिशत मतदान किया
ये लोकतंत्र जनप्रतिनिधियों की करनी का हरकारा है
हम चुन कर प्रत्याशी भेजें इतना तो काम हमारा है
आज़ादी की परवाज़ों में सीमाओं के कन्ने भी हैं
अधिकारों की बातें हैं तो, कर्तव्यों के पन्ने भी हैं
कुछ लोग वोट की ताक़त को हल्के में लेते रहते हैं
फिर सत्ता, सिस्टम, शासन को ही गाली देते रहते हैं
उंगली पर स्याही लगी नहीं, सत्ता पर कीचड़ डाल रहे
कर लोकतंत्र की अनदेखी, शासन में दोष निकाल रहे
वोटिंग के दिन पिकनिक जाने वाले भी क्या ग़द्दार नहीं
ऐसे लोगों को शासन की निंदा तक का अधिकार नहीं
हम खाएं क़सम इस बार कोई मत व्यर्थ नहीं जाने देंगे
जनता की मर्ज़ी के बिन अब ना सत्ता हथियाने देंगे
जनता की निष्क्रियता को उनकी ताक़त क्यों बन जाने दें
अपनी मेहनत से सींची फसलें टिड्डों को चर जाने दें
जनता का प्रतिनिधि कैसा हो ये हम सबको तय करना है
अबकी पूरे माहौल को फिर से लोकतंत्रमय करना है
बस एक वोट भी सत्ता की जड़ में मट्ठा भर सकता है
बस एक वोट आकाओं का जबड़ा खट्टा कर सकता है
बस एक वोट सच के रथ का पहला घोड़ा बन सकता है
बस एक वोट झूठों के पथ पर बाधा बन तन सकता है
जो सीना छलनी करता है, उसके सीने पर चोट तो दें
इसको, उसको, चाहे जिसको, हम जाकर अपना वोट तो दें
इस बार फरवरी सात गढ़ेगी नई इबारत दिल्ली में
जब सौ प्रतिशत मतदान से गर्वित होगा भारत दिल्ली में
इस बार वोट की ताक़त का जलवा देखेंगे दिल्ली में
इस बार सही जनमत का इक बलवा देखेंगे दिल्ली में
जिस दिन मेरी इन बातों का सम्पूर्ण असर हो जाएगा
उस दिन समझो इस भारत का गणतंत्र अमर हो जाएगा
© चिराग़ जैन
Monday, January 26, 2015
सारे जहाँ से अच्छा
Tuesday, January 20, 2015
चुनाव: एक ढोंग
फिर से आ गया चुनाव
चुनाव मतलब शोर-शराबा
रैली-वैली
वादे-शादे
भाषण-वाषण
गाली-वाली
इसके हिस्से उसकी थाली
उसके हिस्से इसकी थाली
कुछ की सूरत भोली-भाली
कुछ की बातें जाली-जाली
मेरी बज्जी
तेरी बज्जी
बिन मतलब की मत्था-पच्ची
मेरा पहला, तेरा पहला
इसका नहला, उसका दहला
इसकी बेग़म, उसका गुल्ला
हल्ला-गुल्ला
खुल्लम-खुल्ला
बैनर-शैनर
झंडे-वंडे
यानी सबके सब हथकंडे
हर नुक्कड़ पर कुछ मुस्टंडे
इसने मारे उसको अंडे
उसने मारे इसको डंडे
जब होगा वोटिंग का वन डे
उसके अगले दिन सब ठंडे
सबके एक सरीखे फंडे
थोड़े-थोड़े तुम मुस्टंडे
थोड़े-थोड़े हम मुस्टंडे
आओ मिलाएँ अपने झंडे
वोटर ठगा-ठगा बेचारा
देख रहा है भाईचारा
देख-देख ये ग़ज़ब नज़ारा
वोटर को चढ़ गया बुखारा
जब तक उसने किया उतारा
फिर चुनाव आ गया दोबारा।
© चिराग़ जैन
Monday, January 19, 2015
जलवे सुनहरे बुझ गए
झूमते-गाते दरख़्तों तक के चेहरे बुझ गए
तीरगी ने इस क़दर बाँहों में आलम भर लिया
धूप के जितने भी थे जलवे सुनहरे बुझ गए
© चिराग़ जैन
Monday, January 5, 2015
अपराजित
मुझको मंज़िल मिलनी तय है
अब ये तुम निर्धारित कर लो
उस क्षण मेरी आँखों में तुम क्या चित्र देखना चाहोगे
अपनत्व भरा इक तरल प्यार
या फिर इक जलता तिरस्कार
संघर्षों के तपते पथ पर, झुलसाती धूप बनोगे तुम
या फिर तरुओं की छाया का दुलराता रूप बनोगे तुम
तुम पर छोड़ा तुम क्या दोगे, मुझको कुछ भी है हेय नहीं
जो तुम दोगे लौटा दूंगा, मुझ पर अपना कुछ देय नहीं
मेरी गति को निर्बाध किये, पथ छोड़ा भी जा सकता है
कुहनी से पसली घायल कर, रथ तोड़ा भी जा सकता है
तुमसे ये निर्धारण होगा, जिस क्षण ये सफ़र ख़तम होगा
उस क्षण मेरी आँखों में तुम क्या चित्र देखना चाहोगे
अपनत्व भरा इक तरल प्यार
या फिर इक जलता तिरस्कार
संघर्षों के उस पार जहाँ, उत्सव का मंच बना होगा
मेरी अनुशंसा में शोभित उन्नत ध्वजदंड तना होगा
उस पर सब कुछ ताज़ा होगा, किससे-कैसा अनुबंध रहा
दो आँखें उनको ढूंढेंगी, जिनसे मेरा संबंध रहा
मेरे मन के कोलाहल में, अपनों की गूंज भरी होगी
जिसने मेरा पथ रोका उस, कुहनी की टीस हरी होगी
जब धूसर काया दमकेगी, जब मेरी क़िस्मत चमकेगी
उस क्षण मेरी आँखों में तुम क्या चित्र देखना चाहोगे
अपनत्व भरा इक तरल प्यार
या फिर इक जलता तिरस्कार
© चिराग़ जैन
Friday, January 2, 2015
फिर से बीता इक और साल
कुछ दीवारों पर बदल गया
टेबल पे कैलेण्डर बदल गया
ऑफिस का रजिस्टर बदल गया
लेकिन ऐसे बदलावों से
कब तन बदला कब मन बदला
ना सुख बदले ना दुःख बदले
ना मानव का जीवन बदला
इस बार नई उम्मीद जगे
इस बार जगत सारा बदले
आशाओं के उजियारे में
अन्तस का अँधियारा बदले
© चिराग़ जैन
ओस पड़ी है
यूँ समझो कुछ ओस पड़ी है, सूखी-सूखी घास पर
आँसू से मुस्कान भिगोई, तब जाकर कुछ रंग मिले
सीमाओं के पिंजरे तोड़े, इच्छाओं के पंख हिले
फिर पहरों तक मुग्ध रहे हम, मन के सहज उजास पर
अलकों के पीछे इक दुनिया बसती है उल्लासों की
जिसमें बस बातें होती हैं रासों की मधुमासों की
उसमें जाकर हँस लेता हूँ, जीवन के संत्रास पर
आँख खुली तो दिन आ पहुँचा लेकर कर्ज़ हज़ारों का
मैंने उसको हाल सुनाया सपनों के गलियारों का
तब से ये दिन शर्मिन्दा हैं, रातों के उपहास पर
© चिराग़ जैन