Friday, May 4, 2018

जो आहत हो जाए वह कमज़ोर होता है

साहित्य समाज का दर्पण है और धर्म समाज का परकोटा है। साहित्य और धर्म में गहरा संबंध है। समाज में विचार की प्रतिष्ठापना अथवा परिस्थितियों के सम्यक चित्रण के लिए पौराणिक पात्रों तथा धार्मिक रीतियों के उदाहरण प्रस्तुत करना साहित्य का शगल रहा है।
कृष्ण के बालस्वरूप का वर्णन कर, भक्ति के प्रतीक को वात्सल्य का बिम्ब बनाकर हर गृहिणी का कन्हैया बना देना सूरदास का ऐसा ही एक सफल प्रयास था। रामायण के राम को मानस के राम तक कि यात्रा कराते समय तुलसी को भी भाषादम्भ का त्रास झेलना पड़ा किन्तु अवधी बोली की मीठी चौपाइयों ने समाज को राम दिए और राम को समाज।
पौराणिक कथाओं के प्रतीकों को आधार बनाकर या किसी एक पात्र को केंद्र में रखकर लिखे गए खंडकाव्य समाज लिए सदैव उपयोगी सिद्ध हुए हैं। ऐसा भी देखा गया है कि कुछ स्थानों पर इन खंडकाव्यों के प्रमुख पात्र की पीड़ा के सम्मुख अन्य सभी पात्र कठघरे में खड़े दिखाई देने लगे। यशोधरा महाकाव्य में बुद्ध कठघरे में खड़े हैं तो रश्मिरथी में पूरा कुरुकुल सवालों के घेरे में है। ऐसे ही द्रौपदी और साकेत जैसे ग्रंथ महाभारत तथा रामायण के अनेक महान चरित्रों से प्रश्न पूछते दिखाई देते हैं।
गद्य साहित्य में ‘वयं रक्षामः’ जैसे उपन्यासों ने रामचरितमानस के खलनायक का पक्ष प्रस्तुत करने की हिम्मत की है।
विश्व की सभी भाषाओं में पौराणिक संदर्भों से प्रतीक उठाने और पूज्यनीय चरित्रों से प्रश्न पूछने की परंपरा रही है। ग्रीक साहित्य का तो अधिकांश हिस्सा पौराणिक संदर्भों से ही निर्मित है। अंग्रेजी साहित्य ने भी पादरियों और चर्च पर जमकर कटाक्ष किये हैं। हिंदी साहित्य में भी जातीय व्यवस्था, ब्राह्मणवाद और राम-कृष्ण जैसे आस्था केंद्रों को आधार बनाकर बात करने का अभ्यास है।
उर्दू ग़ज़ल भी इस रिवाज़ से अछूती नहीं है। अपेक्षाकृत अधिक कट्टर होने के बावजूद इस्लाम से सवाल करते हुए या इस्लामिक परंपराओं पर कटाक्ष करते हुए उर्दू ग़ज़ल ने कोई कठिनाई महसूस नहीं की। कहीं-कहीं तो मुल्ला-शेख़ आदि की बाक़ायदा खिल्ली ही उड़ाई गई है।
इस्लाम में शराब हराम है लेकिन शराब का पक्ष लेते हुए कितने ही अशआर कहे गए, जिनमें इस्लाम की इस परंपरा को सीधे निशाना बनाया गया है। कुछ उदाहरण देखें-

ज़ाहिद शराब पीने से काफ़िर हुआ मैं क्यूँ
क्या डेढ़ चुल्लू पानी में ईमान बह गया
-शेख़ इब्राहीम ज़ौक़

‘ज़ौक़’ जो मदरसे के बिगड़े हुए हैं मुल्ला
उन को मयख़ाने में ले आओ सँवर जाएंगे
-शेख़ इब्राहीम ज़ौक़

लुत्फ़-ए-मय तुझ से क्या कहूँ ज़ाहिद
हाए कमबख़्त तू ने पी ही नहीं
-दाग़ देहलवी

झूम के जब रिन्दों ने पिला दी
शैख़ ने चुपके-चुपके दुआ दी
-कैफ़ भोपाली

ज़ाहिद शराब पीने दे मस्जिद में बैठकर
या वो जगह बता दे जहाँ पर ख़ुदा न हो
-नामालूम

भक्ति और भगवान के मध्य कोई तीसरा नहीं हो सकता। ईश्वर को भक्त से मिलने के लिए किसी संदेशवाहक की ज़रूरत नहीं होती -इस बात को कहने के लिए उर्दू शायरी में ऐसा भी शेर मिलता है, जिसमें मूसा को आड़े हाथों लेते हुए भी शायर को हिचकिचाहट नहीं हुई-

हमें भी जलवागाह-ए-नाज़ तक लेकर चलो मूसा
तुम्हें ग़श आ गया तो हुस्ने-जानां कौन देखेगा
-नामालूम

मुफ़लिसी में धार्मिक अपव्यय पर तंज करते हुए निदा फ़ाज़ली का एक दोहा ख़ूब मक़बूल हुआ-

बच्चा बोला देखकर मस्जिद आलीशान
अल्लाह तेरे एक को इतना बड़ा मकान

इश्क़ को कर्मकाण्ड से बड़ा बताते हुए दाग़ देहलवी कहते हैं-
आशिक़ी से मिलेगा ऐ ज़ाहिद
बन्दगी से ख़ुदा नहीं मिलता

और इन सबके इतर भक्त को भगवान से बड़ा बताते हुए असद अंसारी ने ऐसा शेर कहा जिसमें यह स्पष्ट कर दिया कि ख़ुदा ने ही बन्दे को नहीं बनाया बल्कि बन्दा भी ख़ुदा बना सकता है-

बन्दापरवर मैं वो बन्दा हूँ कि बहरे-बन्दगी
जिसके आगे सिर झुका दूंगा ख़ुदा हो जाएगा

अल्लामा इक़बाल ने भी आत्मविश्वास के आगे ईश्वर के झुक जाने की बात बहुत प्रभावी ढंग से कही-

ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले
ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे -बता तेरी रज़ा क्या है

ग़ज़ब ये है कि कविता के इस तेवर से कभी ऐसा नहीं हुआ कि आस्थाएँ खंडित हो गई हों, भावनाएँ आहत हो गई हों। सूफ़ी सहित्य तो अदब की ज़ुबान के दायरे से बाहर आकर ख़ुदा से तू-तड़ाक के लहजे में बात करता रहा लेकिन कभी कहीं कोई हंगामा नहीं बरपा।
इधर नाज़ ख्यालवी की एक नज़्म, जिसे नुसरत फ़तेह अली ख़ान ने गाया है, उसमें जिस लहजे में ख़ुदा पर सवाल उठाए गए हैं वह तो और भी अनोखा है। नज़्म का उन्वान ही ईश्वर को गोरखधंधा कहते हुए सामने आता है। उस नज़्म के कुछ अंश इस प्रकार हैं-

जब बजुज़ तेरे कोई दूसरा मौजूद नहीं
फिर समझ में नहीं आता तेरा पर्दा करना
तुम एक गोरखधंधा हो

नहीं है तू तो फिर इंकार कैसा
नफी भी तेरे होने का पता है
नहीं आया ख़्यालों में अगर तू
तो फिर मैं कैसे समझा तू ख़ुदा है!
तुम एक गोरखधंधा हो

हैरान हूँ इस बात पर तुम कौन हो, क्या हो
हाथ आओ तो बुत, हाथ ना आओ तो ख़ुदा हो
तुम एक गोरखधंधा हो

अक्ल में जो घिर गया, लाइन्तहा क्योंकर हुआ
जो समझ में आ गया फिर वो खुदा क्योंकर हुआ
तुम एक गोरखधंधा हो

जब के तुझ बिन कोई नहीं मौजूद
फिर ये हंगामा ऐ खुदा क्या है
तुम एक गोरखधंधा हो

छुपते नहीं हो, सामने आते नहीं हो तुम
जलवा दिखा के जलवा दिखाते नहीं हो तुम
दैरो-हरम के झगड़े मिटाते नहीं हो तुम
जो अस्ल बात है वो बताते नहीं हो तुम
ये माबदो-हरम ये कलीसा-ओ-दैर क्यूं?
हरजाई हो जभी तो बताते नहीं हो तुम
तुम एक गोरखधंधा हो

दिल पर हैरत ने अजब रंग जमा रखा है
एक उलझी हुई तस्वीर बना रखा है
कुछ समझ में नहीं आता कि ये चक्कर क्या है
खेल क्या तुमने अज़ल से ये रचा रखा है
रुह को जिस्म के पिंजरे का बनाकर क़ैदी
उस पर फिर मौत का पहरा भी बिठा रखा है
देके तदबीर के पंछी को उड़ानें तूने
दामे-तकबीर भी हर-सम्त बिछा रखा है
करके आराइशी कोनैन की बरसों तुमने
ख़त्म करने का भी मंसूबा बना रखा है
लामकानी का बहरहाल है दावा भी तुम्हें
नाह्लो-अकरब का भी पैग़ाम सुना रखा है
ये बुराई, वो भलाई, ये जहन्नुम, वो बहिश्त
इस उलटफेर में फ़रमाओ तो क्या रखा है
जुर्म आदम ने किया और सज़ा बेटों को
अद्लो-इंसाफ का मियार भी क्या रखा है
देके इंसान को दुनिया में ख़लाफत अपनी
इक तमाशा-सा ज़माने में बना रखा है
अपनी पहचान की ख़ातिर है बनाया सबको
सबकी नज़रो से मगर खुदको छुपा रखा है
तुम एक गोरखधंधा हो

जो कहता हूँ, माना तुम्हें लगता है बुरा-सा
फिर है मुझे तुमसे बहरहाल गिला-सा
चुपचाप रहे देखते तुम अर्शे-बरी पर
तपते हुए कर्बल में मोहम्मद का नवासा
किस तरह पिलाता था लहू अपना वफ़ा को
खुद तीन दिनों से वो अगरचे था प्यासा
दुश्मन तो बहरहाल थे दुश्मन, मगर अफ़सोस
तुमने भी फ़राहम ना किया पानी ज़रा-सा

इन सब उदाहरणों की आवश्यकता इसलिए पड़ी की पिछले कुछ वर्षों से हमने कट्टरता का एक बाना ओढ़ लिया है। कवि कुछ भी लिखता है तो किसी न किसी की आस्थाएँ आहत हो जाती हैं। कविता के निहितार्थ तक पहुँचने की बजाय धर्म का चश्मा लगाकर हम प्रतीकों में अटककर रह जाते हैं।
हिन्दू धर्म, जिसकी सहिष्णुता विश्व भर के लिए अनुकरणीय रही है, जहाँ ईश्वर से परिहास करने की परंपरा रही है, जहाँ ईश्वर को घर-आंगन के किलोल करते बालक का स्वरूप दिया गया है, वहाँ कुछ भी कहते ही भावनाएँ आहत होने लगी हैं। हमारी आस्थाएँ इतनी कमज़ोर कैसे हो सकती हैं?
ध्यान से देखें तो सम्भवतः विश्व के किसी अन्य धर्म के पास हँसता हुआ ईश्वर नहीं है। पैग़म्बर, जीसस, बुद्ध, महावीर, हरकुलिस जैसे पौराणिक चरित्रों के चित्रण में हास्य और किलोल के प्रसंग नहीं मिलते। लेकिन कृष्ण के चरित्र में यह सब कुछ है। कृष्ण माँ से डाँट खाते हैं, कृष्ण माँ को तंग करते हैं, कृष्ण माखन चुराते हैं, कृष्ण गोपियों से छेड़छाड़ करते हैं, कृष्ण प्रेम करते हैं, कृष्ण क्रोधित होते हैं और कृष्ण दुःखी भी होते हैं। कृष्ण के पास सब कुछ करने की क्षमता है। राम पैंजनिया बांधकर ठुमककर चल सकते हैं। यह कल्पना अन्य किसी ईश्वरीय चरित्र के साथ इतनी सरल नहीं है।
ऐसे में साहित्य में पुराणों के प्रयोग निषेध की तख़्ती चिपका देना समाज के उन्नयन में अवरोधक है। हम अपने ईष्ट में अपने जीवन की वर्तमान परिस्थितियों के उदाहरण तलाशकर उनसे समाधान मांगने के अभ्यासी हैं।
प्रश्न पूछने से कोई ईश्वर छोटा नहीं होता और जो प्रश्न पूछने से छोटा हो जाए वह ईश्वर नहीं होता।

© चिराग़ जैन

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