Monday, May 7, 2018

102 नॉट आउट

ज़िन्दगी जीने का सबसे सही तरीका यही है कि उसे हर हाल जिया जाए। जीवन के इस दर्शन को पर्दे पर बेहद शानदार तरीके से उतारा गया है "102 नॉट आउट" में। ठहाकों और उल्लास के सूत्र में पिरोई गई कहानी इतनी रवाँ है कि कहीं कोई गाँठ दिखाई ही नहीं देती।

अमिताभ बच्चन और ऋषि कपूर की लाजवाब जुगलबंदी ने अभिनय का उम्दा उदाहरण प्रस्तुत किया है। संवाद अपने नयेपन के साथ अभिनेताओं की टाइमिंग से दोगुने प्रभावी बन गए हैं। 

बुढ़ापे में ज़िन्दगी से भरे रहने का संदेश देती यह फ़िल्म जीवन की कठिनाइयों से परास्त मनुष्यों के लिए ग्लूकोज़ की तरह है। फ़िल्म का सबसे ख़ूबसूरत पक्ष है इसके संवादों की सहजता। 102 वर्ष की आयु में अमिताभ बच्चन बोलते हैं कि "मैं मरने के सख़्त ख़िलाफ़ हूँ, मैं अपनी ज़िंदगी में आज तक कभी नहीं मरा।" ...जीवन का इतना बड़ा दर्शन एक ठहाके के साथ घटित हो जाता है। मनुष्य अपनी मृत्यु को भी सेलिब्रेट कर सकता है। वह मृत्यु के बाद भी अपने होने का आभास करा सकता है। और वह चाहे तो जीते जी मर भी सकता है।

अकेलेपन और संबंधों की त्रासदी झेल रहे लोगों के लिए यह फ़िल्म मरहम की तरह है। "औलाद जब नालायक निकल जाए तो उसका बचपन याद करना चाहिए।" -इस निचोड़ को बेहद ख़ूबसूरती से कहानी में बुना गया है। भावनात्मक शोषण से ठगे गए लोगों के लिए अपने आप को आज़ाद कराने का नुस्ख़ा है इस सिनेमा में। फ़िल्म में लाइन स्केच के मर्जर से दृश्यों का परिवर्तन एक सफल प्रयोग कहा जा सकता है।

अमित जी के जीवंत अभिनय पर कहीं कहीं ऋषि दा का वैविध्यपूर्ण अभिनय भारी पड़ा है। जिमित त्रिवेदी ने भी अपना क़िरदार बेहतरीन निभाया है।

दत्तात्रेय वखारिया और बाबूलाल वखारिया के शांति निवास में ज़िन्दगी जीने के दो अलग अलग तरीक़ों का लुत्फ़ लीजिये और अश्लीलता, फूहड़ता, कानफोड़ू संगीत, गाली-गलौज और विदेशी लोकेशन्स के दम पर फिल्में बनाते बॉलीवुड में सौम्य जोशी के एक नाटक पर आधारित इस साफ-सुथरी फ़िल्म का स्वागत कीजिये।

© चिराग़ जैन

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