Wednesday, December 21, 2016

अलविदा 2016

कड़वी यादों के संग बीता दो हज़ार सोलह का साल
ऐसी उथल-पुथल थी इसमें, कोई पाया नहीं संभाल 
अभी साल प्रारंभ हुआ था, चढ़े दूसरे सूरजदेव
वायुसैनिकों के सम्मुख थे आतंकों के अधम कुटेव
पश्चिम में आतंक चढ़ा तो पूरब में दहला इम्फाल
भारत भर को स्तब्ध कर गया, तीन जनवरी का भूचाल
अभी संभल भी नहीं सके थे, काश्मीर तक पसरा क्लांत
सात जनवरी उगी, हो गए मुख्यमंत्री मुफ्ती शांत
दस दिन बीते सत्रह तारीख आई तो गहराया घाव
छोड़ गए दुनिया सिक्किम के राज्यपाल वी रामाराव
लुप्त हो गया मृणालिनी संग कत्थक का गुजराती कोष
तबला सिसक-सिसक कर रोया छोड़ गए जब शंकर घोष
क्रूर काल ने इतने भर से किंचित पाया नहीं विराम
छीन लिया हमसे किसान का योग्य पूत जाखड़ बलराम
व्यंग्य चित्र गंभीर हो गए चले गए तैलंग सुधीर
निदा फ़ाज़ली छोड़ गए फिर खड़ी रह गई ग़ज़ल अधीर
इसी बीच जेएनयू सुलगा, देशद्रोह की फैली आग
चंद लफंगों ने आ नोचा, भारत माँ का सुभग सुहाग
छाती पर बर्फीला पर्वत झेल गए जो पच्चीस फीट
झेल न पाए वो हनुमनथप्पा दिल्ली की मैली छींट
देशद्रोह का शोर-शराबा बढ़ता रहा, सरे-बाज़ार
राजनीति ने देशप्रेम को बना लिया वोटिंग औज़ार
काश्मीर में दंगे भड़के, घायल होते रहे जवान
दंगइयों का नायक बनकर उभर गया वानी बुरहान
हिंसा, पत्थरबाज़ी, कफर््यू और राजनीति की ओट
घाटी नर्क बन गई पूरी, हुई अमन के तन पर चोट
इसी बीच हो गया उड़ी में सैन्य शिविर पर हमला हाय
भारत का धीरज तब डोला, दिया पाक को पाठ पढ़ाय
घर में घुसकर ध्वस्त कर दिए आतंकों के काले काक
दिया धूर्त को उत्तर ऐसा रहा झाँकता बगलें पाक
बजा चुनावी बिगुल लखनऊ की थी हर मर्यादा पार
चाचा और भतीजा झगड़े, शर्मिंदा पूरा परिवार
आ पहुँचा तब आठ नवम्बर, बजे रात के साढ़े आठ
पीएम ने कुछ ऐसा बोला, नोट हो गए बारह बाट
काले धन पर चोट हुई या आतंकों की खुल गई पोल
ठीक हुआ है, ग़लत हुआ है, सबके अपने-अपने ढोल
नकदी का संकट गहराया, ठप्प हो गया सब व्यापार
बैंकों के भीतर हैं घपले, मुल्क बन गया सिर्फ कतार
समझ नहीं पाया है कोई, अर्थतंत्र का अद्भुत खेल
पूरा देश कतार बन गया, और पटरी से उतरी रेल
मिले सूर जो थारो-म्हारो से हर कर जग की तृष्णा
बंद हुआ आलाप चले गए, एम बालामुरलीकृष्णा
फिर उर्दू-हिन्दी के बेटे, बेकल उत्साही का शोक
जयललिता की हुई विदाई, लगा बिलखने दक्षिणलोक
पीड़ा का अम्बार वर्ष भर हर दिन दूना-दून हुआ
अनुपम मिश्र हुए माटी और बिन पानी सब सून हुआ
इसी वर्ष में दो प्रांतों के मुखिया बने काल के ग्रास
इसी वर्ष में दो-दो सीडी आई बरपा नैतिक ह्रास
इसी वर्ष में भारत माँ का हुआ कष्टदायी अपमान
इसी वर्ष जैन संत की भूषा पर भी उठा बयान
भारत की जनता पर इतनी कृपा करो मेरे भगवान
बीत गई सो बात गई अब नवल वर्ष हो नवल विहान

© चिराग़ जैन

Tuesday, December 20, 2016

प्रेम के इक ताल में

आजकल मुझसे न पूछो, कब उगा सूरज गगन में
आजकल मैं प्रेम के इक ताल में उतरा हुआ हूँ

बुद्धि का मत है विकलता मौन से होगी नियंत्रित
किन्तु हर इक रोम अब वाचाल हो बैठा अचानक
अब गिरा या तब गिरा का एक कौतुक चल रहा है
मन मुआ मोती भरा इक थाल हो बैठा अचानक
भाग्य है जिसका चुभन स्वीकार कर शृंगार करना
आजकल मैं उस कढ़े रूमाल में उतरा हुआ हूँ

कल्पना शालीनता के छोर से आगे बढ़ी है
प्रेम मन की देहरी को लांघ तन पर छा रहा है
कनखियों से देख कर वो झट पलट लेती निगाहें
इस झिझक को देख मेरा मन प्रफुल्लन पा रहा है
दृष्टि मेरी भाँप कर वो ढाँपती जिससे स्वयं को
मैं अभी उस लाल ऊनी शाॅल में उतरा हुआ हूँ

© चिराग़ जैन

Monday, December 19, 2016

श्रद्धांजलि : अनुपम मिश्र जी को

सूखी बावड़ी
बिलख कर रोई है आज;
सूखे कुओं की कागलें
क्षण भर छलछला कर
सूख गई हैं फिर से;
जर्जर तालाबों की मिट्टी
बैठ गई है थक कर!

पानी की पीर को
बानी देने वाली आवाज़
ख़ामोश हो गई है आज।
सूखे स्रोतों से बतिया कर
जो तर कर देता था उनका दामन
वो निःशब्द हो गया है।

एक पानीदार कहानी
अचानक
गुम हो गई है
किसी पुरानी अभागी नदी की तरह।
धाराओं की बीमारियाँ
तलाशती उँगलियाँ
टटोल नहीं पाईं
अपनी काया को जकड़ रहे
केकड़े का शिकंजा।

किसी मीठे तालाब की
आख़िरी बूंद सूखने जैसा है ये पल
किसी मीठी बावड़ी के
पाट दिए जाने जैसा है
ये समाचार
किसी लबालब कुँए के
रीत जाने जैसा है ये अवसाद

...अनुपम मिश्र को
जिन्होंने जाना है
उनकी आँखें छलकी नहीं हैं;
सूख गई हैं!

© चिराग़ जैन


Friday, December 2, 2016

केदारनाथ धाम का उलाहना

देखकर तुमको
पुलककर खोल दूंगा द्वार
इस भ्रम में नहीं रहना!

याद रखना, सर्द बर्फीली हवा से भागकर
तुम मधुर मनुहार के हर इक नियम को त्यागकर
छोड़ जाते हो कड़कती ठण्ड से बन स्वार्थी
बर्फ़ के वीरान जंगल में अकेला, बेसहारा
ये सभी कुछ भूलकर तुमसे मिलूंगा; मैं निरा ईश्वर नहीं हूँ।
फिर मिलेगा भक्ति का अधिकार
इस भ्रम में नहीं रहना!

जिन धमनियों और शिराओं की उफनती वीथियों में
तुम रवां करते रहे हो, रोज़ मंत्रोच्चार के संग
प्रेम के, अपनत्व के औ आस्था के दीप अनगिन
वे नसें जमने लगी हैं, बर्फ के नीचे सिमटकर
इस दफ़ा उनका पिघलना भी असंभव जान पड़ता है।
फिर उठेगा इन रगों में ज्वार
इस भ्रम में नहीं रहना!

सच कहो, यह प्रेम क्या बस स्वार्थ का दर्पण नहीं है
क्या तुम्हारा प्राथमिक उद्देश्य पर्यटन नहीं है
रोज़ इन दुर्गम पहाड़ों में
हवा जब इस घिनौने प्रेम का आकाश तक उपहास करती है
मैं अकेला सिर झुकाए, ढोंग के संबंध का बोझा उठाता हूँ
फिर छलोगे तुम मुझे इस बार
इस भ्रम में नहीं रहना!

© चिराग़ जैन

Saturday, November 19, 2016

लोकतंत्र के चार स्तम्भ

भारतीय लोकतंत्र के चार स्तम्भ हैं। इनमें से किसी भी स्तम्भ से चिपक कर खड़े हो जाओ, कोई न कोई दूसरा स्तम्भ उसके साथ मिलकर तुम्हें पीस कर रख देगा।

विधायिका की स्थिति ऐसी है जैसे किसी युवती को झीनी पोशाक में झरने के नीचे बैठा कर निकाला गया हो और बाहर आते ही वह दूसरी युवतियों को ढँक-ओढ़ कर रहना सिखाने लगे। एक दल का नेता हमें बताता है कि उसकी जेब में राजीव गांधी के ख़िलाफ़ सबूत हैं। हम उसकी बात मानकर उसे प्रधानमंत्री बना देते हैं। बाद में वह काग़ज़ देश के भविष्य की तरह कोरा निकलता है। फिर कोई आता है और हमें कहता है कि वह राम मंदिर का निर्माण कराएगा। हम उसको भी प्रधानमंत्री बना देते हैं। बाद में वह बस में बैठकर लाहौर की यात्रा पर निकल जाता है। राम जीऔर देश के रामलाल उसकी लीलाएं देखकर ताली पीटते रह जाते हैं। फिर एक व्यक्ति आता है और हमको कहता है कि देश को आर्थिक सम्पन्नता मिलेगी। देश का ग़रीब से ग़रीब शख्स भरपेट खाना खाएगा। हम उसके कहने पर किसी को भी प्रधानमंत्री बना देते हैं। किसान आत्महत्या को मजबूर हो जाते हैं। कोयले से लेकर तकनीक तक की दलाली में घोटाले होने लगते हैं। रोज़ एक नया घोटाला सामने आता है। ग़रीब के हाथ का आख़िरी निवाला भी भ्रष्टाचारियों के गले से नीचे उतर जाता है। ग़रीब विकास करके भुखमरा बन जाता है। सरकारी ईमानदारी का डंका पीटते हुए कलमाड़ी जेल जाते हैं और सरकारी बेईमानी की सुरंग से चुप्पी साध कर छूट जाते हैं। जनता देखती रह जाती है। फिर कोई आता है और हमें बताता है कि वह काला धन हर भारतीय के खाते में डलवा देगा। वह जमाई बाबू को जेल भिजवा देगा। वह स्विस बैंकों में जमा भारत का पैसा वापस लाएगा। वह अच्छे दिन लाएगा। हम उसको भी प्रधानमंत्री बना देते हैं। वह प्रधानमंत्री बनते ही कुर्सी की जगह हवाई जहाज में बैठता है। स्विस बैंकों का पैसा छोड़ कर छोटे-छोटे बच्चों के पिगी बैंक तुड़वा देता है। जमाई बाबू को गिरफ्तार नहीं कर पाता। जनता उससे पूछती है कि हमारे बैंक खाते में पैसा कब आएगा तो वह कह देता है कि वो तो चुनावी जुमला था। हम ठगे से खड़े रह जाते हैं। वह बोलता हैकि आज से लाइन में खड़े होना है। हम लाइन में खड़े हो जाते हैं। वह कहता हैभूखे मरो ताकि विदेशों में देश का नाम हो सके। हम भूखे मरने को तैयार हो जाते हैं।

कुछ लोग पिस-पिस कर मीडिया के पास त्राहिमाम करते हुए जाते हैं। मीडिया उनकी मार्केट वैल्यू के अनुसार उनकी बात सुनता है। फिर अचानक चीखने लगता है। हम खुश हो जाते हैं। मीडिया हमें बोलता है कि सुभाष चंद्र बोस की फ़ाइल मांगो, उससे खुशहाली आएगी। हम फ़ाइल का हल्ला मचा देते हैं। फ़ाइल खुल जाती है। न किसी को जेल होती न खुशहाली आती। हम फिर पूछते हैं, अब क्या करें। मीडिया बोलता है कि राम वाले बयान पर माफ़ी मांगने को बोलो। हम धरने पर बैठ जाते हैं। कुछ दिन तक बैठे रहने के बाद मीडिया हमसे बोर हो जाता है। वह प्रधानमंत्री जी के साथ बेल्जियम जाकर आइसक्रीम खाने लगता हैऔर हम वहीं बैठे रह जाते हैं।

फिर हम सिविल सोसाइटी के पास जाते हैं। एक बूढ़ा बाबा जंतर-मंतर पर बैठ जाता है। हम "जनलोकपाल" के गीत गाने लगते हैं। बूढ़ा फेमस हो जाता है। उसके गुर्गे उसके कन्धों पर खड़े होकर वोट मांगते हैं। वे हमें बताते हैं कि जनलोकपाल बिल पास कराने के लिए चुनाव लड़ना ज़रूरी है। वे कहते हैं कि वे VIP संस्कृति ख़त्म करेंगे। वे सरकारी कोठी नहीं लेंगे। वे सबकी पोल खोलेंगे। वे फ्री वाई फाई देंगे। वे आम आदमी की गुहार सुनेंगे। हम उन्हें मुख्यमंत्री बना देते हैं। अगले ही दिन वे सायरन बजाती गाड़ियों के काफिले में बैठ नई कोठी से निकलकर विधानसभा जाते हैं और जनलोकपाल के साथ अन्ना बाबा को विदाई देते हैं। हम उसकी खाँसी पर चुटकुले सुन-सुनाकर सन्तोष कर लेते हैं।

कई साल तक सुनवाई के बाद निचली अदालत एक सेलिब्रिटी को अपराधी कहती है। उसके दो घंटे के भीतर ऊँची अदालत केस फ़ाइल करने से लेकर जाँच करने तक और गवाहों की गवाही से लेकर सबूतों की प्रमाणिकता तक सब संपन्न करके उसे रिहा कर देती है। हम बिंधे हुए हिरन से चकित रह जाते हैं।

हम धृतराष्ट्र की तरह संजय रूपी मीडिया कीआँखों से देश का कुरुक्षेत्र देख रहे हैं। संजय बोलता है कोसी में बाढ़ आ रही है। हम भागने लगते हैं। संजय बोलता है नदियां सूख रही हैं, हम प्यासे मरने लगते हैं। संजय बोलता है पॉवर हाउस में कोयला ख़त्म हो रहा है। हम इन्वर्टर चार्जिंग करने लगते हैं। संजय बोलता है राहुल गांधी पप्पू है, हम उस पर लतीफ़े गढ़ने लगते हैं। संजय बोलता है मोदी जी घुमंतू हो रहे हैं, हम उनकी खिल्ली उड़ाने लगते हैं। संजय बोलता है मोदी जी शेर हैं, हम उनसे डरने लगते हैं।

सवा सौ करोड़ लोगों की जनता नेतृत्व और सुदृढ़ व्यवस्था के अभाव में अपनी सूझ-बूझ को भौंथरा कर बैठी है। ख़बर तो दूर की बात है, हम सोशल मिडिया की अफवाहों को प्रमाणिक मानने से पूर्व बुद्धि का प्रयोग करना भूल चुके हैं। ऐसे में कतारों में खड़ा वर्तमान अपने भविष्य की आशंकाओं के लिए राजसत्ता या मीडिया की ओर निहारते समय यह क्यों भूल जाता है कि राजनीति की शतरंज पर कोई प्यादा यदि अनवरत विकास करते हुए विपक्षी हाथी के घर तक पहुँच जाता है तो वह स्वयं भी हाथी बन जाता है और फिर वह प्यादे की सीमाएं भूलकर हाथी जैसा आचरण करने लगता है। 

© चिराग़ जैन

Friday, November 18, 2016

पगडण्डी और राजमार्ग

पगडण्डी को छूकर निकला राजमार्ग कुछ देर
त्यौरी पिघलीं, आँखें चमकीं, चिंता हो गई ढेर

तेज़ दौड़ते वीराने को भाया दृश्य सुहाना
चैपालों को हंसी-ठहाका, पनिहारिन का गाना
बूढ़ा बरगद, मीठी पोखर और पशुओं का घेर

मन में कितनी ठंडक उतरी, कैसे मैं बतलाऊँ
जब सूखी आंखों ने देखी, मटके वाली प्याऊ
होंठ नहीं गीले कर पाते फ्रिज से सेठ-कुबेर

पगडण्डी से चलकर आती हैं जब मस्त हवाएँ
राजमार्ग का मन करता है, यहीं कहीं बस जाएं
अमराई में खाट डाल कर सुस्ता लें कुछ देर

यूं तो कितनी शहरी सड़कें आगे-पीछे घूमें
हर आगे बढ़ने वाले को आगे बढ़कर चूमें
पगडण्डी चखकर लाई है मीठे-मीठे बेर

सड़क कभी इस राजमार्ग से मिले कभी उस मग से
पगडण्डी इक बार परस ले जिसको भी निज पग से
फिर मुश्किल है पैदा होना उसके मन में फेर

सड़क लांघ जाती है अक्सर राजमार्ग का सीना
पगडण्डी ने मर्यादा की सीमा कभी तजी ना
रोज़ सबेरे ले आती है पत्ते-फूल सकेर

सड़क विदा के समय अकड़ कर दूर चली जाती है
पगडण्डी सहमी-ठिठकी सी खड़ी नज़र आती है
राजमार्ग को ही जाना पड़ता है नज़रे फेर

मिला हाँफते राजमार्ग को ज्ञान यहाँ अलबेला
बहुत तेज़ जो दौड़ा इक दिन वो रह गया अकेला
काम सभी पूरे हो जाते थोड़ी देर-सबेर

© चिराग़ जैन

Thursday, November 17, 2016

नोटबंदी

नोटबंदी की आठवें दिन मैं अपने मकान मालिक को किराया देने पहुँचा तो मकान मालिक अड़ गया, बोला ‘मैं तो कैश ही लूंगा।’ मैंने कहा कि बैंक से पैसे निकल नहीं पा रहे हैं और वैसे भी अब प्रधानमंत्री जी ने नक़द लेनदेन से बचने की अपील की है।

मकान मालिक नहीं माना और बोला 'मैं तो कैश ही लूंगा, कैश न दे सको तो मकान खाली कर दो।'

मुझे इस ज़िद्दी रवैये पर बहुत क्रोध आया और मैंने पुलिस को फोन मिलाया। पुलिस वाला आया और दोनों को सामने बैठा कर बोला- "मैं भी कैश ही लूंगा।" 

© चिराग़ जैन

Wednesday, November 16, 2016

रेतीली पगडण्डी पर बड़े निर्णय की मोटर

कविता अपने युग की अकथ कथाओं का जनहितकारी वर्णन है। कवि जब जन पीड़ा से विह्वल होकर शासन के विरुद्ध लेखनी चलाता है उस समय उसे इस बात की तनिक भी चिंता नहीं करनी चाहिए कि सत्ता और तंत्र का गठजोड़ उसे किस सीमा तक व्यक्तिगत हानि पहुँचा सकता है।

ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध कविता ने पूरा एक आंदोलन खड़ा किया। उस समय वही लेखनी लच्छेदार भाषा में वायसराय और ब्रिटिश राजसत्ता की चरण-वंदना लिख कर व्यक्तिगत लाभ अर्जित कर सकती थी किन्तु उन बूढ़ी हड्डियों ने जनहित को सर्वोपरि रखकर "तख़्त-ए-लन्दन तक चलेगी तेग़ हिंदुस्तान की" और "सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है" जैसे तराने रचे।

आज़ादी के जश्न में ग़ाफ़िल होते समाज की कलाई पकड़ कर उत्सव को सावधान करते हुए गिरिजाकुमार माथुर ने डिठौना लगाते हुए कहा-

आज जीत की रात पहरुए सावधान रहना
शत्रु हट गया लेकिन उसकी छायाओं का डर है
शोषण से है मृत समाज कमज़ोर हमारा घर है 

बाबा नागार्जुन, जो कि स्वयं को वामपंथ का समर्थक कहते थे उन्होंने भी 1962 की लड़ाई के बाद अपनी आजन्म समर्थित विचारधारा को ताक़ पर रखकर स्पष्ट लिखा- 

वो माओ कहाँ है वो माओ मर गया
ये माओ कौन है बेगाना है ये माओ
आओ इसको नफ़रत की थूकों में नहलाओ
आओ इसके खूनी दाँत उखाड़ दें
आओ इसको ज़िंदा ही ज़मीन में गाड़ दें 

यह काव्यांश इस बात का प्रमाण है कि "आह से उपजता गान" क्रमशः प्रकृति, मानवता, मातृभूमि, जनहित, शासनतंत्र और अंत में स्वयं को प्राथमिकता देता है। हर अच्छी कविता की क़ीमत रचनाकार को व्यक्तिगत बलिदान से चुकानी पड़ती है। कभी कल्पना करें तो सिहरन उठती है कि अपनी 19 वर्षीया बिटिया की मृत्यु की टीस को शब्दों में पिरोकर "सरोज-स्मृति" लिखने वाला निराला कितनी बार बिंधा होगा!

कभी अपने मुहल्ले से गिरफ़्तार होकर निकलने की कल्पना करेंगे तो शायद फ़ैज़ की ये एक पंक्ति पढ़कर दिल बैठ जाएगा- "आज बाज़ार में पा-ब-जौला चलो"। फ़ैज़ इस स्थिति में भी जनहित को सर्वोपरि रखते हुए सत्ता को आईना दिखाने के एवज़ में अपने संभावित हश्र को लिखने से नहीं बाज़ आए कि -

हाकिम-ए-शहर भी, मज़मा-ए-आम भी
तीर-ए-इलज़ाम भी, संग-ए-दुश्नाम भी
रख़्त-ए-दिल बांध लो दिलफिगारो चलो
फिर हमीं क़त्ल हो आएँ यारो चलो 

अश्रुओं से सिक्त कृति ही श्रोता के अधरों और नायन-कोर को एक साथ स्पंदित करने में सक्षम होती है। सत्ता के विरुद्ध लेखनी कवि का धर्म नहीं है लेकिन जनहित के हित को स्वर देते समय शासक के पक्ष अथवा विपक्ष का गणित लगाना रचनाकार के लिए अधर्म अवश्य है।

कांग्रेस के टिकट पर राज्यसभा सदस्य होने के बावजूद जब दिनकर ने नेहरू जी की नीतियों के विरुद्ध "सिंहासन खाली करो कि जनता आती है" गाया तब उनके स्वर में किसी भय का कम्पन सुनाई नहीं दिया।

यूँ आपातकाल भुगतने वाली पीढ़ी बताती है कि उस समय सरकारी कर्मचारी समय पर दफ़्तर पहुँचने लगे थे। लोग अनर्गल आलस्य को त्यागकर अनुशासित हो चले थे। कानून तोड़ने से लोग घबराने लगे थे, आदि। लेकिन यह अनुशासन जनता को किसी नैतिक प्रेरणा की बजाय बलपूर्वक सिखाया गया था। लोकतंत्र की आत्मा को मसोस कर तानाशाही के बीज रोपने का क्रूर प्रयास किया गया था। यही कारण था कि दुष्यन्त के अशआर आपातकाल के विरुद्ध जनता की आवाज़ बन गए, यथा- 

मत कहो आकाश में कोहरा घना है
ये किसी की व्यक्तिगत आलोचना है
-----
एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है
आज शायर ये तमाशा देखकर हैरान है
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जाने कैसी उँगलियाँ हैं जाने क्या अंदाज़ है
तुमने पत्तों को छुआ था जड़ हिला कर फेंक दी 

शासन की आत्ममुग्धता पर चोट करते हुए शायर कह उठा कि
ये सारा जिस्म झुककर बोझ से दोहरा हुआ होगा
मैं सजदे में नहीं था, आपको धोखा हुआ होगा 

जेपी के समर्थन में दुष्यंत ने बेबाक़ कहा कि
एक बूढ़ा आदमी है मुल्क़ में या यूँ कहो
इस अँधेरी कोठरी में एक रौशनदान है 

यहाँ तक कि जनक्रांति को पुनर्जीवित करने के प्रयासों से भी दुष्यंत पीछे नहीं हटे- 

कैसे आकाश में सूराख़ हो नहीं सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो
----
एक चिंगारी कहीं से ढूंढ लाओ दोस्तो
इस दीये में तेल से भीगी हुई बाती तो है 

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आहत हुई तो भवानी प्रसाद मिश्र लिख बैठे- 

बहुत नहीं सिर्फ़ चार कौए थे काले
उन्होंने यह तय किया कि सारे उड़नेवाले 
उनके ढंग से उड़ें, रुकें, खायें और गायें 
वे जिसको त्यौहार कहें, सब उसे मनायें   
कभी-कभी जादू हो जाता दुनिया में 
दुनिया-भर के गुण दिखते हैं औगुनिया में 
ये औगुनिए चार बड़े सरताज हो गये 
इनके नौकर चील, गरुड़ और बाज हो गये
हंस मोर चातक गौरैये किस गिनती में 
हाथ बाँधकर खड़े हो गये सब विनती में 
हुक्म हुआ, चातक पंछी रट नहीं लगायें 
पिऊ-पिऊ को छोड़ें, कौए-कौए गायें  
बीस तरह के काम दे दिये गौरैयों को 
खाना-पीना मौज उड़ाना छुटभैयों को 
कौओं की ऐसी बन आयी पाँचों घी में 
बड़े-बड़े मंसूबे आये उनके जी में  
उड़ने तक के नियम बदलकर ऐसे ढाले 
उड़नेवाले सिर्फ़ रह गये बैठे ठाले 
आगे क्या कुछ हुआ, सुनाना बहुत कठिन है 
यह दिन कवि का नहीं, चार कौओं का दिन है  
उत्सुकता जग जाये तो मेरे घर आ जाना 
लंबा क़िस्सा थोड़े में किस तरह सुनाना ?


नागार्जुन ने तो काव्य के माधुर्य को विस्मृत कर तत्कालीन प्रधानमंत्री के विरुद्ध यहाँ तक लिख डाला- 

इंदु जी इंदु जी क्या हुआ आपको
रानी-महारानी आप
नवाबों की नानी आप
सुन रही सुन रही गिन रही गिन रही
हिटलर के घोड़े की एक एक टाप को
छात्रों के खून का नशा चढ़ा आपको 

और भी अधिक कड़वे होकर बाबा लिखते हैं-
देखो यह बदरंग पहाड़ी गुफ़ा सरीखा
किस चुड़ैल का मुँह फैला है
देखो तानाशाही का पूर्णावतार है
महाकुबेरों की रखैल है
यह चुड़ैल है। 

अटल बिहारी वाजपेयी जी जनहित के पाले में खड़े हुए तो नैराश्य को चुनौती देते हुए चिंघाड़ उठे थे- हार नहीं मानूँगा, रार नई ठानूंगा। 

इन्हीं अटल जी की शिखर वार्ता के विरोध में ओम् प्रकाश आदित्य जी ने लालकिले से कविता पढ़ी -
तूने ये क्या किया अटल बिहारी मुशर्रफ़ को महान कर दिया
उसपे मेहरबान हुए इतने भारी, गधे को पहलवान कर दिया 

हर युग में कविता ने सत्ता की आँखों में आँखें डालने की ज़ुर्रत की है। वागीश दिनकर जी ने इस सन्दर्भ में साफ़ साफ़ लिखा है कि-
युग की सुप्त शिराओं में कविता शोणित भरती है
वह समाज मर जाता है, जिसकी कविता डरती है

शिवओम अम्बर जी ने तुलसी के वंशजों की सत्यभाषी परम्परा को सम्बल देते हुए कहा कि-
या बदचलन हवाओं का रुख़ मोड़ देंगे हम
या ख़ुद को वाणीपुत्र कहना छोड़ देंगे हम
जब हिचकिचएगी क़लम लिखने से हक़ीक़त
काग़ज़ को फाड़ देंगे, क़लम तोड़ देंगे हम 

इस निर्भीक स्वभाव का ही परिणाम था कि जब उत्तर प्रदेश में कला के कंगूरे यश भारती की आस में शासन के गलियारों में फानूस से कालीन तक बनने को तैयार थे तब लेखनी की कतार का सबसे छोटा बेटा प्रियांशु गजेन्द्र मुज्ज़फरनगर के दंगों में जनता की कराह सुनकर लिख रहा था कि-
भोर का प्यार जब दोपहर हो गया
भावना का भवन खंडहर हो गया
तुम संवरते-संवरते हुईं सैफ़ई
मैं उजड़कर मुज़फ्फरनगर हो गया 

एक बार पुनः जनता की सहनशक्ति और शासन की इच्छाशक्ति का आमना-सामना हुआ है। कवियों-लेखकों-व्यंग्यकारों और व्यंग्यचित्रकारों ने एक बार पुनः देश के लोकप्रिय प्रधानमंत्री की किसी नीति से आहत जन की अकथ पीर को लेखनी और तूलिका पर साधने का प्रयास किया है। किन्तु प्रधानमंत्री जी के प्रशंसक उस सारे प्रयास को पूर्वाग्रह का नाम देकर सोशल मीडिया पर गाली-गलौज तक की भाषा से प्रतिक्रिया दे रहे हैं। यह दुःखद भी है और दुर्भाग्यपूर्ण भी।

वर्तमान में प्रधानमंत्री जी ने एक ऐसा निर्णय लिया है जिसका भविष्य संभवतः सुखदायी है किन्तु उस निर्णय के क्रियान्वयन की तैयारी इतनी कमज़ोर थी कि जनता का एक बड़ा वर्ग आर्थिक विपन्नता के कूप में आ पड़ा है। इस कुएँ के भीतर इतना अँधेरा है कि इस बड़े निर्णय की कुक्षि से निकलती रौशनी दिखाई नहीं दे रही है। चाटुकारों से घिरा नेतृत्व जनता की समस्याओं को देखकर भी अनदेखा कर रहा है और आत्ममुग्धता के ज्वर के परिणामस्वरूप अपनी पीठ स्वयं थपथपा रहा है।

किसी नीति के क्रियान्वयन से यदि काम-धंधे ठप्प हो जाएं, अराजकता जैसा माहौल बनने लगे, लूटमारी, कालाबाज़ारी, जमाखोरी, आपसी विद्वेष, वर्ग-संघर्ष और मृत्यु तक की घटनाएँ अचानक बढ़ जाएं तो शासन का कर्त्तव्य बन जाता है कि वह अपनी दूरदर्शिता की विफलता स्वीकार करे। ऐसा करने की बजाय समस्याओं से घिरी जनता और परेशानी से चिल्लाने वालों को "बेईमान" और "देशद्रोही" कहा जाने लगा है।

स्वयं प्रधानमंत्री जी ने इन सब ख़बरों से पीठ फेरते हुए कह दिया कि- "बेईमान चिल्ला रहे हैं और ग़रीब आदमी चैन की नींद सो रहा है।" इस देश की स्थिति एक रेतीली पगडण्डी जैसी है। इस पगडण्डी पर बढ़ाया गया हर क़दम कुछ धूल ज़रूर उड़ाएगा। उस धूल से यदि आपके पीछे खड़े किसी व्यक्ति को धँसका लग जाए और वह खाँसने लगे तो उसे शुष्क कण्ठ को पानी का स्पर्श देनेकी बजाय उसे बेईमान कहा जाना न तो नैतिकता का द्योतक है न मानवता का।

नोटबंदी के विरुद्ध जो भी कुछ कहा जा रहा है उसका केवल इतना ही तात्पर्य है कि रेतीली पगडण्डी पर बड़े निर्णय की मोटर दौड़ाने से पूर्व यदि परिपक्व तैयारियों का छिड़काव कर लिया जाता तो आपकी मोटर के पीछे पुष्पवृष्टि करने वाली जनता का खाँस-खाँस कर बुरा हाल न होता। 

© चिराग़ जैन 

Monday, November 14, 2016

मजमेबाज़ी का तमगा

हम हैं हिंदी कविता की बुनियाद में गड़ने वाले लोग
कहीं बहुत जमने वाले और कहीं उखड़ने वाले लोग
कवि-सम्मेलन पर मजमेबाज़ी का तमगा मत टाँको
मंचों पर भी मिल जाते हैं, लिखने-पढ़ने वाले लोग

© चिराग़ जैन

Saturday, November 12, 2016

सख़्त पहरा है

आज कुछ अचरज नहीं है भाग्य के व्यवहार पर
पूर्णता आ ही नहीं सकती कभी इस द्वार पर
सख्त पहरा है
किसी पिछले जनम के पाप का
हूँ स्वयं कारक नियति में मिल रहे संताप का

भावना से शून्य कैसे प्रार्थना होगी कहो ना
है बहुत दूभर विवशता लाद कर संबंध ढोना
रेत के घर क्यों सदा ही लहर की ज़द में रहे हैं
प्रश्न गहरा है
अर्थ क्या है बस उंगलियों पर सरकते जाप का
हूँ स्वयं कारक नियति में मिल रहे संताप का

किसलिए सुख से सदा वंचित रही अच्छी कहानी
क्यों नयन की कोर पर है पीर का अनुवाद पानी
गीत की दारुण कथा सुन सृजन की पलकें सजल हैं
अश्रु ठहरा है
क्यों हुआ निःशब्द जीवन गीत के आलाप का
हूँ स्वयं कारक नियति में मिल रहे संताप का

जब हथेली की लकीरों से उलझना हो अकारण
कुण्डली में मिल न पाए गृहदशाओं का निवारण
जिस खगोली पिण्ड ने जीवन अंधेरा कर रखा है
वह सुनहरा है
रंग क्या देखूँ नियति से जुड़ चुके अभिशाप का
हूँ स्वयं कारक नियति में मिल रहे संताप का

© चिराग़ जैन

Thursday, November 10, 2016

नोटबंदी

8 NOV

एक सप्ताह से काला धुआँ आँखों में जल रहा था, अब नारंगी और हरे नोट आँखों में चुभ रहे हैं।

जितने का पेट्रोल भरवा सकते हो भरवा लो, बाकी में पैट्रोल डाल कर आग लगा दो। 
आदेशानुसार : मोदी उर्फ़ धो दी।

प्रधानमंत्री जी करुणानिधान हैं
वे जानते थे कि दिल के दौरे वाले मरीज़ 100 रूपये के नोट नहीं जुटा पाएंगे इसलिए अस्पतालों में काले नोट स्वीकार्य हैं।

मोदी जी की इमेज उस बच्चे की तरह हो गई है जो अपनी हर अगली शरारत से पिछले काण्ड को छोटा सिद्ध कर देता है।

इस बीच विजय माल्या ने स्टेट बैंक के जीएम से बोला है कि अपना 1700 करोड़ रुपैया लेना हो तो कल कूड़ेदानों में से बीन लेना। फिर मुझे मत बोलना कि पैसा नहीं दिया।

उधर पाकिस्तान में इस बात की खलबली है कि जो आदमी एक झटके में अपने 1000-500 के नोट की वैल्यू दो कौड़ी की कर सकता है वो हमारे दो कौड़ी के देश का क्या करेगा! 


9 NOV

बॉर्डर फ़िल्म का डायलॉग याद आ गया- 
सुबह नाश्ता करते हुए पोलीपैक दूध बैन कर दूंगा।
दोपहर के लंच में इंजन वाले वाहनों पर रोक लगा दूंगा। और रात के खाने मेंमिल में बना कपड़ा बंद कर पूरे देश को पेड़ के पत्ते लिपटवा दूँगा। 

जसोदाबेन ने मोदी जी को फोन करके पूछा है - 1000 और 500 के नोटों ने भी तुमसे शादी कर ली थी क्या? 

कुछ ख़ास बात नहीं है। करेंसी नोट का रंग रूप अमरीका जैसा बनाने के चक्कर में मोदी जी ने कच्चे के व्यापारियों की शक्ल सोमालिया जैसी बना दी। 

अब तो लोग दो दिन की सब्ज़ी भी इकट्ठी नहीं ख़रीद रहे, पता नहीं मोदी जी कब लौकी को ग़ैर कानूनी घोषित कर दें। 

मन की बात कोई सुन नहीं रिया था तो मेरे भाई ने मनी की बात कर दी।

लब्बो-लुआब : हज़ार और पाँच सौ के नोट एक साथ बंद कर दिए जाएं तो दो हज़ार का नोट पैदा हो जाता है।

स्मॉग हटते ही मोदी जी ने दिन में तारे दिखा दिए।

हज़ारीप्रसाद द्विवेदी जी ने काफी माखनलाल चतुर्वेदी जी लगाए लेकिन बनारसी दासने अमीर ख़ुसरो जी को भिखारी ठाकुर बनाने का फैसला वापस नहीं लिया। अब पूराभारतेंदु हरिश्चंद्र इस फ़िराक़ गोरखपुरी में है कि अपने मैथिली शरण गुप्त धनको उजागर करके मन को निर्मल वर्मा कर लें।

बिगड़ी हुई औलाद को सुधारने के लिए जेबख़र्च बंद करने का उपाय हमेशा कारगर होता है।


10 NOV

8 नवंबर को मोदी जी ने जनता बोला - 1000-500 के नोट काग़ज़ के टुकड़े रह जाएंगे।
9 नवम्बर को न्यायालय ने सरकार से पूछा - pollution कण्ट्रोल का मास्टर प्लान बताओ?
मतलब, सब जानते हैं कि नोट जलेंगे से धुआँ होगा ही होगा।

वो कौन सा दार्शनिक था जो कह कर गया था कि पैसा तो सड़कों पर बिखरा पड़ा है, समेटने के लिए हिम्मत चाहिए। निंद्य है।

© चिराग़ जैन

नोटबंदी

हमारी कल्पना शक्ति अद्भुत है। भारतीय रिजर्व बैंक ने 2000 रुपये के नोट जारी करने की बात कही और हमने कल्पनाएँ शुरू कर दी। बातें बनाने में हमें बहुत मज़ा आता है। ऐसी ही बातों के दम पर मोदी जी को चमत्कार पुरुष मानने की परम्परा चल निकली है।

आँखें बड़ी करके होंठों को गोल करके किस्से सुनाते-सुनाते हम अपने प्रधानमंत्री को पुरानी हिंदी फ़िल्म के उस नायक की तरह समझ बैठे हैं जो बेसिर-पैर की विलक्षण शक्तियों से युक्त होता था। ऐसा हम कई सामाजिक तथा राजनैतिक व्यक्तित्वों के साथ पहले भी कर चुके हैं लेकिन इस बार विशेष यह है कि स्वयं प्रधानमंत्री जी भी ख़ुद को किसी पुरानी हिंदी फ़िल्म का नायक मान चुके हैं।

सवा सौ करोड़ लोगों के देश को चलाने के लिए वे लगभग उन्हीं रास्तों का प्रयोग कर रहे हैं जैसे कोई घर-घर खेल रहा हो। स्मृति ईरानी को मानव संसाधन मंत्रालय देने से लेकर देश की मुद्रा को "गैरकानूनी" घोषित करने तक का उनका जो अंदाज़ है उससे एक बात स्पष्ट है कि रजनीकांत की फ़िल्में देखते हुए वे निश्चित ही तकिया गोदी में रखकर उसे भींच डालते होंगे।

काला धन बाहर निकलवाने का उनका विचार स्तुत्य है किन्तु इतने बड़े राष्ट्र को अचानक मुद्रा विहीन कर देना समझ से परे है। जिन मूल्यों के करेंसी नोट्स को बंद किया गया उसके बाद पूरा देश "एक दिन के लिये ही सही" अर्थहीन हो गया। इस एक दिन को "सिर्फ एक दिन" कहकर टालने से पूर्व हमें यह जान लेना चाहिए कि इस देश का एक बड़ा वर्ग ऐसा है जो दिन भर मेहनत करके शाम को सिर्फ एक दिन के गुज़ारे भर का अर्थ जुटा पाता है; आज लिक्विड मनी की किल्लत के कारण उसके घर चूल्हा नहीं जल पाया होगा।

केमिस्ट 500 का नोट लेने को तैयार है लेकिन उसके पास बाकी बचे रुपये देने को सौ के नोट नहीं हैं। सब्ज़ी वाला, मदर डेयरी, चाय वाला, परचुनिया, पनवाड़ी, खोमचेवाला और यहाँ तक कि पुलिसवालों के समक्ष भी चालान काटने पर खुले पैसों की चुनौती है।

शादी-विवाह का मौसम है। जिसे आज बेटी विदा करनी है उसे कल रात 8 बजे अचानक प्रधानमंत्री जी ने बताया कि उधार लेकर, बैंक से आहरित कर या अन्य उपायों से उसने विवाह के हेतु जो धन जुटाया था वह सब गैरकानूनी है। यहाँ यह व्यवहारिक तथ्य भी ज्ञात हो, कि इस देश में बहन-बेटी को शगुन दिया जाता है जिसके लिए चेकबुक या NEFT/RTGS कराने की परंपरा नहीं है।

यद्यपि हमारे वित्त मंत्री जी बजट भाषण के दौरान यह स्पष्ट बोल चुके हैं कि "मिडिल क्लास" अपना ध्यान खुद रखे, तथापि इस सरकारसे यह प्रश्न करने का तो मन करता है कि मध्यमवर्गीय जनता के जीवन को सुगम नहीं बना सकते तो उसकी जीवनचर्या को जटिल करने का आपको क्या अधिकार है?

सवा सौ करोड़ लोगों के देश में तीन-चार प्रतिशत लोग ऐसे हैं जो करोड़ों के टर्न-ओवर की हैसियत रखते हैं। शेष जनता जीवन की मूलभूत चुनौतियों से जूझने में इतनी व्यस्त है कि लाखों-करोड़ों का हेर-फेर करने की फुरसत उसे मिल नहीं पाती। चार लोगों की खामियाँ टटोलने के लिए छियानवे लोगों को साँसत में ले आना यदि शासक को सफलता का पैमाना जान पड़ता है तो यह आश्चर्यजनक है।

स्विस बैंकों में जिन मोटी मछलियों ने डेरा डाल रखा है उनके नाम उजागर करके उस धन को जनसम्पत्ति घोषित करके देश की आर्थिक स्थिति सुधारने की बजाय देश को मुद्राविहीन कर देना क्या वास्तव में राजनैतिक पौरुष का परिचायक है?

मैं कड़े निर्णयों का विरोधी नहीं हूँ। न ही दो नंबर के पैसे का हितैषी हूँ। प्रधानमंत्री जी की नेकनीयती पर भी मुझे तनिक संदेह नहीं है लेकिन एक विचारशील नागरिक होने के नाते मैं यह अपेक्षा अवश्य करता हूँ कि माननीय नरेंद्र मोदी जी से जिन आँखों ने उम्मीदें जोड़ी हैं उनमें आख़िरी पायदान पर खड़ा वह व्यक्ति भी है जिसकी आवाज़ में विवशताओं की आह से अधिक ध्वन्योर्जा नहीं है। 

डिस्क्लेमर : जल्दबाज़ी में ऊल-जलूल टिप्पणी करने वाले जान लें कि यह लेख मोदी जी के विरोध में नहीं अपितु लोकतंत्र के समर्थन में है। इसलिए तर्कहीन चलताऊ किस्म की श्रद्धापूरित बातें लिखकर अपने चश्मे के शीशे का रंग न बताएं। 

© चिराग़ जैन

Monday, November 7, 2016

दिल्ली महापुराण

कलयुग में आपिये और भाजपाइयों के दो समूह थे। दिल्ली नगरी में संसदपुरी और विधानसभापुरी पर शासन करने हेतु दोनों परस्पर दूसरे को असुर और स्वयं को सुर सिद्ध करने में निमग्न रहते थे। मीडिया माइलेज के संघर्ष में वे जनहित तथा राष्ट्रहित के अस्त्र एक-दूसरे पर चलाते रहते थे। इन अस्त्रों के आघात से इनके सरकारी सिक्योरिटी गार्ड इन्हें बचा लेते थे और अपनी विशेष सिद्धि के बल पर इनकी दिशा आम आदमी की ओर मोड़ देते थे। एक दिन दोनों दल मीडिया नामक त्रिदेव के पास गए। मीडिया ने उन्हें राजनीति के सागर का मंथन करने का उपाय सुझाया। दिल्ली की राजनीति के सागर में मुद्दों का सुमेरु स्थापित किया गया जिसे मीडिया ने कश्यपावतार लेकर अपनी पीठ पर धारण किया। भाजपाइयों ने ज़ी न्यूज़, इण्डिया टीवी और दूरदर्शन जैसे चैनल्स की पूँछ पकड़ी। आपियों के हिस्से एबीपी, एनडीटीवी और आईबीएन 7 जैसे फन आए इस कारन मंथन के दौरान बेचारे आपियों को ज़हरीले डंक का भी सामना करना पड़ता था।

मंथन प्रारम्भ हुआ तो सबसे पहले उसमें से एक एलजी निकले। मीडिया ने वे एलजी टाइम पास के लिए दिल्ली में नियुक्त करवा दिए। उसके बाद दिल्ली पुलिस का अवतरण हुआ। उसे भाजपाइयों को दे दिया गया। फिर डीडीए निकली। उसे भी भाजपाई ले उड़े। आपियों के सरदार ने मीडिया प्रभु से शिकायत की कि मंथन से निकलने वाले सभी रत्न भाजपाई हड़प रहे हैं। यह अन्याय है।

मीडिया प्रभु ने उन्हें आश्वस्त किया कि अब जो भी कुछ निकलेगा उसे आपियों को सौंपा जाएगा। पुनः मंथन आरम्भ हुआ। अबकी बार सागर में से एक सीडी निकली। मीडिया प्रभु ने अपने हाथों से वह सीडी आपिये दल के एक मंत्री के नाम लिख दी।

मंथन आगे बढ़ा। सागर में से अचानक हालाहल निकलने लगा। पूरी दिल्ली ज़हरीले धुंए से घिर गई। प्राणिमात्र का श्वास लेना दूभर हो गया। न्यायालय, NGT और प्रशासन; तीनों से इस धुएँ को ग्रहण करने की अनुनय की गई किन्तु तीनों ने "I DONT SMOKE" बोलकर अपना पल्ला झाड़ लिया।

सभी आपिये और भाजपाई अपनी-अपनी वातानुकूलित गाड़ियों में जा घुसे। शेषनाग का दम घुँटने लगा। उधर सागर विष उगल रहा था, इधर आपिये और भाजपाई परस्पर विषवमन कर रहे थे।

धुएँ से मीडिया की आँखें लाल होने लगी। खाँसी कर-कर के पूरी जनता स्वयं को मुख्यमंत्री समझने लगी थी। चुनाव् आयोग के महादेव ने धूम्रपान करने की बजाय पंजाब चुनाव का बिगुल बजाने का निर्णय लिया। इससे मीडिया प्रभु का ध्यान दिल्ली के धूम्रपान से पंजाब के विषपान की ओर मोड़ दिया। और दिल्ली की जनता को धुएँ के साथ अपनेहाल पर छोड़ दिया। 

© चिराग़ जैन

Saturday, November 5, 2016

प्रेस पर प्रतिबन्ध

प्रेस लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ है। इस पर प्रतिबन्ध भारतीय लोकतंत्र कीआत्मा को जड़ करने जैसा है। लोकतंत्र जब तानाशाही में तब्दील होने लगता है तब मीडिया को चाटुकार बनाने की अपेक्षा रख बैठता है। -ऐसे अनेक सुगढ़ वाक्य मीडिया के समर्थन में सरकार को लानत भेज रहे हैं।

मैं सरकारी कार्रवाई के पक्ष में नहीं हूँ। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रश्नचिन्ह लग गया तो लोकतंत्र में श्वास लेना दूभर हो जाएगा। किन्तु एक बार हमें इस बात पर भी पुनर्विचार करना चाहिए कि क्या मीडिया वास्तव में जनहित और लोकतान्त्रिक मूल्यों को सर्वोपरि रखकर कार्य कर रहा है। कई बार तो ऐसा लगता है कि जिन सिद्धांतों को सर्वोपरि रखना था उन्हें ताक पर रख दिया गया है। टीआरपी और सबसे तेज़ की होड़ ने तथ्यों के गाम्भीर्य और पुष्टि की अवधारणा को तार-तार कर दिया है।

उत्तरदायित्व और नैतिकता को व्यावसायिक स्वार्थों ने लील लिया है। आयकर में 30 प्रतिशत की कर सीमा में भी जो पत्रकार शामिल नहीं हैं उनकी कोठियाँ कैसे बन गईं, जो स्ट्रिंगर चैनल की आईडी लेकर रियल एस्टेट में घुसता है वो ऐसा क्या कमाल करता है कि उसे फ़्लैट की चाबी अलॉट हो जाती है, ऐसा क्यों होता है कि अचानक एयर इण्डिया के खिलाफ रोज़ ख़बरें प्रकाशित होने लगती हैं (फ्लाइट डिले की नार्मल घटना को भी बुलेट मिलता है) और फिर अचानक एक दिन एयर इंडिया की ख़बरें छपनी बंद हो जाती हैं; पॉवर हाउस में कोयला ख़त्म हो जाता है, सभी चैनल्स कोयले की कमी का हंगामा बरपा देते हैं और फिर अचानक बिना लाइट गुल हुए खबर ग़ायब हो जाती है; गौहत्या और गौरक्षक जैसे मुद्दे मीडिया पर रम्भाने लगते हैं फिर बिहार चुनाव संपन्न होते ही सभी गायों को उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है; मोदी जी की नेपाल यात्रा से पहले कोसी में बाढ़ का हड़कंप मचता है फिर मोदी जी नेपाल जाकर लिटमस कागज़ की भूमिका निभा आते हैं; अंतरिक्ष से कोई उल्कापिंड गिरता है तो हंगामा खड़ा होता है फिर मीडिया उसे कैच करके धरती को तबाही से बचा लेता है। -इन सब प्रश्नों पर कोई सवाल उठाने वाला नहीं है।

जो चैनल सरकार के चाटुकार हैं उनको कहीं भी कुछ भी शूट करने की इजाज़त है लेकिन जिनमे सरकारी आलोचना की प्रवृत्ति है उनको प्रसारण की भी आज्ञा नहीं है। हम किस व्यवस्था में जी रहे हैं भाई? जज फैसलों की दिशा मोड़ने केलिए रिश्वत लेते पकडे जा रहे हैं, राजनीति ढिठाई और सत्तासुख की अंधी होड़ में किसी भी सीमा तक जाने को तैयार है, पुलिस चौराहों पर सर-ए-आम जनता की जेब में हाथ डाल कर वसूली कर रही है, मीडिया ख़बरों की दलाली कर रहा है। इस नपुंसक व्यवस्था में राष्ट्रप्रेम और राष्ट्र के शक्तिबोध जैसी बातें करनेवाले भौंडे लगते हैं।

एक NDTV को प्रतिबंधित करना सरकारी तानाशाही का प्रमाणपत्र है। नैतिकता का मापदंड हो तो भूत-प्रेत, अन्धविश्वास, अराजकता, असत्य और गैर-ज़िम्मेदाराना ख़बरें चलाने के ज़ुर्म में लगभग सभी चैनल सीखचों के पीछे हो जाएं।

न्यायालय में विचाराधीन किसी मुआमले पर चर्चा करने का अधिकार मीडिया को किसने दिया? अधकचरे ज्ञानी एंकर बनकर देश की संज़ीदा विषयों पर फैसला सुनाने लग गए हैं। जनता को चैनल पर खुली धमकी दी जाती है कि अगर हमारे पत्रकार को कुछ कहा तो हम तुम्हारी ज़रूरत के मुद्दे दबा देंगे। किस व्यवस्था की बात की जाय साहब।

पूरे कुँए में भांग पड़ी है। माखनलाल चतुर्वेदी, जुगल किशोर, गणेश शंकर विद्यार्थी, प्रभाष जोशी और सुरेन्द्र प्रताप सिंह अपने सींचे पौधों पर दलाली के फल लगते देखकर दुआ मांगते होंगे कि हे ईश्वर इन मीडिया संस्थानों को बंद करवा दो। 

© चिराग़ जैन 

Friday, October 28, 2016

धनतेरस

स्वास्थ्य बढ़े, वैभव बढ़े, बढ़े सम्पदा सर्व।
सब सुख दे, सब हर्ष दे, धनतेरस का पर्व।।

Thursday, October 27, 2016

पटेल

पाँच सौ छियासठ स्वच्छंद रजवाड़े थे जो
कैसे डली उनमें नकेल ज़रा सोचिए
जोधपुर-जूनागढ़ लालच के मोहरे थे
जिन्ना की बिसात पे था खेल ज़रा सोचिए
जो निज़ाम सुब्ह-शाम डसता था उसका भी
कैसे हुआ भारत में मेल ज़रा सोचिए
ओस के कणों को जोड़ के बना दिया ये राष्ट्र
कितने महान थे पटेल ज़रा सोचिए

✍️ चिराग़ जैन

Monday, October 24, 2016

गड्ड-मड्ड

सारी कहानियाँ आपस में गड्ड-मड्ड हो गई हैं। कुरुक्षेत्र में सेनाएँ घुमड़ आई हैं और अर्जुन, कौरव दल से युद्ध करने की बजाय पांडवों को कुहनी मारकर गिराना चाह रहे हैं। अभिमन्यु द्रोण द्वारा रचे गए चक्रव्यूह में प्रवेश करने को उद्धृत थे तभी भीम और युधिष्ठिर ने उसे अड़ंगी देकर धराशायी कर दिया। मंथरा ने केकैयी के कान भरने की बजाय सीधे दशरथ के कान में घर किया है। धृतराष्ट्र पाण्डु के कंधे पर हाथ रखकर दुर्योधन को धमका रहे हैं कि हम पाण्डु को नहीं छोड़ सकते। कुम्भकर्ण नींद से उठते ही मेघनाद से मिलने गए और रावण के खिलाफ पार्टी बनाने का प्रस्ताव रखा। सीता अशोक वाटिका में बैठी रावण और मेघनाद युद्ध का हाल त्रिजटा से सुन रही है। अश्वत्थामा विदुर के घर पर खाट बिछाए सरसों के साग में पतंजलि का घी डाल कर सुपड़ रहे हैं। कृष्ण अपनी गीता लिए कर्ण के रथ पर बैठे हैं कि अर्जुन, अपने चारों भाइयों से लड़ कर लौटे तो उसे भगवद्गीता की सीडी भेंट कर अपने घर लौटें। द्रौपदी ने उत्तर को पतंजलि केश कांति तेल लाने भेज दिया है क्योंकि उसे पता है कि भीम दुःशासन की छाती का लहू नहीं ला पाएगा।कृपाचार्य मंथरा के गले में हाथ डालकर रामपुर के थियेटर में बैठे संजय से पांडव संग्राम का आँखों देखा हाल सुन रहे हैं। शकुनि आँखों पर काला चश्मा लगाए केकैयी के साथ दशरथ और धृतराष्ट्र पर हँस रहे हैं। गांधारी कृष्ण से पूछ रही हैं कि पाण्डवों के अंत के बाद वे उनके साथ मिलकर इंद्रप्रस्थ को बाँट खाने को राजी हैं या नहीं। और यक्ष युधिष्ठिर के गाल पर चपत लगाकर पूछरहे हैं- "क्यों बे, आपस में ही लड़ना था तो कुरुक्षेत्र का मैदान क्यों बुक कराया था?

© चिराग़ जैन

Thursday, October 20, 2016

बस यही दीवाली होती है

कुछ नन्हे दीपक लड़ते हैं, मावस के गहन अंधेरे से 
कुछ किरणें लोहा लेती हैं, तम के इक अनहद घेरे से 
काले अम्बर पर होती है, आशाओं की आतिशबाज़ी 
उत्सव में परिणत होती है, हर सन्नाटे की लफ़्फ़ाज़ी 
उजियारे के मस्तक पर जब, सिन्दूरी लाली होती है 
उस घड़ी ज़माना कहता है, बस यही दीवाली होती है 

घर की लक्ष्मी इक थाली में, उजियारा लेकर चलती है 
हर कोने, देहरी, चौखट को, इक दीपक देकर चलती है 
दीवारें नए वसन धारें, तोरण पर वंदनवार सजें 
आंगन में रंगोली उभरे, और सरस डाल से द्वार सजें 
कच्ची पाली के जिम्मे आँखो की रखवाली होती है 
उस घड़ी ज़माना कहता है, बस यही दीवाली होती है 

© चिराग़ जैन

Wednesday, October 12, 2016

साँवरिया सेठ जी का धाम

पूजन की थाली में सँवरने की होड़ हो तो 
गुलमोहरों से दूब घास जीत जाती है 
मन की उमंग का हो सामना अभाव से तो 
भीतर संजो के मधुमास, जीत जाती है 
मीरा की दीवानगी पे धन पानी भरता है 
साँवरे के दर्शनों की प्यास जीत जाती है 
साँवरिया सेठ जी का धाम बनने लगे तो 
जमुना के तीर से बनास जीत जाती है 

© चिराग़ जैन

Wednesday, October 5, 2016

सबूत पेश करो!

मुल्ला नसीरुद्दीन ने पूरे कॉमिक जगत का सुकून छीन रखा था। वह जब-तब उनके घर में घुसकर दंगा करता और पूरी दुनिया की नज़र में शरीफ बनकर अपनी कोठरी में जा छुपता। एक रात, अँधेरे में कोई आया और मुल्ला नसीरुद्दीन के कान पर ज़ोरदार झापड़ चिपका गया। मुल्ला सारी रात गाल सहलाता हुआ सोचता रहा कि हमलावर उस तक पहुँचा कैसे!

सुबह लोगों ने मुल्ला से पूछा - "क्यों मुल्ला गाल कैसे सूज गया?"

मुल्ला खिसिया कर बोला - "क क कुछ नहीं, मच्छर काट गया।"

सुनकर पास खड़े चाचा चौधरी की हँसी छूट गई। वे शरारती लहजे में मुल्ला से बोले - "मच्छर को क्यों इल्ज़ाम दे रहे हो, साफ़-साफ़ बताओ शेर ने पंजा मारा है।"

मुल्ला समझ गया कि रात के अँधेरे में जो शेर आया था उसके नाख़ून चाचा चौधरी ने ही तराशे थे। झेंप मिटाते हुए मुल्ला बोला - "ऐसा कक.. कुछ नहीं है। ये चौधरी झूठ बोल रिया है, शेर ने पंजा मारा है तो शेर ये बात साबित करे।"

मुल्ला की खिसियाई हालत पर चाचा चौधरी भीतर ही भीतर हँसते रहे। शेर तो सबूत लेकर नहीं आया लेकिन मुल्ला पूरे गाँव में बताता फिर रहा है कि शेर ने पंजा मारा होता तो सबूत लेकर ज़रूर आता।

उधर बिल्लू, मोटू-पतलू, पिंकी, घसीटाराम ये सोच कर हैरान हैं कि हमारे बिना मतलब के सवालों से चाचा चौधरी को इतना वक़्त कैसे मिल गया कि वे मुल्ला को उसके घर में जाकर धुन आए। हाल ही में घसीटाराम ने चाचा को नीचा दिखाने के लिए मुल्ला के सुर में सुर मिलाया है - "यदि शेर ने पंजा मारा है तो चाचा चौधरी उससे आक्रमण के सबूत पेश करने को क्यों नहीं बोलते!" 

* इस कहानी के सभी पात्र काल्पनिक हैं। इनका किसी भी सर्जीकल स्ट्राइक से कोई सम्बन्ध नहीं है। 

© चिराग़ जैन

Saturday, October 1, 2016

दीवारों की आपबीती

आज पिताजी लड़कर निकले
दिन भर घर में मौन समाए
दीवारों पर क्या बीती है
छत को जाकर कौन बताए

माँ से कुछ नाराज़ी होगी
उनको सूझी चिल्लाने की
मुझे देखा तो कोशिश की
उनने थोड़ा मुस्काने की
होंठ हिले, त्यौरी भी पिघली
आँखों में आंसू भर आए
झट से अंतर्धान हुए फिर
गुस्से में हर कष्ट छुपाए
दीवारों पर क्या बीती है
छत को जाकर कौन बताए

कहने-सुनने की जल्दी में
कौन सुने बचपन के मन की
सहम गए सब फूल अचानक
मौसम में ज्वाला-सी भभकी
माँ पहले रूठी फिर रोई
गुस्से में रोटी भी पोई
छोड़ टिफिन को निकले घर से
कुछ भी बिन बोले, बिन खाए
दीवारों पर क्या बीती है
छत को जाकर कौन बताए

धीरे-धीरे ठण्डा होगा
संबंधों का ताप पता है
वरदानों से धुल जाएगा
जीवन का अभिशाप पता है
ऐसा ना हो इस घटना की
बचपन को आदत पड़ जाए
ऐसा ना हो ऐसी घटना
बचपन के मन पर छप जाए
दीवारों पर क्या बीती है
छत को जाकर कौन बताए

© चिराग़ जैन

Saturday, September 24, 2016

पिंक

पिंक इस दौर की एक बेहतरीन फ़िल्म है। लेकिन कुछ अर्थों में मुझे फ़िल्म देखकर ऐसा लगा कि एक बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा स्त्री-विमर्श की आड़ में छुपकर रह गया है। फ़िल्म में पुरुष मानसिकता और नारी की स्थिति से अधिक महत्वपूर्ण तथ्य यह उजागर होता है कि इस देश का पुलिसिया तंत्र किस तरह काम कर रहा है। थाने में एक पहुंच विहीन नागरिक के साथ क्या व्यवहार होता है। पीड़ित व्यक्ति को किस तरह पुलिसवाले डराते हैं। किस भाषा में वे नागरिकों से बात करते हैं। कैसे रसूखदार लोगों की सेवा की जाती है। कैसे बैक डेट में रिपोर्ट लिखी जाती है। कैसे चार्जशीट बनाई जाती है। और भी ढेर सारे सवाल फ़िल्म में छूट से गए हैं।

मुझे लगता है कि पुलिसिया भ्रष्टाचार और सिस्टम की नपुंसकता पर यदि चर्चा उठे तो किसी नागरिक को न्याय की गुहार के लिए न तो स्त्री बनना पड़ेगा, न पुरुष; न उसे दलित बनना होगा न सवर्ण, न उसे हिन्दू होकर न्याय मांगना होगा न मुसलमान होकर इन्साफ की गुहार लगानी होगी।

इंसाफ़ सिर्फ सही अथवा ग़लत की परिभाषा जानता है। और उस इन्साफ के रखवाले हमारे थाने किसी नेता, किसी उद्योगपति या किसी बाहुबली के इशारों की नचैया बनकर रह गए हैं। ऐसे में यदि कोई सरकार पुलिस को जनता के हित में काम करने के लिए बाध्य कर सकेगी तो किसी रसूखदार टपोरी की इतनी हिम्मत नहीं होगी कि वह कानून को जेब में रखकर विटनेस बॉक्स में खड़ा हो। 

© चिराग़ जैन

Friday, September 23, 2016

रामधारी सिंह दिनकर

भारत के ओज स्वरावतार
जनता के मन की दृढ़ पुकार
कविता के तेजस्वी सपूत
वाणी में शौर्य सुधा अकूत
ज्वाला से जब भर गए नेत्र
शब्दों में उतरा कुरुक्षेत्र
गाया करुणा की भृकुटि तान
वह रश्मिरथी का महागान
गीतों में सामधेनी धधकी
जनहित की ज्यों दामिनी दमकी
श्रृंगार रचा उर्वशी सजी
कविता के घर पाजेब बजी
ऐसा शब्दों का प्यार सधा
श्रृंगार सधा, अंगार सधा
शोध अरु इतिहास मिलाय रचे
संस्कृति के चार अध्याय रचे
शासन से आँख मिलाय जिया
नभपिण्डो से बतियाय जिया
है कौन निविड़ जो हरा नहीं
दिनकर जीवत है मरा नहीं
जब भी सत्ता बौराती है
जनता दिनकर को गाती है
जब भी अंधियारा गहरेगा
दिनकर प्राची में प्रहरेगा
रश्मियाँ नहीं लेतीं विराम
दिनकर को शत्-शत् है प्रणाम

© चिराग़ जैन

Tuesday, September 20, 2016

डाइवर्ट

जब हम बोलते थे कि देश में ग़रीबी बहुत है, तो वे बोलते थे कि बड़े लक्ष्य रखो! देखो देश को विश्व समुदाय में सम्मान मिल रहा है। सुनकर हम ग़रीबी पर मौन हो गए।
हमने कहा कि देश में भ्रष्टाचार बढ़ रहा है। वे बोले, दुनिया भारत को देख रही है। ऐसी बातें करके देश का सम्मान कम मत करो। हम भ्रष्टाचार भी पचा गए।
हमने कहा कि देश में महंगाई बर्दाश्त से बाहर हो रही है। वे बोले राष्ट्रप्रेम की बातें करते हो और ज़रा-सी महंगाई नहीं झिल रही। हम अपना-सा मुंह लेकर रह गए।
हमने पूछा कि अच्छे दिन का सपना सच क्यों नहीं हो रहा? वे बोले प्रधानमंत्री पर कटाक्ष करना अशोभनीय है।
...पठानकोट हमले के बाद हमने पूछा कि कब तक सहन करें? वे बोले कि वेदेशी मुआमलात जल्दबाज़ी में नहीं सुलझाए जाते। सब्र करो।
कश्मीर के मुख्यमंत्री ने पाकिस्तान के गुण गाए। हमने आहत होकर पूछा कि ये ग़द्दारी क्यों बर्दाश्त की गई? वे बोले कश्मीर की रणनीति का हिस्सा है। समय आने पर उत्तर दिया जाएगा। अब उरी में निहत्थे सपूत मौत के घाट उतार दिए गए। देश पूछ रहा है कि अत्याचारी को कब सबक सिखाया जाएगा? वे बोले सब्र करो। युद्ध अंतिम विकल्प है।
हमने पूछा कि चुनावी रैलियों में निवर्तमान सरकार को कायर कहकर जब हमसे वोट माँगा जा रहा था तब अंतरराष्ट्रीय समुदाय के सम्मुख देश की विवशता को क्यों अनदेखा किया गया था? 
वे उठे, फोन उठाया, कोई नंबर डायल किया और बोले- "स्वामी जी, देश का रक्तचाप बढ़ रहा है, कुछ ध्यान शिविर आयोजित करो, कुछ ध्यान डाइवर्ट करो।"
इससे पहले कि हम कुछ और बोलते, वे बोले शहीदों की आत्मा की शान्ति के लिए "मौन रखो।"

© चिराग़ जैन

Sunday, September 18, 2016

चलो हटो यहाँ से---

जब हम लालकिले पर भाषण देने जाते हैं तो सीमा पार आतंकवाद की बोलती बंद करने का दम्भ भरते हैं। जी-20 शिखर वार्ता में व्यापार-धंधे की बातें करने जाते हैं तो आतंक के सफाए की गुहार लगाने लगते हैं। चुनाव में प्रचार करने जाते हैं तो 56 इंच का सीना दिखाकर उस पाकिस्तान को डराने लगते हैं, जिसे वोट नहीं देना।

लेकिन पाकिस्तान डरता नहीं है। वह आता है और पठानकोट में उत्पात मचा कर चला जाता है। हमारा काफी नुक़सान होता है। हम उसे मारने की हिम्मत नहीं कर पाते। बल्कि खिसियाते हुए अपनी खिड़की में दुबककर मुर्गे की तरह गर्दन निकाल कर बोलते हैं - "अबकी बार मत आ जाइयो, वरना छोड़ेंगे नहीं।" ...वह इस धमकी को सुनता है, ज़ोरदार ठहाका मारकर हँसता है और उरी की फुलवारी तहस-नहस करके भाग जाता है।

हमारे स्वाभिमान और शौर्यबोध की स्थिति उस अंधे भिखारी जैसी हो गई है जिसे गली के शरारती बच्चे छेड़-छेड़ कर ललकारते हुए भाग जाते हैं और वह हवा में लकड़ी घुमाते हुए अपनी बेचारगी को खोखले क्रोध से ढाँपने की असफल कोशिश करता-करता रो पड़ता है। अंधा रोता रहता है, बच्चे उसकी इस दशा देखकर ज़ोर-ज़ोर से हँसते रहते हैं।

हमारे प्रधानमंत्री जी को उस भिखारी की दशा पर दया आती है। वे उसके आंसू पोंछते हैं। उसे हौसला देते हैं। उसे बताते हैं कि ये बच्चे तो बहुत छोटे हैं। तुम इतने बड़े हो। घबराओ मत। अबकी बार ये तुम्हें छेड़ें तो तुम इन्हें ऐसी पटखनी देना कि याद रखें। मेरी भुजाओं में बहुत शक्ति है। मैं तुम्हारी सहायता करूँगा। इन शरारती लड़कों को अपनी शेर जैसी दहाड़ से बिलों में घुसा दूँगा। तुम चिंता मत करो। अमरीका, रूस, जापान, चीन, इंग्लैण्ड सब जगह मेरी पहुँच है। तुम आराम से जियो। मैं तुम्हारे साथ हूँ।

अंधे का आत्मविश्वास जाग जाता है। बच्चे फिर आते हैं। भिखारी के कंधे पर चिकौटी काटते हैं। अंधा ज़ोर से लकड़ी उठा कर चारों ओर घुमा देता है। बच्चे भाग जाते हैं और वह लकड़ी खुद उस अंधे के माथे पर आ लगती है। अंधा क्रोध, पीड़ा, अपमान, भय और विवशता से आहत होकर धरती पर गिर जाता है।

प्रधानमन्त्री जी उसे बचाने नहीं आते। बचाना तो दूर वे उसे उठाने तक नहीं आते। उनके मंत्रिमंडल के पास समय ही नहीं है उस धराशायी शौर्यबोध को उठाने का। वे सब बहुत व्यस्त हैं। उन्हें केजरीवाल की लंबी जीभ पर टिप्पणी करनी है। उन्हें राहुल गांधी को पप्पू कहकर इमेज डैमेज करना है। उन्हें जियो की एड फ़िल्मशूट करनी है। उन्हें सूट का नाप देने जाना है। उन्हें अपने सीने का नाप लेकर जनता को बताना है। उन्हें नियुक्तियाँ पूरी करनी हैं। उन्हें बुलेट ट्रेन लानी है। उन्हें बहुत कुछ करना है जनाब। उन्हें डिस्टर्ब मत करो।

ये अड़ोस-पड़ोस के बेमतलब मुआमलात में उनको घसीटकर उनका समय नष्ट मत करो। चलो हटो यहाँ से। साहब को प्राणायाम करने दो। 

© चिराग़ जैन 

Saturday, September 10, 2016

अनुनय

बिन मतलब का अहम् कभी जब
बिन मतलब जिद से टकराया
ऐसा भीषण गर्जन गूंजा
संबंधों का दिल घबराया
स्नेह सहमकर स्तब्ध हुआ था
प्रेम घरौंदा ध्वस्त हुआ था
छितराए सुख के सब बादल, लुप्त हुईं स्नेहिल बौछारें
विश्वासों की उर्वर भू पर, उभरीं अनगिन शुष्क दरारें

मन में उपजे एक अहम् ने परिचय की अनदेखी कर दी
जिन पर था अधिकार उन्होंने अनुनय की अनदेखी कर दी
वैरी सा व्यवहार हुआ है
हृदय विराजित भद्र जनों का
राह बनाती पतवारों से
खुद ही लड़ बैठी है नौका
क्लेश सुखों को लील चुका है
द्वेष हृदय को कील चुका है
जो सम्बन्ध नहीं डिग पाए, दुनिया भर के आघातों से
वे दो टूक हुए क्षण भर में, कुबड़ी दासी की बातों से
प्रतिशोधों के आकर्षण ने परिणय की अनदेखी कर दी
जिन पर था अधिकार उन्होंने अनुनय की अनदेखी कर दी

इतना ज़्यादा मान मिला है
पल भर में घिर आए रण को
याद नहीं कर पाया कोई
साथ बिताए मोहक क्षण को
कोई साधन काम न आया
संशय ने सिंहासन पाया
दिल का अवध उजाड़ हुआ है, अपनापन जा बैठा वन में
दशरथ श्वास नहीं ले पाए, महलों के एकाकीपन में
एक चुभन ने यादों के संग्रहालय की अनदेखी कर दी
जिन पर था अधिकार उन्होंने अनुनय की अनदेखी कर दी

© चिराग़ जैन

Monday, September 5, 2016

अहो! शिक्षक-शिष्य सम्बन्ध

सारांश : शिक्षकों की ट्यूशन-लोलुपता ने भारतीय शिक्षा-व्यवस्था को नई ऊँचाइयाँ प्रदान की हैं। युग-युग से योग्य शिष्य ढूंढ़ने में रत शिक्षकों ने अब ग्राहक ढूंढ़कर आत्मकल्याण की राह पकड़ ली है। शिष्य-शिक्षक परम्परा के इस महती परिवर्तन की मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया की सूक्ष्म कथा है यह लेख : 

स्वाधीन भारत में शिक्षकों का काफी विकास हुआ है। आज़ादी से पहले हमारे देश में शिक्षकों का इतना विकास नहीं हो सका था। इसका प्रमुख कारण यह था, कि आज़ादी से पहले हम ग़ुलाम थे, अतएव शिक्षकों को अपनी बहुआयामी प्रतिभा दिखाने का अवसर नहीं मिल पाता था। शिक्षक जानते थे कि जो विद्यार्थी स्वयं तैरकर नदी पार कर रहा हो, वह गुरुजी की नैया को कैसे पार लगा पाएगा? जब तक पाठशाला पहुँचने वाले छात्रों के कपड़ों में नदी का जल विद्यमान रहा तब तक शिक्षकों की आँखों में भी जल पाया जाता था अतः वे अपने निजी स्वार्थों को विस्मृत करके, विद्यार्थियों को योग्य मनुष्य बनाने में संलग्न रहते थे। किन्तु अब शिक्षक जान गए हैं कि एक टुच्ची-सी तनख़्वाह के लालच में बेचारे विद्यार्थियों को कूट-पीटकर संस्कारवान मनुष्य बनाने का यत्न कोरा अत्याचार है। पहाड़ों और वर्णमाला जैसी जटिलताओं से हँसता-खेलता बचपन मर जाता है। किताबों के बोझ तले उनकी शरारतें दब जाती हैं। इसलिए आज़ादी के बाद शिक्षकों ने विद्यार्थियों को पढ़ाना बंद कर दिया। 

धीरे-धीरे विद्यालयों में एक ऐसा सौहार्दपूर्ण वातावरण विकसित हो गया कि विद्यालय जाने के नाम पर कतराने वाले विद्यार्थी अब बड़े चाव से विद्यालय जाने लगे हैं। शिक्षकों और शिक्षार्थियों के मध्य एक ऐसा अनकहा समझौता हो गया है कि शिक्षकों ने विद्यार्थियों से सम्मान की उम्मीद समाप्त कर दी और विद्यार्थियों ने शिक्षकों से ज्ञान की। 

शिक्षक अब जान गए हैं कि मनुष्य के सर्वांगीण विकास के ताले खोलने के लिए कुंजी की आवश्यकता पड़ती है। इसलिए वे विद्यार्थियों को बताते हैं कि नन्दलाल दयाराम की कुंजी में ही सफलता के सूत्र 'छपे' हुए हैं। तुम इन कुंजियों से पढ़कर अवश्य उत्तीर्ण हो जाओगे, क्योंकि हम इन्हीं कुंजियों के मुताबिक़ सफलता की राह पर परीक्षा-पत्र के ताले जड़ेंगे। 

शिक्षक जान गए हैं कि विद्यालय के शोरगुल में अध्ययन संभव नहीं है। इसलिए वे छात्रों को शांत स्थान पर शिक्षा अध्ययन हेतु प्रेरित करते हैं। शांत स्थान अर्थात् मास्टर जी का घर। छात्र अपने अभिभावकों से गुरु-दक्षिणा की रक़म लेकर मास्टर जी के चरणों में अर्पित कर देते हैं। इस नवधा भक्ति से मास्टर जी के भीतर का दिव्य पुरुष प्रसन्न हो जाता है। वह छात्रों को बिना कुछ किए परीक्षा उत्तीर्ण करने का आशीर्वाद देते हैं। और इसके तुरंत बाद छात्र अन्तर्धान हो जाते हैं। शिक्षक जानते हैं कि छात्र घर से एकांत अध्ययन हेतु निकला है किन्तु वह पथभ्रष्ट होकर सिनेमा की ओर जा रहा है। यह सब जानते हुए भी शिक्षक मौन रहता है क्योंकि वह यह भी जानता है कि उसके घर के रसोईघर में नमक का डिब्बा उसी छात्र के द्वारा प्रदत्त गुरु-दक्षिणा की कृपा से भरा हुआ है। नमक के प्रति कृतज्ञता के भाव से भरा हुआ शिक्षक जानता है कि अपने भरतार के कृत्यों की आलोचना महापाप है। 

शिक्षक बच्चों को प्रताड़ित करने में नष्ट होने वाले समय को अब स्टाफ रूम में बैठकर देश और समाज की समस्याओं पर चिंतन करने में उपयोग करने लगे हैं। सरकार द्वारा मिलने वाला बोनस कितना बनेगा; इसकी पाई-पाई कैलकुलेशन गणित के अध्यापक कर देते हैं। सभी शिक्षक काग़ज़ पर गणित के अध्यापक द्वारा लिखी गई आंकड़ों की इबारत पढ़कर धन्य हो जाते हैं। अर्थशास्त्र के अध्यापक बता देते हैं कि बाज़ार में कौन से शेयर का भाव बढ़ने वाला है। इस ज्ञान को प्राप्त करते ही सभी शिक्षकों के अंतर्मन से साधु-साधु की दिव्य ध्वनि निकलने लगती है। 

सामान्य ज्ञान के अध्यापक बताते हैं कि अमुक कक्षा में अमुक बिल्डर का बेटा शिक्षाध्ययन कर रहा है। उसे प्रसन्न रखने से टू बीएचके फ़्लैट कम मूल्य पर प्राप्त किया जा सकता है। सभी शिक्षकों के हृदय में उस छात्र के प्रति प्रेम और आदर घुमड़ने लगता है। यकायक उमड़े इस स्नेह को देखकर छात्र डर जाता है। वह अपने बिल्डर पिता से शिक्षकों के इस विचित्र रवैये की शिक़ायत करता है। चिंतित पिता अपने मित्र अर्थात् विद्यालय के सामान्य ज्ञान के अध्यापक को फोन मिलाते हैं। मित्र समस्या को गंभीरतापूर्वक सुनता है और चिंतित स्वर में बिल्डर को मास्टरों की मंशा बता देता है। बिल्डर, मित्र की सहायता से बेटे का दाख़िला किसी अन्य विद्यालय में करवा देता है और मित्र की सहृदयता से प्रसन्न होकर उसे एक थ्री बीएचके फ़्लैट का उपहार दे देता है। सभी शिक्षकों का हृदय अचानक सामान्य ज्ञान के अध्यापक के प्रति घृणा से भर उठता है। 

विद्यार्थी, जी तोड़कर परिश्रम करते हैं। शिक्षक भी जी तोड़कर मेहनत करते हैं। किन्तु किसी एक वर्ग का परिश्रम किसी भी स्थिति में दूसरे वर्ग के परिश्रम का मार्ग अवरुद्ध नहीं करता। शिक्षक महोदय परिश्रम करते-करते एक दिन विद्यालय छोड़ देते हैं। छात्रों का परिश्रम एक दिन उनसे विद्यालय छुड़वा देता है। दोनों अचानक एक दिन सब्ज़ी मंडी में लौकी के ठेले पर मिलते हैं। छात्र अभिभूत होकर मास्टर साहब के पैर छू लेता है। मास्टर जी गुरुभक्ति से प्रसन्न होकर लौकी छाँटने में छात्र की सहायता करते हैं। छात्र गुरुकृपा से अनुग्रहीत होकर दाम चुकाने में मास्टर साहब की सहायता करता है। 

फिर दोनों अपना-अपना झोला लटकाए जूतियां चटखाते हुए अपनी-अपनी राह पर चल देते हैं। दोनों की आँखें नम हो जाती हैं। दोनों के हृदय में एक जुमला गूंजने लगता है, 'अहो! शिक्षक-शिष्य सम्बन्ध।' 

© चिराग़ जैन

Saturday, September 3, 2016

दिगम्बरत्व

प्रश्न उठा है जैन धर्म के संत नग्न क्यों रहते हैं
प्रश्न उठा है जग में रहकर आत्ममग्न क्यों रहते हैं
प्रश्न उठा है जैन धर्म में बिल्कुल ढील नहीं है क्या
सभ्य जगत् में नग्न विचरना; ये अश्लील नहीं है क्या
सच समझे बिन बकबक करना, थोथा मान तुम्हारा है
त्याग वेश पर नाक चढ़ाना ये अज्ञान तुम्हारा है
काम अगर सर चढ़ जाए तो जीव व्यथित हो जाता है
मन भीतर से निश्छल हो तो त्याग घटित हो जाता है
वस्त्र त्यागना क्या कोई करतब फ़िल्मी हीरो का है
काम विजित कर नग्न विचरना; ये टेवा वीरों का है
शुद्ध आचरण की बातें, अभिमानी नहीं सुनी तुमने
संतों का बस बाना देखा, बानी नहीं सुनी तुमने
चखने वाले ने जूठे बेरों में मीठा प्रेम चखा
जिसके मन में जो मूरत थी उसने वैसा रूप लखा
सच बतलाओ, बचपन में जब नंगे डोला करते थे
तब भी क्या तुम ऐसी ओछी भाषा बोला करते थे
बचपन में हर नारी तुमको क्या केवल तन लगती थी
माँ का दूध पिया तब भी क्या कामवासना जगती थी
कह सकते हो तब तुमको इन बातों का आभास न था
कह सकते हो तब अन्तस् में कोई कामविलास न था
मन का पाप उजागर ना हो इस हित साधन जोड़ लिए
जब मन में कालिख आई तो उजले कपडे ओढ़ लिए
तुमको भय है काम भावना पर तुम पार न पाओगे
मन में पाप उठेगा तो तुम उसे मार ना पाओगे
लेकिन नग्न विचरने वाले संतों को ये फ़िक्र नहीं
धर्मध्यान से सिक्त ह्रदय में, काम-पाप का ज़िक्र नहीं
आत्मसाधना में बाधक अभिशाप भस्म हो जाएगा
तप की ज्वाला में जलकर हर पाप भस्म हो जाएगा
तुम क्या जानो जैन धर्म का क्या इतिहास सुनहरा है
तुम क्या समझो पंचेद्रियों पर धर्मध्यान का पहरा है
केशलोच पर वो बोले जो खुद को नोच नहीं सकते
कितनी कठिन तपश्चर्या है, तुम ये सोच नहीं सकते
हम वो नहीं जिन्होंने केवल धन वैभव ही जोड़ा है
हम उनके वंशज हैं जिनने जीत-जीत कर छोड़ा है
तोरण पर पशुकष्ट देखकर हममें करुणा जागी है
हमने चक्रवर्ती की सब संपत्ति जीत कर त्यागी है
जैन धर्म का साधक केवल क्षमा सुधा ही पीता है
हमने कमठ सरीखा दानव आचरणों से जीता है
हमको अपने मुनिराजों से क्षमाधर्म का ज्ञान मिला
हमें कठिन उपसर्ग समय में संयम का वरदान मिला
हम हिंसक हो जाते तो तुम इतना बोल नहीं पाते
हम बदला लेने लगते तो मुंह तक खोल नहीं पाते
हम भी तुमको गाली दें तो तुम जैसे हो जाएंगे
हम तुम जैसे होकर अपने कुल को नहीं लजायेंगे
तुम इक बार विचारो फिर से अहंकार ही चूका है
उसका चेहरा घृणित हो गया, जिसने नभ पर थूका है
हाथी निकला, श्वान बौराये; कहो लफंगा कौन हुआ
दर्पण में जाकर तो देखो सचमुच नंगा कौन हुआ

© चिराग़ जैन

संदीप कुमार की सीडी

हाईकमान : संदीप कुमार जी, आपने जिस तरह की सेल्फ़ी ली हैं, उनसे आपको डर नहीं लगा?
संदीप कुमार : प्यार करने वाले कभी डरते नहीं, जो डरते हैं वो प्यार करते नहीं।
हाईकमान : तुम्हें कुछ करना था तो चुपचाप कर लेते, इसका ढिंढोरा पीटने की क्या ज़रूरत थी?
संदीप कुमार : प्यार किया कोई चोरी नहीं की, छुप-छुप आहें भरना क्या। 
© चिराग़ जैन 


संदीप कुमार की सीडी पर इतना हंगामा करना बेमानी है।
उसने तो केवल विशाल डडलानी को यह बताया है कि नग्न होने और नंगा होने में क्या अंतर है। 
© चिराग़ जैन 


इस बीच संदीप कुमार ने अरविन्द केजरीवाल को फोन करके बोला - "अब तो यक़ीन आगया कि मैंने वो फोटुएं राशन कार्ड पर चिपकाने के लिए खींची थी!" 
©चिराग़ जैन 

Tuesday, August 16, 2016

खुद से दूर

महफ़िलों की तेज़ नज़रों से छिटक कर रो पड़ा
मन हुआ भारी तो इक पल को पलट कर रो पड़ा

राम जाने एक सूने घोंसले को देख कर
इक मुसाफिर क्यों अचानक से बिलख कर रो पड़ा

प्यार से, झुँझलाहटों से हर तरह रोका उन्हें
और फिर बेसाख़्ता लाचार होकर रो पड़ा

अपने सब अपनों को खुद से दूर जाता देखकर
लौट कर आया तो पर्दों से लिपट कर रो पड़ा

© चिराग़ जैन

Sunday, August 14, 2016

स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या पर कृतज्ञ राष्ट्र का सन्देश

श्रद्धेय राजनीतिज्ञो!
स्वाधीनता के सात दशक बीत चले हैं। इतनी लंबी अवधि किसी भी समाज में विसंगतियों और विद्रूपताओं के प्रवाह हेतु पर्याप्त है। सामान्यतया स्वाधीन हो चुके समाजों में अचानक पनपे अधिकार भाव के कारण इस प्रकार की स्थितियां सहज पनप जाती हैं। किन्तु आप दूरदर्शी लोगों ने स्वाधीन हो जाने के बावजूद महान भारतवर्ष को ऐसे पुंछल्लों में उलझाए रखा कि किसी प्रकार के विकार को पनपाने योग्य समय ही उनके पास शेष नहीं रहा।

समाज विकास की अंधी होड़ में पाश्चात्यता का दास न बन जाए; इस हेतु आप उन्नीसवीं शताब्दी में मर चुकी जातिप्रथा की सड़ी हुई लाश को अपने कंधे पर ढो कर लाए और समाज के बीच उसे पटक दिया। आज़ादी की लड़ाई के उन्माद में जो समाज इसे भूल चुका था, वह पुनः इसके गले-सड़े अंगों से खेलने में मशगूल हो गया।

अंत्योदय और पंचशील जैसे ठाली बैठे के कामों में हमारा नौजवान फँस कर न रह जाए इस हेतु आपने बेरोज़गारी के पैरों पर अपनी पगड़ी रख दी कि वह इस मुल्क़ को छोड़ कर न जाए। आपकी इस अनुनय से पिघल कर महान बेरोज़गारी ने अपना बंधा हुआ बोरिया खोला और इस देश के हर मुहल्ले में अपनी पैंठ बनाई।

परदेसियों के अधीन रहे इस समाज में शासन को शत्रु समझने का भाव घर कर गया था, इस समस्या को ध्यान में रखते हुए आपने जनहित में एक ऐसा अलिखित संविधान तैयार कर डाला जिसमें सरकारी करों के भुगतान का मार्ग अवरुद्ध हो ही न सके। लिखित संविधान के अनुसार सरकार जनता से विविध कर वसूल कर अपने कोष में एकत्र करती है और फिर उस कोष से सड़क, बिजली, जल, शिक्षा, सुरक्षा, न्याय आदि की मूलभूत सुविधाएँ जनता के लिए मुहैया कराई जाती हैं। लेकिन आपका अलिखित संविधान कर प्राप्ति और जनहित के इस अनावश्यक रूप से लंबे तरीके पर विश्वास नहीं करता।उसके अनुसार FIR लिखने और झगड़ों का निपटारा करने के एवज में दरोगा जी; सड़क पर चलने वाले करदाता से ट्रैफिक सार्जेंट और इसी प्रकार एन्य जनसेवक अपने-अपने हिस्से का कर बिना किसी रसीद के सीधे वसूल लें। इस महान प्रणाली से रसीदों में नष्ट होने वाली लुगदी की ख़ासी बचत हुई है।

चुनाव के समय पूरा विश्व हमारे देश की ख़बरों पर निगाह गड़ाए रहता है। ऐसे में भुखमरी, ग़रीबी, बेरोज़गारी, अशिक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं की विफलता, अस्वच्छता, गुंडागर्दी, पुलिसिया भ्रष्टाचार और सामाजिक न्याय जैसे टुच्चे और पुरापाषाणयुगीन मुद्दों पर चुनाव हों तो इससे वैश्विक समाज में हमारी छवि का ह्रास होगा।इस समस्या के समाधान हेतु आप लोगों ने सारी बुराई अपने कन्धों पर उठाते हुए गाली-गलौज, बेतुके बयान, सूट के रेट, घोड़े की टांग, बर्थडे केक के साइज़, गौरक्षा और राममंदिर जैसे मुद्दों को आपने न केवल पैदा किया अपितु अपनी-अपनी पार्टी के कोष की गाढ़ी कमाई व्यय करके इन्हें मीडिया और प्रोपगंडा के माध्यम से हवा भी दी। कई बार तो दंगों में हज़ारों देशभक्तोंकी आहुति देकर भी अपने मूलभूत मुद्दों को सिर उठाने से रोका है।

व्यवस्था को यद्यपि जनता के हित हेतु निर्मित किया जाता है किन्तु आपने ऐसा जादू घुमा रखा है कि आरामकुर्सी पर पसरी व्यवस्था और शासन सुख भोग रहे व्यवस्थापकों के सुख में खलल डालने के उद्देश्य से चलने वाला हर फरियादी दफ्तरों, थानों, अदालतों और खिड़कियों के चक्कर काट-काट कर चप्पलों के साथ-साथ ख़ुद भी घिस गया लेकिन किसी अफ़सर या कुर्सी के कान पर जूं तक न रेंगा सका।

गली के बच्चे-बच्चे को पता होता है कि फलां घर में सेक्स रेकेट चलता है। पच्चीस रुपल्ली ख़र्च करने की औक़ात रखने वाले हर शराबी को पता होता है कि नक़ली शराब कहाँ मिलती है। चरस, गांजा, अफ़ीम, सुल्फा और ड्रग्स का किस नुक्कड़ पर खोखा है। कौन अपने यहाँ जुआ खिलवाता है, कौन क्रिकेट पे सट्टा लगवाता है, किसके यहाँ आधी रात को भी शराब मिल जाएगी -ये बातें हर ऐरे-गैरे-नत्थूखैरे को पता होती है लेकिन आपने अपने कानून के लंबे हाथों को सिस्टम की आँखों के ऊपर से लपेटते हुए अपने कानों तक इस तरह से बाँध दिया है कि इन काली गलियों की अंधियारी से इस महान राष्ट्र की व्यवस्था काली न पड़ जाए।

इस देश को इस दशा तक लाने में आपने जैसा दिन-रात परिश्रम किया है वैसा तो कोई अपनों के लिए भी नहीं करता। आपकी इन सेवाओं के प्रतिफल में अब काश श्रीकृष्ण आपको इस संसार के कष्टों से मुक्त कर अपने जन्मस्थान पर विश्राम करने के लिए उचित व्यवस्था करें।

© चिराग़ जैन

Friday, August 12, 2016

दुर्बुद्धि

दुर्योधन को समझाने वाले उस युग के सर्वाधिक प्रज्ञाशील लोग थे। स्वयम् श्रीकृष्ण, महात्मा विदुर, गंगापुत्र भीष्म, आचार्य द्रोण, कृपाचार्य और गांधारी जैसी मेधाओं का समवेत प्रयास भी उस एक युवक को हठ त्यागने के लिए राजी न कर सके। इसी प्रकार केकैयी को समझाने वालों में महाराज दशरथ, कौशल्या, आर्यसुमंत, महर्षि वशिष्ठ, धर्म प्रतीक भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न और श्रीराम जैसी प्रखर प्रतिभाएँ थीं। रावण को सद्बुद्धि देने के लिए विभीषण, सुमाली, कैकसी, कुम्भकर्ण, मेघनाद, अंगद, मंदोदरी, सीता, सुलोचना और हनुमान जैसे विद्वानों ने हर संभव प्रयास किया किन्तु निष्फल रहे।

एक शकुनि, एक मंथरा या एक शूर्पणखा की दुर्बुद्धि, दर्जनों सद्बुद्धियों से अधिक प्रभावी सिद्ध होती है। दुर्योधन को अपनी भूल तब समझ आई जब वह मरणासन्न था। केकैयी को अपनी ग़लती का एहसास जब हुआ तब तक उल्लास के रंगों को वैधव्य के श्वेत परिधानों से ढँका जा चुका था। रावण जब तक संभला तब तक वह अपने कुल का घात करवा कर धराशायी हो चुका था। 

कुज्ञान कानों के मार्ग से बुद्धि में प्रवेश करता है किन्तु सद्ज्ञान को हासिल करने के लिए कई जीवन अर्पित करने पड़ते हैं।

यह भी सत्य है कि कोई शूर्पणखा, कोई केकैयी या कोई दुर्योधन यदि हठ पकड़ ले तो न केवल अपनी बल्कि अपने आभामंडल और आसपास के प्रत्येक व्यक्ति का जीवन नर्क बना देती है। 

समझ तो नहीं आता, लेकिन यह सत्य है कि साफ़ सुथरा जीवन जीने के लिए अपने इर्द-गिर्द नकारात्मक ऊर्जा से संचालित होने वाला एक भी व्यक्ति चुनौती बन सकता है।

© चिराग़ जैन

Thursday, August 11, 2016

हर ख़ुशी वनवास में है

कोई तो मंथरा रनिवास में है
अवध की हर ख़ुशी वनवास में है

अवध वालो हृदय को वज्र कर लो
कोई पत्थर छुअन की आस में है

कोई हठ पर अड़ा कोई नियम पर
मगर दशरथ गहन संत्रास में है

विवादों में तो कठिनाई बहुत है
क्या उससे भी अधिक उल्लास में है

दिलों में राम बसते हैं हमारे
मगर रावण हमारी श्वास में है

© चिराग़ जैन

थाने मत जइयो!

चुन्नू-मुन्नू थे दो भाई
प्रॉपर्टी पर हुई लड़ाई
चुन्नू बोला मैं भी लूंगा
मुन्नू बोला कभी न दूंगा

झगड़ा सुनकर जिप्सी आई
दोनों को थाने ले आई

थोड़ा तू दे चुन्नू बेटा
थोड़ा तू दे मुन्नू बेटा
थाने में फिर कभी न आना
अपना झगड़ा खुद निपटाना

© चिराग़ जैन

Sunday, August 7, 2016

मेरी ख़ामुशी पहचानो

अब उनका इंतज़ार छोड़ भी दो शानो तुम
ख़ुदकुशी कर लो कहीं अब मिरे अरमानो तुम

जुबां से कुछ न कहूँगा कभी, ये जानो तुम
जो हो सके तो मेरी ख़ामुशी पहचानो तुम

अब अपने बीच नहीं है वो मरासिम क़ायम
कि ख़ुद को मेरी उदासी की वजह मानो तुम

कभी तो दुनिया से मतलबपरस्ती भी सीखो
सदा दीवाने ही रहोगे क्या दीवानो तुम

किसी ‘चिराग़’ को जलने नहीं देना हरगिज़
नहीं तो जान गँवा बैठोगे परवानो तुम

© चिराग़ जैन

मित्रता के संस्कार

बचपन में हमें सुनाई गई दादी-नानी की कहानियों में दोस्ती को कभी अच्छी नज़र से देखने की परम्परा नहीं रही। यदि कभी किसी कहानी ने बन्दर और मगरमच्छ में दोस्ती करवाई भी तो उसके सद्भाव को अंततः मगरमच्छ की धूर्तता के हलक़ में उतर जाना पड़ा। एकाध बार शेर और चूहे की असंभव दोस्ती की कहानियाँ सुनाई गईं तो उसको भी स्वार्थ के जाल में बांधकर भौंथरा कर दिया गया। सारस और लोमड़ी की दोस्ती हुई तो सारस की बुद्धिमत्ता का ढोल पीटने के लिए दोस्ती की खीर में नींबू निचुड़वा दिया। हंस और केकड़े की दोस्ती केकड़े की प्रवृत्तियों की भेंट चढ़ गई। कुल मिलाकर बचपन से ही हमारे अवचेतन में ‘दोस्ती-वोस्ती कुछ नहीं होती’ जैसे वाक्य रोंप दिए जाते हैं।
इसके बावजूद हमने ‘कोई जब राह न पाए, तो हरदम साथ निभाए, तेरी दोस्ती तेरा प्यार’ जैसे फ़िल्मी झाँसों में फँसकर कुछ दोस्त बना लिए और उनके साथ धरम-वीर जैसा रिश्ता भी क़ायम कर लिया। लेकिन अवचेतन में पड़े बचपन के बीजों ने जय-बीरू की दोस्ती को राजेश्वर और वीरसिंह की दुश्मनी में तब्दील करके एक-दूसरे की जान का सौदागर बना डाला।
किस्से-कहानियों और फिल्मों से विरक्त होकर धर्मग्रन्थ उठाए तो पता चला कि मनसुखा और कृष्ण जैसे निश्छल सम्बन्ध बचपन में बन जाते हैं जो ‘भाई नी है’ जैसे अजेय मन्त्रों के सहारे निस्पृहता का यज्ञ संपन्न कर लेते हैं। लेकिन किशोरावस्था आते-आते व्यक्तिगत हित इतनी वरीयता तो पा ही लेते हैं कि दाँत किटकिटाने का बहाना बनाकर दोस्त के हिस्से के चने खा जाने में लज्जा आनी बंद हो जाती है। बचपन की इन्हीं ग़लतियों के परिणामस्वरूप गृहस्थी की विपन्नता के बावजूद संपन्न मित्र से सहायता मांगने में संकोच उत्पन्न होने लगता है।
कर्ण और दुर्याेधन की दोस्ती में कुछ गहराई दिखी तो उनका रिश्ता समर्पण की इस सीमा तक चला गया कि एक-दूसरे को सत्पथ पर लाने की बजाय एक-दूसरे के निर्णय का सम्मान करते हुए विनाश के चौबारे तक चले आए। अश्वत्थामा ने अपने प्रतिशोध को दुर्याेधन की मित्रता के रथ पर चढ़ाकर शिशुघात तक का महापाप कर डाला।
मानस् के महानायक ने निषादराज, सुग्रीव, विभीषण जैसे अनेक मित्र बनाए; लेकिन कूटनीति के झरोखे से झाँकने पर ज्ञात होता है कि ये सभी मित्र बनाए हुए मित्र थे, बने हुए नहीं। यह सोद्देश्य मित्रता थी, निस्पृहता का भाव यहाँ आया भी, तो सशंक।
कुल मिलाकर, दोस्ती के नाम पर हमें जो भी रिश्ते मिलते हैं, उन सबके आधार को हमारे अवचेतन में पड़ी कहानियों, पौराणिक सन्दर्भों और सिनेमा की प्रतिच्छाया ने जर्जर किया हुआ है।

© चिराग़ जैन

मित्रता

सुदामा जैसा मित्र मुझे नहीं चाहिए
जो बचपन में मित्र के हिस्से के चने खा गया
और जवानी में मित्रता का हिस्सा मांगने आ गया

कृष्ण जैसा मित्र भी मुझे नहीं चाहिए
जो बचपन में मित्र की चालाकी पर प्रतिकार किया
और जवानी में मित्र के गिड़गिड़ाने का इंतज़ार किया

मित्रता तो दुर्योधन की बड़ी थी
जिसने कर्ण को तब अंगराज बनाया
जब उसकी प्रतिभा रंगक्षेत्र में असहाय खड़ी थी

मित्रता तो कर्ण सी होनी चाहिए
जिसने दुर्योधन का साथ देते हुए यह विचारा ही नहीं
कि उसका मित्र ग़लत है या सही

© चिराग़ जैन

दोस्त वो है

दोस्त वो नहीं जिसका आपके पास फ्रेंडशिप डे का सबसे पहला मेसेज आए। दोस्त वो जो फ्रेंडशिप डे के दिन आपसे फोन मिलाकर बोले - "साले तूने मुझे याद क्यों नहीं दिलाया कि आज फ्रेंडशिप डे है, कमीने तेरी भाभी को रात 12 बजे wish नहीं कर सका।"

और भी गहरा दोस्त वो है जो आपको बोले - "अबे मेरी एफबी से अपनी भाभी को कोई मस्त सा फ्रेंडशिप डे मेसेज भेज दे यार।"

और भी गहरा दोस्त वो है जो फ्रेंडशिप डे के दिन तुम्हें 20 बार फोन करे लेकिन उसे तुमको फ्रेंडशिप डे wish करना याद न रहे। 

...दोस्त वो है, जो तुम्हारे साथ formal होने की बात सोच भी न सके; दुनियादारी तो दुनिया निभाती है। 

© चिराग़ जैन

Wednesday, August 3, 2016

बुलंदशहर बलात्कार कांड

फट गया कलेजा धरती का
आकाश हिला दिग्गज डोले
ममता की कोरें बिलख उठीं
पत्थर पिघले, पर्वत बोले
फिर क्यों ऐसा कुछ नहीं हुआ
जो हवस की तंद्रा तोड़ सके
ऐसी आंधी क्यों नहीं उठी
जो वहशत को झखझोर सके
मजबूर पिता की चीखों से
अम्बर तक चोट हुई होगी
लाचार बिलखती बेटी जब
बर्बर ने हाय छुई होगी
उस क्षण रस्सी खुल जाती तो
भीषण हुंकार हुआ होता
उस क्षण रस्सी खुल जाती तो
कैसा संहार हुआ होता
उस क्षण रस्सी खुल जाती तो
वहशत की लाश पड़ी होती
उस क्षण रस्सी खुल जाती तो
ताण्डव की एक घड़ी होती
वह क्रुद्ध पिता उस इक पल में
उन सबकी बलि चढ़ा देता
वह क्रुद्ध पिता उस इक क्षण में
सारा ब्रह्माण्ड हिला देता
उसने अरदास लगाई थी
पर हाय विधाता सोता था
और वो रस्सी से बंधा हुआ
बस फूट फूट कर रोता था
उसकी पत्नी, उसकी बेटी
वहशत से रौंदी जाती थी
उसकी रग-रग में ज्वाला की
बिजली सी कौंधी आती थी
उस माँ की पीड़ा कौन कहे
जो ख़ुद वहशत की ज़द में थी
और उसकी छोटी सी बेटी
बर्बरता की सरहद में थी
उसकी पीड़ा लिखना चाहूँ
तो शब्द गौण हो जाते हैं
भाषा हिचकी भर रोती है
व्याकरण मौन हो जाते हैं
यह वह क्षण था जिसको सहना
मानव के वश का रोग नहीं
यह वह क्षण था जिसका जग की
सारी पीड़ा से जोग नहीं
यह वह क्षण था जिसको लखकर
खुद काल आत्महत्या करता
यह वह क्षण था जिसको सुनकर
ईश्वर भी लज्जा से मरता
लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ
धरती अब तक जस की तस है
अख़बार टीस से रंगे मगर
मजबूरी अब तक बेबस है
इस घटना से ज़्यादा बर्बर
इस पर हो रही सियासत है
इस घटना से ज़्यादा बर्बर
सब सह लेने की आदत है
जिनने मानवता जर्जर की
वे तो समाज की व्याधि हैं
लेकिन जो अब ख़ामोश रहे
वे भी समान अपराधी हैं
इतनी दहशत आवश्यक है
वहशत इज़्ज़त से दूर रहे
बेटी-बहनें घर से निकलें
तो हिम्मत से भरपूर रहें
वहशी ने आँख उठाई तो
गर्दनें छाँट दी जाएंगी
इज़्ज़त को हाथ लगाया तो
बोटियाँ काट दी जाएंगी

© चिराग़ जैन

ओके साहब।

साहब जी, बिहार में चुनाव होने वाला है, क्या करें?
गाय का मुद्दा खड़ा करो।
ओके साहब। 

साहब जी, दिल्ली में चुनाव होने वाला है, क्या करें?
फ्री वाई-फाई बांटने का प्रचार करो।
ओके साहब। 

साहब जी, पंजाब में चुनाव होने वाला है, क्या करें?
ड्रग्स की समस्या को भड़का दो।
ओके साहब। 

साहब जी, यूपी में चुनाव होने वाला है, क्या करें?
दलितों के शोषण की घटनाओं को हवा दो।
ओके साहब। 

सारे चुनाव हो गए साहब, अब क्या करें।
अब आराम से सो जाओ।
लेकिन साहब जनता की सेवा कब करेंगे?
नींद पूरी होने के बाद।
ओके साहब। 

साहब वो बिहार वाली गाय रंभा रही है, नींद में खलल पड़ रहा है।
उसे वाई फाई की आदत डाल दो, इंटरनेट पर व्यस्त हो जाएगी।
लेकिन साहब वाई फाई तो मिला ही नहीं। 
तो उसे ड्रग्स की लत लगा दो।
लेकिन साहब ड्रग्स तो हमने चुनाव में बाँट दी।
तो उसे दलितों के यहाँ बाँध आओ, लेकिन मुझे सोने दो।
ओके साहब।

© चिराग़ जैन

Tuesday, August 2, 2016

रे बुलंदशहर!

रे बुलंदशहर!
इतनी बुलंदी तैने कहाँ से पाई कि अपनी बेटी के बलात्कार को अपनी आँखों से देखने वाले बाप की चीत्कार से तेरा कलेजा नहीं काँपा। उस माँ की चीख तुझे सुनाई नहीं दी जिसे समझ नहीं आ रहा था कि अपनी देह पर लिपटे दरिंदों की आँखें पहले फोडूं या अपनी 13 साल की बेटी के जिस्म पर टूटते दुःशासनों की छाती पहले फाडूँ।

इस घटना को पढ़ने के बाद सिहर कर अपनी बिटिया को गले लगा लेने वाले हर पिता को सड़क पर उतर कर व्यवस्था से प्रश्न करना चाहिए कि सिर्फ स्वार्थी राजनीति की रोटियां सेंकने वाले इस तंत्र ने हमें क्या दिया है। हर माँ को व्यवस्था की गिरेबान पकड़ कर पूछना चाहिए कि जनता को सिर्फ वोट समझने वाले इस सिस्टम ने हमारी मेहनत की कमाई किन अय्याशियों पर खर्च की है? हर बेटी को मंत्रियो के कुर्ते खींच कर पूछना चाहिए कि अंकल बलात्कार किसे कहते हैं?

थाने में जाते हुए हम डरते हैं, अदालत के नाम से हमारी रूह कांपती है। ये कौन सा लोकतंत्र है भाई? ये किस व्यवस्था की जकड ने हमें नपुंसक बना दिया है। ऐसे तंत्र के खिलाफ सड़क पर उतरना यदि अराजकता है तो एक बार इस मुल्क की जनता को अराजक होकर भी देख लेना चाहिए।

ये अराजक लोग, कम से कम उस 13 साल की बच्ची से आँख तो मिला सकेंगे जिसे रौंदकर हवस मिटाने वाले लोग हमारी ही टेक्स की दौलत से चल रहे सिस्टम से डरना भूल गए हैं। 

© चिराग़ जैन

जीवन नदिया

जीवन का प्रारम्भ जब होता है, तो वह नदिया की सद्यप्रवाहित धारा-सा अविरल और निष्कलंक होता है। उसकी कलकल मनमोहक होती है। उसका स्पर्श शीतल होता है। ज्यों-ज्यों धारा आगे बढ़ती है, त्यों-त्यों उसका आकार बढ़ता जाता है। गुडलने चलने के प्रयास में बचपन के घुटने मैले हो जाते हैं, लेकिन उसकी प्रवृत्ति और निष्कपटता उसे जीवंत और सर्वप्रिय बनाए रखती है। फिर एक मोड़ पर ये धारा पर्वत की सीमा लांघकर ख्याति अर्जित करने मैदान में उतरती है।
यहाँ इसका संसर्ग धर्म, उद्योग, गृहस्थी, व्यापार और अन्य सांसारिक उद्यमों के अवशेष से होता है। यहाँ इसकी गति मंथर होने लगती है। घाट, पुल और बैराज की नियमावलियाँ इसके यौवन के आह्लाद को विधानों के आघात से जर्जर कर देते हैं। मन पर भारी बोझ लिए जीवन आगे बढ़ने की कोशिश करता है कि तभी विवशता के गारे और अवसाद के कीचड़ का बड़ा सारा नाला इसको रोक लेता है। इसका कलकल करता प्रवाह ठहर जाता है। इसकी शीतलता से सड़ांध उठने लगती है। इसके वातावरण में साँस लेना दूभर हो जाता है। नाम भर की नदी घिसट-घिसटकर आगे बढ़ती है। अब तक इसके भीतर का उन्माद पूरी तरह समाप्त हो चुका होता है। स्मृतियों का ढेर सारा कचरा इसका अभिन्न अंग बन चुका होता है और बीमारियों से जर्जर होते होते इसकी देह हारकर किसी खारे श्मशान में अपने अस्तित्व को समाप्त कर डालती है।

© चिराग़ जैन

Wednesday, July 27, 2016

साहित्य को कालजयी बनाने में व्यवस्था का योगदान

जो लोग इस देश में व्यवस्था की शिक़ायत करते नहीं थकते, मैं उन्हें साफ़-साफ़ कह देना चाहता हूँ कि इस देश की व्यवस्था पूरी तरह कला और साहित्य के पक्ष में है। यह व्यवस्था की ही मेहरबानी है कि हमारी हर फ़िल्म, हर उपन्यास, हर कहानी और हर व्यंग्य कविता कालजयी हो जाती है। सुधारवादी और विकासवादी व्यवस्थाओं में इसकी संभावना शून्यप्रायः होती है।
अंग्रेजी में कोई लेखक यदि अपने समाज में व्याप्त किसी समस्या पर कहानी लिख दे, तो सरकार तुरंत उस समस्या को ठीक करने में लग जाती है और समस्या के ठीक होते ही वह कहानी सन्दर्भविहीन होकर काल के गाल में समा जाती है। हमारे देश में साहित्य के साथ ऐसा दुर्व्यवहार न हो, इसीलिए हमने एक ऐसे सिस्टम को बढ़ावा दिया है जिसमें कोई भी लेखक किसी भी समस्या पर अपनी क़लम चलाए तो कम से कम अपने जीते जी वह उस कृति को मरते हुए न देखे।
पुलिसिया भ्रष्टाचार को समाप्त करना हमारे लिए बाएँ हाथ का काम है। सरकार आज चाहे तो अपने पुलिस महकमे को बोल सकती है कि अब हमारा पेट भर गया है और घर भी। हमारे पास रिश्वत की कमीशन का धन रखने को तिल भर भी स्थान शेष नहीं है। इस स्थिति को ध्यान में रखते हुए कृपया सभी पुलिसवाले सुधर जाएँ और जनता को प्रताड़ित करना बंद करके जनता की सेवा हेतु समर्पित हो जाएँ। ...कितना आसान तरीक़ा है। लेकिन सरकार ऐसा करती नहीं है। क्योंकि कुछ लाख रुपये की कमीशन के बोझ से अपना पीछा छुड़ाकर वह अमूल्य साहित्य की हत्या नहीं कर सकती। इसलिए हमारी ब्यूरोक्रेसी और राजनीति अपने घरों में, दीवारों में, नींव में, छतों पर और यहाँ तक कि टॉयलेट में भी धन भरे जा रहे हैं, लेकिन साहित्य की अविरल धारा पर आँच नहीं आने दे रहे।
ज़रा सोचो, यदि पुलिस-वकील-अदालतें और सरकारी दफ्तर सुधरकर जनता की सेवा में जुट गए, तो मुंशी प्रेमचंद, सआदत अली मंटो, मोहन राकेश, महाश्वेता देवी और ऐसे ही हज़ारों लोगों को ऊपर जाकर क्या मुँह दिखाएंगे इस देश के कर्णधार? यदि भारत पुनः सोने की चिड़िया बन गया तो भारतेंदु की ‘भारत दुर्दशा’ की क्या दुर्गति होवेगी। यदि घरेलू हिंसा में लड़कियों का मारा जाना बंद हो गया तो निराला की ‘सरोज स्मृति’ पढ़कर किसे सिहरन होगी। यदि मुसलमानों का जीवन स्तर पूरी तरह से विकास के पथ पर बढ़ निकले तो राही मासूम रज़ा का ‘आधा गाँव’ किस मुहर्रम में जाकर अपना ताज़िया निकालेगा। यदि हिन्दू मान्यताओं में बढ़ते आडम्बर को समाप्त कर दिया गया तो गाय की पूँछ पकड़कर वैतरणी पार करता होरी, प्रेमचंद की खिल्ली नहीं उड़ाएगा!
साहित्य और कला के प्रति अनुराग ने हमारी व्यवस्था को न कभी बदलने के लिए प्रेरित होने दिया, और न ही कभी किसी प्रकार के भ्रष्टाचरण पर शर्म महसूस होने दी। इससे एक लाभ और है कि हमें अपनी बात में कविता और शेर उद्धृत करने के लिए हर दो साल बाद किताबें नहीं पलटनी पड़तीं। चार-पाँच शेर याद करके ख़ुद पर ‘हाज़िरजवाबी’ का तमगा लगवाने की सुविधा इसी व्यवस्था ने हमें दी है। कुछ लोग तो दुष्यंत के एक शेर के भरोसे पूरा जीवन बिता लेते हैं-

कैसे आकाश में सूराख़ नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो

सब जानते हैं कि अव्वल तो कोई पत्थर उछालनेवाला ही नहीं है और अगर कहीं उछल भी गया तो मुल्क़ की तबीयत इतनी ख़राब कर के छोड़ दी गई है कि कोई भी उछला हुआ पत्थर उछालनेवाले की ख़ुद की खोपड़ी में सूराख़ करने से अधिक कमाल नहीं दिखा सकता।
अंत में, दुष्यंत कुमार का एक ऐसा ही शेर मैं भी उद्धृत कर देता हूँ, जिससे इस देश के सत्तर प्रतिशत चिंतित लेख पिछले तीस साल से प्रारम्भ या अंत करते रहे हैं-

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए

© चिराग़ जैन

Monday, July 25, 2016

सलमान की रिहाई

आज जोधपुर कोर्ट ने दो दो मुजरिम एक साथ बरी किये। पहला, जनाब सलमान खान साहब, जिन्होंने दो चिंकारा मार दिए थे। दूसरा इंसाफ़, जो दशकों से अदालतों की चौखट पर उम्मीद का दीया जलाए बैठा था। 

सलमान की रिहाई से यह सबक मिलता है कि क़ानून की आँखों पर बंधी काली पट्टी एक्चुअली काले धन की कोटिंग है।

कुछ भी हो, लेकिन हमारे न्यायलय ने 'समानता के अधिकार' का सम्मान करते हुए फुटपाथ पर मरने वालों और काले हिरणों को समान दृष्टिकोण से देखा है। 

बड़ा उछल रहा था रजनीकांत कि उसकी फ़िल्म जब रिलीज़ होती है तो छुट्टी घोषित हो जाती है। ज़्यादा मत उछल बे, कहीं सलमान ने देख लिया तो काला हिरण समझ कर मार देगा। 

© चिराग़ जैन

जज साहब की इगो

आज सुबह टेलीविज़न बुलेटिन ने बताया कि एक जज साहब जनता के आक्रोश के शिकार हुए और भीड़ ने उन्हें सड़क पर दौड़ा-दौड़ा कर मारा। मुआमला सिर्फ इतना था कि जज साहब की इगो को इस बात से ठेस पहुंची कि एक ट्रक ड्राईवर ने उनको ओवरटेक करने के लिए साइड नहीं दी। ट्रक ड्राईवर जैसे तुच्छ प्राणी की इस बदतमीज़ी से हिज़ हाइनेस क्रोधित हो गए और उन्होंने उसे सबक सिखाने के लिए कानून की धज्जियाँ उड़ाते हुए अपनी गाडी फ़िल्मी स्टाइल में ट्रक के आगे अड़ा दी। सड़क पर अचानक लगी इस अदालत का ट्रक वाला अंदाज़ा नहीं लगा सका और उसका फुटपाथी ट्रक जज साहब की आलिशान गाड़ी से जा टकराया। टक्कर से उत्पन्न हुए मोमेंटम ने गाड़ी को डिवाइडर की ओर धकेल दिया जहाँ एक बच्चा जज साहब की इगो के नीचे कुचला गया।

यह घटना अनेक प्रश्न खड़े करती है। चूँकि प्रश्न हमारी न्याय प्रणाली को कठघरे में खड़ा करते हैं, इसलिए मैं उनके उठने से पूर्व ही बिना शर्त मुआफ़ी मांग रहा हूँ। हमारे न्याय के मंदिरों में जिन लोगों को न्यायाधीश बनाकर अनेकानेक विशेषाधिकार दिए गए हैं; उनके व्यक्तिगत अहंकार, सर्वोपरि होने की उनकी भावना, अवमानना जैसा अस्त्र क्या वास्तव में आवश्यक हैं? 

प्रश्न यह भी है कि उन्हीं गवाहों, उन्हीं सबूतों और उन्हीं कानूनों के तहत निचली अदालत में किसी को दोषी ठहराया जाता है, जिनके आधार पर ऊंची अदालत उसे निर्दोष साबित कर देती है; तब क्या निचली अदालत ने न्यायाधीश के विरुद्ध गलत फैसला देने के अपराध में कोई कार्रवाई होती है?

क्या इस न्याय प्रणाली ने कुछ हम-तुम जैसे सामान्य मानवों को नियामक बनाकर स्वयं को भगवान मान लेने की ग़लतफ़हमी के बीज नहीं बोए हैं? क्या अहम् और आत्ममुग्धता की ज़मीन पर उगने वाली वल्लरियों के पर्णों को संविधान की ऊँगली थाम कर न्याय के कंगूरों तक पहुँचना स्वीकार होता होगा? जो जज साहब ट्रक वाले के साइड न देने पर आपा खो सकते हैं, वे मुजरिम या मुलाजिम द्वारा सलाम न किये जाने पर क्या कुछ नहीं कर सकते! 

प्रश्न यह भी है कि एक आम आदमी न्याय प्रक्रिया और अदालती माहौल पर विमर्श करने की सोचे तो इसमें अदालत की अवमानना कैसे हो सकती है? हिंदी फिल्मों ने कई दशकों तक अदालती प्रक्रियाओं को पैसे के कोठे पर मुजरा करते दिखाया है। दामिनी, इंसाफ का तराजू, आखिरी रास्ता, अदालत, जॉली एलएलबी, मेहंदी, मेरा साया और मेरी जंग जैसी तमाम फिल्मों ने वकीलों और जजों की लापरवाही व भ्रष्टाचार के अनगिनत उदाहरण पेश किये हैं। फिर किसी लेखक द्वारा इस प्रक्रिया की समालोचना को अपराध कैसे ठहराया जा सकता है।

पहली बार किसी लेख में पाठकों से जानना चाहता हूँ कि क्या आपको अदालत और अदालती लोगों पर एक स्वतन्त्र विमर्श की आवश्यकता महसूस नहीं होती? 

© चिराग़ जैन

Saturday, July 23, 2016

मेह-निमंत्रण

ओ रे बदरा बरस
बन के सावन सरस
राह धरती ने कबसे तकी
प्यास तू ही बुझा जेठ की

हल ने काटी चिकौटी बहुत
पर धरा में नमी ही न थी
ख़ूब टपका पसीना मगर
प्यास में कुछ कमी ही न थी
प्रश्न बढ़ते रहे
हल सिसकते रहे
एड़ियाँ फट गईं खेत की
प्यास तू ही बुझा जेठ की

हिमशिखर का धवल कारवां
कौन जाने कहाँ लुट गया
पर्वतों पर लकीरें बनीं
और झरनों का दम घुँट गया
स्रोत सूखे सभी
घाट रूखे अभी
हर नदी हो गई रेत की
प्यास तू ही बुझा जेठ की

गीत बरखा नहाने चला
तो पसीना-पसीना हुआ
प्रीत जिस डाल पर झूलती
उसका हर पात झीना हुआ
गुलमुहर झर चुका
नीम का सर झुका
हाय मुरझा गई केतकी
प्यास तू ही बुझा जेठ की

जब तू आया तेरी राह में
घास का इक गलीचा सजा
मेंढ़कों ने धमक छेड़ दी
पत्तियों पर तराना बजा
फूल के संग झरी
नीम ने रसभरी
इक निम्बोली तुझे भेंट की
प्यास तू ही बुझा जेठ की

© चिराग़ जैन

गाली-गलौज का स्वर्णकाल

देश में गाली-गलौज का स्वर्णकाल चल रहा है। उत्तर प्रदेश के चुनावी दंगल का आगाज़ उत्तर प्रदेश की विविध सांस्कृतिक गालियों के साथ हुआ। भारतीय जनता पार्टी, जिसने ख़ुद ही अपने सिर पर सांस्कृतिक मूल्यों की रक्षा का सेहरा लपेट रखा है, उसने पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव से लुप्त हो रही गालियों के संरक्षण के उद्देश्य से एक ‘पुरावैदिक कालीन गाली’ सुश्री मायावती को भेंट की। उससे प्रभावित होकर दलित समर्थकों ने ‘पौराणिक युग’ की याद दिलाई और शूर्पणखा की नाक काटने और द्रौपदी का चीरहरण करने की धमकी दे डाली। फिर वही हुआ, जो होना था। मास-सिम्पैथी का रुख सुग्रीव की ओर मुड़ गया और सुग्रीव किष्किन्धा का सिंहासन छोड़कर ऋष्यमूक पर्वत की कंदराओं में मूक होकर बैठ गया।
मायावती ने द्रौपदी को जंघा पर बैठाने की पेशकश को ‘सबक सिखाने के लिए किया गया कृत्य’ घोषित करते हुए अपनी आँखों पर पट्टी बांधकर स्वयं को गांधारी सिद्ध कर दिया। इस बीच कुछ अर्जुनों ने गाली बकनेवाले जयद्रथ की ज़ुबान काटने की इनामी प्रतिज्ञा कर ली।
राजनीति की इस महाभारत में कांग्रेस के दो लीडरों ने मिलकर बड़ी मेहनत से केंद्र सरकार के लिए ‘कचरा’ जैसा शब्द प्रयोग किया और गालियों के इस सेतुनिर्माण में गिलहरी की भूमिका अदा कर दी। कांग्रेस के इस कृत्य से आभास हुआ कि यदि कांग्रेस ने राजीव जी द्वारा दिए गए कम्प्यूटर का प्रयोग किया होता तो आज उन्हें एक-47 के युग में खुखरी से काम न चलाना पड़ता। मीडिया ने शकुनि बनकर इस महासमर में शांति की संभावनाओं को प्राइम टाइम बुलेटिन की चौसर पर ध्वस्त कर दिया और कानून ने धृतराष्ट्र की भूमिका प्राप्त करने के लिए अपनी आँखें फोड़ लीं।
इस दौर का एक बड़ा लाभ यह हो रहा है कि जो नई पीढ़ी फिल्मों से सीखकर ‘शिट’; ‘फ़क’; ‘एस्सहोल’ और ‘बुलशिट’ जैसे पाश्चात्य शब्दों को भाषा का स्टेटस सिम्बल समझने लगी थी उसको कम से कम यह तो पता चल रहा है कि भाषाई अलंकरण में हमसे आगे दुनिया में कोई नहीं हो सकता।
हमने ऐसे-ऐसे शब्दों से अपनी भाषा को समृद्ध किया है, जिनका सौंदर्य देखते ही बनता है। हमने किसी को अपमानित करने के लिए कभी भी अपनी जिव्हा पर ‘शिट’ जैसी गन्दी चीज़ नहीं रखी। ‘कमीन’; ‘नीच’; ‘चाण्डाल’; ‘कुत्ता’ और ‘सूअर’ जैसे शब्दों को गाली के रूप में मान्यता देकर हमने कई पीढ़ियों तक प्रेम-प्रदर्शन का मार्ग प्रशस्त किया है। ‘हराम’ जैसा शब्द तो हर आम आदमी के लिए प्रयुक्त किया जा सकता है।
इस देश के प्राथमिक स्कूलों के विद्यार्थी आज भी आधी छुट्टी में इस विषय पर संगोष्ठी करते मिलते हैं कि ‘साला’ गाली है या नहीं। वे अबोध समझते हैं कि जिन शब्दों को मास्टरजी और पापा सामान्य व्यव्हार में प्रयोग करते हैं, वे गाली कैसे हो सकते हैं। अब उन्हें कौन समझाए कि इस शब्द में मौजूद अन्योक्ति अलंकार ने कितनी सरलता से हमारी सामाजिक मर्यादा के बावजूद दिल की बात ज़ुबान पर लाने का जरिया किया है।
माँ, बेटी और बहन से शुरू होनेवाले शब्द युग्मों ने अपनी लयात्मकता के सहारे आम बोलचाल की भाषा में ख़ुद को खपा लिया है। हाँ इधर कुछ लोग पुरुष देहयष्टि को स्त्री अंगों के साथ गड्ड-मड्ड कर कुछ अपभ्रंश शब्दयुग्मों का प्रयोग करने लगे हैं। इस प्रवृत्ति ने विश्व को ट्रांसजेंडर नाम के एक नए समुदाय की सौगात दी।
मानवता का विकास लिखने से पहले गालियों के विकास का गहन अध्ययन आवश्यक है। शिशुपाल ने कुल सौ गालियों से कृष्ण के जाम पड़े चक्र को गति दी थी। आज भी जब इस देश में चक्काजाम की स्थिति आती है तो जनता गालियों की ग्रीसिंग करके ही उसे गति देती है।
उत्तर प्रदेश के वर्तमान राजनैतिक माहौल ने हमारा ध्यान इस पुरातन परम्परा की ओर आकृष्ट किया है। मैं मन ही मन गाली बकते हुए उनका आभार व्यक्त करता हूँ।

© चिराग़ जैन

Thursday, July 21, 2016

अपना थूका अपने मुँह

मायावती को अपशब्द कहने वाले दयाशंकर को पार्टी ने रामभरोसे बनाकर छोड़ दिया। दयाशंकर की भाषा निश्चित रूप से अक्षम्य है किन्तु राजनीति में इस परम्परा के निर्वाह में स्वयं मायावती भी अग्रणी रही हैं। जातिवाद और वर्गसंघर्ष की उत्तेजना जिनकी राजनीति का आधार रही है; साथ ही जिन्होंने सार्वजनिक मंच पर "तिलक, तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार" जैसे उद्घोष के किये हैं; उनको तो अपनी बोई हुई फसल के लहलहाने पर गर्व होना चाहिए। 

मायावती जी ने बताया कि उन्होंने अपने राजनैतिक जीवन में किसी के चरित्र पर ऊँगली नहीं उठाई तो फिर "श्री मान मुलायम सिंह यादव चोर है" जैसे वाक्य क्या किसी ने उनकी कनपटी पर पिस्टल रखकर बुलवा लिए थे।

आश्चर्य होता है कि किसी पार्टी के उत्तरदायी सदस्य द्वारा किसी पार्टी की सुप्रीमो को एक शब्द गाली देने पर पूरे देश की भावनाएं आहत हो गईं लेकिन लोकतंत्र के मंदिर में उसी मुद्दे पर उसी सुप्रीमो द्वारा सरे-आम धमकी दी जाती है कि यदि दयाशंकर के ख़िलाफ़ सख्त कानूनी कार्रवाई नहीं की गई तो पूरा देश इसका परिणाम भुगतेगा। ...वाह री राजनीति। 

दयाशंकर और उस जैसे अभद्र लोगों के ख़िलाफ़ जितनी सख्त कार्रवाई हो मुझे उतना अधिक संतोष मिलेगा, लेकिन व्यक्तिगत मान की रक्षा में देश के सम्मान की धज्जियाँ उड़ाने वालों पर भी भृकुटि तानी जानी चाहियें।

© चिराग़ जैन

Wednesday, July 20, 2016

सावन

बरखा, बादल, बीजुरी, रिमझिम, झर-झर नीर
मीत संग सब नीक है, बिरहन कू सब पीर

© चिराग़ जैन 

Monday, July 18, 2016

राजनीति के दो चेहरे

दृश्य 1 
एंकर : आप जीएसटी बिल पर कांग्रेस से क्या अपेक्षा करते हैं।
भाजपाई : कांग्रेस देशहित के लिए इस बिल का समर्थन करे।
कांग्रेसी : लेकिन 2013 में तो इसी बिल का भाजपा ने विरोध किया था।
भाजपाई : बीती ताहि बिसार के आगे की सुधि ले।

दृश्य 2 
एंकर : आपकी सरकार कश्मीर समस्या का कोई समाधान क्यों नहीं निकाल पा रही?
भाजपाई : कश्मीर समस्या नेहरू जी की ग़लती का परिणाम है।
एंकर : आप आतंकवाद से नहीं निपट पा रहे हैं।
भाजपाई : आतंकवाद इंदिरा गांधी की देन है।
एंकर : भ्रष्टाचार और काला धन आपके नियंत्रण में नहीं आ रहा।
भाजपाई : कांग्रेस के साठ साल के शासन में भ्रष्टाचार व्याप्त हुआ है।
कांग्रेसी : लेकिन आप तो कहते हैं कि बीती ताहि बिसार के आगे की सुधि ले।
भाजपाई : नहीं रे, हर जगह एक सी कविता नहीं चलती रे।
एंकर : तो यहाँ के लिए कौन सी कविता है?
भाजपाई : लम्हों ने ख़ता की थी, सदियों ने सज़ा पाई।

© चिराग़ जैन