गत दो दशक से मेरी लेखनी विविध विधाओं में सृजन कर रही है। अपने लिखे को व्यवस्थित रूप से सहेजने की बेचैनी ही इस ब्लाॅग की आधारशिला है। समसामयिक विषयों पर की गई टिप्पणी से लेकर पौराणिक संदर्भों तक की गई समस्त रचनाएँ इस ब्लाॅग पर उपलब्ध हो रही हैं। मैं अनवरत अपनी डायरियाँ खंगालते हुए इस ब्लाॅग पर अपनी प्रत्येक रचना प्रकाशित करने हेतु प्रयासरत हूँ। आपकी प्रतिक्रिया मेरा पाथेय है।
Sunday, December 30, 2018
चुनावी चक्कर
नए साल में राजनीति
चुनाव आ गए
Saturday, December 29, 2018
प्यार कहाँ खो बैठे
नियति
Friday, December 28, 2018
ख़ास अनुभूतियों की आम अभिव्यक्ति : चिनिया के पापा
Monday, December 24, 2018
दो हज़ार अठारह विदा
Thursday, December 6, 2018
पुरुषोचित
Monday, December 3, 2018
हवा में ज़हर घुलता जा रहा है।
जो आग के ज़रिए
हवाओं में कहीं ग़ुम हो गई थी;
वही अब साँस के ज़रिए
हमारे फेफड़ों में जम रही है।
हमारी साँस की सरगम सुनाती धौंकनी से
अचानक आह की आवाज़ आने लग गई है।
कोई तो है
जो अपने साथ बीती ज़्यादती का
हमारी नस्ल से दिन-रात बदला ले रहा है।
कोई तो है
जो हमसे ही हमारी कौम को बर्बाद करने के लिए
बारूद-असला ले रहा है।
कोई तो है जिसे मालूम है
कमरे को ठंडा कर रहे
हर देवता का दूसरा चेहरा
बड़ा भभका उठाता है।
कोई तो है जिसे एहसास है
हर आँख में पलती
हर इक अय्याश हसरत की
कोई मजलूम ही क़ीमत चुकाता है।
हवा में ज़हर घुलता जा रहा है।
सुना है
पेड़ बादल को बुलाने के लिए
बाँहें उठाते थे।
सुना है प्यास से थक कर परिंदे
बारिशों की मिन्नतों के गीत गाते थे।
सुना है
सर्दियों में खेत कोहरे की रिजाई ओढ़ लेते थे।
सुना है
फूल गुलशन में टहलती तितलियों को
रोक लेने की सुबह से होड़ लेते थे।
सुना है
एक मुद्दत से किसी भी फूल से मिलने
कोई तितली नहीं आई।
सुना है
एक अरसे से
सिमटते जा रहे तालाब पर
बदली नहीं छाई।
सुना है
पूस की ठंडी ठिठुरती रात में भी
खेत नँगा सो रहा है।
सुना है कोयलें सब ग़ैर-हाज़िर हो चुकी हैं;
सुना है बांझ होते जा रहे फलदार पेड़ों की
पुराना बाग़ लाशें ढो रहा है।
सुना है
हर नदी नाराज़ हैं।
हवाएं रोज़ बेइज़्ज़त हुई हैं।
ज़मीं के ख़ूबसूरत जिस्म पर
तेज़ाब फेंका है हमारी हसरतों ने।
सुना है पेड़ अब इस बेअदब इंसान को
छाया नहीं देते।
जिन्हें हम पूजते थे देवता कहकर
बहुत बेफ़िक्र थे हम लोग जिस आगोश में रहकर
सुकूँ देता था जिनका साथ, जिनका संग
बहुत गहरा था जो इक दोस्ती का रंग
वो गहरा रंग धुलता जा रहा है
हवा में ज़हर घुलता जा रहा है
© चिराग़ जैन
Saturday, December 1, 2018
आस का पत्ता
गन्ध की पाँखें विकल हैं
पेड़ पत्थर से हुए हैं
ख़्वाब नश्तर ने छुए हैं
पर अभी भी आस का दामन नहीं छूटा
आखि़री पत्ता नहीं टूटा
मुस्कुराहट पर बनावट का असर दिखने लगा है
हर क़दम पर अब कोई अनजान डर दिखने लगा है
नित नए अनुभव हमारी आस को खलने लगे हैं
रेत पर कुछ भ्रम हमारी प्यास को छलने लगे हैं
कष्ट बढ़ते जा रहे हैं
प्रश्न चढ़ते आ रहे हैं
आँख से आराम का सपना नहीं रूठा
आखि़री पत्ता नहीं टूटा
आँख के आगे कोई घेरा घनेरा छा गया है
है निपट एकांत, साये पर अंधेरा छा गया है
हर उजाला लुट चुका है, हर सहारा लुट चुका है
जो दिशा का ज्ञान देता वो सितारा लुट चुका है
आह का स्वर घुँट गया है
चाह का घर लुट गया है
हौसले का वक़्त ने झोला नहीं लूटा
आखि़री पत्ता नहीं टूटा
इस प्रतीक्षा के परे फिर से अहल्या श्वास लेगी
और शबरी के चखे हर बेर की क़िस्मत जगेगी
जानकी के पास सागर लांघ आएगी अंगूठी
भोर से पहले उठा ले आएंगे हनुमान बूटी
कष्ट जब हद से बढ़ेगा
देव को आना पड़ेगा
ये अटल विश्वास हो सकता नहीं झूठा
आखि़री पत्ता नहीं टूटा
© चिराग़ जैन
Thursday, November 22, 2018
दुःख से यारी
दुःख देहरी तक चलकर आया
सुख के नखरे कौन उठाता
मैंने दुःख से यारी कर ली
सुख को पाने की कोशिश में, हर दिन ख़ुद को सेज किया है
दुःख, जिसने किरदार निखारा, उससे ही परहेज किया है
अब मैंने अपने दुखड़े संग
हँसने की तैयारी कर ली
सुख के नखरे कौन उठाता
मैंने दुःख से यारी कर ली
सुख की सबको चाह रही है, दुःख का कोई चाव नहीं है
पर सुख जो मुझसे करता है, वो अच्छा बर्ताव नहीं है
सुख से भीख नहीं मांगूंगा
दुःख से ही अलमारी भर ली
सुख के नखरे कौन उठाता
मैंने दुःख से यारी कर ली
जितनी इसकी पूछ करूं मैं, उतने ताव दिखाता है सुख
जिस दिन से मुँह फेर चला हूँ, पीछे-पीछे आता है सुख
तब इसने दुत्कार दिया था
अब मैंने ख़ुद्दारी भर ली
सुख के नखरे कौन उठाता
मैंने दुःख से यारी कर ली
साथ न छोड़ेगा जीवन भर, सारे दोष क्षमा कर देगा
दुःख से हँसकर मिल लूंगा मैं, तो ये क्या से क्या कर देगा
दुःख से रायशुमारी कर के
सारी दुनियादारी कर ली
सुख के नखरे कौन उठाता
मैंने दुःख से यारी कर ली
© चिराग़ जैन
Monday, November 19, 2018
हिम्मत
ऐ हौसले तू दो घड़ी आराम ले कहीं
मैं मुश्किलों से टूट ही जाऊँगा शौक़ से
हिम्मत तो साथ छोड़ने का नाम ले कहीं
© चिराग़ जैन
Thursday, November 15, 2018
ख़रीददार
सिर्फ़ दौलत से इन्हें पाना अभी मुम्किन नहीं है
हर गुज़रता शख़्स इनके दाम पूछेगा यक़ीनन
हर किसी के हाथ बिक जाना अभी मुम्किन नहीं है
हाथ में अमृत लिए धन्वंतरि आ ही गए हैं
पर अमरता के लिए संग्राम होना है ज़रूरी
हाँ, कई राजा उपस्थित हैं स्वयंवर की घड़ी में
किन्तु सीता के लिए तो राम होना है ज़रूरी
द्वार पर अकबर खड़ा संगीत की अरदास लेकर
कह दिया हरिदास ने गाना अभी मुम्किन नहीं है
हर किसी के हाथ बिक जाना अभी मुम्किन नहीं है
बाँसुरी का मोल करना है बहुत आसान लेकिन
श्वास को सरगम बनाने की कला अनमोल ही है
आरती की तान में शामिल हुआ तो पूज्य है अब
शंख वरना लिजलिजे से कीट का बस खोल ही है
प्यास से चातक बहुत बेचैन है लेकिन समझ लो
प्यास पोखर से बुझा आना अभी मुम्किन नहीं है
हर किसी के हाथ बिक जाना अभी मुम्किन नहीं है
© चिराग़ जैन
दिल्ली भारत की राजधानी है
Sunday, November 11, 2018
कर्ण का परिताप
तुम प्रपंचों में समय अपना खपाना
मैं समर के हर नियम को मान दूँगा
तुम बदलकर वेश मुझसे मांग लेना
मैं कवच-कुण्डल ख़ुशी से दान दूँगा
हाथ की सारी लकीरें हैं विरोधी
अब भला कुछ झोलियों का रीतना क्या
न्याय से या सत्य से सम्भव नहीं जो
झूठ कहकर उस समर को जीतना क्या
तुम निहत्थे वीर पर पौरुष दिखाना
मैं किसी अभिशाप को सम्मान दूँगा
धर्म के हाथों तिरस्कृत ही रहा हूँ
पाप का आभार ले-लेकर जिया मैं
दंश बिच्छू का सहा तो ये मिला फल
शाप का उपहार ले-लेकर जिया मैं
तुम धनुष के ज्ञान पर ऊर्जा लगाना
मैं बस अपने जाति-कुल पर ध्यान दूँगा
द्रोण, कुंती, कृष्ण, पांचाली, पितामह
मैं सभी के द्वार से लौटा अभागा
आज अर्जुन और मुझमें युद्ध तय है
आज पहली बार मेरा भाग्य जागा
जो मुझे कुछ भी न दे पाए जनम भर
मैं उन्हीं की इक ख़ुशी पर प्राण दूँगा
© चिराग़ जैन
Friday, November 9, 2018
नीलकंठी हो गए हैं हम
इक धुँआ-सा हर किसी के
प्राण लेने पर तुला है
साँस ले पाना कठिन है, घुट रहा है दम
नीलकंठी हो गए हैं हम
हम ज़हर के घूँट को ही श्वास कहने पर विवश हैं
ज़िन्दगी पर हो रहे आघात सहने पर विवश हैं
श्वास भी छलने लगी है
पुतलियाँ जलने लगी हैं
इस हलाहल से रुधिर की
वीथियाँ गलने लगी हैं
उम्र आदम जातियों की हो रही है कम
नीलकंठी हो गए हैं हम
पेड़-पौधों के नयन का स्वप्न तोड़ा है शहर ने
हर सरोवर, हर नदी का मन निचोड़ा है शहर ने
अब हवा तक बेच खाई
भेंट ईश्वर की लुटाई
श्वास की बाज़ी लगाकर
कौन-सी सुविधा जुटाई
जो सहायक थे, उन्हीं से हो गए निर्मम
नीलकंठी हो गए हैं हम
लोभ की मथनी चलाई, नाम मंथन का लिया है
सत्य है हमने समूची सृष्टि का दोहन किया है
देवता नाराज़ हैं सब
यंत्र धोखेबाज़ हैं सब
छिन चुके वरदान सारे
किस क़दर मोहताज हैं सब
हद हुई है पार, बाग़ी हो गया मौसम
नीलकंठी हो गए हैं हम
अब प्रकृति के देवता को पूज लेंगे तो बचेंगे
जो मिटाया है उसे फिर से रचेंगे तो बचेंगे
साज हैं पर स्वर नहीं हैं
राह है रहबर नहीं हैं
विष पचाकर जी सकेंगे
हम कोई शंकर नहीं हैं
रुद्र का आह्वान कर लें, द्वार पर है यम
नीलकंठी हो गए हैं हम
© चिराग़ जैन
Friday, November 2, 2018
वो निर्णय किस काम का
Tuesday, October 30, 2018
आँसू की आवाज़
क्या तुमने भी महसूसा है, एकाकी हो जाना जग में
क्या तुमने जी भर भोगा है, सब अपने खो जाना जग में
क्या तुमने भी भावुकता को लुट कर मरते देख लिया है
क्या तुमने भी अपनेपन का रंग उतरते देख लिया है
क्या तुमने भी जान लिया है अपने ही घर में शकुनी है
क्या तुमने भी तन्हाई में, आँसू की आवाज़ सुनी है
सच बतलाओ क्या तुमने भी चेहरा देखा है रिश्तों का
मुरझाने के बाद कभी क्या सेहरा देखा है रिश्तों का
क्या तुमने भी हर उत्सव के अगले पल सन्नाटा झेला
दिल के व्यापारों का दुनिया की मंडी में घाटा झेला
कोमलता की देह धुने बिन किन कंधों की शॉल बुनी है
क्या तुमने भी तन्हाई में, आँसू की आवाज़ सुनी है
© चिराग़ जैन
Wednesday, October 24, 2018
हर सम्भव के साधन हैं
हिम्मत की पाँखें कुम्हलाईं
संघर्षों की तेज पवन ने
प्राणों की शाखें दहलाईं
इन सारे झंझावातों से लोहा लिया ज़मीर ने
अमृत सोख लिया रावण का राघव के इक तीर ने
राजतिलक की शुभ वेला में राघव को वनवास मिला
स्वर्ण जड़ित आभूषण उतरे, जंगल का संत्रास मिला
लक्ष्मण, वैदेही, रघुराई
और न कोई संग सहाई
इतनी पीर सही तीनों ने
विधिना की आँखें भर आईं
फिर भी कब आँसू छलकाए, पुरुषोत्तम रघुबीर ने
अमृत सोख लिया रावण का राघव के इक तीर ने
किष्किंधा के द्वार खुले थे, किन्तु न नगर प्रवेश किया
निज अनुशासन की सीमा में, जीवन सकल निवेश किया
रघुकुल रीति सदा चलि आई
प्राण जाएँ पर वचन न जाई
दशकंधर से लंका जीती
और विभीषण को लौटाई
तीरों से कब मोह किया है, वीरों के तूणीर ने
अमृत सोख लिया रावण का राघव के इक तीर ने
हर चर्चा का सार बने हैं, जन-जन के अभिवादन हैं
आशा का आधार बने हैं, हर सम्भव के साधन हैं
केवट ने ली जो उतराई
शबरी जो झोली भर लाई
जो पूंजी जोड़ी रघुपति ने
उसकी चमक युगों पर छाई
सबकी दौलत ओछी कर दी, राघव की जागीर ने
अमृत सोख लिया रावण का राघव के इक तीर ने
© चिराग़ जैन
Tuesday, October 23, 2018
घर उससे नाराज़ रहा है
जिसके फूलों की ख़ुश्बू ने घर का हर कोना महकाया
उसके सूखे पत्तों पर झल्लाना एक रिवाज़ रहा है
जिस नदिया ने जीवन सींचा, वो बरसातों में अखरेगी
बारिश का मौसम बीता तो, छतरी हमको बोझ लगेगी
जिन अपनों के बिन जी पाना इक पल भी दूभर लगता है
जब वे अपने मर जाते हैं, तब उनसे ही डर लगता है
ऋतुओं के संग आँख बदलना, सबका सहज मिजाज़ रहा है
जब उस पर पतझर आया तो घर उससे नाराज़ रहा है
प्यास न हो तो पानी भूले, भूख न हो तो रोटी भूले
मन से बचपन बीत गया तो, व्यर्थ लगे सावन के झूले
बचपन में कुछ खेल-खिलौने, यौवन में दिल का नज़राना
फिर घर भर की ज़िम्मेदारी, फिर बिन कष्ट सहे मर जाना
जितनी देर ज़रूरत जिसकी, उतनी देर लिहाज रहा है
जब उस पर पतझर आया तो, घर उससे नाराज़ रहा है
मन के छोटे से झोले में सब कुछ ढोना नामुम्किन है
यादों की डोरी में सबके नाम पिरोना नामुम्किन है
जिससे जितनी साँसें महकी, उससे उतनी प्रीत रही है
रात अंधेरा, भोर उजाला, ये ही जग की रीत रही है
जैसा है अंजाम किसी का कब वैसा आगाज़ रहा है
जब उस पर पतझर आया तो घर उससे नाराज़ रहा है
© चिराग़ जैन
तुलसी बाबा के वंशज
मेले, गाँव, गली, चौबारे, संसद, देश, विदेश विचरते
चिंता की त्यौरी पिघलाकर, ओंठों पर मुस्कानें धरते
एक ठहाके के जादू से पीड़ा को ग़ायब कर देते
हर अंधियारे की झोली में आशा का सूरज धर देते
नयन भिगोकर लिखने वाले, हँसते-हँसते गाने वाले
तुलसी बाबा के वंशज हैं, हम मंचों पर जाने वाले
जब पापी ने दुःसाहस कर भारत माँ पर आँख उठाई
हमने शोणित में साहस का ज्वार उठाती कविता गाई
हमने आगे बढ़कर टोका शासन की हर मनमानी को
हमने सच का दर्पण सौंपा सत्ता की खींचातानी को
यौवन को सरसाने वाले, उत्सव रोज़ मनाने वाले
तुलसी बाबा के वंशज हैं, हम मंचों पर जाने वाले
जैसे श्रोता हों, कविता का वैसा रूप बना लेते हैं
नवरस की मथनी से मथकर, मन तक रस छलका देते हैं
कविता, गीत, लतीफ़े, जुमले, हम हर शस्त्र चला लेते हैं
जिस शैली में सुनना चाहो, उस शैली में गा लेते हैं
कानों के दरवाज़े घुसकर, सीधे मन पर छाने वाले
तुलसी बाबा के वंशज हैं, हम मंचों पर जाने वाले
© चिराग़ जैन
Sunday, October 21, 2018
लक्ष्मण-मूर्च्छा
वानर कोलाहलहीन हुए, रण में सन्नाटा पैंठ गया
बिन शेषनाग धरती ठहरी, वृक्षों का तन निस्पन्द हुआ
नभचर अवाक्, जलचर प्रस्तर, सागर का गर्जन बन्द हुआ
सारी वसुधा गतिहीन हुई, राघव मन में भूचाल रहा
लक्ष्मण जैसा भाई खोकर, मैं क्या हासिल कर पाऊंगा
माता को क्या बतलाऊंगा, उर्मिल को क्या समझाऊंगा
यह जगत् मुझे धिक्कारेगा, पत्नी पाई, भाई खोया
भाई के तन से लिपट-लिपट, राघव का रोम-रोम रोया
ओ समय! तनिक पीछे हो जा, मुझको आगे हो जाने दे
लक्ष्मण का जीवन लौटा दे, मेरा जीवन खो जाने दे
रघुकुल का सूरज डूब रहा, आशा का इंदु नहीं निकला
कुछ अहित करेगा इन्द्रजीत, मेरा सन्देह सही निकला
निज भाग्य पीट बिलखे राघव, सारा यश चकनाचूर हुआ
जिसने सबके संकट काटे, वह किंकर्तव्यविमूढ़ हुआ
जिस घर से आया है संकट, उसमें ही खोजो समाधान
व्याकुल अन्तर्मन शान्त हुआ, अनुभव की बाँच गया पोथी
सुग्रीव न राह सुझाता तो बाली पर विजय नहीं होती
अन्धियारे का आसन डोला, उग गया आस का अंशुमान
श्रीराम विभीषण से बोले -"हे मित्र, सुझाओ कुछ निदान"
इस पल में मैं हूँ व्यथाग्रस्त, भाई पर संकट बना हाय!
तुम हो विवेक से युक्त मित्र, तुम ही खोजो कोई उपाय
अपनी निष्ठा दिखलाने का, अवसर कब मिलता बार-बार
रावण की लंका ने मेरा, पल-पल केवल अपमान किया
इस मर्यादा पुरुषोत्तम ने, अरि-भ्राता को सम्मान दिया
मैं यहाँ नहीं टिक पाया तो, मेरा जग में कुछ ठौर नहीं
लक्ष्मण के प्राण बचा लूँ तो, फिर कठिन परीक्षा और नहीं
लंका के वैद्य सुषेण मात्र, कर सकते इस दुःख का निदान
किस बूटी में क्या औषधि है, किस पीड़ा का है क्या उपाय
वह आयुर्विज्ञ मरे को भी, यम के हाथों से छीन लाय
सुनते ही हनुमत दौड़ गए, आशाओं पर लाली छाई
जिस कुटिया में थे वैद्यराज, वह लंका से उड़ कर आई
पर बिन बोले ही जान गए, अरि को संकट ने घेरा था
आपातकाल में मर्यादा, तज देना भी न्यायोचित है
मेरे हित धर्म वही है बस, जिसमें इक रोगी का हित है
यह शत्रुभाव, यह कूटनीति, इन सबसे मेरा क्या पड़ता
नाड़ी से परिचय करता हूँ, कुल-जाति नहीं पूछा करता
करुणा का पोथा पढ़ा गए, रण में संलिप्त खिलाड़ी को
बोले सुदूर उत्तर दिशि में, इक द्रोणाचल गिरि है महान
केवल उस पर मिल सकता है, इस महाव्याधि का समाधान
मंगवा पाओ, तो मंगवा लो, अपने भाई के प्राण राम
द्रोणाचल की बूटी है वह, उसका है संजीवनी नाम
उस बूटी को लाना होगा, घट श्वास रीतने से पहले
संजीवन इसे सुंघा देना, पर रात बीतने से पहले
जैसे सूने गिरि-कानन में, केहरि की विकट दहाड़ चले
कह गए, अभी ले आता हूँ, लक्ष्मण का दुःख पुग जाएगा
जब तक उपचार न हो जाए, सूरज कैसे उग जाएगा
उड़ चले पवनसुत मनगति से, द्रोणाचल पर्वत पर आए
इस दुविधा में बजरंगी ने, वह कार्य किया अगले ही पल
धरती अवाक, अम्बर अवाक, टापता रह गया द्रोणाचल
प्रण-शक्ति बदलती है कैसे, पौरुष से विधिना का लेखा
मन में इच्छाबल जाग उठे, फिर क्या धरती, कैसा अम्बर
पर्वत को रखा हथेली पर, ला टेक दिया सागर-तट पर
आनन्द रत्न उद्घटित हुआ, रघु-लोचन के रत्नाकर से
सूरज ने आँखें खोलीं तो, रह गईं खुली की खुली आज
ठिठका रह गया अर्क नभ में, भूला गति का निज कामकाज
जैसा उसने कल छोड़ा था, उससे परिदृश्य विभिन्न मिला
राघव का शोक अदृश्य हुआ, लंका का उत्सव खिन्न मिला
जो वीर पराजित छोड़ा था, वह मृत्यु विजय कर जीवित था
कल शाम विजेता था जो भट, वह घर बैठा अपमानित था
रघुदल का प्रांगण शांत मिला, वात्सल्य-बोध से पगा हुआ
Sunday, October 14, 2018
रामजी के काम का लिहाज
रामजी के काम का लिहाज भी नहीं रहा
वक़्त का स्वभाव बड़ा बेवफ़ा-सा है हुजूर
हमेशा किसी का परवाज़ भी नहीं रहा
रावण का दंभ धूल में मिला है बार बार
घर भी न रहा, राजकाज भी नहीं रहा
सच से नहीं है कोई नाता राजनीति का जी
कल भी नहीं था और आज भी नहीं रहा
© चिराग़ जैन
Ref : Manoj Tiwari created a scene when someone ask him to sing a Ramayana Chaupai on stage.
इश्क़-मुहब्बत
इश्क़ मुहब्बत वाले भी नुक़सानों से डरते हैं क्या
रोज़ी-रोटी के पचड़ों में उम्र गँवाने वाले लोग
दिल की भाषा भूल चुके हैं अक्ल चलाने वाले लोग
पैसा-पैसा करते इन नादानों से डरते हैं क्या
इश्क़ मुहब्बत वाले भी नुक़सानों से डरते हैं क्या
लानत की कुछ फिक्र नहीं है, तारीफ़ों की चाह नहीं
दुनिया वाले क्या सोचेंगे अब इसकी परवाह नहीं
कभी-कभी आने वाले मेहमानों से डरते हैं क्या
इश्क़ मुहब्बत वाले भी नुक़सानों से डरते हैं क्या
एक झलक पर दुनिया को कुर्बान किया जा सकता है
सब कुछ खोकर मिलने का अरमान जिया जा सकता है
दिल की सुनने वाले हम धनवानों से डरते हैं क्या
इश्क़ मुहब्बत वाले भी नुक़सानों से डरते हैं क्या
इश्क़ बरसता है तो हर मौसम सावन हो जाता है
प्यार अगर सच्चा हो तो फिर मन पावन हो जाता है
ईटू-मीटू जैसे इन अभियानों से डरते हैं क्या
इश्क़ मुहब्बत वाले भी नुक़सानों से डरते हैं क्या
© चिराग़ जैन
Friday, October 12, 2018
एक घड़ी की परछाई
हर उजियारे पर भरी है, एक घड़ी की परछाई
कैसे वर मांगे कैकयी ने, सिंहासन से राम छिने
काया से जीवन छीना है, आशा से आयाम छिने
नगर समूचा वन जैसा है, यश-वैभव वनवासी है
जिसने सबकी ख़ुशियाँ छीनीं, उसके द्वार उदासी है
भोली रानी ख़ुद की करनी, ख़ुद भी मेट नहीं पाई
एक ठहाका पांचाली का पूरे युग पर भार बना
एक वचन ही पूरे युग की चीखों का आधार बना
पुत्र गँवाए, लाज लुटाई, घर छूटा, वनवास सहा
एक ठहाके के बदले में जीवन भर संत्रास सहा
इतने पर भी कब संभव है, उस इक पल की भरपाई
एक घड़ी आवेश न आता, गणपति मानवमुख रहते
एक घड़ी अमृत न छलकता, सूरज-चांद न दुख सहते
एक घड़ी का दंभ न होता, वंश दशानन क्यों खोता
एक घड़ी चौसर टल जाती, युग वीरों पर क्यों रोता
ईश्वर से भी कब टल पाई, एक घड़ी वह दुखदाई
हर उजियारे पर भारी है, एक घड़ी की परछाई
© चिराग़ जैन
Tuesday, October 9, 2018
हंस की चाल
Sunday, September 30, 2018
सत्य के निशान
हर कथा में सत्य के निशान खोजते रहे
लोग जो परोपकार की मिसाल हो गए
दूसरों का दर्द ओढ़कर निहाल हो गए
उन प्रजातियों का ख़ानदान खोजते रहे
हर कथा में सत्य के निशान खोजते रहे
प्रीति की प्रतीतियों में लीन राधिका हुई
प्रेम की हवाओं में विलीन साधिका हुई
ज्ञानवान प्रीति के प्रमाण खोजते रहे
हर कथा में सत्य के निशान खोजते रहे
गौण हो गईं तमाम नीतियाँ ज़मीन पर
सत्य का असर हुआ न न्याय की मशीन पर
सुर्ख़ियों में रोज़ संविधान खोजते रहे
हर कथा में सत्य के निशान खोजते रहे
कर्मशील, भाग्यवान से परास्त हो गया
योग युद्ध का बना, तभी नसीब सो गया
तीर हाथ में रहा, कमान खोजते रहे
हर कथा में सत्य के निशान खोजते रहे
© चिराग़ जैन
Saturday, September 29, 2018
विवेक तिवारी बनाम राजनीति
Wednesday, September 26, 2018
समय का बारदाना
भूमि में पहिया धँसेगा
शाप सब पिछले डसेंगे
पार्थ नैतिकता तजेंगे
उस घड़ी तक जूझने का भ्रम निभाना है
सब समय का बारदाना है
नीतियों का ढोंग करतीं, सब सभाएँ मौन होंगी
न्याय की बातें बनातीं मन्त्रणाएँ मौन होंगी
जब प्रणय को भूलकर राघव निरे राजा बनेंगे
तब सिया के गीत गातीं प्रार्थनाएँ मौन होंगी
जो सदा रक्षक रहा हो
पुत्रवत सेवक रहा हो
उस लखन ने ही वनों में छोड़ आना है
सब समय का बारदाना है
द्यूत के उपरांत लज्जित शौर्य का वैभव रहेगा
श्वास ज्वाला में दहकता वीरता का शव रहेगा
व्यूह की रचना करेंगे द्रोण जब भीषण समर में
व्यूह भेदन का पुरोधा पार्थ तब ग़ायब रहेगा
आँख से आँसू झरेंगे
घात सब अपने करेंगे
अर्जुनों को बाद में बदला चुकाना है
सब समय का बारदाना है
ज़िन्दगी के हर मिलन का, हर विरह का क्रम नियत है
बाण की शैया मिलेगी या मधुर रेशम, नियत है
सब नियत है कब कहाँ किसको दबोचेगी पराजय
कब कहाँ उत्सव मनेगा, कब कहाँ मातम नियत है
न्याय का उपहास तय है
राम का वनवास तय है
कैकयी का कोप तो कोरा बहाना है
सब समय का बारदाना है
© चिराग़ जैन
Sunday, September 23, 2018
अस्तित्वों का महासमर
दुनियादारी क्या है, केवल अस्तित्वों का महासमर है
जब तक सम्भव हो तब तक ये श्वास चलाने को ज़िन्दा हैं
तन को इंधन दे पाएँ, बस भूख मिटाने को ज़िन्दा है
शायद कुछ ऐसा कर जाएँ, दुनिया जिसको याद रखेगी
जीवन भर का जीवन जीकर, फिर मर जाने को ज़िन्दा हैं
कुछ लोगों का तन जर्जर है, कुछ लोगों का मन जर्जर है
दुनियादारी क्या है, केवल अस्तित्वों का महासमर है
सबको ऐसा भ्रम होता है, हम जग में अपवाद बनेंगे
अब तक मौन रही है दुनिया, फिर भी हम संवाद बनेंगे
लेकिन माली जान रहा है, बगिया के हर इक बिरवे को
सब कोंपल बनकर जन्मेंगे, मर जाने पर खाद बनेंगे
कब खिलना है, कब मुरझाना यह भी ऋतुओं पर निर्भर है
दुनियादारी क्या है, केवल अस्तित्वों का महासमर है
सबकी इतनी सी चाहत है, सुख का कुछ सामान जुटा लें
आँख मिली है सपने पालें, कण्ठ मिला है शोर मचा लें
एक ज़रा सी भूल हमारे है को है से थे कर देगी
ऐसे-वैसे जैसे भी हो, हम अपना अस्तित्व बचा लें
उस जीवन पर मुग्ध सभी हैं, जो पहले दिन से नश्वर है
दुनियादारी क्या है, केवल अस्तित्वों का महासमर है
© चिराग़ जैन
Saturday, September 22, 2018
स्त्री तुम कल आना
Tuesday, September 18, 2018
अनूप जलोटा का निजी जीवन
Sunday, September 16, 2018
आशाओं पर आघात
पत्ते झर जाना निश्चित था
हरियाली की आशाओं पर, बादल ने आघात करा है
आँगन में जो ठूठ खड़ा है, वो सावन के हाथ मरा है
दुःशासन ने चीर हरा तो ठीक समय आ पहुँचे माधव
भीष्म काल बनकर बरसे तो तोड़ प्रतिज्ञा पहुँचे माधव
एकाकी होकर जूझा अभिमन्यु अकेला षड्यंत्रों से
आस रही होगी उसको भी, माधव के अभिनव तंत्रों से
उसका घिर जाना निश्चित था
भू पर गिर जाना निश्चित था
पर उस दिन जो वीर मरा है, उम्मीदों के साथ मरा है
आँगन में जो ठूठ खड़ा है, वो सावन के हाथ मरा है
जिस रानी ने जर्जर रथ की कील बना दी अपनी उंगली
दशरथ के रथ के पहिये के बीच फँसा दी अपनी उंगली
अंतर कभी नहीं रखती हो जो सौतन की संतानों में
ऐसी रानी रूठ गई तो क्या मांगेगी वरदानों में
राघव को वनवास; असंभव
रघुकुल को संत्रास; असंभव
पहले यह विश्वास मरा है, दशरथ उसके बाद मरा है
आँगन में जो ठूठ खड़ा है, वो सावन के हाथ मरा है
© चिराग़ जैन
Saturday, September 8, 2018
मंज़िल
उससे केवल चार क़दम पर मंज़िल का दरवाज़ा है
© चिराग़ जैन
Friday, September 7, 2018
वृंदावन की याद
फिर भी कान्हा को रह-रह कर वृंदावन की याद आती है
सोने-चांदी में भरकर जब इत्र बरसता है राहों में
मन को गोकुल के सीधे-सादे सावन की याद आती है
जब राजा के सैनिक घर से सारा माखन ले जाते थे
हम पानी के साथ चने खाकर तकते ही रह जाते थे
मजबूरी के तूफ़ानों में सारी मेहनत खो जाती थी
सारे घर की रोटी पोकर, माँ भूखी ही सो जाती थी
जब मक्खन की पूरी टिकिया फिंकने लगती है जूठन में
छींके की हाण्डी में पसरे रीतेपन की याद आती है
अनुशासन की याद दिलाने, बाबा की आहट काफ़ी थी
मर्यादा का पाठ पढ़ाने को घर की चैखट काफ़ी थी
औरों के दिल घायल कर दें, ऐसे जुमले याद नहीं थे
रास रचाते थे जी भर कर पर मन में अपराध नहीं थे
जब चैसर पर मर्यादा की सब सीमाएँ लाँघी जाएँ
गुल्ली-डण्डे से बहलाते उस बचपन की याद आती है
इस महफ़िल में ऐसे कपड़े, उस महफ़िल में वैसे कपड़े
आँखों से लज्जा ग़ायब है, तन पर कैसे-कैसे कपड़े
मन पर चिन्ताएँ हावी हों पर फिर भी मुस्काना होगा
हर जलसे में, हर महफ़िल में रस्म निभाने जाना होगा
जब नियमों की सीमाओं में इच्छाएँ घुँटने लगती हैं
बचपन के सँग पीछे छूटे पागलपन की याद आती है
© चिराग़ जैन
Sunday, September 2, 2018
कृष्ण हो पाना कठिन है
बल जुटा लो तो सभी से बात मनवाना कठिन है
तर्जनी पर न्याय ठहराना कठिन है रे।
कृष्ण हो पाना कठिन है रे।
हर किसी की पीर का संज्ञान होना खेल है क्या
शब्दहीना आस का अनुमान होना खेल है क्या
प्रश्न, जिज्ञासा, शिक़ायत ही मिलें सबके नयन में
कृष्ण से पूछो कभी; भगवान होना खेल है क्या
हर किसी का द्वंद सुलझाना कठिन है रे।
कृष्ण हो पाना कठिन है रे।
रीतना है देवकी के भ्रातृसुख का कोष तुम पर
और राधा की अधूरी प्रीत का है दोष तुम पर
शांति का हर यत्न तुम करते रहे हो; किन्तु फिर भी
हर नपूती माँ उतारेगी विकट आक्रोश तुम पर
शाप पाकर ओंठ फैलाना कठिन है रे।
कृष्ण हो पाना कठिन है रे!
सृष्टि का हित ध्यान रक्खा, शेष बंधन तोड़ आए
जो हृदय को ढांप पाए, वस्त्र ऐसा ओढ़ आए
किस तरह अपनी सभी संवेदनाएँ मौन कर लीं
जो तुम्हारा मन समझती थी, उसे तुम छोड़ आए
प्रीत से मुख मोड़ कर जाना कठिन है रे।
कृष्ण हो पाना कठिन है रे।
© चिराग़ जैन
Friday, August 31, 2018
जीत कर पछता रहे हैं
दृश्य कितने ही मनोरम, कल्पना के स्पर्श में थे
स्वप्न जबसे सच हुआ, उकता रहे हैं हम
जीत कर पछता रहे हैं हम
जब हमें हासिल न थी, मंज़िल लुभाती थी निरन्तर
बाँह फैलाए हमें हँसकर बुलाती थी निरन्तर
पर पहुँच कर जान पाए, है निरी रसहीन मंज़िल
राह गति की सहचरी है, हलचलों से हीन मंज़िल
हम सरीखे युग-विजेता हर जगह बिखरे पड़े हैं
हम स्वयं को ही बड़ा समझे, यहाँ कितने बड़े हैं
हर किसी की कीर्ति गाथा से हुई है त्रस्त मंज़िल
हर घड़ी तोरण सजाए, स्वागतों में व्यस्त मंज़िल
राह के जिस मोड़ से गुज़रे वहाँ बाक़ी रहे हम
किन्तु मंज़िल पर पहुँचकर नित्य एकाकी रहे हम
रास्तों को याद अब भी आ रहे हैं हम
जीत कर पछता रहे हैं हम
याद आता है दशानन किस तरह टूटा हुआ था
याद है अभिमान का हर एक प्रण झूठा हुआ था
गूँजता है कान में वह युद्ध का जयघोष भीषण
याद सागर को रहेगा राम का आक्रोश भीषण
क्या ज़माना था हमारे नाम से पत्थर तिरे थे
मौत से टकरा गए सब यार अपने सिरफिरे थे
प्रेम मीठे बेर चखकर रोज़ रखता था, समय था
वाटिका में प्रीत का बूटा महकता था, समय था
हम अगर छू लें, शिलाएँ बोल उठती थीं, समय था
नाम भर से पापियों की श्वास घुटती थी, समय था
जंगलों में भी कभी सत्कार होता था, समय था
हम जिधर भी चल दिये, त्यौहार होता था, समय था
मन पुरानी याद से बहला रहे हैं हम
जीत कर पछता रहे हैं
हम खड़े थे साथ जिसके, जय उसी के द्वार आई
हर प्रखर संकल्प अपना सृष्टि हम पर वार आई
शास्त्र को छूकर न जाना, पर महाभारत लड़ा था
युद्ध के मैदान में भी धर्म का पोथा पढ़ा था
काज जो सम्भव नहीं थे, वो हमीं ने कर दिखाए
पर्वतों की ओट लेकर इंद्र को ललकार आए
कालिया के दाह में हम कूद जाते थे अकेले
खेल में सुलझा दिए थे, विश्व के कितने झमेले
मित्रता की रीत के प्रतिमान हम ही ने गढ़े हैं
और पावन प्रीत के उपमान हम ही ने गढ़े हैं
बाँसुरी की तान पर यौवन थिरकता था हमीं से
जब सुदर्शन धार लें तो पाप कँपता था हमीं से
पदकमल से व्याल को भरमा रहे हैं हम
जीत कर पछता रहे हैं हम
सुख का आमंत्रण
जब-जब कंचन मृग देखा है, तब-तब इक रावण आया है
ईश्वर का अवतार जना है, माता को अभियोग मिलेगा
कान्हा जैसा लाल मिला है, आगे पुत्रवियोग मिलेगा
नारायण के बालसखा ने निर्धनता के कष्ट सहे हैं
वंशी के रसिया जीवनभर, समरांगण में व्यस्त रहे हैं
राधा के जीवन में दुख से पहले वृंदावन आया है
जब-जब कंचन मृग देखा है, तब-तब इक रावण आया है
वरदानों का सुख पाया तो, सुख का फल अभिशाप हुआ है
तप का पुण्य कुमारी कुंती के जीवन का पाप हुआ है
जो शाखा फैली है उसने कट जाने की पीर सही है
अर्जुन जैसा वर पाया, फिर बँट जाने की पीर सही है
पहले रानी बनने का सुख, पीछे चीरहरण आया है
जब-जब कंचन मृग देखा है, तब-तब इक रावण आया है
सुख के पीछे दुख आएगा, हर क़िस्से का सार यही है
जितनी घाटी, उतनी चोटी, पर्वत का विस्तार यही है
यौवन आने का मतलब है, आगे तन जर्जर होना है
जिस धारा ने निर्झर देखा, अब उसको मंथर होना है
नदियों में ताण्डव उफना है, जब घिरकर सावन आया है
जब-जब कंचन मृग देखा है, तब-तब इक रावण आया है
© चिराग़ जैन
Wednesday, August 29, 2018
उम्मीदों की राह चला हूँ
उम्मीदों की राह चला हूँ, मैं ख़ुशियों के घर पहुँचूँगा
थक कर टूट नहीं सकता हूँ, मुझको श्रम का अर्थ पता है
बढ़ने की इच्छा कर देगी, हर मुश्क़िल को व्यर्थ पता है
मेरे हाथों की रेखाओं में इतनी कठिनाई क्यों है
निश्चित मानो, भाग्य विधाता को मेरा सामर्थ पता है
पीड़ा को उत्सव कर लूँगा, आँसू को गाकर पहुँचूँगा
उम्मीदों की राह चला हूँ, मैं ख़ुशियों के घर पहुँचूँगा
मेरे मग में संघर्षों के ठौर न आएँ; नामुम्किन है
अपना बनकर ठगने वाले और न आएँ; नामुम्किन है
फिर भी हर पतझर को पानी देता हूँ, विश्वास मुझे है
फाग उड़े और अमराई पर बौर न आए; नामुम्किन है
हर आँधी से जूझ रहा हूँ, हर सावन जीकर पहुँचूँगा
उम्मीदों की राह चला हूँ, मैं ख़ुशियों के घर पहुँचूँगा
जो औरों पर लद जाता हो, मैं ऐसा क़िरदार नहीं हूँ
अपमानित होकर मुस्काऊँ, इतना भी लाचार नहीं हूँ
जितने डग नापूंगा, उतनी धरती मेरे नाम रहेगी
अपने पैरों पर चलता हूँ, बैसाखी पर भार नहीं हूँ
जितना पहुँचूँगा अपने ही पैरों पर चलकर पहुँचूँगा
उम्मीदों की राह चला हूँ, मैं ख़ुशियों के घर पहुँचूँगा
© चिराग़ जैन
Monday, August 27, 2018
ज्ञान की सजावट
Saturday, August 25, 2018
आसान नहीं है कविता लिखना
Thursday, August 16, 2018
अटल बिहारी वाजपेयी जी के महाप्रयाण पर
Wednesday, August 15, 2018
अंतरिक्ष में क्या मिलेगा
मोदी जी बोले - 'मेरी बातें'!
© चिराग़ जैन
ये संसार रहेगा
हम सब कुछ दिन बाद न होंगे, लेकिन ये संसार रहेगा
सन्नाटे से शोर उगेगा, शोर पुनः सन्नाटा होगा
मंदी होगी, तेज़ी होगी, लाभ रहेगा, घाटा होगा
सारे सौदागर मर जाएँ, फिर भी ये बाज़ार रहेगा
हम सब कुछ दिन बाद न होंगे, लेकिन ये संसार रहेगा
स्वप्न यही होंगे नयनों में, लेकिन नयन बदल जाएंगे
अर्थ यही होंगे बातों के, लेकिन कथन बदल जाएंगे
आज हमारे मन में है जो, यह ही शेष विचार रहेगा
हम सब कुछ दिन बाद न होंगे, लेकिन ये संसार रहेगा
हम जलकण हैं लहरों में मिल, थोड़ा-बहुत बहल जाएंगे
सागर ऐसे ही गरजेगा, हम बादल में ढल जाएंगे
हर पल कुछ लहरें टूटेंगीं, पर सागर में ज्वार रहेगा
हम सब कुछ दिन बाद न होंगे, लेकिन ये संसार रहेगा
हर त्रेता में कलयुग होगा, हर कलयुग में त्रेता होगा
हर युग में इक श्रवण रहेगा, हर युग में नचिकेता होगा
उत्तर भी बहुतायत होंगे, प्रश्नों का अंबार रहेगा
हम सब कुछ दिन बाद न होंगे, लेकिन ये संसार रहेगा
© चिराग़ जैन
Sunday, August 12, 2018
कौन क़तरा है
प्यार कितना है, ये पैसा नहीं साबित करता
बस यही बात उसे सबसे बड़ा करती है
वो किसी शख़्स को छोटा नहीं साबित करता
ख़ुद ही दिख जाती है परबत की बुलन्दी सबको
ख़ुद को आकाश भी ऊँचा नहीं साबित करता
सच तो अपनी ही हक़ीक़त बयान करता है
वो किसी और को झूठा नहीं साबित करता
सबको आगोश में भर लेता है आगे बढ़कर
कौन क़तरा है, ये दरिया नहीं साबित करता
रौशनी कितनी है ये बात बताता है ’चिराग़’
कितना गहरा था अंधेरा, नहीं साबित करता।
© चिराग़ जैन
Saturday, August 11, 2018
हाल-ए-हक़ीक़त
सवेरे हाल-ए-हक़ीक़त बता के छोड़ दिया
शिकस्त मुझसे बढ़ा देती दुश्मनी उसकी
उसे शिकस्त के नज़दीक ला के छोड़ दिया
अब अपने सच की गवाही कहाँ-कहाँ दूँ मैं
बस उनके झूठ से पर्दा हटा के छोड़ दिया
ज़माना उसके तरन्नुम में क़ैद है अब तक
जो गीत मैंने कभी गुनगुना के छोड़ दिया
मुझे नसीब भला आज़मा के क्या देखे
उसे ही मैंने अभी आज़मा के छोड़ दिया
वो सुर्ख़ हो गयी मेरी ज़रा-सी ज़ुर्रत से
फिर उसने हाथ मेरा मुस्कुरा के छोड़ दिया
© चिराग़ जैन
Tuesday, August 7, 2018
दिल्ली की व्यवस्था
Sunday, August 5, 2018
हौसला सलामत है
फिर बहार लाने का हौसला सलामत है
घर उजड़ गया उसका, उम्र कट गई सारी
जिसके हक़ में मुंसिफ़ का फ़ैसला सलामत है
इल्म भी नहीं होगा उड़ चुके परिंदों को
एक ठूंठ पर उनका घोंसला सलामत है
काट ली सज़ा जिसकी, हो चुका बरी जिससे
आज भी मेरे दिल में वो ख़ता सलामत है
मुद्दतों से चूल्हे की रोटियाँ नहीं खाईं
पर अभी ज़ुबां पर वो ज़ायक़ा सलामत है
© चिराग़ जैन
हारने का डर
कौन लेकिन बाग़बां का हौंसला ले जाएगा
हो गए बर्बाद तो फिर जश्न होना चाहिए
देखते हैं वक़्त हमसे और क्या ले जाएगा
जीतने की चाह छोड़ी, अब निभाकर दुश्मनी
हारने का डर मेरा दुश्मन लिवा ले जाएगा
दस्तख़त बेटे की ज़िद पे कर के बूढ़े ने कहा-
“क्या लुटा सकता था मैं, तू क्या लिखा ले जाएगा“
इल्म वाले बस तकल्लुफ़ में फँसे रह जाएंगे
ज़िन्दगी की मौज कोई सिरफिरा ले जाएगा
© चिराग़ जैन
Friday, August 3, 2018
मरासिम
रूप मिल सकता है, यौवन नहीं जीता जाता
क्या मरासिम की रवायत में कोई ख़ामी है
तन लिवा लाते हैं पर मन नहीं जीता जाता
एक झोंके की छुअन से ही बरस जाता है
आंधियो! शोर से सावन नहीं जीता जाता
सामने वाले के एहसास पे हारो ख़ुद को
प्यार का खेल है, जबरन नहीं जीता जाता
हौसला बनके सदा साथ में चलना मेरे
रंग और रूप से साजन नहीं जीता जाता
मार डाला था उसे ख़ुद के अकेलेपन ने
तीर-तलवार से रावन नहीं जीता जाता
© चिराग़ जैन
देशगीत
सर्वोत्तम परिवेश हमारा
दुनिया का हर रंग यहाँ है
ऐसा अनुपम देश हमारा
आज़ादी के नग़मे गाकर, देशप्रेम की अलख जगाकर
स्वाभिमान हित जी लेते हैं, सिर्फ़ घास की रोटी खाकर
पल भर में तलवार हमारी हो सकती है खूं की प्यासी
पल भर में ही हो सकते हैं, शस्त्र त्यागकर हम सन्यासी
विष पीता अखिलेश हमारा
वज्र बना दरवेश हमारा
दुनिया का हर रंग यहाँ है
ऐसा अनुपम देश हमारा
ओज रुधिर में, रौद्र नयन में, रूप भयानक वैरी के हित
करुणा निर्दोषों के दुःख पर, पीठ बंधा वात्सल्य सुरक्षित
हमने सीखा ढंग से जीना, हमने सीखा ढंग से मरना
सुंदरता पर आँच हुई तो, हमने सीखा जौहर करना
शाश्वत सुख उद्देश हमारा
शांतिपरक निर्देश हमारा
दुनिया का हर रंग यहाँ है
ऐसा अनुपम देश हमारा
हम अनुनय की बोली बोलें, रस्ता मांगें हाथ पसारे
अभिमानी के लिए भरे हैं हमने आँखों में अंगारे
हम अपनी पर आ जाएँ तो सागर से अमृत चखते हैं
हम अपनी पर आ जाएँ तो पर्वत उंगली पर रखते हैं
सागर-सा आवेश हमारा
दास हुआ लंकेश हमारा
दुनिया का हर रंग यहाँ है
ऐसा अनुपम देश हमारा
मस्त फ़क़ीरों की धरती है, शांति-अहिंसा के अभिलाषी
वन्देमातरम गाते-गाते, रण में कूद पड़े संन्यासी
हमने सागर को लांघा है, पर्वत लेकर उड़े गगन में
एक वचन पूरा करने को, चैदह वर्ष बिताए वन में
सीधा-सादा वेश हमारा
प्रेम-त्याग संदेश हमारा
दुनिया का हर रंग यहाँ है
ऐसा अनुपम देश हमारा
आपस में लड़ते हैं तो क्या, दुःख में साथ खड़े होते हैं
हर मुश्किल के आगे हम ही, सीना तान अड़े होते हैं
जब संकट ने पाँव पसारे, जब भी कोई आफत आई
एक साथ मिलकर जूझे हैं, हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाई
शौर्य रहेगा शेष हमारा
मिट जाएगा क्लेश हमारा
दुनिया का हर रंग यहाँ है
ऐसा अनुपम देश हमारा
वनवासों को पूजा हमने, राजपाट हमने ठुकराया
जिससे मोह किया वो छूटा, जिसको त्याग दिया वो पाया
हम घर में रहकर वैरागी, हम वन में रहकर शासक हैं
योग-भोग दोनों के साधक, हम प्रियतम के आराधक हैं
मत मानो आदेश हमारा
पर समझो उपदेश हमारा
दुनिया का हर रंग यहाँ है
ऐसा अनुपम देश हमारा
© चिराग़ जैन
Thursday, August 2, 2018
इमरान खान के प्रधानमंत्री बनने पर
फाँसी, गोली, क़ैद, सज़ा यही मिलता है बस
निकलेगा आपका भी तेल चले जाओगे
खेल-खिलवाड़ नहीं ज़िन्दगी का दांव है ये
कस ली है नाक में नकेल चले जाओगे
कुछ रोज़ महलों का रंग ढंग देख लो जी
बाद में तो आप ख़ुद जेल चले जाओगे
भारत के वीर सैनिकों से सामना है अब
साज़िशें करीं तो नींबू से निचुड़ जाओगे
ज़्यादा फूल कर कोई भूल मत कर देना
इन्हें क्रोध आया तो वहीं सिकुड़ जाओगे
सैनिकों के साथ यदि मैच खेलने लगे तो
एक झटके में सबसे बिछुड़ जाओगे
बॉल छोड़ दी तो पाकिस्तान में धमाका होगा
बल्ले पे जो ली तो ख़ुद आप उड़ जाओगे
भारत से भूल के मुकाबला न कीजियेगा
आपके पीएम को दबोच लेंगे मोदी जी
आप जब तक शुरुआत भी नहीं करोगे
तब तक अंत को भी सोच लेंगे मोदी जी
लच्छेदार बातों के भरोसे मत रहिएगा
ताकते रहोगे ऐसी लोच लेंगे मोदी जी
नए पंछियों को कहिए कि घोंसले में रहें
उड़ने लगे तो पर नोच लेंगे मोदी जी
भारत की संसद की नींव न डिगा सकोगे
जनता को अभी संविधान पे भरोसा है
भूख के सवाल का जवाब खोज लेंगे हम
भारत को अपने किसान पे भरोसा है
आपस का सारा मतभेद भूल जाएंगे जी
राष्ट्रध्वज और राष्ट्रगान पे भरोसा है
दुश्मनों की साज़िशों से डरते नहीं हैं क्योंकि
सीमाओं पे जूझते जवान पे भरोसा है
© चिराग़ जैन
Wednesday, August 1, 2018
अटल विश्वास और अटूट विश्वास
Sunday, July 29, 2018
नीरज जी का प्रयाण उत्सव
Saturday, July 28, 2018
चंद्रग्रहण
कि बादल के आगोश से निकल कर
और ख़ूबसूरत लगता था चाँद
और बढ़ जाती थी उसकी चमक
जैसे किसी ने फेशियल कर दिया हो
प्यार का!
लेकिन कल रात
तमतमाया हुआ था चाँद का चेहरा
शोले टपक रहे थे उसकी आँखों से
क्योंकि कल रात
जिस साये ने जकड़ लिया था चाँद को
उसकी छुअन में प्यार नहीं
सिर्फ़ ज़िद्द थी
किसी नफ़रत
किसी चिढ़
या किसी जलन से भरी
.....एक वहशी ज़िद्द!
और ज़िद्द
मुँह तो काला कर सकती है
पर मन हरा नहीं कर सकती
मौसम ग़ुलाबी नहीं कर सकती!
Thursday, July 26, 2018
गुनाहों का एहतराम
काम यूँ झूठे दिखावे का हम तमाम करें
बाद मरने के क़सीदे तो पढ़ेंगे सब ही
लोग कुछ हों, जो हमें जीते जी सलाम करें
ज़ीस्त! हम कर चुके जो तेरे साथ करना था
मौत अब आ मरे तो उसका इंतज़ाम करें
इस तरह अक़्ल पे तारी हो नश्अ बोतल का
वाइज़ आए कोई मिलने तो राम-राम करें
हमने तहज़ीब में जिन-जिन से करी है तौबा
वो सारे काम करें, और सुब्हो-शाम करें
© चिराग़ जैन
Saturday, July 21, 2018
मेरे गीत उधार रहेंगे
आँसू की मनुहार रहेंगे
युग-युग तक सारी दुनिया पर, मेरे गीत उधार रहेंगे
जिन शब्दों से कर्ज़ा लेकर, भावों की झोली भरता था
रोते-रोते जिस पीड़ा के माथे पर रोली धरता था
उस पीड़ा का सार रहेंगे
भाषा का श्रृंगार रहेंगे
शब्दों की नश्वर काया में, प्राणों का संचार रहेंगे
युग-युग तक सारी दुनिया पर, मेरे गीत उधार रहेंगे
बातों में घुल-मिल जाएंगे, चैपालों की रंगत होंगे
एकाकी राहों पर चलते मौन पथिक की संगत होंगे
चिट्ठी का आधार रहेंगे
उत्सव का गलहार रहेंगे
माँ की मीठी लोरी होंगे, बाबा की फटकार रहेंगे
युग-युग तक सारी दुनिया पर, मेरे गीत उधार रहेंगे
घोर उदासी की सेना से जब अभिलाषा का रण होगा
मेरा गान प्रबल सहयोगी आशाओं का उस क्षण होगा
कोशिश पर बलिहार रहेंगे
और थकन पर वार रहेंगे
नफ़रत से तपती धरती पर, प्यार भरी रसधार रहेंगे
युग-युग तक सारी दुनिया पर, मेरे गीत उधार रहेंगे
© चिराग़ जैन
(श्री गोपालदास नीरज जी के निधन पर)
एक ख़ालिस कवि का जीवन
Thursday, July 19, 2018
गोपालदास नीरज जी के निधन पर
बस क्षोभ यही; इसमें अब वैसा नूर नहीं
ग़ज़लें बाक़ी हैं, गीत बचे हैं अनगिन पर
ये आज तुम्हारे स्वर सुख से भरपूर नहीं
तुम गीत नहीं रचते थे, जादू करते थे
दर्शन की देहरी पर श्रृंगार सजाते थे
रस की गगरी के चातक बड़े छबीले थे
शब्दों की टोली से कितना बतियाते थे
जब आज शाम मैंने सूरज को देखा था
वह लिए शरारत भरे नयन इतराता था
अब जाना उसकी इस इतराहट का मतलब
वह तुम्हें मनाकर साथ लिवाए जाता था
जग को लगता है यही कि ’नीरज’ मौन हुआ
दरअस्ल कारवाँ और बढ़ाने निकले हो
धरती की गोद हरी कर के कविताओं से
अब नभ भर को गीतिका सुनाने निकले हो
थक जाना या चुक जाना; वह भी ’नीरज’ का
मालूम नहीं जलवा नादान ज़माने को
महफ़िल-महफ़िल तुम स्वयं बताते फिरते थे
सदियाँ कम हैं ’नीरज’ की याद भुलाने को
© चिराग़ जैन
Wednesday, July 18, 2018
दो तरफ़ा पोषण
दो तरफ़ा पोषण से सींचें सीधे-सच्चे प्यार को
जब धरती ने हरियाली का रूप सजाना छोड़ दिया
तब अम्बर ने बादल लेकर आना-जाना छोड़ दिया
कोई तो आकर्षण मिलता सावन की बौछार को
दो तरफ़ा पोषण से सींचें सीधे-सच्चे प्यार को
दिन की हर तारीफ़ भुलाकर महक लुटाई रातों पर
ध्यान नहीं अटका ख़ुशबू का दुनिया भर की बातों पर
रातों ने होंठों से चूमा खिलते हरसिंगार को
दो तरफ़ा पोषण से सींचें सीधे-सच्चे प्यार को
सबके जीवन में दुनिया की थोड़ी तो मजबूरी है
फिर भी हर इक रिश्ते में थोड़ा सम्मान ज़रूरी है
कब तक मथुरा ठुकराएगा गोकुल की मनुहार को
दो तरफ़ा पोषण से सींचें सीधे-सच्चे प्यार को
© चिराग़ जैन
Sunday, July 15, 2018
सागर प्यासे छूट गए हैं
इस चर्चा में जाने कितने सागर प्यासे छूट गए हैं
कौन बताए तूफ़ानों से कैसे जूझा बूढ़ा बरगद
अंधा बनकर देख रहा था गिरते पेड़ जमूरा बरगद
उस बूढ़े का द्वंद समूचे समरांगण से बहुत बड़ा था
उसने भी तो अठारह दिन ख़ुद से भीषण युद्ध लड़ा था
किन्तु विजय का ताज पहनने बस कीकर के ठूँठ गए हैं
इस चर्चा में जाने कितने सागर प्यासे छूट गए हैं
घाटों तक पहुँची नदिया के गीत सुना देते हैं क़िस्से
पानी की हर इक हलचल को गरज बना देते हैं क़िस्से
जिससे प्यास धुली धरती की, उसकी कोई फ़िक्र नहीं है
जो खेतों में खेत हुई है, उस धारा का ज़िक्र नहीं है
बलिदानों के शव पर अवसरवादी चांदी कूट गए हैं
इस चर्चा में जाने कितने सागर प्यासे छूट गए हैं
राजतिलक पर जिन माँओं के नैन झरे; उनकी चर्चा हो
कायर के आगे अड़ कर जो वीर मरे; उनकी चर्चा हो
ये चर्चा हो युग केवल पाँचाली के आभारी क्यों थे
पाँचाली के केश, हिडिम्बा की ममता पर भारी क्यों थे
उन नयनों की पीड़ा गाओ, जिनसे सपने रूठ गए हैं
इस चर्चा में जाने कितने सागर प्यासे छूट गए हैं
© चिराग़ जैन
Saturday, July 14, 2018
वादा खि़लाफ़ी
मुक़द्दमा कर रहा है नदी पर
वादाखि़लाफ़ी का।
कहता है
मिलने का वादा करके
पहुँची ही नहीं
अब कोई प्रश्न नहीं है मुआफ़ी का।
नदी बेचारी
पर्वत की कृपणता
और मरुथल की वासना के बीच
बून्द-बून्द सिमटती रही
घाट-घाट घटती रही।
नदी के भीतर उग आई
सभ्यताओं ने
कठघरे में खड़ी नदी को
दोषी क़रार दिया
फ़ैसला सुनकर
पर्वत ने नदी से
मुँह फेर लिया
मरुथल ने उसके मुँह पर
धूल का तमाचा मार दिया।
और सागर...
...वह निरंतर
एक मीठी छुअन के अभाव में
मर रहा है
किसी नदी के वादा निभाने की
प्रतीक्षा कर रहा है।
© चिराग़ जैन